Hindi Story: कोठे में सिमटी पार्वती – देह धंधे की काली छाया

Hindi Story: आगे एक सार्वजनिक पेशाबखाना था, जहां से तेज बदबू आ रही थी. 10 कदम और आगे चलने पर 64 नंबर कोठे के ठीक सामने ‘चाय वाला’ की चाय की खानदानी दुकान थी. चाय की दुकान से 5 कदम हट कर अधेड़ उम्र की दरमियाना कद की पार्वती खड़ी थी. उस की उम्र 45 साल के करीब लग रही थी. वह सड़क के बगल से हो कर गुजरने वाले ऐसे राहगीरों को इशारा कर के बुला रही थी, जो लार टपकाती निगाहों से कोठे की तरफ देख रहे थे.

पार्वती की आंखें और गाल अंदर की तरफ धंसने लगे थे. चेहरे पर सिकुड़न के निशान साफसाफ झलकने लगे थे. अपने हुस्न को बरकरार रखने के लिए उस ने अपनी छोटीछोटी काली आंखों में काजल लगाया हुआ था.

गरमी की वजह से पार्वती का शरीर पसीने से तरबतर हो रहा था. हाथों में रंगबिरंगी चूडि़यां सजी हुई थीं. सोने की बड़ीबड़ी बालियां कानों से नीचे कंधे की तरफ लटक रही थीं. वह लाल रंग की साड़ी में ढकी हुई थी, ताकि ग्राहकों को आसानी से अपनी तरफ खींच सके.

पिछले 3 घंटे से पार्वती यों ही चाय की दुकान के बगल में खड़ी हो कर राहगीरों को अपनी तरफ इशारा कर के बुला रही थी, लेकिन अभी तक कोई भी ग्राहक उस के पास नहीं आया था.

पार्वती को आज से 10 साल पहले तक ग्राहकों को फंसाने के लिए इतनी ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती थी. उस ने कभी सोचा तक नहीं था कि उस को ये दिन भी देखने पड़ेंगे.

आज से 28-29 साल पहले जब पार्वती इस कोठे में आई थी तो उस को सब से ऊपरी मंजिल यानी चौथी मंजिल पर रखा गया था, जहां 3 सालों तक उस की निगरानी होती रही थी. वहां तो वह बैंच पर बैठी रहती थी और सिंगार भी बहुत कम करती थी, फिर भी ग्राहक खुद उस के पास बिना बुलाए आ जाते थे. लेकिन आज ऐसा समय आ गया है कि इक्कादुक्का ग्राहक ही फंस पाते हैं.

जो धंधेवालियां अब अधेड़ उम्र की हो गई हैं, वे सब से निचली मंजिल पर शिफ्ट कर दी गई हैं. चौथी और तीसरी मंजिल पर सभी नई उम्र की धंधेवालियां बाजार को संवारती हैं. दूसरी मंजिल पर 25 से ले कर 40 साल की उम्र तक की धंधेवालियां हैं और सब से निचली मंजिल पर 40 साल से ज्यादा उम्र की धंधेवालियां रहती हैं, जो किसी तरह अपनी उम्र इस कोठे में गुजार रही हैं.

ऊपरी मंजिलों पर जहां लड़कियां एक बार में ही 400-500 से ज्यादा

रुपए ऐंठती थीं, वहीं पार्वती को सिर्फ 50-100 रुपए पर संतोष करना पड़ता था. उस में से भी आधा पैसा तो कोठे की मालकिन यमुनाबाई को चुकाना पड़ता था.

आज जब पुराना जानापहचाना ग्राहक रामवीर, जिस की करोलबाग में कपड़ों की खानदानी दुकान है, पार्वती को देख कर बड़ी तेजी से शक्ल छुपाता हुआ ऊपरी मंजिल की तरफ चला गया तो पार्वती को बहुत दुख हुआ. वह उन दिनों को याद करने लगी, जब रामवीर की शादी नहीं हुई थी. तब वह अकसर अपनी जिस्मानी प्यास बुझाने के लिए पार्वती के पास आता था. अब पिछले कुछ महीने से एक बार फिर उस ने इस कोठे में आना शुरू किया है, लेकिन रंगरलियां नई उम्र की लड़कियों के साथ ऊपरी मंजिल पर मनाता है.

मंटू जैसे 50 से भी ज्यादा पुराने ग्राहक थे, जो पार्वती की तरह ही

45 साल से ज्यादा के हो चुके थे. इन के बच्चे भी जवान हो गए थे, लेकिन ये लोग भी हफ्ते में 1-2 बार 64 नंबर के कोठे में हाजिरी दे देते थे.

इन में से कई चेहरे पार्वती को अच्छी तरह से याद हैं. वह अभी तक इन्हें नहीं भूल पाई है. इन ग्राहकों में से कुछ की प्यारमुहब्बत वाली घिसीपिटी बातें आज तक पार्वती के कानों में गूंजती रहती हैं. लेकिन अब जब ये लोग पार्वती को देख कर तेज कदमों से ऊपर की मंजिलों पर चले जाते हैं तो वह टूट जाती है.

पार्वती नेपाल के एक खूबसूरत गांव से यहां आई थी. कोठे की दुनिया में फंस कर वह सिगरेटशराब पीने लगी थी. इस के बाद वह जिंदगी की सारी कमाई अपने आशिकों, दलालों और सहेलियों के साथ पी गई.

पार्वती के साथ 10 और लड़कियां भी नेपाल से यहां आई थीं, आधी से ज्यादा लड़कियां अपना 5 साल का करार पूरा कर के वापस लौट गईं और दूरदराज के पहाड़ी गांवों में अपने भविष्य को संवार चुकी थीं, लेकिन पार्वती की बदकिस्मती ने उस को इस दलदल से निकलने ही नहीं दिया.

दुनिया में देह धंधा ही एक ऐसा पेशा है, जहां पर अनुभव और समय बढ़ने

के साथ आमदनी और जिस्मफरोशी की कीमत में गिरावट होती जाती है. नई

उम्र की धंधेवालियों को तो मुंहमांगा पैसा मिल जाता है.

पार्वती जब 16 साल की थी तो उस को चौथी मंजिल पर जगह मिली थी. उस के बाद तीसरी मंजिल, दूसरी मंजिल पर आई और अब पहली मंजिल की अंधेरी कोठरी में आ कर अटक गई है, जहां पर बाहरी दुनिया को झांकने के लिए एक खिड़की तक नहीं है.

जब दिल नहीं लगता था तो पार्वती शीतल से बात करती थी, जो उसी के साथ नेपाल से यहां आई थी.

शीतल की एक बेटी थी, जिस के बाप का कोई अतापता नहीं था. उस लड़की ने एक साल पहले अपनी मां का कारोबार संभाल लिया था और चौथी मंजिल पर अपना बाजार लगाती थी.

उस के पास ही तीसरे बिस्तर पर सलमा रहती थी, जो राजस्थान के सीकर जिले से आज से 25 साल पहले यहां आई थी. उस को भी किसी अजनबी से एक बेटा पैदा हो गया था. बेटा अब मां को सहारा देने लगा था. उस को तालीम हासिल करने का मौका कभी नहीं मिल पाया था.

अब वह लड़का दलाली का काम करने लगा था. वह अजमेरी गेट, कमला मार्केट, पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के इर्दगिर्द ग्राहकों की तलाश में मंडराता रहता था. वह अच्छाखासा पैसा कमा लेता था. कभीकभार तो वह ग्राहक से हजारों रुपए ऐंठ लेता था.

दूसरी तरफ लक्ष्मी बैठती थी, जो तेलंगाना के करीमनगर से पार्वती के जमाने में यहां आई थी. उस की हालत कमोबेश पार्वती जैसी ही थी. पार्वती की तरह ही लक्ष्मी को किसी भी अजनबी से कोई औलाद नहीं हो पाई थी.

पार्वती की यही तीनों सब से अच्छी सहेलियां थीं, जो अपना सुखदुख बांटती थीं. यही पार्वती का एक छोटा सा संसार था, एक छोटा सा समाज था.

पार्वती का जन्म नेपाल की राजधानी काठमांडू से काफी ऊपर एक सुंदर पहाड़ी गांव में हुआ था. गांव काफी चढ़ाई पर था, जहां पर तब 3 दिन तक पैदल चल कर पहुंचने के अलावा कोई दूसरा साधन नहीं था. लोग वहां से रोजगार की तलाश में मैदान और तराई के हिस्से में आते थे, क्योंकि गांव में जीविका का कोई भी अच्छा जरीया नहीं था.

पार्वती के मांबाप भी गांव के ज्यादातर लोगों की तरह गरीब थे और उन लोगों की जिंदगी पूरी तरह खेती पर ही निर्भर करती थी.

जब पार्वती 10 साल की थी तो उस का पिता बीमारी की चपेट में आ कर इस दुनिया से चल बसा था. अब घर में काम करने वालों में मां अकेली बच गई थी.

दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करने में मां को काफी पसीना बहाना पड़ता था. वह पूरा दिन अपने छोटे से खेत में काम करती थी और बकरियां और भेड़ें पालती थी. पार्वती कामकाज में मां का हाथ बंटाने लगी थी.

पार्वती के घर से थोड़ा सा हट कर धर्म बहादुर का घर था. उस का घर दूर से देखने पर ही किसी सुखी अमीर आदमी का घर लगता था.

धर्म बहादुर हर साल 6 महीने के लिए पैसा कमाने के लिए दिल्ली चला जाता था और पैसा कमा कर गरमी के मौसम में घर लौट आता था. उस के बीवीबच्चे अच्छे कपड़े पहनते थे और अच्छा खाना खाते थे.

पार्वती की मां की नजर में धर्म बहादुर बहुत मेहनती और नेकदिल इनसान था. एक बार धर्म बहादुर दिल्ली से घर लौटा तो उस ने पार्वती की मां से कहा, ‘‘अब तो पार्वती 15 साल की हो गई है. अगर वह मेरे साथ दिल्ली जाती है तो उस को अपनी जानपहचान के सेठजी के घर में बच्चों का खयाल रखने का काम दिला देगा. उन का बच्चा छोटा है. पार्वती बच्चे की देखरेख करेगी. पैसा भी ठीकठाक मिल जाएगा और 2 सालों के अंदर वह मेरे साथ गांव वापस आ जाएगी.’’

मां ने कुछ सोचविचार किया और फिर वह मान गई, क्योंकि धर्म बहादुर एक अच्छा पड़ोसी था और मां को उस के ऊपर पूरा भरोसा था.

पार्वती के मन में भी अब दिल्ली जाने की लालसा जागने लगी थी. वह अब जवानी की दहलीज पर कदम रख रही थी. चेहरे पर खूबसूरती चढ़ने लगी थी. वह दिल्ली के बारे में काफी सुन चुकी थी. अब उसे अपनी आंखों से देखना चाहती थी.

उसी सर्दी में मां ने पार्वती को धर्म बहादुर के साथ दिल्ली भेज दिया. चूंकि वह उन का पड़ोसी था और पार्वती का दूर का चाचा लगता था, इसीलिए मां उस पर यकीन करती थी. पार्वती के पिता के मर जाने के बाद वह उन दोनों की थोड़ीबहुत मदद भी कर दिया करता था.

धर्म बहादुर पार्वती को हिमालय के आगोश में बसे हुए इस छोटे से पहाड़ी गांव से उतार कर सीधा दिल्ली के जीबी रोड के इस 64 नंबर कोठे में ले आया. अब अल्हड़ और भोलीभाली पार्वती को मालूम हुआ कि वह तो एक दलाल के हाथ में फंस गई है.

धर्म बहादुर 64 नंबर कोठे की चौथी मंजिल पर धंधेवालियों से नकदी वसूल कर बक्से में रखता था और यमुनाबाई को हिसाबकिताब दिया करता था. वह यमुनाबाई के लिए कई सालों से काम करता आ रहा था.

इस तरह से पार्वती कोठे की बदबूदार दुनिया में फंस गई थी. इस घटना ने उस की जिंदगी के रुख को पूरब से पश्चिम की तरफ मोड़ दिया था.

धर्म बहादुर ने कुछ पैसा मां को ईमानदारी से पहुंचा दिया था, लेकिन पार्वती दिल से काफी टूट गई थी. धर्म बहादुर ही उस की जिंदगी का पहला ऐसा मर्द था, जिस ने उसे कच्ची कली से फूल बना दिया था और फिर उस के बाद यमुनाबाई को एक सेठ ने शगुन में मोटी रकम दी और वह इस मासूम कली को 2 हफ्ते तक चूसता रहा. वह चाह कर भी यह सब नहीं रोक सकी थी.

इस के बाद तो पार्वती पूरी तरह से खुल चुकी थी. उदासी और डर की दुनिया से 3 महीने के अंदर ही बाहर निकल आई और कोठे की रंगीन दुनिया में इस तरह खो गई कि 30 साल किस तरह बीते, इस का उसे पता भी नहीं चला. हां, यहां आने के 3 साल बाद वह एक बार घर लौटी थी, पर तब तक मां बहुत ज्यादा बीमारी हो चुकी थी. बेटी के घर लौटते ही मां एक महीने के अंदर ही चल बसी.

कुछ दिनों के बाद पार्वती को फिर से उस कोठे की याद आने लगी थी, जहां पर कम से कम उस के आशिक उस की खूबसूरती की तारीफ तो करते थे. उस ने घर में ताला मार कर चाबी पड़ोसी को दे दी और फिर से कोठे की इसी रंगीन दुनिया में लौट आई. तब से ले कर आज तक वह यहीं पर फंसी रह गई.

जब कभी पार्वती बहुत ज्यादा मायूस होने लगती थी, तब वह सलीम चाय वाले से गुफ्तगू कर के अपने दिल को बहलाती थी. सलीम चाय वाला अपने अब्बा की मौत के बाद पिछले कई सालों से अकेला ही चाय बेचता आ रहा था. वह भी अब बूढ़ा हो गया था. वह पार्वती के सुनहरे लमहों से ले कर अभी तक की बदहाली का गवाह बन कर इस कोठे के गेट के सामने चाय बेचता आ रहा था.

वह पार्वती को कभीकभार मुफ्त में चाय, पान और सिगरेटगुटका दे दिया करता था. जब इन सब चीजों से भी उस का दिल तंग हो जाता था तो वह वीर बहादुर के पास कुछ देर बैठ कर नेपाली भाषा में बात कर लेती थी और अपने वतन के हालात पूछ लेती थी.

वीर बहादुर पार्वती के गांव के ही आसपास के किसी पहाड़ी गांव से यहां आया था और रिश्ते में धर्म बहादुर का दूर का भाई लगता था. अपने देशवासियों से बात कर के दिल को थोड़ाबहुत सुकून मिलता था.

जब पार्वती सड़क के किनारे खड़ीखड़ी थक जाती थी और कोई ग्राहक भी नहीं मिलता था तो वह उसी अंधेरी कोठरी में वापस लौट आती थी, जहां रात हो या दिन, हमेशा एक बल्ब टिमटिमाता रहता था और उस बल्ब में इतनी ताकत नहीं थी कि वह पूरी कोठरी को जगमगा पाए.

जब पार्वती खाली होती थी तब वह सामने रेलवे स्टेशन पर खड़ी जर्जर होती एक मालगाड़ी और अपनी जिंदगी के बारे में सोचते हुए खो जाती थी कि धंधेवाली की जवानी और जिंदगी भी इसी मालगाड़ी की तरह है, जो तेज रफ्तार से कहां से कहां तक चली जाती है, इस का पता भी नहीं चल पाता है.

जब वह ज्यादा चिंतित हो जाती तो सलमा उस को हिम्मत बंधाते हुए कहती थी, ‘‘मेरा बेटा है न. तुम को कुछ भी होगा तो वह मदद करेगा. जब तक मैं यहां हूं, तब तक हम दोनों साथसाथ रहेंगी. एकदूसरे की मदद करेंगी. तुम रोती क्यों हो… हम तवायफों की जिंदगी ही ऐसी है, इस पर रोनाधोना बेकार है.’’

अपनी सहेलियों की ऐसी बातों को सुन कर पार्वती ने आंसू सुखा लिए और अगले दिन के धंधे के बारे में सोचने लगी. शाम को चारों सहेलियां मिल कर शराब खरीदती थीं और नशे में खोने की कोशिश करती थीं लेकिन शराब भी अब उन पर कुछ असर नहीं कर पाती थी.

इधर कई दिनों से पार्वती काफी परेशान रहती थी. अपने पुश्तैनी घर के सामने के बगीचे, पेड़पौधे, पहाड़ पर झरने के उन सुंदर नजारों को काफी याद किया करती थी.

उन्हें देखने की काफी चाहत होती थी. लेकिन वह ऐसे कैदखाने में बंद थी, जहां शुरुआती दिनों की तरह अब ताला नहीं लगता था, लेकिन इतने सालों बाद इस कैदखाने से आजाद हो कर भी अपनेआप को अंदर से गुलाम महसूस करती थी. अब वह चाह कर भी कहीं जा नहीं पाती थी.

सुबह हो गई थी. अचानक पार्वती की नींद टूट गई. ऊपरी मंजिल से नेपाली लड़कियों के रोने की आवाज कानों में गूंजने लगी. वह उठ कर बैठ गई और आंखों को मलते हुए सोचने लगी, ‘ये लड़कियां, मेरी हमवतन क्यों रो रही हैं? कोई लड़की ऊपर मर तो नहीं गई?’

पार्वती दौड़ कर ऊपरी मंजिल की तरफ बढ़ी. जैसे ही वह वहां पर पहुंची, वैसे ही पाया कि कई लड़कियां जोरजोर से छाती पीटपीट कर रो रही थीं.

पूछने पर पता चला कि आज सुबह काठमांडू के आसपास एक विनाशकारी भूकंप आया है और सबकुछ तबाह हो चुका है. बहुत सारे घर तहसनहस हो गए हैं और हजारों की तादाद में लोग मारे गए हैं. इस में कई लड़कियों के सगेसंबंधी भी मर गए थे.

सामने वीर बहादुर चुपचाप बैठा हुआ था. उस की आंखों से आंसू टपक रहे थे. उस को देख कर पार्वती ने पूछा, ‘‘तू क्यों आंसू बहा रहा है बे? तेरा भी कोई सगासंबंधी भूकंप की चपेट में आया है क्या?’’

इस पर वीर बहादुर के मुंह से कुछ शब्द निकले, ‘‘मेरा मौसेरा भाई धर्म बहादुर भी अपनी बीवीबच्चों समेत घर में दब कर मर गया है. गांव में काफी लोग भूकंप में अपनी जान गंवा चुके हैं. सबकुछ तबाह हो गया है.’’

इतना कह कर वीर बहादुर रोने लगा, लेकिन पार्वती की आंखों से बिलकुल आंसू नहीं निकले. उस के गुलाबी चेहरे पर मुसकराहट और खुशी की लहर बिखरने लगी. इसे देख कर वीर बहादुर काफी अचरज में पड़ गया, किंतु पार्वती पर इन लोगों के रोनेधोने का कोई असर नहीं हुआ.

अगले दिन पार्वती ने सुबह के 10 बजे बैग में अपना सारा सामान पैक किया और रेलवे स्टेशन की तरफ चलने लगी. उस की सहेलियां शीतल, लक्ष्मी और सलमा की आंखों से आंसू टपक रहे थे. इतने सालों बाद वह अपनी सहेलियों को नम आंखों से विदाई दे रही थी.

वीर बहादुर तीसरी मंजिल से पार्वती की तरफ टकटकी निगाह से देख रहा था. सामने सलीम चाय वाले ने एक पान लगा कर पार्वती को दे दिया. पार्वती पान को शान से चबाते हुए रेलवे स्टेशन की तरफ अहिस्ताआहिस्ता बढ़ती जा रही थी. कुछ पलों के अंदर ही वह हमेशा के लिए इन लोगों की नजरों से ओझल हो गई. Hindi Story

Family Story In Hindi: छोटी छोटी बातें

Family Story In Hindi: मेरी एक पोती है. कुछ दिन हुए उस का जन्मदिन मनाया गया था. इस तरह वह अब 6 वर्ष से ज्यादा उम्र की हो गई है. उस की और मेरी बहुत छनती है. मेरे भीतर जो एक छोटा सा लड़का छिपा हुआ है वह उस के साथ बहुत खेलती है. उस के भीतर जो एक प्रौढ़ दिमाग है उस के साथ मैं वादविवाद कर सकता हूं. जब वह हमारे पास होती है तो उस का सारा संसार इस घर तक ही सीमित हो कर रह जाता है. जब वह चली जाती है तो फिर फोन पर बड़ी संक्षिप्त बात करती है. खुद कभी फोन नहीं करती. हम करें तो छोटी सी बात और फिर ‘बाय’ कह कर फोन रख देती है.

आज अचानक उस का फोन आ गया. मैं ने पूछा तो बोली, ‘‘बस, यूं ही फोन कर दिया.’’

‘‘क्या तुम स्कूल नहीं गईं?’’

‘‘नहीं, आज छुट्टी थी.’’

‘‘तो फिर हमारे पास आ जाओ. लेने आ जाऊं?’’

‘‘नहीं. मम्मी घर पर नहीं हैं. उन की छुट्टी नहीं.’’

‘‘तो उन को फोन पर बता दो या मैं उन को फोन कर देता हूं.’’

‘‘नहीं, मैं आना नहीं चाहती.’’

‘‘तो क्या कर रही हो?’’

‘‘वह जो कापी आप ने दी थी ना, उस पर लिख रही हूं.’’

‘‘कौन सी कापी?’’

‘‘वही स्क्रैप बुक जिस में हर सफे पर एक जैसे आदमी का नाम लिखना होता है, जो मुझे सब से ज्यादा अच्छा लगता हो.’’

‘‘तो लिख लिया?’’

‘‘सिर्फ 3 नाम लिखे हैं. सब से पहले सफे पर आप का. दूसरे  सफे पर मम्मी का, तीसरे पर नानी का…बस.’’

मैं ने सोचा, बाप के नाम का क्या हुआ, दादी के नाम का क्या हुआ? वह उसे इतना प्यार करती है. बेचारी को बहुत बुरा लगेगा. किंतु यह तो दिल की बात है. मेरी पोती की सूची, स्वयं उस के द्वारा तैयार की गई थी. किसी ने उसे कुछ बताया व सिखाया नहीं था. फिर मैं ने कहा, ‘‘उस के साथ उन लोगों की तसवीरें भी लगा देना.’’

‘‘आप के पास अपनी लेटेस्ट तसवीर है?’’

मैं ने कल ही तसवीर खिंचवाई थी. अच्छी नहीं आई थी. अब मेरी तसवीरें उतनी अच्छी नहीं आतीं जितनी जवानी के दिनों में आती थीं. न जाने आजकल के कैमरों को क्या हो गया है.

‘‘हां, है,’’ मैं ने उत्तर दिया. फिर मैं ने सलाह दी, ‘‘उन लोगों के जन्म की तारीख भी लिखना.’’

‘‘उन को अपने जन्म की तारीख कैसे याद होगी?’’

‘‘सब को याद होती है.’’

‘‘नहीं, जब वह पैदा हुए थे तो बहुत छोटे थे न, छोटे बच्चों को तो अपने जन्म की तारीख का पता नहीं होता.’’

‘‘बाद में लोग बता देते हैं.’’

‘‘आप कब पैदा हुए?’’

‘‘23 मार्च 1933.’’

‘‘अरे, इतना पहले? तब तो आप पुराने जमाने के हुए ना?’’

‘‘हां,’’ मैं ने कहा.

मुझे एक धक्का सा लगा. वह मुझे बूढ़ा कह रही थी बल्कि उस से भी ज्यादा प्राचीन काल का मानस, मानो मुझे किसी पुरातत्त्ववेत्ता ने कहीं से खोज निकाला हो.

‘‘तो फिर आप को नए जमाने की बातें कैसे मालूम हैं?’’

‘‘तुम्हारे द्वारा. तुम जो नए जमाने की हो. मुझे तुम से सब कुछ मालूम हो जाता है.’’

‘‘इसीलिए आप मेरे मित्र बनते हो?’’ उस ने बड़े गर्व से कहा.

‘‘हां, इसीलिए.’’

उसे मैं ने यह नहीं बताया कि वह मुझे हर मुलाकात में नया जीवन देती है. मुझे जीवित रखती है. यह बातें शायद उस के लिए ज्यादा गाढ़ी, ज्यादा दार्शनिक हो जातीं. तत्त्व ज्ञान और दर्शन भी आयु के अनुसार उचित शब्दों में समझाना चाहिए.

इस के पश्चात मैं चाहता था कि उस से कहूं कि वह जिन लोगों को प्यार करती है और जिन के नाम उस ने अपनी स्क्रैप बुक में लिखे हैं उन की उन खूबियों के बारे में लिखे जिन के कारण वह उसे अच्छे लगते हैं ताकि वह उस के मनोरंजन का विषय बन सके और बाद में फिर जब उस के अपने बच्चे हों तो उन की मानसिक वृद्धि और विस्तार का साधन बन सके.

इतने में उस ने सवाल किया, ‘‘आप के मरने की तारीख क्या होगी?’’

‘‘वह तो मुझे मालूम नहीं. मौत तो किसी समय भी हो सकती है. इसी समय और देर से भी. वह तो बाद में लिखी जा सकती है.’’

‘‘आप में से पहले कौन जाएगा, आप या दादी?’’

‘‘शायद मैं. परंतु कुछ कहा नहीं जा सकता.’’

‘‘आप क्यों?’’

‘‘क्योंकि साधारण- तया मर्द लोग पहले मरते हैं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘क्योंकि वह उम्र में बड़े होते हैं.’’

‘‘परंतु अनिश से तो मैं बड़ी हूं.’’

मैं हंस पड़ा. अनिश उस का चचेरा भाई है. उस से 2 वर्ष छोटा और आजकल दोनों की बड़ी गहरी दोस्ती है.

‘‘तो क्या तुम अनिश से शादी करोगी?’’

मैं ने पूछा. ‘‘हां,’’ उस ने ऐसे अंदाज में कहा मानो फैसला हो चुका है और हमें मालूम होना चाहिए था.

‘‘परंतु अभी तो तुम बहुत छोटी हो. शादी तो बड़े हो कर होती है. हो सकता है कि तुम्हें बाद में कोई और लड़का अच्छा लगने लगे.’’

‘‘अच्छा,’’ उस ने हठ नहीं किया. वह कभी हठ नहीं करती. उचित तर्क हो तो उसे मान लेती है.

‘‘अच्छा, तो लोग मरते क्यों हैं?’’

इस प्रश्न का उत्तर तो अभी तक कोई नहीं दे सका है, बल्कि अनगिनत लोगों ने जरूरत से ज्यादा उत्तर देने की कोशिश की है और वह भी मरने से पहले. जिस बात का निजी अनुभव न हो उस के बारे में मुझे कुछ कहना पसंद नहीं. वह तो ‘सिद्धांत’ बन जाता है और मैं ‘सिद्धांतों’ से बच कर रहता हूं. लेकिन यह भी तो एक ‘सिद्धांत’ है.

बहरहाल, इस समय सवाल मेरी पोती के सवाल के जवाब का था और उस का कोई संतोषजनक उत्तर मेरे पास नहीं था, फिर भी मैं उसे निराश नहीं कर सकता था. मुझे एक आसान सा उत्तर सूझा. मैं ने कहा, ‘‘क्योंकि लोग बीमार हो जाते हैं.’’

‘‘बीमार तो मैं भी हुई थी, पिछले महीने.’’

‘‘नहीं, ऐसीवैसी बीमारी नहीं. बहुत गंभीर किस्म की बीमारी.’’

‘‘इस का मतलब कि बीमार नहीं होना चाहिए.’’

‘‘हां.’’

‘‘तो आप भी बीमार न होना.’’

‘‘कोशिश तो यही करता हूं.’’

‘‘आप भी बीमार न होना और मैं भी बीमार नहीं होऊंगी.’’

‘‘ठीक है.’’

‘‘तो फिर अगले इतवार को आप से मिलूंगी. आप की तसवीर भी ले लूंगी. हां, दादी से भी कहना कि वह भी बीमार न हों, नहीं तो खाना कौन खिलाएगा.’’

‘‘अच्छा, तो मैं दादी तक तुम्हारा संदेश पहुंचा दूंगा.’’

‘‘अच्छा, बाय.’’

अब मुझे अगले हफ्ते तक जिंदा रहना है ताकि पीढ़ी दर पीढ़ी की यह कड़ी कायम रह सके. Family Story In Hindi

Hindi Story: विरासत – आकर्षण को मिला विरासत का तोहफा

Hindi Story: ‘‘दादाजी, आप का पाकिस्तान से फोन है,’’ आश्चर्य भरे स्वर में आकर्षण ने अपने दादा नंद शर्मा से कहा.

‘‘पाकिस्तान से, पर अब तो हमारा वहां कोई नहीं है. फिर अचानक…फोन,’’ नंद शर्मा ने तुरंत फोन पकड़ा.

दूसरी ओर से आवाज आई, ‘‘अस्सलामअलैकुम, मैं पाकिस्तान, जडांवाला से जहीर अहमद बोल रहा हूं. मैं ने आप का साक्षात्कार यहां के अखबार में पढ़ा था. मुझे यह जान कर बहुत खुशी हुई कि मेरे शहर जड़ांवाला के रहने वाले एक नागरिक ने हिंदुस्तान में खूब तरक्की पाई है. मैं ने यह भी पढ़ा है कि आप के मन में अपनी जन्मभूमि को देखने की बड़ी तमन्ना है. मैं आप के लिए कुछ उपहार भेज रहा हूं जो चंद दिनों में आप को मिल जाएगा, शेष बातें मैं ने पत्र में लिख दी हैं जो मेरे उपहार के साथ आप को मिल जाएगा.’’

फोन पर जहीर की बातें सुन कर नंद शर्मा भावुक हो उठे. फिर बोले, ‘‘भाई, आज बरसों बाद मैं ने अपने जन्मस्थान से किसी की आवाज सुनी है. आज आप से बात कर के 55 साल पहले का बीता समय आंखों के आगे घूम रहा है. मैं क्या कहूं, कुछ समझ में नहीं आ रहा है. बस, आप की समृद्धि और उज्ज्वल भविष्य की कामना करता हूं.’’

इतना कहतेकहते नंद शर्मा की आंखें डबडबा गईं. वह आगे कुछ न कह सके और फोन रख दिया.

14 साल का आकर्षण अपने दादाजी के पास ही खड़ा था. उस ने दादाजी को इतना भावुक होते कभी नहीं देखा था.

कुछ समय तक नंद शर्मा की आंखें नम रहीं. उन्हें ऐसा लगा था मानो वह वहां केवल शरीर से मौजूद थे, उन का मन 55 साल पहले के जड़ांवाला में था.

आकर्षण कुछ देर वहां बैठा और उन के सामान्य होने का इंतजार करता रहा. फिर बोला, ‘‘दादाजी, आप को अपने पुराने घर की याद आ रही है?’’

‘‘हां बेटा, बंटवारे के समय मैं 17 साल का था. आज भी मुझे वह दिन याद है जब जड़ांवाला में कत्लेआम शुरू हुआ और दंगाइयों ने चुनचुन कर हिंदुओं को गाजरमूली की तरह काटा था. हमारे पड़ोसी मुसलमान परिवार ने हमें शरण दी और फिर मौका पा कर एकएक कर के मेरे परिवार के लोगों को सेना के पास पहुंचा दिया था. मेरे परिवार में केवल मैं ही पाकिस्तान में बचा था. मैं भी मौका देख कर निकलने की ताक में था कि किसी ने दंगाइयों को खबर कर दी कि नंद शर्मा को उस के पड़ोसियों ने पनाह दे रखी है.

‘‘खबर पा कर दंगाई पागलों की तरह उस घर की ओर झपटे. इस से पहले कि वे मेरी ओर पहुंच पाते मुझे छत के रास्ते से उन्होंने भगा दिया.

‘‘मैं एक छत से दूसरी छत को फांदता हुआ जैसे ही सड़क पर पहुंचा कि तभी सेना का ट्रक आ गया और सेना को देख कर दंगाई भाग खड़े हुए. फिर उसी ट्रक से सेना ने मुझे अमृतसर के लिए रवाना कर दिया.

‘‘उस वक्त तक मैं यही समझता था कि यह अशांति कुछ समय की है… धीरधीरे सब ठीक हो जाएगा, मैं फिर अपने परिवार के साथ वापस जड़ांवाला जा पाऊंगा पर यह मेरा भ्रम था. पिछले 55 सालों में कभी ऐसा मौका नहीं आया. मेरा शहर, मेरी जन्मभूमि, मेरी विरासत हमेशा के लिए मुझ से छीन ली गई.’’

इतना कह कर नंद शर्मा खामोश हो गए. आकर्षण का मन अभी और भी बहुत कुछ जानने को इच्छुक था पर उस समय दादा को परेशान करना उचित नहीं समझा.

नंद शर्मा हरियाणा के अंबाला शहर में एक प्रतिष्ठित पत्रकार थे. उन की गिनती वहां के वरिष्ठ पत्रकारों में होती थी. कुछ समय पहले हरियाणा के मुख्यमंत्री ने एक पत्रकार सम्मेलन में उन्हें सम्मानित किया था. उस सम्मेलन में पाकिस्तान से भी पत्रकारों का प्रतिनिधिमंडल आया हुआ था. उस समारोह में नंद शर्मा ने इस बात का जिक्र किया था कि वह विभाजन के बाद जड़ांवाला से भारत कैसे आए थे और साथ ही वहां से जुड़ी यादों को भी ताजा किया.

समारोह समाप्त होने के बाद एक पाकिस्तानी पत्रकार ने उन का साक्षात्कार लिया और पाकिस्तान आ कर अपने अखबार में उसे छाप भी दिया. वह साक्षात्कार जड़ांवाला के वकील जहीर अहमद ने पढ़ा तो उन्हें यह जान कर बहुत दुख हुआ कि कोई व्यक्ति इस कदर अपनी जन्मभूमि को देखने के लिए तड़प रहा है.

जहीर एक नेकदिल इनसान था. उस ने नंद शर्मा के लिए फौरन कुछ करने का फैसला लिया और समाचारपत्र में प्रकाशित नंबर पर उन से संपर्क किया.

नंद शर्मा एक भरेपूरे परिवार के मुखिया थे. उन के 4 बेटे और 1 बेटी थी. सभी विवाहित और बालबच्चों वाले थे. आज के इस भौतिकवादी युग में भी सभी मिलजुल कर एक ही छत के नीचे रहते थे.

आकर्षण ने जब सब को पाकिस्तान से आए फोन के  बारे में बताया तो सब विस्मित रह गए. फिर नंद शर्मा के बड़े बेटे मोहन शर्मा ने पिता के पास जा कर कहा, ‘‘बाबूजी, यदि आप कहें तो हम सब जड़ांवाला जा सकते हैं और अब तो बस सेवा भी शुरू हो चुकी है. इसी बहाने हम भी अपने पुरखों की जमीन को देख आएंगे.’’

‘‘मन तो मेरा भी करता है कि एक बार जड़ांवाला देख आऊं पर देखो कब जाना होता है,’’ इतना कह कर नंद शर्मा खामोश हो गए.

एक दिन नंद शर्मा के नाम एक पार्सल आया. वह पार्सल देखते ही आकर्षण जोर से चिल्लाया, ‘‘दादाजी, आप के लिए पाकिस्तान से पार्सल आया है,’’ और इसी के साथ परिवार के सारे सदस्य उसे देखने के लिए जमा हो गए.

नंद शर्मा आंगन में कुरसी डाल कर बैठ गए. आकर्षण ने उस पैकेट को खोला. उस में 100 से भी अधिक तसवीरें थीं. हर तसवीर के पीछे उर्दू में उस का पूरा विवरण लिखा हुआ था.

नंद शर्मा के चेहरे पर उमड़ते खुशी के भावों को आसानी से पढ़ा जा सकता था. उन्होंने ही नहीं, उन का पूरा परिवार उन तसवीरों को देख कर भावविभोर हो उठा.

एक तसवीर उठाते हुए नंद शर्मा ने कहा, ‘‘यह देखो, हमारा घर, हमारी पुश्तैनी हवेली और यहां अब बैंक आफ पाकिस्तान बन गया है.’’

नंद शर्मा के पोतेपोतियां बहुत हैरान हो उन तसवीरों को देख रहे थे. उन के छोटे पोते मानू और शानू बोले, ‘‘दादाजी, क्या इन में आप का स्कूल भी है?’’

‘‘हां बेटा, अभी दिखाता हूं,’’ कह कर उन्होंने तसवीरों को उलटापलटा तो उन्हें स्कूल की तसवीर नजर आई. अपने स्कूल की तसवीर देख कर उन का चेहरा खिल उठा और वह खुशी से चिल्ला उठे, ‘‘यह देखो बच्चों, मेरा स्कूल और यह रही मेरी कक्षा. यहां मैं टाट पर बैठ कर बच्चों के साथ पढ़ता था.’’

धीरेधीरे जड़ांवाला के बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन, खेल के मैदान, सिनेमाघर, वहां की गलियां, पड़ोसियों के घर, गोलगप्पे, चाट वालों की दुकान और वहां की छोटी से छोटी जानकारी भी तसवीरों के माध्यम से सामने आने लगी. अंत में एक छोटी सी कपड़े की थैली को खोला गया. उस में कुछ मिट्टी थी और साथ में एक छोटा सा पत्र था. पत्र जहीर अहमद का था जिस में उस ने लिखा था :

‘नमस्ते, आज यह तसवीरें आप के पास पहुंचाते हुए मुझे बहुत खुशी हो रही है. आप भी सोचते होंगे कि मुझे क्या जरूरत पड़ी थी यह सब करने की. भाईजान, मेरे वालिद बंटवारे से पहले पंजाब के बटाला शहर में रहते थे. अपने जीतेजी वह कभी अपने शहर वापस न आ सके. उन के मन में यह आरजू ही रह गई कि वह अपनी जन्मभूमि को एक बार देख सकें. इसलिए जब मैं ने आप के बारे में पढ़ा तो फैसला किया कि आप की खुशी के लिए जो बन पड़ेगा, जरूर करूंगा.

‘भाईजान, इस पोटली में आप के पुश्तैनी मकान की मिट्टी है जो मेरे खयाल से आप के लिए बहुत कीमती होगी. इस के साथ ही मैं अपने परिवार की ओर से भी आप को पाकिस्तान आने की दावत देता हूं. आप जब चाहें यहां तशरीफ ला सकते हैं. आप अपने बच्चों, पोतेपोतियों के साथ यहां आएं. हम आप की खातिरदारी में कोई कमी नहीं रखेंगे.

‘आप का, जहीर अहमद.’

पत्र पढ़तेपढ़ते नंद शर्मा भावुक हो उठे. उन्होंने फौरन घर की पुश्तैनी मिट्टी को अपने माथे से लगाया और अपने पोते आकर्षण को बुला कर उस मिट्टी से सब के माथे पर तिलक करने को कहा.

‘‘दादाजी, पाकिस्तानी तो बहुत अच्छे हैं,’’ आकर्षण बोला, ‘‘फिर क्यों हम उस देश को नफरत की दृष्टि से देखते हैं. आज जहीर अहमद के कारण ही घरबैठे आप को अपनी विरासत के दर्शन हुए हैं.’’

‘‘ठीक कहते हो बेटा,’’ नंद शर्मा बोले, ‘‘घृणा और नफरत की दीवार तो चंद नेताओं और संकीर्ण विचारधारा वाले तथाकथित लोगों ने बनाई है. आम हिंदुस्तानी और पाकिस्तानी के दिलों में कोई मैल नहीं है. आज अगर मैं तुम्हारे सामने जिंदा हूं तो अपने उस मुसलिम पड़ोसी परिवार के कारण जिन्होंने समय रहते मुझे व मेरे परिवार को वहां से बाहर निकाला.’’

नंद शर्मा अगले कुछ दिनों तक घर आनेजाने वालों को जड़ांवाला की तसवीरें दिखाते रहे. एक दिन शाम को जब वह पत्रकार सम्मेलन से वापस आए तो ‘हैप्पी बर्थ डे टू दादाजी’ की ध्वनि से वातावरण गूंज उठा. उस दिन उन के जन्मदिन पर बच्चों ने उन्हें पार्टी देने का मन बनाया था.

नंद शर्मा को उन के पोतेपोतियों ने घेर लिया और फिर उन्हें उस कमरे की ओर ले गए जहां केक रखा था. वहां जा कर उन्होंने केक काटा और फिर सब ने खूब मस्ती की. फोटोग्राफर को बुलवा कर तसवीरें भी खिंचवाई गईं. बाद में उन में से एक तसवीर जो पूरे परिवार के साथ थी, वह जड़ांवाला भेज दी गई.

वक्त गुजरता रहा. धीरधीरे पत्राचार और फोन के माध्यम से दोनों परिवारों की नजदीकियां बढ़ने लगीं. देखते ही देखते 1 साल बीत गया. एक दिन जहीर अहमद का फोन आया, ‘‘भाईजान, ठीक 1 माह बाद मेरे बड़े बेटे की शादी है. आप सपरिवार आमंत्रित हैं. और हां, कोई बहाना बनाने की जरूरत नहीं है. मैं ने सारा इंतजाम कर दिया है. आप के पुरखों की विरासत आप का इंतजार कर रही है.’’

नंद शर्मा तो मानो इसी पल का इंतजार कर रहे थे. उन्होंने तुरंत कहा, ‘‘ऐसा कभी हो सकता है कि मेरे भतीजे की शादी हो और मैं न आऊं. आप इंतजार कीजिए, मैं सपरिवार आ रहा हूं.’’

रात के खाने पर जब सारा परिवार जमा हुआ तो नंद शर्मा ने रहस्योद्घाटन किया, ‘‘ध्यान से सुनो, हम सब लोग अगले माह जड़ांवाला जहीर के बेटे की शादी में जा रहे हैं. अपनीअपनी तैयारियां कर लो.’’

‘‘हुर्रे,’’ सब बच्चे खुशी से नाच उठे.

‘‘सच है, अपनी जमीन, अपनी मिट्टी और अपनी विरासत, इन की खुशबू ही कुछ और है,’’ कह कर नंद शर्मा आंखें बंद कर मानो किसी अलौकिक सुख में खो गए. Hindi Story

Hindi Family Story: लाड़ली – आराधना की मौत कैसे हुई

Hindi Family Story, लेखक- स्निग्धा श्रीवास्तव

‘‘चाची, आप को तो आना ही पड़ेगा… आप ही तो अकेली घर की बुजुर्ग हैं… और बुजुर्गों के आशीर्वाद के बिना शादीब्याह के कार्यक्रम अपूर्ण ही होते हैं,’’ जेठ के बेटेबहू के इस अपनापन से भरे आग्रह को सावित्री टाल न सकी पर अंदर ही अंदर जिस बात से वह डरती थी वही हुआ. न चाहते हुए भी वहां स्वस्तिका से सावित्री

का सामना हो गया. यद्यपि स्वस्तिका सावित्री की रिश्ते में नातिन थी फिर भी वह उस की आंख की किरकिरी बन गई थी.

आराधना की मौत हुए अभी साल भर भी पूरा नहीं हुआ था पर स्वस्तिका के चेहरे पर अपनी मां की मौत का तनिक भी अफसोस नहीं था बल्कि वह तो अपने पति की बांहों में बांहें डाले हंसती हुई सावित्री के सामने से निकल गई थी. यह देख कर उन का मन बेचैन हो उठा और तबीयत ठीक न होने का बहाना कर वह घर लौट आई थीं.

सावित्री की जल्दबाजी से प्रकाश और विभा को भी घर लौटना पड़ा. घर पहुंचते ही प्रकाश झल्ला पड़ा, ‘‘मां, तुम भी कमाल करती हो…जब स्वस्तिका से अपना कोई संबंध ही नहीं रहा तो उस के होने न होने से हमें क्या फर्क पड़ता है.’’

विभा ने भी समझाना चाहा, ‘‘मम्मी- जी, कब तक यों स्वयं को कष्ट देंगी आप. जिसे दुखी होना चाहिए वह तो सरेआम हंसतीखिलखिलाती घूमती है…’’

सावित्री बेटेबहू की बातों पर चुप ही रही. क्या कहती? प्रकाश और विभा गलत भी तो नहीं थे.

कपड़े बदल कर वह बिस्तर पर निढाल सी लेट गईं पर अशांत मन चैन नहीं पा रहा था. बारबार स्वस्तिका के चेहरे में झलकती आराधना की तसवीर आंखों में तैर जाती.

सहसा सावित्री के विचारों में स्वस्तिका की उम्र वाली आराधना याद हो आई. आराधना भी बिलकुल ऐसी ही मस्तमौला थी पर तुनकमिजाज…जिद्दी ऐसी कि 2-2 दिनों तक भूखी रहती थी पर अपनी बात मनवा के दम लेती.

शेखर कहते भी थे कि बेटी को जरूरत से ज्यादा सिर चढ़ाओगी तो पछताओगी, सावित्री. पर कब ध्यान दिया सावित्री ने उन बातों पर. सावित्री के लाड़प्यार की शह में तो आराधना बिगड़ैल बनती गई.

पिताजी का डर था जो थोड़ीबहुत आराधना की लगाम कस के रखता था, वह भी उन की अचानक मौत के बाद जाता रहा. अब वह सुबह से नाश्ता कर कालिज निकल जाती तो बेलगाम हो कर दिन भर सहेलियों के साथ घूमती रहती.

सावित्री कुछ कहती तो आराधना झल्ला पड़ती. उस का समयअसमय आना- जाना जरूरत से ज्यादा बढ़ता जा रहा था.

प्रकाश भी अब किशोर से जवान हो रहा था. उसे दीदी का देर रात तक घूमनाफिरना और रोज अलगअलग पुरुष मित्रों का घर तक छोड़ने आना अटपटा लगता पर क्या कहता वह? कहता तो छोटे मुंह बड़ी बात होती.

1-2 बारप्रकाश ने मां से कहने की कोशिश भी की पर आराधना ने घुड़क दिया, ‘तुम अपना मन पढ़ाई में लगाओ, मेरी चिंता मत करो. मैं कोई नासमझ नहीं हूं, अपना भलाबुरा अच्छी तरह समझती हूं.’

प्रकाश ने मां की ओर देखा पर वह भी बेटी का समर्थन करते हुए बोलीं, ‘प्रकाश, तुम छोटे हो अभी. आराधना बड़ी हो चुकी है, वह जानती है कि उस के लिए क्या सही है क्या गलत.’

सावित्री ने आराधना को नाराज होने से बचाने के लिए प्रकाश को चुप तो कर दिया पर मन ही मन वह भी आराधना की इन हरकतों से चिंतित थीं. फिर भी मन के किसी कोने में यह विश्वास था कि नहीं…मेरी बेटी गलत कदम कभी नहीं उठाएगी.

पर कोरे निराधार विश्वास ज्यादा समय तक कहां टिक पाते हैं? आखिर वही हुआ जिस की आशंका सावित्री को थी.

एक दिन आराधना बदले रूप के साथ घर लौटी. साथ में खड़े व्यक्ति का परिचय कराते हुए बोली, ‘मां, ये हैं डा. मोहन शर्मा.’

आराधना के शरीर पर लाल सुर्ख साड़ी, भरी मांग देख सावित्री को सारा माजरा समझ में आ गया पर घर आए मेहमान के सामने बेटी पर चिल्लाने के बजाय अगले ही पल उलटे कदमों अपने कमरे में आ गईं.

आराधना भी अपनी मां के पीछेपीछे कमरे में आ गई, ‘मां, सुनो तो…’

‘अब क्या सुना रही हो, आराधना?’ सावित्री लगभग रोते हुए बोलीं, ‘तू ने तो एक पल को भी अपनी मां की भावनाओं के बारे में नहीं सोचा. अरे, एक बार कहती तो मुझ से…तेरी खुशी के लिए मैं खुद तैयार हो जाती.’

‘मां, मोहन ने ऐसी जल्दी मचाई कि वक्त ही नहीं मिला.’

आराधना की बात पूरी होने से पहले ही सावित्री के मन को यह बात खटक गई, ‘जल्दी मचाई…क्यों? शादीब्याह के कार्य जल्दबाजी में निबटाने के लिए नहीं होते, आराधना… और यह डा. मोहन कौन है, कहां का है…इस का घरपरिवार, अतापता कुछ जानती भी है तू या नहीं?’

‘मां, डा. मोहन बहुत अच्छे इनसान हैं. बस, मैं तो इतना जानती हूं. मेडिकल कालिज के परिसर में इन का क्वार्टर है, जहां यह अकेले रहते हैं. रही बाकी परिवार की बात तो अब शादी की है तो वह भी पता चल जाएगा. मां, मैं तो एक ही बात जानती हूं, जिस का वर्तमान अच्छा है उस का भविष्य भी अच्छा ही होगा….तुम नाहक चिंता न करो. अब उठो भी, मोहन बैठक में अकेले बैठे हैं.’

यह तो ठीक है कि वर्तमान अच्छा है तो भविष्य भी अच्छा ही होगा है पर इन दोनों का आधार तो अतीत ही होता है न. किसी का पिछला इतिहास जाने बिना इस तरह आंखें मूंद कर विश्वास कर लेना मूर्खता ही तो है. सावित्री चाह कर भी नहीं समझा पाई आराधना को और अब समझाने से लाभ भी क्या था.

सावित्री ने खुद के मन को ही समझा लिया कि चलो, आराधना ने कम से कम ऐरेगैरे से तो विवाह नहीं रचाया. डाक्टर है लड़का. आर्थिक परेशानी की तो बात नहीं रहेगी.

2 वर्ष भी नहीं बीत पाए और एक दिन वही हुआ जिस का डर सावित्री को था. आराधना मोहन द्वारा मार खाने के बाद 6 माह की स्वस्तिका को ले कर मायके आ गई थी.

मोहन पहले से विवाहित, 2 बच्चों का बाप था. आराधना से उस ने विवाह मंदिर में रचाया था जिस का न कोई प्रमाण था न ही कोई प्रत्यक्षदर्शी. बिना पूर्व तलाक के जहां यह विवाह अवैध सिद्ध हो गया वहीं स्वस्तिका का जन्म भी अवैधता की श्रेणी में आ गया.

आज सावित्री को शेखर अक्षरश: सत्य नजर आ रहे थे. उस का अंत:करण स्वयं को धिक्कार उठा, ‘मेरा आवश्यकता से अधिक लाड़, बारबार आराधना की गलतियों पर प्रेमवश परदा डालने का प्रयास, उस की नाजायज जिद का समर्थन वीभत्स रूप में बदल कर ही तो मेरे समक्ष खड़ा हो मुझे मुंह चिढ़ा रहा है.’

आराधना ने नौकरी ढूंढ़ ली. स्वस्तिका को संभालने का जिम्मा अब सावित्री का था.

जो भूल आराधना के साथ की वह स्वस्तिका के साथ नहीं दोहराऊंगी, मन ही मन तय किया था सावित्री ने, पर जैसजैसे स्वस्तिका बड़ी होती जा रही थी आराधना के लाड़प्यार ने उसे बिगाड़ना शुरू कर दिया था. सावित्री कुछ समझाती तो बजाय बात को समझने के आराधना बेटी का पक्ष ले कर अपनी मां से लड़ पड़ती. पिता के प्यार की भरपाई भी आराधना अपनी ओर से कर डालना चाहती थी और इसी प्रयास में वह स्वयं का ही प्रतिरूप तैयार करने की भूल कर बैठी.

आराधना के मामलों में तो सावित्री हरदम प्रकाश की अनसुनी कर दिया करती थी पर अब प्रकाश उन्हें शेखर की तरह ही संजीदा व सही प्रतीत होता.

स्वस्तिका की 10वीं की परीक्षा थी. गणित में कमजोर होने के कारण आराधना एक दिन सतीश नाम के एक ट्यूटर को घर ले आई और बोली, ‘कल से यह स्वस्तिका को गणित पढ़ाने आएगा.’

22 साल का सतीश प्रकाश के मन को खटक गया लेकिन आराधना दीदी के स्वभाव को जानते हुए वह चुप ही रहा.

जब भी सतीश स्वस्तिका को पढ़ाने आता प्रकाश की नजरें उन के क्रियाकलापों का जायजा लेती रहतीं. कान सचेत हो कर उन के बीच हो रही बातचीत पर ही लगे रहते. प्रकाश को भय था कि आराधना दीदी की तरह ही कहीं स्वस्तिका का हश्र न हो.

एक दिन प्रकाश ने स्वस्तिका को सतीश के साथ आपत्तिजनक स्थिति में देखा तो उसे धक्के मार कर घर से बाहर निकाल दिया.

शाम को आराधना के दफ्तर से आते ही स्वस्तिका फफक कर रोने लगी, ‘मम्मी, प्रकाश मामा को समझा दो. हर समय हमारी जासूसी करते हैं. आज जरा सी बात पर सर को धक्का दे कर घर से निकाल दिया.’

‘क्यों प्रकाश? यह किस तरह का बरताव है?’ बिना अपनी लाड़ली की गलती जानेसमझे आराधना अपनी आदत के अनुसार गरज पड़ी.

‘दीदी, वह जरा सी बात क्या है यह अपनी लाड़ली से नहीं पूछोगी?’ प्रकाश भी तमतमा गया.

आराधना ने इसे अहं का विषय बना डाला, ‘ओह, तो अब हम मांबेटी तुम लोगों को भारी पड़ने लगे हैं, लेकिन यह मत भूलो कि कमाती हूं, घर में पैसे भी देती हूं. इसलिए हक से रहती हूं. तुम्हें पसंद नहीं तो हम अलग रह लेंगे, एक मकान लेने की हैसियत है मुझ में.’

बात बिगड़ती देख सावित्री ने दोनों को समझाना चाहा पर आराधना ठान चुकी थी. हफ्ते भर में नया मकान देख स्वस्तिका को ले कर चली गई. सतीश फिर उसे पढ़ाने आने लगा. न चाहते हुए भी सावित्री व प्रकाश चुप रहे. कहते भी तो सुनता कौन?

उन्हीं दिनों अचानक आराधना का स्वास्थ्य खराब रहने लगा. स्थानीय डाक्टरों ने हाथ खड़े कर दिए. मुंबई अथवा दिल्ली के बड़े चिकित्सा संस्थानों में दिखाने के लिए कहा गया. प्रकाश पुराने गिलेशिकवे भुला कर दीदी को मुंबई ले गया. आखिर भाई था वह और उस के सिवा और कोई पुरुष था भी तो नहीं घर में जो आराधना के साथ बड़े शहरों के बड़ेबड़े अस्पतालों में चक्कर काटता.

डाक्टरों ने बताया कि आराधना को कैंसर है जो अंतिम अवस्था तक पहुंच चुका है. जीवन की डोर को केवल 6 माह तक और खींचा जा सकता है. वह भी केवल दवाइयों व इंजेक्शनों के आधार पर.

ऐसे हालात में सावित्री व प्रकाश का आराधना के साथ रहना निहायत जरूरी हो गया था. साथ रहते हुए प्रकाश को स्वस्तिका व सतीश की नाजायज हरकतें पुन: नजर आने लगीं. पर बात का बतंगड़ न बन जाए यह सोच कर वह चुप रहा, केवल मां से ही बात की. मौका देख कर सावित्री ने आराधना को इस बारे में सचेत करना चाहा. इस बार आराधना ने भी हंगामा नहीं मचाया बल्कि स्वस्तिका को बुला कर इस बारे में बात की.

स्वस्तिका शायद अवसर की खोज में ही थी इसलिए साफ शब्दों में उस ने कह दिया कि वह सतीश से प्यार करती है और वह भी उसे चाहता है.

अगले दिन आराधना ने सावित्री व प्रकाश को अपना निर्णय सुना दिया, ‘प्रकाश, तुम पर बड़ी जिम्मेदारी डाल रही हूं. इसी माह स्वस्तिका की शादी सतीश से करनी है. उस के घर वालों से बात कर लो व शादी की तैयारी शुरू कर दो. सुविधा के लिए मैं अपने बैंक खाते को तुम्हारे नाम के साथ संयुक्त कर देती हूं ताकि पैसा निकालने में तुम्हें सुविधा हो. तुम पैसे की चिंता बिलकुल मत करना. मैं चाहती हूं अपने जीतेजी बेटी को ब्याह कर जाऊं.’

शायद यह खुद के विधिविधान से विवाह संस्कार न हो पाने की अधूरी चाह थी जिसे आराधना स्वस्तिका के रूप में देखना चाहती थी.

सब कुछ आराधना की इच्छानुसार हो गया. सतीश के दामाद बनते ही स्वस्तिका ने नए तेवर दिखाना शुरू कर दिए, ‘मम्मी, अब मैं और सतीश तो हैं न तुम्हारी देखभाल करने के लिए….नानी और मामा को वापस अपने घर भेज दो.’

प्रकाश ने सुना तो खुद ही सावित्री को साथ ले कर अपने घर लौट आया. सावित्री घर आ कर बारबार दवाई व इंजेक्शनों के समय पर बेचैन हो जातीं कि पता नहीं स्वस्तिका ठीक समय पर दवाई दे पाती है या नहीं. अभी 2 हफ्ते भी नहीं गुजरे थे कि एक शाम सतीश का फोन आया, ‘नानीजी, जल्दी आ जाइए, मम्मीजी हमें छोड़ कर चली गईं.’

‘क्या?’ सावित्री सुन कर अवाक् रह गईं.

सावित्री को साथ ले कर बदहवास सा प्रकाश आराधना के घर पहुंचा पर तब तक तो सारा खेल खत्म हो चुका था.

सभी अंतिम क्रियाकर्म प्रकाश ने ही पूरा किया. अस्थि कलश के विसर्जन का समय आया तो स्वस्तिका आ गई, ‘मामाजी, पहले उस संयुक्त खाते का हिसाबकिताब साफ कर दीजिए उस के बाद कलश को हाथ लगाइएगा.’

रिश्तेदारों का लिहाज न होता तो स्वस्तिका व सतीश को उन की इस धृष्टता का प्रकाश अच्छा सबक सिखाता पर रिश्तेदारों के सामने कोई तमाशा न हो यह सोच कर अपने क्रोध को किसी तरह दबा लिया और स्वस्तिका की इच्छानुसार कार्य करते हुए अपने सारे कर्तव्य पूरे कर दिए.

सावित्री वापस लौटने वाली थीं. आराधना के कमरे की सफाई करते समय अचानक उन की नजर अलमारी में पड़े दवा के डब्बे पर गई जो स्वस्तिका के विवाह के बाद घर लौटने से पहले प्रकाश ने ला कर रखा था. खोल कर देखा तो सारी दवाइयां व इंजेक्शन उसी तरह पैक ही रखे थे.

सावित्री का माथा ठनका. तो क्या स्वस्तिका ने पिछले दिनों आराधना को दवाइयां दी ही नहीं? यह सोच कर सावित्री ने स्वस्तिका को आवाज लगाई.

‘क्या है, नानी?’

खुला डब्बा दिखाते हुए सावित्री ने पूछा, ‘स्वस्तिका, तुम ने अपनी मम्मी को दवाइयां नहीं दीं?’

‘हां, नहीं दीं…तो? क्या गलत किया मैं ने? तकलीफ में थीं वह…और आज नहीं तो 4 माह बाद जाने ही वाली थीं न हमें छोड़ कर…तो अभी चली गईं…क्या फर्क पड़ गया?’

‘बेशरम, मेरी बेटी की जान लेने वाली तू डाइन है…पूरी डाइन.’

पसीने से तरबतर सावित्री हड़बड़ा कर बिस्तर से उठ बैठीं…अतीत की वे यादें आज भी उन्हें बेचैन कर देती हैं. न जाने उस दिन कौनकौन सी गालियां दे कर सावित्री ने हमेशा के लिए स्वस्तिका से रिश्ता तोड़ दिया था. सावित्री का सिर भारी हो गया.

सुना तो यही था कि बेटियां मां का दर्द बांटती हैं फिर स्वस्तिका बेटी हो कर भी अपनी मां के प्रति इतनी कठोर कैसे बन गई. शायद आराधना की शिक्षा में ही कोई कसर रह गई थी…आखिर बेटी अपनी मां से ही तो संस्कार पाती है. नहींनहीं…फिर तो पूरी गलती आराधना की भी नहीं है…गलत तो मैं ही थी…आराधना ने तो वही संस्कार स्वस्तिका को दिए जो मुझ से पाए थे.

काश, मैं ने आराधना को सहेज कर रखा होता तो आज उस की संतान में उस कुटिल व्यक्ति का कलुषित खून न होता जो आज उस का पिता न हो कर भी पिता था. काश, मैं ने आराधना की नाजायज बातों पर प्रेमवश परदा डालने के बजाय उसे ऊंचनीच का ज्ञान कराया होता, उस की हर गलत बात पर किए गए मेरे समर्थन का नतीजा ही तो था जो आराधना स्वभाव से अक्खड़ बन गई थी. आराधना ने भी वही सब स्वस्तिका को दिया जो मैं ने परवरिश में उस की झोली में डाला था.

जब भी स्वस्तिका से सावित्री का सामना होता वह अपने इन्हीं विचारों के अनसुलझे मकड़जाल में फंस कर रह जाती. अपने लाड़ के अतिरेक से ही तो अपनी लाड़ली को खो चुकी थी वह और शायद लाड़ली की लाड़ली को भी. Hindi Family Story

Hindi Story: उपलब्धि – शीला को किसकी आवाज सुनाई दे रही थी

Hindi Story: इतवार को सोचा था पर मेहमान आ गए तो उन्हीं में व्यस्त होना पड़ा. आज भी छुट्टी है और नाश्ता भी पकौडि़यों का भरपेट हो चुका है. खाना आराम से बनेगा. रसोई का हर कोना उस ने रगड़रगड़ कर अच्छी तरह चमकाया. फिर रैकों पर साफ अखबार, प्लास्टिक बिछाए.

अंदर जब कुछ सर्दी लगने लगी थी तो सोचा थोड़ी देर धूप में बैठ कर अखबार पढ़ लूं फिर खाने का काम शुरू होगा. तब तक रसोईघर भी सूख जाएगा.

अखबार ले कर शीला छत पर अभी आई ही थी कि पति विनोद की आवाज सुनाई दी, ‘‘अरे भई, कहां हो? आज खाना नहीं बनेगा क्या?’’ यह कहते हुए वह भी छत पर आ गए.

‘‘अभी तो भरपेट नाश्ता हुआ है सब का. आप ने भी तो किया है.’’

‘‘शीला, जानती हो मैं नाश्ता नहीं करता हूं. बच्चों का मन रखने के लिए 2-4 पकौडि़यां ले ली थीं. मुझे तो हर रोज 10 बजे खाने की आदत है. फिर भी बहस किए जा रही हो.’’

‘‘क्यों? आप इतवार को सब के साथ देर से खाना नहीं खाते हैं?’’

‘‘पर आज इतवार नहीं है. अब नहीं बना है तो और बात है. मुझे तो पहले ही पता है कि आजकल तुम्हारी हर काम को टालने की आदत हो गई है. अब यह समय अखबार पढ़ने का है या घर के काम का. दूसरी औरतों को देखा है, नौकरी भी करती हैं और घर भी कितनी कुशलता से संभालती हैं. यहां तो बच्चे भी बड़े हो गए हैं, काम करने को नौकरानी है फिर भी हर काम देरी से होता है.’’

विनोद के ऊंचे होते स्वर के साथ शीला का मूड बिगड़ता चला गया.

शीला अखबार वहीं पटक कर नीचे रसोईघर में गई. उबले आलू रखे थे वे छौंक दिए और फटाफट आटा गूंध कर परांठे बना दिए. पर खाना देख कर विनोद का पारा और चढ़ गया.

‘‘यह क्या? सिर्फ सब्जी, परांठे. तुम जानती ही हो कि लंच के समय मैं पूरी खुराक लेता हूं. जब नाश्ता बंद कर दिया है तो खाना तो कम से कम ढंग का होना चाहिए. पता नहीं तुम्हें क्या हो गया है. सारे ऊलजलूल कामों के लिए तुम्हारे पास समय है, बस, मेरे लिए नहीं.’’

गुस्से में विनोद ने थाली सरका दी थी. शीला का मन हुआ कि वह भी फट पडे़. एक तो दिन भर काम में जुटे रहो उस पर फटकार भी सुनो.  आखिर कुसूर क्या था, रसोई की सफाई ही तो की थी. चाय, नाश्ता, खाना, घर की संभाल, बच्चों की देखरेख में उस ने जिंदगी गुजार दी पर किसी को संतोष नहीं. बच्चों को लगता है मां आधुनिक, स्मार्ट नहीं हैं जैसी औरों की मम्मी हैं. विनोद को तो अब नौकरीपेशा औरतें अच्छी लगने लगी हैं. चार पैसे जो कमा कर लाती हैं. घरगृहस्थी संभा-लने वाली तो इन की नजरों में गंवार ही हैं.

विनोद तो बाहर निकल गए थे पर शीला ने बेमन से पूरा खाना बनाया. शुभा भी तब तक सहेली के घर से आ गई थी, और शुभम कोच्ंिग से. दोनों को खाना खिला कर वह अपने कमरे में आ गई.

और दिन तो शीला काम पूरा करने के बाद टीवी देखती, अधबुना स्वेटर पूरा करती या कोई पत्रिका पढ़ती पर आज कुछ भी करने का मन नहीं था. विनोद का यह बेरुखी भरा व्यवहार वह पिछले कई दिनों से देख रही थी. आखिर कहां गलत हो गई वह. क्या इन घरेलू कामों की कोई अहमियत नहीं है? अगर बाहर नौकरी करती होती तो क्या तभी तक शख्सियत थी उस की?

शादी हुए 18 साल हो गए. जब शादी हुई थी उसी साल एम.ए. फर्स्ट डिवीजन में पास किया था. चाहती तो तभी नौकरी कर सकती थी. इच्छा भी थी पर उस समय तो ससुराल वालों को नौकरी करती हुई बहू पसंद नहीं थी.

विनोद भी तब यही कहते थे कि बच्चों को अच्छे संस्कार दो, उन की पढ़ाई में मदद करो, घर संभाल लो, यही बहुत है मेरे लिए.

उस ने सबकुछ तो उन्हीं की इच्छानुसार किया था. देवर की शादी हो गई, देवरानी आ गई तब भी सासससुर उसी के पास रहे.

‘‘बड़ी बहू हम लोगों का जितना ध्यान रखती है छोटी नहीं रख पाती,’’ मांजी तो अकसर कह देती थीं.

बच्चों को संभालना, बूढ़े सासससुर की सेवा करना, घरगृहस्थी देखना, सबकुछ तो कुशलता से निभाया था उस ने. फिर ससुरजी की मौत के बाद यह सोच कर मांजी का खयाल वह और भी रखने लगी थी कि कहीं इन्हें अकेलापन महसूस न हो.

पर अब क्या हो गया? ठीक है, बच्चे अब बड़े हो गए हैं. उन्हें अब उस की उतनी जरूरत नहीं रही है. मांजी ने भी अपनेआप को सत्संग, भजन, पूजन में व्यस्त कर लिया है. विनोद का प्रमोशन हुआ है तब से उन की भी जिम्मेदारियां बढ़ गई हैं. मकान का लोन लिया है तो खर्चे भी बढ़ गए हैं. बच्चों की भारी पढ़ाई है फिर शुभा की शादी भी 4-5 साल में करनी है. शायद इसी बात को ले कर विनोद को अब नौकरीपेशा औरतें अच्छी लगने लगी हैं. पर क्या देखते नहीं कि उस की भी तो व्यस्तता बढ़ गई है. सुबह 6 बजे से काम की जो दिनचर्या शुरू होती है तो रात को ही सिमटती है. फिर उन्हें ऐसा क्यों लगता है कि वह फालतू है?

घर के सारे काम क्या अपनेआप हो जाते होंगे, और तो और शुभा जब से बाहर होस्टल में गई है और शुभम की कोचिंग शुरू हुई है, बाजार के भी सारे काम उसे ही करने पड़ रहे हैं. पर नहीं, सब को यही लगता है कि वह फालतू है. सब को उस से शिकायतें ही शिकायतें हैं. और तो और मांजी पहली बार 10-15 दिन को देवर के पास गईं तो वह भी जाते समय कहने में नहीं चूकीं, ‘‘बहू, तुम मेरी देखभाल करतेकरते थक जाती हो तो सोचा कि छोटी के पास कुछ दिन रह लूं.’’

अनमनी सी शीला फिर बाहर बरामदे में पड़े मूढ़े पर आ कर बैठ गई थी. शुभा पास ही बैठी सिर झुकाए डायरी में कुछ लिख रही थी.

‘‘क्या कर रही है?’’

‘‘मां, अब दिसंबर खत्म हो रहा है न, तो अपनी उपलब्धियां लिख रही हूं इस जाते हुए साल की और तय

कर रही हूं कि अगले साल मुझे

क्याक्या करना है. नए संकल्प भी तो करूंगी न…’’

‘‘अच्छा, क्या उपलब्धियां रहीं?’’

‘‘मां, विशेष उपलब्धि तो इस वर्ष की यह रही कि मेरा मेडिकल में चयन हो गया. अब मैं संकल्प करूंगी कि मेरा कैरियर इतना ही अच्छा रहे. अच्छे नंबर आते रहें हर परीक्षा में.’’

शुभा कुछ सोचते हुए बोली, ‘‘ममा, मैं अपनी ही नहीं शुभम और पापा की भी उपलब्धियां लिखूंगी. देखो न, शुभम को इस साल स्कूल में बेस्ट स्टूडेंट का अवार्ड मिला है और पापा का तो प्रमोशन हुआ है न…’’

शीला ने भी उत्सुक हो कर शुभा की डायरी में झांका था तो वह बोली, ‘‘ममा, आप भी अपनी उपलब्धियां बताओ, मैं लिखूंगी. और आप अगले साल क्या करना चाहोगी. यह भी…’’

शीला का उत्साह फिर से ठंडा हो गया. क्या बताए, कुछ भी तो उपलब्धि नहीं है उस की. अब घर भर के लिए फालतू जो हो चली है वह…और एक ठंडी सांस न चाहते हुए भी उस के मुंह से निकल ही गई.

‘‘ओह मां, आप बहुत थक गई हो, आप को थोड़ा चेंज करना चाहिए…’’

शुभा कह ही रही थी कि फोन की घंटी बजने लगी. शुभा ने ही दौड़ कर फोन उठाया था.

‘‘मां, मामा का फोन है. पूछ रहे हैं कि शेफाली की शादी में हम लोग कब पहुंच रहे हैं. लो, बात कर लो.’’

‘‘हां, भैया, अभी तो कुछ तय नहीं हुआ है. बात यह है कि इन्हें तो फुरसत है नहीं क्योंकि बैंक की क्लोजिंग चल रही है. शुभम के अगले ही हफ्ते बोर्ड के इम्तहान हैं.’’

‘‘पर तू तो आ सकती है.’’

शीला क्या जवाब दे यह सोच ही रही थी कि शुभा ने आ कर दोबारा फोन ले लिया और बोली, ‘‘मामा, हम लोग भले ही न आ पाएं पर मम्मी जरूर आएंगी,’’ और शुभा ने फोन रख दिया था.

‘‘मां, आप हो आइए न,’’ शुभा आग्रह करते हुए बोली, ‘‘भोपाल है ही कितनी दूर. एक रात का ही तो सफर है. आप का चेंज भी हो जाएगा और नातेरिश्तेदारों से मुलाकात भी हो जाएगी. और फिर दोनों मौसियां भी तो आ रही हैं.

‘‘मां, आप यहां की चिंता न करें. मैं घर संभाल लूंगी. बस, पापा और शुभम का ही तो खाना बनाना है. फिर लीला बाई है ही मदद के लिए. बस, आप तो अपनी तैयारी करो.’’

जाने का खयाल तो अच्छा लगा था शीला को भी पर विनोद क्या तैयार हो पाएंगे? शीला अभी भी असमंजस में ही थी पर शुभा ने विनोद को राजी कर लिया था. फटाफट दूसरे दिन का आरक्षण भी हो गया और शुभा ने मां की सारी तैयारी करवा दी.

शादी की गहमागहमी में शीला को भी अच्छा लगा था. रातरात भर जाग कर बहनों में गपशप होती रहती. सब रिश्तेदारों के समाचार मिले. भैया ने बेटी की शादी खूब धूमधाम से की थी.

शेफाली के विदा होते ही घर सूना हो गया था. रिश्तेदार तो चल ही दिए थे, बहनों ने भी जाने की तैयारी कर ली थी.

‘‘भैया, मुझे भी अब लौटना है,’’ शीला ने याद दिलाया था.

‘‘अरे, तुझे क्या जल्दी है. शोभा और शशि तो नौकरीपेशा हैं. उन की छुट्टियां नहीं हैं इसलिए उन्हें लौटने की जल्दी है पर तू तो रुक सकती है.’’

भैया ने सहज स्वर में ही कहा था पर शीला को लगा जैसे किसी ने फिर कोमल मर्म पर चोट कर दी है. सब व्यस्त हैं वही एक फालतू है, वहां भी सब यही कहते हैं और यहां भी.

भैया के बहुत जोर देने पर वह 2 दिन रुक गई पर लौटना तो था ही. बेटी वापस जाएगी. शुभम पता नहीं ढंग से पढ़ाई कर भी रहा होगा या नहीं. सबकुछ भूल कर उसे भी अब घर की याद आने लगी थी.

स्टेशन पर सभी उसे लेने आए थे.

‘‘मां, बस, दादी नहीं आ पाईं आप को लेने क्योंकि वह अभी यहां नहीं हैं पर उन के 2 फोन आ गए हैं और वे जल्दी ही वापस आ रही हैं, कह रही थीं कि मन तो बड़ी बहू के पास ही लगता है.’’

शुभा ने पहली सूचना यही दी थी. उधर शुभम कहे जा रहा था, ‘‘आप ने इतने दिन क्यों लगा दिए लौटने में, 2 दिन ज्यादा क्यों रुकीं?’’

‘‘अच्छा, पहले घर तो पहुंचने दे.’’

शीला हंस कर रह गई थी. विनोद चुपचाप गाड़ी चला रहे थे. घर पहुंचते ही शुभा गरम चाय ले आई थी. शीला ने कमरे को देखा तो काफी कुछ अस्तव्यस्त सा लगा.

‘‘मां, अब यह मत कहना कि मैं ने घर की संभाल ठीक से नहीं की और रसोई को देख कर तो बिलकुल भी नहीं. आप तो बस, चाय पीओ…और फिर अपना घर संभालना…’’

शुभा ने मां के आगे एक डायरी बढ़ाई तो वह बोली, ‘‘यह क्या है?’’

‘‘मां, आप तो अपनी इस साल की उपलब्धियां बता नहीं पाई थीं पर पापा ने खुद ही आप की तरफ से यह डायरी पूरी कर दी, और पता है सब से ज्यादा उपलब्धियां आप की ही हैं…लो, मैं पढ़ूं…’’

शुभा उत्साह से पढ़ती जा रही थी.

‘‘हम सब को बनाने में आप का ही योगदान रहा. मेरा मेडिकल में चयन हुआ आप की ही बदौलत. मैं एक बार मेडिकल में असफल हो गई थी तब आप ही थीं जिन्होंने मुझे दोबारा परीक्षा के लिए प्रेरित किया और शुभम को स्कूल के बेस्ट स्टूडेंट का अवार्ड मिलना आप की ही क्रेडिट है. सुबह जल्दी उठ कर बेटे को तैयार करना, नाश्ते, खाने से ले कर हर चीज का ध्यान रखना, उस का होेमवर्क देखना, और तो और यह आप की ही मेहनत और लगन थी कि पापा का प्रमोशन हुआ. पापा कह रहे थे कि जब कभी आफिस में किसी कारण से उन्हें लौटने में देर हो जाती तो आप ने कभी शिकायत नहीं की बल्कि उन की गैरमौजूदगी में दादी को डाक्टर के पास तक आप ही ले कर जाती रहीं…’’

‘‘बसबस…अब बस कर,’’ शीला ने शुभा को टोका था. उधर विनोद मंदमंद मुसकरा रहे थे.

‘‘अब नया संकल्प हम सब लोगों का यह है कि तुम इसी तरह हम सब का ध्यान रखती रहो…’’ विनोद के कहते ही सब हंस पड़े थे. उधर शीला को लग रहा था कि एक घना कोहरा, जो कुछ दिनों से मन पर छा गया था, अचानक हटने लगा है. Hindi Story

Hindi Family Story: हीरे की अंगूठी – राहुल शहर से दूर क्यों जा रहा था

Hindi Family Story: नैना थी ही इतनी खूबसूरत. चंपई रंग, बड़ीबड़ी आंखें, पतली नाक, छोटेछोटे होंठ. वह हंसती तो लगता जैसे चांदी की छोटीछोटी घंटियां रुनझुन करती बज उठी हों. उस के अंगअंग से उजाले से फूटते थे.

राहुल और नैना दोनों शहर के बीच बहते नाले के किनारे बसी एक झुग्गी बस्ती में रहते थे. नीचे गंदा नाला बहता, ऊपर घने पड़ों की ओट में बने झोंपड़ीनुमा कच्चेपक्के घरों में जिंदगी पलती. बड़े शहर की चकाचौंध में पैबंद सी दिखती इस बस्ती में राहुल अपने मातापिता और छोटी बहन के साथ रहता था और यहीं रहती थी नैना भी.

राहुल के पिता रिकशा चलाते, मां घरघर जूठन धोती. नैना की मां भी यही काम करती और उस के बाबा पकौड़ी की फेरी लगाते.

नैना बड़े चाव से पकौड़ी बनाती, खट्टीमीठी चटनी तैयार करती, दही जमाती, प्याज, अदरक, धनिया महीनमहीन कतरती और सबकुछ पीतल की चमकती बड़ी सी परात में सजा कर बाबा को देती.

बाबा परात सिर पर उठाए गलीगली चक्कर काटते. दही, चटनी, प्याज डाल कर दी गई पकौड़ी हाथोंहाथ बिक जातीं.

नैना के बाबा को अच्छे रुपए मिल जाते, पर हाथ आए रुपए कभी पूरे घर तक न पहुंचते. ज्यादातर रुपए दारू में खर्च हो जाते. फिर नैना के बाबा कभी नाली में लोटते मिलते तो कभी कहीं गिरे पड़े मिलते.

ऐसे गलीज माहौल में पलीबढ़ी नैना की खूबसूरती पर हालात की कहीं कोई छाया तक नहीं झलकती थी. राहुल सबकुछ भूल कर नैना को एकटक देखता रह जाता था.

नैना के दीवानों की कमी न थी. कितने लोग उस के आगेपीछे मंडराया करते, पर उन में राहुल जैसा कोई दूसरा था ही नहीं.

राहुल भी कम सुंदर न था. भला स्वभाव तो था ही उस का. गरीबी में पलबढ़ कर, कमियों की खाद पा कर भी उस की देह लंबी, ताकतवर थी. एक से एक सुंदर लड़कियां उस के इर्दगिर्द चक्कर काटतीं, पर कोई किसी भी तरह उसे रिझा न पाती, क्योंकि उस के मन में तो नैना बसी थी.

नैना के मन में बसी थी हीरे की अंगूठी. उसे बचपन से हीरे की अंगूठी पहनने का चाव था. सोतेजागते उस के आगे हीरे की अंगूठी नाचा करती. अपनी इसी इच्छा के चलते एक दिन नैना ने सारे बंधन झुठला दिए. प्रीति की रीति भुला दी.

बस्ती के एक छोर पर पत्थर की टूटी बैंच पर नैना बैठी थी. काले रंग की छींट की फ्रौक पहने, जिस पर सफेद गुलाबी रंग के गुलाब बने थे. फ्रौक की कहीं सिलाई खुली, कहीं रंग उड़ा, पर वह पैर पर पैर चढ़ाए किसी राजकुमारी की सी शान से बालों में जंगली पीला फूल लगाए बैठी थी. सब उसी को देख रहे थे.

इतराते हुए बड़ी अदा से नैना बोली, ‘‘जो मेरे लिए हीरे की अंगूठी लाएगा, मैं उसी से शादी करूंगी.’’

नैना की ऐसी विचित्र शर्त सुन कर सब की उम्मीदों पर जैसे पानी फिर गया. राहुल को तो अपने कानों पर यकीन ही नहीं हुआ.

धन्नो काकी यह तमाशा देख कर ठहरीं और हाथ नचाते हुए बोलीं, ‘‘घर में खाने को भूंजी भांग नहीं, उतरन के कपड़े, मांगे का सम्मान, मां घरघर जूठे बरतन धोए, बाप फेरी लगाए और दारू पीए और ये पहनेंगी हीरे की अंगूठी,’’ ऐसा कह कर वे आगे बढ़ गईं.

रंग में भंग हुआ. शायद नैना का प्रण टूट ही जाता, पर तभी राहुल के मुंह से निकला, ‘‘मैं पहनाऊंगा तुम्हें हीरे की अंगूठी,’’ और सब हैरानी से उसे देखते रह गए.

राहुल, जिस के घर में खाने के भी लाले थे, बीमार पिता की दवा के लिए पूरे पैसे नहीं थे, छत गिर रही थी, एक छोटी बहन ब्याहने को बैठी थी, उस राहुल ने नैना को हीरे की अंगूठी देने का वचन दे दिया. वह भी उसे जो उस का इंतजार करेगी भी या नहीं, यह वह नहीं जानता.

सचमुच राहुल के लिए हीरे की अंगूठी खरीदना और आकाश के तारे तोड़ना एक समान था. अभी तो वह पढ़ रहा है. बड़ा होनहार लड़का है वह. टीचर उसे बहुत प्यार करते हैं. उस की मदद के लिए तैयार रहते हैं.

राहुल पढ़लिख कर कुछ बनना चाहता है. राहुल की मां भी चाहती है कि वह पढ़लिख कर अपनी जिंदगी संवारे, इसीलिए वह हाड़तोड़ मेहनत कर राहुल को पढ़ा रही है.

राहुल की मां 35-36 साल की उम्र में ही 60 साल की दिखने लगी है. उसे लगता है कि उस का बेटा जग से निराला है. एक दिन वह पढ़लिख कर बड़ा आदमी बनेगा और उस की सारी गरीबी दूर हो जाएगी, इसीलिए जब उसे पता चला कि राहुल ने नैना को हीरे की अंगूठी पहनाने का वचन दिया है तो उस के मन को गहरी ठेस लगी. थकी आंखों की चमक फीकी हो कर बुझ सी गई.

राहुल में ही तो उस की मां के प्राण बसते थे. अब तक मन में एक इसी आस के भरोसे कितनी तकलीफ सहती आई है कि राहुल बड़ा होगा तो उस के सारे कष्ट दूर देगा. वह भी जीएगी, हंसेगी, सिर उठा कर चलेगी. आज उस का यह सपना पानी के बुलबुले सा फूट गया.

अब क्या करे? राहुल तो अब ऐसी तलवार की धार पर, कांटों भरी राह पर चल पड़ा है जिस के आगे अंधेरे ही अंधेरे हैं.

मां ने राहुल को समझाने की भरसक कोशिश की और कहा, ‘‘अभी तू इन सब बातों में मत पड़ बेटा. बहुत छोटा है तू. पहले पढ़लिख कर कुछ बन जा, फिर यह सब करना.’’

‘‘मुझे रुपए चाहिए मां.’’

‘‘रुपए पेड़ों पर नहीं फलते. हम लोग तो पहले से ही सिर से पैर तक कर्ज में डूबे हैं.’’

‘‘मां, तुम नहीं समझोगी इन सब बातों को.’’

‘‘मुझे समझना भी नहीं है. मेरे पास बहुतेरे काम हैं. तू अभी…’’ मां की बात पूरी होने से पहले ही राहुल बिफर उठता. अब वह अपनी मां से, अपनों से दूर होता जा रहा था. नैना और हीरे की अंगूठी अब राहुल और उस के अपनों के बीच एक ऐसी दीवार के रूप में खड़ी हो गई थी जो हर पल ऊंची होती जा रही थी. उसे तो एक ही धुन सवार थी कि जल्दी से जल्दी ढेर सारा पैसा कमाना है ताकि हीरे की अंगूठी खरीद सके.

राहुल जबतब किसी सुनार की दुकान के बाहर खड़ा हो कर अंदर देखा करता था. एक दिन उसे अंदर झांकते देख दरबान ने डांट कर भगा दिया. नैना को पाने की ख्वाहिश में वह अपनी हैसियत वगैरह सब भूल गया था.

राहुल को यह भी नहीं समझ आया कि वह नैना को प्यार करता है और नैना हीरे की अंगूठी को प्यार करती है. उस ने तो बस अपनी कामना का उत्सव मनाना चाहा, समर्पण के बजाय अपनी इच्छा को पूरा करने का जरीया बनाना चाहा.

राहुल अपनी पढ़ाई छोड़ इस शहर से बहुत दूर जा रहा था. जाने से पहले नैना से विदा लेने आया वह. भुट्टा खाती, एक छोटी सी मोटी दीवार पर बैठी पैर हिलाती नैना को वह अपलक देखता रहा.

नैना से विदा लेते हुए राहुल की आंखें मानो कह रही थीं, ‘काश, तुम जान सकती, पढ़ सकतीं मेरा मन और देख सकतीं मेरे दिल के भीतर जिस में बस तुम ही तुम हो और तुम्हारे सिवा कोई नहीं और न होगा कभी.

‘मैं ने वादा किया है तुम से, मैं लौट कर आऊंगा और सारे वचन निभाऊंगा. लाऊंगा अपने साथ अंगूठी जो होगी हीरे से जड़ी होगी, जैसी तुम्हारी उजली हंसी है. तुम मेरा इंतजार करना नैना. कहीं और दिल न लगा लेना. मैं जल्दी आ जाऊंगा. तुम मेरा इंतजार करना.’

राहुल अपने परिवार को छोड़ सब के सपने ताक पर रख हीरे की अंगूठी खरीदने के जुगाड़ में चल पड़ा. मां पुकारती रह गई. घर की जिम्मेदारियां गुहार लगाती रहीं. सुनहरा भविष्य पलकें बिछाए बैठा रह गया और राहुल सब को छोड़ कर दूसरी ओर मुड़ गया.

शहर आ कर राहुल ने 18-18 घंटे काम किया. ईंटगारा ढोना, अखबार बांटना, पुताई करना से ले कर न जाने कैसेकैसे काम किए. वहीं उसे प्रकाश मिला था, जो उसे गन्ना कटाई के लिए गांव ले गया. हाथों में छाले पड़ गए. गोरा रंग जल कर काला पड़ गया, पर रुपए हाथ में आते गए. हिम्मत बढ़ती गई.

अंधेरी स्याह रातों में कहीं कोने में गुड़ीमुड़ी सा पड़ा राहुल सोते समय भी सुबह का इंतजार करता रहता. मीलों दूर रहती नैना को देखने के लिए वह छटपटाता रहता.

समय का पहिया घूमता रहा. दिन, हफ्ते, महीने बीतते गए. हीरे की अंगूठी की शर्त लोग भूल गए, पर राहुल नहीं भूला. बड़ी मुश्किल से, कड़ी मेहनत से आखिरकार उस ने पैसे जोड़ कर अंगूठी खरीद ही ली.

इस बीच कितनी बार ये पैसे निकालने की नौबत आई, मां बीमार पड़ी, बहन की शादी तय होतेहोते पैसे की कमी के चलते रुक गई, वह खुद भी बीमार पड़ा, घर के कोने की छत टपकने लगी, पर उस ने इन पैसों पर आंच न आने दी और आज बिना एक पल गंवाए वह हीरे की अंगूठी ले कर जब नैना के घर की ओर चला तो पैर जैसे जमीन पर नहीं पड़ रहे थे.

राहुल शहर से लौट कर सब से पहले अपनी मां के गले कुछ ऐसे लिपटा मानो कह रहा हो, ‘मां, तेरा राहुल जीत गया. अब नैना को तुम्हारी बहू बनाने से कोई नहीं रोक सकता, क्योंकि तेरा राहुल नैना की शर्त पूरी कर के ही लौटा है.’

मां ने उस का ध्यान तोड़ते हुए कहा, ‘‘तुम ठीक हो न बेटा? कहां चले गए थे तुम इतने दिनों तक? क्या तुम्हें अपनी बीमार मातापिता और बहन की याद भी नहीं आई?’’ कहते हुए वह सिसकने लगी.

‘‘मां, अब रोनाधोना बंद करो. अब मैं आ गया हूं न. अपनी नैना को तेरी बहू बना कर लाने का समय आ गया. अब तुम्हें कोई काम नहीं करना पड़ेगा.’’

‘‘हां बेटा, अब काम ही क्या है… तेरे मातापिता अब बूढ़े हो चले हैं. जवान बहन घर में बैठी है. तुम जिस नैना के लिए हीरे की अंगूठी लाए हो न, उसे पहले ही कोई और हीरे की अंगूठी पहना कर ले जा चुका है.’’

‘‘झूठ न बोलो मां. हां, मेरी नैना को कोई नहीं ले जा सकता.’’

‘‘ले जा चुका है बेटा. तेरी नैना को हीरे की अंगूठी से प्यार था, तुझ से नहीं, जो उसे कोई और पहना कर ले गया. तुझे रूपवती लड़की चाहिए थी, गुणवती नहीं और उसे हीरे की अंगूठी चाहिए थी, हीरे जैसा लड़का नहीं.

‘‘उसे हीरे की अंगूठी तो मिल गई, पर हीरे की अंगूठी देने वाला पक्का शराबी है. तुम हो कि ऐसी लड़की के लिए घर, मातापिता और बहन सब छोड़ कर चल दिए.’’

‘‘बस मां, बस करो अब,’’ राहुल रोते हुए कमरे से बाहर निकल गया.

राहुल को लगा कि वह भीड़ भरी राह पर सरपट दौड़ा चला जा रहा है. गाडि़यां सर्र से दाएंबाएं, आगेपीछे से गुजर रही हैं. उसे न कुछ दिखाई दे रहा है, न सुनाई दे रहा है. एकाएक किसी का धक्का लगने से वह गिरा. आधा फुटपाथ पर और आधा सड़क पर. हां, प्यार के पागलपन में कितनाकुछ गंवा दिया, यह समझ आते ही पछतावे से भरा राहुल उठ खड़ा हुआ.

सपना टूटते ही राहुल अपनेआप को सहजता की राह पर चला जा रहा था, अपनी बहन के लिए हीरे जैसे लड़के की तलाश में. Hindi Family Story

Hindi Story : बुड्ढा कहीं का

Hindi Story : फब्तियां कसते लड़के इस प्रतीक्षा में थे कि उन का भी नंबर लग जाए. सास की उम्र वाली औरतें अपने को बिना कारण व्यस्त दिखाने में लगी थीं. बिना पूछे हर अवसर पर अपनी राय देते रहना भी तो एक अच्छा काम माना जाता है. ‘‘चलोचलो, गानाबजाना करो. ढोलक कहां है? और हारमोनियम कल वापस भी तो करना है,’’ सास का ताज पहने चंद्रमुखी ने शोर से ऊपर अपनी आवाज को उठा कर सब को निमंत्रण दिया. स्वर में उत्साह था.

‘‘हांहां, चलो. भाभी से गाना गवाएंगे और उन का नाच भी देखेंगे,’’ चेतना ने शरारत से भाभी का कंधा पकड़ा.

शिप्रा लजा कर अपने अंदर सिमट गई.

तुरंत ही लड़कियों व कुछ दूसरी औरतों ने शिप्रा के चारों ओर घेरा डाल दिया. बड़ी उम्र की महिलाओं ने पीछे सोफे या कुरसियों पर बैठना पसंद किया. युवकों को इस मजलिस से बाहर हो जाने का आदेश मिला पर वे किसी न किसी तरह घुसपैठ कर रहे थे.

शादी के इस शरारती माहौल में यह सब जायज था. अब रह गए घर के कुछ बुड्ढे जिन्हें बाहर पंडाल में बैठने को कहा गया. दरअसल, हर घर में वृद्धों को व्यर्थ सामान का सम्मान मिलता है. वे मनोरंजन का साधन तो होते हैं लेकिन मनोरंजन में शामिल नहीं किए जाते.

गानाबजाना शुरू हो गया. कुछ लड़कियों को नाचने के लिए ललकारा गया. हंसीमजाक के फव्वारे छूटने लगे. छोटीछोटी बातों पर हंसी छूट रही थी. सब को बहुत मजा आ रहा था.

पंडाल में केवल 4 वृद्ध बैठे थे. आपस में अपनीअपनी जवानी के दिनों का बखान कर रहे थे. जब अपनी पत्नियों का जिक्र करते तो खुसरपुसर कर के बोलते थे. हां, बातें करते समय भी उन का एक कान, अंदर क्या चल रहा है, कौन गा रहा है या कौन नाच रहा होगा, सुनने को चौकस रहता.

‘‘क्या जीजाजी,’’ रंजन प्रसाद ने मुंह के दांत ठीक बिठाते हुए कहा, ‘‘आप का घर है. रौनक आप के कारण है लेकिन आप को सड़े आम की तरह बाहर

फेंक दिया गया है. चलिए, अंदर हमला करते हैं.’’

‘‘साले साहब, यह सब तुम्हारी बहन की वजह से है. तुम तो उसे मेरी शादी से भी पहले से जानते हो. वैसे तुम क्यों नहीं पहल करते? दरवाजा खुला है,’’ शीतला सहाय ने साले को चुनौती दी.

‘‘2-4 बातें सुनवानी हैं क्या? अपनी बहन से तो निबट लूंगा लेकिन अपनी पत्नी से कैसे पार पाऊंगा? मुंह नोच लेती है,’’ रंजन प्रसाद ने मुंह लटका कर कहा.

‘‘यार, हम दोनों एक ही किश्ती पर सवार हैं,’’ शीतला सहाय ने मुसकरा कर कहा, ‘‘याद है तुम्हारी शादी में तो मुजरा भी हुआ था. बंदोबस्त क्यों नहीं करते?’’

‘‘क्यों जले पर नमक छिड़कते हो, जीजाजी,’’ रंजन प्रसाद ने आह भर कर फिर से दांत ठीक किए और कहा, ‘‘मैं जा रहा हूं सोने. पता नहीं आप ने कचौडि़यों में क्या भरवाया था. अभी तक पेट नहीं संभला है.’’

‘‘अपनी बहन चंद्रमुखी से क्यों नहीं पूछते?’’ शीतला सहाय ने प्रहार किया, ‘‘हलवाई तो उस की पसंद का मायके से आया है.’’

रंजन प्रसाद खीसें निपोर कर चल दिए. शीतला सहाय ने देखा, बाकी के दोनों वृद्ध मुंह खोल कर खर्राटे भर रहे थे. उन्हें सोता देख कर एक गहरी सांस ली और सोचने लगे अब क्या करूं? मन नहीं माना तो खुले दरवाजे से अंदर झांकने लगे.

पड़ोस की लड़की महिमा फिल्मी गानों पर नाचने के लिए मशहूर थी. जहां भी जाती थी महफिल में जान आ जाती थी. महिमा के साथ एक और लड़की करिश्मा भी नाच रही थी. बहुत अच्छा लग रहा था. पास ही एक खाली कुरसी पर शीतला सहाय बैठ गए.

‘‘यहां क्या कर रहे हो?’’ चंद्रमुखी ने झाड़ लगाई, ‘‘कुछ मानमर्यादा का भी ध्यान है? बहू क्या सोचेगी?’’

शीतला सहाय ने झिड़क कर पूछा, ‘‘तो जाऊं कहां? क्या अपने घर में भी आराम से नहीं बैठ सकता? क्या बेकार की बात करती हो.’’ रंजन प्रसाद की पत्नी कलावती ने चुटकी ले कर कहा, ‘‘जीजाजी, बाहर घूम आइए. यहां तो हम औरतों का राज है.’’

कुछ औरतों को हंसी आ गई.

मुंह लटका कर शीतला सहाय ने कहा, ‘‘क्या करूं, साले साहब की तरह प्रशिक्षित नहीं हूं न. ठीक है, जाता हूं.’’

लगता है कहीं घूम कर आना ही होगा? शीतला सहाय अभी सोच ही रहे थे कि उन को अचानक अपने पुराने मित्र काशीराम का ध्यान आया. शादी का निमंत्रण उसे भेजा था लेकिन किसी कारणवश नहीं आया था. कोरियर से 50 रुपए का चेक भेज दिया था. शिकायत तो करनी थी सो यह समय ठीक ही था.

शीतला सहाय ने आटोरिकशा में बैठना छोड़ दिया था क्योंकि दिल्ली की सड़कों पर आटो बहुत उछलता है. हर झटके पर लगता है कि शरीर के किसी अंग की एक हड्डी और टूट गई. मजबूरन बस की सवारी करनी पड़ती थी. बस स्टाप पर खड़े हो कर 561 नंबर की बस की प्रतीक्षा करने लगे जो काशीराम के घर के पास ही रुकती थी.

बस आई तो पूरी भरी हुई थी. बड़ी मुश्किल से अंदर घुसे. आगेपीछे से धक्के लग रहे थे. अपने को संभालने के लिए उन्होंने एक सीट को पकड़ लिया. दुर्भाग्य से उस सीट पर एक अधेड़ महिला बैठी हुई थी. उस के सिर पर कटोरीनुमा एक ऊंचा जूड़ा था. बस के हिलने पर शीतला सहाय का हाथ उस के जूड़े से लग जाता था. बहुत कोशिश कर रहे थे कि ऐसा न हो, लेकिन ऐसा न चाहते हुए भी हो रहा था.

अंत में झल्ला कर उस महिला ने कहा, ‘‘भाई साहब, जरा ठीक से खड़े रहिए न.’’

‘‘ठीक तो खड़ा हूं,’’ शीतला सहाय बड़बड़ाए.

‘‘क्या ठीक खड़े हैं. बारबार हाथ मार रहे हैं. उम्र का लिहाज कीजिए. शरम नहीं आती आप को,’’ महिला ने एक सांस में कह डाला.

‘‘क्या हो गया?’’ आगेपीछे बैठे   लोगों की उत्सुकता जागी.

‘‘कुछ नहीं. इन से ठीक से खड़े होने को कह रही हूं,’’ महिला ने रौब से कहा.

मर्दों को हंसी आ गई.

महिला के पास बैठी युवती ने कहा, ‘‘जाने दीजिए आंटी, क्यों मुंह लगती हैं. सारे मर्द एक से होते हैं.’’

महिला मुंह बना कर चुप हो गई.

अगले स्टाप पर बहुत से लोग उतर गए. खाली सीटों पर खड़े हुए यात्री झपट्टा मार कर बैठ गए. शीतला सहाय को कोई अवसर नहीं मिला. मन ही मन सोच रहे थे, उन के बुढ़ापे पर किसी ने ध्यान नहीं दिया. कहां गई भारतीय शिष्टता, संस्कृति और संस्कार? लाचार और विवश खड़े रहे. टांगें जवाब दे रही थीं.

यह स्टाप शायद किसी कालिज के पास का था. धड़धड़ा कर 10-15 लड़कियां अंदर घुस आईं. उन के हंसने और किलकारी मारने से लग रहा था कि 100-200 चिडि़यां एकसाथ चहचहा रही हों. शीतला सहाय लड़कियों के बीच घिर गए.

बस एक झटके के साथ चल पड़ी. खड़े लोगों में कोई आगे गिरा तो कोई पीछे लेकिन अधिकतर संभल गए. रोज की आदत थी. शीतला सहाय ने गिरने से बचने के लिए आगे कुछ भी पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाया तो एक लड़की का कंधा हाथ में आ गया.

‘‘अंकल, ये क्या कर रहे हैं?’’ लड़की ने तीखे स्वर में कहा.

‘‘माफ करना, बेटी, मैं गिर गया था,’’ शीतला सहाय ने खेद प्रकट किया.

‘‘आप जैसे बूढ़े लोगों को मैं अच्छी तरह पहचानती हूं,’’ लड़की ने क्रोध से कहा, ‘‘मुंह से बेटीबेटी कहते हैं पर मन में कुछ और होता है. रोज आप जैसे लोगों से पाला पड़ता है. मेहरबानी कर के दूर खड़े रहिए.’’

‘‘क्या हुआ, जुगनी? क्यों झगड़ रही है?’’ दूसरी लड़की ने पूछा.

‘‘कुछ नहीं, अंकलजी धक्का दे रहे थे. मैं जरा इन्हें सबक सिखा रही थी,’’ जुगनी ने ढिठाई से कहा.

‘‘लगता है अंकलजी के घर में बेटियां नहीं हैं,’’ तीसरी लड़की ने अपना योगदान दिया.

पीछे से एक और लड़की ने फुसफुसा कर कहा, ‘‘बुड्ढा बड़ा रंगीन मिजाज का लगता है.’’ इस पर सारी लड़कियां फुल- झडि़यों की तरह खिलखिला कर हंस दीं.

शीतला सहाय शरम से पानीपानी हो गए. उन्होंने मन ही मन प्रण किया कि अब कभी बस में नहीं बैठेंगे.

शीतला सहाय की असहाय स्थिति को देखते हुए एक वृद्ध महिला ने कहा, ‘‘भाई साहब, आप यहां बैठ जाइए. मैं अगले स्टाप पर उतर जाऊंगी.’’

‘‘अंकलजी को आंटीजी मिल गईं,’’ किसी लड़की ने धीरे से हंसते हुए कहा.

एक और हंसी का फव्वारा.

‘‘नहींनहीं, आप बैठी रहिए. मैं भी उतरने ही वाला हूं,’’ शीतला सहाय ने झूठ कहा.

लड़कियों ने शरारत से खखारा.

वृद्घा ने क्रोध से लड़कियों को देखा और कहा, ‘‘क्या तुम्हारे मांबाप ने यही शिक्षा दी है कि बड़ों का अनादर करो? शरम करो.’’

अचानक बस में शांति छा गई.

अगले स्टाप पर वृद्धा उतर गईं और शीतला सहाय ने बैठ कर गहरी सांस ली. बस अपने अंतिम पड़ाव पर पहुंच रही थी. बस धीरेधीरे खाली होती जा रही थी.

जैसे ही बस रुकी किसी ने शीतला सहाय के कंधे को छुआ और कहा, ‘‘सौरी, अंकल.’’

शीतला सहाय ने नजर उठा कर देखा तो वही लड़की थी जो उन से झगड़ रही थी.

क्षीण मुसकान से कहा, ‘‘कोई बात नहीं, बेटी.’’

लड़की जल्दी से उतर कर चली गई. उस ने पीछे मुड़ कर भी नहीं देखा. धीरेधीरे चलते हुए शीतला सहाय जब काशीराम के घर तक पहुंचे तो अपने दोस्त को बाहर टहलते हुए पाया.

अपने पुराने अंदाज से हंसी का ठहाका लगाते हुए दोनों गले मिले.

‘‘क्या बात है, उर्मिला ने घर से बाहर निकाल दिया?’’ शीतला सहाय ने छेड़ते हुए पूछा.

‘‘यही समझो, यार. प्रमिला ससुराल से आई है, सो उर्मिला ने कीर्तन मंडली बुला ली. अंदर औरतों का कीर्तन चल रहा है और मुझे अंदर बैठने की आज्ञा नहीं,’’ काशीराम ने सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘अपने ही घर में अब्दुल्ला बेगाना.’’

‘‘हाहाहा,’’ शीतला सहाय ने ठठा कर हंसते हुए कहा, ‘‘तो यह बात है.’’

‘‘यह तो नहीं पूछूंगा कि क्यों आए हो लेकिन फिर भी शंका समाधान तो करना ही पड़ेगा,’’ काशीराम ने शीतला सहाय के कंधे पर हाथ रखते हुए पूछा.

‘‘यार, मेरी हालत भी कुछ तुम्हारे जैसी ही है. सब लोग नाचगा रहे हैं. मस्ती कर रहे हैं. मेरा भी मन किया कि जवानों के साथ बैठ कर तबीयत बहला लूं, लेकिन उन की दुनिया में बुड्ढों के लिए कोई जगह नहीं है,’’ शीतला सहाय ने ठंडी सास छोड़ी, ‘‘बस, घर से बाहर कर दिया.’’

शीतला सहाय ने अपने मित्र को बस में उन के साथ जो कुछ हुआ नहीं बताया क्योंकि उन्हें बुढ़ापे पर तरस आ रहा था. थोड़ी देर गप्पें मार कर उन्होंने घर का रास्ता नापा. मन हलका हो गया. बस यहीं से चलती थी सो बैठने की जगह मिल गई और वह अब की बार बिना हादसे के घर पहुंच गए.

उन्हें देखते ही बहुत लोगों ने घेर लिया मानो एक बिछुड़ा हुआ आदमी बहुत दिनों बाद मिला था.

‘‘बाबा को देखो. कितने खुश हैं. जरूर काशी अंकल से मिल कर आए होंगे,’’ निक्की ने छेड़ा.

‘‘यहां से जाते समय कितने बुड्ढे लग रहे थे. अब देखो एकदम जवान लग रहे हैं.’’

रोशन ने पूछा, ‘‘ये काशी अंकल आप को कौन सी घुट्टी पिलाते हैं?’’

शीतला सहाय हंस दिए, ‘‘कम से कम एक आदमी तो है जो बुड्ढे का बुढ़ापा भुला देता है. तुम लोग तो हमेशा मुझ से दूर रहने की कोशिश करते हो और हमेशा मेरी उम्र मुझे याद दिलाते रहते हो.’’

‘‘ठीक तो है, आदमी की उम्र उतनी ही होती है जितनी कि वह महसूस करता है. चलो, गरमगरम कचौडि़यां और ठंडी रसमलाई आप का इंतजार कर रही है,’’ रंजन प्रसाद ने कहा और शीतला सहाय का हाथ पकड़ लिया.

Hindi Story : आह्वान – क्या स्मिता दूसरी शादी से खुश थी

Hindi Story : एक भारतीय पुरुष को पत्नी यों अपनी मरजी से छोड़ कर चली जाए, बेहद अपमान व तौहीन की बात थी. मेरे अंदर बैठा भारतीय पति मन ही मन सोच रहा था, ‘पत्नी पति के बिना कितने दिन अकेली रहेगी? आएगी तो यहीं लौट कर.’ कुछ दिन के पश्चात वह लौटी तो सही, परंतु मुझे एक और आघात पहुंचाने के लिए. आते ही उस ने चहक कर बताया, ‘‘मुझे अपना मनचाहा दूसरा व्यक्ति मिल गया है और यहां से अच्छी नौकरी भी. मैं जल्दी ही तलाक की काररवाई पूरी करना चाहती हूं.’’

मैं पुरुष का सारा अहं समेटे उसे आश्चर्य से देखता भर रह गया. मेरा सारा दर्प चूरचूर हो बिखर गया. वह अपनी रहीसही बिखरी चीजें समेट कर चलती बनी और मेरी जिंदगी एक बीहड़ सन्नाटा बन कर रह गई. लगा, भरेपूरे संसार में मैं केवल अकेला हूं. इसी ऐलिस के कारण अपनों से भी पराया हो गया और वह भी यों छोड़ कर चल दी.

अकेले में परिवार के लोगों की याद, उन की कही बातें मन को झकझोरने लगीं. भारत से अमेरिका आने के लिए जिन दिनों मैं अपनी तैयारी में व्यस्त था तो पिताजी, अम्मां व बड़े भैया की जबान पर एक ही बात रहती, ‘देखो, वीरू, वहां जा कर किसी प्रेम के चक्कर में मत फंसना. हम लोगों के घर में अपनी भारतीय लड़की ही निभ पाएगी.’ मैं सुन कर यों मुसकरा देता जैसे उन के कहे की मेरे लिए कोई अहमियत ही न हो.

मां मेरी स्वच्छंद प्रकृति से भलीभांति परिचित थीं. एक दिन उन्होंने पिताजी को एकांत में कुछ सुझाया और उन्हें मां का सुझाव पसंद आ गया. स्मिता व उस के परिवार के कुछ सदस्यों को अपने यहां बुलवा कर चटपट मंगनी की रस्म अदा कर दी गई.

‘कम से कम लड़के पर कुछ तो बंधन रहेगा स्वदेश लौटने का. साल भर बाद ही शादी के लिए बुलवा लेंगे. फिर स्मिता भी साथ चली जाएगी तो वहीं का हो कर भी नहीं रहेगा,’ पिताजी अपने किए पर बहुत प्रसन्न थे. स्मिता के परिवार वाले भी संतुष्ट थे कि उन्हें अमेरिका से लौटा वर अपनी बेटी के लिए मिल जाएगा.

यों स्मिता कम आकर्षक नहीं थी. वह मेरे सामने आई तो मैं उसे एकटक देखता ही रह गया था. बड़ीबड़ी मदभरी आंखें व माथे पर लटकती घुंघराले बालों की घनी सी लट. चेहरे पर इतना भोलापन कि मन को बरबस अपनी ओर खींच ले. मन के किसी कोने में बरबस ही आ कर अपना अधिकार जमा लिया था उस ने.

भारत से जब विदा होने लगा था तो सभी स्वजनों की आंसुओं से भरी आंखों के बीच वह भी सिर झुकाए एक ओर अलग खड़ी थी. बड़े भैया, मिथुन चाचा, रमा दीदी व शीला भाभी सभी मुझे बारबार गले लगा कर अपने हृदय की व्याकुलता प्रकट कर रहे थे. शरम के मारे वह उसी एक कोने में खड़ी रही. मैं ही उस के पास पहुंचा था और धीरे से उस के कान में कहा था, ‘अच्छा, स्मिता, फिर मिलेंगे. जहाज का वक्त हो गया है.’

उस ने एक बार अपनी नजर उठाई और मेरे चरणों में झुक गई थी. पिताजी मुझे बांहों में लपेट कर बुदबुदाए थे, ‘नालायक, देख, तेरे लिए कितनी अच्छी लक्ष्मी जैसी बहू ढूंढ़ी है हम ने. याद रखना, जल्दी ही लौटना है तुझे इस के लिए.’

मैं उन की भुजाओं के बंधन से मुक्ति पा कर जाने लगा तो आंखें पोंछते हुए वह बीचबीच में अटकती जबान से कहे जा रहे थे, ‘तेरे शौक के कारण भेज रहा हूं, वरना तो क्या इतनी दूर भेजता.’

कुछ देर तक जहाज में बैठने के पश्चात अपनी धरती व अपने आकाश को छोड़ते हुए मन कसैला सा रहा. जिन्हें पीछे छोड़ आया था उन की याद से मन दुखी था. स्मिता की याद मन में बारबार यों कौंध जाती जैसे बरसाती बादलों के बीच सहसा बिजली चमक उठती है.

न्यूयार्क हवाई अड्डे पर आज से 3 वर्ष पूर्व उतरा था तो मन सबकुछ भुला कर कितनी नई सुनहरी कल्पनाओं में उड़ानें भरने लगा था. जिस कल्पना-लोक में पहुंचने की तड़प मेरे मन में होश संभालते ही समा गई थी उसी धरती पर उतर कर लगा था यही है मेरी कल्पनाओं की धरती. यथार्थ में कल्पना से भी अधिक सुंदर.

उपस्थित मित्रगणों ने गले में बांहें डाल कर हवाई अड््डे पर मेरा स्वागत किया. प्रमोद से सामना होते ही मुझे लगा कि उस के चरणों में गिर पड़ूं. उसी ने मुझे अमेरिका बुलाने में अपना पूर्ण सहयोग दिया था. अपने दफ्तर में मेरे लिए काम की तलाश भी मेरे पहुंचने से पहले ही कर दी थी.

चिकनी, गुदगुदी कार शीशे जैसी सड़कों पर ऊंचेऊंचे भवनों के बीच से हो कर गुजरती जा रही थी और मैं हैरत से आंखें फाड़फाड़ कर इधरउधर देखता रहा. प्रमोद ने मेरे लिए एक छोटे से निवास का प्रबंध भी पहले से ही कर दिया था. खाना भी उस रात उस ने कहीं से मंगवा रखा था. मुझे अपने कमरे पर छोड़ने के पश्चात वह भी बहुत कम मिल पाया. कभी आमनासामना हो भी जाता तो दूर से ही ‘हैलो’ कह देता. अपनी व्यस्तता भरी जिंदगी में से कुछ क्षण भी वह मेरे लिए चुरा लेने को विवश था शायद.

एकदम भारतीय परिवेश से निकल कर यों लगने लगा जैसे अनेक मित्रों के रहते हुए भी मैं एकदम अकेला व उपेक्षित हूं. काम कर के लौटता तो लगता, मैं उस छोटे से कमरे में कैद हो गया हूं. न घर में कोई बोलने वाला था, न यह पूछने वाला कि मैं भूखा हूं या प्यासा. 6 महीने बीततेबीतते मुझे यह अकेलापन बेहद खलने लगा.

अकेलेपन की उस ऊब को मिटाने के लिए मैं अनजाने ही कब ऐलिस की ललचाई आंखों में उलझता गया और कब मैं साल भर के अंदर ही उस से विवाह करने पर उतारू हो गया, मैं स्वयं भी नहीं जान पाया.

घर वालों को पता चला तो सब के रोषपूर्ण पत्र आने लगे. मां ने लिखवाया था, ‘समझ ले तेरी मां मर गई.’ उसी  पत्र में बड़े भैया ने भी लिख भेजा था, ‘अपना काला मुंह हम सब को दिखाने की जरूरत नहीं. खानदान की इज्जत मिट्टी में मिला दी. क्या जवाब देंगे हम लड़की वालों को?’

मैं भी अंदर ही अंदर सुलग उठा था. उत्तर में लिख भेजा था, ‘शादीब्याह हर व्यक्ति की अपनी मरजी से होना चाहिए न कि खानदान की नाक रखने के लिए. आप लोग भी समझ लें कि वीरू इस दुनिया में नहीं रहा.’

तब से घर वालों ने मेरे द्वारा भेजी जाने वाली आर्थिक सहायता भी स्वीकार करनी बंद कर दी. मन को भारी आघात तो पहुंचा था, क्योंकि भारत से आने का मेरा प्रमुख उद्देश्य घर की दशा सुधारने का ही था, ‘मैं बाहर चला जाऊंगा तो ढेर सारे पैसे भेजा करूंगा, सब की हालत सुधर जाएगी,’ पिताजी को यही कह कर मैं आश्वस्त किया करता था.

ऐलिस से विवाह करने के पश्चात तो घर वालों को कुछ भेजने की संभावना ही नहीं थी. मैं ने भी सब को भुला दिया. बस, ऐलिस के रंग में डूब गया.

लेकिन वह सबकुछ बहुत दिनों तक नहीं चल पाया. बहुत जल्दी ही मैं यह महसूस करने लगा था कि ऐलिस की दुनिया बहुत रंगीन है. उस का रहने का स्तर बहुत ऊंचा है जिस तक पहुंचने की कोशिश में मैं अपनेआप को अयोग्य समझने लगा था.

उस की महत्त्वाकांक्षाएं मेरे भीतर की शांति को नष्ट करती जा रही थीं. शीघ्र ही हमारे संबंधों में ठंडापन आने लगा. फिर भी अपने भारतीय संस्कारों के वशीभूत हो मैं उस के साथ हर समझौते के लिए तैयार रहता.

उधर ऐलिस के लिए जिंदगी की परिभाषा मुझ से सर्वथा भिन्न थी. वह केवल जिंदगी जीना जानती थी, संबंध निभाना नहीं. विवाह यों भी विदेशी धरातल पर जीवन भर का संबंध न हो कर एक समझौता मात्र समझा जाता है. जब चाहा जोड़ लिया और जब मन में आया तोड़ डाला.

ऐलिस भी मुझे बारबार सुनाने लगी थी, ‘जब संबंधों में ही गरमाहट न हो तो हमें अलग हो जाना चाहिए. अब साथसाथ रहना एक पाखंड है.’

तब भी मुझे विश्वास नहीं होता था कि वह अपने कहे को इतनी सहजता से कार्यान्वित कर दिखाएगी. उस के प्रति एक आक्रोश अंदर ही सुलगता और राख हो जाता.

दिन गुजरते गए. अब 6 महीने होने को हैं. उन दिनों के बारे में सोचता हूं तो स्वयं पर ही आश्चर्य होता है. ऐलिस के साथ कैसे मैं इतनी असहाय, दयनीय जिंदगी गुजारने लगा था. हर समय उस की इच्छाओं को पूरा करने व उसी के कार्यक्रमों को निबटाने में लगा रहा. कितना विवश हो कर उस के इशारों पर नाचने लगा था.

मेरी पूरी दिनचर्या उसी के द्वारा नियोजित होती. कभी कुछ नकारना चाहता तो ऐलिस बड़ी शान से कहती, ‘भूल जाओ कि तुम एक भारतीय हो. अब तुम अमेरिका में रह रहे हो. यहां सभी को इतना काम करना पड़ता है, नहीं तो हम इस खटारा गाड़ी की जगह शेवरलेट कैसे खरीदेंगे? अपना खुद का घर कैसे लेंगे?’

उस के द्वारा थोपी गई दिनचर्या पर मुझे कई बार बेहद गुस्सा आ जाता परंतु उस आग में मुझे खुद ही जलना पड़ता. उस के आगे तो केवल मुसकरा कर ‘हां’ कह देनी पड़ती.

सचमुच उस के साथ मैं उन्मुक्त भाव से खिलखिलाया तो कभी नहीं, हां हंसता जरूर था. वह भी जब उस के सामने हंसने की जरूरत पड़ती थी. खुद की हंसी तो कभी नहीं हंसा.

उस से पीछा छूटा तो बेचैन हो कर अपने देश लौटने के लिए छटपटाने लगा हूं. क्या मेरी अपनी भी कोई धरती है? कोई आकाश है जिसे अपना कह कर ही स्वच्छंद विचरण कर सकूं? लगता है, मेरा जीवन अधर में लटका हुआ दिशाहीन विमान है जिस के विचरण के लिए कोई आकाश नहीं है. नीचे उतरने को कोई धरती भी नहीं. स्वदेश में सब पराए हो चुके हैं.

जब मैं भारत से विदा होने लगा था तब अम्मां ने मुझे कलेजे से लगा कर ऐसे लिपटा लिया था जैसे मैं कोई दुधमुंहा बच्चा होऊं. धोती का पल्लू मुंह में ठूंस, जमीन पर बैठ कर सिसकने लगी थीं. यदि अब उन के सामने गया तो क्या वह मुझे उसी तरह अपनी छाती से चिपटा लेंगी? शायद नहीं.

‘समझ ले, तेरी मां मर गई.’ पत्र में उन के लिखवाए गए ये शब्द आंखों के आगे तैरने लगते हैं.

पिताजी, बड़े भैया, चाचा व भाभी सभी तो रुष्ट हैं. और स्मिता? उस की तो शादी भी हो गई होगी. जब उस के घर वालों को पता चला होगा कि मैं ने यहां ऐलिस से विवाह कर लिया है तो उन का दिल मेरे प्रति कितनी नफरत से भर उठा होगा. चट से स्मिता के हाथ पीले कर दिए होंगे. मुझे यहीं इस विदेश में यों निरुद्देश्य ही जीना होगा, जीते जी मरने के समान.

एक दिन डाकिया दीदी की चिट्ठी दे गया. उस ने लिखा था, ‘ऐलिस के चले जाने से पूरे परिवार के लोग प्रसन्न हैं. अब तुम जल्दी लौट आओ. तुम्हें नहीं मालूम कि तुम्हारे बिना घर की दशा कैसी हो रही है.

‘इन 3 वर्षों में ही अम्मां की आंखों की रोशनी जाती रही है. रोरो कर मोतियाबिंद उतर आया है. चाचाजी को हर समय पेट की शिकायत रहती है. पिताजी चलनेफिरने के अयोग्य होते जा रहे हैं. धीरेंद्र भैया असमय ही बूढ़े हो गए हैं. उन के दोनों लड़के पैसे के अभाव के कारण पढ़नालिखना छोड़ बैठे हैं. यों समझ लो कि तुम्हारे बिना सब की कमर टूट चुकी है.

‘और तो और, मरम्मत के अभाव में हमारा अच्छाखासा घर भी पुराना लगने लगा है. अब सोच लो कि तुम्हारा कर्तव्य क्या बनता है.’

दीदी के हाथ की लिखी पंक्तियों को देखते ही कितनी ही मधुर स्मृतियों में मन हिलोरें खाने लगा. कोई भी शरारत भरा काम होता तो मैं और दीदी इकट्ठे रहते. होली के अवसर पर राह चलते लोगों पर घर की मुंडेर से रंग भरे गुब्बारे फेंकना व रंग खेलती टोलियों पर ऊपर से रंग भरी बालटियां उड़ेल देना हम दोनों को बहुत प्रिय था. दीवाली आती तो पटाखे छोड़ कर राह चलतों को तंग करते.

दीदी के प्यार भरे पत्र व उन से जुड़ी मधुर स्मृतियां मुझे भारत लौटने के लिए विवश करने लगीं. मेरा मन लौटने की तैयारियां करने के लिए लालायित हो उठा.

तभी असमंजस ने मुझे फिर से घेर लिया. वहां यदि स्मिता से सामना हो गया तो मेरी क्या दशा होगी? शहर ही में तो रहती है.

मैं ने मन ही मन छटपटा कर फिर अपना इरादा ठप कर दिया.

कुछ ही दिनों के पश्चात लेटरबाक्स में नीले रंग का सुंदर सा लिफाफा पड़ा दिखाई दिया. एक कोने पर सुंदर अक्षरों में लिखा था, स्मिता…

धड़कते दिल से पत्र खोला तो आंखों पर विश्वास नहीं हुआ. एकएक शब्द प्यार में पगा कर उस ने लिखा था, ‘जाते समय आप ने मुझे वचन दिया था फिर से मिलने का. मिलन के उन्हीं क्षणों की प्रतीक्षा में दिन काट रही हूं. वर्षों से उन्हीं क्षणों के लिए जी रही हूं. देखती हूं और कितनी प्रतीक्षा करवाओगे. आजीवन भी करवाओगे तो करती रहूंगी क्योंकि हमारातुम्हारा संबंध तो जन्म भर का है.’

नीचे लिखा था, ‘केवल तुम्हारी, स्मिता.’

कितना निश्चल प्रेम है. न कोई शिकायत, न शिकवा. एक आह््वान है  पत्र में, परंतु कितने निस्वार्थ भाव से.

मुझे एकदम लगा, मेरी भी कोई धरती है. कोई खुला आकाश है मेरे लिए भी. वहां सब अपने हैं. मैं उन्हीं अपनों के प्रति अपने कर्तव्य निभाऊंगा. मां की आंखों का आपरेशन, पिताजी की कमजोरी का इलाज, उपचार, भैया व उन के बच्चों के खर्चों का वहन, यह सब मेरा फर्ज है. वर्षों बाद अपना फर्ज निभाऊंगा, अपनी धरती पर विचरूंगा, अपनों के बीच.

और स्मिता, उसी के पत्र के आह्वान ने ही तो मुझे भारत लौटने की प्रेरणा दी है. वही मेरी सच्ची जीवनसंगिनी बन कर रहेगी.

Hindi Story : विषकन्या बनने का सपना

Hindi Story : इस महीने की 12 तारीख को अदालत से फिर आगे की तारीख मिली. हर तारीख पर दी जाने वाली अगली तारीख किस तरह से किसी की रोशन जिंदगी में अपनी कालिख पोत देती है, यह कोई मुझ से पूछे.

शादीब्याह के मसले निबटाने वाली अदालत यानी ‘मैट्रीमोनियल कोर्ट’ में फिरकी की तरह घूमते हुए आज मुझे 3 साल हो चले हैं. अभी मेरा मामला गवाहियों पर ही अटका है. कब गवाहियां पूरी होंगी, कब बहस होगी, कब मेरा फैसला होगा और कब मुझे न्याय मिलेगा. यह ‘कब’ मेरे सामने नाग की तरह फन फैलाए खड़ा है और मैं बेबस, सिर्फ लाचार हो कर उसे देख भर सकती हूं, इस ‘कब’ के जाल से निकल नहीं सकती.

वैसे मन में रहरह कर कई बार यह खयाल आता है कि शादीब्याह जब मसला बन जाए तो फिर औरतमर्द के रिश्ते की अहमियत ही क्या है? रिश्तों की आंच न रहे तो सांसों की गरमी सिर्फ एकदूसरे को जला सकती है, उन्हें गरमा नहीं सकती.

आपसी बेलागपन के बावजूद मेरा नारी स्वभाव हमेशा इच्छा करता रहा सिर पर तारों सजी छत की. मेरी छत मेरा वजूद था, मेरा अस्तित्व. बेशक, इस का विश्वास और स्नेह का सीमेंट जगहजगह से उखड़ रहा था फिर भी सिर पर कुछ तो था पर मेरे न चाहने पर भी मेरी छत मुझ से छीन ली गई, मेरा सिर नंगा हो गया, सब उजड़ गया. नीड़ का तिनकातिनका बिखर गया. प्रेम का पंछी दूर कहीं क्षितिज के पार गुम हो गया. जिस ने कभी मुझ से प्रेम किया था, 2 नन्हेनन्हे चूजे मेरे पंखों तले सेने के लिए दिए थे, उसे ही अब मेरे जिस्म से बदबू आती थी और मुझे उसे देख कर घिन आती थी.

अब से कुछ साल पहले तक मैं मिसेज वर्मा थी. 10 साल की परिस्थितियों की मार ने मेरे शरीर को बज्र जैसा कठोर बना दिया. अब तो गरमी व सर्दी का एहसास ही मिटने लगा है और भावनाएं शून्यता के निशान पर अटक गई हैं. लेकिन मेरे माथे की लाल, चमकदार बिंदी जब दुनिया की नजरों में धूल झोंक रही होती, मैं अकसर अपनी आंखों में किरकिरी महसूस किया करती.

उस दिन भी खूब जोरों की बारिश हुई थी. भीतर तक भीग जाने की इच्छा थी पर उस दिन बारिश की बूंदें, कांटों की चुभन सी पूरे जिस्म को टीस गईं और दर्द से आत्मा कराह उठी थी. मैं ने अपने बिस्तर पर, अपने अरमानों की तरह किसी और के कपड़े बिखरे देखे थे, मेरा आदमी, अपनी मर्दानगी का झंडा गाड़ने वाला पुरुष, हमेशा के लिए मेरे सामने नंगा हो चुका था.

‘‘हरामखोर तेरी हिम्मत कैसे हुई कमरे में इस तरह घुसने की?’’ शराब के भभके के साथ उस के शब्द हवा में लड़खड़ाए थे. मैं ने उन शब्दों को सुना. उस की जबान और मेरी टांगें लड़खड़ा रही थीं. मुझे लगा, जिस्म को अपने पैरों पर खड़ा करने की सारी शक्ति मुझ से किसी ने खींच ली थी. बड़ी मुश्किल से 2 शब्द मैं ने भी उत्तर में कहे थे, ‘‘यह मेरा घर है…मेरा…तुम ऐसा नहीं कर सकते.’’

इस से पहले कि मैं कुछ और कहती, देखते ही देखते मेरे जिस्म पर बैल्ट से प्रहार होने लगे थे. दोनों बच्चे मुझ से चिपके सिसक रहे थे, उन का कोमल शरीर ही नहीं आत्मा भी छटपटा रही थी.

इस के बाद बच्चों को सीने से लगाए मैं जिंदगी की अनजान डगर पर उतर आई थी. मेरी बेटी जो तब छठी में पढ़ती थी, आज 12वीं जमात में है, बेटा भी 8वीं की परीक्षा की तैयारी में है. उन दिनों मेरे बालों में सफेदी नहीं थी लेकिन आज सिर पर बर्फ सी गिरी लगती है. आंखों के ऊपर मोटे शीशे का चश्मा है. पीठ तब कड़े प्रहारों और ठोकरों से झुकती न थी लेकिन आज दर्द के एहसास ने ही बेंत की तरह उसे झुका दिया है. सच, यादें कितना निरीह और बेबस कर देती हैं इनसान को.

कुछ महीनों के बाद बातचीत, रिश्तेदारियां, सुलहसफाई और समझौते जैसी कई कोशिशें हुईं, पर विश्वास का कागजी लिफाफा फट चुका था, प्रेम की मिसरी का दानादाना बिखर गया था. बाबूजी का मानना कि आदमी का गुस्सा पानी का बुलबुला भर है, मिनटों में बनता, मिनटों में फूटता है, झूठ हो गया था. अकसर पुरुष स्वभाव को समझाते हुए कहते, ‘देख बेटी, मर्द कामकाज से थकाहारा घर लौटता है, न पूछा कर पहेलियां, उसे चिढ़ होती है…उसे समझने की कोशिश कर.’

मैं अपने बाबूजी को कैसे समझाती कि मैं ने इतने साल किस तरह अनसुलझी पहेलियां सुलझाने में होम कर दिए. सीने में बैठा अविश्वास का दर्द, बीचबीच में जब भी टीस बन कर उठता है तो लगता है किसी ने गाल पर तड़ाक से थप्पड़ मारा है.

मेरे, मेरे बच्चों और मेरे अम्मांबाबूजी के लंबे इंतजार के बाद भी कोई मुझे पीहर में बुलाने नहीं आया. मैं अमावस्या की रात के बाद पूर्णिमा की ओर बढ़ते चांद के दोनों छोरों में अकसर अपनी पतंग का माझा फंसा, उसे नीचे उतारने की कोशिश करती, लेकिन चांद कभी मेरी पकड़ में नहीं आया. मेरा माझा कच्चा था.

मेरी बेटी नींद से उठ कर अकसर अपनी बार्वी डौल कभी राह, कभी अलमारी के पीछे तो कभी अपने खिलौनों की टोकरी में तलाशती और पूछती, ‘‘मां, हम अपने पुराने घर कब जाएंगे?’’

उस के इस सवाल पर मैं सिहर उठती, ‘‘हाय, मेरी बेटी…भाग्य ने अब तुझ से तेरी बार्बी डौल छीन कर ऐसे अंधे कुएं में फेंक दी है, जहां से मैं उसे ढूंढ़ कर कभी नहीं ला सकती.’’

बेटी चुप हो जाती और मैं गूंगी. इसी तरह मेरी मां भी गूंगी हो जातीं जब मैं पूछती, ‘‘अम्मां, आप ने मेरे बारे में क्या सोचा? मैं क्या करूं, कहां जाऊं? मेरे 2 छोटेछोटे बच्चे हैं, इन को मैं क्या दूं? प्राइवेट स्कूल की टीचर की नौकरी के सहारे किस तरह काटूंगी पहाड़ सी पूरी जिंदगी?’’

मां की जगह कंपकंपाते हाथों से छड़ी पकड़े, आंखों के चश्मे को थोड़ा और आंखों से सटाते हुए बाबूजी, टूटी बेंत की कुरसी पर बैठते हुए उत्तर देते, ‘‘बेटी, अब जो सोचना है वह तुझे ही सोचना है, जो करना है तुझे ही करना है…हमारी हालत तो तू देख ही रही है.’’

ठंडी आह के साथ उन के मन का गुबार आंखों से फूट पड़ता, ‘समय ने कैसी बेवक्त मार दी है तोषी की अम्मां…मेरी बेटी की जिंदगी हराम कर दी, इस बादमाश ने.’

बस, इसी तरह जिंदगी सरकती जा रही थी. एक दिन सर्द हवा के झोंकों की तरह यह खबर मेरे पूरे वजूद में सिहरन भर गईं कि फलां ने दूसरी शादी कर ली है.

‘शादी, यह कैसे हो सकता है? हमारा तलाक तो हुआ ही नहीं,’ मैं ने फटी आंखों से एकसाथ कई सवाल फेंक दिए थे. लग रहा था कि पांव के नीचे की धरती अचानक ही 5-7 गज नीचे सरक गई हो और मैं उस में धंसती चली जा रही हूं.

अम्मां और बाबूजी ने फिर हिम्मत बंधाई, ‘उस के पास पैसा है, खरीदे हुए रिश्ते हैं, तो क्या हुआ, सच तो सच ही है, हिम्मत मत हारो, कुछ करो. सब ठीक हो जाएगा.’

मैं ने जाने कैसी अंधी उम्मीद के सहारे अदालत के दरवाजे खटखटा दिए, ‘दरवाजा खोलो, दरवाजा खोलो, मुझे न्याय दो, मेरा हक दो…झूठ और फरेब से मेरी झोली में डाला गया तलाक मेरी शादी के जोड़े से भारी कैसे हो सकता है?’ मैं ने पूछा था, ‘मेरे बच्चों के छोटेछोटे कपड़े, टोप, जूते और गाडि़यां, तलाक के कागजी बोझ के नीचे कैसे दब सकते हैं?’

मैं ने चीखचीख कर, छाती पीटपीट कर, उन झूठी गवाहियों से पूछा था जिन्होंने चंद सिक्कों के लालच में मेरी जिंदगी के खाते पर स्याही पोत दी थी. लेकिन किसी ने न तो कोई जवाब देना था, न ही दिया. आज अपने मुकदमे की फाइल उठाए, कचहरी के चक्कर काटती, मैं खुद एक मुकदमा बन गई हूं. हांक लगाने वाला अर्दली, नाजिर, मुंशी, जज, वकील, प्यादा, गवाह सभी मेरी जिंदगी के शब्दकोष में छपे नए काले अक्षर हैं.

आजकल रात के अंधेरे में मैं ने जज की तसवीर को अपनी आंखों की पलकों से चिपका हुआ पाया है. न्यायाधीश बिक गया, बोली लगा दी चौराहे पर उस की, चंद ऊंची पहुंच के अमीर लोगों ने. लानत है, थू… यह सोचने भर से मुंह का स्वाद कड़वा हो जाता है.

भावनाओं के भंवर में डूबतीउतराती कभी सोचती हूं, मेरा दोष ही क्या था जिस की उम्रकैद मुझे मिली और फांसी पर लटके मेरे मासूम बच्चे. न चाहते हुए भी फाड़ कर फेंक देने का जी होता है उन बड़ीबड़ी, लालकाली किताबों को, जिन में जिंदगी और मौत के अंधे नियम छपे हैं, जो निर्दोषों को जीने की सजा और कसूरवारों को खुलेआम मौज करने की आजादी देते हैं. जीने के लिए संघर्ष करती औरत का अस्तित्व क्यों सदियों से गुम होता रहा है, समाज की अनचाही चिनी गई बड़ीबड़ी दीवारों के बीच?

ये प्रश्न हर रोज मुझे नाग बन कर डंसते हैं और मैं हर रोज कटुसत्य का विषपान करती, विषकन्या बनने का सपना देखती हूं.

आसमान में बादल का धुंधलका मुझे बोझिल कर जाता है लेकिन बादलों की ही ओट से कड़कती बिजली फिर से मेरे अंदर उम्मीद जगाती है जीने की, अपनी अस्मिता को बरकरार रखने की और मैं बारिश में भीतर तक भीगने के लिए आंगन में उतर आती हूं.

लेखक – निर्मलविक्रम

विरक्ति: उस बूढ़े दंपति में कैसे संक्रमण फैला?

मैं उन से मिलने गया था. पैथोलाजी विभाग के अध्यक्ष और ब्लड बैंक के इंचार्ज डा. कांत खराब मूड में थे, विचलित और विरक्त.

‘‘सब बेमानी है, बकवास है. महज दिखावा और लफ्फाजी है,’’ माइक्रो- स्कोप में स्लाइड देखते हुए वह कहे जा रहे थे, ‘‘सोचता हूं सब छोड़छाड़ कर बच्चों के पास चला जाऊं. बहुत हो गया.’’

‘‘क्या हुआ, सर? क्या हो गया?’’ मैं ने पूछा तो कुछ क्षण चुपचाप माइक्रोस्कोप में देखते रहे, फिर बोले, ‘‘एच.आई.वी., एड्स… ऐसा शोर मचा रखा है जैसे देश में यही एक महामारी है.’’

‘‘सर, खूब फैल रही है. कहते हैं अगर रोकथाम नहीं की गई तो स्थिति भयानक हो जाएगी. महामारी…’’

मेरी बात बीच में ही काटते हुए डा. कांत तल्ख लहजे में बोले, ‘‘महामारी, रोकथाम. क्या रोकथाम कर रहे

हो. पांचसितारा होटल

में कानफ्रेंस, कंडोम वितरण. महामारी तो तुम लोगों के आडंबर और हिपोक्रेसी की है. बड़ी चिंता है लोगों की. इतनी ही चिंता है तो हिपे- टाइटिस बी. के बारे में क्यों नहीं कुछ करते. देश में महामारी हिपे टाइ-टिस बी. की है.

‘‘हजारों लोग हर साल मर रहे हैं, लाखों में संक्रमण है. यह भी तो वैसा ही रक्त प्रसारित, विषाणुजनित रोग है. इस की चिंता क्यों नहीं. असल में चिंता तो विदेशी पैसे और बिलगेट्स की है. एड्स उन की चिंता है तो हमारी चिंता भी है.’’

‘‘क्या हुआ, सर? आज तो आप बहुत नाराज हैं,’’ मैं बोला.

‘‘होना क्या है, तुम लोगों की बकवास सुनतेदेखते तंग आ गया हूं. एच.आई.वी., एड्स, दोनों का एकसाथ ऐसे प्रयोग करते हो जैसे संक्रमण न हुआ दालचावल की खिचड़ी हो गई. क्या दोनों एक ही बात हैं. क्या रोकथाम कर रहे हो? तुम्हें याद है यूनिवर्सिटी वाली उस महिला का केस?’’

‘‘कौन सी, सर? उस अविवाहित महिला का केस जिस ने रक्तदान किया था और जिस का ब्लड एच.आई.वी. पाजिटिव निकला था?’’ मैं ने पूछा.

‘‘हां, वही,’’ डा. कांत बोले.

‘‘उस को कैसे भूल सकते हैं, सर. गुस्से से आगबबूला हो रही थी. हम ने तो उसे गुडफेथ में बुला कर रिजल्ट बताया था वरना कानूनन एच.आई.वी. पोजि-टिव ब्लड को नष्ट करना भर लाजमी होता है. हमारा पेशेंट तो रक्त लेने वाला होता है, देने वाला तो स्वेच्छा से आता है. देने वाले में रोग निदान के लिए तो हम टेस्ट करते नहीं.’’

डा. कांत कुछ नहीं बोले, चुपचाप सुनते रहे.

‘‘वह महिला अविवाहित थी. उस के किसी से यौन संबंध नहीं थे. उस ने कभी रक्त नहीं लिया और न ही किसी प्रकार के इंजेक्शन आदि. इसीलिए तो हम ने उस की प्री टेस्ट काउंसिलिंग कर वेस्टर्न ब्लोट विधि से टेस्ट करवाने की सलाह दी थी. हम ने उसे बता दिया था कि जिस एलिसा विधि से हम टेस्ट करते हैं वह सेंसिटिव होती है, स्पेसिफिक नहीं. उस में फाल्स पाजिटिव होने के चांसेज होते हैं. सब तो समझा दिया था, सर. उस में हम ने क्या गलती की थी?’’

‘‘गलती की बात नहीं. इन टेस्टों के चलते उस महिला को जो मानसिक क्लेश हुआ उस के लिए कौन जिम्मेदार है?’’

‘‘सर, उस के लिए हम क्या कर सकते थे. जीव विज्ञान में कोई भी टेस्ट 100 प्रतिशत तो सही होता नहीं. हर टेस्ट की अपनी क्षमता होती है. हर टेस्ट में फाल्स पाजिटिव या फाल्स निगेटिव होने की संभावना

होती है. सेंसिटिव में फाल्स पाजिटिव और स्पेसिफिक में फाल्स निगेटिव.’’

‘‘बड़ी ज्ञान की बातें कर रहे हो,’’ डा. कांत बोले, ‘‘यह बात आम लोगों को समझाने की जिम्मेदारी किस की है? खुद को उस महिला की जगह, उस की समझ और सोच के हिसाब से रख कर देखो. उसे कितना संताप हुआ होगा. खैर, उसे छोड़ो. उस लड़के की बात करो जो अपनी लिम्फनोड की बायोप्सी ले कर आया था. उस का तो वेस्टर्न ब्लोट टेस्ट भी पाजिटिव आया था. वह तो कनफर्म्ड एच.आई.वी. पाजिटिव था. उस में क्या किया? क्या किया तुम ने रोकथाम के लिए?’’

‘‘वही जवान लड़का न सर, जिस की किसी बाहर के सर्जन ने गले की एक लिम्फनोड निकाल कर भिजवाई थी? जिस लड़के को कभीकभार बुखार, शरीर गिरागिरा रहना और वजन कम होने की शिकायत थी, पर सारे टेस्ट करवाने पर भी कोई रोग नहीं निकला था?’’ मैं ने पूछा.

‘‘हां, वही,’’ डा. कांत बोले, ‘‘याद है तुम्हें, वह बायोप्सी रक्त कैंसर की आरंभिक अवस्था न हो, इस का परीक्षण करवाने आया था. टेस्ट में रक्त कैंसर के लक्षण तो नहीं पाए गए थे, पर उस की लिम्फनोड में ऐसे माइक्रोस्कोपिक चेंजेज थे जो एच.आई.वी. पाजिटिव मामलों में देखने को मिलते हैं.’’

‘‘जी, सर याद है. उस की स्वीकृति ले कर ही हम ने उस का एच.आई.वी. टेस्ट किया था और वह पाजिटिव निकला था. उसे हम ने पाजिटिव टेस्ट के बारे में बताया था. उस की भी हम ने काउंसिलिंग की थी. किसी प्रकार के यौन संबंधों से उस ने इनकार किया था. रक्त लेने, इंजेक्शन, आपरेशन आदि किसी की भी तो हिस्ट्री नहीं थी. हम ने सब समझा कर नियमानुसार ही उसे वैस्टर्न ब्लोट टेस्ट करवाने की सलाह दी थी.’’

‘‘नियमानुसार,’’ बड़े तल्ख लहजे में डा. कांत ने दोहराया, ‘‘जब उस ने आ कर बताया था कि उस का वैस्टर्न ब्लोट टेस्ट भी पाजिटिव है तब तुम ने नियमानुसार क्या किया था? याद है उस ने आ कर माफी मांगी थी. हम से झूठ बोलने के लिए माफी. उस ने बाद में बताया था कि उस की शादी हो चुकी है, गौना होना है. मंगेतर कालिज में पढ़ रही थी. उस ने यौन संबंध न होने का झूठ भी स्वीकारा था. उस ने कहा था वह और उस के कुछ दोस्त एक लड़की के यहां जाते थे, याद है?’’

‘‘जी, सर, अच्छी तरह याद है, भले घर का सीधासादा लड़का था. उस ने सब कुछ साफसाफ बता दिया था. बड़ा घबराया हुआ था. जानना चाहता था कि उस का क्या होगा. हम ने उस की पूरी पोस्ट टेस्ट काउंसिलिंग की थी. बता दिया था उसे, कैसे सुरक्षित जीवन जीना…’’

‘‘नियमानुसार जबानी जमाखर्च हुआ और एड्स की रोकथाम

की जिम्मेदारी

पूरी हो गई,’’

डा. कांत ने बीच में बात काटी.

‘‘और क्या कर सकते थे, सर?’’ मैं ने पूछा.

‘‘जिस लड़की के साथ उस का विवाह हो चुका था और गौना होना था उसे ढूंढ़ कर बताना आवश्यक नहीं था? उस के प्र्रति क्या तुम्हारा दायित्व नहीं था? तुम कौन सा वह केस बता रहे थे जिस में उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया है कि अगर आप का कोई रोगी एच.आई.वी. या ऐसे ही किसी संक्रमण से ग्रसित है और वह किसी व्यक्ति को संक्रमण फैला सकता है तो ऐसे व्यक्ति को इस खतरे के बारे में न बताने पर डाक्टर को दोषी माना जाएगा. अगर उस चिह्नित रोगी व्यक्ति को संक्रमण हो जाए तो उस डाक्टर के खिलाफ फौजदारी की काररवाई भी हो सकती है.’’

‘‘जी सर, डा. एक्स बनाम अस्पताल एक्स नाम का मामला था,’’ मैं ने कहा.

‘‘हां, वही, अजीब नाम था केस का,’’ डा. कांत ने कहना जारी रखा, ‘‘लिम्फनोड वाले लड़के ने अपने दोस्तों के बारे में बताया था. क्या उन दोस्तों को पहचान कर उन का भी एच.आई.वी. टेस्ट करना आवश्यक नहीं था? क्या उस लड़की या वेश्या, जिस के यहां वे जाते थे उसे पहचानना, उस का टेस्ट करना आवश्यक नहीं था? एड्स की रोकथाम के लिए क्या उसे पेशे से हटाना जरूरी नहीं था?’’

‘‘जरूरी तो था, सर, पर नियमों में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, और न ही ऐसी कोई व्यवस्था है जिस से हम यह सब कर सकें,’’ मैं ने अपनी मजबूरी बताई.

‘‘तो फिर एड्स की रोकथाम क्या खाक करोगे. बेकार के ढकोसले क्यों करते हो? जो एच.आई.वी. पाजिटिव है उसे बताने की क्या आवश्यकता है. उसे जीने दो अपनी जिंदगी. जब एच.आई.वी. पाजिटिव व्यक्ति एड्स का रोगी हो कर आए तब जो करना हो वह करना.’’

‘‘लेकिन सर,’’ मैं ने कहना शुरू किया तो डा. कांत ने फिर बीच में ही टोक दिया.

‘‘लेकिन दुर्भाग्य तो यह है कि एच.आई.वी. संक्रमण, वेश्या के पास जाने या यौन संबंधों से ही नहीं, किसी शरीफ आदमी और महिला को चिकित्सा प्रक्रिया से भी हो सकता है,’’ वह बोले.

‘‘हां, सर, एच.आई.वी. संक्रमण होने के तुरंत बाद जिसे हम विंडो पीरियड कहते हैं, ब्लड टेस्ट पाजिटिव नहीं आता. लेकिन ऐसा व्यक्ति अगर रक्तदान करे तो उस से रक्त पाने वाले को संक्रमण हो सकता है.’’

सुन कर डा. कांत बोले, ‘‘मैं इस चिकित्सा प्रक्रिया की बात नहीं कर रहा. ऐसा न हो उस के पूरे प्रयास किए जाते हैं, जिस केस को ले कर मुझे ग्लानि विरक्ति और अपनेआप को दोषी मान कर क्षोभ हो रहा है और जिसे ले कर मैं सबकुछ छोड़ने की बात कर रहा हूं, वह कुछ और ही है.’’

मैं कुछ बोला नहीं. चुपचाप उन के बताने का इंतजार करता रहा. अवश्य ही कोई खास बात होगी जिस ने डा. कांत जैसे वरिष्ठ चिकित्सक को इतना विचलित कर दिया कि वह सबकुछ छोड़ने की सोच रहे हैं.

काफी देर चुप रहने के बाद बड़ी संजीदगी से लरजती आवाज में वह बोले, ‘‘कल देर रात घर आए थे, मियांबीवी दोनों. काफी बुजुर्ग हैं. रिटायर हुए भी 15 साल हो चुके हैं. बेटेपोतों के भरे परिवार के साथ रहते हैं.

‘‘कहने लगे, दोनों सोच रहे हैं कहीं जा कर चुपके से आत्महत्या कर लें क्योंकि एच.आई.वी पाजिटिव होना बता कर मैं ने उन्हें किसी लायक नहीं रखा है. मैं ने उन्हें किसलिए बताया कि वे एच.आई.वी. पाजिटिव हैं. उन दोनों का किसी से यौन संबंध नहीं हो सकता और न ही रक्तदान करने की उन की उम्र है. फिर उन से संक्रमण होने का किसे खतरा था जो मैं ने उन्हें एच.आई.वी. पाजिटिव होने के बारे में बताया? जब एच.आई.वी. का निदान कर कुछ किया ही नहीं जा सकता तो फिर बताया किसलिए? वे कैसे सहन करेंगे, अपने बच्चों, पोतों का बदला हुआ रुख जब उन्हें मालूम होगा. उन को संक्रमण का कोई खतरा नहीं है पर अज्ञात का भय, जब बच्चे उन के पास आने से कतराएंगे. कहने लगे, उचित यही होगा कि नींद की गोलियां खा कर जीवन समाप्त कर लें.’’

कहतेकहते डा. कांत चुप हो गए तो मैं ने कहा, ‘‘सर, मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा. एड्स संक्रमण ऐसे तो होता नहीं. जब संक्रमण हुआ है तो उसे भुगतना और फेस भी करना ही होगा.’’

जवाब में डा. कांत ने कहा, ‘‘मेरी भी समझ में नहीं आया था कि उन्हें संक्रमण हुआ कैसे. मैं उन्हें अरसे से बहुत नजदीक से जानता हूं. घनिष्ठ घरेलू संबंध हैं. बड़ा साफसुथरा जीवन रहा है उन का. किसी प्रकार के बाहरी यौन संबंधों का सवाल ही नहीं उठता और उन का विश्वास करने का भी कोई कारण नहीं.

‘‘जीवन में कुछ भी ऐसा नहीं था कि जिस से चाहेअनचाहे एच.आई.वी. संक्रमण हो सकता. सब पूछा था, काफी चर्चा हुई. वे बारबार मुझ से ही पूछते थे कि फिर कैसे हो गया संक्रमण. अंत में उन्होंने मुझे बताया कि वे डायबिटीज के रोगी अवश्य हैं. उन्हें इंसुलिन या अन्य इंजेक्शन तो कभी लेने नहीं पड़े पर वे नियमित रूप से टेस्ट करवाने एक प्राइवेट लैब में जाते थे. उन्होंने बताया, उस लैब में उंगली से ब्लड एक प्लंजर से लेते थे. दूसरे रोगियों में भी वही प्लंजर काम में लिया जाता था.

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‘‘क्या उस से उन को संक्रमण हुआ है, क्योंकि इस के अलावा तो उन्होंने कभी कोई इंजेक्शन नहीं लिए. जब मैं ने बताया कि यह संभव है तो उन्होंने कहा कि इस लैब के खिलाफ काररवाई क्यों नहीं करते? लैब को ऐसा करने से रोका क्यों नहीं गया? जो उन्हें हुआ है वह दूसरे मासूम लोगों को भी हो सकता है या हुआ होगा.’’

कुछ पल शांत रह कर वह फिर बोले, ‘‘और मैं सोच रहा था कि आत्महत्या उन्हें करनी चाहिए या मुझे? क्या लाभ है ऐसे रोगों का निदान करने में जिन का इलाज नहीं कर सकते और जिन की रोकथाम हम करते नहीं. महज ऐसे रोेगियों का जीना दुश्वार करने से लाभ? क्या सोचते होंगे वे लोग जिन का निदान कर मैं ने जीना दूभर कर दिया?’’        द्य

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