Hindi Family Story: विश्वास की जड़ें – जब टूटा रमन और राधा का रिश्ता

Hindi Family Story: सुबह से ही घर में मिलने वालों का तांता लगा था. फोन की घंटी लगातार बज रही थी. लैंड लाइन नंबर और मोबाइल अटैंड करने के लिए भी एक चपरासी को काम पर लगाया गया था. वही फोन पर सब को जवाब दे रहा था कि साहब अभी बिजी हैं. जैसे ही फ्री होते हैं उन से बात करा दी जाएगी. फिर वह सब के नाम व नंबर नोट करते जा रहा था. कोई बहुत जिद करता कि बात करनी ही है तो वह साहब की ओर देखता, जो इशारे से मना कर देते.

आखिर वे इतने लोगों से घिरे थे कि उन के लिए उन के बीच से आ कर बात करना बेहद मुश्किल था. लोग उन्हें इस तरह घेरे बैठे और खड़े थे मानो वे किसी जंग की तैयारी में जुटे हों. सांत्वना को संवदेनशीलता के वाक्यों में पिरो कर हर कोई इस तरह उन के सामने अपनी बात इस तरह रखने को उत्सुक था मानो वे ही उन के सब से बड़े हितैषी हों.

‘‘बहुत दुख हुआ सुन कर.’’

‘‘बहुत बुरा हुआ इन के साथ.’’

‘‘सर, आप को तो हम बरसों से जानते हैं, आप ऐसे हैं ही नहीं. आप जैसा ईमानदार और सज्जन पुरुष ऐसी नीच हरकत कर ही नहीं  सकता है. फंसाया है उस ने आप को.’’

‘‘और नहीं तो क्या, रमन उमेश सर को कौन नहीं जानता. ऐसे डिपार्टमैंट में होने के बावजूद जहां बिना रिश्वत लिए एक कागज तक आगे नहीं सरकता, इन्होंने कभी रिश्वत नहीं ली. भ्रष्टाचार से कोसों दूर हैं और ऐसी गिरी हुई हरकत तो ये कर ही नहीं सकते.’’

‘‘सर, आप चिंता न करें हम आप पर कोई आंच नहीं आने देंगे.’’

‘‘एमसीडी इतना बड़ा महकमा है, कोई न कोई विवाद या आक्षेप तो यहां लगता ही रहता है.’’

आप इस बात को दिल पर न लीजिएगा सर. सीमा को कौन नहीं जानता कि वह किस टाइप की महिला है,’’ कुछ लोगों ने चुटकी ली.

भीड़ बढ़ने के साथसाथ लोगों की सहानुभूति धीरेधीरे फुसफुसाहटों में तबदील होने लगी थी. सहानुभूति व साथ देने का दावा करने वालों के चेहरों पर बिखरी अलग ही तरह की खुशी भी दिखाई दे रही थी.

कुटिलता उन की आंखों से साफ झलक रही थी मानो कह रही हो बहुत बोलता था हमें कि हम रिश्वत लेते हैं. तू तो उस से भी बड़े इलजाम में फंस गया. सस्पैंड होने के बाद क्या इज्जत रह जाती है, उस पर केस चलेगा वह अलग. फिर अगर दोष साबित हो गया तो बेचारा गया काम से. न घर का रहेगा न बाहर का.

रमनजी की पत्नी राधा सुबह से अपने कमरे से बाहर नहीं निकली थीं. जब से उन्हें अपने पति के सस्पैंड होने और उन पर लगे इलजाम के बारे में पता चला था, उन का रोरोकर बुरा हाल था. रमन ऐसा कर सकते हैं, उन्हें विश्वास तो नहीं हो रहा था, पर जो सच सब के सामने था, उसे नजरअंदाज करना भी उन के लिए मुश्किल था. एमसीडी में इतने बड़े अफसर उन के पति रमन ऐसी नीच हरकत कर सकते हैं, यह सोच कर ही वे कांप जातीं.

दोपहर तक घर पर आए लोग धीरेधीरे रमनजी से हाथ मिला कर खिसक लिए. संडे का दिन था, इसलिए सब घर पर मिलने चले आए थे. वरना बेकार ही लीव लेनी पड़ती या न आ पाने का बहाना बनाना पड़ता. बहुत से लोग मन ही मन इस बात से खुश थे. उन के विरोधी जो सदा उन की ईमानदारी से जलते थे, वे भी उन का साथ देने का वादा कर वहां से खिसक लिए. थके, परेशान और बेइज्जती के एहसास से घिरे रमन पर तो जैसे विपदा आ गई थी.

उन की बरसों की मेहनत इस तरह पानी में बह जाएगी, शर्म से उन का सिर झुका जा रहा था. बिना कोई गलती किए इतना अपमान सहना…फिर घरपरिवार, दोस्त नातेरिश्तेदारों के सवालों के जवाब देने…वे लड़खड़ाते कदमों से बैडरूम में गए.

उन्हें देखते ही राधा, जिन के मायके वाले उन्हें वहां मोरचा संभाले बैठाए थे,

कमरे से बाहर जाने लगीं तो रमन ने उन का हाथ पकड़ लिया.

‘‘मैं राधा से अकेले में बात करना चाहता हूं. आप से विनती है आप थोड़े समय के लिए बाहर चले जाएं,’’ रमन ने बहुत ही नम्रता से अपने ससुराल वालों से कहा.

‘‘मुझे आप से कोई बात नहीं करनी है,’’ राधा ने उन का हाथ झटकते हुए कहा, ‘‘अब भी कुछ बाकी बचा है कहनेसुनने को? मुझे कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा. अरे बच्चों का ही खयाल कर लेते. 45 साल की उम्र में 2 बच्चों के बाप हो कर ऐसी हरकत करते हुए आप को शर्म नहीं आई?’’ राधा की आंखों से फिर आंसू बहने लगे.

‘‘देखो, तुम खुद इतनी पढ़ीलिखी हो, जौब करती हो और फिर भी दांवपेच को समझ नहीं पा रही हो…मुझे फंसाया गया है… औरतों के लिए बने कानूनों का फायदा उठा रही है वह औरत. औरत किस तरह से आज मर्दों को झूठे आरोपों में फंसा रही हैं, यह बात तुम अच्छी तरह से जानती हो. उन की बात न मानो तो इलजाम लगाने में पीछे नहीं रहतीं. फिर तुम तो मुझे अच्छी तरह से जानती हो. क्या मैं ऐसा कर सकता हूं? तुम से कितना प्यार करता हूं, यह बताने की क्या अब भी जरूरत है? तुम मुझे समझोगी कम से कम मैं तुम से तो यह उम्मीद करता था.’’

‘‘यह सब होने के बाद क्या और क्यों समझूं मैं. तुम ही बताओ…क्यों करेगी कोई औरत ऐसा? आखिर उस की बदनामी भी तो होगी. वह भी शादीशुदा है. तुम पर बेवजह इतना बड़ा इलजाम क्यों लगाएगी? अगर गलत साबित हुई तो उसे नौकरी से हाथ धोना पड़ सकता है या वह सस्पैंड भी हो सकती है. यही नहीं उस का खुद का घर भी टूट सकता है. मुझे बेवकूफ बनाने की कोशिश मत करो. पता नहीं अब क्या होगा. पर तुम्हारे साथ रहने का तो अब सवाल ही नहीं है. मैं बच्चों को ले कर आज ही मायके चली जाऊंगी. मेरे बरसों के विश्वास को तुम ने कितनी आसानी से चकनाचूर कर दिया, रमन,’’ राधा गुस्से में फुफकारीं.

‘‘बच्चों जैसी बात मत करो. जो गलती मैं ने की ही नहीं है, उस की सजा मैं नहीं भुगतुंगा, इन्वैस्टीगेशन होगी तो सब सच सामने आ जाएगा. कब से तुम्हें समझाने की कोशिश कर रहा हूं कि मेरी मातहत सीमा बहुत ही कामचोर किस्म की महिला हैं. इसीलिए उन की प्रोमोशन नहीं होती. मेरे नाम से लोगों से रिश्वत लेती हैं. तुम्हें पता ही है एमसीडी ऐसा विभाग है, जो सब से भ्रष्ट माना जाता है. एक से एक निकम्मे लोग भी पैसे वाले बन कर घूम रहे हैं.

‘‘मैं ने कभी रिश्वत नहीं ली या किसी के दबाव में आ कर किसी की फाइल पास नहीं की, इसलिए मेरे न जाने कितने विरोधी बन गए हैं. बहुत दिनों से सीमा मुझे तरहतरह से परेशान कर रही थीं. जब मैं ने उन से कहा कि जो काम आप के अंतर्गत आता है उसे पहले बखूबी संभालना सीख लें, फिर प्रमोशन की बात सोचेंगे तो उन्होंने मुझे धमकी दी कि मुझे देख लेंगी. गुरुवार की शाम को वे मेरे कैबिन में आईं और फिर प्रमोशन करने की बात की.’’

‘‘जब मैं ने मना किया तो उन्होंने अपना ब्लाउज फाड़ डाला और चिल्लाने लगीं कि मैं ने उन के साथ जबरदस्ती करने की कोशिश की. मैं उन्हें मोलैस्ट कर रहा हूं. झूठे आंसू बहा कर उन्होंने लोगों को इकट्ठा कर लिया. तमाशा बना दिया मेरा. हमारा समाज ऐसा ही है कि पुरुष को ही हर गलती का जिम्मेदार माना जाता है. बस सच यही है. इन्वैस्टीगेशन होने दो, सब को पता चल जाएगा कि मैं निर्दोष हूं,’’ रमनजी बोलतेबोलते कांप रहे थे.

ऐसे वक्त में जब उन्हें अपनी पत्नी व परिवार की सब से ज्यादा जरूरत थी, वे ही उन्हें गलत समझ रहे थे. इस से ज्यादा परेशान व हताश करने वाली बात और क्या हो सकती थी. विश्वास की जड़ें अगर तेज हवाओं का सामना न कर पाएं और उखड़ जाएं तो रिश्ते कितने खोखले लगने लगते हैं. कहां कमी रह गई उन से… राधा और बच्चों के लिए हमेशा समर्पित रहे वे तो…

‘‘क्यों कहानी बना रहे हो. इतने बड़े अफसर हो कर एक औरत को ही बदनाम करने लगे. तुम्हें बदनाम कर के उसे क्या मिलेगा. उस की भी जगहंसाई होगी… मुझे विश्वास नहीं होता. इस से पहले क्या उस ने ऐसी हरकत किसी के साथ की है?’’ राधा तो रमन की बात सुनने को ही तैयार नहीं थीं.

‘‘बेशक न की हो, पर उन के चालचलन पर हर कोई उंगली उठाता है. कपड़े देखे हैं कैसे पहनती हैं. पल्लू हमेशा सरकता रहता है, लगता है जैसे मर्दों को लुभाने में लगी हुई है.’’

‘‘हद करते हो रमन… ऐसी सोच रखते हो एक औरत के बारे में छि:’’ राधा आगे कुछ कहतीं तभी कमरे में रमन के ससुराल वाले आ गए.

‘‘क्या सोच रही है राधा? अब भी इस आदमी के साथ रहना चाहती है. हर तरफ थूथू हो रही है. बच्चों पर इस बात का कितना बुरा असर पड़ेगा. स्कूल जाएंगे तो दूसरे बच्चे कितना मजाक उड़ाएंगे. चल हमारे साथ चल,’’ राधा के भाई ने गुस्से से कहा.

‘‘और क्या. तू चिंता मत कर. हम तेरे साथ हैं. फिर तू खुद कमाती है,’’ राधा की मां ने अपने दामाद की ओर घृणित नजरों से देखते हुए कहा, मानो उन का जुर्म जैसे साबित ही हो गया हो.

आज तक जो ससुराल वाले उन का गुणगान करते नहीं थकते थे, वे ही आज उन का तिरस्कार कर रहे थे. कौन कहता है औरत अबला है, समाज उसी का साथ देता है. उन्हें पुरुष की विडंबना पर अफसोस हुआ. बिना दोषी हुए भी पुरुष को कठघरे में खड़े होने को मजबूर होना पड़ता है.

‘‘पापाजी, आप ही समझाइए न इन्हें,’’ रमनजी ने बड़ी आशा भरी नजरों से अपने ससुर को देखते हुए कहा. वे जानते थे कि वे बहुत ही सुलझे हुए इनसान हैं और जल्दबाजी में कोई निर्णय नहीं लेते हैं.

‘‘हां बेटा, रमन की बात को समझो तो… इतने बरसों का साथ है… ऐसे अविश्वास करने से जिंदगी नहीं चलती. तुम्हें अपने पति पर भरोसा होना चाहिए.’’

‘‘अपनी बेटी का साथ देने के बजाय आप इस आदमी का साथ दे रहे हैं, जो दूसरी औरतों के साथ बदसलूकी करता है… उन की इज्जत पर हाथ डालता है… पता नहीं और क्याक्या करता हो और हमारी बेटी को न जाने कब से धोखा दे रहा हो. सादगी की आड़ में न जाने कितनी औरतों से संबंध बना चुका हो,’’ अपनी सास की बात सुन रमन हैरान रह गए.

‘‘मुझे आप से ऐसी उम्मीद नहीं थी मां. मुसीबत के वक्त अपने ही साथ देते हैं और जब राधा मुझ पर विश्वास ही नहीं करना चाहती तो मैं क्या कह सकता हूं. इतने लंबे वैवाहिक जीवन में भी अगर पतिपत्नी के बीच विश्वास की दीवारें पुख्ता न हों तो फिर साथ रहना ही बेमानी है.

‘‘अब मैं तुम्हें नहीं रोकूंगा. तुम मेरी तरफ से आजाद हो, पर यह घर हमेशा से तुम्हारा था और तुम्हारा ही रहेगा.’’

रमन की बात सुन पल भर को राधा को लगा कि शायद वही गलत है. सच में रमन जैसे प्यारे पति और स्नेहमयी पिता में किसी दूसरे की बात सुन कर दोष देखना क्या उचित होगा?

18 साल की शादीशुदा जिंदगी में कभी रमन ने उस का दिल नहीं दुखाया था, कभी भी किसी बात की कमी नहीं होने दी थी, तो फिर क्यों आज उस का विश्वास डगमगा रहा है… वे कुछ कहना ही चाहती थीं कि मां ने उन का हाथ पकड़ा और घसीटते हुए बाहर ले गईं. बच्चे हैरान और सहमे से खड़े सब की बातें सुन रहे थे.

‘‘मां, पापा की बात तो सुनो…’’  उन की 18 वर्ष की बेटी साक्षी की बात पूरी होने से पहले ही काट दी गई.

‘‘तू इन सब बातों से दूर रह. अभी बच्ची है…’’

नानी की फटकार सुन वह चुप हो गई. मां का पापा पर विश्वास न करना उसे

अखर रहा था. उस ने अपने भाई को देखा जो बुरी तरह से घबराया हुआ था. साक्षी ने उसे सीने से लगा लिया और फिर दूसरे कमरे में ले गई. बड़े भी कितने अजीब होते हैं. अपनों से ज्यादा परायों की बात पर भरोसा करते हैं. हो सकता है… नहीं उसे पक्का यकीन है कि उस के पापा को फंसाया गया है.

राधा और बच्चों के जाने के बाद रमन को घर काटने लगा था. इन्वैस्टिगेशन के दौरान सीमा बिना झिझके कहती कि रमन ने पहले भी उन के साथ जबरदस्ती करने की कोशिश की थी. यहां तक कि उन के सामने सैक्स संबंध बनाने का प्रस्ताव भी रखा था.

बहसों, दलीलों और रमन की ईमानदारी भी इसलिए उन्हें सच्चा साबित नहीं कर पा रही थी, क्योंकि कानून औरत का साथ देता है. खासकर तब जब बात उस के साथ छेड़छाड़ करने की हो.

रमन टूट रहे थे. परिवार का भी साथ नहीं था, दोस्तों और रिश्तेदारों ने भी किनारा कर लिया था.

उस दिन शाम को रमन अकेले निराश से घर में अंधेरे में गुम से बैठे थे. रोशनी उन की आंखों को अब चुभने लगी थी, इसलिए अंधेरे में ही बैठे रहते. खाली घर उन्हें डराने लगा था. प्यास सी महसूस हुई उन्हें पर उठने का मन नहीं किया. आदतन वे राधा को आवाज लगाने ही लगे थे कि रुक गए.

फिर अचानक अपने सामने राधा को खड़े देख चौंक गए. लाइट जलाते हुए वे बोलीं, ‘‘मुझे माफ कर दीजिए रमन. आप पर विश्वास न कर के मैं ने खुद को धोखा दिया है. पर अब मुझे सच पता चल चुका है,’’ और फिर रमन से लिपट गईं. ग्लानि उन के चेहरे से साफ झलक रही थी. जिस पति पर वे आज तक अभिमान करती आई थीं, उस पर शक करने का दुख उन की आंखों से बह रहा था.

‘‘पर अभी तो इन्वैस्टिगेशन पूरी भी नहीं हुई है, फिर…’’ रमन हैरान थे, पर राधा को देख उन्हें लगा था मानो आसमान पर बादलों का जो झुंड इतने दिनों से मंडरा रहा था और हर ओर कालिमा बिखेर रहा था, वह यकायक हट गया है. रोशनी अब उन की आंखों को चुभ नहीं रही थी.

सीमा के पति मुझ से मिलने आए थे. उन्होंने ही मुझे बताया कि सीमा के खिलाफ वह सार्वजनिक रूप से या इन्वैस्टिगेशन अफसर को तो बयान नहीं दे सकते, क्योंकि इस से उन का घर टूट जाएगा और चूंकि वे बीमार रहते हैं, इसलिए पूरी तरह से पत्नी पर ही निर्भर हैं. लेकिन वे माफी मांग रहे थे कि उन की पत्नी की वजह से हमें एकदूसरे से अलग होना पड़ा और आप को इतनी बदनामी सहनी पड़ी.

वह बोले कि सीमा बहुत महत्त्वाकांक्षी है और जानती है कि मैं लाचार हूं, इसलिए वह किसी भी हद तक जा सकती है. उसे पैसे की भूख है. वह बिना मेहनत के तरक्की की सीढि़यां चढ़ना चाहती है.

वह रमनजी से इसी बात से नाराज थी कि वे उस की प्रमोशन नहीं करते और साथ ही उस के रिश्वत लेने के खिलाफ रहते थे. रमन सर ने शायद उसे वार्निंग भी दी थी कि वे उस के खिलाफ ऐक्शन लेंगे, इसीलिए उस ने यह सब खेल खेला. मैं उस की तरफ से आप से माफी मांगता हूं और रिक्वैस्ट करता हूं कि आप रमन सर के पास लौट जाएं

‘‘मुझे भी माफ कर दीजिए रमन. हम साथ मिल कर इस मुसीबत से बाहर निकलने का रास्ता ढूंढ़ लेंगे. मैं यकीन दिलाती हूं कि अब कभी अपने बीच की विश्वास की जड़ों को उखड़ने नहीं दूंगी.’’ Hindi Family Story

Hindi Family Story: क्षोभ – शादी के नाम पर क्यों हुआ नितिन का दिल तार-तार

Hindi Family Story: यह कहना सही नहीं होगा कि नितिन की जिंदगी में खुशी कभी आई ही नहीं. खुशी आई तो जरूर, लेकिन बिलकुल बरसात की उस धूप की तरह, जो तुरंत बादलों से घिर जाती है. जहां धूप खिली वहीं बादलों ने आ कर चमक धुंधली कर दी, यानी जैसे ही मुसकराहट कहकहों में बदली वैसे ही आंखों ने बरसना शुरू कर दिया.

यों तो नितिन के पापा नामीगिरामी डाक्टर थे, पैसे की कोई कमी नहीं थी, फिर भी परिवार इतना बड़ा था कि सब के शौक पूरे करना या सब को हमेशा उन की मनचाही चीज दिलाना मुश्किल होता था. इस मामले में नितिन कुछ ज्यादा ही शौकीन था और अपने शौक पूरे करने का आसान तरीका उसे यह लगा कि फिलहाल पढ़ाई में दिल लगाए ताकि जल्दी से अच्छी नौकरी पा कर अपने सारे अरमान पूरे कर सके.

कुछ सालों में ही नितिन की यह तमन्ना पूरी हो गई. बढि़या नौकरी तो मिल गई, लेकिन नौकरी मिलने की खुशी में दी गई पार्टी में पापा का अचानक हृदयगति रुक जाने के कारण देहांत हो गया. खुशियां गम में बदल गईं.

7 भाईबहनों में नितिन तीसरे नंबर पर था. बस एक बड़ी बहन और भाई की शादी हुई थी बाकी सब अभी पढ़ रहे थे.

नितिन ने शोकाकुल मां को आश्वस्त किया कि अब छोटे भाईबहनों की पढ़ाई और शादी की जिम्मेदारी उस की है. सब को सेट करने के बाद ही वह अपने बारे में सोचेगा यानी अपनी गृहस्थी बसाएगा और उस ने यह जिम्मेदारी बखूबी निबाही भी. अपने शौक ही नहीं कैरिअर को भी दांव पर लगा दिया.

हालांकि दूसरे शहरों में ज्यादा वेतन की अच्छी नौकरियां मिल रही थीं, लेकिन नितिन ने हमेशा अपने शहर में रहना ही बेहतर समझा. कारण, एक तो रहने को अपनी कोठी थी, दूसरे मां और छोटे भाईबहन उस के साथ रहने से मानसिक रूप से सुरक्षित और सहज महसूस करते थे.

अत: वह मेहनत कर के वहीं तरक्की करता रहा. वैसे बड़े भाई ने भी हमेशा यथासंभव सहायता की, फिर दूसरे भाईबहनों ने भी नौकरी लगते ही घर का छोटामोटा खर्च उठाना शुरू कर दिया था.

कुछ सालों के बाद सब चाहते थे कि नितिन शादी कर ले, लेकिन उस का कहना था कि सब से पहले छोटे भाई निखिल को डाक्टर बनाने का पापा का सपना पूरा करने के बाद ही वह अपने बारे में सोचगा.

निखिल से बड़ी बहन विभा की शादी से पहले ही मां की मृत्यु हो गई. तब तक दूसरे भाइयों के बच्चे भी बड़े हो चले थे और उन सब के अपने खर्चे ही काफी बढ़ गए थे. नितिन से उन की परेशानी देखी नहीं गई. उस ने विभा की शादी और निखिल की पढ़ाई का पूरा खर्च अकेले उठाने का फैसला किया. भविष्य निधि से कर्ज ले कर उस ने विभा की शादी उस की पसंद के लड़के से धूमधाम से करा दी और निखिल को भी मैडिकल कालेज में दाखिल करा दिया.

निखिल की नौकरी लग जाने के बाद नितिन पुश्तैनी कोठी में बिलकुल अकेला रह गया था. 2 बहनें उसी शहर में रहती थीं, जो उसे अकेलापन महसूस नहीं होने देती थीं.

दूसरे भाईबहन भी बराबर उस से संपर्क बनाए रखते थे, सिवा निखिल के. वह कन्याकुमारी में अकेला रहता था और सब को तो फोन करता था, लेकिन नितिन से उस का कोई संपर्क नहीं था. चूंकि उस का हाल दूसरों से पता चल जाता था, इसलिए नितिन ने स्वयं कभी निखिल से बात करने की पहल नहीं की.

मझली बहन शोभा की बेटी की शादी की तारीख तय हो गई थी, लेकिन उस के पति को किसी जरूरी काम से विदेश जाना पड़ रहा था और वह शादी से 2 दिन पहले ही लौट सकता था. उधर लड़के वाले तारीख आगे बढ़ाने को तैयार नहीं थे. शोभा बहुत परेशान थी कि अकेले सारी तैयारी कैसे करेगी?

‘‘तू बेकार में परेशान हो रही है, मैं हूं न तेरी मदद करने को. हरि से बेहतर तैयारी करा दूंगा,’’ नितिन ने आश्वासन दिया, ‘‘तुम सब की शादियां कराने का तजरबा है मुझे.’’

एक दिन बाहर से आने वाले मेहमानों की सूची बनाते हुए नितिन ने शोभा से कहा, ‘‘निखिल से भी आग्रह कर न शादी में आने के लिए. इसी बहाने उस से भी मिलना हो जाएगा. बहुत दिन हो गए हैं उसे देखे हुए.’’

‘‘हम सब भी चाहते हैं भैया कि निखिल आए और वह आने को तैयार भी है, लेकिन उस की जो शर्त है वह हमें मंजूर नहीं है,’’ शोभा ने सकुचाते हुए कहा.

‘‘ऐसी क्या शर्त है?’’

‘‘शर्त यह है कि आप शादी में शरीक न हों. वह आप से मिलना नहीं चाहता.’’

‘‘मगर क्यों?’’ नितिन ने चौंक कर पूछा. उसे यकीन नहीं आ रहा था कि जिस निखिल की पढ़ाई का कर्ज वह अभी तक उतार रहा है, जिस निखिल ने रैचेल से उस का परिचय यह कह कर करा दिया था कि अगर मेरे यह भैया नहीं होते तो मैं कभी डाक्टर नहीं बन सकता था, वह उस की शक्ल देखना नहीं चाहता.

फिर शोभा को चुप देख कर नितिन ने अपना सवाल दोहराया, ‘‘मगर निखिल मुझ से मिलना क्यों नहीं चाहता?’’

‘‘क्योंकि रैचेल की मौत के लिए वह आप को जिम्मेदार मानता है.’’

‘‘यह क्या कह रही है तू?’’ नितिन चीखा, ‘‘तुझे मालूम भी है कि रैचेल की

मौत कैसे हुई थी? मगर तुझे मालूम भी कैसे होगा, तू तो तब जरमनी में थी. सुनाऊं तुझे पूरी कहानी?’’

‘‘जी, भैया.’’

नितिन बेचैनी से कमरे में टहलने लगा, जैसे तय कर रहा हो कि कहां से शुरू करे, क्या और कितना बताए? फिर बताना शुरू किया, ‘‘उन दिनों अपनी कोठी में मैं अकेला ही रह गया था. पढ़ाई खत्म होते ही निखिल को शहर से दूर एक अस्पताल में रैजीडैंट डाक्टर की नौकरी मिल गई अत: उसे वहीं रहना पड़ा. एक दिन अचानक निखिल ने मुझे फोन किया कि मैं शाम को जल्दी घर आ जाऊं, वह मुझे किसी से मिलवाना चाहता है. उस दिन बहुत उमस थी, इसलिए मैं ने छत पर कुरसियां लगवा दीं. कुछ देर बाद निखिल रैचेल के साथ आया. उस ने बताया कि वह और रैचेल हाई स्कूल से एकदूसरे से प्यार करते हैं, अब डाक्टर बनने के बाद दोनों चाहते हैं कि अगर मेरी इजाजत हो तो वे शादी कर लें.

‘‘न जाने क्यों मुझे रैचेल बहुत ही प्यारी और अपनी सी लगी. ऐसा लगा जैसे मैं उसे बहुत दिनों से जानता हूं. उस के आते ही उस उमस भरी शाम में अचानक किसी बरसात की सुहानी शाम की सी खुशगवार नमी तैरने लगी थी. मैं ने कहा कि मैं तो खुशी से उन की शादी के लिए तैयार हूं, लेकिन क्या रैचेल का परिवार इस विजातीय शादी के लिए इजाजत देगा? तब रैचेल बोली कि उस की मां कहती हैं कि अगर निखिल का परिवार एक विधर्मी बहू को सहर्ष स्वीकार लेता है तो उन्हें भी कोई एतराज नहीं होगा.

‘‘मैं ने उसे आश्वासन दिया कि सब से छोटा होने के कारण निखिल सब का लाड़ला है और उस की खुशी पूरे परिवार की खुशी होगी. रही विधर्मी होने की बात तो अभी तक तो अपने परिवार में कोई विजातीय शादी नहीं हुई है, मगर मैं भी शीघ्र ही एक विधर्मी और अकेली महिला से शादी करने वाला हूं, बस निखिल के सैटल होने का इंतजार कर रहा था. निखिल यह सुन कर बहुत खुश हुआ. उस के पूछने पर मैं ने बताया कि वह महिला एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के चेयरमैन की सेके्रटरी है, औफिस के काम के सिलसिले में उस से मुलाकात हुई थी. विधवा है या परित्यक्ता, यह मैं ने कभी नहीं पूछा, क्योंकि उस ने शुरू में ही बता दिया था कि उसे खुद के बारे में बात करना कतई पसंद नहीं है और न ही निजी जिंदगी को दोस्ती से जोड़ना. दोस्ती को भी वह सीमित समय ही दे सकती है, क्योंकि नौकरी के अलावा उस की अपनी निजी जिम्मेदारियां भी हैं. मैं ने उसे बताया कि जिम्मेदारियां तो मेरी भी कम नहीं हैं, समय और पैसे दोनों का ही अभाव है और किसी स्थाई रिश्ते यानी शादीब्याह के बारे में तो फिलहाल सोच भी नहीं सकता.

‘‘निखिल और रैचेल के कुरेदने पर मैं ने बताया कि यह सुन कर वह और ज्यादा आश्वस्त हो गई और उस ने मेरी ओर दोस्ती का हाथ बढ़ा दिया. फुरसत के गिनेचुने क्षण हम दोनों इकट्ठे गुजारने लगे, जिस से हमारी एक ही ढर्रे पर चलती वीरान जिंदगी में बहार आ गई.

‘‘खुद के बारे में कभी न सोचने वालों को भी अपने लिए जीने की वजह मिल गई थी. दूसरों के साथसाथ अब हम अपने लिए भी सोचने लगे थे. अकसर सोचते थे कि जब हमारी सारी जिम्मेदारियां खत्म हो जाएंगी, तब हम दोनों इकट्ठे सिर्फ एकदूसरे के लिए जीएंगे. सपने देखा करते थे कि क्याक्या करेंगे, कहांकहां जाएंगे.’’

‘‘निखिल यह सुन कर भावविह्वल हो गया और बोला कि भैया, कितने जुल्म किए आप ने खुद पर हमारे लिए, जब तक किसी से प्यार न हो, शायद अकेले रहना आसान हो, लेकिन किसी को चाहने के बाद उस से दूर रहना बहुत मुश्किल होता है.

‘‘मैं ने मजाक में पूछा कि उस की क्या मजबूरी थी, वह क्यों रैचेल से दूर रह रहा था? तब निखिल बोला कि एक तो शादी से पहले आत्मनिर्भर होना चाहता था, दूसरे रैचेल की भी कुछ मजबूरियां थीं. लेकिन अब जब मैं डाक्टर बन गया हूं और अलग भी रहने लगा हूं, तो आप अपनी शादी क्यों टाल रहे हैं?

‘‘तुम्हारी होने वाली भाभी का कहना है कि वह अभी कुछ दिन और शादी नहीं कर सकती. इस पर वह बोला कि यानी फिलहाल आप के ब्रह्मचर्य के खत्म होने के आसार नहीं हैं.

‘‘मैं ठहाका लगा कर हंस पड़ा कि ब्रह्मचर्य तो तुम्हारे यहां से जाते ही खत्म हो गया था निखिल. अकेला रहता हूं, इसलिए न तो कोई रोकटोक है और न ही समय की पाबंदी. जब भी उसे मौका मिलता है या उस का दिल करता है वह आ जाती है, फिर पूरे घर में हम दोनों स्वच्छंद विहार करते हैं.

‘‘रैचेल और निखिल को हैरान होते देख कर मैं चुप हो गया. फिर कुछ सोच कर बोला कि तुम दोनों तो डाक्टर हो, जीवविज्ञान के ज्ञाता, तुम क्यों जीवन के शाश्वत सत्य और परमसुख के बारे में सुन कर शरमा रहे हो? जल्दी से शादी करो और जीवन का अलौकिक आनंद लो. तुम दोनों को तो खैर सब कुछ मालूम ही होगा, मैं बालब्रह्मचारी तो उस से सट कर बैठने में ही खुश था, लेकिन उस की तो पहले शादी हो चुकी है न इसलिए उस ने मुझे बताया कि इस से आगे भी बहुत कुछ है. अभी भी कहती रहती है कि यह तो कुछ भी नहीं है, अपने रिश्ते पर समाज और कानून की मुहर लग जाने दो, फिर पता चलेगा कि चरमसुख क्या होता है.

‘‘तभी मेरे मोबाइल की घंटी बजी, उसी का फोन था यह बताने को कि वह आ रही है कुछ देर के लिए. मैं ने निखिल को उत्साह से बताया कि संयोग से वह आ रही है अत: वे लोग उस से मिल कर ही जाएं और फिर शरारत से कहा कि लेकिन मिलते ही चले जाना. हमारे सीमित समय के रंग में भंग करने रुके मत रहना.

‘‘निखिल ने कहा कि वे भी जल्दी में हैं, क्योंकि उन्हें रैचेल की मां के पास भी जाना है यह बताने कि आप ने इजाजत दे दी है और अब उन की इजाजत ले कर जल्दी से जल्दी शादी करना चाहते हैं.

‘‘मैं ने कहा कि तुम्हारी भाभी से पूछते हैं. अगर वह मान जाती हैं तो दोनों भाई एकसाथ ही शादी कर लेंगे. निखिल को बात बहुत पसंद आई और उस ने कहा कि मैं भी आज ही यह बात पूछ लेता हूं ताकि वह भी रैचेल की मां से उसी तारीख के आसपास शादी तय करने को कह सकें.

‘‘तभी नीचे से गाड़ी के हार्न की आवाज आई तो मैं ने उत्साह से कहा कि लो तुम्हारी भाभी आ गईं. रैचेल लपक कर मुंडेर के पास जा कर नीचे देखने लगी और फिर पलक झपकते ही वह मुंडेर पर चढ़ कर नीचे कूद गई.

‘‘जब मैं और निखिल नीचे पहुंचे तो सिल्विया रैचेल के क्षतविक्षत शव को संभाल रही थी. उस ने मुझ से एक चादर लाने को कहा. जब मैं चादर ले कर आया तो वह निखिल से बात कर रही थी. उस ने मुझे बताया कि वह निखिल के साथ रैचेल को उस के घर ले जा रही है. मैं ने कहा कि मैं भी साथ चलूंगा, मगर वे दोनों बोले कि मैं वहीं रुक कर पानी से खून साफ कर दूं ताकि किसी को कुछ पता न चले और पुलिस केस न बने. फिर वे दोनों तुरंत चले गए. मैं ने खून को अच्छी तरह साफ कर दिया.

‘‘उस रात सिल्वी ने अपना मोबाइल बंद रखा. अपने घर का फोन नंबर और पता तो उस ने मुझे कभी दिया ही नहीं था. निखिल का मोबाइल भी बंद था.

‘‘अगले दिन वह औफिस नहीं आई और निखिल भी अस्पताल नहीं गया. उस हादसे के बाद दोनों की मनोस्थिति काम पर जाने लायक नहीं होगी और क्या मालूम रात को कब घर आए हों और अभी सो रहे हों, यह सोच कर मैं ने उस दिन दोनों से ही संपर्क नहीं किया.

अगले दिन भी दोनों के मोबाइल बंद थे. शाम को मैं निखिल के अस्पताल में गया तो पता चला कि वह उसी सुबह अचानक नौकरी छोड़ने के एवज में 1 महीने का वेतन दे कर जाने कहां चला गया है.

‘‘मुझे निखिल के इस अनापेक्षित व्यवहार से धक्का तो लगा, लेकिन इस से पहले कि मैं उस की शिकायत दूसरे भाईबहनों से करता, कुदरत ने मुझे एक और जबरदस्त झटका दिया. घर लौटने पर मुझे कुरिअर द्वारा सिल्विया का पत्र मिला, जिस में उस ने लिखा था कि जब तक मुझे यह पत्र मिलेगा तब तक वह इस दुनिया से जा चुकी होगी और मेरे लिए उसे भूलना ही बेहतर होगा.

‘‘मैं ने उसे भूलने के बजाय और सब को भूल कर उस के साथ गुजारे लमहों की यादों के सहारे जीना बेहतर समझा. मैं भी लंबी छुट्टी ले कर हिमालय की घाटियों में चला गया. लेकिन उम्र भर कोल्हू के बैल की तरह काम करने वाला आदमी ज्यादा दिनों तक खाली नहीं रह सकता था. फिर चाहे कितनी ही सादगी से क्यों न रहो पैसा तो चाहिए ही और मेरे पास कोई जमापूंजी भी नहीं थी.

फिर अभी भविष्य निधि से लिया कर्ज भी चुकाना था.

‘‘अत: मैं फिर काम पर लौट आया. काम के अलावा और किसी भी चीज में अब मेरी दिलचस्पी नहीं रही थी. लेकिन खून के रिश्ते टूटते नहीं. तुझे निक्की की शादी के काम के लिए परेशान देख कर मैं उस की शादी की तैयारी करवाने के चक्कर में फिर से दुनियादारी में लौट आया. यह सोच कर कि जब और सब आ रहे हैं तो निखिल क्यों न आए, तुझे उसे बुलाने को कहा. अब तू ही बता, रैचेल की मृत्यु के लिए मैं जिम्मेदार क्यों और कैसे?’’

‘‘आप ने शायद सिल्विया के साथ अपने अंतरंग संबंधों का खुलासा कुछ ज्यादा खुल कर कर दिया था भैया,’’ शोभा धीरे से बोली.

नितिन चिढ़ गया, फिर बोला, ‘‘हो सकता है, लेकिन उस का रैचेल के छत से कूदने से क्या ताल्लुक?’’

‘‘क्षोभ, शर्म भैया, क्योंकि सिल्विया उस की मां थी.’’ Hindi Family Story

Family Story In Hindi: झूठा सच – आखिर क्या छिपा रहे थे कंचन के पति और सास?

Family Story In Hindi: जीवनलाल ने अपने दोस्त गिरीश और उस की पत्नी दीपा को उन की बेटी कंचन के लिए उपयुक्त वर तलाशने में मदद करने हेतु अपने सहायक पंकज से मिलवाया. दोनों को सुदर्शन और विनम्र पंकज अच्छा लगा. वह रेलवे वर्कशौप में सहायक इंजीनियर था. परिवार में सिवा मां के और कोई न था जो एक जानेमाने ट्यूटोरियल कालेज में पढ़ाती थीं. राजनीतिशास्त्र की प्रवक्ता कंचन की शादी के लिए पहली शर्त यही थी कि उसे नौकरी छोड़ने के लिए नहीं कहा जाएगा. स्वयं नौकरी करती सास को बहू की नौकरी से एतराज नहीं हो सकता था. यह सब सोच कर गिरीश ने जीवनलाल से पंकज और उस की मां को रिश्ते के लिए अपने घर लाने को कहा.

अगले रविवार को जीवनलाल अपनी पत्नी तृप्ता, दोनों बच्चों-कपिल, मोना और पंकज व उस की मां गीता के साथ गिरीश के घर पहुंच गए.

‘‘मामा, चाचा, मौसा और फूफा वगैरा सब हैं लेकिन उत्तर प्रदेश में. हैदराबाद आने के बाद उन से संपर्क नहीं रहा या सच कहूं तो पापा के रहते जिन रिश्तेदारों से हमारी सरकारी कोठी भरी रहती थी, पापा के जाते ही वही रिश्तेदार हम बेसहारा मांबेटों से कन्नी काटने लगे थे,’’ पंकज ने अन्य रिश्तेदारों के बारे में पूछने पर बताया, ‘‘इसलिए मैं मां को ले कर हैदराबाद चला आया और यहां के परिवेश में हम एकदूसरे के साथ पूर्णतया संतुष्ट हैं.’’

‘‘पंकज की शादी हो जाए तो मेरा परिवार भरापूरा हो जाएगा,’’ गीता ने जोड़ा.

‘‘आप कंचन को पसंद कर लें तो वह भी जल्दी हो जाएगा,’’ जीवनलाल ने कहा.

‘‘हम तो आप के बताए विवरण से ही कंचन को पसंद कर के यहां आए हैं लेकिन हम भी तो कंचन को पसंद आने चाहिए,’’

गीता हंसी.

‘‘कंचन की पसंद पूछ कर ही आप को यहां आने की तकलीफ दी है,’’ दीपा ने भी उसी अंदाज में कहा, ‘‘हमारी बेटी की एक ही शर्त है कि आप उसे नौकरी छोड़ने को न कहें.’’

‘‘नहीं कहूंगी लेकिन एक शर्त पर कि यह भी कभी मुझे नौकरी छोड़ने को नहीं कहेगी.’’

‘‘तो फिर तो बात पक्की, मुंह मीठा करवाओ दीपा बहन.’’

तृप्ता के कहने पर दीपा मिठाई ले आई. चायनाश्ते के बाद जीवनलाल ने कहा कि अब सगाईशादी की तारीखें भी तय कर लो.

‘‘वह तो आप कब छुट्टी देंगे, उस पर निर्भर करता है, सर,’’ पंकज बोला, ‘‘इस पर भी कि वे स्वयं कब छुट्टी लेते हैं, क्योंकि सबकुछ उन्हें ही तो करना है.’’

गीता गिरीश और दीपा की ओर मुड़ी, ‘‘जिस तरह से उन्होंने यह

शादी की बात चलाई है उसी तरह से तृप्ता भाभी और जीवन भैया, पंकज के अभिभावक बन कर बहू के गृहप्रवेश तक की सभी रस्में निबाहेंगे. आप अब क्या करना है या कैसे करना है, उन से ही पूछिएगा. रहा लेनदेन का सवाल तो मुझे बस आप की बेटी चाहिए और अब इस विषय में मुझ से कोई कुछ नहीं पूछेगा.’’

गीता आराम से सोफे से पीठ लगा कर बैठ गई.

‘‘पूछेंगे कैसे नहीं गीताजी, शादी में आने वाले रिश्तेदारों के बारे में तो बताना ही होगा,’’ दीपा ने प्रतिवाद किया, ‘‘शादी में रौनक तो उन लोगों के आने से ही आएगी.’’

‘‘रौनक की फिक्र मत करिए,’’ पंकज बोला, ‘‘मेरे बहुत दोस्त और सहकर्मी हैं, ज्यादा हंगामा चाहिए तो मम्मी के छात्रछात्राएं हैं.’’

‘‘मेरे छात्रछात्राओं की क्या जरूरत है?’’ गीता हंसी, ‘‘कंचन के ननददेवर हैं न मोना

और कपिल, अपने दोस्त सहेलियों के साथ धूम मचाने को.’’

शादी बहुत धूमधाम और हंसीखुशी से हो गई. कंचन पंकज के साथ बेहद खुश थी. गीता से भी उसे कोई शिकायत नहीं थी. कोचिंग कक्षाएं तो सुबहशाम ही लगती हैं. सो, गीता सुबह से ही जाती थी और कंचन के कालेज जाने के बाद लौटती थी. दिनभर घर में रहती थी. सो, नौकरानी से सब काम भी करवा लेती थी.

कंचन को घर लौटने पर गरम चायनाश्ता मिल जाता था. कुछ देर गपशप के बाद गीता फिर कालेज चली जाती थी और कंचन पूरी शाम पंकज के साथ जैसे चाहे बिता सकती थी. संक्षेप में, सास के संरक्षण का सुख बगैर किसी हस्तक्षेप या जिम्मेदारी के.

1 साल पलक झपकते गुजर गया. मांबेटे में रात को ही बात होती थी लेकिन कुछ रोज से कंचन को लग रहा था कि गीता कुछ असहज है. वह पंकज से अकेले में बात करने की कोशिश में रहती थी. कंचन के आते ही, बड़ी सफाई से बात बदल देती थी. कंचन ने यह बात अपनी मां दीपा को बताई.

‘‘पंकज के उस बेचारी का अपना सगा कोई और तो है नहीं जिस से कोई निजी दुखसुख या पुरानी यादें बांटे. तू खुद ही उन्हें अकेले छोड़ा कर, और पंकज से भी कभी मत पूछना कि मां उस से क्या कह रही थीं,’’ दीपा ने समझाया.

एक रात सब ने खाना खत्म ही किया था कि बिजली चली गई. पंकज और गीता बाहर बरामदे में बैठ गए और कंचन मोमबत्ती की रोशनी में मेज साफ कर के रसोई समेटने लगी. काम खत्म कर के उस ने बेखयाली में मोमबत्ती बुझा दी. स्ट्रीट लाइट की रोशनी में बरामदे का रास्ता नजर आ रहा था. वह धीरे से उसी के सहारे आगे बढ़ गई. तभी उसे बरामदे से मांबेटे की वार्तालाप सुनाई दी. पंकज कह रहा था, ‘‘कितनी भी सिफारिश लगवा लूं रेलवे से तो भी 3 बैडरूम वाला घर नहीं मिल सकता, मां. कई हजार रुपया किराया दे कर बाहर ही घर लेना पड़ेगा. सोच रहा हूं इतना किराया देने से बेहतर है अपना फ्लैट ही खरीद लें. गाड़ी

के बजाय मकान के लिए ऋण ले लेता हूं.’’

‘‘उस सब में समय लगेगा पंकज, हमें तो 3 कमरों का घर जल्दी से जल्दी चाहिए,’’ गीता के स्वर में चिंता थी, ‘‘किराए की फिक्र मत कर, जितना भी होगा मैं देने को तैयार हूं. तू बस इतना देख कि गैस्टरूम तुम्हारे व मेरे कमरे से अलग हो.’’

कंचन चौंक पड़ी. रेलवे की ओर से उन्हें 2 बैडरूम का कौटेजनुमा घर मिला हुआ था. सामने छोटा सा लौन था, पीछे किचन गार्डन और ऊपर खुली छत भी थी. नौकरानी भी पास के बंगले के आउट हाउस में रहती थी. सो, देरसवेर जब बुलाओ, वह आ जाती थी. ये सब छोड़ कर किराए के आधुनिक दड़बेनुमा फ्लैट में जाने की क्या जरूरत आ पड़ी थी? अपने 3 सदस्यों के परिवार के लिए तो यह घर काफी है. तो फिर क्या कोई मेहमान आ रहा है? मगर कौन?

‘‘हड़बड़ाओ मत, मां. बराबर वाले घर में विधुर चौधरीजी बेटे के साथ रहते हैं और बेटा अगले महीने विदेश जा रहा है. वे खुशी से हमें एक कमरा दे देंगे. आप अब इस बारे में न तो फिक्र करो और न ही बात,’’ पंकज ने कहा और पुकारा, ‘‘तुम अंधेरे और गरमी में अंदर क्या कर रही हो, कंचन?’’

‘‘हां, बेटी, यहां आ कर बैठ. बड़ी अच्छी हवा चल रही है,’’ गीता भी बोली.

इस का मतलब था कि मां ने भी बात खत्म कर दी है. अब पूछने पर भी कोई कुछ नहीं बताएगा और वैसे भी पंकज ने फिलहाल तो मकान बदलना टाल ही दिया था.

जयपुर में होने वाली अंतर्राज्यीय बैडमिंटन प्रतियोगिता में कंचन के कालेज की टीम चुनी गई थी. अपने समय में कंचन भी राज्य स्तर की खिलाड़ी रह चुकी थी और अभी भी छात्राओं के साथ अकसर बैडमिंटन खेलती थी. प्रिंसिपल और छात्राएं चाहती थीं कि कंचन भी टीम के साथ जयपुर जाए. कंचन ने पंकज और गीता से पूछा. दोनों ने सहर्ष अनुमति दे दी.

लौटने वाले रोज उन सब की ट्रेन रात की थी. लड़कियां जयपुर घूमना और खरीदारी करना चाहती थीं. आयोजकों ने उन के लिए एक प्राइवेट टैक्सी की व्यवस्था करवा दी. ड्राइवर रामसेवक अधेड़ उम्र का संभ्रांत व्यक्ति था, उस ने बड़ी अच्छी तरह से लड़कियों को दर्शनीय स्थल दिखाए. दिनभर घूमने के बाद कंचन थक गई थी. सो, मिर्जा इस्माइल रोड पहुंचने पर उस ने कहा कि वह शौपिंग के बजाय गाड़ी में आराम करना चाहेगी.

‘‘इतनी गरमी में? हम आप को अकेले नहीं छोड़ेंगे, मैडम,’’ लड़कियों ने कहा.

‘‘मैं हूं न मैडम के पास,

गाड़ी में एसी भी चलता रहेगा,’’ रामसेवक ने कहा. ‘‘आप लोग इतमीनान से जा कर खरीदारी कर लो.’’

‘‘धन्यवाद, भैयाजी. नाम और बोलचाल से तो आप उत्तर भारत के लगते हैं, यहां कैसे आ गए?’’ कंचन ने पूछा.

रामसेवक ने आह भरी, ‘‘अब क्या बताएं मैडम. हालात ही कुछ ऐसे हो गए कि रोटीरोजी के लिए घर से दूर आना पड़ गया.’’

‘‘क्यों, ऐसा क्या हो गया?’’

‘‘अपने घर में सभी पढ़ेलिखे और सरकारी नौकरी में हैं. हमें न पढ़ना पसंद था न नौकरी करना, गाड़ी चलाने का बहुत शौक था. सो, बाबूजी ने हमें टैक्सी दिलवा दी. हम भी सब के मुकाबले में कमा खा रहे थे कि हमारे बड़के भैया ने गड़बड़ कर दी. वे थे तो सरकारी अफसर मगर शबाब और शराब के शौकीन.

‘‘एक रोज नशे की हालत में एक मातहत की बीवी पर हाथ डाल दिया और पकड़े गए. जीजाजी के रसूख से किसी तरह छूट गए. भाभी के चिरौरी करने और बेटे के भविष्य का हवाला देने से कुछ साल तो संभल कर रहे लेकिन बेटे को रेलवे में नौकरी मिलते ही फिर पुराने रंगढंग चालू कर दिए और एक नेता की चहेती के साथ मुंह काला करते हुए पकड़े गए. नेता की चहेती थी, सो मामला तूल पकड़ गया और 7 साल की जेल हो गई.

‘‘परिवार की इतनी बदनामी हुई कि लोग मेरी टैक्सी में बैठने से भी डरने लगे. टैक्सी का धंधा तो शहर के होटल और अन्य संस्थानों से जुड़ने पर ही चलता है. सो उन के नकारे जाने पर यहां आ गया. मुझे ही नहीं, भाभी और उन के बेटे को भी अपना शहर छोड़ कर दूर जाना पड़ा.’’

कंचन की दिलचस्पी थोड़ी बढ़ी, ‘‘दूर कहां?’’

‘‘हैदराबाद. वहां रेलवे में इंजीनियर है हमारा भतीजा लेकिन हमारे ताल्लुकात नहीं हैं अब उन से,’’ उस ने मायूसी से कहा.

‘‘ऐसा क्यों?’’

‘‘परिवार वाले उन से कन्नी काटने लगे थे. मांबेटे खुद्दार थे. सो, सब से दूर चले गए. अब तो भैया की सजा की अवधि भी खत्म होने वाली है, तब शायद वे लोग झांसी आएं.’’

तभी लड़कियां शौपिंग कर के आ गईं और ड्राइवर चुप हो गया. कंचन ने जितना भी सुना था उस से साफ जाहिर था कि वह किस की बात कर रहा था और क्यों गीता बड़ा मकान लेने के लिए व्याकुल थी. व्यभिचारी पति को न नकारना चाहती थी और न ही उस के साथ रहना. पंकज सदा की तरह मां की भावनाओं का ध्यान रख रहा था लेकिन कंचन की भावनाओं का क्या? परिवार का यह कलुषित सत्य तो उन्हें शादी से पहले ही बताना चाहिए था. शादी के बाद भी यह कहने वाला पंकज कि पतिपत्नी तो एकदूसरे के लिए खुली किताब होते हैं, कितना बड़ा झूठा था. झूठ की नींव पर टिकी शादी कितने रोज टिक सकेगी?

मांबेटे के व्यवहार से तो लग रहा था कि वे उस बदचलन, सजायाफ्ता व्यक्ति को स्वीकार करने वाले थे. भले ही दूर रखें, देरसवेर तो उस से भी वास्ता पड़ेगा ही. फिर उस की अस्मत का क्या होगा? कंचन सोच कर ही सिहर उठी. सिरदर्द के बहाने वह पूरे रास्ते चुप रही और फिर अपने कमरे में जा कर फूटफूट कर रो पड़ी. उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे?

खैर, किसी तरह लंबा सफर तय कर के घर पहुंची.

‘‘शुक्र है तुम आ गईं, जिया ही नहीं जा रहा था तुम्हारे बगैर,’’ पंकज ने विह्वल स्वर में कहा.

‘‘अब तो मेरे बगैर ही जीना पड़ेगा क्योंकि मैं तुम्हें हमेशा के लिए छोड़ कर जा रही हूं,’’ कंचन ने अलमारी में से अपने कपड़े निकालते हुए कहा.

‘‘मगर क्यों? जयपुर में पुराना प्रेमी मिल गया क्या?’’ पंकज ने चुहल की.

‘‘प्रेमी तो नहीं, हां चचिया ससुर रामसेवक जरूर मिले थे. मैं ने तो तुम्हें अपने जीवन के

मूक प्रेम के बारे में भी बता दिया था जिस का ताना तुम ने मुझे अभी दिया है लेकिन तुम ने और मां ने अपने परिवार के उस घिनौने सच को छिपाया हुआ है जिस के लिए अपनों से मुंह छिपा कर तुम यहां रह रहे हो. झूठ की बुनियाद पर टिकी शादी का कोई भविष्य नहीं होता पंकज और इस से पहले

कि वह भरभरा कर गिरे, मैं स्वयं ही यह रिश्ता खत्म कर देती हूं. तुरंत तलाक लेने के लिए सचाई छिपाने का आरोप काफी है. वैसे तो तुम्हें सजा भी दिलवा सकती हूं लेकिन अगर चुपचाप तलाक दे दोगे तो ऐसा कुछ नहीं करूंगी,’’ कंचन ने सूटकेस में सामान भरते हुए कहा.

पंकज हतप्रभ हो गया था, फिर भी संयत स्वर में बोला, ‘‘तुम ने जो सुना वह सच है लेकिन जो झूठ की बुनियाद वाली बात कही है वह सही नहीं है. इस शहर में किसी ने कभी भी हम से पापा के बारे में नहीं पूछा तो हम स्वयं आगे बढ़ कर क्यों बताते? तुम ने देखा होगा शादी के मंडप में दिवंगत मातापिता की तसवीर रखी जाती है. मगर हम ने तो नहीं रखी, न किसी ने रखने को कहा. तुम ने भी तो कभी नहीं पूछा कि घर में पापा की कोई तसवीर क्यों नहीं है या कभी उन के बारे में कोई और बात पूछी हो? मैं ने और मां ने यह फैसला किया था कि हम स्वयं पापा के बारे में किसी को कुछ नहीं बताएंगे मगर पूछने पर कुछ छिपाएंगे भी नहीं. अब किसी ने कुछ नहीं पूछा तो इस में हमारा क्या कसूर है? एक बात और, मां विधवा की तरह नहीं रहतीं. सादे मगर रंगीन कपड़े पहनती हैं और थोड़ेबहुत जेवर भी.’’

‘‘लेकिन सिंदूर या बिंदी तो नहीं लगातीं?’’ कंचन को पूछने के लिए यही मिला.

‘‘तुम लगाती हो, तुम्हारी मम्मी या तृप्ता आंटी?’’ पंकज ने पूछा, ‘‘कितनी सुहागिनें मांग भरती हैं या पांव में बिछिया पहनती हैं आजकल? हम ने सच को छिपाने का कोई प्रयास नहीं किया है कंचन?’’

‘‘अच्छा? और यह जो मुझे बगैर बताए लोन ले कर बड़ा मकान बनाने की योजना बना रहे हो, उसे क्या कहोगे?’’ कंचन ने व्यंग्य से पूछा.

‘‘योजना ही है, लिया तो नहीं? पापा के यहां आने का पक्का होने पर तुम्हें सब बताने की सोची थी क्योंकि पापा यहां आएंगे, यह अभी पक्का नहीं है. वे बहुत बदल चुके हैं और उन्हें संसार से विरक्ति हो गई है. केरल से कोई सज्जन जेल में सद्वचन देने आते हैं और पापा अपना शेष जीवन उन के त्रिचूर आश्रम में बिताना चाहते हैं…’’

‘‘तुम्हें कैसे मालूम?’’ कंचन ने उस की बात काटी.

‘‘क्योंकि मैं बगैर मां को बताए सरकारी काम का बहाना बना कर पापा से मिलने झांसी जेल में जाता रहता हूं. अदालत की पेशी के दौरान मैं ने पापा की आंखों में पश्चात्ताप देखा था, सो मैं ने उन्हें माफ कर दिया लेकिन मां पर मैं ने अपनी मंशा नहीं थोपी और न ही अभी से उन्हें यह बताना चाहता हूं कि पापा यहां नहीं रहेंगे. रिहाई के रोज मां मेरे साथ उन्हें जेल से लेने जाएंगी, तब कह नहीं सकता दोनों की क्या प्रतिक्रिया होगी. पापा को घर लाना चाहेंगी या स्वयं उन के साथ त्रिचूर जाना

या पापा को अपने रास्ते जाने देना और स्वयं जिस रास्ते पर चल रही हैं उसी पर चलते रहना. मेरा यह मानना है कंचन, कि जिस को जो उचित लगता है वही करना उस का जन्मसिद्ध अधिकार है और उस में टांग अड़ाने का मुझे कोई हक नहीं है.’’

‘‘यानी तुम्हें छोड़ने का फैसला मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है?’’ कंचन ने शरारत से पूछा.

‘‘बशर्ते कि तुम यह सिद्ध कर सको कि तुम से झूठ बोल कर तुम्हें धोखा दिया गया या नुकसान पहुंचाया गया.’’

‘‘वह तो सिद्ध नहीं कर सकती,’’ कंचन ने कपड़े अलमारी में वापस रखते हुए कहा, ‘‘क्योंकि झूठ तो तुम ने कभी बोला नहीं. बगैर कभी कुछ पूछे मैं ही अपने सोचे झूठ को सच समझती रही.’’ Family Story In Hindi

Hindi Family Story: मैं झूठ नहीं बोलती – ममता को सच बोलना क्यों पड़ा भारी?

Hindi Family Story: ‘‘निधि रुक जा, कहां भागी जा रही है? बस निकल जाएगी, ममता ने गेट की ओर तेजी से जाती हुई निधि को पुकारा, पर निधि तो अपनी ही धुन में थी. उस ने ममता को वहीं रुकने का इशारा किया और गेट से बाहर निकल गई. तब तक बस आ गई और सभी छात्राएं उस में बैठने लगीं. ममता जानती थी कि यदि वह निधि के पीछे गई तो उस की बस भी निकल जाएगी. अत: वह बस में जा कर बैठ गई.

तभी निधि दौड़ती हुई बस की ओर आई और बोली, ‘‘ममता, मां पूछें तो कह देना कि मेरी ऐक्सट्रा क्लास है.’’

‘‘मैं क्यों झूठ बोलूं, दादीमां कहती हैं कि सब बुराइयां झूठ से ही शुरू होती हैं,’’ ममता ने चिढ़ कर उत्तर दिया.

‘‘सतयुग में एक राजा हरिश्चंद्र थे और कलियुग में तू, तेरे जो मन में आए कह देना. मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता,’’ निधि झुंझलाते हुए बोली और देखते ही देखते आंखों से ओझल हो गई. ममता उसे पुकारती ही रह गई, लेकिन उस ने पीछे मुड़ कर देखा भी नहीं. उधर बस में बैठी छात्राएं निधि और ममता की बातचीत के मजे ले कर खूब हंस रही थीं.

‘‘अब तो निधि ने भी आज्ञा दे दी है. आज ही जा कर निधि की मम्मी को सब सच बता देना. समझा देना कि आजकल उन की बेटी कक्षा में कम और कैंटीन में आशीष के साथ अधिक नजर आती है. तू ने इतना सा साहस दिखा दिया तो उस के घर वाले तुझे उपहारों से लाद देंगे,’’ रचना बोली तो बस में फिर से ठहाके गूंज उठे.

‘‘क्या हो रहा है ये सब? रचना, मैं ने तुम से सलाह मांगी है क्या?’’ ममता गुस्से से बोली.

हंसहंस कर दोहरी हो रही रचना पर ममता इतनी जोर से चीखी कि हवा जैसे थम सी गई.

‘‘तुम जानो और तुम्हारी सहेली. हमें क्या पड़ी है दूसरों के झमेलों में पड़ने की,’’ रचना ने बड़ी अदा से मुंह बनाया व अपनी अन्य सहेलियों के साथ गपें हांकने लग गई. अन्य छात्राएं भी शीघ्र ही निधि प्रकरण को भूल गईं और ममता ने चैन की सांस ली. पर असली समस्या तो अभी भी मुंहबाए खड़ी थी. सत्या आंटी ने अगर पूछ लिया कि उन की बेटी निधि कहां है तो वह क्या उत्तर देगी. न वह झूठ बोल सकती है और न ही सच. निधि उस की सब से प्यारी सहेली है. उस के राज को राज रखना उस का कर्तव्य भी तो बनता है.

निधि की मां, सत्या आंटी अपने गेट के पास निधि की प्रतीक्षा में खड़ी रहती थीं. आज उन्हें वहां खड़ा न देख कर ममता ने चैन की सांस ली और लपक कर अपने घर में घुस गई.

‘‘क्या हुआ, इस तरह दौड़ कर क्यों घर में घुस गई? मैं बाहर दरवाजे पर खड़ी तेरी प्रतीक्षा कर रही थी, मुझे देखा तक नहीं तू ने,’’ उस की मां निशा अचरज से बोलीं.

‘‘बात ही कुछ ऐसी है मां, मुझे लगा कहीं सत्या आंटी सामने मिल गईं तो मैं क्या करूंगी,’’ ममता ने अपनी मां को अपना स्वर नीचे रखने का इशारा किया.

‘‘क्यों, ऐसा क्या किया है तुम ने, जो सत्या से डर रही हो,’’ मां चकित स्वर में बोलीं.

‘‘मैं ने कुछ नहीं किया है मां पर निधि…’’

‘‘क्या हुआ निधि को?’’

‘‘कुछ नहीं हुआ उसे, पर आप ने क्या देखा नहीं कि निधि मेरे साथ बस से नहीं उतरी?’’

‘‘अरे, हां, कहां गई वह? घर क्यों नहीं आई?’’

‘‘यही तो मुश्किल है मां, वह अपने मित्र के साथ घूमने गई है. मुझ से कहा कि अगर उस की मम्मी पूछें तो कह दूं कि उस की आज ऐक्स्ट्रा क्लास है.’’

‘‘पर गई कहां है वह?’’

‘‘उस का एक मित्र है, आशीष, आजकल उसी के साथ घूमती रहती है. कई बार तो कक्षा छोड़ कर भी चली जाती है.’’

‘‘आशीष? यह तो लड़के का नाम है.’’

‘‘वह लड़का ही है मां, आप भी न बस…’’

‘‘पर तुम्हारा स्कूल तो केवल लड़कियों के लिए है. वहां यह आशीष कहां से आ गया?’’

‘‘स्कूल तो लड़कियों के लिए है पर स्कूल के बाहर तो लड़के भी होते हैं, मां. हमारे स्कूल के आसपास तो लड़के कुछ अधिक ही मंडराते रहते हैं.’’

‘‘हो क्या गया है निधि को. 9वीं कक्षा में पढ़ने वाली इतनी सी लड़की को डर नहीं लगता क्या? किसी के भी साथ चल पड़ती है.’’

‘‘निधि बहुत निडर और स्मार्ट है, मां. मेरी तरह डरपोक नहीं है.’’

‘‘क्या मतलब, तुम डरपोक नहीं होती तो किसी के साथ भी घूमने चल पड़ती,’’ मां तीखे स्वर में बोलीं.

‘‘मैं ने ऐसा कब कहा मां. आप हर बात का गलत अर्थ क्यों निकालती हो. कुछ खाने को दो न, बहुत भूख लगी है.’’

‘‘ड्रैस बदल कर और हाथमुंह धो कर आओ, तब तक खाना लगाती हूं,’’ मां रसोई में जातेजाते बोलीं.

‘‘पर मन में ममता की बातें गूंजती रहीं. किसी अनहोनी की आशंका से मन कांप उठा. खरबूजे को देख कर खरबूजा रंग बदलता है. कहीं निधि को देख कर ममता भी उसी राह पर चल पड़ी तो क्या करूंगी,’’ सोचतेसोचते निशा अपनी बेटी से बोली, ‘‘देख ममता, निधि तेरी मित्र है इसीलिए कह रही हूं, उस की मम्मी को सबकुछ सचसच बता दे नहीं तो बहुत बुरा मानेंगी वे.’’

‘‘और अगर सच बता दिया तो निधि मुझे कच्चा चबा जाएगी. वह मेरी सब से अच्छी मित्र है, मुझ पर विश्वास कर के ही वह अपने राज मुझे बताती है. 2 सहेलियों के बीच विश्वास ही नहीं रहा तो बचेगा क्या,’’ ममता कुछ ऐसे अंदाज में बोली कि मां अपनी हंसी नहीं रोक पाईं.

‘‘मांबेटी के बीच क्या गंभीर वार्त्तालाप चल रहा है हम भी तो सुनें,’’ तभी ममता की दादी ने कमरे में प्रवेश किया.

‘‘कुछ नहीं मांजी, यों ही स्कूल की बातें कर रही थी. कह रही थी कि दादी कहती हैं कि झूठ बोलने से बड़ा पाप और कोई नहीं है,’’ मां फिर हंस दीं.

‘‘अरे, वाह, मेरी गुडि़या तो बहुत सयानी हो गई है. जीवन में पढ़तेलिखते तो सब हैं पर गुनते बहुत कम लोग हैं और ममता गुनने वालों में से है. देख लेना यह एक दिन अवश्य तुम दोनों का नाम रोशन करेगी.’’

‘‘क्या नाम रोशन करेगी मांजी. आजकल नाम सच बोलने से नहीं पढ़नेलिखने से होता है. ममता को तो आप जानती ही हैं कि कभी 50% से अधिक अंक नहीं आए इस के.’’

‘‘अभी तो मुझे यह बताओ कि यह क्या बात थी जिस के लिए ममता झूठ बोलने से कतरा रही थी.’’

‘‘कुछ नहीं, पड़ोस में इस की सहेली निधि रहती है. एक लड़के से दोस्ती है उस की. स्कूल के बाद उस से मिलतीजुलती है, घूमने जाती है और ममता से कहती है कि उस की मम्मी पूछें तो कह देना कि स्कूल में ऐक्स्ट्रा क्लास है.’’

‘‘यह तो बहुत गलत बात है. सच बोलने के लिए बड़े साहस की आवश्यकता होती है. सत्य बोलना कायरों का काम नहीं है. तुम्हें अपनी सहेली के लिए झूठ बोलने की जरूरत नहीं है.’’

‘‘वही तो रोना है मांजी, दोस्ती में न कुछ कहते बनता है न छिपाते. फिर ममता अपनी सहेली को खोना भी नहीं चाहती. पता नहीं किस ने उसे बता दिया है कि अपनी सहेली के राज को राज ही रखना चाहिए,’’ मां ने झिझकते हुए बताया.

‘‘अब जमाना बहुत बदल गया है. अब केवल सच बोलने से काम नहीं चलता. आज की दुनिया में बड़ा जोड़तोड़ करना पड़ता है.’’

‘‘कहना क्या चाहती हो तुम.’’

‘‘मेरा मतलब बस इतना है कि हमें दूसरों के झमेलों में पड़ने की क्या जरूरत है. मैं नहीं चाहती कि इन सब बातों का असर ममता की पढ़ाई पर पड़े.’’

‘‘सच नहीं बोलेगी तो उस पर असर पड़ेगा. हर बार अपनी सहेली के बारे में ही सोचती रहेगी ममता. तुम बच्चों के मनोविज्ञान को नहीं समझती हो,’’ दादीमां भी अपनी बात पर अड़ गईं.

‘‘आप दोनों शांत हो जाइए. मैं वादा करती हूं कि मैं किसी को भी शिकायत का अवसर नहीं दूंगी,’’ ममता नाराज हो कर अपने कमरे में चली गई.

थोड़ी ही देर में बात आईगई हो गई. ममता ही नहीं उस की मां और दादी भी सारे प्रकरण को भूल चुकी थीं, अचानक रात के 10 बजे घंटी बजी.

ममता की मां ने जैसे ही दरवाजा खोला तो सामने निधि की मां सत्या खड़ी थीं.

‘‘जी, कहिए,’’ न चाहते हुए भी वह अचकचा गईं.

‘‘ममता कहां है, कृपया उसे बुलाइए,’’ निधि की मम्मी बोलीं.

सत्या आंटी की आवाज सुन कर ममता स्वयं ही चली आई.

‘‘ममता, निधि कहां है अब तक घर नहीं आई.’’

‘‘क्या अब तक नहीं आई,’’ मां और ममता एकसाथ बोलीं.

‘‘कुछ कह कर गई थी क्या?’’

‘‘ऐक्स्ट्रा क्लास थी ऐसा कुछ कह कर तो गई थी पर अब तक उस का कोई अतापता नहीं है, इसी से चिंता हो रही है. तुम कितने बजे घर पहुंची,’’ उन्होंने ममता से पूछा.

‘‘मैं तो स्कूल बस से ही आ गई थी. आज कोई ऐक्स्ट्रा क्लास नहीं थी,’’ डरतेडरते बोली.

‘‘तुम्हारी नहीं रही होगी. निधि कह रही थी कि यह क्लास केवल 90त्न से अधिक वाली छात्राओं के लिए है जिन की 10वीं में मैरिट लिस्ट में आने की आशा है,’’ सत्या तनिक गर्व से बोलीं.

‘‘कोई फोन आदि,’’ ममता की मां ने दोबारा पूछा.

‘‘यही तो रोना है. स्कूल वाले फोन ले जाने की अनुमति कहां देते हैं. फिर भी निधि छिपा कर ले जाती थी, पर आज भूल गई, पता नहीं कहां होगी मेरी बच्ची?’’ सत्या रो पड़ी.

‘‘धीरज रखिए, मिल जाएगी,’’ ममता की मां ने उन्हें ढाढ़स बंधाना चाहा.

‘‘क्या धीरज रखूं? मैं ने सोचा था कि शायद ममता को कुछ पता हो पर यहां भी निराशा ही हाथ लगी.’’

‘‘आंटी, मुझे पता है. आज कोई ऐक्स्ट्रा क्लास नहीं थी. निधि तो आशीष के साथ डिस्को गई थी. वह नवीन जूनियर कालेज का विद्यार्थी है, निधि उस से अकसर मिलती है.’’

‘‘क्या, इतना घटिया आरोप मेरी बेटी पर? मैं ने तो सोचा था कि तुम निधि की मित्र हो. पर अब समझ में आया कि तुम मन ही मन उस से जलती हो.’’

‘‘नहीं यह सच नहीं है. मैं भला निधि से क्यों जलने लगी.’’

‘‘मां, जल्दी घर चलो. दीदी के स्कूल की प्राचार्या का फोन आया है. वह किसी के साथ मोटरसाइकिल पर जा रही थी कि दुर्घटनाग्रस्त हो गई. वह निर्मल अस्पताल में भरती है,’’ तभी निधि के भाई ने सारी बात बताई और सत्या के साथ ममता के मातापिता भी अस्पताल के लिए रवाना हो गए. रह गई थीं केवल ममता और उस की दादी दमयंती.

ममता फूटफूट कर रो रही थी और दादी उसे समझा रही थीं कि सच बोलने वालों को तो इस तरह की हर बात के लिए तैयार रहना चाहिए. पर ममता के पल्ले उन की बात पड़ी या नहीं. Hindi Family Story

Family Story In Hindi: देर आए दुरुस्त आए

Family Story In Hindi: रात का 1 बज रहा था. स्नेहा अभी तक घर नहीं लौटी थी. सविता घर के अंदर बाहर बेचैनी से घूम रही थी. उन के पति विनय अपने स्टडीरूम में कुछ काम कर रहे थे, पर ध्यान सविता की बेचैनी पर ही था. विनय एक बड़ी कंपनी में सीए थे. वे उठ कर बाहर आए. सविता के चिंतित चेहरे पर नजर डाली. कहा, ‘‘तुम सो जाओ, मैं जाग रहा हूं, मैं देख लूंगा.’’

‘‘कहां नींद आती है ऐसे. समझासमझा कर थक गई हूं. स्नेहा के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती. क्या करूं?’’

तभी कार रुकने की आवाज सुनाई दी. स्नेहा कार से निकली. ड्राइविंग सीट पर जो लड़का बैठा था, उसे झुक कर कुछ कहा, खिलखिलाई और अंदर आ गई. सविता और विनय को देखते ही बोली, ‘‘ओह, मौम, डैड, आप लोग फिर जाग रहे हैं?’’

‘‘तुम्हारे जैसी बेटी हो तो माता पिता ऐसे ही जागते हैं, स्नेहा. तुम्हें हमारी हैल्थ की भी परवाह नहीं है.’’

‘‘तो क्या मैं लाइफ ऐंजौय करना छोड़ दूं? मौम, आप लोग जमाने के साथ क्यों नहीं चलते? अब शाम को 5 बजे घर आने का जमाना नहीं है.’’

‘‘जानती हूं, जमाना रात के 1 बजे घर आने का भी नहीं है.’’

‘‘मुझे तो लगता है पेरैंट्स को चिंता करने का शौक होता है. अब गुडनाइट, आप का लैक्चर तो रोज चलता है,’’ कहते हुए स्नेहा गुनगुनाती हुई अपने बैडरूम की तरफ बढ़ गई.

सविता और विनय ने एकदूसरे को चिंतित और उदास नजरों से देखा. विनय ने कहा, ‘‘चलो, बहुत रात हो गई. मैं भी काम बंद कर के आता हूं, सोते हैं.’’

सविता की आंखों में नींद नहीं थी. आंसू भी बहने लगे थे, क्या करे, इकलौती लाडली बेटी को कैसे समझाए, हर तरह से समझा कर देख लिया था. सविता ठाणे की खुद एक मशहूर वकील थीं.

उन के ससुर सुरेश रिटायर्ड सरकारी अधिकारी थे. घर में 4 लोग थे. स्नेहा को घर में हमेशा लाड़प्यार ही मिला था. अच्छी बातें ही सिखाई गई थीं पर समय के साथ स्नेहा का लाइफस्टाइल चिंताजनक होता गया था. रिश्तों की उसे कोई कद्र नहीं थी. बस लाइफ ऐंजौय करते हुए तेजी से आगे बढ़ते जाना ही उस की आदत थी. कई लड़कों से उस के संबंध रह चुके थे. एक से ब्रेकअप होता, तो दूसरे से अफेयर शुरू हो जाता. उस से नहीं बनती तो तीसरे से दोस्ती हो जाती. खूब पार्टियों में जाना, डांसमस्ती करना, सैक्स में भी पीछे न हटने वाली स्नेहा को जबजब सविता समझाने बैठीं दोनों में जम कर बहस हुई. सुरेश स्नेहा पर जान छिड़कते थे. उन्होंने ही लंदन बिजनैस स्कूल औफ कौमर्स से उसे शिक्षा दिलवाई. अब वह एक लौ फर्म में ऐनालिस्ट थी. सविता और विनय के अच्छे पारिवारिक मित्र अभय और नीता भी सीए थे और उन का इकलौता बेटा राहुल एक वकील.

एक जैसा व्यवसाय, शौक और स्वभाव ने दोनों परिवारों में बहुत अच्छे संबंध स्थापित कर दिए थे. राहुल बहुत ही अच्छा इनसान था. वह मन ही मन स्नेहा को बहुत प्यार करता था पर स्नेहा को राहुल की याद तभी आती थी जब उसे कोई काम होता था या उसे कोई परेशानी खड़ी हो जाती थी. स्नेहा के एक फोन पर सब काम छोड़ कर राहुल उस के पास होता था.

सविता और विनय की दिली इच्छा थी कि स्नेहा और राहुल का विवाह हो जाए पर अपनी बेटी की ये हरकतें देख कर उन की कभी हिम्मत ही नहीं हुई कि वे इस बारे में राहुल से बात भी करें, क्योंकि स्नेहा के रंगढंग राहुल से छिपे नहीं थे. पर वह स्नेहा को इतना प्यार करता था कि उस की हर गलती को मन ही मन माफ करता रहता था. उस के लिए प्यार, केयर, मानवीय संवेदनाएं बहुत महत्त्व रखती थीं पर स्नेहा तो इन शब्दों का अर्थ भी नहीं जानती थी.

समय अपनी रफ्तार से चल रहा था. स्नेहा अपनी मरजी से ही घर आतीजाती.  विनय और सविता के समझाने का उस पर कोई असर नहीं था. जब भी दोनों कुछ डांटते, सुरेश स्नेहा को लाड़प्यार कर बच्ची है समझ जाएगी कह कर बात खत्म करवा देते. वे अब बीमार चल रहे थे. स्नेहा में उन की जान अटकी रहती थी. अपना अंतिम समय निकट जान उन्होंने अपना अच्छा खासा बैंक बैलेंस सब स्नेहा के नाम कर दिया.

एक रात सुरेश सोए तो फिर नहीं जागे. तीनों बहुत रोए, बहुत उदास हुए, कई दिनों तक रिश्तेदारों और परिचितों का आनाजाना लगा रहा. फिर धीरेधीरे सब का जीवन सामान्य होता गया. स्नेहा अपने पुराने ढर्रे पर लौट आई. वैसे भी किसी भी बात को, किसी भी रिश्ते को गंभीरतापूर्वक लेने का उस का स्वभाव था ही नहीं. अब तो वह दादा के मोटे बैंक बैलेंस की मालकिन थी. इतना खुला पैसा हाथ में आते ही अब वह और आसमान में उड़ रही थी. सब से पहले उस ने मातापिता को बिना बताए एक कार खरीद ली.

सविता ने कहा, ‘‘अभी से क्यों खरीद ली? हमें बताया भी नहीं?’’

‘‘मौम, मुझे मेरी मरजी से जीने दो. मैं लाइफ ऐंजौय करना चाहती हूं. रात में मुझे कभी कोई छोड़ता है, कभी कोई. अब मैं किसी पर डिपैंड नहीं करूंगी. दादाजी मेरे लिए इतना पैसा छोड़ गए हैं, मैं क्यों अपनी मरजी से न जीऊं?’’

विनय ने कहा, ‘‘बेटा, अभी तुम्हें ड्राइविंग सीखने में टाइम लगेगा, पहले मेरे साथ कुछ प्रैक्टिस कर लेती.’’

‘‘अब खरीद भी ली है तो प्रैक्टिस भी हो जाएगी. ड्राइविंग लाइसैंस भी बन गया है. आप लोग रिलैक्स करना सीख लें, प्लीज.’’

अब तो रात में लौटने का स्नेहा का टाइम ही नहीं था. कभी भी आती, कभी भी जाती. सविता ने देखा था वह गाड़ी बहुत तेज चलाती है. उसे टोका, ‘‘गाड़ी की स्पीड कम रखा करो. मुंबई का ट्रैफिक और तुम्हारी स्पीड… बहुत ध्यान रखना चाहिए.’’

‘‘मौम, आई लव स्पीड, मैं यंग हूं, तेजी से आगे बढ़ने में मुझे मजा आता है.’’

‘‘पर तुम मना करने के बाद भी पार्टीज में ड्रिंक करने लगी हो, मैं तुम्हें समझा कर थक चुकी हूं, ड्रिंक कर के ड्राइविंग करना कहां की समझदारी है? किसी दिन…’’

‘‘मौम, मैं भी थक गई हूं आप की बातें सुनतेसुनते, जब कुछ होगा, देखा जाएगा,’’ पैर पटकते हुए स्नेहा कार की चाबी उठा कर घर से निकल गई.

सविता सिर पकड़ कर बैठ गईं. बेटी की हरकतें देख वे बहुत तनाव में रहने लगी थीं. समझ नहीं आ रहा था बेटी को कैसे सही रास्ते पर लाएं.

एक दिन फिर स्नेहा ने किसी पार्टी में खूब शराब पी. अपने नए बौयफ्रैंड विक्की के साथ खूब डांस किया, फिर विक्की को उस के घर छोड़ने के लिए लड़खड़ाते हुए ड्राइविंग सीट पर बैठी तो विक्की ने पूछा, ‘‘तुम कार चला पाओगी या मैं चलाऊं?’’

‘‘डोंट वरी, मुझे आदत है,’’ स्नेहा नशे में डूबी गाड़ी भगाने लगी, न कोई चिंता, न कोई डर.

अचानक उस ने गाड़ी गलत दिशा में मोड़ ली और सामने से आती कार को भयंकर टक्कर मार दी. तेज चीखों के साथ दोनों कारें रुकीं. दूसरी कार में पति ड्राइविंग सीट पर था, पत्नी बराबर में और बच्चा पीछे. चोटें स्नेहा को भी लगी थीं. विक्की हकबकाया सा कार से नीचे उतरा. उस ने स्नेहा को सहारा दे कर उतारा. स्नेहा के सिर से खून बह रहा था. दोनों किसी तरह दूसरी कार के पास पहुंचे तो स्नेहा की चीख से वातावरण गूंज उठा. विक्की ने भी ध्यान से देखा तो तीनों खून से लथपथ थे. पुरुष शायद जीवित ही नहीं था.

विक्की चिल्लाया, ‘‘स्नेहा, शायद कोई नहीं बचा है. उफ, पुलिस केस हो जाएगा.’’

स्नेहा का सारा नशा उतर चुका था. रोने लगी, ‘‘विक्की, प्लीज, हैल्प मी, क्या करें?’’

‘‘सौरी स्नेहा, मैं कुछ नहीं कर पाऊंगा. प्लीज, कोशिश करना मेरा नाम ही न आए. मेरे डैड बहुत नाराज होंगे, सौरी, मैं जा रहा हूं.’’

‘‘क्या?’’ स्नेहा को जैसे तेज झटका लगा, ‘‘तुम रात में इस तरह मुझे छोड़ कर जा रहे हो?’’

विक्की बिना जवाब दिए एक ओर भागता चला गया. सुनसान रात में अकेली, घायल खड़ी स्नेहा को हमेशा की तरह एक ही नाम याद आया, राहुल. उस ने फौरन राहुत को फोन मिलाया. हमेशा की तरह राहुल कुछ ही देर में उस के पास था. स्नेहा राहुल को देखते ही जोरजोर से रो पड़ी. स्नेहा डरी हुई, घबराई हुई चुप ही नहीं हो रही थी.

राहुल ने उसे गले लगा कर तसल्ली दी, ‘‘मैं कुछ करता हूं, मैं हूं न, तुम पहले हौस्पिटल चलो, तुम्हें काफी चोट लगी है, लेकिन उस से पहले भी कुछ जरूरी फोन कर लूं,’’ कह उस ने अपने एक पुलिस इंस्पैक्टर दोस्त राजीव और एक डाक्टर दोस्त अनिल को फोन कर तुरंत आने के लिए कहा.

अनिल ने आकर उन 3 लोगों का मुआयना किया. तीनों की मृत्यु हो चुकी थी. सब सिर पकड़ कर बैठ गए. स्नेहा सदमें में थी. उस पर केस तो दर्ज हो ही चुका था. उसे काफी चोटें थीं तो पहले तो उसे ऐडमिट किया गया.

सरिता और विनय भी पहुंच चुके थे. स्नेहा मातापिता से नजरें ही नहीं मिला पा रही थी. कई दिन पुलिस, कोर्टकचहरी, मानसिक और शारीरिक तनाव से स्नेहा बिलकुल टूट चुकी थी. उस की जिंदगी जैसे एक पल में ही बदल गई थी. हर समय सोच में डूबी रहती. उस के लाइफस्टाइल के कारण 3 लोग असमय ही दुनिया से जा चुके थे. वह शर्मिंदगी और अपराधबोध की शिकार थी. 1-1 गलती याद कर, बारबार अपने मातापिता और राहुल से माफी मांग रही थी. राहुल और सविता ने ही उस का केस लड़ा. रातदिन एक कर दिया. भारी जुर्माने के साथ स्नेहा को थोड़ी आजादी की सांस लेने की आशा दिखाई दी. रातदिन मानसिक दबाव के कारण स्नेहा की तबीयत बहुत खराब हो गई. उसे हौस्पिटल में ऐडमिट किया गया. अभी तो ऐक्सिडैंट की चोटें भी ठीक नहीं हुई थीं. उस की जौब भी छूट चुकी थी. पार्टियों के सब संगीसाथी गायब थे. बस राहुल रातदिन साए की तरह साथ था. हौस्पिटल के बैड पर लेटेलेटे स्नेहा अपने बिखरे जीवन के बारे में सोचती रहती. कार में 3 मृत लोगों का खयाल उसे नींद में भी घबराहट से भर देता. कोर्टकचहरी से भले ही सविता और राहुल ने उसे जल्दी बचा लिया था पर अपने मन की अदालत से वह अपने गुनाहों से मुक्त नहीं हो पा रही थी.

विनय, सविता, राहुल और उस के मम्मीपापा अभय और नीता भी अपने स्नेह से उसे सामान्य जीवन की तरफ लाने की कोशिश कर रहे थे. अब उसे सहीगलत का, अच्छेबुरे रिश्तों का, भावनाओं का, अपने मातापिता के स्नेह का, राहुल की दोस्ती और प्यार का एहसास हो चुका था.

एक दिन जब विनय, सविता, अभय और नीता चारों उस के पास थे, बहुत सोचसमझ कर उस ने अचानक सविता से अपना फोन मांग कर राहुल को फोन किया और आने के लिए कहा.

हमेशा की तरह राहुल कुछ ही देर में उस के पास था. स्नेहा ने उठ कर बैठते हुए राहुल का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा, ‘‘इस बार तुम्हें किसी काम से नहीं, सब के सामने बस इतना कहने के लिए बुलाया है, आई एम सौरी फौर ऐवरीथिंग, आप सब मुझे माफ कर दें और राहुल, तुम कितने अच्छे हो,’’ कह कर रोतेरोते स्नेहा ने राहुल के गले में बांहें डाल दीं तो राहुल वहां उपस्थित चारों लोगों को देख कर पहले तो शरमा गया, फिर हंस कर स्नेहा को अपनी बांहों के सुरक्षित घेरे में ले कर अपने मातापिता, फिर विनय और सविता को देखा तो बहुत दिनों बाद सब के चेहरे पर एक मुसकान दिखाई दी, सब की आंखों में अपनी इच्छा पूरी होने की खुशी साफसाफ दिखाई दे रही थी. Family Story In Hindi

Family Story In Hindi: पानी पानी – आखिर समता क्यों गुमसुम रहने लगी?

Family Story In Hindi: अमित अपनी मां के साथ दिल्ली के पटेल नगर वाले मकान में था कि इतने में उस का फोन बजता है. सामने फोन पर प्राची है. अमित कुछ कह पाता, उस से पहले उस की भावभंगिमा बंद होने लगती  है. उस के हाथ कांपने लगते हैं. चेहरे का रंग पीला पड़ जाता है. वह घबरा कर अपनी मां की तरफ देख कर कहता है, ‘‘चिंकू कौन है मां? किस की बात कर रही हैं प्राची दी?’’

बेटे के चेहरे की उड़ी रंगत देख सुलक्षणा घबरा गई. बिस्तर से उठते हुए बेचैन हो कर वह बोली, ‘‘अरे, तेरा बेटा ही तो है चिंकू. और किसी चिंकू को तो मैं जानती नहीं. क्या हुआ, क्या कहा प्राची ने चिंकू के बारे में? कुछ तो बता.’’

‘‘मां, वह नहीं रहा. मेरा बच्चा चिंकू चला गया,’’ कह कर अमित बच्चों की तरह रोने लगा.

‘‘क्या हुआ उसे? ला मेरा फोन दे. शायद प्राची किसी और से बात करना चाह रही थी और तेरा नंबर मिल गया. मैं समता का नंबर लगा लेती हूं. बहू से ही पूछ लेती हूं इस फोन के बारे में. जरूर कुछ गड़बड़ हुई है. हो सकता है तुझ से सुनने में कुछ गलती हुई हो.’’ सुलक्षणा लगातार बोले जा रही थी. टेबल से अपना मोबाइल उठा कर उस ने अपनी बहू समता का नंबर मिला लिया. मोबाइल समता के जीजाजी ने उठाया. सुलक्षणा के कान जो नहीं सुनना चाह रहे थे वही सुनना पड़ा. सचमुच, अमित का 2 वर्षीय बेटा चिंकू इस दुनिया को छोड़ कर जा चुका था.

पिछले सप्ताह ही तो समता अपनी बहन प्राची के घर लखनऊ गई थी. शादी के बाद अमित की व्यस्तता के कारण वह प्राची के पास जा ही नहीं पाई थी. प्राची ही एक बार आ गई थी उस से मिलने. मातापिता तो थे नहीं, इसलिए दोनों बहनें ही एकदूसरे का सहारा थीं. कुछ दिनों पहले फोन पर प्राची ने समता से कहा था कि इस बार अपने बच्चों के स्कूल की छुट्टियों में वह कहीं नहीं जाएगी और समता को उस के पास आना ही पड़ेगा.

समता और चिंकू को लखनऊ छोड़ अमित कल ही दिल्ली वापस आया था. वह गुड़गांव में एक जरमन एमएनसी में मैनेजर के पद पर था. उसे कंपनी का मैनेजमैंट संभालना था, इसलिए वह लखनऊ रुक नहीं पाया और जल्द ही वापस दिल्ली आ गया. घर पहुंच कर उस ने जब समता को फोन किया था तो चिंकू ने समता के हाथ से मोबाइल छीन लिया था. उस की नन्हीं सी ‘एलो’ सुन कर रोमरोम खिल उठा था अमित का. प्यार से उसे ‘लव यू बेटा’ कह कर वह मुसकरा दिया था. चिंकू ने भी अपनी तोतली भाषा में ‘लब्बू पापा’ कह कर जवाब दे दिया था. आखिरी बार अमित ने तभी आवाज सुनी थी चिंकू की. और अब, वह कभी चिंकू की आवाज नहीं सुन पाएगा. कैसे हो गया यह सब.

दुख में डूबा अमित समता के पास जल्दी ही पहुंचना चाहता था. इसलिए उस ने बिना देरी किए फ्लाइट का टिकट बुक करवा लिया और लखनऊ के लिए रवाना हो गया.

अगले दिन ही वह समता को ले कर घर आ गया. उन के घर पहुंचते ही सुलक्षणा फूटफूट कर रोने लगी. अमित मां को कैसे सांत्वना देता, वह तो स्वयं ही टूट गया था. समता चुपचाप जा कर एक कोने में गुमसुम सी हो कर बैठ गई. उस की तो जैसे सोचनेसमझने की शक्ति ही चली गई थी. वह चंचल स्वभाव की थी. वह लोगों के साथ घुलनामिलना पसंद करती थी. लेकिन अब न जाने उस की दुनिया ही लुट गई हो.

धीरेधीरे पड़ोसी एकत्र होने लगे. चिंकू के इस तरह अचानक मौत के मुंह में जाने से सब बेहद दुखी थे.

‘‘कैसा लग रहा होगा समता को. खुद स्विमिंग की चैंपियन थी, अपने कालेज में… और बेटे की छोटी सी टंकी में डूब कर मौत,’’ समता की पुरानी सहेली वंदना दुखी स्वर में बोली.

‘‘बच्चे जब इकट्ठे होते हैं, मनमानी भी तो बहुत करने लगते हैं,’’ ठंडी आह भरते हुए सामने के मकान में रहने वाले मृदुल बोले.

‘‘हम लोग भी तो एकदूसरे में कभीकभी इतना खो जाते हैं कि बच्चों की सुध लेना ही भूल जाते हैं,’’ समता के पड़ोस में रहने वाली मनोविज्ञान की अध्यापिका, मृदुल को जवाब देने के अंदाज में बोल उठी.

‘‘असली बात तो यह है कि मौत के आगे आज तक किसी की नहीं चली. बाद में बस अफसोस ही तो कर सकते हैं. इस के सिवा कुछ नहीं,’’ एक बुजुर्ग महिला के कहने पर सभी कुछ देर के लिए मौन हो गए.

रिश्तेदारों को जब इस दुर्घटना के विषय में पता लगा तो वे प्राची से जानना चाह रहे थे कि आखिर यह सब हुआ कैसे? शोक में डूबी प्राची स्वयं को कुसूरवार समझ रही थी. न ही वह बच्चों को छत पर जाने देती और न ही यह दुर्घटना घटती. क्यों वह समता के साथ बातों में इतनी मशगूल हो गई कि छत पर खेल रहे बच्चों को झांक कर भी नहीं देखा. उस के बच्चे भी तो छोटे ही हैं. बेटी सौम्या 7 वर्ष की और बेटा सार्थक 5 वर्ष का. तभी तो वे समझ ही न पाए कि पानी की टंकी में गिरने के बाद चिंकू हाथपैर मार कर खेल नहीं रहा, बल्कि छटपटा रहा है. खेलखेल में ही क्या से क्या हो गया.

छत के फर्श पर रखी पानी की टंकी का ढक्कन खोल, प्राची के बच्चे उस में हाथ डाल कर मस्ती कर रहे थे. चिंकू ने भी उन की नकल करनी चाही, किंतु वह छोटा था और जब उचक कर उस ने पानी में दोनों हाथ डालने की कोशिश की तो उस का संतुलन बिगड़ गया और अपने को संभाल न पाने के कारण टंकी में ही गिर गया.

प्राची और समता के तब होश उड़ गए थे जब सौम्या ने नीचे आ कर कहा था, ‘‘चिंकू, बहुत देर से पानी में  है, आप निकालो बाहर’’, बेतहाशा दौड़ते हुए वे दोनों छत पर पहुंचीं. पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी. अपनी बहन समता के दुख में दुखी प्राची के पास आंसुओं के सिवा कुछ नहीं था.

पड़ोसी और रिश्तेदारों का अमित के घर आनाजाना लगातार जारी था. सब की नम आंखें हृदय का दुख व्यक्त कर पा रही थीं. मन को हलका करने के लिए एकदूसरे से बातें भी कर रहे थे वे. किंतु समता सब से दूर बैठी थी. जब कोई पास जा कर उस से बात करना शुरू करता तो वह अपना चेहरा दूसरी ओर मोड़ लेती. न आंखों में आंसू थे और न ही चेहरे पर कोई भाव. चिंकू का नाम सुनते ही वह कानों पर हाथ रख लेती और सब की बातों को अनसुना कर देती थी.

सब की यही राय थी कि समता को रोना चाहिए, ताकि उस का मन हलका हो पाए और वह भी सब के साथ अपना दुख साझा कर पाए, पर समता तो भावहीन चेहरा लिए एकटक शून्य में ताकती रहती थी.

समता की मानसिक स्थिति को देखते हुए अमित ने मनोचिकित्सक से सलाह ली. मनोचिकित्सक ने बताया कि ऐसे समय में कई बार व्यक्ति की चेतना दुख को स्वीकार नहीं करना चाहती, किंतु अवचेतन मन जानता है कि कुछ बुरा घट चुका है. सो, व्यक्ति का मस्तिष्क कुछ भी सोचना नहीं चाहता. समता के विषय में उस ने कहा कि यदि कुछ और दिनों तक उस की यही हालत रही तो उस के दिमाग के सोचनेसमझने की शक्ति हमेशा के लिए खत्म हो सकती है. चिकित्सक ने सलाह दी कि समता को चिंकू के कपड़े दिखा कर रुलाने का प्रयास करना चाहिए.

डाक्टर की सलाह अनुसार, अमित ने समता को चिंकू के कपड़े, खिलौने और फोटो दिखाए. चिंकू के विषय में जानबूझ कर बातें भी करने लगा वह. सुलक्षणा ने भी चिंकू की शैतानियों के किस्से समता को याद दिलाए और उन शैतानियों का नतीजा ही चिंकू की मौत का कारण बना, कह कर रुलाना भी चाहा पर समता पर किसी प्रकार का असर होता दिखाई नहीं दिया.

सुलक्षणा ने अमित को सलाह दी कि सब साथ में अपने गांव चलते हैं. वहां जा कर कुछ दिन इस वातावरण से दूर होने पर समता शायद सबकुछ नए सिरे से सोचने लगे और चिंकू की अनुपस्थिति खलने लगे उसे. संभव है फिर उस के मन का गुबार आंसुओं में निकल जाए. मां की बात मान अमित समता और सुलक्षणा के साथ कुछ दिनों के लिए गांव चला गया.

उत्तर प्रदेश के बाराबंकी के नजदीक ही गांव में उन का बड़ा सा पुश्तैनी मकान था. पास ही आम के बगीचे भी थे. उन सब की देखभाल रणजीत किया करता था. रणजीत बचपन से ही उन के परिवार के साथ जुड़ा हुआ था. यों तो उस की उम्र 40 वर्ष के ऊपर थी, पर परिवार के नाम पर पत्नी रज्जो और 4 वर्षीय इकलौटा बेटा सूरज ही थे. सूरज को उस ने पास के स्कूल में दाखिल करवा दिया था. विवाह के लगभग 20 वर्षों बाद सूरज का जन्म हुआ था. रज्जो और रणजीत चाहते थे कि उन की आंखों का तारा सूरज खूब पढ़ेलिखे और बड़ा हो कर कोई अच्छी नौकरी करे.

अमित का परिवार गांव आ रहा है, यह सुन कर रणजीत ने उन के आने की तैयारी शुरू कर दी. घर खूब साफसुथरा कर, बाजार जा कर जरूरी सामान ले आया. चिंकू के विषय में जान कर वह भी बेहद दुखी था.

गांव पहुंच कर अमित और सुलक्षणा का मन तो कुछ हलका हुआ, पर समता की भावशून्यता वहां भी कम न हुई. अमित उसे इधरउधर ले कर जाता. सुलक्षणा भी गांव की पुरानी बातें बता कर उस का ध्यान दूसरी ओर लगाने का प्रयास करती, पर समता तो जैसे जड़ हो गई थी. न वह ठीक से खातीपीती और न ही ज्यादा कुछ बोलती थी.

उस दिन अमित सुलक्षणा के साथ घर के नजदीक बने तालाब के किनारे टहल रहा था. समता घास पर चुपचाप बैठी थी. कुछ देर बाद पास के खाली मैदान पर बच्चे आ कर क्रिकेट खेलने लगे. उन के पास जो गेंद थी, वह प्लास्टिक की थी, इसलिए अमित ने समता को वहां से हटाना आवश्यक नहीं समझा.

बच्चे गेंद पर तेजी से बल्ला मार, उसे दूर फेंकने का प्रयास कर रहे थे, ताकि गेंद दूर तक जाए और उन्हें अधिक से अधिक रन बनाने का अवसर मिले. उन बच्चों की टोली में एक छोटा सा बच्चा हर बार फुरती से जा कर गेंद ले कर आ रहा था. छोटा होने के कारण बच्चों ने उसे बैंटिंग या बौलिंग न दे कर, फेंकी हुई गेंद वापस ला कर देने का काम सौंपा हुआ था.

इस बार एक बच्चे ने कुछ ज्यादा ही तेजी से बल्ला चला दिया और गेंद तीव्र गति से लुढ़कने लगी. छोटा बच्चा भागता हुआ गेंद को पकड़ने की कोशिश करता रहा, पर गेंद तो खूब तेजी से लुढ़कते हुए तालाब में गिर कर ही रुकी. प्लास्टिक की होने के कारण वह गेंद पानी पर तैरने लगी. गेंद तालाब से निकालने के लिए उस बच्चे ने जमीन पर पड़ी पेड़ की पतली सी टहनी उठाई और गेंद को टहनी से खिसका कर करीब लाने की कोशिश करने लगा. पेड़ की डंडी गेंद तक तो पहुंच रही थी, पर इतनी बड़ी नहीं थी कि गेंद को आगे की ओर धकेल पाए. इधर बच्चा कोशिश कर रहा था, उधर साथी ‘जल्दीजल्दी’ का शोर मचाए हुए थे. गेंद को तेजी से आगे की ओर धकेलने के लिए उस पर डंडी मारते हुए अचानक ही वह बच्चा तालाब में गिर गया.

इस से पहले कि वहां खेल रहे बच्चे कुछ समझ पाते, समता तेजी से दौड़ती हुई वहां पहुंची और तालाब में कूद पड़ी. बच्चे को झटके से पकड़ कर उस ने गोदी में उठा लिया. अमित और सुलक्षणा दूर से यह दृश्य देख रहे थे. अमित भी भागता हुआ वहां पहुंच गया और तालाब के किनारे बैठ कर बच्चे को अपनी गोद में ले लिया. बच्चे को शीघ्र ही उस ने अपने घुटने पर पेट के बल लिटा दिया, ताकि थोड़ा सा पानी भी अंदर गया हो तो बाहर निकल सके. तब तक सभी बच्चे चिल्लाते हुए वहां पहुंच गए. शोर सुन कर आसपास के घरों से भी लोग वहां इकट्ठे होने लगे.

तालाब से बाहर निकलते ही समता अमित के पास आई और उस बच्चे को सकुशल देख अपने गले लगा कर फूटफूट कर रोने लगी. तभी भीड़ को चीरता हुआ रणजीत वहां पहुंच गया. अपने बेटे सूरज को मौत के मुंह से निकला हुआ देख उस की जान में जान आई. गदगद हो कर वह समता से बोला, ‘‘आज आप ने नया जीवन दिया है मेरे बच्चे को. कितने सालों बाद संतान का मुंह देखा था. अगर आज इसे कुछ हो जाता तो… आप का एहसान तो मैं इस जीवन में कभी नहीं चुका पाऊंगा.’’

भावविभोर समता बाली, ‘‘एहसान कैसा, भैया? मुझे तो लग रहा है जैसे मैं ने अपने चिंकू को बचा लिया हो.’’ और सूरज को गले लगा कर समता फिर से रोने लगी.

घर वापस आते हुए सूरज का हाथ थामे वह उस से बातें कर रही थी. समता में आए इस परिवर्तन से अमित और सुलक्षणा बेहद खुश थे. कुछ दिन गांव में गुजारने के बाद वे तीनों वापस दिल्ली लौट आए.

घर वापस आ कर समता नया जीवन जीने को तैयार थी. अनजाने में ही उसे यह एहसास हो गया था कि जिंदगी में गम और खुशी दोनों को ही गले लगाना पड़ता है.

उस के अवचेतन मन ने उसे समझा ही दिया था कि सुख और दुख के तानेबाने को गूंथ कर ही जिंदगी की बुनाई होती है. Family Story In Hindi

Family Story In Hindi: याददाश्त – भूलने की आदत से क्यों छूटकारा नहीं मिलता

Family Story In Hindi: याददाश्त इतनी कमजोर नहीं थी कि घर भूल जाऊं. पत्नीबच्चों को भूल जाऊं. जैसा कि लोग कहते थे कि यदि भूलने की आदत है तो खानापीना, सोना, घनिष्ठ संबंध क्यों नहीं भूल जाते. अब मैं क्या करूं यदि रोजमर्रा की चीजें भी दिमाग से निकल जाती थीं. तो वहीं ऐसी बहुत सारी छोटीछोटी बातें हैं जो मैं नहीं भूलता था और ऐसी भी बहुत सी चीजें, बातें थीं जो मैं भूल जाता था और बहुत कोशिश करने के बाद भी याद नहीं आती थीं और याद करने की कोशिश में दिमाग लड़खड़ा जाता.

खुद पर गुस्सा भी आता. तलाश में घर का कोनाकोना छान मारता. समय नष्ट होता. खूब हलकान, परेशान होता और जब चीज मिलती तो ऐसी जगह मिलती कि लगता, अरे, यहां रखी थी. हां, यहीं तो रखी थी. पहले भी इस जगह तलाश लिया था, तब क्यों नजर नहीं आई? उफ, यह कैसी आदत है भूलने की. इसे जल्दबाजी कहें, लापरवाही कहें या क्या कहें? अभी इतनी भी उम्र नहीं हुई थी कि याद न रहे.

कल बाजार में एक व्यक्ति मिला, जिस ने गर्मजोशी से मुझ से मुलाकात की और वह पिछली बहुत सी बातें करता रहा और मैं यही सोचता रहा कि कौन है यह? मैं उस की हां में हां मिला कर खिसकने का बहाना ढूंढ़ रहा था. मैं यह भी नहीं कह पा रहा था, उस का अपनापन देख कर कि भई माफ करना मैं ने आप को पहचाना नहीं. हालांकि, इतना मैं समझ रहा था कि इधर पांचसात सालों में मेरी इस व्यक्ति से मुलाकात नहीं हुई थी. उस के जाने के बाद मुझे अपनी याददाश्त पर बहुत गुस्सा आया. मैं सोचता रहा, दिमाग पर जोर देता रहा कि आखिर कौन था यह? लेकिन दिमाग कुछ भी नहीं पकड़ पा रहा था.

घर से जब बाहर निकलता तो कुछ न कुछ लाना भूल जाता था. यह भी समझ में आता था कि कुछ भूल रहा हूं लेकिन  क्या? यह पकड़ में नहीं आता था. अब मैं कागज पर लिख कर ले जाने लगा था कि क्याक्या खरीदना है बाजार से. इस बार मैं तैयार हो कर घर से बाहर निकला और बाहर निकलते ही ध्यान आया कि चश्मा तो पहना ही नहीं है. घर के अंदर गया तो जहां चश्मा रखता था, वहां चश्मा नहीं था. तो कहां गया चश्मा?

इस चक्कर में पूरा घर छान मारा. पत्नी को परेशान कर दिया. उसे उलाहना देते हुए कहा, ‘‘मेरी चीजें जगह पर क्यों नहीं मिलतीं? यहीं तो रखता था चश्मा. कहां गया?’’

पत्नी भी मेरे साथ चश्मा तलाश करने लगी और कहने भी लगी गुस्से में, ‘‘खुद ही कहीं रख कर भूल गए होगे. याद करो, कहां रखा था?’’

‘‘वहीं रखा था जहां रखता हूं हमेशा.’’

‘‘तो कहां गया?’’

‘‘मुझे पता होता, तो तुम से क्यों पूछता?’’

फिर हमारी गरमागरम बहस के साथ   हम दोनों ही पूरा घर छानने लगे चश्मे की तलाश में. काफी देर तलाशते रहे. लेकिन चश्मा कहीं नहीं मिल रहा था. मैं याद करने की कोशिश भी कर रहा था कि मैं ने यदि चश्मे को उस के नियत स्थान से उठाया था तो फिर कहांकहां रख सकता था? जैसे कि मैं ने चश्मा उठाया. उस के कांच साफ किए. फिर गाड़ी की चाबी उठाई. इस बीच, मैं ने आईने के सामने जा कर कंघी की. फिर पानी पिया, फिर…

तो मैं सभी संभावित स्थानों पर गया. जैसे ड्रैसिंग टेबल के पास, फ्रिज के पास वगैरह. लेकिन चश्मा नहीं मिला. मैं समझ नहीं पा रहा था कि आखिर चश्मा गया कहां? उसे जमीन खा गई या आसमान निगल गया. याद क्यों नहीं आ रहा है?

चश्मे की आदत सी पड़ गई थी. न भी पहनूं तो जेब में रख लेता था बाजार जाते समय. जैसे घड़ी का पहनना होता था. मोबाइल रखना होता था. बहुत जरूरी न होते भी जरूरी होना. न रखने पर लगता था कि जैसे कुछ जरूरी सामान छूट गया हो. खालीखाली सा लगता. आदत की बात है.

चश्मा तलाश रहा हूं. पत्नी अपने काम में लगी हुई है. उस ने यह कह कर पल्ला झाड़ लिया कि नहीं मिल रहा तो परेशान मत हो. घर में होगा, मिल जाएगा. बिना चश्मे के बाजार जा सकते हो. मुझे उस की बात ठीक लगी. लेकिन दिमाग में यही चल रहा था कि आखिर चश्मा कहां रख कर भूल गया. तभी कोचिंग से बेटा घर आया. मेरा चेहरा देख कर समझ गया. उस ने पूछा, ‘‘क्या नहीं मिल रहा, अब?’’

उस की बात पर मुझे गुस्सा आ गया. ‘अब’ लगाने का क्या मतलब हुआ? यही कि मैं हमेशा कुछ न कुछ भूल जाता हूं. अकसर तो भूल जाता हूं, लेकिन हमेशा… यह तो हद हो गई. खुद तो कोचिंग के नाम पर व्यर्थ रुपया खर्च कर रहा है. कोचिंग ही जाना था तो स्कूल की क्या जरूरत थी? फैशन सा हो गया है आजकल कोचिंग जाना. कोचिंग जा कर छात्र साबित करते हैं कि वे बहुत पढ़ाकू हैं. दिनभर स्कूल, फिर कोचिंग. मैं इसे कमजोर दिमाग मानता हूं. जैसे पहले कमजोर को ट्यूशन दी जाती थी. लेकिन अब जमाना बदल गया है. कोचिंग जाने वालों को पढ़ाकू माना जाता है. मैं ने गुस्से से बेटे की तरफ देखते हुए कहा, ‘‘जा कर अपना काम करो.’’ बेटे तो फिर बेटे ही होते हैं. तुरंत मुंह घुमा कर अंदर चला गया और मैं बिना चश्मे के बाहर निकल गया.

किराना दुकानदार को सामान की लिस्ट दी. वह सामान निकालता रहा. मैं इधरउधर सड़कों पर नजर घुमाता रहा.

दुकानदार आधा सामान दुकान के बाहर रखे हुए हैं.

तंबाकू खाते हुए मुझे भी थूकने की इच्छा हुई. मैं ने काफी देर पीक को मुंह में रखा और नाली, सड़क का किनारा तलाशता रहा. अंत में मुझे भी सड़क पर ही थूकना पड़ा. दुकानदार ने बिल देते हुए कहा, ‘‘चैक कर लीजिए.’’

मैं ने कहा, ‘‘भाई, आज मैं अपना चश्मा लाना भूल गया.’’ उस ने मेरे चेहरे पर इस तरह दृष्टि डाली जैसे मैं ने शराब पी रखी हो. फिर कहा, ‘‘लगा तो है.’’ मेरा हाथ आंखों पर गया और… अरे, यह तो पहले से ही लगा हुआ था और मैं पूरे घर में तलाश रहा था. लेकिन मुझे समझ क्यों नहीं आया. शायद आदत पड़ जाने पर उस चीज का भार महसूस नहीं होता.

पत्नी तो खैर मेरे कहने पर ढूंढ़ने लगी थी. उसे विश्वास था कि नहीं मिल रहा होगा. लेकिन बेटे को तो पता होगा कि चश्मा लगाया हुआ है मैं ने. लेकिन मैं ने कहां बताया था गुस्से में कि चश्मा नहीं मिल रहा है. बताता तो शायद वह बता देता और इतनी मानसिक यंत्रणा न झेलनी पड़ती. न ही दुकानदार के सामने शर्मिंदा होना पड़ता. बच्चों से प्रेम से ही बात करनी चाहिए. वह पूछता. मैं बताता कि चश्मा नहीं मिल रहा है तो वह बता देता.

मांबाप की डांट या गुस्से में बात करने से बच्चे और चिढ़ जाते हैं. नए खून नए मस्तिष्क पर भरोसा करना सीखना चाहिए. उन के बाप ही न बने रहना चाहिए. मित्र भी बन जाना चाहिए जवान होते बच्चों के पिता को.

बेटे को पता तो चल ही गया होगा कि चश्मा तलाश रहा था मैं और अब तक उस ने अपनी मां को बता भी दिया होगा कि चश्मा पिताजी पहने हुए थे. दोनों मांबेटे हंस रहे होंगे मुझ पर. अब भविष्य में कोई चीज गुम होने पर शायद उतनी संजीदगी से तलाशने में मदद भी न करें.

मुझे खुद पर गुस्सा आ रहा था कि मुझे समझ में क्यों नहीं आया कि मैं चश्मा लगाए हुए था.

अब दिमाग इसी उधेड़बुन में लगा हुआ था कि नियत स्थान से चश्मा उठा कर मैं ने लगाया कब था? तैयार होने के बाद. गाड़ी की चाबी उठाने के बाद या पानी पीने के बाद या इस सब के पहले या उस से भी बहुत पहले. कहीं ऐसा तो नहीं कि सुबह समाचारपत्र पढ़ते समय.

यह भी संभव है कि रात में पहन कर ही सो गया था. दिमाग पर काफी जोर डालने के बाद भी पक्का नहीं कर पाया कि चश्मा लगाया कब था और मैं अभी भी उसी सोच में डूबा हुआ था. और यह सोच तब तक नहीं निकलने वाली थी जब तक कोई दूसरी चीज न मिलने पर उस की खोज में दिमाग न उलझे. Family Story In Hindi

Hindi Family Story: ख्वाहिशें

 Hindi Family Story, लेखक – मनोज शर्मा

जो मुझे ठीक लगता है वही ठीक है, वही सच है. जिंदगी मेरी है, मैं जैसे चाहे जियूं, किसी का क्या जाता है. फिर यह सब मुझे पिछली जिंदगी से बेहतर लगता है. यों घिसटघिसट कर जीने से तो अच्छा है कि सोसाइटी में कुछ बन कर जिया जाए.

कल तक कोई साथ नहीं था, आज चार लोग साथ हैं. हर आदमी को पैसे की भूख है और शायद यही सच है, क्योंकि पैसे के बिना कुछ नहीं, कुछ भी नहीं. एक दिन भी नहीं जिया जा सकता. हां सच में, एक दिन भी नहीं.

जसपाल ने सिगरेट के धुएं को हवा में फेंकते हुए गाड़ी का दरवाजा खोला और मुसकराते हुए कहा, ‘‘ओह, कम औन गौरी…’’

गौरी ने शरारतभरी नजरों से जसपाल को देखा और उस के बगल में बैठ गई. कार धुआं छोड़ते हुए आगे बढ़ने लगी. साइड मिरर में गौरी ने खुद को निहारा. वह लाल फूलों वाली साड़ी में आज काफी खूबसूरत दिख रही थी.

‘‘अच्छा गौरी, कल तो आ रही हो न?’’ जसपाल ने गौरी की आंखों में ?ांकते हुए पूछा.

‘‘वैसे, कल तुम कर क्या रही हो?’’ जसपाल ने हौर्न देते हुए उस से दोबारा पूछा.

‘‘कुछ खास नहीं. पर कल रितु के स्कूल जाना है… वह पैरेंट मीटिंग हैं न कल स्कूल में,’’ गौरी ने बालों के जूड़े को ठीक करते हुए जवाब दिया.

गौरी का पूरा जिस्म मीठी खुशबू से महक रहा था. जसपाल उसे मुसकराते हुए देखता रहा. गाड़ी स्पीड ब्रेकर पर थोड़ा उछली. जसपाल ने गियर बदलते हुए गाड़ी को दाईं ओर मोड़ दिया. गौरी का बदन हलका सा ठिठका.

सड़क पर अलसाई शाम की उदासी के बीच लोग दफ्तरों से घर लौट रहे थे. कुछ छोटी गाडि़यां, मोटरें और सड़क के किनारे पैदल चलते लोग.

इन पैदल चलने वाले लोगों की भी क्या जिंदगी है, जसपाल ने उन की तरफ देख कर तेज हौर्न दिया और भोंड़ी सी हंसी हंस कर उस ने गाड़ी को सड़क के किनारे पार्क किया.

जसपाल सिगरेट का पैकेट खरीदने के लिए बाहर निकला. दरवाजा बंद होते ही गाड़ी में अकेली गौरी मिरर में खुद को बड़े प्यार से देखती रही. उस ने महसूस किया कि आज वह सच में ही खूबसूरत दिख रही है. उस ने बाईं कलाई में बंधी घड़ी में समय देखा, साढ़े 8 हो चुके थे.

गौरी ने बंद गाड़ी के काले शीशों में से बाहर देखा. जसपाल सिगरेट की टपरी पर बतिया रहा था. गौरी उसे पीली रोशनी में बाहर देखती रही. उसे लगा कि असलियत में यही जिंदगी है. गाड़ी, बंगला और सभी सुखसुविधाएं. अब कोई दुखदर्द नहीं. न घर की चिंता, न खानेपीने की, बस मौज ही मौज. शायद यही जिंदगी है और यही सचाई है.

4 साल पहले तक जैसे नरक में जी रही थी गौरी. वह मुफलिसी भरी जिंदगी जहां दो रोटियां भी वक्त पर नसीब नहीं होती थीं. घर वालों ने नीरज में क्या देखा था मेरे लिए, जो उस के साथ मुझे ब्याह दिया था. जसपाल की काली आकृति शीशों में हिलडुल रही थी.

नीरज अपने साथ एक गरीब परिवार लिए था, जिस में उस की बूढ़ी मां और विधवा बहन थी, जो पुराने सिद्धांतों पर जीते थे. घर के नाम पर वह टूटाफूटा कोठरा था, जहां पेटभर खाना भी नसीब नहीं होता था. पहले मां मर गई और फिर खुद नीरज भी और बहन भी गौरी को ऐसे हालात में तनहा छोड़ कर भाग गई.

उस घर में गौरी के सारे सपने चकनाचूर होते गए. काश, नीरज से शादी न हुई होती तो…

गौरी ने फ्रंट मिरर की लाइट जला कर खुद को देखा और वह अपने कानों में पहनी बड़ीबड़ी बालियों को देखने लगी. हलकी पीली लाइट में बालियां चमक रही थीं.

रितु का जन्म न हुआ होता तो बात दूसरी ही होती. गौरी ने अपने नरम गालों पर उंगली फिराते हुए बाहर देखा. जसपाल वापस लौट रहा था. वह उसे ऐसे देख रही थी, जैसे जसपाल ही उस के लिए सबकुछ हो.

जसपाल ने दरवाजा खोला. उस की आंखों में मीठी चमक थी. गौरी हलका सा खिसक कर बाहर की ओर देखने लगी. स्ट्रीट लाइट की सड़क पर तेज चमक थी.

एक पियक्कड़ गाड़ी के पास से गुजरा. वह शीशे को बजाते हुए कुछ बोलता रहा.

जसपाल ने उसे गुस्से से देखा और गाड़ी दौड़ा दी. पियक्कड़ कुछ देर गाड़ी के पीछे भागता रह गया. गाड़ी चली गई. आसपास की सब चीजें और वह पियक्कड़, जो बाहर सड़क पर दिखाई दे रहा थे, पलभर में ही सब ओ?ाल होते गए.

जसपाल ने गौरी को गंभीरता से देखते हुए पूछा, ‘‘क्या हुआ गौरी, तुम इतनी चुप क्यों हो? कम औन डियर. यही जिंदगी है. बदलाव का नाम ही जिंदगी है. जिंदगी में तुम्हारी अगर कोई भी ख्वाहिश, हो तो मुझे बताओ.

‘‘मैं ने तुम्हें नीरज के चले जाने के बाद कहा था न कि तुम अगर अच्छी जिंदगी और ऐश चाहती हो, तो रहनसहन और खानपान में थोड़ा बदलाव करो और मेरा साथ दो. फिर देखो, असली जिंदगी जीने का मजा.’’

गौरी गंभीर थी. वह चुप ही रही.

‘‘अरे, तुम कहां फिर पुराने दिनों में चली जाती हो. अच्छा, सचसच बताओ कि यह जिंदगी बेहतर है या वह, जिसे तुम ने 4 साल पहले जिया है? आज तुम समाज में चाहे एक विधवा हो, पर क्या यह जिंदगी उस जिंदगी से ज्यादा मजेदार नहीं है? सफेद साड़ी में जिंदगी इतनी बड़ी और नीरस दिखाई देती. तुम तो जानती ही हो कि मेरा तो जिंदगी में एक ही उसूल है, ख्वाहिशों को पूरा करना सीखो, चाहे जिस भी रास्ते से, वरना जीना छोड़ दो.

‘‘आज तुम्हारे पास नौकरचाकर और रितु के लिए आया है. अपना बंगला है. न किराया देने की टैंशन.

‘‘तुम्हारी सारी परेशानियां अब मेरी हैं. फिर जवानी जीने की चीज है, यों ही रो कर गंवा देने की नहीं. जितनी ऐश अब है तुम्हारी, शायद ही इस की कल्पना भी तुम कर पाती. और सच बताऊं तो तुम्हारा साथ मुझे और हम सब को खूब भाता है. फिर कुदरत ने एक ही तो जिंदगी दी है, वह भी रोधो कर जीनी पड़े, तो उस का क्या फायदा. ऐसे जीने से तो मरना ही अच्छा. सच बताऊं तो अच्छा ही हुआ, जो नीरज…’’ जसपाल बोलतेबोलते चुप हो गया और गौरी के चेहरे को देखता रहा.

गौरी भी जसपाल की नशीली नीली आंखों को देखती रही. जसपाल पैसे वाला रईस है, जिस के लिए जिंदगी केवल और केवल ऐश करने के लिए है. यों तिलतिल कर खत्म करने के लिए नहीं. लंबा और गठीला बदन, आंखों पर काला चश्मा, सिगरेट का शौकीन.

नीरज एक वक्त जसपाल के कारखाने में काम करता था. 15-20 हजार रुपए की सैलरी थी उस की. इतने रुपए में क्या ऐश की जा सकती है, बस जी ही लिया जाए, वही काफी है.

गौरी ने नीरज के जीतेजी जसपाल को 2-3 बार ही देखा था. जसपाल तेजतर्रार और आकर्षक मर्द है, जिसे जीना आता है. उस की ही बदौलत आज गौरी के पास उसी की कंपनी में अच्छी नौकरी है, घर है और सच कहें तो ऐश ही ऐश है.

‘‘कहां जा रहे हो, घर नहीं चलना क्या? जानते हो, पौने 9 बज चुके हैं,’’ गौरी ने जसपाल को देखते हुए पूछा, ‘‘और फिर रितु को भी तो देखना है.’’

‘‘अरे, चली जाना. घर पर ही तो जाना है. बस आधा घंटा और… तुम्हें अपना नया बंगला दिखाना है,’’ जसपाल की आंखों में नशीली शरारत थी.

‘‘अरे, चलो भी तो. मैं हूं न तुम्हारे साथ. तुम तो ऐसे कर रही हो जैसे पहली बार जा रही हो,’’ और वह एक आंख बंद कर मुसकराने लगा.

जसपाल की गाड़ी भीनीभीनी महक से भरी थी. गौरी ने गाड़ी के भीतर के कमजोर अंधेरे में उस की नीली आंखों को देखा, जो बारबार उसे ही देख रही थीं. वह पलभर में उस के इशारे को सम?ा गई.

‘‘ओके, रितु की आया सावित्री को फोन लगाओ,’’ गौरी बोली.

जसपाल ने जेब से अपना मोबाइल निकाला और गौरी के घर पर नंबर मिलाया.

दूसरी ओर से आया सावित्री की आवाज आई, ‘हैलो..’

‘‘हां सावित्री, रितु ने खाना खाया या नहीं?’’ गौरी इस ओर से फोन पर

बोलने लगी.

‘हां मेमसाब, रितु बिटिया ने खाना खा लिया है. बस अभीअभी सोई है. क्या जगाऊं?’ सावित्री पूछने लगी.

‘‘नहींनहीं, कोई जरूरत नहीं… ऐसा करो, तुम भी कुछ खा कर अभी वहीं रुको. मैं अभी जसपाल साहब के साथ हूं, थोड़ा टाइम और लगेगा. और हां, अगर इस बीच रितु उठ जाए, तो बोलना कि मैं 10 बजे तक पहुंच जाऊंगी. तुम संभाल लेना प्लीज उसे.

‘‘अच्छा, मैं अभी बहुत बिजी हूं. फोन रखती हूं,’’ कह कर उस ने फोन कट कर दिया.

जसपाल कंधे उचका कर मुसकराने लगा. यह जसपाल के लिए कोई नई बात नहीं थी और अब शायद गौरी के लिए भी. अब उन्हें इस जिंदगी में ज्यादा मजा आता है.

‘‘कहो, खुश तो हो न गौरी?’’ जसपाल ने गौरी की कलाई को छूते हुए पूछा.

गौरी चुप रही, पर उस के होंठों पर नरम हंसी थी, जिस का मतलब जसपाल खूब समझता था. गाड़ी सड़क पर दौड़ती रही. जसपाल ने गाड़ी की स्पीड बढ़ाते हुए गौरी की ओर देखा और कहा, ‘‘चलो, तुम्हें आज एक और सरप्राइज देता हूं…’’

गौरी सरप्राइज की बात सुन कर मंदमंद मुसकराने लगी मानो उस की एक और ख्वाहिश आज पूरी होने वाली हो, क्योंकि जब भी जसपाल ने कोई सरप्राइज दिया, उसे जिंदगी में कोई न कोई नई सौगात ही मिली है.

फिर इस शरीर का क्या है, अगर इस के सहारे कुछ मिलता भी है, तो गलत ही क्या है. जिंदगी में ऐसे दिन फिर कहां… आज जवानी है तो सब मिल रहा है, कल जब शरीर ही काम का नहीं रहेगा, फिर कौन साथ होगा. न जसपाल और न दूसरे सब. ओ जसपाल कितने अच्छे हैं, सच में,आज गौरी नई कार पा कर बहुत खुश थी. यह शौर्टकट सच में उसे खूब भाने लगा था.

10 बजे गौरी अपनी नई गाड़ी में घर पहुंची. तेज ठंडी हवा में उस के उलझे बिखरे बाल कंधे की ओर ढुलक रहे थे. आज उस ने फिर से वाइन भी पी थी. वह दरवाजे पर पहुंची. उस ने अंगड़ाई लेते हुए सावित्री की तरफ देखा. सावित्री का पीला और उदास चेहरा गौरी को देखता रहा.

‘‘कहो सावित्री, कुछ कहना चाहती हो?’’

‘‘मेमसाब, कुछ पैसे चाहिए,’’ कहते हुए वह खामोश हो गई और घर के बाहर फैले सन्नाटे को देखने लगी.

सावित्री क्योंकि इस महीने की सैलरी ले चुकी थी, इसलिए उस की पैसे मांगने की हिम्मत नहीं हो रही थी.

‘‘सैलरी तो तुम ले चुकी हो न,’’ गौरी ने सावित्री की आंखों में ?ांकते

हुए कहा.

‘‘जी मेमसाब, मेरा मरद बहुत बीमार है. अब उस की नौकरी भी छूट गई है. केवल मैं ही थोड़ा गुजरबसर कर रही हूं,’’ उस की आवाज में गहरा दुख था.

‘‘अच्छा, कितने पैसे चाहिए?’’ गौरी ने सावित्री के कंधे पर हाथ रख कर पूछा.

‘‘बस, 1,000 रुपए दे दीजिए, मैं बहुत जल्दी आप को लौटा दूंगी. आप यकीन कीजिए, उन के इलाज के लिए चाहिए… और हां, मैं कल केवल शाम को ही आ सकूंगी. मुझे कल उन के ऐक्सरे करवाने हैं,’’ वह असहाय सी हो कर बोली.

‘‘ठीक है. अब तुम जाओ और ये लो 5,000 रुपए,’’ गौरी ने नोटों की एक गड्डी से कुछ नोट निकाल कर सावित्री की ओर बढ़ा दिए.

‘‘नहीं मेमसाब, 1,000 रुपए ही काफी हैं.’’

‘‘कोई बात नहीं, अभी तुम रख लो, तुम्हें जरूरत होगी,’’ गौरी सावित्री की रोती आंखों को देखती रही.

सावित्री कुछ देर रुकी, फिर वह नोट गिनते हुए वहां से लौट गई.

फोन की घंटी बजी. जसपाल था, ‘कहो डियर, पहुंच गई. ओ सौरी, मैं तो आज बिलकुल ही टूट गया था, पर यकीन करो मजा आ गया.

‘और हां, मेरा सरप्राइज कैसा लगा? गाड़ी को सही से पार्किंग में लगा दिया न? और हां, मैं ने उस का टैंक फुल करवा दिया है. तेल की कोई टैंशन न लेना तुम. कहो तो एक ड्राइवर रखवा दूं तुम्हारे लिए?

‘डियर, तुम यकीन करो, मैं तुम्हें खुश देखना चाहता हूं. अच्छा अभी कामिनी का फोन आ रहा है… रखता हूं,’ फोन कट हो गया था.

गौरी अकेले में सोचते हुए, ‘मैं कितनी खुशनसीब हूं. सबकुछ तो है मेरे पास. बस, एक पति ही तो नहीं. फिर ऐसे पति का मुझे करना ही क्या, जो न ढंग का खिला सके. बिना घर, बिना गाड़ी के भी क्या जिंदगी. आज नीरज नहीं भी है तो क्या हुआ, बाकी सबकुछ तो है मेरे पास…’ और वह अकेले में पागलों की तरह हंसने लगी.

‘मुझे लगता है कि हमें जिंदगी की प्राथमिकताओं को समझना चाहिए. जो हमारे लिए जरूरी है और जिस काम से हमें मजा मिलता है, संतुष्टि मिलती है, हकीकत में वही सच्ची जिंदगी है, बाकी सब बेकार है.

‘आज मैं बड़ी सोसाइटी में जी रही हूं. यह मेरी जिंदगी है, केवल मेरी. मैं जैसे चाहे जीयूं,’ उस ने सिगरेट जलाई और बालकनी में जा कर दूर अंधेरे में देखती रही, मानो अंधेरे में सब छिप जाता है. इच्छाएं, सपने और ख्वाहिशें भी.

‘आज जिंदगी में जो उजाला है, वह मेरी ही बदौलत है…’ उस ने लंबा कश खींचते हुए आसमान में झिलमिलाते तारों को देखा और सोचने लगी, ‘कितनी चमक है इन तारों में. जो दिखाई दे रहा है, वही चमक रहा है. वैसे तो आसमान में अनगिनत सितारे हैं, पर चमक उन्हीं की नजर आती है, जो चमकना चाहते हैं.

‘जिंदगी में शायद कुछ भी गलत नहीं, केवल सोच या नजरिया ही किसी भी चीज को गलत या सही ठहराता है. आज जो मेरी नजर में सही है, वह मेरे लिए सही है और अगर मैं दूसरों के नजरिए से जीने लगूं, तो सावित्री की तरह जीना होगा.

‘ये गरीब लोग गरीब नहीं, बल्कि पागल हैं, कमजोर हैं, जो जिंदगी की सचाई से कोसों दूर हैं. अगर मैं अपनी जिंदगी में इस तरह का बदलाव न करती, तो शायद मुझे भी सावित्री की तरह दरदर की ठोकरें ही खानी पड़तीं…’

‘‘1,000 रुपए के लिए, केवल 1,000 के लिए…’’ गौरी हंस रही थी और उस की जबान लड़खड़ा रही थी, ‘‘ये लोग अपनी सोच नहीं बदल सकते तो जिएं ऐसे ही नरक में…’’

धीरेधीरे आसपास के बंगलों की लाइट कम होने लगी थी. गौरी पार्किंग में खड़ी सफेद चमचमाती कार को देख कर मंदमंद मुसकरा रही थी, मानो उस की जिंदगी का कोई बड़ा सपना आज पूरा हो गया हो.

नींद गौरी की आंखों से कोसों दूर थी. वह कुछ देर आसमान के तारों को ताकती रही. अंदर कमरे में मखमली गद्दे पर रितु गहरी नींद में सोई हुई थी. गौरी उस के नरम गालों को चूमते हुए उस के पास लेट गई. Hindi Family Story

Hindi Family Story: नाक का प्रश्न – संगीता ने संदीप को कौन सा बहाना दिया?

Hindi Family Story: डाकिए से पत्र प्राप्त होते ही संगीता उसे पढ़ने लगी. पढ़तेपढ़ते उस के चेहरे का रंग उड़ गया. उस की भृकुटियां तन गईं.

पास ही बैठे संगीता के पति संदीप ने पूछा, ‘‘किस का पत्र है?’’

संगीता ने बुरा मुंह बनाते हुए उत्तर दिया, ‘‘तुम्हारे भाई, कपिल का.’’

‘‘क्या खबर है?’’

‘‘उस ने तुम्हारी नाक काट दी.’’

‘‘मेरी नाक काट दी?’’

‘‘हां.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘मतलब यह कि तुम्हारे भाई ने नए मौडल की नई कार खरीद ली है और उस ने तुम्हें पचमढ़ी चलने का निमंत्रण दिया है.’’

‘‘तो इस में मेरी नाक कैसे कट गई?’’

‘‘तो क्या बढ़ गई?’’ संगीता ने झुंझलाहट भरे स्वर में कहा.

संदीप ने शांत स्वर में उत्तर दिया, ‘‘इस में क्या शक है? घर में अब 2 कारें हो गईं.’’

‘‘तुम्हारी खटारा, पुरानी और कपिल की चमचमाती नई कार,’’ संगीता ने व्यंग्यात्मक स्वर में कहा.

संदीप ने पहले की तरह ही शांत स्वर में उत्तर दिया, ‘‘बिलकुल. दोनों जब साथसाथ दौड़ेंगी, तब लोग देखते रह जाएंगे.’’

‘‘तब भी तुम्हारी नाक नहीं कटेगी?’’ संगीता ने खीजभरे स्वर में पूछा.

‘‘क्यों कटेगी?’’ संदीप ने मासूमियत से कहा, ‘‘दोनों हैं तो एक ही घर की?’’

संगीता ने पत्र मेज पर फेंकते हुए रोष भरे स्वर में कहा, ‘‘तुम्हारी बुद्धि को हो क्या गया है?’’

संगीता के प्रश्न का उत्तर देने के बजाय संदीप अपने भाई का पत्र पढ़ने लगा. पढ़तेपढ़ते उस के चेहरे पर मुसकराहट खिल उठी. उधर संगीता की पेशानी पर बल पड़ गए.

पत्र पूरा पढ़ने के बाद संदीप चहका, ‘‘कपिल ने बहुत अच्छा प्रोग्राम बनाया है. बूआजी के यहां का विवाह निबटते ही दूल्हादुलहन के साथ सभी पचमढ़ी चलेंगे. मजा आ जाएगा. इन दिनों पचमढ़ी का शबाब निराला ही रहता है. 2 कारों में नहीं बने तो एक जीप और…’’

संगीता ने बात काटते हुए खिन्न स्वर में कहा, ‘‘मैं पचमढ़ी नहीं जाऊंगी. तुम भले ही जाना.’’

‘‘तुम क्यों नहीं जाओगी?’’ संदीप ने कुतूहल से पूछा.

‘‘सबकुछ जानते हुए भी…फुजूल में पूछ कर मेरा खून मत जलाओ,’’ संगीता ने रूखे स्वर में उत्तर दिया.

संदीप ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘तुम अपना खून मत जलाओ, उसे बढ़ाओ. चमचमाती कार में बैठ कर पचमढ़ी में घूमोगी तो खून बढ़ जाएगा.’’

‘‘मेरा खून ऐसे नहीं बढ़ेगा.’’

‘‘तो फिर कैसे बढ़ेगा?’’

‘‘अपनी खुद की नए मौडल की कार में बैठने पर ही मेरा खून…’’

‘‘वह कार क्या हमारी नहीं है?’’ संदीप ने बात काटते हुए पूछा.

संगीता ने खिन्न स्वर में उत्तर दिया, ‘‘तो तुम बढ़ाओ अपना खून.’’

‘‘हां, मैं तो बढ़ाऊंगा.’’

इसी तरह की नोकझोंक संगीता एवं संदीप में आएदिन होने लगी. संगीता नाक के प्रश्न का हवाला देती हुई आग्रह करने लगी, ‘‘अपनी खटारा कार बेच दो और कपिल की तरह चमचमाती नई कार ले लो.’’

संदीप अपनी आर्थिक स्थिति का रोना रोते हुए कहने लगा, ‘‘कहां से ले लूं? तुम्हें पता ही है…यह पुरानी कार ही हम ने कितनी कठिनाई से ली थी?’’

‘‘सब पता है, मगर अब कुछ भी कर के नहले पर दहला मार ही दो. कपिल की नाक काटे बिना मुझे चैन नहीं मिलेगा.’’

‘‘उस की ऊपर की आमदनी है. वह रोजरोज नईनई चीजें ले सकता है. फिलहाल हम उस की बराबरी नहीं कर सकते, बाद में देखेंगे.’’

‘‘बाद की बाद में देखेंगे. अभी तो उन की नाक काटो.’’

‘‘यह मुझ से नहीं होगा.’’

‘‘तो मैं बूआजी के यहां शादी में भी नहीं जाऊंगी.’’

‘‘पचमढ़ी भले ही मत जाना, बूआजी के यहां शादी में जाने में क्या हर्ज है?’’

‘‘किस नाक से जाऊं?’’

‘‘इसी नाक से जाओ.’’

‘‘कहा तो, कि यह तो कट गई. कपिल ने काट दी.’’

‘‘यह तुम्हारी फुजूल की बात है. मन को इस तरह छोटा मत करो. कपिल कोई गैर नहीं है, तुम्हारा सगा देवर है.’’

‘‘देवर है इसीलिए तो नाक कटी. दूसरा कोई नई कार खरीदता तो न कटती.’

‘‘तुम्हारी नाक भी सच में अजीब ही है. जब देखो, तब कट जाती है,’’ संदीप ने बुरा सा मुंह बनाते हुए कहा.

बूआजी की बिटिया के विवाह की तिथि ज्योंज्यों नजदीक आने लगी त्योंत्यों नई कार के लिए संगीता का ग्रह बढ़ने लगा. वह संदीप को सचेत करने लगी, ‘‘देखो, मैं नई कार के बिना सच में नहीं जाऊंगी बूआजी के यहां. मेरी बात को हंसी मत समझना.’’

ऐसी चेतावनी पर संदीप का पारा चढ़ जाता. वह झल्ला कर कहता, ‘‘नई कार को तुम ने बच्चों का खेल समझ रखा है क्या? पूरी रकम गांठ में होने पर भी कार हाथोंहाथ थोड़े ही मिलती है.’’

‘‘पता है मुझे.’

‘‘बस, फिर फुजूल की जिद मत करो.’’

‘‘अपनी नाक रखने के लिए जिद तो करूंगी.’’

‘‘मगर जरा सोचो तो, यह जिद कैसे पूरी होगी? सोचसमझ कर बोला करो, बच्चों की तरह नहीं.’’

‘‘यह बच्चों जैसी बात है?’’

‘‘और नहीं तो क्या है? कपिल ने नई कार ले ली. तो तुम भी नई कार के सपने देखने लगीं. कल वह हैलिकौप्टर ले लेगा तो तुम…’’

‘‘तब मैं भी हैलिकौप्टर की जिद करूंगी.’’

‘‘ऐसी जिद मुझ से पूरी नहीं होगी.’’

‘‘जो पूरी हो सकती है, उसे तो पूरी करो.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘मतलब यही कि नई कार नहीं तो उस की बुकिंग तो करा दो ताकि मैं नातेरिश्ते में मुंह दिखाने लायक हो जाऊं.’’

कपिल की तनी हुई भृकुटियां ढीली पड़ गईं. उस के चेहरे पर मुसकराहट खिल उठी. वह बोला, ‘‘तुम सच में अजीब औरत हो.’’

संगीता ने ठंडी सांस भरते हुए कहा, ‘‘हर पत्नी अजीब होती है. उस के पति की नाक ही उस की नाक होती है. इसीलिए पति की नाक पर आई आंच वह सहन नहीं कर पाती. उस की यही आकांक्षा रहती है कि उस के पति की नाक ऊंची रहे, ताकि वह भी सिर ऊंचा कर के चल सके. इस में उस का स्वार्थ नहीं होता. वह अपने पति की प्रतिष्ठा के लिए ही मरी जाती है. तुम पत्नी की इस मानसिकता को समझो.’’

संगीता के इस कथन से संदीप प्रभावित हुआ. इस कथन के व्यापक संदर्भों ने उसे सोचने पर विवश किया. उस के भीतर गुदगुदी सी उठने लगी. नाक के प्रश्न से जुड़ी पत्नी की यह मानसिकता उसे बड़ी मधुर लगी.

इसी के परिणामस्वरूप संदीप ने नई कार की बुकिंग कराने का निर्णय मन ही मन ले लिया. उस ने सोचा कि वह भले ही उक्त कार भविष्य में न खरीद पाए, किंतु अभी तो वह अपनी पत्नी का मन रखेगा

संगीता को संदीप के मन की थाह मिल न पाई थी. इसीलिए वह बूआजी की बिटिया के विवाह के संदर्भ में चिंतित हो उठी. कुल गिनेगिनाए दिन ही अब शेष रह गए थे. उस का मन वहां जाने को हो भी रहा था और नाक का खयाल कर जाने में शर्म सी महसूस हो रही थी.

बूआजी के यहां जाने के एक रोज पूर्व तक संदीप इस मामले में तटस्थ सा बने रहने का अभिनय करता रहा एवं संगीता की चुनौती की अनसुनी सी करता रहा. तब संगीता अपने हृदय के द्वंद्व को व्यक्त किए बिना न रह सकी. उस ने रोंआसे स्वर में संदीप से पूछा, ‘‘तुम्हें मेरी नाक की कोई चिंता नहीं है?’’

‘‘चिंता है, तभी तो तुम्हारी बात मान रहा हूं. तुम अपनी नाक ले कर यहां रहो. मैं बच्चों को अपनी पुरानी खटारा कार में ले कर चला जाऊंगा. वहां सभी से बहाना कर दूंगा कि संगीता अस्वस्थ है,’’ संदीप ने नकली सौजन्य से कहा.

‘‘तुम शादी के बाद पचमढ़ी भी जाओगे?’’ संगीता ने भर्राए स्वर में पूछा.

‘‘अवश्य जाऊंगा. बच्चों को अपने चाचा की नई कार में बैठाऊंगा. तुम नहीं जाना चाहतीं तो यहीं रुको और यहीं अपनी नाक संभालो.’’

संगीता भीतर ही भीतर घुटती रही. कुछ देर की चुप्पी के बाद उस ने विचलित स्वर में पूछा, ‘‘बूआजी बुरा तो नहीं मानेंगी?’

‘‘बुरा तो शायद मानेंगी? तुम उन की लाड़ली जो हो.’’

‘‘इसीलिए तो..?’’

संदीप ने संगीता के इस अंतर्द्वंद्व का मन ही मन आनंद लेते हुए जाहिर में संजीदगी से कहा, ‘‘तो तुम भी चली चलो?’’

‘‘कैसे चलूं? कपिल ने राह रोक दी है.’’

‘‘हमारी तरह नाक की चिंता छोड़ दो.’’

‘‘नाक की चिंता छोड़ने की सलाह देने लगे, मेरी बात रखने की सुध नहीं आई?’’

‘‘सुध तो आई, मगर सामर्थ्य नहीं है.’’

‘‘चलो, रहने दो. बुकिंग की सामर्थ्य तो थी? मगर तुम्हें मेरी नाक की चिंता हो तब न?’’

‘‘तुम्हारी नाक का तो मैं दीवाना हूं. इस सुघड़, सुडौल नाक के आकर्षण ने ही…’’

संगीता ने बात काटते हुए किंचित झल्लाहटभरे स्वर में कहा, ‘‘बस, बातें बनाना आता है तुम को. मेरी नाक की ऐसी ही परवा होती तो मेरी बात मान लेते.’’

‘‘मानने को तो अभी मान लूं. मगर गड्ढे में पैसे डालने का क्या अर्थ है? नई का खरीदना हमारे वश की बात नहीं है.’’

‘‘वे पैसे गड्ढे में न जाते. वे तो बढ़ते और मेरी नाक भी रह जाती.’

‘‘तुम्हारी इस खयाली नाक ने मेरी नाक में दम कर रखा है. यह जरा में कट जाती है, जरा में बढ़ जाती है.’

इस मजाक से कुपित हो कर संगीता ने रोषभरे स्वर में कहा, ‘‘भाड़ में जाने दो मेरी नाक को. तुम मजे से नातेरिश्ते में जाओ, पचमढ़ी में सैरसपाटे करो, मेरी जान जलाओ.’’

इतना कहतेकहते वह फूटफूट कर रो पड़ी. संदीप ने अपनी जेब में से नई कार की बुकिंग की परची निकाल कर संगीता की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘‘रोओ मत, यह लो.’’

संगीता ने रोतेरोते पूछा, ‘‘यह क्या है?’’

‘‘तुम्हारी नाक,’’ संदीप ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘हांहां, तुम्हारी नाक, देखो.’’

परची पर नजर पड़ते ही संगीता प्रसन्न हो गई. उस ने बड़ी मोहक दृष्टि से संदीप को निहारते हुए कहा, ‘‘तुम सच में बड़े वो हो.’’

‘‘कैसा हूं?’’ संदीप ने शरारती लहजे में पूछा.

‘‘हमें नहीं मालूम,’’ संगीता ने उस परची को अपने पर्स में रखते हुए उत्तर दिया. Hindi Family Story

Hindi Family Story: भ्रम – आखिर क्या वजह थी प्रभाकर के इनकार की

Hindi Family Story: ‘हां, मैं तुम से प्यार करता हूं, सुकेशी, इसीलिए तुम से विवाह नहीं कर सकता.’ मैं अपने बंगले की वाटिका में एकांत में बैठी डा. प्रभाकर की इस बात के मर्म को समझने का प्रयास कर रही थी, ‘वे मुझ से प्यार भी करते हैं और विवाह के प्रस्ताव को इनकार भी करते हैं.’

उन्होंने जिस दृढ़ता से ये शब्द कहे थे, उस के बाद उन के कमरे में बैठे रहने का मेरा साहस समाप्त हो चुका था. मैं कितनी मूर्ख हूं, उन के सामने भावना में बह कर इतना बड़ा प्रस्ताव रख दिया. हालांकि, वे मेरे इतने निकट आ चुके थे कि यह प्रस्ताव बड़ा होते हुए भी उतना बड़ा नहीं रह गया था.

गत वर्ष के सत्र में मैं उन की कक्षाओं में कई महीने तक सामान्य छात्रा की भांति ही रही थी, किंतु जब उन्होंने मेरी रुचियों को जाना तो…

कालेज के उद्यान में पहुंच कर जब वे विभिन्न फूलों को बीच से चीर कर उस की कायिक प्रक्रिया को बताते तो हम सब विस्मय से नर और मादा फूलों के अंतर को समझने का प्रयास करते.

वह शायद मेरी धृष्टता थी कि एक दिन प्रभाकरजी से उद्यान में ही प्रश्न कर दिया था कि क्या गोभी के फूल में भी नर व मादा का अंतर आंका जा सकता है?

उन्होंने उस बात को उस समय अनसुना कर दिया था, किंतु उसी दिन जब कृषि विद्यालय बंद हुआ तो उन्होंने मुझे गेट पर रोक लिया. मैं उन के पीछेपीछे अध्यापक कक्ष में चली गई थी. उन्होंने मुझे कुरसी पर बिठाते हुए प्रश्न किया था, ‘क्या तुम्हारे यहां गोभी के फूल उगाए जाते हैं?’

‘हां, हमारे बंगले के चारों ओर लंबीचौड़ी जमीन है. मेरे पिता उस के एक भाग में सब्जियां उगाते हैं. कुछ भाग में गोभी भी लगी है.’

‘तुम्हारे पिता क्या करते हैं?’

‘अधिवक्ता हैं, एडवोकेट.’

‘क्या उन्हें फूल, पौधे लगाने का शौक है?’

‘हमारे यहां फूलों के बहुत गमले हैं. एक माली है, जो सप्ताह में 2 दिन हमारी फुलवारी को देखने आता है.’

‘कहां है तुम्हारा बंगला?’

‘जौर्ज टाउन में, पीली कोठी हमारी ही है.’

‘मैं तुम्हारी बगिया देखने कभी आऊंगा.’

‘अवश्य आइए.’

उन्होंने स्वयं से मुझे रोका था. उन्होंने स्वयं ही मेरे घर आने की बात कही थी और दूसरे ही दिन आ भी गए थे. उन के आगमन के बाद ही तो मैं उन की विशिष्ट छात्रा बन गई थी.

मैं गत दिनों के संपूर्ण घटनाक्रम के बारे में सोचती चली जा रही थी. गतवर्ष गरमी की छुट्टियों में जब वे अपने गांव जाने लगे थे तो बातबात में बताया था कि उन के घर में खेती होती है. बड़े भाई खेती का काम देखते हैं.

उस के बाद तो वे बिना बुलाए मेरे घर आने लगे. क्या यह मेरे प्रति उन का आकर्षण नहीं था? मैं ने अपनी दृष्टि वाटिका के चारों ओर फेरी तो हर फूल और पौधे के विन्यास के पीछे डा. प्रभाकर के योगदान की झलक नजर आई. लौन में जो मखमली घास उगाई गई थी, वह प्रभाकरजी की मंत्रणा का ही फल था. उन्होंने जंगली घास को उखाड़ कर, नए बीज और उर्वरक के प्रयोग से बेरमूडा लगवाई. उन्होंने ही बैडमिंटन कोर्ट के चारों ओर कंबरलैंड टर्फ लगवाई.

प्रभाकरजी ने जब से रुचि लेनी शुरू की थी, हमारी बगिया में गंधराज गमक उठा, हरसिंगार झरने लगा, रजनीगंधा महकने लगी. यह सब उन के प्यार को दर्शाने के लिए क्या पर्याप्त नहीं था? हम अंगरेजी फूलों के बारे में अधिक नहीं जानते थे, स्वीट पी और एलाईसम की गंध से परिचय उन के द्वारा ही हुआ. केवल 8 महीने में प्रभाकरजी ने हमारे इस रूखेसूखे मैदान का हुलिया बदल कर रख दिया था.

मैं अपनी वाटिका के सौंदर्य के परिप्रेक्ष्य में डा. प्रभाकर को याद करते हुए उन के साथ बीते हुए उन क्षणों को भी याद करने लगी, जिन्होंने मेरे अंदर यह भाव जगा दिया था कि डा. प्रभाकर भी शायद अपने जीवन में मेरे साहचर्य की आकांक्षा रखते हैं. इधर, मैं तो उन के संपूर्ण व्यक्तित्व से प्रभावित हो गई थी.

मेरी टूटीफूटी कविताओं की प्रशंसा और कभीकभार रेखाचित्रों की अनुशंसा अथवा जलरंगों से निर्मित लैंडस्केप के प्रयास क्या सचमुच उन के हृदय को नहीं छू रहे थे. उन्होंने ही तो कहा था, ‘सुकेशी, तुम्हारी बहुआयामी प्रतिभा किसी न किसी रूप में यश के सोपानों को चढ़ते हुए शिखर पर पहुंचेगी.’

एक दिन बातोंबातों में मैं ने उन से यह भी बता दिया था कि मैं इस संपूर्ण बंगले की अकेली उत्तराधिकारी हूं, फिर भी मेरे प्रस्ताव को उन्होंने ठुकरा दिया? क्या मैं कुरूप हूं? लेकिन ऐसा तो कुछ नहीं.

उन के एक कमरे के फ्लैट में मैं कई बार गई थी. उन्होंने अनेक फूलों की एक मिश्रित वाटिका की पेंटिंग अपने प्रवेशद्वार पर ही लगा रखी थी, जो कि उन्हीं की बनाई हुई थी. यह बात उन्होंने जानबूझ कर मुझे बताई थी. आखिर इस बात का क्या अभिप्राय था? मेरी वाहवाह पर मुसकराए थे और मेरी परख की प्रशंसा में उन्होंने मेरे मस्तक पर एक चुंबन दिया था. और मैं बाहर से अंदर तक झंकृत हो उठी थी.

उस दिन एकांत के क्षणों में जो प्रस्ताव मैं ने उन के सामने रख दिया था, शायद उस चुंबन द्वारा ही प्रेरित था. उन्हें मेरा प्रस्ताव अस्वीकृत नहीं करना चाहिए था. किंतु उन्होंने तो मुझ से आंखें बचा कर कहा, ‘मैं तुम से प्यार करता हूं, इसीलिए तुम से विवाह नहीं कर सकता.’

मुझे प्रभाकरजी की बात से एक झटका सा लगा था. मैं ने कृषि विद्यालय जाना छोड़ दिया था और अंदर ही अंदर मुरझाने लगी थी.

सप्ताह में एक बार अवश्य ही आने वाले प्रभाकरजी जब 16 दिनों तक नहीं आए तो मैं बीते दिनों की संपूर्ण घटनाओं का निरूपण करने के बाद सोचने लगी, ‘मुझ से कौन सी भूल हुई? प्रभाकरजी नाराज हो गए क्या… लेकिन क्यों?’

आज ठीक 16 दिनों बाद अचानक संध्या समय प्रभाकरजी पधारे. मैं बाहर के कमरे में अकेले ही बैठी थी. मैं ने तिरछी दृष्टि से उन्हें देखा और एक मुसकान बिखेर कर स्वागत किया.

‘‘क्या बिलकुल अकेली हो?’’ उन्होंने गंभीर स्वर में पूछा.

‘‘हां.’’

‘‘बाबूजी?’’

‘‘वे अभी कोर्ट से नहीं आए, शायद किसी के यहां रुक गए हैं.’’

‘‘और अम्माजी?’’

‘‘वे पड़ोस में गई हैं. आप कहां रहे इतने दिन?’’

‘‘मैं तो मात्र एक सप्ताह के लिए अपने गांव गया था. तुम ने विद्यालय जाना क्यों छोड़ दिया? पिछले सोमवार से तुम मुझे अपनी क्लास में दिखाई नहीं दीं. तुम्हारी सहेली सुरभि से पूछने पर ज्ञात हुआ कि तुम कई दिनों से विद्यालय नहीं जा रही हो, शायद जब से मैं छुट्टी पर गया?’’

लेकिन मैं ने कोई जवाब नहीं दिया.

‘‘बोलो, चुप क्यों हो?’’ वे हौले से बोले.

‘‘सच बताऊं? मैं तो दर से मुरझा गई हूं. कोई उल्लास ही नहीं रह गया. आप ने उस दिन इतना रूखा उत्तर दिया कि…’’

‘‘रूखा उत्तर नहीं, गुरु और शिष्य के बीच जो संबंध होने चाहिए, वही यदि रहें तो…’’

‘‘आप इतने दकियानूसी हैं. आज के युग में…’’

‘‘दुनिया में जाने क्याक्या होता है, किंतु मैं जिसे जीवन की सफलता की ऊंचाइयों पर देखना चाहता हूं, उसे धोखा नहीं दे सकता.’’

‘‘धोखा, कैसा धोखा?’’

‘‘तुम शायद अभी तक भ्रम में थीं कि मैं कुंआरा हूं, लेकिन मैं विवाहित हूं. मेरे 2 बच्चे हैं. अभी दूसरे बच्चे के जन्म पर ही गांव गया था.’’

यह बात सुन कर मेरी गरदन झुक गई. किंतु साहस बटोर कर प्रश्न कर बैठी, ‘‘यह कोई गढ़ी हुई कहानी तो नहीं? आप इतना अच्छा वेतन पाते हैं. यदि विवाहित हैं तो परिवार को अपने साथ क्यों नहीं रखते?’’

प्रभाकरजी मुसकराते हुए बोले, ‘‘मैं अपने गांव से उखड़ कर शहर में रहना नहीं चाहता. यहां छोटा सा फ्लैट है, जो मेरे लिए पर्याप्त है. पौधों के शौक मैं जिस विपुलता से अपने गांव में पूरा कर लेता हूं, यहां 5 हजार रुपए मासिक पर भी वैसी जमीन नहीं मिल सकती.’’

उन के इस उत्तर के बाद कुछ देर को सन्नाटा छा गया. मैं समझ ही न सकी कि अब क्या बोलूं.

प्रभाकरजी कुछ समय तक मेरी मुखमुद्रा को पढ़ते रहे, फिर बोले, ‘‘मेरे गांव का विकास हो गया है-नहर आ गई है, अस्पताल है, समाज कल्याण कार्यालय है, बच्चों को इंटर तक पढ़ाने के लिए कालेज है. एक पक्की सड़क है. मैं अपने घरपरिवार को गांव से उखाड़ कर शहर में रोपना नहीं चाहता.’’

यह सब सुन कर मैं थोड़ी देर को चुप हो गई, किंतु फिर धीरे से बोली, ‘‘आप ने जिस अनौपचारिक रूप से मेरे घर आना शुरू कर दिया था, मैं ने उसे आप का आकर्षण मान लिया था.’’

मेरी बात सुन कर प्रभाकरजी ने कहा, ‘‘हां, मैं यह भूल गया था कि तुम ऐसा भी सोच सकती हो. दरअसल, तुम्हारे यहां निरंतर आने का कारण तो तुम्हारे बंगले से जुड़ा हुआ यह मैदान है, जो अब एक सुंदर वाटिका में बदल गया है. यहां मैं अपनी योजनाओं का प्रैक्टिकल प्रयोग कर सकता था. मैं ने तो सोचा भी नहीं था कि एक दिन तुम विवाह का प्रस्ताव भी…’’

मैं एक बार फिर चुप हो गई. पूर्व इस के कि मैं फिर कोई प्रश्न करती, प्रभाकरजी वहां से अचानक लौट पड़े.

प्रभाकर के मस्तिष्क में सुकेशी के प्रस्ताव की बात घुमड़ती रही और उन्हें अपने उस चुंबन की बात याद आई, जो उन्होंने सुकेशी के मस्तक पर दिया था. शायद उस चुंबन ने ही प्रेरित कर दिया था कि वह ऐसा प्रस्ताव रख गई थी. उसे पता नहीं, मस्तक के चुंबनों में और कपोलों अथवा होंठों के चुंबन में क्या अंतर होता है. काश, वह भारतीय परंपराओं से अवगत होती. Hindi Family Story

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