Hindi Best Stories : सासुजी हों तो हमारी जैसी

Hindi Best Stories : पत्नीजी का खुश होना तो लाजिमी था, क्योंकि उन की मम्मीजी का फोन आया था कि वे आ रही हैं. मेरे दुख का कारण यह नहीं था कि मेरी सासुजी आ रही हैं, बल्कि दुख का कारण था कि वे अपनी सोरायसिस बीमारी के इलाज के लिए यहां आ रही हैं. यह चर्मरोग उन की हथेली में पिछले 3 वर्षों से है, जो ढेर सारे इलाज के बाद भी ठीक नहीं हो पाया.

अचानक किसी सिरफिरे ने हमारी पत्नी को बताया कि पहाड़ी क्षेत्र में एक व्यक्ति देशी दवाइयां देता है, जिस से बरसों पुराने रोग ठीक हो जाते हैं.

परिणामस्वरूप बिना हमारी जानकारी के पत्नीजी ने मम्मीजी को बुलवा लिया था. यदि किसी दवाई से फायदा नहीं होता तो भी घूमनाफिरना तो हो ही जाता. वह  तो जब उन के आने की पक्की सूचना आई तब मालूम हुआ कि वे क्यों आ रही हैं?

यही हमारे दुख का कारण था कि उन्हें ले कर हमें पहाड़ों में उस देशी दवाई वाले को खोजने के लिए जाना होगा, पहाड़ों पर भटकना होगा, जहां हम कभी गए नहीं, वहां जाना होगा. हम औफिस का काम करेंगे या उस नालायक पहाड़ी वैद्य को खोजेंगे. उन के आने की अब पक्की सूचना फैल चुकी थी, इसलिए मैं बहुत परेशान था. लेकिन पत्नी से अपनी क्या व्यथा कहता?

निश्चित दिन पत्नीजी ने बताया कि सुबह मम्मीजी आ रही हैं, जिस के चलते मुझे जल्दी उठना पड़ा और उन्हें लेने स्टेशन जाना पड़ा. कड़कती सर्दी में बाइक चलाते हुए मैं वहां पहुंचा. सासुजी से मिला, उन्होंने बत्तीसी दिखाते हुए मुझे आशीर्वाद दिया.

हम ने उन से बाइक पर बैठने को कहा तो उन्होंने कड़कती सर्दी में बैठने से मना कर दिया. वे टैक्सी से आईं और पूरे 450 रुपए का भुगतान हम ने किया. हम मन ही मन सोच रहे थे कि न जाने कब जाएंगी?

घर पहुंचे तो गरमागरम नाश्ता तैयार था. वैसे सर्दी में हम ही नाश्ता तैयार करते थे. पत्नी को ठंड से एलर्जी थी, लेकिन आज एलर्जी न जाने कहां जा चुकी थी. थोड़ी देर इधरउधर की बातें करने के बाद उन्होंने अपने चर्म रोग को मेरे सामने रखते हुए हथेलियों को आगे बढ़ाया. हाथों में से मवाद निकल रहा था, हथेलियां कटीफटी थीं.

‘‘बहुत तकलीफ है, जैसे ही इस ने बताया मैं तुरंत आ गई.’’

‘‘सच में, मम्मी 100 प्रतिशत आराम मिल जाएगा,’’ बड़े उत्साह से पत्नीजी ने कहा.

दोपहर में हमें एक परचे पर एक पहाड़ी वैद्य झुमरूलाल का पता उन्होंने दिया. मैं ने उस नामपते की खोज की. मालूम हुआ कि एक पहाड़ी गांव है, जहां पैदल यात्रा कर के पहुंचना होगा, क्योंकि सड़क न होने के कारण वहां कोई भी वाहन नहीं जाता. औफिस में औडिट चल रहा था. मैं अपनी व्यथा क्या कहता. मैं ने पत्नी से कहा, ‘‘आज तो रैस्ट कर लो, कल देखते हैं क्या कर सकते हैं.’’

वह और सासुजी आराम करने कमरे में चली गईं. थोड़ी ही देर में अचानक जोर से कुछ टूटने की आवाज आई. हम तो घबरा गए. देखा तो एक गेंद हमारी खिड़की तोड़ कर टीवी के पास गोलगोल चक्कर लगा रही थी. घर की घंटी बजी, महल्ले के 2-3 बच्चे आ गए. ‘‘अंकलजी, गेंद दे दीजिए.’’

अब उन पर क्या गुस्सा करते. गेंद तो दे दी, लेकिन परदे के पीछे से आग्नेय नेत्रों से सासुजी को देख कर हम समझ गए थे कि वे बहुत नाराज हो गईर् हैं. खैर, पानी में रह कर मगर से क्या बैर करते.

अगले दिन हम ने पत्नीजी को चपरासी के साथ सासुजी को ले कर पहाड़ी वैद्य झुमरूलाल के पास भेज दिया. देररात वे थकी हुई लौटीं, लेकिन खुश थीं कि आखिर वह वैद्य मिल गया था. ढेर सारी जड़ीबूटी, छाल से लदी हुई वे लौटी थीं. इतनी थकी हुई थीं कि कोई भी यात्रा वृत्तांत उन्होंने मुझे नहीं बताया और गहरी नींद में सो गईं.

सुबह मेरी नींद खुली तो अजीब सी बदबू घर में आ रही थी.  उठ कर देखने गया तो देखा, मांबेटी दोनों गैस पर एक पतीले में कुछ उबाल रही थीं. उसी की यह बदबू चारों ओर फैल रही थी. मैं ने नाक पर रूमाल रखा, निकल कर जा ही रहा था कि पत्नी ने कहा, ‘‘अच्छा हुआ आप आ गए.’’

‘‘क्यों, क्या बात है?’’

‘‘कुछ सूखी लकडि़यां, एक छोटी मटकी और ईंटे ले कर आ जाना.’’

‘‘क्यों?’’ मेरा दिल जोरों से धड़क उठा. ये सब सामान तो आखिरी समय मंगाया जाता है?

पत्नी ने कहा, ‘‘कुछ जड़ों का भस्म तैयार करना है.’’

औफिस जाते समय ये सब फालतू सामान खोजने में एक घंटे का समय लग गया था. अगले दिन रविवार था. हम थोड़ी देर बाद उठे. बिस्तर से उठ कर बाहर जाएं या नहीं, सोच रहे थे कि महल्ले के बच्चों की आवाज कानों में पड़ी, ‘‘भूत, भूत…’’

हम ने सुना तो हम भी घबरा गए. जहां से आवाज आ रही थी, उस दिशा में भागे तो देखा आंगन में काले रंग का भूत खड़ा था? हम ने भी डर कर भूतभूत कहा. तब अचानक उस भूतनी ने कहा, ‘‘दामादजी, ये तो मैं हूं.’’

‘‘वो…वो…भूत…’’

‘‘अरे, बच्चों की गेंद अंदर आ गईर् थी, मैं सोच रही थी क्या करूं? तभी उन्होंने दीवार पर चढ़ कर देखा, मैं भस्म लगा कर धूप ले रही थी. वे भूतभूत चिल्ला उठे, गेंद वह देखो पड़ी है.’’ हम ने गेंद देखी. हम ने गेंद ली और देने को बाहर निकले तो बच्चे दूर खड़े डरेसहमे हुए थे. उन्होंने वहीं से कान पकड़ कर कहा, ‘‘अंकलजी, आज के बाद कभी आप के घर के पास नहीं खेलेंगे,’’ वे सब काफी डरे हुए थे.

हम ने गेंद उन्हें दे दी, वे चले गए. लेकिन बच्चों ने फिर हमारे घर के पास दोबारा खेलने की हिम्मत नहीं दिखाई.

महल्ले में चोरी की वारदातें भी बढ़ गई थीं. पहाड़ी वैद्य ने हाथों पर यानी हथेलियों पर कोई लेप रात को लगाने को दिया था, जो बहुत चिकना, गोंद से भी ज्यादा चिपकने वाला था. वह सुबह गाय के दूध से धोने के बाद ही छूटता था. उस लेप को हथेलियों से निकालने के लिए मजबूरी में गाय के दूध को प्रतिदिन मुझे लेने जाना होता था.

न जाने वे कब जाएंगी? मैं यह मुंह पर तो कह नहीं सकता था, क्यों किसी तरह का विवाद खड़ा करूं?

रात में मैं सो रहा था कि अचानक पड़ोस से शोर आया, ‘चोरचोर,’ हम घबरा कर उठ बैठे. हमें लगा कि बालकनी में कोई जोर से कूदा. हम ने भी घबरा कर चोरचोर चीखना शुरू कर दिया. हमारी आवाज सासुजी के कानों में पहुंची होगी, वे भी जोरों से पत्नी के साथ समवेत स्वर में चीखने लगीं, ‘‘दामादजी, चोर…’’

महल्ले के लोग, जो चोर को पकड़ने के लिए पड़ोसी के घर में इकट्ठा हुए थे, हमारे घर की ओर आ गए, जहां सासुजी चीख रही थीं, ‘‘दामादजी, चोर…’’ हम ने दरवाजा खोला, पूरे महल्ले वालों ने घर को घेर लिया था.

हम ने उन्हें बताया, ‘‘हम जो चीखे थे उस के चलते सासुजी भी चीखचीख कर, ‘दामादजी, चोर’ का शोर बुलंद कर रही हैं.’’

हम अभी समझा ही रहे थे कि पत्नीजी दौड़ती, गिरतीपड़ती आ गईं. हमें देख कर उठीं, ‘‘चोर…चोर…’’

‘‘कहां का चोर?’’ मैं ने उसे सांत्वना देते हुए कहा.

‘‘कमरे में चोर है?’’

‘‘क्या बात कर रही हो?’’

‘‘हां, सच कह रही हूं?’’

‘‘अंदर क्या कर रहा है?’’

‘‘मम्मी ने पकड़ रखा है,’’ उस ने डरतेसहमते कहा.

हम 2-3 महल्ले वालों के साथ कमरे में दाखिल हुए. वहां का जो नजारा देखा तो हम भौचक्के रह गए. सासुजी के हाथों में चोर था, उस चोर को उस का साथी सासुजी से छुड़वा रहा था. सासुजी उसे छोड़ नहीं रही थीं और बेहोश हो गई थीं. हमें आया देख चोर को छुड़वाने की कोशिश कर रहे चोर के साथी ने अपने दोनों हाथ ऊपर उठा कर सरैंडर कर दिया. वह जोरों से रोने लगा और कहने लगा, ‘‘सरजी, मेरे साथी को अम्माजी के पंजों से बचा लें.’’

हम ने ध्यान से देखा, सासुजी के दोनों हाथ चोर की छाती से चिपके हुए थे. पहाड़ी वैद्य की दवाई हथेलियों में लगी थी, वे शायद चोर को धक्का मार रही थीं कि दोनों हथेलियां चोर की छाती से चिपक गई थीं. हथेलियां ऐसी चिपकीं कि चोर क्या, चोर के बाप से भी वे नहीं छूट रही थीं. सासुजी थक कर, डर कर बेहोश हो गई थीं. वे अनारकली की तरह फिल्म ‘मुगलेआजम’ के सलीम के गले में लटकी हुई सी लग रही थीं. वह बेचारा बेबस हो कर जोरजोर से रो रहा था.

अगले दिन अखबारों में उन के करिश्मे का वर्णन फोटो सहित आया, देख कर हम धन्य हो गए.

आश्चर्य तो हमें तब हुआ जब पता चला कि हमारी सासुजी की वह लाइलाज बीमारी भी ठीक हो गई थी. पहाड़ी वैद्य झुमरूलालजी के अनुसार, हाथों के पूरे बैक्टीरिया चोर की छाती में जा पहुंचे थे.

यदि शहर में आप को कोई छाती पर खुजलाता, परेशान व्यक्ति दिखाई दे तो तुरंत समझ लीजिए कि वह हमारी सासुजी द्वारा दी गई बीमारी का मरीज है. हां, चोर गिरोह के पकड़े जाने से हमारी सासुजी के साथ हमारी साख भी पूरे शहर में बन गई थी. ऐसी सासुजी पा कर हम धन्य हो गए थे.

Social Story : हिंदुस्तान जिंदा है – दंगाइयों की कैसी थी मानसिकता

Social Story : यह एक इत्तफाक ही था कि मौलवी रशीद की पत्नी जिस दिन मरी थी उसी दिन मीना का पति भी मरा था. मौलवी रशीद की पत्नी को दंगाइयों ने पहले नंगा किया फिर अपना मुंह काला किया और अंत में उसे गोली मार दी. अब वह कहां जिंदा थी कि किसी का नाम बताती. बस, सड़क के किनारे एक नंगी लाश के रूप में पड़ी मिली थी.

मीना के पति को बाजार में छुरा मारा गया था, मर्द को दंगाई नंगा नहीं करते क्योंकि दंगाई भी मर्द होते हैं.

मीना और मौलवी रशीद दोनों ने अपनीअपनी लाशें उठा कर उन का अंतिम संस्कार किया था. ये दोनों जिस शहर के थे वहां की फितरत में ही दंगा था और वह भी धर्म के नाम पर.

इस शहर के लोग पढ़ेलिखे जरूर थे पर नेताओं की भड़काऊ बातों को सुन कर सड़कों पर उतर आना, छतों से पत्थरों की वर्षा करना और फिर गोली चलाना इन की आदत हो गई थी. कोई तो था जो निरंतर इस दंगा कल्चर को बढ़ावा दे रहा था ताकि जनता बंटी रहे और उन का मकसद पूरा होता रहे.

मौलवी रशीद और मीना दोनों एकसाथ पढ़े थे. दोनों का बचपन भी साथसाथ ही गुजरा था. दोनों आपस में प्रेम भी करते थे, लेकिन इन की आपस में शादी इसलिए नहीं हुई कि दोनों का धर्म अलगअलग था और ऐसे कट्टर धार्मिक, सोच वाले शहर में एक हिंदू लड़की किसी मुसलमान लड़के से शादी कर ले तो शहर में हंगामा बरपा हो जाए.

मीना ने तो चाहा था कि वह रशीद से शादी कर ले लेकिन खुद रशीद ने यह कह कर मना कर दिया था कि यदि तुम चाहती हो कि 4-5 मुसलमान मरें तो मैं यह शादी करने के लिए तैयार हूं. और फिर मीना अपने दिल पर पत्थर रख कर बैठ गई थी.

इसी के बाद दोनों के जीवन की धारा बदल गई. रशीद ने अपने संप्रदाय में एक नेक लड़की से शादी कर अपनी गृहस्थी बसा ली तो मीना ने अपनी ही जाति के एक लड़के के साथ शादी कर ली. फिर तो दोनों एक ही शहर में रहते हुए एकदूसरे के लिए अजनबी बन गए.

इधर धर्म का बाजार सजता रहा, धर्म का व्यापार होता रहा और इस धर्म ने देश को 2 टुकड़ों में बांट दिया. इनसान के लिए धर्म एक ऐसा रास्ता है जिसे केवल मन में रखा जाए और खामोशी के साथ उस पर विश्वास करता चला जाए न कि उस के लिए बेबस औरतों को नंगा किया जाए, संपत्तियों को जलाया जाए और बेगुनाह लोगों की जानें ली जाएं.

मौलवी रशीद की कोई संतान नहीं थी पर मीना के 2 बच्चे थे. एक 3 साल का और दूसरा 3 मास का. पति के मरने के बाद मीना बिलकुल बेसहारा हो गई थी. अब उस शहर में उस का दर्द, उस की जरूरतों को समझने वाला मौलवी रशीद के अलावा दूसरा कोई भी नहीं था.

सांप्रदायिक दंगों का सिलसिला शहर से खत्म नहीं हो रहा था. कभी दिन का कर्फ्यू तो कभी रात का कर्फ्यू. इनसान तो क्या जानवर भी इस से तंग हो गए थे. मौलवी रशीद ने टेलीविजन खोला तो एक खबर आई कि प्रशासन ने शाम को कर्फ्यू में 2 घंटे की ढील दी है ताकि लोग घरों से बाहर निकल कर अपनी दैनिक जरूरतों की वस्तुओं को खरीद सकें. मौलवी रशीद को मीना के 3 माह के बच्चे की चिंता थी क्योंकि पति की मौत के बाद मीना की छाती का दूध सूख गया था. उस बच्चे के लिए उसे दूध लेना था और ले जा कर हिंदू इलाके में मीना के घर देना था.

रशीद जब घर से स्कूटर पर चला तो उसे थोड़ा डर सा लगा था. वह सआदत हसन मंटो (उर्दू का प्रसिद्ध कथाकार) तो था नहीं कि अपनी जेब में 2 टोपियां रखे और हिंदू महल्ले से गुजरते समय सिर पर गांधी टोपी तथा मुसलमान महल्ले से गुजरते समय गोल टोपी लगा ले.

खैर, रशीद किसी तरह हिम्मत कर के मीना के बच्चे के लिए दूध का पैकेट ले कर चला तो रास्ते भर लोगों की तरहतरह की बातें सुनता रहा.

किसी एक ने कहा, ‘‘इस का मीना के साथ चक्कर है. मीना को कोई हिंदू नहीं मिलता क्या?’’

दूसरे के मुंह से निकला, ‘‘लगता है इस का संपर्क अलकायदा से है. हिंदू इलाके में बम रखने जा रहा है. इस मौलवी का हिंदू महल्ले में आने का क्या मतलब?’’

दूसरे की कही बातें सुन कर तीसरे ने कहा, ‘‘यदि अलकायदा का नहीं तो इस का संबंध आई.एस.आई. से जरूर है. तभी तो इस की औरत को नंगा कर के गोली मारी गई.

रशीद ने मीना के घर पहुंच कर उसे आवाज लगाई और दूध का पैकेट दे कर वापस आ गया. एक सेना का अधिकारी, जो मीना के घर के सामने अपने जवानों के साथ ड्यूटी दे रहा था, उस ने रशीद को दूध देते देखा. मौलवी रशीद उसे देख कर डर के मारे थरथर कांपने लगा. वह आर्मी अफसर आगे बढ़ा और रशीद की पीठ को थपथपाते हुए बोला, ‘‘शाबाश.’’

रशीद जब अपने महल्ले में पहुंचा तो देखा कि लोग उस के घर को घेर कर खड़े थे. वह स्कूटर से उतरा तो महल्ले के मुसलमान लड़के उस की पिटाई करते हुए कहने लगे, ‘‘तू कौम का गद्दार है. एक हिंदू लड़की के घर गया था. तू देख नहीं रहा है कि वे हमें जिंदा जला रहे हैं? हमारी बहनबेटियों की इज्जत के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं. क्या उस महल्ले के हिंदू मर गए थे जो तू उस के बच्चे को दूध पिलाने गया था.’’

एक बूढ़े मौलाना ने कहा, ‘‘रशीद, तू महल्ला खाली कर फौरन यहां से चला जा नहीं तो तेरी वजह से इस महल्ले पर हिंदू कभी भी हमला कर सकते हैं. तेरा मीना के साथ यह अनैतिक संबंध हम को बरबाद कर देगा.’’

इस बीच पुलिस की एक जीप वहां आई और पुलिस वाले यह कह कर चले गए कि यहां तो मुसलमानों ने ही मुसलमान को मारा है, खतरे की कोई बात नहीं है. लगता है कोई पुरानी रंजिश होगी.

मार खाने के बाद रशीद अपने घर चला गया और बिस्तर पर लेट कर कराहने लगा. कुछ देर के बाद फोन की घंटी बजी. फोन मीना का था. वह कह रही थी, ‘‘रशीद, तुम्हारे जाने के बाद महल्ले के कुछ हिंदू लड़के मेरे घर में घुस आए थे और उन्होेंने दूध के साथ घर का सारा सामान सड़क पर फेंक दिया. अब मैं क्या करूं. तुम जब तक माहौल सामान्य नहीं हो जाता मेरे घर मत आना. बच्चे तो जैसेतैसे जी ही लेंगे.’’

रशीद फोन पर हूं हां कर के चुप हो गया क्योंकि उसे चोट बहुत लगी थी. वह लेटेलेटे सोच रहा था कि हिंदूमुसलिम फसाद में एक तरफ से कुछ भी नहीं होता है. दोनों तरफ से लड़ाई होती है और कौम के नेता इस जलती हुई आग पर घी डालते हैं. यदि हिंदू मुसलमान को मारता है तो वही उस को सड़क से उठाता भी है. अस्पताल भी वही ले जाता है, वही पुलिस की वर्दी पहन कर उस का रक्षक भी बनता है और वही जज की कुरसी पर बैठ कर इंसाफ भी करता है, कहीं तो कुछ है जो टूटता नहीं.

4 दिन बाद कुछ हालात संभले थे. इस दौरान समाचारपत्रों ने बहुत सी घटनाओं को अपनी सुर्खियां बनाया था. इन्हीं में एक खबर रशीद और मीना को ले कर छपी थी कि ‘हिंदू इलाके में एक मुसलमान अपनी प्रेमिका से मिलने आता है.’

ऐसे माहौल में समाचारपत्रों का काम है खबर बेचना. अगर सच्ची खबर न हो तो झूठी खबर ही सही, उन के अखबार की बिक्री बढ़नी चाहिए. अब तो राजनीतिक पार्टियां भी अपना अखबार निकाल रही हैं ताकि पार्टी की पालिसी के अनुसार समाचार को प्रकाशित किया जाए. आजादी के बाद हम कितने बदल गए हैं. अब नेताओं को देश की जगह अपनी पार्टी से प्रेम अधिक है.

शहर में कर्फ्यू समाप्त हो गया था. रशीद भी अब पूरी तरह से ठीक हो गया था. उस ने फैसला किया कि अब यह शहर उस के रहने के लायक नहीं रहा पर शहर छोड़ने से पहले वह मीना से मिलना चाहता था.

वह घर से निकला और सीधा मीना के घर पहुंचा. उसे घर के दरवाजे पर बुलाया और हमेशाहमेशा के लिए उसे एक नजर देख कर मुड़ना ही चाहता था कि कुछ लोग उस को चारों ओर से घेर कर खड़े हो गए.

रशीद ने मीना से सब्जी काटने वाला चाकू मांगा और सब को संबोधित कर के बोला, ‘‘आप लोगों को मुझे मारने की आवश्यकता नहीं है. मैं अपने पेट में चाकू मार कर आत्महत्या करने जा रहा हूं. अब यह शहर जीने लायक नहीं रह गया.’’

उस भीड़ ने रशीद को पकड़ लिया और एक सम्मिलित स्वर में आवाज आई, ‘‘भाई साहब, हम आप को मारने नहीं बल्कि देखने आए हैं. आप की पत्नी को हिंदुओं ने नंगा कर के गोली मारी थी और आप एक हिंदू विधवा के बच्चों के लिए दूध लाते रहे. अब आप जैसे इनसान को देखने के बाद यकीन हो गया है कि हिंदुस्तान जिंदा है और हमेशा जिंदा रहेगा.

Mother’s Day 2024 : दोबारा आना – मां की हरकतें देख क्या एहसास हुआ

मां के कमरे से जोरजोर से चिल्लाने की आवाज सुन कर नीरू ने किताबें टेबल पर ही एक किनारे खिसकाईं और मां के कमरे की ओर बढ़ गई. कमरे में जा कर देखा तो मां कस कर अपने होंठ भींचे और आंखें बंद किए पलंग पर बैठी थीं. आया हाथ में मग लिए उन से कुल्ला करने के लिए कह रही थी. नीरू के पैरों की आहट पा कर मां ने धीरे से अपनी आंखें खोलीं और फिर आंखें बंद कर के ऐसे बैठ गईं जैसे कुछ देखा ही न हो.

नीरू को देखते ही आया दुखी स्वर में बोली, ‘‘देखिए न दीदी, मांजी कितना परेशान कर रही हैं. एक घंटे से मग लिए खड़ी हूं पर मांजी अपना मुंह ही नहीं खोल रही हैं. मुझे दूसरे काम भी तो करने हैं. आप ही बताइए अब मैं क्या करूं?’’

मां की मुखमुद्रा देख कर नीरू को हंसी आ गई. उस ने हंस कर आया से कहा, ‘‘तुम जा कर अपना काम करो, मां को मैं संभाल लूंगी,’’ और यह कहतेकहते नीरू ने मग आया के हाथ से ले कर मां के मुंह के सामने लगा कर मां से कुल्ला करने के लिए कहा. पर मां छोटे बच्चे के समान मुंह बंद किए ही बैठी रहीं. तब नीरू ने उन्हें डांट कर कहा, ‘‘मां, जल्दी करो मुझे औफिस जाना है.’’

नीरू की बात सुन कर मां ने शैतान बच्चे की तरह धीरे से अपनी आधी आंखें खोलीं और मुंह घुमा कर बैठ गईं. परेशान नीरू बारबार घड़ी देख रही थी. आज उस के औफिस में उस की एक जरूरी मीटिंग थी. इसलिए उस का टाइम पर औफिस पहुंचना बहुत जरूरी था. पर मां तो कुछ भी समझना ही नहीं चाहती थीं.

थकहार कर नीरू ने उन के दोनों गाल प्यार से थपथपा कर जोर से कहा, ‘‘मां, मेरे पास इतना समय नहीं है कि तुम्हारे नखरे उठाती रहूं. अब जल्दी से मुंह खोलो और कुल्ला करो.’’

नीरू की बात सुन कर इस बार जब मां ने कुल्ला करने के लिए चुपचाप मुंह में पानी भरा तो नीरू ने चैन की सांस ली. थोड़ी देर तक नीरू इंतजार करती रही कि मां कुल्ला कर के पानी मग में डाल देंगी पर जब मां फिर से मुंह बंद कर के बैठ गईं तो नीरू के गुस्से का ठिकाना न रहा.

गुस्से में नीरू ने मां को झकझोर कर कहा, ‘‘मां, क्या कर रही हो? मैं तो थक गई हूं तुम्हारे नखरे सहतेसहते…’’ नीरू की बात अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि मां ने थुर्र कर के अपने मुंह का पूरा पानी इस प्रकार बाहर फेंका कि एक बूंद भी मग में न गिर कर नीरू के मुंह पर और कमरे में फैल गया. यह देख कर नीरू को जोर से रुलाई आ गई.

रोतेरोते उस ने मां से कहा, ‘‘क्यों करती हो तुम ऐसा, क्या बिगाड़ा है मैं ने तुम्हारा? मैं अभी नहा कर साफ कपड़े पहन कर औफिस जाने के लिए तैयार हुई थी और तुम ने मेरे कपड़े और कमरा दोनों ही फिर से गंदे कर दिए. तुम दिन में कितनी बार कमरा गंदा करती हो, कुछ अंदाजा है तुम्हें? आज आया 5 बार पोंछा लगा चुकी है. अगर आया ने काम छोड़ दिया तो? मां तुम समझती क्यों नहीं, मैं अकेली क्याक्या करूं?’’ कहती हुई नीरू अपनी आंखें पोंछती मां के कमरे से बाहर चली गई.

अपने ही कहे शब्दों पर नीरू चौंक गई. उसे लगा उस ने ये शब्द पहले किसी और के मुंह से भी सुने हैं. पर कहां?

औफिस पहुंच कर नीरू मां और घर के बारे में ही सोचती रही. पिताजी की मृत्यु के बाद मां ने अकेले ही चारों भाईबहनों को कितनी मुश्किल से पाला, यह नीरू कभी भूल नहीं सकती. नौकरी, घर, हम छोटे भाईबहन और अकेली मां. हम चारों भाईबहन मां की नाक में दम किए रहते. कभीकभी तो मां रो भी पड़ती थीं. कभी पिताजी को याद कर के रोतेरोते कहती थीं, ‘‘कहां चले गए आप मुझे अकेला छोड़ कर. मैं अकेली क्याक्या करूं.’’

अरे, मां ही तो कहती थीं, ‘मैं अकेली क्याक्या करूं,’ मां तो सचमुच अकेली थीं. मेरे पास तो काम वाली आया, कुक सब हैं. बड़ा सा घर है, रुपयापैसा और सब सुविधाएं मौजूद हैं. तब भी मैं चिड़चिड़ा जाती हूं. अब मैं मां पर अपनी चिढ़ कभी नहीं निकालूंगी. मां की मेहनत से ही तो मुझे ये सबकुछ मिला है वरना मैं कहां इस लायक थी कि आईआईटी में नौकरी कर पाती.

कितनी मेहनत की, कितना समय लगाया मेरे लिए. अभी दिन ही कितने हुए हैं जब छोटी बहन मीतू ने मुझ से कहा था, ‘मां की वजह से तुम इस मुकाम तक पहुंची हो वरना हम सभी तो बस किसी तरह जी रहे हैं. हम तो चाह कर भी मां को कोई सुख नहीं दे सकते. वैसे तुम ने बचपन में मां को कितना परेशान किया है, तुम भूली नहीं होगी. अब मां इसी जन्म में अपना हिसाब पूरा कर रही हैं.’ आज लगता है कि सच ही तो कहती है मेरी बहन.

शाम को नीरू मां की पसंद की मिठाई ले कर घर गई. घर में कुहराम मचा था. आया मां के कमरे के बाहर बैठी रो रही थी और अंदर कमरे में मां जोरजोर से चिल्ला रही थीं. नीरू को देखते ही आया दौड़ कर उस के पास आई और रोतेरोते बोली, ‘‘दीदी, अब आप दूसरी आया रख लीजिए, मुझ से आप का काम नहीं हो पाएगा.’’

‘‘क्या हुआ?’’ नीरू ने परेशान हो कर पूछा, ‘‘काम छोड़ने की बात क्यों कर रही हो. मां पहले से ऐसी नहीं थीं. तुम बरसों से हमारे यहां काम कर रही हो. अच्छी तरह से जानती हो कि मां कुछ सालों से बच्चों जैसा व्यवहार करने लगी हैं. अब इस कठिन समय में अगर तुम चली जाओगी तो मैं क्या करूंगी? तुम्हारे सहारे ही तो मैं घर और औफिस दोनों संभाल पाती हूं. अच्छा चलो, मैं तुम्हारे पैसे बढ़ा दूंगी पर काम मत छोड़ना, प्लीज. मैं मां को भी समझाऊं्रगी.

‘‘अब बताओ, हुआ क्या है, इतनी परेशान क्यों हो?’’

‘‘मैं ने मांजी से बारबार कहा कि कपड़े गंदे न करें, जरूरत पड़ने पर मुझे बताएं. सुबह मैं ने उन से बाथरूम चलने के लिए कहा तो उन्होंने मना कर दिया और दो मिनट बाद ही बिस्तर गंदा कर दिया. मैं ने उन की सफाई के साथ ही साथ उन से नहाने के लिए भी कहा तो वे बोलीं, ‘पानी कमरे में ही ले आओ, मैं कमरे में ही नहाऊंगी.’ बहुत समझाने पर भी जब मांजी नहीं मानीं तो मैं पानी कमरे में ले आई. वैसे भी अकेले मेरे लिए मांजी को उठाना मुश्किल था. मैं ने सोचा था कि गीले कपड़े से पोंछ दूंगी, फिर खाना खिला दूंगी. पर मांजी ने तो गुस्से में पैर से पानी की पूरी बालटी ही उलट दी और खाने की थाली उठा कर नीचे फेंक दी. मैं तो दिनभर कमरा साफ करकर के थक जाती हूं.’’

नीरू ने मां के कमरे में पैर रखा तो उस का दिल घबरा गया. पूरे कमरे में पानी ही पानी भरा था. खाने की थाली एक ओर पड़ी थी और कटोरियां दूसरी तरफ. रोटी, दाल, चावल सब जमीन पर फैले थे. मां मुंह फुलाए बिस्तर पर बैठी थीं.

नीरू ने मां के पास जा कर पूछा, ‘‘क्या हुआ मां, खाना क्यों नहीं खाया? तुम ने कल रात को भी खाना नहीं खाया. इस तरह तो तुम कमजोर हो जाओगी.’’

मैं आया के हाथ का खाना नहीं खाऊंगी, आया गंदी है. उसे भगा दो. मुझ से कहती है कि मेरी शिकायत तुम से करेगी, फिर तुम मुझे डांटोगी. तुम डांटोगी मुझे?’’ मां ने किसी छोटे बच्चे की तरह भोलेपन से पूछा तो नीरू को हंसी आ गई. उस ने मां के गले में हाथ डाल कर प्यार किया और कहा, ‘‘मैं अपनी प्यारी मां को अपने हाथों से खाना खिलाऊंगी. बोलो, क्या खाओगी?’’

‘‘मिठाई दोगी?’’ मां ने आशंकित हो कर कहा.

‘‘मिठाई? पर मिठाई तो खाना खाने के बाद खाते हैं. पहले खाना खा लो, फिर मिठाई खा लेना.’’

‘‘नहीं, पहले मिठाई दो.’’

‘‘नहीं, पहले खाना, फिर मिठाई.’’ नीरू ने मां की नकल उतार कर कहा तो मां ताली बजा कर खूब हंसीं और बोलीं, ‘‘बुद्धू बना रही हो, खाना खा लूंगी तो मिठाई नहीं दोगी. पहले मिठाई लाओ.’’

नीरू ने मिठाई ला कर सामने रख दी तो मां खुश हो कर बोलीं, ‘‘पहले एक पीस मिठाई, फिर खाना.’’

‘‘अच्छा, ठीक है, लड्डू लोगी या रसगुल्ला?’’

‘‘रसगुल्ला,’’ मां ने खुश हो कर कहा.

नीरू ने एक रसगुल्ला कटोरी में रख कर उन्हें दिया और उन के लिए थाली में खाना निकालने लगी. दो कौर खाने के बाद ही मां फिर खाना खाने में आनाकानी करने लगीं. ‘‘पेट गरम हो गया, अब और नहीं खाऊंगी,’’ मां ने मुंह बना कर कहा.

‘‘अच्छा, एक कौर मेरे लिए, मां. देखो, तुम ने कल भी कुछ नहीं खाया था, अभी दवाई भी खानी है और दवाई खाने से पहले खाना खाना जरूरी है वरना तबीयत बिगड़ जाएगी.’’

‘‘नहीं, मैं नहीं खा सकती. अब एक कौर भी नहीं.’’ तुम तो दारोगा की तरह पीछे लग जाती हो. मुझे यह बिलकुल अच्छा नहीं लगता. मेरी अम्मा बनने चली हो. अब पेट में जगह नहीं है तो क्या करूं, पेट बड़ा कर लूं,’’ कहते हुए मां ने पेट फुला लिया तो नीरू को हंसी आ गई. उस ने हंसते हुए थाली की ओर हाथ बढ़ाया तो मां ने समझा कि नीरू फिर उस से खाने के लिए कहेगी. सो, अपनी आंखें बंद कर के लेट गईं. तभी फोन की घंटी बजी तो नीरू फोन पर बात करने लगी. बात करतेकरते नीरू ने देखा कि मां ने धीरे से आंखें खोल कर देखा और रसगुल्ले की ओर हाथ बढ़ाया पर नीरू को अपनी ओर आते देखा तो झट से बोलीं, ‘‘हम रसगुल्ला थोड़े उठा रहे थे, हम तो उस पर बैठा मच्छर भगा रहे थे.’’

‘‘तुम्हें एक रसगुल्ला और खाना है?’’ नीरू ने हंस कर पूछा.

‘‘हां, मुझे रसगुल्ला बहुत अच्छा लगता है.’’

‘‘तो पहले रोटी खाओ, फिर रसगुल्ला भी खा लेना.’’

‘रसगुल्ला, कचौड़ी, कचौड़ी फिर रसगुल्ला, फिर कचौड़ी…’ मां मुंह ही मुंह में बुदबुदा रही थीं. नीरू ने सुना तो उसे हंसी आ गई.

‘‘शाम को मेहमान आने वाले हैं. तब तुम्हारी पसंद की कचौड़ी बनाऊंगी,’’ नीरू ने मां को मनाने के लिए कहा तो मां प्रसन्न हो कर बोलीं, ‘‘हींग वाली कचौड़ी?’’

‘‘हां, हींग वाली. लो, अब एक रोटी खा लो, फिर शाम को कचौड़ी खाना.’’

‘‘तो मैं शाम को रोटी नहीं खाऊंगी, हां. मुझे पेटभर कचौड़ी देना.’’

‘‘अच्छा बाबा. मैं तो इसलिए रोकती हूं कि मीठा और तलाभुना खाने से तुम्हारी शुगर बढ़ जाती है. आज शाम को जो तुम कहोगी मैं तुम्हें वही खिलाऊंगी पर अभी एक रोटी खाओ.’’

नीरू ने मां को रोटी खाने के लिए मना ही लिया.

शाम को मां अपने कमरे में अकेली बैठी कसमसा रही थीं. बाहर के कमरे से लगातार बातों के साथसाथ हंसने की भी आवाजें आ रही थीं. ‘क्या करूं, नीरू को बुलाने के लिए आवाज दूं क्या? नहींनहीं, नीरू गुस्सा करेगी. तो फिर? मन भी तो नहीं लग रहा है. मैं भी उसी कमरे में चली जाऊं तो? ये मेहमान भी चले क्यों नहीं जाते. 2 घंटे से चिपके हैं. अभी न जाने कितनी देर तक जमे रहेंगे. मैं पूरे दिन नीरू का इंतजार करती हूं कि शाम को नीरू के साथ बातें करूंगी वरना इस कमरे में अकेले पड़ेपड़े कितना जी घबराता है, किसी को क्या पता?’

अचानक मां के कमरे से ‘हाय मर गई. हे प्रकृति, तू मुझे उठा क्यों नहीं लेती,’ की आवाज आने लगी तो सब का ध्यान मां के कमरे की ओर गया. सब दौड़ते हुए कमरे में पहुंचे तो देखा मां अपने बिस्तर पर पड़ी कराह रही हैं. नीरू ने मां से पूछा, ‘‘क्या हुआ मां, कराह क्यों रही हो?’’

‘‘मेरा पेट गरम हो रहा है. देखो, और गरम होता जा रहा है. गरमी बढ़ती जा रही है. खड़ीखड़ी क्या कर रही हो? मेरे पेट की आग से पूरा घर जल जाएगा. सब जल जाएंगे.’’

मां की बात सुन कर नीरू ने कहा, ‘‘चलो, अस्पताल चलते हैं.’’ फिर नीरू ने मेहमानों से कहा, ‘‘आप आराम से बैठें, मैं मां को डाक्टर को दिखा कर आती हूं.’’

समय की नजाकत को भांपते हुए मेहमानों ने भी कहा, ‘‘आप मां को अस्पताल ले जाएं, हम फिर कभी आ जाएंगे.’’

मेहमानों के जाते ही मां आराम से बैठ गईं और टीवी पर अपना मनपसंद सीरियल देखने लगीं. नीरू गाड़ी की चाबी ले कर कमरे में आई और मां से बोली, ‘‘चलो मां.’’

‘‘कहां?’’ मां ने हंस कर पूछा.

‘‘कहां? अस्पताल और कहां? अभी थोड़ी देर पहले तो तुम तड़प रही थीं,’’ नीरू ने अपना पर्स उठा कर कहा.

‘‘हां, पर अब मैं नहीं जाऊंगी.’’

‘‘क्यों.’’

‘‘अब मेरी तबीयत ठीक हो गई. मैं अस्पताल नहीं जाऊंगी.’’

‘‘अरे, फिर से पेट गरम हो गया तो आधी रात को जाना पड़ेगा.’’

‘‘नहीं, नहीं जाना पड़ेगा,’’ मां ने आराम से कहा.

‘‘क्यों?’’

‘‘क्योंकि मुझे कुछ हुआ नहीं. मैं तो एकदम ठीक हूं.’’

‘‘तो वह क्या था जो थोड़ी देर पहले हो रहा था?’’

‘‘वह तो मेहमानों को भगाने के लिए मैं ने नाटक किया था. अच्छा था न?’’ मां ने बड़ी मासूमियत से कहा तो नीरू ने अपना सिर पीट लिया.

अब वह मां को क्या बताती कि ये कोई रोज के बैठने वाले मेहमान नहीं थे. इन लोगों को उस ने अपनी बेटी के रिश्ते के लिए बुलाया था. पर क्या हो सकता है.

रोजरोज यही होता था. नीरू औफिस में भी घर की ही चिंता में डूबी रहती. पता नहीं मां ने घर में क्या तबाही मचाई होगी. आया होगी भी या काम छोड़ कर भाग गई होगी? घर जा कर जब सबकुछ ठीक देखती तो चैन की सांस लेती.

नीरू को चिंता में डूबा देख कर उस की सहेली ने पूछा, ‘‘क्या कोई परेशानी की बात तुम्हें खाए जा रही है? पता है आज मीटिंग में तुम्हारा ध्यान ही नहीं था. पता नहीं कहां और किस सोच में डूबी थी तुम. सब का ध्यान तुम्हारी तरफ लगा था. इस तरह तो तुम्हारी नौकरी चली जाएगी. घर, बच्चे और मां सब की जिम्मेदारी तुम्हारे ऊपर ही तो है.’’

‘‘मां की चिंता ही तो मुझे खाए जा रही है. मां बिलकुल बच्चों जैसा व्यवहार करने लगी हैं. अब बच्चे के लिए तो यह सोच कर सब्र हो जाता है कि थोड़े दिनों की बात है, फिर सब ठीक हो जाएगा. पर मां के लिए क्या करूं?’’

‘‘गोद ले ले.’’

‘‘क्या कहा, फिर से तो कहना.’’

‘‘कह तो रही हूं, मां को गोद ले ले. उस से तेरी चिंता कम हो जाएगी.’’

‘‘दिमाग तो खराब नहीं हो गया तेरा? मैं अपनी मां को गोद ले लूं. अगर ले भी लूं तो क्या होगा?’’

‘‘होगा यह कि मां की परेशानी तुझे परेशान नहीं करेगी. तू ने यह तो सुना ही होगा कि बूढ़े और बच्चे बराबर होते हैं. बुढ़ापा बचपन का दोबारा आना होता है. बुढ़ापे में मनुष्य की आदतें, बात, व्यवहार, जिद सब में बचपना दिखाई देने लगता है. अगर हम उन्हें बच्चा समझ कर ही लें तो उन की हरकतों पर गुस्से की जगह प्यार आने लगेगा और घर का माहौल भी अच्छा हो जाएगा.

‘‘अब हम उन से तो यह उम्मीद नहीं कर सकते हैं कि वे बदल जाएं. बदलना तो हमें पड़ेगा.

‘‘तू अपने मन में यह मान ले कि अब वे तेरी बच्ची हैं और तुझे उन का वैसे ही ध्यान रखना है जैसे कभी वे तुम्हारा रखती थीं. जब भी तुम्हें उन की कोई बात बुरी लगे, तुम अपने बचपन की कोई ऐसी घटना याद करना और उस घटना पर मां की प्रतिक्रिया भी. मुझे यकीन है तेरा गुस्सा कम हो जाएगा. यार, अब हमारी बारी है कुछ करने की.’’

‘‘मम्मी, अकेले बैठीबैठी हंस क्यों रही हो?’’ नीरू कमरे में अकेली बैठी हंस रही थी, तभी उस की बेटी रितु ने पूछा.

‘‘मैं अपने बचपन को याद कर रही थी. पता है, मैं मां को बहुत तंग करती थी. एक बार मेरी घड़ी खराब हो गई तो मैं अड़ गई कि जब तक नई घड़ी नहीं आएगी, मैं स्कूल नहीं जाऊंगी. छोटे से उस शहर में घड़ी की कोई अच्छी दुकान भी नहीं थी. तब मां पास के शहर जा कर मेरे लिए नई घड़ी लाई थीं. बहुत प्यार करती हैं मां मुझे.’’

‘‘अच्छा, तो तुम उन पर गुस्सा क्यों करती हो?’’ रितु ने पूछा.

‘‘वह तो उन की परेशानी देख कर गुस्सा आ जाता है. पर अब मैं गुस्सा नहीं करूंगी.’’

‘‘क्यों? अब ऐसा क्या हो गया?’’

‘‘तुम्हें क्या पता, जब मेरी शादी के बाद तुम्हारे दादादादी मुझे बहुत तंग करने लगे और तुम्हारे पापा भी उन्हीं की भाषा बोलने लगे तब मां मुझे वहां से अपने पास ले आईं. मैं तो उस दुख से कभी उबर ही न पाती अगर मां मुझे सहारा न देतीं.

‘‘अदालतों के चक्कर लगालगा कर, अपने जेवर बेच कर उन्होंने तुम्हारे पापा से न सिर्फ तलाक दिलवाया, मुझे नौकरी करने के लिए प्रेरित भी किया. आज मैं जो भी हूं, यह उन्हीं की मेहनत का फल है. अब मेहनत करने की बारी मेरी है.

‘‘अब मैं ने उन्हें गोद ले लिया है. अब मैं उन की मां हूं और वे मेरी प्यारी सी बच्ची. मैं उन की हर बचकानी हरकत का आनंद लूंगी. वैसे ही जैसे जब तुम छोटी थी तो तुम्हारी शैतानियों, बचकानी बातों पर मैं खुश होती थी. अब यह समय मां के बचपन का पुनरागमन ही तो है. आओ, हम सब मिल कर मां की शैतानियों का आनंद उठाएं. चलो, चलो, चलो मां के कमरे में मस्ती करेंगे सब, मां के साथ.’’

‘‘नानी उठो, हम आप के साथ मस्ती करने आए हैं,’’ रितु ने कमरे के बाहर से ही चिल्ला कर कहा पर अंदर पहुंच कर जब नानी को सोते देखा तो मायूसी से नीरू से कहा, ‘‘मां, नानी तो आज अभी से सो गईं. चलिए, हम बाहर का चक्कर लगा कर आते हैं.’’

अभी नीरू कमरे के दरवाजे तक ही पहुंची थी कि ऐसी आवाज आने लगी जैसे कोई कुछ खा रहा हो. नीरू तुरंत मुड़ी और उस ने मां की चद्दर खींच दी. चद्दर हटते ही मां घबरा कर बैठ गईं. उन्होंने अपने दोनों हाथ पीछे छिपा लिए.

‘‘दिखाओ मां, तुम्हारे हाथों में क्या है? क्या छिपा रही हो, मुझे दिखाओ?’’ कहते हुए नीरू ने मां के दोनों हाथ पकड़ कर सामने कर लिए, तो देखा मां के हाथों में अधखाए मीठे बिसकुट थे. अगर कोई और दिन होता तो नीरू जोर से चिल्ला कर पूरा घर सिर पर उठा लेती.  शुगर बढ़ जाने की चिंता करती पर आज उसे याद आया अपना बचपन जब वह मां के सोने के बाद दोपहर में फ्रिज से निकाल कर स्टोर में छिप कर आईसक्रीम खाती थी. बस, यह याद आते ही उसे हंसी आ गई. उसे आज मां छोटी बच्ची सी लगीं और उस ने मां को प्यार से गले लगा लिया.

प्रेम परिसीमा: कैसा था उन दोनों का वैवाहिक जीवन

अस्पताल के एक कमरे में पलंग पर लेटेलेटे करुणानिधि ने करवट बदली और प्रेम से अपनी 50 वर्षीया पत्नी मधुमति को देखते हुए कहा, ‘‘जा रही हो?’’

मधुमति समझी थी कि करुणानिधि सो रहा है. आवाज सुन कर पास आई, उस के माथे पर हाथ रखा, बाल सहलाए और मंद मुसकान भर कर धीमे स्वर में बोली, ‘‘जाग गए, अब तबीयत कैसी है, बुखार तो नहीं लगता.’’

करुणानिधि ने किंचित मुसकराते हुए कहा, ‘‘तुम्हारे हाथ रखने से तबीयत तो ठीक हो गई है, पर दिल की धड़कन बढ़ गई है.’’

घबरा कर मधुमति ने उस की छाती पर हाथ रखा. करुणानिधि ने उस के हाथ पर अपना हाथ रख कर दबा दिया. मधुमति समझ गई, और बोली, ‘‘फिर वही हरकत, अस्पताल में बिस्तर पर लेटेलेटे भी वही सूझता है. कोई देख लेगा तो क्या कहेगा?’’

करुणानिधि ने बिना हाथ छोड़े कहा, ‘‘देख लेगा तो क्या कहेगा? यही न कि पति ने पत्नी का हाथ पकड़ रखा है या पत्नी ने पति का. इस में डरने या घबराने की क्या बात है? अब तो उम्र बीत गई. अब भी सब से, दुनिया से डर लगता है?’’

मधुमति ने धीरे से अपना हाथ छुड़ाया और बोली, ‘‘डाक्टर ने आप को आराम करने को कहा है, आवेश में आना मना है. दिल का दौरा पड़ चुका है, कुछ तो खयाल करिए.’’

‘‘दिल का दौरा तो बहुत पहले ही पड़ चुका है. शादी से भी पहले. अब तो उस दौरे का अंतिम पड़ाव आने वाला है.’’

मधुमति ने उंगली रख कर उस का मुंह बंद किया और फिर सामान उठा कर घर चलने लगी. वह चलते हुए बोली, ‘‘दोपहर को आऊंगी. जरा घर की व्यवस्था देख आऊं.’’

करुणानिधि ने उस की पीठ देखते हुए फिकरा कसा, ‘‘हांहां, घर को तो कोई उठा ले जाएगा. बस, घर ही घर, तुम्हारा तो वही सबकुछ रहा है.’’

मधुमति बिना कोई उत्तर दिए कमरे से बाहर चली गई. डाक्टर ने कह दिया था कि करुणानिधि से बहस नहीं करनी है.

उस के जाते ही करुणानिधि थोड़ी देर छत की ओर देखता रहा. चारों तरफ शांति थी. धीरेधीरे उस की आंखें मुंदने लगीं. पिछला सारा जीवन उस की आंखों के सामने आ गया, प्रेमभरा, मदभरा जीवन…

शादी से पहले ही मधुमति से उसे प्रेम हो गया था. शादी के बाद के शुरुआती वर्ष तो खूब मस्ती से बीते. बस, प्रेम ही प्रेम, सुख ही सुख, चैन ही चैन. वे दोनों अकेले रहते थे. मधुमति प्रेमकला से अनभिज्ञ सी थी. पर धीरेधीरे वह विकसित होने लगी. मौसम उन का अभिन्न मित्र और प्रेरक बन गया. वर्षा, शरद और बसंत जैसी ऋतुएं उन्हें आलोडित करने लगीं.

होली तो वे दोनों सब से खेलते, पर पहले एकदूसरे के अंगप्रत्यंग में रंग लगाना, पानी की बौछार डालना, जैसे कृष्ण और राधा होली खेल रहे हों. दीवाली में साथसाथ दीए लगाना और जलाना, मिठाई खाना और खिलाना. दीवाली के दिन विशेषकर एक बंधी हुई रीति थी. मधुमति, करुणानिधि के सामने अपनी मांग भरवाने खड़ी हो जाती थी. कितने प्रेम से हर वर्ष वह उस की मांग भरता था. याद कर करुणानिधि की आंखों से आंसू ढलक गए, प्रेम के आंसू.

वे दिन थे जब प्रेम, प्रेम था, जब प्रेम चरमकोटि पर था. एक दिन की जुदाई भी असहनीय थी. कैसे फिर साथ हो, वियोग जल्दी से कैसे दूर हो, इस के मनसूबे बनाने में ही जुदाई का समय कटता था.

वे अविस्मरणीय दिन बीतते गए. अनंतकाल तक कैसे इस उच्चस्तर पर प्रेमालाप चल सकता था? फिर बच्चे हुए. मधुमति का ध्यान बच्चों को पालने में बंटा. बच्चों के साथ ही सामाजिक मेलजोल बढ़ने लगा. बच्चे बड़े होने लगे. मधुमति उन की पढ़ाई में व्यस्त, उन को स्कूल के लिए तैयार करने में, स्कूल के बाद खाना खिलाने, पढ़ाने में व्यस्त, घर सजाने का उसे बहुत शौक था. सो, घंटों सफाई, सजावट में बीत जाते. उद्यान लगाने का भी शौक चढ़ गया था. कभी किसी से मिलने चली गई. कभी कोई मिलने आ गया और कभी किसी पार्टी में जाना पड़ता. रिश्तेदारों से भी मिलनामिलाना जरूरी था.

मधुमति के पास करुणानिधि के लिए बहुत कम समय रह गया. इन सब कामों में व्यस्त रहने से वह थक भी जाती. उन की प्रेमलीला शिखर से उतर कर एकदम ठोस जमीन पर आ कर थम सी गई. जीवन की वास्तविकता ने उस पर अंकुश लगा दिए.

यह बात नहीं थी कि करुणानिधि व्यस्त नहीं था, वह भी काम में लगा रहता. आमतौर पर रात को देर से भी आता. पर उस की प्रबल इच्छा यही रहती कि मधुमति से प्रेम की दो बातें हो जाएं. पर अकसर यही होता कि बिस्तर पर लेटते ही मधुमति निद्रा में मग्न और करुणानिधि करवटें बदलता रहता, झुंझलाता रहता. ऐसा नहीं था कि प्रेम का अंत हो गया था. महीने में 2-3 बार सुस्त वासना फिर तीव्रता से जागृत हो उठती. थोड़े समय के लिए दोनों अतीत जैसे सुहावने आनंद में पहुंच जाते, पर कभीकभी ही, थोड़ी देर के लिए ही.

करुणानिधि मधुमति की मजबूरी  समझता था, पर पूरी तरह नहीं. पूरे जीवन में उसे यह अच्छी तरह समझ नहीं आया कि व्यस्त रहते हुए भी उस की तरह मधुमति प्रेमालाप के लिए कोई समय क्यों नहीं निकाल सकी. उसे तिरछी, मधुर दृष्टि से देखने में, कभी स्पर्शसुख देने में, कभीकभी आलिंगन करने में कितना समय लगता था? कभीकभी उसे ऐसा लगता जैसे उस में कोई कमी है. वह मधुमति को पूरी तरह जागृत करने में असफल रहा है. पर उसे कोई तसल्लीबख्श उत्तर कभी न मिला.

समय बीतता गया. बच्चे बड़े हो गए, उन की शादियां हो गईं. वे अपनेअपने घर चले गए, लड़के भी लड़कियां भी. घर में दोनों अकेले रह गए. तब करुणानिधि को लगा कि अब समय बदलेगा. अब मधुमति उस की ज्यादा परवा करेगी. उस के पास ज्यादा समय होगा. अब शादी के शुरू के वर्षों की पुनरावृत्ति होगी. पर उस की यह इच्छा, इच्छा ही बन कर रह गई. स्थिति और भी खराब हो गई, क्योंकि मधुमति दामादों, बहुओं व अन्य संबंधियों में और भी व्यस्त हो गई.

बेचारा करुणानिधि अतृप्त प्रेम के कारण क्षुब्ध, दुखी रहने लगा. मधुमति उस के क्रोध, दुख को फौरन समझ जाती, कभीकभी उन्हें दूर करने का प्रयत्न भी करती, पर करुणानिधि को लगता यह प्रेम वास्तविक नहीं है.

पिछले 20 वर्षों में कई बार करुणानिधि ने मधुमति से इस बारे में बात की. बातचीत कुछ ऐसे चलती…

करुणानिधि कहता, ‘मधुमति, तुम्हारे प्रेम में अब कमी आ गई है.’

‘वह कैसे? मुझे तो नहीं लगता, प्रेम कम हो गया है. आप का प्रेम कम हो गया होगा. मेरा तो और भी बढ़ गया है.’

‘यह तुम कैसे कह सकती हो? शादी के बाद के शुरुआती वर्ष याद नहीं हैं… कैसेकैसे, कहांकहां, कबकब, क्याक्या होता था.’

इस पर मधुमति कहती, ‘वैसा हमेशा कैसे चल सकता है? उम्र का तकाजा तो होगा ही. तुम्हारी दी हुई किताबों में ही लिखा है कि उम्र के साथसाथ रतिक्रीड़ा कम हो जाती है. फिर क्या रतिक्रीड़ा ही प्रेम है? उम्र के साथसाथ पतिपत्नी साथी, मित्र बनते जाते हैं. एकदूसरे को ज्यादा समझने लगते हैं. समय बीतने पर, पासपास चुप बैठे रहना भी, बात करना भी, प्रेम को समझनेसमझाने के लिए काफी होता है.’

‘किताबों में यह भी तो लिखा है कि इस के अपवाद भी होते हैं और हो सकते हैं. मैं उस का अपवाद हूं. इस उम्र में भी मेरे लिए, सिर्फ पासपास गुमसुम बैठना काफी नहीं है. तुम अपवाद क्यों नहीं बन सकती हो?’

ऐसे में मधुमिता कुछ नाराज हो कर कहती, ‘तो आप समझते हैं, मैं आप से प्रेम नहीं करती? दिनभर तो आप के काम में लगी रहती हूं. आप को अकेला छोड़ कर, मांबाप, बेटों, लड़कियों के पास बहुत कम जाती हूं. किसी परपुरुष पर कभी नजर नहीं डाली. आप से प्रेम न होता तो यह सब कैसे होता?’

‘बस, यही तो तुम्हारी गलती है. तुम समझती हो, प्रेमी के जीवन के लिए यही सबकुछ काफी है. पारस्परिक आकर्षण कायम रखने के लिए इन सब की जरूरत है. इन के बिना प्रेम का पौधा शायद फलेफूले नहीं, शायद शुष्क हो जाए. पर इन का अपना स्थान है. ये वास्तविक प्रेम, शारीरिक सन्निकटता का स्थान नहीं ले सकते. मैं ने भी कभी परस्त्री का ध्यान नहीं किया. कभी भी किसी अन्य स्त्री को प्रेम या वासना की दृष्टि से नहीं देखा. मैं तो तुम्हारी नजर, तुम्हारे स्पर्श के लिए ही तरसता रहा हूं. और तुम, इस पर कभी गौर ही नहीं करती. किताबों में लिखा है या नहीं कि पति के लिए स्त्री को वेश्या का रूप भी धारण करना चाहिए.’

करुणानिधि की इस तरह की बात सुन मधुमति तुनक कर जवाब देती, ‘मैं, और वेश्या? इस अधेड़ उम्र में? आप का दिमाग प्रेम की बातें सोचतेसोचते सही नहीं रहा. उम्र के साथ संतुलन भी तो रखना ही चाहिए. आप मेरी नजर को तरसते रहते हैं, मैं तो आप की नजर का ही इंतजार करती रहती हूं. आप के मुंह के रंग से, भावभंगिमा से, इशारे से समझ जाती हूं कि आप के मन में क्या है.’

‘मधुमति, यही अंतर तो तुम्हारी समझ में नहीं आ रहा. नजर ‘को’ मत देखो, नजर ‘में’ देखो. कितना समय हो गया है आंखें मिला कर एकदूसरे को देखे हुए? तुम्हारे पास तो उस के लिए भी समय नहीं है. आतेजाते, कभी देखो तो फौरन पहचान जाओगी कि मेरा मन तुम्हें चाहने को, तुम्हें पाने को कैसे उतावला रहता है, अधीर रहता है. पर तुम तो शायद समझ कर भी नजर फेर लेती हो. पता कैसे लगे? बताऊं कैसे?’

‘जैसे पहले बताते थे. पहले रोक कर, कभी आप मेरी आंखों में नहीं देखते थे? कभी हाथ नहीं पकड़ते थे? अब वह सब क्यों नहीं करते?

‘वह भी तो कर के देख लिया, पर सब बेकार है. हाथ पकड़ता हूं तो झट से जवाब आता है, ‘मुझे काम करना है या कोई देख लेगा,’ झट हाथ खींच लेती हो या करवट बदल कर सो जाती हो. मैं भी आखिर स्वाभिमानी हूं. जब वर्षों पहले तय कर लिया कि किसी स्त्री के साथ, पत्नी के साथ भी जोरजबरदस्ती नहीं करूंगा, क्योंकि उस से प्रेम नहीं पनपता, उस से प्रेम की कब्र खुदती है, तो फिर सिवा चुप रहने के, प्रेम को दबा देने के, अपना मुंह फेर लेने के और क्या शेष रह जाता है?

‘तुम साल दर साल और भी बदलती जा रही हो. हमारे पलंग साथसाथ हैं…2 फुट की दूरी पर हम लेटते हैं. पर ऐसा लगता है जैसे मीलों दूर हों. मीलों दूर रहना फिर भी अच्छा है. उस से विरह की आग तो नहीं भड़केगी. उस के बाद पुनर्मिलन तो प्रेम को चरमसीमा तक पहुंचा देगा. पर पासपास लेटें और फिर भी बहुत दूर. इस से तो पीड़ा और भी बढ़ती है. कभीकभी, लेटेलेटे, यदि सोई न हो, तो मुझे आशा बंधती कि शायद आज कुछ परिवर्तन हो. पर तुम घर की, बच्चों की बात शुरू कर देती हो.’

ऐसी बातें कई बार हुईं. कुछ समय तक कुछ परिवर्तन होता. पुराने दिनों, पुरानी रातों की फिर पुनरावृत्ति होती. पर कुछ समय बाद करुणानिधि फिर उदास हो जाता. जब से मधुमति ने 50 वर्ष पार किए थे, तब से वह और भी अलगथलग रहने लगी थी. करुणानिधि ने बहुत समझाया, पर वह कहती, ‘आप तो कभी बूढ़े नहीं होंगे. पर मैं तो हो रही हूं. अब वानप्रस्थ, संन्यास का समय आ गया है. बच्चों की शादी हो चुकी है. अब तो कुछ और सोचो. मुझे तो अब शर्म आती है.’

‘पतिपत्नी के बीच शर्म किस बात की?’ करुणानिधि झुंझला कर कहता, ‘मुझे पता है, तुम्हारे चेहरे पर झुर्रियां पड़ रही हैं. मेरे भी कुछ दांत निकल गए हैं. तुम मोटी भी हो रही हो. मैं भी बीमार रहता हूं. पर इस से क्या होता है? मेरे मन में तो तुम वही और वैसी ही मधुमति हो, जिस के साथ मेरा विवाह हुआ था. मुझे तो अब भी तुम वही नई दुलहन लगती हो. अब भी तुम्हारी नजर से, स्पर्श से, आवाज से मैं रोमांचित हो उठता हूं. फिर तुम्हें क्या कठिनाई है, किस बात की शर्म है?

‘हम दोनों के बारे में कौन सोच रहा है, क्या सोच रहा है, इस से तुम्हें क्या फर्क पड़ता है? अधिक से अधिक बच्चे और उन के बच्चे, मित्र, संबंधी यही तो कहेंगे कि हम दोनों इस उम्र में भी एकदूसरे से प्रेम करते हैं, एकदूसरे का साथ चाहते हैं, शायद सहवास भी करते हैं…तो कहने दो. हमारा जीवन, अपना जीवन है. यह तो दोबारा नहीं आएगा. क्यों न प्रेम की चरमसीमा पर रहतेरहते ही जीवन समाप्त किया जाए.’

मधुमति यह सब समझती थी. आखिर वर्षों से पति की प्रेमिका थी, पर पता नहीं क्यों, उतना नहीं समझती थी, जितना करुणानिधि चाहता था. उस के मन के किसी कोने में कोई रुकावट थी, जिसे वह पूर्णतया दूर न कर सकी. शायद भारतीय नारी के संस्कारों की रुकावट थी.

अस्पताल में बिस्तर पर पड़ा, यह सब सोचता हुआ, करुणानिधि चौंका, मधुमति घर से वापस आ गई थी. वह खाने का सामान मेज पर रख रही थी. वैसा ही सुंदर चेहरा जैसा विवाह के समय था…मुख पर अभी भी तेज और चमक. बाल अभी भी काफी काले थे. कुछ सफेद बाल भी उस की सुंदरता को बढ़ा रहे थे.

बरतनों की आवाज सुन कर करुणानिधि ने मधुमति की ओर देखा तो उसे दिखाई दीं, वही बड़ीबड़ी, कालीकाली आंखें, वही सुंदर, मधुर मुसकान, वही गठा हुआ बदन कसी हुई साड़ी में लिपटा हुआ. करुणानिधि को उस के चेहरे, गले, गरदन पर झुर्रियां तो दिख ही नहीं रही थीं. उसे प्रेम से देखता करुणानिधि बुदबुदाया, ‘तेरे इश्क की इंतिहा चाहता हूं.’

छोटे से कमरे में गूंजता यह वाक्य मधुमति तक पहुंच गया. सब समझते हुए वह मुसकराई और पास आ कर उस के माथे पर हाथ रख कर बोली, ‘‘फिर वही विचार, वही भावनाएं. दिल के दौरे के बाद कुछ दिन तो आराम कर लो.’’

करुणानिधि ने निराशा में एक लंबी, ठंडी सांस ली और करवट बदल कर दीवार की ओर मुंह कर लिया.

लेकिन कुछ समय बाद ही मधुमति को भी करुणानिधि की तरह लंबी, ठंडी सांस भरनी पड़ी और करवट बदल कर दीवार की ओर मुंह करना पड़ा.

अस्पताल से छुट्टी मिलने के बाद करुणानिधि घर आ गया. अच्छी तरह स्वास्थ्य लाभ करने में कुछ महीने लग गए. तब तक मधुमति उस से परे ही रही. उसे डर था कि समीप आने पर उसे दोबारा दिल का दौरा न पड़ जाए. उस ने इस डर के बारे में करुणानिधि को समझाने की कोशिश की, पर सब व्यर्थ. जब भी इस के बारे में बातें होतीं, करुणानिधि कहता कि वह उसे केवल टालने की कोशिश कर रही है.

कुछ महीने बाद करुणानिधि 61 वर्ष का हो गया और लगभग पूर्णतया स्वस्थ भी. इस कारण विवाह की सालगिरह की रात जब उस ने मधुमति की ओर हाथ बढ़ाया तो उस ने इनकार न किया, पर उस के बाद करुणानिधि स्तब्ध रह गया. पहली बार उसे अंगरेजी कहावत ‘माइंड इज विलिंग, बट द फ्लैश इज वीक’ (मन तो चाहता है, पर शरीर जवाब देता है.) का अर्थ ठीक से समझ में आया और वह दुखी हो गया.

मधुमति ने उसे समझाने की कोशिश की. उस रात तो कुछ समझ न आया, पर जब फिर कई बार वैसा ही हुआ तो उसे उस स्थिति को स्वीकार करना पड़ा, क्योंकि डाक्टरों ने उसे बता दिया था कि उच्च रक्तचाव और मधुमेह के कारण ही ऐसी स्थिति आ गई थी.

अब मधुमति दीवार की ओर मुंह मोड़ने लगी, पर मुसकरा कर. एक बार जब करुणानिधि ने इस निराशा पर खेद व्यक्त किया तो उस ने कहा, ‘‘खेद प्रकट करने जैसी कोई बात ही नहीं है. प्रकृति के नियमों के विरुद्ध कोई कैसे जा सकता है. जब बच्चों की देखभाल के कारण या घर के कामकाज के कारण मेरा ध्यान आप की ओर से कुछ खिंचा, तो वह भी प्रकृति के नियमों के अनुसार ही था. आप को उसे स्वीकार करना चाहिए था. जैसे आज मैं स्वीकार कर रही हूं.

आप के प्रति मेरे प्रेम में तब भी कोई अंतर नहीं आया था और न अब आएगा. प्रेम, वासना का दूसरा नाम नहीं है. प्रेम अलग श्रेणी में है, जो समय के साथ बढ़ता है, परिपक्व होता है. उस में ऐसी बातों से, किसी भी उम्र में कमी नहीं आ सकती. यही प्रेम की परिसीमा है.’’

करुणानिधि को एकदम तो नहीं, पर समय बीतने के साथ मधुमति की बातों की सत्यता समझ में आने लगी और फिर धीरेधीरे उन का जीवन फिर से मधुर प्रेम की निश्छल धारा में बहने लगा.

अपना अपना वनवास : क्या थी अकेलेपन की समस्या

एक बड़े महानगर से दूसरे महानगर में स्थानांतरण होने के बाद मैं अपने कमरे में सामान जमा रही थी कि दरवाजे की घंटी बजी.

‘‘कौन है?’’ यह सवाल पूछते हुए मैं ने दरवाजा खोला तो सामने एक अल्ट्रा माडर्न महिला खड़ी थी. मुझे देख कर उस ने मुसकरा कर कहा, ‘‘गुड आफ्टर नून.’’

‘‘कहिए?’’ मैं ने दरवाजे पर खड़ेखड़े ही उस से पूछा.

‘‘मेरा नाम बसंती है. मैं यहां ठेकेदारी का काम करती हूं,’’ उस ने मुझे बताया. लेकिन ठेकेदार से मेरा क्या रिश्ता…यहां क्यों आई है? ऐसे कई सवाल मेरे दिमाग में आ रहे थे. मैं कुछ पूछती उस के पहले ही उस ने कहना जारी रखते हुए बताया, ‘‘आप को किसी काम वाली महिला की जरूरत हो तो मैं उसे भेज सकती हूं.’’

मैं ने सोचा चलो, अच्छा हुआ, बिना खोजे मुझे घर बैठे काम वाली मिल रही है.

मैं ने कहा, ‘‘जरूरत तो है…’’ पर मेरा वाक्य पूरा भी नहीं हुआ था कि वह कहने लगी, ‘‘बर्तन साफ करने के लिए, झाडू़ पोंछा करने के लिए, खाना बनाने के लिए, बच्चे संभालने के लिए…आप का जैसा काम होगा वैसी ही उस की पगार रहेगी.’’

मैं कुछ कहती उस से पहले ही उस ने फिर बोलना शुरू किया, ‘‘उस की पगार पर मेरा 2 प्रतिशत कमीशन रहेगा.’’

‘‘तुम्हारा कमीशन क्यों?’’ मैं ने पूछा.

‘‘हमारा रजिस्टे्रेशन है न मैडम, जिस काम वाली को हम आप के पास भेज रहे हैं उस के द्वारा कभी कोई नुकसान होगा या कोई घटनादुर्घटना होगी तो उस की जिम्मेदारी हमारी होगी,’’ उस ने मुझे 2 प्रतिशत कमीशन का स्पष्टीकरण देते हुए बताया.

‘‘यहां तो काम…’’

‘‘बर्तन मांजने का होगा, आप यही कह रही हैं न,’’ उस ने मेरी बात सुने बिना पहले ही कह दिया, ‘‘मैडम, कितने लोगों के बर्तन साफ करने होंगे, बता दीजिए ताकि ऐसी काम वाली को मैं भेज सकूं.’’

‘‘तुम ने अपना नाम बसंती बताया था न?’’

‘‘जी, मैडम.’’

‘‘तो सुनो बसंती, मेरे घर पर बर्तन मांजने, पोंछने वाली मशीन है.’’

‘‘सौरी मैडम, कपड़े साफ करने होंगे? तो कितने लोगों के कपड़े होंगे? मुझे पता चले तो मैं वैसी ही काम वाली जल्दी से आप के लिए ले कर आऊं.’’

‘‘बसंती, तुम गजब करती हो. मुझे मेरी बात तो पूरी करने दो,’’ मैं ने कहा.

‘‘कहिए, मैडमजी.’’

‘‘मेरे घर पर वाशिंग मशीन है.’’

‘‘फिर आप को झाड़ ूपोंछा करने वाली बाई चाहिए…है न?’’

‘‘बिलकुल नहीं.’’

उस ने यह सुना तो उसे बहुत आश्चर्य हुआ. कहने लगी, ‘‘कपड़े धोने वाली नहीं, बर्तन मांजने वाली नहीं,

झाड़ू पोंछे वाली नहीं, तो फिर मैडमजी…’’

‘‘क्योंकि मेरे घर पर वेक्यूम क्लीनर है, बसंती.’’

‘‘फिर खाना बनाने के लिए?’’ उस ने हताशा से अंतिम आशा का तीर छोड़ते हुए पूछा.

‘‘नो, बसंती. खाना बनाने के लिए भी नहीं, क्योंकि मैं पैक फूड लेती हूं और आटा गूंथने से ले कर रोटी बनाने की मेरे पास मशीन है,’’ मैं ने विजयी मुसकान के साथ कहा.

उस के चेहरे पर परेशानी झलकने लगी थी. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर इस नए घर से उसे 2 प्रतिशत की आमदनी होने वाली थी उस का क्या होगा.

उस ने हताशा भरे स्वर में कहा, ‘‘मैडमजी, मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है कि जब सबकुछ की मशीन आप के पास है तो आखिर आप को काम वाली महिला क्यों चाहिए? उस का तो कोई उपयोग है ही नहीं.’’

मुझे भी हंसी आ गई थी. मुझे हंसता देख कर उस की उत्सुकता और बढ़ गई. उस ने बडे़ आदर के साथ पूछा, ‘‘मैडमजी, बताएं तो फिर वह यहां क्या काम करेगी?’’

कुछ देर चुप रही मैं. उस ने अंतिम उत्तर खोज कर फिर कहा, ‘‘समझ गई.’’

‘‘क्या समझीं?’’

‘‘घर की रखवाली के लिए चाहिए?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘बच्चों की देखरेख के लिए?’’

‘‘नो, बसंती. मैं ने अभी शादी भी नहीं की है.’’

‘‘तो मैडमजी, फिर आप ही बता दें, आप को काम वाली क्यों चाहिए?’’

अब मैं ने उसे बताना उचित समझा. मैं ने कहा, ‘‘बसंती, पिछले दिनों मैं दिल्ली में थी और आज नौकरी के चक्कर में बंगलौर में हूं. मुझे अच्छी पगार मिलती है. मेरा दिन सुबह 5 बजे से शुरू होता है और रात को 11 बजे तक चलता रहता है. मेरी सहेली कंप्यूटर है. मेरे रिश्तेदार सर्वे, डाटा, प्रोजेक्ट रिपोर्ट हैं. सब सिर्फ काम ही काम है. मेरे घर में सब मशीनें हैं. मुझे एक महिला की जरूरत है जो मेरे खाली समय में मुझ से बातचीत कर सके. मुझे इस बात का एहसास कराती रहे कि मैं भी इनसान हूं. मैं भी जिंदा हूं. मैं मशीन नहीं… समाज का अंग हूं.’’

मैं ने उसे विस्तार से अपनी पीड़ा बताई. मेरी बात सुन कर वह ठगी सी रह गई. उस ने आगे बढ़ कर मुझ से कहा, ‘‘मैडमजी, आप को ऐसी काम करने वाली महिला मैं भी नहीं दिला पाऊंगी,’’ कह कर वह कमरे से निकल गई.

मुझे लगा कि सब को अपनेअपने एकांत का वनवास खुद ही भोगना होता है. मैं फिर अपने कमरे का सामान जमाने में लग गई.

जिंदगी के साथ भी जिंदगी के बाद भी

वह औरत कौन थी? कार में धीरज के साथ कहां जा रही थी? धीरज के साथ उस का क्या रिश्ता था? धीरज के पास से तो उस का मोबाइल और पर्स मिल गया था, लेकिन उस औरत का कोई पहचानपत्र या मोबाइल घटनास्थल से बरामद नहीं हुआ. इस वजह से यह सब एक रहस्य बन गया था.

धीरज के मित्र, औफिस वाले, रिश्तेदार और पड़ोसी सब जानना चाहते थे कि आखिर वह औरत थी कौन? और उस का धीरज से क्या रिश्ता था? सब को धीरज की मौत का गम कम, उस राज को जानने की उत्सुकता ज्यादा थी.

जिंदगी में कभीकभी ऐसा घटित हो जाता है कि इंसान समझ ही नहीं पाता कि यह क्या हो गया? ऐसी ही एक घटना नहीं बल्कि दुर्घटना घटी शोभा के साथ. उस का पति धीरज एक औरत के साथ सड़क दुर्घटना में मारा गया था.

पुलिस ने अपनी खानापूर्ति कर दी. दोनों लाशों का पोस्टमौर्टम हो गया. उस औरत की लाश को लेने कोई नहीं आया, सो, उस का अंतिम संस्कार पुलिस द्वारा कर दिया गया.

वह औरत शादीशुदा थी क्योंकि उस की मांग में सिंदूर था. सवाल यह था कि वह गैरमर्द के साथ कार में क्यों थी? कार के कागजात के आधार पर पता चला कि वह कार धीरज के मित्र की थी. एक दिन पहले ही धीरज ने उस से यह कह कर ली थी कि वह एक जरूरी काम से चंडीगढ़ जा रहा है, लेकिन कार दुर्घटनाग्रस्त हुई दिल्लीआगरा यमुना ऐक्सप्रैसवे पर यानी धीरज ने अपने मित्र से झूठ बोला.

जब दुर्घटना की गुत्थी नहीं सुलझ सकी तो लोगों ने खुल कर कहना शुरू कर दिया कि उस औरत के साथ धीरज के अवैध रिश्ते रहे होंगे और वे दोनों मौजमस्ती के लिए निकले होंगे.

लोगों की इस बेहूदा सोच पर शोभा खासी नाराज थी लेकिन वह कर भी क्या सकती थी. किसी का मुंह वह बंद तो नहीं कर सकती थी.

धीरज उसे बहुत प्यार करता था. शादी के 5 वर्षों में जब उन्हें संतान सुख नहीं मिला तब उन दोनों ने अपनाअपना मैडिकल चैकअप कराया. रिपोर्ट में पता चला कि वह मां नहीं बन सकती जबकि धीरज पिता बनने के काबिल था. यह जान कर वह बहुत रोई और धीरज से बोली, ‘तुम दूसरी शादी कर लो, मैं अपना जीवन काट लूंगी.’

‘शोभा, अगर कमी मुझ में होती तो क्या तुम मुझे छोड़ कर दूसरी शादी कर लेतीं,’ कहते हुए धीरज ने उसे अपनी बांहों में भर लिया था.

क्या उस से इतना प्यार करने वाला धीरज उस के साथ इस तरह बेवफाई कर सकता है? शोभा ने अपने मन को यह कह कर तसल्ली दी, हो सकता है उस औरत ने धीरज से लिफ्ट मांगी हो. लेकिन दिमाग में कुछ सवाल बिजली की तरह कौंध रहे थे कि धीरज ने अपने दोस्त से गाड़ी चंडीगढ़ जाने को कह कर ली तो फिर वह आगरा जाने वाले यमुना ऐक्सप्रैसवे पर क्यों गया? मित्र से उस ने झूठ क्यों बोला? आखिर वह जा कहां रहा था? और उसे भी कुछ बता कर नहीं गया जबकि वह उस को छोटी से छोटी बात भी बताता था. कुछ बात तो जरूर है तभी धीरज ने उस से अपने बाहर जाने की बात छिपाई थी.

शोभा को दुखी और परेशान देख कर उस के पिता ने कहा, ‘‘बेटी, जो होना था वह तो हो गया, तुम अब खुद को मजबूत करो और आर्थिक रूप से अपने पांवों पर खड़ी होने की कोशिश करो. धीरज की कोई सरकारी नौकरी तो थी नहीं कि जिस के आधार पर तुम्हें नौकरी या पैंशन मिलेगी. उस के कागजात देखो, शायद उस ने कोई इंश्योरैंस पौलिसी वगैरह कराई हो. उस के बैंक खातों को भी देखो. शायद तुम्हें कुछ आर्थिक मदद मिल सके.’’

‘‘नहीं पापा, मुझे सब पता है. उन्होंने कोई पौलिसी वगैरह नहीं कराई थी. न ही बैंक में कोई खास रकम है, क्योंकि उन की नौकरी मामूली थी और वेतन भी कम था. कुछ बचता ही कहां था जो वे जमा करते. वे अपने मांबाप की भी आर्थिक मदद करते थे.’’

‘‘फिर भी बेटा, एक बार देख लो, हर इंसान अपने आने वाले वक्त के लिए करता है और फिर धीरज जैसे समझदार इंसान ने भी कुछ न कुछ अवश्य किया होगा.’’

दुखी मन से शोभा ने धीरज की अलमारी खोली, शायद उस के कागजात के साथ ही उस के साथ हुए हादसे का भी कोई सूत्र मिल जाए. अलमारी में बैंक की एक चैकबुक मिली और भारतीय जीवन बीमा निगम की एक डायरी मिली. उस ने उसे जोश के साथ से खोला. पहले ही पृष्ठ पर लिखा था, ‘जिंदगी के साथ भी, जिंदगी के बाद भी.’ कुछ पृष्ठों पर औफिस से संबंधित कार्यों का लेखाजोखा था.

डायरी के बीच में एक मैडिकल स्टोर का परचा मिला, जिस में कुछ दवाइयां लिखी थीं. ये कौन सी दवाइयां थीं, खराब लिखावट की वजह से कुछ भी समझ नहीं आ रहा था. जिस तारीख का परचा था, शोभा को खासा याद था कि उस ने उस दौरान कोई दवाई नहीं मंगाई थी. इस का मतलब धीरज ने अपने लिए दवा खरीदी थी. यह सोच कर वह भयभीत हो उठी कि कहीं धीरज किसी गंभीर बीमारी से पीडि़त तो नहीं था.

उस ने फौरन मैडिकल स्टोर जाने का फैसला लिया. वह मैडिकल स्टोर उस के घर से काफी दूर था, लेकिन वह वहां गई. मैडिकल स्टोर वाले ने परचे पर लिखी दवाएं तो बता दीं लेकिन दवाएं लेने कौन आया था, वह न बता सका. दवाइयां दांतों की बीमारी से संबंधित थीं.

उस दौरान धीरज को दांतों से संबंधित कोई समस्या नहीं थी. अगर थी भी तो वह अपने घर या औफिस के नजदीक के मैडिकल स्टोर से दवा लेता. इतनी दूर आने की क्या जरूरत थी? तो इस का मतलब साफ था कि धीरज ने किसी और के लिए दवाइयां खरीदी थीं. किस के लिए खरीदी थीं, यह जानने के लिए शोभा ने घर आ कर धीरज का सामान फिर से टटोला.

उस ने उस की डायरी दोबारा अच्छी तरह से चैक की. 15 अगस्त वाले पृष्ठ पर उस ने लिखा था, ‘आज आजादी का दिन मेरे लिए खास बन गया.’ आखिर15 अगस्त को ऐसा क्या हुआ था जो उस के लिए खास बन गया था, इस बात का जिक्र नहीं था.

उस ने उस के मोबाइल पर भी एक चीज नोट की, उस ने अपने मोबाइल के वालपेपर पर तिरंगे के साथ अपनी हंसतीमुसकराती तसवीर लगा रखी थी. तभी उस का मोबाइल बज उठा. बच्चे की खिलखिलाहट की रिंगटोन थी. यह सत्य था कि उसे बच्चों से बहुत प्यार था, इसलिए उस ने बच्चे की खिलखिलाहट की रिंगटोन लगा रखी थी. लेकिन आज ध्यान से सुना तो बीच में कोई धीरे से बोल रहा था, ‘पापा, बोलो पापा.’

यह सुन कर उस का माथा ठनका. हो न हो, 15 अगस्त और बच्चे की खिलखिलाहट में कुछ न कुछ राज जरूर छिपा है.

वालपेपर को उस ने गौर से देखा. धीरज के पीछे एक अस्पताल था. अस्पताल का नाम साफ नजर आ रहा था. शायद उस ने सैल्फी ली थी यानी 15 अगस्त को धीरज उस अस्पताल के पास था. वह वहां क्यों गया था, यह जानने के लिए वह तुरंत उस अस्पताल के लिए चल पड़ी. वह भी काफी दूर था. वहां गई तो वास्तव में अस्पताल के बाहर तिरंगा लहरा रहा था. यह तो तय हो गया था कि धीरज ने सैल्फी यहीं ली थी. लेकिन वह यहां करने क्या आया था. अचानक उस के मस्तिष्क में बच्चे की खिलखिलाहट की रिंगटोन और ‘पापा, बोलो पापा’ की ध्वनि बिजली की तरह कौंध गई और वह फौरन अस्पताल के अंदर चली गई.

मैटरनिटी होम के रिसैप्शन पर जा कर उस ने 15 अगस्त को जन्मे बच्चों की जानकारी चाही. पहले तो उसे मना कर दिया गया, लेकिन काफी रिक्वैस्ट करने पर बताया गया कि उस दिन 7 बच्चे हुए थे जिन में 4 लड़के और 3 लड़कियां थीं. उन बच्चों के पिता के नाम में धीरज का नाम नहीं था. सातों मांओं के नाम उस ने नोट कर लिए. अस्पताल के नियम के मुताबिक उसे उन के पते और मोबाइल नंबर नहीं दिए गए.

घर आ कर उस ने धीरज के मोबाइल में उन नामों के आधार पर नंबर ढूंढ़े, लेकिन कोई नंबर नहीं मिला. एक नंबर जरूर ‘एस’ नाम से सेव था. उस ने उस नंबर पर फोन लगाया तो उधर से एक नारीस्वर गूंजा, ‘‘कौन?’’

‘‘जी, मैं बोल रही हूं.’’

‘‘कौन? तू सीमा बोल रही है क्या?’’

यह सुन कर वह थोड़ा घबराई, ‘‘आप मेरी बात तो सुनिए.’’

‘‘अरे सीमा, क्या बात सुनूं तेरी? तू उस दिन शाम तक आने को कह कर गई थी और आज चौथा दिन है. तेरे बच्चे का रोरो कर बुरा हाल है. जल्दबाजी में तू अपना मोबाइल और पर्स भी यहीं भूल गई. तेरे फोन भी आ रहे हैं. समझ नहीं आ रहा कि क्या कहूं कि तू है कहां?’’

‘‘जी, वह बात यह है कि…’’

‘‘तू इतना घबरा कर क्यों बोल रही है? कोई परेशानी है तो मुझे बता, क्या पति से झगड़ा हो गया है?’’

‘‘जी, मैं सीमा नहीं, उस की बहन शोभा बोल रही हूं.’’

‘‘शोभा? लेकिन सीमा ने कभी आप का जिक्र ही नहीं किया. आप बोल कहां से रही हैं?’’ उस ने हैरानी से पूछा.

‘‘मैं आप को फोन पर कुछ नहीं बता पाऊंगी. आप से मिल कर सबकुछ विस्तार से बता दूंगी. शीघ्र ही मैं आप से मिलना चाहती हूं. प्लीज, आप अपना पता बता दीजिए,’’ निवेदन करते हुए उस ने कहा.

‘‘ठीक है, मैं अभी आप को अपना पता एसएमएस करती हूं.’’

चंद मिनटों में ही उस का पता मोबाइल स्क्रीन पर आ गया और शोभा शीघ्र ही वहां के लिए रवाना हो गई.

जैसे ही शोभा ने दरवाजे की घंटी बजाई, एक अधेड़ उम्र की महिला ने दरवाजा खोला, ‘‘आप शोभाजी हैं न,’’ कहते हुए वे उसे बहुत सम्मान के साथ अंदर ले गईं.

पानी का गिलास पकड़ाते हुए बोलीं, ‘‘सीमा ने कभी आप का जिक्र तक नहीं किया था. वह मेरे यहां किराए पर अपने पति के साथ रहती थी. अभी 15 अगस्त को उस के बेटा  भी हुआ है. उस की ससुराल और मायके से कोई नहीं आया था. सारा काम मैं ने और उस के पति ने ही संभाला था. वह मुझे मां समान मानती है. अभी

4 दिनों पहले ही सुबह 6 बजे अपने बेटे को मेरे पास छोड़ कर जाते हुए बोली थी, ‘‘आंटी, एक बहुत जरूरी काम से हम दोनों जा रहे हैं, शाम तक वापस आ जाएंगे, प्लीज, तब तक आप आर्यन को संभाल लेना.’’

अपने पर्स से धीरज का फोटो निकाल कर उन्हें दिखाते हुए शोभा बोली, ‘‘आंटी, क्या यही सीमा के पति हैं?’’

‘‘हां, यही इस के पति हैं, लेकिन आप क्यों पूछ रही हैं? आप को तो सबकुछ पता होना चाहिए, क्योंकि आप तो सीमा की बहन हैं,’’ उन्होंने शंका जाहिर की.

‘‘आंटी, बात दरअसल यह है कि सीमा ने परिवार की मरजी के खिलाफ प्रेमविवाह किया था, इसलिए हमारा उस से संपर्क नहीं था. लेकिन अभी 4 दिनों पहले ही सीमा और उस के पति की एक कार ऐक्सिडैंट में मौत हो गई है. आखिरी समय में उस ने पुलिस को हमारा पता और आप का मोबाइल नंबर बताया था. उसी के आधार पर मैं यहां आई हूं,’’ कहते हुए उस ने अखबार की कटिंग जिस में दुर्घटना के समाचार के साथसाथ सीमा और धीरज की तसवीर थी, दिखा दी, और फिर सुबक पड़ी. वे बुजुर्ग महिला भी रो पड़ीं और सिसकते हुए बोलीं, ‘‘अब आर्यन तो अनाथ हो गया.’’

‘‘नहीं आंटी, आर्यन क्यों अनाथ हो गया. उस की मौसी तो जिंदा है. मैं पालूंगी उसे. आखिर मौसी भी तो मां ही होती है.’’

‘‘हां शोभा, तुम ठीक कह रही हो. अब तुम ही संभालो नन्हें आर्यन को,’’ कहते हुए वे अंदर से एक 7-8 माह के बच्चे को ले आईं जो हूबहू धीरज की फोटोकौपी था.

शोभा ने बच्चे को अपनी छाती से ऐसे चिपका लिया जैसे कोई उसे छीन न ले. वह जल्दी से जल्दी वहां से निकलना चाह रही थी.

आंटी ने कहा, ‘‘आप सीमा का कमरा खोल कर देख लो. बच्चे का जरूरी सामान तो अभी ले जाओ, बाकी सामान जब जी चाहे ले जाना. उस के बाद ही मैं कमरा किसी और को किराए पर दूंगी.’’

उस ने सीमा का कमरा खोला. कमरे में खास सामान नहीं था. बस, जरूरी सामान था. बच्चे का सामान और सीमा का पर्स व मोबाइल ले कर वह आंटी को फिर आने को कह कर घर चल पड़ी.

सारे रास्ते सोचती रही कि धीरज ने उस के साथ कितना बड़ा धोखा किया. दूसरी शादी रचा ली और बच्चा तक पैदा कर लिया. जब खुद उस ने दूसरी शादी के लिए कहा था तब कितनी वफादारी दिखा रहा था. ऐसे दोहरे व्यक्तित्व वाले इंसान के प्रति उस का मन घृणा से भर गया.

घर आ कर उस ने सब से पहले सीमा का पर्स चैक किया. पर्स में थोड़ेबहुत रुपए, दांतों के डाक्टर का परचा और थोड़ाबहुत कौस्मैटिक का सामान था. पैनकार्ड और आधारकार्ड से पता चला कि सीमा धीरज के ही शहर की थी. इस का मतलब धीरज शादी के पहले से ही सीमा को जानता था और उस का प्रेमप्रसंग काफी पुराना था.

फिर उस ने सीमा का मोबाइल चैक किया. वालपेपर पर सीमा, धीरज और बच्चे का फोटो लगा था. व्हाट्सऐप पर काफी मैसेज थे जो डिलीट नहीं किए गए थे.

‘‘सीमा, इतने सालों बाद तुम मुझे मैट्रो में मिली. मुझे अच्छा लगा. लेकिन यह जान कर दुख हुआ कि तुम्हारा पति से तलाक हो चुका है.’’

‘‘नहीं, मैं तुम्हारे घर नहीं आऊंगा क्योंकि अब मैं शादीशुदा हूं और अपनी पत्नी से बहुत प्यार करता हूं. वैसे भी तुम अकेली रहती हो, मुझे देख कर तुम्हारी मकानमालकिन आंटी क्या सोचेंगी?’’

‘‘तुम ने आंटी को अपना परिचय मेरे पति के रूप में दिया, यह मुझे अच्छा नहीं लगा.’’

‘‘हमारे बीच जो कुछ क्षणिक आवेश में हुआ, उस के लिए मैं तुम से माफी चाहता हूं और अब मैं तुम से कभी नहीं मिलूंगा.’’

‘‘क्या? मैं पिता बनने वाला हूं.’’

‘‘सीमा, प्लीज जिद छोड़ दो, मैं शोभा को तलाक नहीं दे सकता. मैं

उसे सचाई बता दूंगा. वह स्वीकार कर लेगी. उस का दिल बहुत बड़ा है. हम सब साथ रहेंगे. हमारे बच्चे को 2-2 मांओं का प्यार मिलेगा.’’

‘‘सीमा, मुझे अपने बच्चे से मिलने दो. उस के बिना मैं मर जाऊंगा.’’

इस के अलावा औरों के भी मैसेज थे. तभी अचानक सीमा के मोबाइल की घंटी बजी. उस ने तुरंत रिसीव किया, ‘‘कौन?’’

‘‘कौन की बच्ची? इतने दिनों से फोन लगा रही हूं. हर बार तेरी खड़ूस आंटी उठाती है और कहती है कि तू अभी तक वापस नहीं आई. क्या बात है? मथुरा में शादी कर के वहीं से हनीमून मनाने भी निकल गई.’’

शोभा चुप रही. बस, ‘‘हूं’’ कहा.

‘‘अच्छा, व्यस्त है हनीमून में. वैसे सीमा, यह ठीक ही रहा वरना धीरज तो तुझे अपने घर में अपनी बीवी की नौकरानी बना कर रख देता. तेरा बच्चा भी तेरा अपना नहीं रहता. बच्चे से न मिलने देने की धमकी सुन कर आ गया न लाइन पर. मेरा यह आइडिया कामयाब रहा. अब मंदिर में तू ने शादी तो कर ली है लेकिन ऐसी शादी कोई नहीं मानेगा, इसलिए बच्चे को ढाल बना कर जल्दी से जल्दी धीरज को अपनी बीवी से तलाक के लिए राजी कर.’’

‘‘हांहां,’’ शोभा ने अटकते स्वर में कहा.

‘‘हांहां मत कर, पार्टी की तैयारी शुरू कर. मैं अगले हफ्ते ही दिल्ली आ रही हूं औफिस के काम से.’’

‘‘ठीक है,’’ कहते हुए शोभा ने फोन काट दिया.

धीरज के प्रति उस के मन में जो गलत भाव आ गए थे, वे एक पल में धुल गए. सच में धीरज ने एक पति होने के नाते उसे पूरा मानसम्मान और प्रेम दिया. वह धीरज पर गौरवान्वित हो उठी. धीरज की निशानी नन्हें आर्यन को पा कर उस का तनमन महक उठा. उस ने उसे कस कर सीने से लगा लिया और बरसों से सहेजा ममता का खजाना उस पर लुटा दिया.

उस के अनुभवी पिता ने सत्य ही कहा था कि धीरज जैसे समझदार इंसान ने भविष्य के लिए कुछ न कुछ जरूर किया होगा. वास्तव में उस ने अपनी जिंदगी की एक महत्त्वपूर्ण पौलिसी करा ही दी थी जो शोभा का सुरक्षित भविष्य बन गई थी. बीमा कंपनी की टैग लाइन ‘जिंदगी के साथ भी जिंदगी के बाद भी’ को सार्थक कर दिया था धीरज ने. वह जिंदगी में शोभा के साथ था और जिंदगी के बाद भी उस के साथ है नन्हें आर्यन के रूप में.

आराम हराम है: आराम करने की तकनीक

आज मेरी जो हालत है इस के जिम्मेदार पूरी तरह नेहरूजी हैं. कहना तो मुझे चाचा नेहरू चाहिए था पर क्या है कि जब मैं बच्ची थी तब भी वह मुझे चाचा नहीं लगते थे. वह हमारे दादा की उम्र के थे और हमारे सगे चाचा सजीले नौजवान थे, उन के केश पंडित नेहरू की तरह सफेद न थे.

यहां गौर करने की एक बात यह भी है कि चाचा नेहरू हमें बता गए हैं कि आराम हराम है और हमारे पिताजी ने इसे पत्थर की लकीर समझा. खुद तो सुबह उठते ही हमें भी उठा देते कि उठ जाग मुसाफिर भोर भई. उसी के साथ हमारे सामने वह पोथियां खुल जातीं जिन्हें पढ़ कर कोई पंडित नहीं बनता और जिस ढाई आखर को पढ़ कर इनसान पंडित हो सकता है वह भरे पेट का चोंचला है.

प्रेम के लिए फुरसत होनी चाहिए कि बैठे रहें तसव्वुरएजानां किए हुए. सुबह 4 बजे से रात 11 बजे तक की इस समय सारिणी में प्रेम के लिए हमारे पास कोई घंटा ही न बचा था. पढ़ोलिखो, नौकरीचाकरी, घरगृहस्थी, चौकाचूल्हा, बालबच्चे, और फिर पांव की लंबाई का एडजस्टमेंट, इन सब के साथ लिफाफा चंगा दिखाई दे, यह भी काम बड़ा था. जब तेजतेज गाड़ी हांकतेहांकते यह पता चला कि अब तो सफर खत्म ही हो चला है तो इस में आराम का समय न था, इसलिए आराम का अभ्यास भी न रहा.

जैसे हर कोई प्रेम नहीं कर सकता, एवरेस्ट पर नहीं चढ़ सकता, ऐसे ही हर कोई आराम भी नहीं कर सकता. आराम करना हुनर का काम है. हम चाहें तोे भी आराम नहीं कर सकते. आता ही नहीं है. पिताजी ने सिखाया कि सुबह से रात तक कुछ न कुछ करते ही रहो. अम्मां ने देखा कि लड़की खाली तो नहीं बैठी है, सब काम हो गए तो पुराने स्वेटर को उधेड़ कर फिर से बुन लो. परदे पुराने, बदरंग हो गए तो उन से गद्दे का कवर बना डालो.

दिमाग खाली न था  इसलिए शैतान उस में न रहा और भरा था इसलिए भगवान उस में न समा सके. भगवान का निवास यों भी दिमाग में नहीं दिल में होता है. हमारे यहां दिल वाले आदमी ही होते हैं, औरतें दिलविल की लग्जरी में नहीं पड़तीं. दिल होता नहीं, विल उन की कोई पूछता नहीं. एक दिल वाली ने विल कर दी तो देखा  कैसे कोर्टकचहरी हुई.

जब कहा गया है कि आराम हराम है तो इस का अर्थ है कि सुख न मिलेगा. हाथों में हथकड़ी, पैरों में छाले होंगे, आगे होगा भूख और बेकारी का जीवन, हड़तालें होंगी, अभाव यों बढे़ंगे जैसे दु्रपद सुता का चीर.

मान लीजिए चाचा नेहरू ने काम हराम कहा होता तो मुल्क सुख के हिंडोले में झूलता. किसान काम न करते, मजदूर काम न करते. सब ओर दूध की नदियां बहतीं. अप्सराएं नृत्य करतीं. आप ने कभी स्वर्ग में देवताओं को काम करते सुना है, पढ़ा है. कोई काम करे तो उन के सिंहासन हिलने लगते हैं. वह उत्सवधर्मी हेलीकाप्टरों की तरह  होते हैं जो केवल पुष्पवर्षा करते हैं. उन्हें तो बस अपना गुणगान सुनना अच्छा लगता है और यज्ञ भाग न पहुंचे तो नाराज हो जाते हैं. यह खुशी की बात है कि हमारे अधिकारी देवतुल्य होते हैं. उन्हें भी देवताओं की तरह आराम चाहिए होता है. दोनों ही उसे दारुण दुख देने को तैयार रहते हैं, जो दुष्ट उन की भक्ति नहीं करता. गरीबों को सताने का अपना आनंद जो ठहरा.

आराम हराम है का राग अलापने वाले यह भी जानते हैं कि जितने आदमी उतने ही हरामखोर. आखिर इस धरती पर कौन इतना फरमाबरदार है कि आराम का मौका मिले तो उसे हाथ आए बटेर की तरह छोड़ दे. जनगणना वालों के पास आंकड़े उपलब्ध बेशक न हों लेकिन सब को पता है कि सौ में से 10 काम करते हैं, शेष हरामखोरी कर के ही काम चलाते हैं. पूरे आलम में कुछ नहीं चलता फिर भी शासन प्रशासन चलते हैं, राजधर्म निभते हैं और तख्त भी पलटते हैं. देखा जाए तो यह सब भी एक तरह से काम  ही है. भूख और बाढ़ से मरने वालों को लगता बेशक हो पर यह काम नहीं होता. काम होता है इस की समीक्षा, कारण, दौरे और रिपोर्ट.

जिन्हें आराम करना आता है वे जानते हैं कि कब और कैसे आराम किया जाता है. उस के लिए समय कैसे निकाला जाए, इस की भी एक तकनीक होती है. आप कैसे ‘रिलैक्स’ कर सकते हैं, तनाव से कैसे छुटकारा पा सकते हैं, इस के लिए भी विशेषज्ञ सलाह देते हैं. इधर सुबह की सैर के दौरान जगहजगह ऐसे प्रशिक्षक होते हैं जो नियम के अनुसार 3 बार हंसाते हैं. हंसो, हंसो जोर से हंसो, हंसो हंसो दिलखोल कर हंसो, लोग हंसने में भी शरमाते हैं, सकुचाते हैं, हम कैसे हंसें, हमें तो हंसना ही नहीं आता.

अभी वह समय भी आएगा जब आराम करना सिखाने के लिए भी टें्रड प्रशिक्षक होंगे. आंखें बंद कीजिए, शरीर को ढीला छोडि़ए और गहरी सांस लीजिए.

ऐसे में मेरी जैसी कोई लल्ली पूछेगी, ‘‘एक्सक्यूज मी, यह सांस क्या होती है?’’

जिंदगी के रंग (भाग-1)

‘‘बीबीजी…ओ बीबीजी, काम वाली की जरूरत हो तो मुझे आजमा कर देख लो न,’’ शहर की नई कालोनी में काम ढूंढ़ते हुए एक मकान के गेट पर खड़ी महिला से वह हाथ जोड़ते हुए काम पर रख लेने की मनुहार कर रही थी.

‘‘ऐसे कैसे काम पर रख लें तुझे, किसी की सिफारिश ले कर आई है क्या?’’

‘‘बीबीजी, हम छोटे लोगों की सिफारिश कौन करेगा?’’

‘‘तेरे जैसी काम वाली को अच्छी तरह देख रखा है, पहले तो गिड़गिड़ा कर काम मांगती हैं और फिर मौका पाते ही घर का सामान ले कर चंपत हो जाती हैं. कहां तेरे पीछे भागते फिरेंगे हम. अगर किसी की सिफारिश ले कर आए तो हम फिर सोचें.’’

ऐसे ही जवाब उस को न जाने कितने घरों से मिल चुके थे. सुबह से शाम तक गिड़गिड़ाते उस की जबान भी सूख गई थी, पर कोई सिफारिश के बिना काम देने को तैयार नहीं था.

कितनों से उस ने यह भी कहा, ‘‘बीबीजी, 2-4 दिन रख के तो देख लो. काम पसंद नहीं आए तो बिना पैसे दिए काम से हटा देना पर बीबीजी, एक मौका तो दे कर देखो.’’

‘‘हमें ऐसी काम वाली की जरूरत नहीं है. 2-4 दिन का मौका देते ही तू तो हमारे घर को साफ करने का मौका ढूंढ़ लेगी. ना बाबा ना, तू कहीं और जा कर काम ढूंढ़.’’

‘आज के दिन और काम मांग कर देखती हूं, यदि नहीं मिला तो कल किसी ठेकेदार के पास जा कर मजदूरी करने का काम कर लूंगी. आखिर पेट तो पालना ही है.’ मन में ऐसा सोच कर वह एक कोठी के आगे जा कर बैठ गई और उसी तरह बीबीजी, बीबीजी की रट लगाने लगी.

अंदर से एक प्रौढ़ महिला बाहर आईं. काम ढूंढ़ने की मुहिम में वह पहली महिला थीं, जिन्होंने बिना झिड़के उसे अंदर बुला कर बैठाते हुए आराम से बात की थी.

‘‘तुम कहां से आई हो? कहां रहती हो? कौन से घर का काम छोड़ा है? क्याक्या काम आता है? कितने रुपए लोगी? घर में कौनकौन हैं? शादी हुई है या नहीं?’’ इतने सारे प्रश्नों की झड़ी लगा दी थी उन्होंने एकसाथ ही.

बातों में मिठास ला कर उस ने भी बड़े धैर्य के साथ उत्तर देते हुए कहा, ‘‘बीबीजी, मैं बाहर से आई हूं, मेरा यहां कोई घर नहीं है, मुझे घर का सारा काम आता है, मैं 24 घंटे आप के यहां रहने को तैयार हूं. मुझ से काम करवा कर देख लेना, पसंद आए तो ही पैसे देना. 24 घंटे यहीं रहूंगी तो बीबीजी, खाना तो आप को ही देना होगा.’’

उस कोठी वाली महिला पर पता नहीं उस की बातों का क्या असर हुआ कि उस ने घर वालों से बिना पूछे ही उस को काम पर रखने की हां कर दी.

‘‘तो बीबीजी, मैं आज से ही काम शुरू कर दूं?’’ बड़ी मासूमियत से वह बोली.

‘‘हां, हां, चल काम पर लग जा,’’ श्रीमती चतुर्वेदी ने कहा, ‘‘तेरा नाम क्या है?’’

‘‘कमला, बीबीजी,’’ इतना बोल कर वह एक पल को रुकी फिर बोली, ‘‘बीबीजी, मेरा थोड़ा सामान है, जो मैं ने एक जगह रखा हुआ है. यदि आप इजाजत दें तो मैं जा कर ले आऊं,’’ उस ने गिड़गिड़ाते हुए कहा.

‘‘कितनी देर में वापस आएगी?’’

‘‘बस, बीबीजी, मैं यों गई और यों आई.’’

काम मिलने की खुशी में उस के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. उस ने अपना सामान एक धर्मशाला में रख दिया था, जिसे ले कर वह जल्दी ही वापस आ गई.

उस के सामान को देखते ही श्रीमती चतुर्वेदी चौंक पड़ीं, ‘‘अरे, तेरे पास ये बड़ेबड़े थैले किस के हैं. क्या इन में पत्थर भर रखे हैं?’’

‘‘नहीं बीबीजी, इन में मेरी मां की निशानियां हैं, मैं इन्हें संभाल कर रखती हूं. आप तो बस कोई जगह बता दो, मैं इन्हें वहां रख दूंगी.’’

‘‘ऐसा है, अभी तो ये थैले तू तख्त के नीचे रख दे. जल्दी से बर्तन साफ कर और सब्जी छौंक दे. अभी थोड़ी देर में सब आते होंगे.’’

‘‘ठीक है, बीबीजी,’’ कह कर उस ने फटाफट सारे बर्तन मांज कर झाड़ूपोंछा किया और खाना बनाने की तैयारी में जुट गई. पर बीबीजी ने एक पल को भी उस का पीछा नहीं छोड़ा था, और छोड़तीं भी कैसे, नईनई बाई रखी है, कैसे विश्वास कर के पूरा घर उस पर छोड़ दें. भले ही काम कितना भी अच्छा क्यों न कर रही हो.

उस के काम से बड़ी खुश थीं वह. उन की दोनों बेटियां और पति ने आते ही पूछा, ‘‘क्या बात है, आज तो घर बड़ा चमक रहा है?’’

मिसेज चतुर्वेदी बोलीं, ‘‘चमकेगा ही, नई काम वाली कमला जो लगा ली है,’’ यह बोलते समय उन की आंखों में चमक साफ दिखाई दे रही थी.

‘‘अच्छी तरह देखभाल कर रखी है न, या यों ही कहीं से सड़क चलते पकड़ लाईं.’’

‘‘है तो सड़क चलती ही, पर काम तो देखो, कितना साफसुथरा किया है. अभी तो जब उस के हाथ का खाना खाओगे, तो उंगलियां चाटते रह जाओगे,’’ चहकते हुए मिसेज चतुर्वेदी बोलीं.

सब खाना खाते हुए खाने की तारीफ तो करते जा रहे थे पर साथ में बीबीजी को आगाह भी करा रहे थे कि पूरी नजर रखना इस पर. नौकर तो नौकर ही होता है. ऐसे ही ये घर वालों का विश्वास जीत लेते हैं और फिर सबकुछ ले कर चंपत हो जाते हैं.

यह सब सुन कर कमला मन ही मन कह रही थी कि आप लोग बेफिक्र रहें. मैं कहीं चंपत होने वाली नहीं. बड़ी मुश्किल से तो तुझे काम मिला है, इसे छोड़ कर क्या मैं यों ही चली जाऊंगी.

खाना वगैरह निबटाने के बाद उस ने बीबीजी को याद दिलाते हुए कहा, ‘‘बीबीजी, मेरे लिए कौन सी जगह सोची है आप ने?’’

‘‘हां, हां, अच्छी याद दिलाई तू ने, कमला. पीछे स्टोररूम है. उसे ठीक कर लेना. वहां एक चारपाई है और पंखा भी लगा है. काफी समय पहले एक नौकर रखा था, तभी से पंखा लगा हुआ है. चल, वह पंखा अब तेरे काम आ जाएगा.’’

उस ने जा कर देखा तो वह स्टोररूम तो क्या बस कबाड़घर ही था. पर उस समय वह भी उसे किसी महल से कम नहीं लग रहा था. उस ने बिखरे पड़े सामान को एक तरफ कर कमरा बिलकुल जमा लिया और चारपाई पर पड़ते ही चैन की सांस ली.

पूरा दिन काम में लगे रहने से खाट पर पड़ते ही उसे नींद आ गई थी, रात को अचानक ही नींद खुली तो उसे, उस एकांत कोठरी में बहुत डर लगा था. पर क्या कर सकती थी, शायद उस का भविष्य इसी कोठरी में लिखा था. आंख बंद की तो उस की यादों का सिलसिला शुरू हो गया.

आज की कमला कल की डा. लता है, एस.एससी., पीएच.डी.. उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद के कितने बड़े घर में उस का जन्म हुआ था. मातापिता ने उसे कितने लाड़प्यार से पाला था. 12वीं तक मुरादाबाद में पढ़ाने के बाद उस की जिद पर पिता ने उसे दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ने के लिए भेज दिया था. गुणसंपन्न (मेरिटोरिअस) छात्रा होने के कारण उसे जल्द ही हास्टल में रहने की भी सुविधा मिल गई थी.

लता ने बी.एससी. बहुत अच्छे अंकों से उत्तीर्ण की. फिर वहीं से एस.एससी. बौटनी कर लिया. पढ़ाई के अलावा वह दूसरी गतिविधियों में भाग लेती थी. भाषण और वादविवाद के लिए जब वह मंच पर जाती थी तो श्रोताओं के दिलोदिमाग पर अपनी छाप छोड़ जाती थी. उस के अभिनय का तो कोई जवाब ही नहीं था, यूनिवर्सिटी में होने वाली नाटकप्रतियोगिताओं में उस ने कई बार प्रथम स्थान प्राप्त किया था. बाद में दिल्ली विश्वविद्यालय से ही लता ने एम.फिल और पीएच.डी. भी कर ली थी.

पीएच.डी. पूरी करने के बाद उस ने मुंबई विश्वविद्यालय में लेक्चरर पद के लिए आवेदन किया था. वह इंतजार कर रही थी कि कब साक्षात्कार के लिए पत्र आए, तभी एक दिन अचानक घटी एक घटना ने उसे आसमान से जमीन पर पटक दिया.

एक रात घर में सभी लोग सोए हुए थे कि अचानक कुछ लोगों ने हमला बोल दिया. उस की आंखों के सामने उन्होंने उस के मातापिता को गोलियों से भून डाला. भाई ने विरोध किया तो उसे भी गोली मार दी गई. वह इतना डर गई कि अपनी जान बचाने के लिए पलंग के नीचे छिप गई.

अपने सामने अपनी दुनिया को बरबाद होते देखती रही, बेबस लाचार सी, पर कुछ भी नहीं बोल पाई थी वह. ये लोग पिता के किसी काम का बदला लेने आए थे. पिता की पुश्तैनी लड़ाई चल रही थी. कितने ही खून हो चुके थे इस बारे में.

6 लोगों के सामने वह कर भी क्या सकती थी. पलंग के नीचे छिपी वह अपने आप को सुरक्षित अनुभव कर रही थी. पिता ने कभीकभार सुनाई भी थीं ये बातें. अत: उसे कुछ आभास सा हो गया था कि ये लोग कौन हो सकते हैं. उस के जेहन में पिता की कही बातें याद आ रही थीं.

डर का उस ने अपने को और सिकोड़ने की कोशिश की तो उन में से एक की नजर उस पर पड़ गई और उस ने पैर पकड़ कर उसे पलंग के नीचे से खींच लिया और चाकू से उस पर वार करने जा रहा था कि उस के एक साथी ने उस का हाथ पकड़ कर मारने से रोक दिया.

‘लड़की, हम क्या कर सकते हैं यह तो तू ने देख ही लिया है. इस घर का सारा कीमती सामान हम ले कर जा रहे हैं. चाहें तो तुझे भी मार सकते हैं पर तेरे बाप से बदला लेने के लिए तुझे जिंदा छोड़ रहे हैं कि तू दरदर घूम कर भीख मांगे और अपने बाप के किए पर आंसू बहाए. हमारे पास समय कम है. हम जा रहे हैं पर कल इस मकान में तेरा चेहरा देखने को न मिले. अगर दिखा तो तुझे भी तेरे बाप के पास भेज देंगे,’ इतना कह कर वे सभी अंधेरे में गुम हो गए.

अब सबकुछ शांत था. कमरे में उस के सामने खून से लथपथ उस के परिवार के लोगों की मृत देह पड़ी थी. वह चाह कर भी रो नहीं सकती थी. घड़ी पर नजर पड़ी तो रात के सवा 3 बजे थे. लता का दिमाग तेजी से चल रहा था. उस के रुकने का मतलब है पुलिस के सवालों का सामना करना. अदालत में जा कर वह अपने परिवार के कातिलों को सजा दिला पाएगी. इस में उसे संदेह था क्योंकि भ्रष्ट पुलिस जब तक कातिलों को पकड़ेगी तब तक तो वे उसे मार ही डालेंगे.

उस ने अपने सारे सर्टिफिकेट और अपनी किताबें, थीसिस, 4 जोड़ी कपड़े थैली में भर कर घर से निकलने का मन बना लिया, पापा और मम्मी ने उसे जेब खर्च के लिए जो रुपए दिए वे उस ने किताबों के बीच में रखे थे. उन पैसों का ध्यान आया तो वह कुछ आस्वस्त हुई.

किसी की हंसतीखेलती दुनिया ऐसे भी उजड़ सकती है, ऐसी तो उस ने कल्पना भी नहीं की थी. फिर भी चलने से पहले पलट कर मांबाप और भाई के बेजान शरीर को देखा तो आंखों से आंसू टपक पड़े. फिर पिता के हत्यारे की कही बातें याद आईं तो वह तेजी से निकल गई. चौराहे तक इतने सारे सामान के साथ वह भागती गई थी. उस में पता नहीं कहां से इतनी ताकत आ गई थी. शायद हत्यारों का डर ही उसे हिम्मत दे रहा था, वहां से दूर भागने की.

लता ने सोचा कि किसी रिश्तेदार के यहां जाने से तो अच्छा है, जहां नौकरी के लिए आवेदन कर रखा है वहीं चली जाती हूं. आखिर छात्र जीवन में की गई एक्ंिटग कब काम आएगी. किसी के यहां नौकरानी बन कर काम चला लूंगी. जब तक नौकरी नहीं मिलेगा, किसी धर्मशाला में रह लूंगी. मुंबई जाते समय उसे याद आया कि उस की रूम मेट सविता की मामी मुंबई में ही रहती हैं.

-क्रमश:

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