बिहार : बाढ़, बालू और बरबादी

56 साल की खजूरी देवी की आंखों में आंसू है. गरमी के दिनों भी उस के होंठ सूख गए हैं और बातचीत के दौरान वह अपना माथा पीटने लगती है.

खजूरी बताती है,”हेहो बाबू, ई करोनाकरोना सुनीसुनी के मौन बौराए गेलो छौन. ओकरा पर ई बाढ़…
पौरकां साल बुढ़वा चली गेलोहन, ई बार बङका बेटा. राती के लघी करै लै निकलहो रहै, सांप काटी लेलकै… (साहब, कोरोना सुनसुन कर मन घबरा गया है. उस पर इस बाढ़ ने कहर बरपाया हुआ है. पिछले साल पति मर गया और इस साल बड़े बेटे को सांप ने काट लिया जब वह रात को पिशाब करने बाहर निकला था)

यह कह कर वह फिर से फफकफफक कर रो पङी. वह इशारा कर के दिखाती है कि उस का घर यहां से करीबन आधा किलोमीटर दूर है. वह परिवार सहित टूटीफूटी अस्थाई झोंपड़ी में रह रही है, जो 4-5 बांस की बल्लियों पर टिकी है. ऊपर पन्नी है जिसे बल्लियों से बांध दिया गया है.

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बाढ़ का पानी जब आता है तो बिलों में रह रहे जहरीले सांप भी सूखे जमीन की ओर भागते हैं और घरों के अंदर छिप कर बैठ जाते हैं.

बहुतों की मौत सांप काटने से भी हो जाती है. एक अनुमान के मुताबिक भारत में सांप के काटने से लगभग 50 हजार लोगों की जानें जाती हैं, जिस में बिहार में सब से अधिक मौतें होती हैं.

हालांकि मृतक को सरकार की ओर से ₹5 लाख का मुआवजा मिलता है पर यह आश्चर्यजनक है कि पिछले 5 सालों में किसी पीङित ने यहां  मुआवजे के लिए आवेदन नहीं दिया. कारण इधर अशिक्षितों की संख्या ज्यादा है और उन्हें सरकारी नियमों और कानूनों तक की जानकारी नहीं होती.

खैर, मैं ने देखा कि खजूरी की झोंपड़ी के बाहर 1-2 बकरियां भी खूंटी से बंधी हैं और वे भी मिमिया रही हैं, शायद भूख से क्योंकि दूर तक सिर्फ पानी ही पानी है और घास तक भी नहीं बचा कि वे कुछ खा सकें.

मैं ने अपनी नजरें उस की झोंपड़ी के अंदर डाली. वहां एक बालटी में पानी था और मिट्टी के बने चूल्हे पर खाली बरतन. कुछ सूखी लकङियां भी पङी थीं.

खजूरी ने बताया कि घर में राशन जरा भी नहीं है. छोटा बेटा दिहाङी पर निकला है, शायद कुछ ला पाए. अगर नहीं ला पाया तो आज पूरी रात और कल पूरा दिन फिर भूखे ही रहना होगा.

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मैं कुछ आगे निकला तो 2-4 पक्के मकान दिख गए. अलबत्ता यह समझते मुझे देर नहीं लगा कि ये मकान प्रधानमंत्री आवास योजना पर बनाए गए थे. सभी घर बाढ़ के पानी में आधे डूबे हुए थे. हां, एक छत पर सूखी लकङियों से चूल्हा जला कर खाना जरूर बनाया जा रहा था पर मुझे अंदेशा था कि बाढ़ के पानी में कटाव होता है और इस की धार कभीकभी इतनी तेज होती है कि बड़े से बङे पेङ को भी धाराशाई कर देती है. फिर आवास योजना में कितनी ईमानदारी बरती गई होगी यह सब जानते हैं, वह भी बिहार में जहां भ्रष्टाचार चरम पर है और सरकार की अमूमन हर परियोजना भ्रष्टाचारियों को भेंट चढ़ जाता है.

कुछ दूर निकला तो पता चला कि आगे नहीं जा सकते क्योंकि आगे की सङक टूटी पङी है और उस के ऊपर से पानी बह रहा है.

इस बीच मुस्ताक अहमद नाम के एक  व्यक्ति ने बताया कि बाढ़ की वजह से उस के खेत डूब गए हैं और फसल बरबाद हो गई है.

उस ने 15 कट्ठा यानी 10,800 वर्गफुट जमीन में खेती की थी और उस में धान उगाए थे.

मुस्ताक ने बताया,”एक समय घर में 3-4 भैंस थीं. अब 1 ही बची है. इस बार यह भैंस गाभिन (गर्भवती) थी और एक बछङा हुआ था, लेकिन भैंस को दूध कम होता था. बछङा मर गया.

“खेती के लिए धान उगाए थे, वे भी बह गए.”

पास ही खङे मुन्ना ने बताया,”की करभौं हो… हम्मू खेती करले रहिए, ई बाढ़ में सब बरबाद भै गेले. आबे मजदूरी करी के पेट पाले ले पङते (क्या बताएं आप को, मैं ने भी खेती की थी पर इस बाढ़ में सब बरबाद हो गया. अब तो मजदूरी कर के पेट पालना होगा)

मुन्ना ने बताया कि वह मजदूरी करने दिल्लीपंजाब जाएगा पर उसे कोरोना से डर लग रहा है. उस के गांव के कई लोग भाग कर वापस तो आ गए पर बिहार में कोई कामधाम मिल नहीं रहा.

मौनसून में आफत शुरू

पुर्णिया प्रमंडल से तकरीबन 1-2 घंटे की दूरी पर स्थित अररिया जिले में बेलवा पुल के नजदीक एक गांव की स्थिति तो हर साल ऐसी ही होती है. इस के साथ ही चिकनी, नंनदपुर जैसे सैकड़ों गावों में जब बाढ़ का पानी आता है तो लोग छतों पर जीवन जीने को मजबूर हो जाते हैं. पानी अचानक से भरता है और लोगों को सुरक्षित स्थानों पर जाने का मौका तक नहीं मिलता.

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अभी 2-4 दिन पहले ही बाढ़ के पानी में फंसे एक परिवार को बाहर निकाला गया था. एक की तो हालत यह थी कि वह अपने फूस (बांस और पुआल से बने घर) पर पिछले 5 दिनों से बिना खाएपीए पङा था. फिर कुछ लोगों की मदद से उसे बाहर निकाला गया.

कोसी नदी बिहार के लिए शोक

नेपाल से सटे भारत के तराई क्षेत्रों में हर साल का नजारा यही रहता है. मौनसून में जब बारिश होती है तो कईकई दिनों तक होती रहती है. इस बारिश से नदियों में पानी भर जाता है और वह उफन कर बाहर आ जाता है.

बिहार की कोसी नदी इधर इसलिए बदनाम है कि इस नदी में जब बारिश का मौसम न हो तो पानी घुटनों के नीचे रहता है. मगर जब बारिश होती है तो यह पता करना मुश्किल होता है कि नदी कहां और कितनी गहरी है.

हर साल इस नदी में इन दिनों कईयों की जान डूब कर चली जाती है. जानवर बह जाते हैं, न जाने कितने घर बहती धार में समा जाते हैं. कोसी नदी तब विकराल रूप धारण कर लेती है. गांव के गांव कटाव के शिकार हो कर बह जाते हैं और रह जाते हैं तो लोगों की आंखों में आंसू, बेबसी और अपनों के खोने का गम.

अलबत्ता, राज्य से ले कर केंद्र सरकार के नेता और मंत्री हवाई दौरा जरूर करते हैं.

अखबारों और चैनलों में दर्दनाक तसवीरें दिखाई जाती हैं, बाढ़ राहत पैकेज का ऐलान कर दिया जाता है और फिर सब कुछ शांत हो जाता है.
अगले साल फिर वही सब होता है…

जान की कीमत कुछ भी नहीं

यों नेपाल से सटे बिहार के कुछ जिलों में हर साल बाढ़ आफत लिए आता है. सब से अधिक प्रभावित होते हैं बिहार के 7 जिले जिन में पूर्वी चंपारण, चंपारण, सहरसा, सुपौल, अररिया, किशनगंज और कटिहार.

कटिहार जिले से गंगा नदी भी बहती हुई बंगाल की खाङी तक जाती है और यहीं कहींकहीं कोसी नदी भी इस में मिल जाती है. इस से बाढ़ भयानक रूप ले लेती है.

बाढ़ आने की एक वजह नेपाल भी जरूर है. दरअसल, मौनसून में तेज बारिश के बाद वहां से पानी बहता हुआ तराई क्षेत्रों में आ जाता है. काफी पहले यह समस्या उतनी गहरी नहीं थी क्योंकि तब नेपाल के पहाड़ों पर घने जंगल हुआ करते थे, लेकिन वहां की आबादी बढ़ी तो जंगलों को काट कर खेती लायक बनाया जाने लगा. इस से जो पानी जंगलों में ठहर कर धीरेधीरे और कुछ सूख कर आता था वह अचानक से आने लगा. इस से बाढ़ की स्थिति पैदा हो गई.

इस बाढ़ से बिहार के 10 जिले के 600 से ज्यादा गांवों में भयंकर तबाही मचती है और यह हर साल की बात है.

वादे हैं वादों का क्या

हर साल बिहार में बाढ़ आती है. हर साल तबाही मचती है. सैकङों लोग मारे जाते हैं और हजारों करोड़ रुपए की संपत्ति पानी में बह जाती है. और इन सब की एक वजह यह भी है कि नेपाल में कोसी नदी पर बांध बना है. यह बांध भारत और नेपाल की सीमा पर है, जिसे 1956 में बनाया गया था.

इस बांध को ले कर भारत और नेपाल के बीच संधि है. संधि के मुताबिक अगर नेपाल में कोसी नदी में पानी ज्यादा हो जाता है तो नेपाल बांध के गेट खोल देता है और इतना पानी भारत की ओर बहा देता है, जिस से बांध को नुकसान न हो.

उधर, बाढ़ की समस्या को ले कर सरकार मानती है कि उत्तर बिहार के मैदान में बाढ़ नियंत्रण तभी हो सकेगा जब यहां की नदियों पर नेपाल में वहीं बांध बना दिए जाएं जहां नदियां पहाड़ों से मैदानी भागों में उतरती हैं. कोसी पर बराह क्षेत्र में, बागमती पर नुनथर में और कमला पर शीसापानी में और गंडक, घाघरा और महानंदा नदियों की सहायक धाराओं पर भी बांध बनाने से बाढ़ को रोका जा सकता है.

लेकिन यह तब होगा जब नेपाल से समझौता हो. मगर देश को आजाद हुए दशकों हो गए मगर इतने लंबे अंतराल के बाद भी इस समस्या पर सिर्फ राजनीति ही होती रही है. और फिर अभी तो नेपाल भारत संबंध भी अच्छे नहीं चल रहे.

जनता से हर चुनाव में वादे किए जाते हैं, सब्जबाग दिखाया जाता है पर होता कुछ नहीं.

हाल ही में बिहार की प्रमुख विपक्षी पार्टी राजद नेता व पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने सरकार पर हमला बोलते हुए कहा है,”मौनसून की दस्तक से बिहार के कोसी और गंडक नदी के मैदानी इलाकों के लोग आतंकित हैं. जानमाल, मवेशी का नुकसान हर साल होता रहा है… इस निकम्मी सरकार ने 15 सालों में कोई ठोस कदम नहीं उठाया. भ्रष्टाचार का आलम यह है कि यहां चूहे बांध खा जाते हैं.”

बिहार राजद के मुख्य प्रवक्ता भाई वीरेंद्र सिंह कहते हैं,”वर्तमान सरकार गरीब जनता की नहीं है. 15 सालों से सत्ता में रहने के बावजूद नीतीश सरकार ने बिहार में बाढ़ प्रभावित जिलों के लिए कुछ नहीं किया. बिहार के लोग एक तो कोरोना से दूसरे बाढ़ से परेशान हैं, उधर जेडीयू और बीजेपी के लोग वर्चुअल रैलियां कर रहे हैं.

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“इन्हें सत्ता की भूख है और इतनी अधिक कि अपनी गलतियों की वजह से बिहार भाजपा के 70 से अधिक कार्यकर्ताओं को कोरोना हो गया.”

यों साल के अंत में बिहार में विधानसभा चुनाव होने हैं. मगर ऐसा लगता नहीं कि उन्हें बाढ़ की चिंता है क्योंकि हाल के दिनों से बीजेपी और जेडीयू गठबंधन चुनाव की तैयारियों में लगे हैं.

जातिवाद बनाम विकास

एक तरफ कोरोना वायरस का कहर तो दूसरी तरफ बाढ़ से आफत में घिरे लोगों में सरकार के प्रति गुस्सा जरूर है पर आगे चुनाव है और फिर से एक बार जातपात और धर्म के नाम पर वोट मांगे जाएंगे.

इधर नेताजी चुनाव जीतेंगे और उधर विकास का मुद्दा फिर ठंढे बस्ते में चला जाएगा. लोगों को सिर्फ इतना ही सुकून होगा कि कम से कम उन की जाति का कोई नेता तो जीता.
जातपात ने बिहार में विकास की रफ्तार को रोक रखा है और नेता लोग इस बात को अच्छी तरह समझते हैं.

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