Family Story : ये चार दीवारें – अभिलाषा और वर्षा क्यों दुखी थी?

Family Story : कोरोना वायरस ने सभी की जिंदगियों को कितना बदल दिया है. अभी तीन दिन पहले ही तो बर्षा और अभिलाषा कालेज के कैम्पस में मदमस्त घूम रहीं थीं और आज अपने रूम में बंद मुंह बनाएं अपनेअपने फोन में लगी हुई हैं. दोनों दिल्ली विश्वविद्यालय के नामी कालेज में पढ़ती हैं. अभिलाषा लाइफ साइंसेस के छठे सेमेस्टर में है तो बर्षा बीबीए के चौथे सेमेस्टर में. दोनों के इंटर्वल्स चल रहे थे और जल्द ही एनुअल एग्जाम भी होने वाले थे कि कोरोना वायरस के चलते पहले कालेज 31 मार्च तक बंद हुआ और फिर देशभर में लौकडाउन की घोषणा हो गई. लौकडाउन के चलते वे दोनों अपने पीजी में बंद हैं. अभिलाषा इस पीजी में पहले से रह रही थी और सेमेस्टर की शुरुआत में ही बर्षा इस में शिफ्ट हुई थी.

बर्षा और अभिलाषा एकसाथ रहती तो थीं पर दोस्त नहीं थीं, होती भी कैसे, दोस्ती करने का समय था किस के पास.

बर्षा मदमस्त लड़की थी लेकिन कालेज में कोई खास दोस्त नहीं था उस का. नासिक की रहने वाली बर्षा 3 साल से पार्थ के साथ रिलेशनशिप में थी. पार्थ नासिक में ही था और बर्षा यहां दिल्ली में. बर्षा के लिए दोस्ती का मतलब था पार्थ, प्यार का मतलब था पार्थ और परिवार का मतलब भी था तो सिर्फ पार्थ. बर्षा का परिवार रसूखदार था. नौकरीपरस्त मातापिता उस की जरूरतों को तो समझते थे पर उस के मन को कभी नहीं समझ पाए. छोटी बहन से उसे प्यार तो बहुत था लेकिन उम्र में 4 साल छोटी बहन उसे समझती भी तो कैसे. सो, वह बड़ी भी कुछ इसी तरह हुई कि अपने मन की बातें अपने मन में ही रखती थी.

वहीं, अभिलाषा सोनीपत की रहने वाली थी. बचपन से हमेशा परिवार की लाड़ली. दोनों भाई उस से बेहद प्यार करते थे और मम्मीपापा की तो जान थी वह. यहां कालेज में भी उस के कई दोस्त थे. हमेशा दोस्तों से घिरी अभिलाषा के लिए शांत पर हमेशा चिड़चिड़ी बर्षा को झेलना मुश्किल हो जाता था. उस ने बर्षा के इस रूम में शिफ्ट होने पर उस की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया था, वह उस से कालेज के बाद हैंगआउट करने के लिए भी पूछती थी लेकिन बर्षा कभी पार्थ के साथ फोन पर बात कर रही होती तो कभी चैटिंग. एक बार जब अभिलाषा ने बर्षा से उस की क्लासमेट से नोट्स लाने के लिए कहा था तो बर्षा ने यह कह कर टाल दिया था कि पार्थ दिल्ली आ रहा है और वह उस से मिलने स्टेशन जा रही है. अभिलाषा ने उसे कहा भी कि नोट्स लेने में उसे 5 मिनट से ज्यादा वक्त नहीं लगेगा लेकिन बर्षा नहीं मानी और कालेज से बिना नोट्स लिए ही निकल गई.

उस दिन से ही ऐसी कितनी ही छोटी बड़ी चीजें थीं जिन पर दोनों झगड़ती रहतीं. कभी अभिलाषा के दोस्तों की पीजी पार्टियों से बर्षा परेशान हो जाती तो कभी बर्षा के गंदे पड़े कपड़ों को अपनी कुर्सी पर देख अभिलाषा बिफर पड़ती. एक बार अभिलाषा को जब बहुत भूख लगी थी तो उस ने लंच में आए बर्षा के टिफिन से आलू का परांठा खा लिया था. बर्षा जब कालेज से लंच के लिए लौटी तो खाली टिफिन देख कर उस का मूड खराब हो गया.

‘तुम ने मेरा लंच खाया है?’ बर्षा ने गुस्से से अभिलाषा से पूछा.

‘हां, मुझे भूख लगी थी. तू मुझ से पैसे ले कर कैंटीन से कुछ खा ले,’ अभिलाषा बोली.

‘यार, क्या बदतमीजी है ये. एक कौल कर देती तो मैं कुछ खा लेती वहीं पर. 25 मिनट तक चलते हुए तो नहीं आना पड़ता न मुझे, वो भी इस खाली डब्बे के लिए,’ बर्षा चिल्लाने लगी.

अभिलाषा की आवाज भी अब तेज हो गई. ‘मुझ पर चिल्लाने की जरूरत नहीं है. भूख लगी थी खा लिया और कौल करना भूल गई, सौरी. पर मुझ पर आज के बाद चिल्लाने की कोशिश भी मत करियो. छोटी है, छोटी बन कर रह.’

‘स्टौप टौकिंग, मेरा अभी तुम्हारी शक्ल देखने का भी मन नहीं है.’

‘मैं तो मरी जा रही हूं जैसे तेरी शक्ल देखने के लिए. जा यहां से,’ अभिलाषा अपनी चप्पल पहन बालकनी में जा कर खड़ी हो गई थी.

बर्षा और अभिलाषा हर दिन किसी न किसी बात पर लड़ती थीं. उन दोनों के लिए खुशी की बात यही थी कि वे जबजब लड़तीं तो दोनों में से कोई एक कमरे से बाहर निकल जाया करती थी. बर्षा को अपने कमरे में ही रहना पसंद होता था तो ज्यादातर अभिलाषा ही अपनी किसी दोस्त के पीजी चली जाती थी और कभीकभी वहीं नाइट स्टे करती.

अभिलाषा और बर्षा का पीजी कालेज से 25 मिनट की दूरी पर था. उन के पीजी के पास उन के किसी क्लासमेट या फ्रैंड का पीजी नहीं था. उन के पीजी वाली गली संकरी थी लेकिन आसपास के घरों की ऊंचाई ज्यादा नहीं थी. रात में जब बालकनी में बर्षा खड़ी होती तो उसे खुला आसमान नजर आता था. तारे टिमटिमाते तो उन्हें देख वह खुश हो जाया करती थी, अपने फोन से एक पिक्चर क्लिक करती और पार्थ को भेजा करती. कितनी खुशी मिलती थी उसे पार्थ को अपने हर पल से जोड़ते हुए. जबजब उस से लड़ाई करती तो इतनी उदास हो जाया करती कि अभिलाषा से लड़ना भी उसे व्यर्थ लगता.

अभिलाषा को बर्षा की जिंदगी से कोई मतलब नहीं था, वह उसे उदास देख कर एक पल को कुछ पूछने के बारे में सोचती भी तो दूसरे ही पल उसे बर्षा से अपनी लड़ाइयां याद आ जातीं और वह चुप अपनी किताबों में घुस जाती. लड़ाइयों से अभिलाषा को सब से ज्यादा वह दिन याद आता जब बर्षा ने किचन में आ उस की मैगी के पैन में पानी डाल दिया था और अभिलाषा का खून खौल गया था. हुआ यह था कि अभिलाषा किचन में मैगी बना रही थी और रूम में रखा उस का फोन बज उठा.

अपना फोन उठाने की जल्दी में अभिलाशा किचन से मैगी हिलाने वाला चमचा हाथ में पकड़ तेजी से निकली और गलती से कुर्सी पर सूख रहे बर्षा के कपड़ों पर उस ने चमचा लगा दिया. बर्षा नहा कर बाहर आई तो उस ने देखा उस के टौप पर पीला निशान पड़ा हुआ है. उसे लगा कि अभिलाषा ने यह जानबूझ कर किया क्योंकि उसे पता था आज बर्षा को क्लास में प्रेसेंटेशन देनी है.

बर्षा गुस्से से लाल होती हुई किचन की तरफ बड़ी और बोतल खोल कर जितना पानी उस में था उस ने अभिलाषा की मैगी में उड़ेल दिया. अभिलाषा को भूख बिलकुल बर्दाश्त नहीं थी. सो, बर्षा से लड़ाई और चिल्लमचिल्ली के बाद भी उसे पानी वाली बेस्वाद मैगी खानी पड़ी थी. यह वाक्य उसे जब भी याद आता वह गुस्से से भर जाती थी और उस का मन होता कि बर्षा को खींच कर तमाचा मार दे. वैसे, एक बार जब बर्षा सोतेसोते पलंग के बिलकुल किनारे सरक आई थी तो उसे सरकाने या गिरने से बचाने के बजाय अभिलाषा फोन का विडियो रिकौर्डर खोल कर बैठ गई थी और उस ने बर्षा के गिरने की विडियो बनाई भी थी और अपने दोस्तों में खूब वायरल भी की थी.

अब जब से लौकडाउन हुआ है तब से दोनों इस बात से कम कि बाहर नहीं जा सकते, इस बात से ज्यादा परेशान हैं कि अगले 21 दिन उन्हें एक साथ, एक ही कमरे में काटने हैं. दोनों का लंच और डिनर का खाना भी आना बंद हो गया था, कुछ और्डर वे कर नहीं सकती थीं तो एक ही उपाय था कि दोनों खाना बना कर खाएं. खाना बनाने, बर्तन धोने, झाडू पोंछा करने आदि को ले कर दोनों सुबह शाम लड़ती रहती थीं. अभिलाषा अपनी मम्मी से फोन पर हर दिन बात कर उन्हें हर पल की खबर देती. दूसरी तरफ बर्षा की पार्थ से लड़ाई होती रहती. अभिलाषा ने बर्षा को अभी कल ही फोन पर चिल्लाते सुना था, ‘नहीं करनी मुझे तुम से बात अब, जाओ उस मालविका से ही बातें करो, मुझ से करने की जरूरत नहीं है.’

अब कोरोना वायरस के चलते वे दोनों कहीं आजा नहीं सकतीं, दोनों ही परेशान हैं. दोनों के अकाउंट में पैसे हैं तो दोनों को कुछ खास चिंता नहीं लेकिन घुटन तो उन्हें भी महसूस हो रही है इस चार दीवारी में. आज सुबह से ही बर्षा का मूड कुछ ठीक नहीं यह अभिलाषा को महसूस तो हुआ लेकिन वह उस से कुछ पूछनाजानना नहीं चाहती.

अभिलाषा ‘लव इन द टाइम औफ कोलेरा’ किताब पढ़ रही थी जब उसे बर्षा के रोने की आवाज आई. बर्षा अपने बेड पर थी जो अभिलाषा के बेड से चार कदम दूर ही था. बर्षा का चेहरा चादर से ढका हुआ था तो अभिलाषा को बस उस की आवाज सुनाई दे रही थी. वह बारबार फरमीना और फ्लोरेंटिनो के रोमांस पर फोकस करती और बारबार बर्षा की आवाज उस के ध्यान में बाधा डालती.

‘‘सुन,’’ अभिलाषा ने कहा.

बर्षा ने अभिलाषा की आवाज सुन कर भी उसे अनसुना कर दिया तो अभिलाषा ने फिर आवाज लगाई, ‘‘ओए बर्षा, सुन.’’

‘‘हूं,’’ बर्षा ने जवाब में कहा.

‘‘थोड़ा धीरे रो, मुझे बुक पढ़ने में डिस्टर्बेंस हो रही है,’’ अभिलाषा कहने लगी.

‘‘तुम कितनी हार्टलेस हो, कितनी बुरी हो. तुम्हें दिख रखा है मैं रो रही हूं पर तुम्हें फर्क नहीं पड़ रहा न. तुम्हारा ब्रेकअप होता तो क्या तब भी तुम यही कहती,’’ बर्षा सुबकते हुए कहने लगी.

‘‘मेरा ब्रेकअप होता तो मैं ब्रेकअप पार्टी देती. वैसे भी लड़के इस लायक होते भी नहीं कि उन के लिए आंसू बहाए जाएं, कोई समझदार लड़की उन पर आंसू नहीं बहाती. हां, तू समझदार भी तो नहीं है तो तुझ से ऐसी उम्मीद भी नहीं लगा सकते.’’

‘‘प्लीज, मुझ से बात करने की कोई जरूरत नहीं है,’’ बर्षा अब भी सुबक रही थी.

‘‘हां, जैसे मैं तो मरी जा रही हूं,’’ अभिलाषा ने मुंह बनाते हुए कहा.

बर्षा अपने बेड से उठी और बाथरूम में जा कर शावर के नीचे बैठ रोने लगी. बर्षा और पार्थ का ब्रेकअप हो गया था. पार्थ से बर्षा बेहद प्यार करती थी लेकिन जब से उसे यह पता चला था कि मालविका के पार्थ को प्रोपोज करने के बाद भी वह उस से दोस्ती बनाए हुए है तो बर्षा का शक पार्थ पर गहराता जा रहा था. इस शक और बर्षा की इन्सेक्योरिटी के चलते ही पार्थ ने बर्षा से ब्रेकअप कर लिया था. बर्षा बाथरूम में बैठ कर दिल खोल कर रो रही थी, उस के आंसू पानी की बौछार के साथ मिलते हुए नाली में बह रहे थे और हर एक आंसू के साथ उसे ऐसा लगता मानो उस के दिल के छोटेछोटे टुकड़े भी बह रहे हैं और उस के सीने से दर्द हलका होता जा रहा है.

अभिलाषा बाहर अपने पलंग पर बैठी बर्षा के रोने की आवाज सुन रही थी. तभी अभिलाषा बाहर से जोर से चिल्लाई, ‘‘पानी कम खर्च कर, न्यूज नहीं सुनती क्या, पानी की बचत कर. ऐसे ही हमारा देश कोरोना के बाद पानी की किल्लत से ही जूझने वाला है. कम पानी बहा.’’ बर्षा अपने आंसुओं के साथसाथ अभिलाषा के तानों का घूंट भी पी गई.

शाम के 7 बज रहे थे जब बर्षा अपने बेड पर आंखें बंद किए लेटी थी. बर्षा अपने और पार्थ के हर उस पल के बारे में सोच रही थी जिन में उसे महसूस होता था कि वे दोनों एकदूजे के लिए ही बने हैं और उन के बीच कभी कोई नहीं आ सकता. अचानक अभिलाषा का फोन बजा तो बर्षा की तंद्रा भंग हुई.

‘‘हां पापा, बोलिए क्या हुआ,’’ अभिलाषा फोन पर बोली. ‘‘क्या…..,’’ अभिलाषा लगभग चीख पड़ी.

अभिलाषा की आवाज सुन कर बर्षा चादर हटा अपने बेड पर बैठ गई. उस की नजरें अभिलाषा के चहरे पर टिक गईं जो धीरेधीरे रोआंसा होने लगा था.

‘‘कहां…कहां हैं मम्मी….मैं…मैं…मैं आ रही हूं….पापा….’’ कहते हुए अभिलाषा जोरजोर से रोने लगी. अभिलाषा को इतनी बुरी तरह रोते बर्षा ने पहले कभी नहीं देखा था. वह तेजी से अपने बेड से उठी और अभिलाषा को थामने लगी. अभिलाषा बस रोए जा रही थी और फोन से लगातार उस के पापा की आवाज आ रही थी.

‘‘अभिलाषा…अभिलाषा…’’ फोन से निकलती हुई आवाज अभिलाषा के कानों तक पहुंच तो रही थी लेकिन शब्दों ने जैसे उस की जबान पर आने से मना कर दिया था.

‘‘अभिलाषा क्या हुआ? बताओ तो हुआ क्या है?’’ बर्षा अभिलाषा से लगातार पूछ रही थी. बर्षा ने अभिलाषा के हाथ से फोन ले लिया.

‘‘हैलो, अंकल…क्या हुआ है,’’ बर्षा ने अभिलाषा के पापा से पूछा.

‘‘बेटा, व…वो….अभिलाषा की मम्मी काफी जल गईं है बेटा. किचन में पूडि़यां तलते हुए कढ़ाई का खौलता हुआ तेल उन के गले से पैर तक छिटक गया. ज्यादा जल गईं हैं होस्पिटल में भर्ती हैं पर अभिलाषा को मत कहना की बहुत ज्यादा जली हैं. उस से कहना कि थोड़ा बहुत जली हैं और कुछ दिन में ठीक हो जाएंगी. उस का ध्यान रखना बेटा… वो पागल है, अपनी मम्मी से बहुत प्यार करती है, रोरो कर अपना हाल बुरा कर लेगी, उस का ध्यान रखना. उस की मम्मी ठीक हैं… तुम दोनों अपना ध्यान रखना.’’

‘‘ओके…अंकल,’’ बर्षा ने कहा और फोन काट दिया.

अभिलाषा बिना रुके बस रोए जा रही थी. बर्षा उसे ले कर बेड पर बैठी और उसे चुप कराने लगी. ‘‘आंटी अब ठीक हैं अभिलाषा, अंकल ने कहा है वे जल्दी ठीक हो जाएंगी.’’

अभिलाषा अब भी कुछ नहीं सुन रही थी बस रोए जा रही थी. बर्षा उठ कर गई और गिलास में पानी ले आई. अभिलाषा ने पानी पिया और दोनों हथेलियां आंखों पर रख रोने लगी. वह बिलकुल बच्चों की तरह रो रही थी.

‘‘आंटी ठीक हो जाएंगी जल्दी,’’ बर्षा दिलासा देते हुए बोली.

‘‘मुझे मम्मी के पास जाना है,’’ अभिलाषा सुबकते हुए बोल पड़ी.

‘‘लौकडाउन खत्म होते ही चले जाना. अभी संभालो खुद को.’’

अभिलाषा ने अपना फोन उठाया और पापा को कौल लगा दिया.

‘‘पापा, मम्मी को होश आ गया तो बात करा दीजिए, मुझे उन से बात करनी है,’’ एक मिनट रुक अभिलाषा कहने लगी, ‘‘हैलो, हैलो…मम्मी आप ठीक हैं न….आप ठीक हैं न. आप को ज्यादा चोट तो नहीं आई….’’ मम्मी से बात करते हुए अभिलाषा का रोना शांत हो गया था. बर्षा को यह देख कर राहत मिली. वह उठी और बालकनी में जा कर बैठ गई.

बाहर अंधेरा छा चुका था. कोरोना वायरस से लोग इतने डरे हुए हैं कि अपने घरों से बाहर कोई दिखाई ही नहीं देता अब. अंधेरे में बालकनी के एक कोने में बैठी बर्षा खुले आसमान को ताक रही थी. आज न फोन उस के हाथ में था और न फोन के दूसरी तरफ पार्थ. अभिलाषा की मम्मी के साथ जो कुछ हुआ था उसे सुन कर बर्षा को अपना गम बहुत छोटा लगने लगा था. वह घुटनों के दोनों तरफ बांहें बांधे बैठी हुई थी कि तभी अभिलाषा कमरे से निकल कर आई और उस के बगल में आ कर बैठ गई.

‘‘आंटी ठीक हैं?’’ बर्षा ने पूछा.

‘‘हां,’’ अभिलाषा ने जवाब दिया. अभिलाषा की आंखें अब भी नम थीं और आंखों की किनारी से ऐसा लग रहा था मानो दो बूंदे बस छलकने ही वाली हैं.

‘‘तुम ठीक हो?’’ बर्षा अभिलाषा की ओर देखते हुए पूछ पड़ी.

‘‘नहीं.’’

‘‘हम्म.’’

‘‘और तुम,’’ अभिलाषा ने आसमान की ओर देखते हुए कहा.

‘‘नहीं,’’ बर्षा ने कहा और वह भी उसी आसमान में उसी ओर देखने लगी जिस ओर अभिलाषा की नजरें थीं.

‘‘बर्षा….’’

‘‘हां?’’

‘‘सौरी…एंड…थैंक यू…’’

‘‘कोई बात नहीं.’’

‘‘अगर तुम न होती तो पता नही यह रात कैसे कटती. यह दीवारें काटने को दौड़ती मुझे और मैं घुटघुट कर मर जाती,’’ अभिलाषा बोली.

‘‘जबतक मैं हूं तबतक तुम्हें काटने और मारने का हक सिर्फ मुझे है,’’ बर्षा ने कहा और हलकी सी हंसी हंस दी.

बर्षा की बात सुन अभिलाषा की हंसी भी छूट गई. दोनों अपलक आसमान में चांद को निहार रही थीं. अभिलाषा ने आंखें बंद कर लीं और बर्षा के कांधे पर सिर रख लिया. बर्षा ने अपना सिर अभिलाषा के सिर की तरफ झुका लिया. दोनों की आंखें नम अपनेअपने गम से भरी हुई थीं. बर्षा गुनगुनाने लगी, ‘रात का शौक है….रात की सौंधी सी खामोशी का शौक है….शौक है….’

Hindi Story : रीते हाथ – सपनों के पीछे भागती उमा

Hindi Story : अपनी बातों का सिलसिला खत्म कर उमा घर से निकली तो मैं दरवाजा बंद कर अंदर आ गई. आंखों में अतीत और वर्तमान दोनों आकार लेने लगे. मैं सोफे पर चुपचाप बैठ कर अपने ही खयालों में खोई अपनी सहेली के रीते हाथों के बारे में सोचती रही.

क्यों उमा से मेरी दोस्ती मां को बिलकुल पसंद नहीं थी. सुंदर, स्मार्ट, हर काम में आगे, उमा मुझे बहुत अच्छी लगती थी. वह मुझ से एक क्लास आगे थी और रास्ता एक होने के कारण हम अकसर साथ स्कूल आतेजाते थे. तब मैं भरसक इस कोशिश में रहती कि मां को हमारे मिलने का पता न चले, पर मां को सब पता चल ही जाता था.

उमा स्कूल से कालिज पहुंची तो दूसरे ही साल मेरा भी दाखिला उसी कालिज में हो गया. कालिज के उमड़ते सैलाब में तो उमा ही मेरा एकमात्र सहारा थी. यहां उस का प्रभाव स्कूल से भी ज्यादा था. कालिज का कोई भी कार्यक्रम उस के बगैर अधूरा लगता था. नाटक हिंदी का हो या अंगरेजी का उमा का नाम तो होता ही, अभिनय भी वह गजब का कर लेती थी.

लड़कों की एक  लंबी फेहरिस्त थी, जो उमाके दीवाने थे. वह भी तो कैसे बेझिझक उन सब से बात कर लेती थी. बात भी करती और पीठ पीछे उन का मजाक भी उड़ाती. कालिज से लौटते समय एक बार उमा ने मुझे बताया था कि अभी तो ये ग्रेजुएशन ही कर रहे हैं और इन को कुछ बनने में, कमाने में सालों लगेंगे. मैं तो किसी ऐसे युवक से विवाह करूंगी जिस की अच्छी आमदनी हो ताकि मैं आराम से रह सकूं.

इसलिए मैं किसी के प्यार के चक्कर में नहीं पड़ती. मैं उस की दूरदर्शी बातें सुन कर आश्चर्यचकित रह गई. मुझ में झिझक थी. मैं अपनी किताबी दुनिया से बाहर कुछ नहीं जानती थी और उमा ठीक मेरे विपरीत थी. क्या यही कारण था, जो मुझे उस के व्यक्तित्व की ओर आकर्षित करता था? मन में छिपी एक कसक थी कि काश, मैं भी उस की जैसी बन पाती लेकिन मां क्यों…?

संयोग देखो कि उस की आकांक्षाओं पर जो युवक खरा उतरा वह मेरा ही मुंहबोला भाई विकास था. विकास से हमारा पारिवारिक रिश्ता इतना भर था कि उस के और मेरे पिता कभी साथसाथ पढ़ते थे पर इतने भर से ही विकास ने कभी हम बहनों को भाई की कमी महसूस नहीं होने दी.

अपने घर की एक पार्टी में मैं ने विकास का परिचय उमा से कराया था और यह परिचय दोस्ती का रूप धर धीरेधीरे प्रगाढ़ होता चला गया था. मगर उस के पिता का मापतौल अलग था, उमा की आकांक्षाओं पर विकास भले ही खरा उतरा था. उमा की मां किसी राजघराने से संबंधित थीं और इस बात का गरूर उमा की मां से अधिक उस के पिता को था.

एक साधारण परिवार में वह अपनी बेटी ब्याह दें, यह नामुमकिन था. इसलिए उन्होंने एक खानदानी रईस परिवार में उमा का रिश्ता कर दिया. ऐसी बिंदास लड़की पर भी मांबाप का जोर चलता है, सोच कर मुझे आश्चर्य हुआ पर यही सच था.

उमा के विवाह के 2 महीने बाद ही मेरा भी विवाह हो गया. पहली बार मायके आने पर पता चला कि उमा भी मायके आई हुई है, हमेशा के लिए. ‘लड़का नपुंसक है,’ यही बात उमा ने सब से कही थी. यह सच था अथवा उस ने अपने डिक्टेटर पिता को उन्हीं की शैली में जवाब दिया था, वही जाने.

बहरहाल, पिता अपना दांव लगा कर हार चुके थे. इस बार मां ने दबाव डाला. उमा एक बार फिर दुलहन बनी और इस बार दूल्हा विकास था. प्यार की आखिरकार जीत हुई थी. एक असंभव सी लगने वाली बात संभव हो गई. हम सभी खुश थे. विकास की खुशी हम सब की खुशी थी. बस, मां ही केवल औपचारिकता निभाती थीं उमा से.

साल दर साल बीत रहे थे. अब शादीब्याह जैसे पारिवारिक मिलन के अवसरों पर उमा से मुलाकात हो ही जाती. एकदूसरे की हमराज तो हम पहले से ही थीं, अब और भी करीब हो गई थीं. एक बात सोचती हूं कि मनचाहा पा कर भी व्यक्ति संतुष्ट क्यों नहीं हो पाता? और ऊंचे उड़ने की अंधी चाह औंधेमुंह पटक भी तो सकती है. उमा यही बात समझ नहीं पा रही थी. उसे अपनी महत्त्वा- कांक्षाओं के आगे सब बौने लगने लगे थे.

विकास से उस की शिकायतों की फेहरिस्त हर मुलाकात में पहले से लंबी हो रही थी, वह महत्त्वाकांक्षी नहीं, पार्टियों, क्लबों का शौकीन नहीं, उसे अंगरेजी फिल्में पसंद नहीं, वह उमा के लिए महंगेमहंगे उपहार नहीं लाता…और भी न जाने क्याक्या? मैं भी अब पहले जैसी नादान नहीं रही थी. दुनियादारी सीख चुकी थी और मुझ में इतना आत्मविश्वास आ चुका था कि उमा को अच्छेबुरे की, गलतसही की पहचान करा सकूं.

‘देख उमा, मैं जानती हूं कि विकास बहुत महत्त्वाकांक्षी नहीं है पर तुम तो आराम से रहती हो न, और सब से बड़ी बात, वह तुम्हें कितना प्यार करता है. इस से बड़ा सौभाग्य क्या और कुछ हो सकता है? बताओ, कितनों को मनपसंद साथी मिलता है. फिर भी तुम्हें शिकायतें हैं, जबकि ज्यादातर औरतें एक अजनबी व्यक्ति के साथ तमाम उम्र गुजार देती हैं, बिना गिलेशिकवों के.’

‘मैं यह नहीं कहती कि पुरुष की सब बदसलूकियां चुपचाप सह लो, उस के सब जुल्म बरदाश्त कर लो पर जीवन में समझौते तो सभी को करने पड़ते हैं. यदि औरत घरपरिवार में तो पुरुष भी घर से बाहर दफ्तर में, काम में समझौते करता ही है.

‘मुझे ही देखो. मेरे पति अपने पैसे को दांत से पकड़ कर रखते हैं. अब इस बात पर रोऊं या इस बात पर तसल्ली कर लूं कि फुजूलखर्ची की आदत नहीं है तो दुखतकलीफ में किसी के आगे हाथ तो नहीं फैलाने पड़ेंगे. दूसरे, कंजूस व्यक्ति में बुरी आदत जैसे सिगरेटशराब की लत पड़ने का भय नहीं रहता. अब यह तो जिस नजर से देखो नजारा वैसा ही दिखाई देगा.’

‘समझौता करना, कमियों को नजरअंदाज कर देना, यह सब तुम जैसे कमजोर लोगों का दर्शन है सुधा, सो तुम्हीं करो. यह समझौते मेरे बस के नहीं. मुझे जो एक जीवन मिला है मैं उसे भरपूर जीना चाहती हूं. शादी का मतलब यह तो नहीं कि मैं ने जीवन भर की गुलामी का बांड ही भर दिया है. ठीक है, गलती हो गई मेरे चयन में तो उसे सुधारा भी तो जा सकता है. मैं तुम्हारी तरह परंपरावादी नहीं हो सकती, होना भी नहीं चाहती और विकास को तो मैं सबक सिखा कर रहूंगी. इसी के लिए तो मैं पहले पति को छोड़ आई थी.’

विकास को सबक सिखाने का उमा ने नायाब तरीका भी ढूंढ़ निकाला. उस के काम पर जाते ही वह अपने पुरुष मित्रों से मिलने चल पड़ती. उस का व्यक्तित्व एक मैगनेट की तरह तो था ही जिस के आकर्षण में पुरुष स्वयं ख्ंिचे चले आते थे. क्या अविवाहित और क्या विवाहित, दोनों ही.

उमा अब विकास के स्वाभिमान को, उस के पौरुष को खुलेआम चुनौती दे रही थी. उसे लगता था कि इस से अच्छा तो तलाक ही हो जाता. कम से कम वह चैन से तो जी पाएगा.

उमा की यह इच्छा भी पूरी हो गई. उस का विकास से भी तलाक हो गया और वह अपनी 5 वर्षीय बेटी को भी छोड़ने को तैयार हो गई, क्योंकि इस बीच उस ने नवीन पाठक को पूरी तरह अपने मोहजाल में फंसा कर विवाह का वादा ले लिया था.

मैं उस के नए पति से कभी मिली नहीं थी और न ही मिलने की कोई उत्सुकता थी. बस, इतना जानती थी कि वह किसी उच्च पद पर है और प्राय: ही विदेश जाता रहता है.

कुछ दिन के बाद उमा दूसरे शहर चली गई तो हम सब ने राहत की सांस ली. बस, विकास को देख कर मन दुखी होता था. इस रिश्ते का टूटना विकास के लिए महज एक कागजी काररवाई न थी. उस में अस्वीकृति का बड़ा एहसास जुड़ा था और उस जैसे संवेदनशील व्यक्ति के लिए यह गहरा धक्का था. वैरागी सा हो गया था वह. कम ही किसी से मिलता और काम के बाद का सारा समय वह अपनी बेटी के संग ही बिताता.

लंबे अंतराल के बाद एक बार फिर उमा अचानक मिल गई. इस बीच हम भी अनेक शहर घूम दिल्ली आ कर बस गए थे. हुआ यों कि एक शादी के रिसेप्शन में शामिल होने हम जिस होटल में गए थे, होटल की लौबी में अचानक ही उमा मुझे दिख गई. उस ने भी मुझे देख लिया और फौरन हम एकदूसरे की तरफ लपके.

उमा अब 50 को छू रही थी किंतु उस के साथ जो पुरुष था वह उस से काफी बड़ा लग रहा था. उस समय तो अधिक बातचीत नहीं हो पाई पर उसे देख कर सब पुरानी यादें उमड़ पड़ी थीं. मैं ने फौरन उसे अगले ही दिन घर आने और पूरा दिन संग बिताने के लिए आमंत्रित कर लिया. आश्चर्य, अब भी उस के प्रति मेरा अनुराग बना हुआ था.

उमा समय पर पहुंची. मैं ने खाना तो तैयार कर ही रखा था, काफी भी बना कर थर्मस भर दिया था ताकि इत्मीनान से बैठ कर हम बातचीत कर सकें.

मेरे पहले प्रश्न का उत्तर ही मुझे झटका दे गया, महज बात शुरू करने के लिए मैं ने पूछा, ‘‘तुम्हारे पाठक साहब कैसे मिजाज के हैं? मैं ने कल पहली बार उन्हें देखा.’’

उमा के चेहरे पर एक बुझी हुई और उदास सी मुसकान दिखाई दी और पल भर में वह गायब भी हो गई, कुछ पल खामोश रही वह, पर मेरी उत्सुक निगाहों को देख टुकड़ोंटुकड़ों में बोली, ‘‘वह पाठक नहीं था. हम दोनों अब एकसाथ रहते हैं. दरअसल, पाठक सही आदमी नहीं था. बहुत ऐयाश किस्म का आदमी था वह. तुम सोच नहीं सकतीं कि मैं किस तनाव से गुजरी हूं. जी चाहता है जान दे दूं. एंटी डिपे्रशन की दवाई तो लेती ही हूं.’’

विकास के साथ किए गए उस के पुराने व्यवहार को भूल कर मैं ने उस का हाथ अपने हाथ में ले कर सांत्वना देने का प्रयत्न किया.

‘‘कई औरतों के साथ पाठक के संबंध थे और विवाह के एक साल बाद से ही वह खुलेआम अपने दफ्तर की एक महिला के संग घूमने लगा था. जब जी चाहता वह घर आता, जब चाहता रात भी उसी के संग बिता देता. अपनी ऐसी तौहीन, मेरे बरदाश्त के बाहर थी.’’

‘हमारे किए का फल कई बार कितना स्पष्ट होता है’ कहना चाह कर भी मैं कह नहीं पाई. मुझे उस से हमदर्दी हो रही थी. एक औरत होने के नाते या पुरानी दोस्ती के नाते? जो भी मान लो.

‘‘फिर अब कहां रहती हो?’’ मैं ने पूछा.

‘‘एक फ्लैट पाठक ने विवाह के समय ही मेरे नाम कर दिया था. मैं उसी में रहती हूं. बाकी मैं रीयल एस्टेट का अपना व्यवसाय करती हूं ताकि उस से और किसी सहायता की जरूरत न पड़े.’’

बच्चों की बात हुई तो मैं ने उसे बताया कि मेरे दोनों बच्चे ठीक से सैटल हो चुके हैं. बेटे ने अहमदाबाद से एम.बी.ए. किया है और बेटी ने बंगलौर से. बेटी का तो विवाह भी हो चुका है और अब बेटे के विवाह की सोच रहे हैं.

जानती तो मैं भी थी उस की बिटिया के बारे में पर वह कितना जानती है पता नहीं. यही सोच कर मैं कुछ नहीं बोली. उस ने स्वयं ही बेजान सी आवाज में कहा, ‘‘सुना है, अलग अपनी किसी सहेली के साथ रहती है. कईकई दिनों घर नहीं जाती. मुझ से तो ठीक से बात करने को भी तैयार नहीं. फोन करूं तो एकदो बात का अधूरा सा जवाब दे कर फोन रख देती है,’’ यह कहतेकहते वह रोंआसी हो गई. मैं उस की ओर देखती रही, लेकिन ढूंढ़ नहीं पाई जीवन से भरपूर, अपनी ही शर्तों पर जीने वाली उमा को.

‘‘सिर पर छत तो है पर सोच सकती हो, उस घर में अकेले रहना कितना भयावना हो जाता है? लगता है दीवारें एकसाथ गिर कर मुझे दबोच डालने का मनसूबा बनाती रहती हैं. शाम होते ही घर से निकल पड़ती हूं. कहीं भी, किसी के भी साथ… मैं तुम्हें पुरातनपंथी कहती थी, मजाक उड़ाती थी तुम्हारा. पर तुम ही अधिक समझदार निकलीं, जो अपना घर बनाए रखा, बच्चों को सुरक्षात्मक माहौल दिया. बच्चे तुम्हारे भी तुम से दूर हैं, फिर भी वह तुम्हारे अपने हैं. पूर्णता का एहसास है तुम्हें, कैसा भी हो तुम्हारा पति तुम्हारे साथ है, उस का सुरक्षात्मक कवच है तुम्हारे चारों ओर. जानती हो, मुझे कैसीकैसी बातें सुननी पड़ती हैं. मेरी ही बूआ का दामाद एक दिन मुझ से बोला, कोई बात नहीं यदि पाठक चला गया तो हम तो हैं न.

‘‘उस की बात से अधिक उस के कहने का ढंग, चेहरे का भाव मुझे आज भी परेशान करता है पर चुप हूं. मुंह खोलूंगी तो बूआ और उन की बेटी दोनों को दुख पहुंचेगा. और फिर अपने ही किए की तो सजा पा रही हूं…’’

उमा को अपनी गलतियों का एहसास होने लगा था. ठोकरें खा कर दूसरों के दुखदर्द का खयाल आने लगा था पर अब बहुत देर हो चुकी थी. मैं उस की सहायता तो क्या करती, सांत्वना के शब्द भी नहीं सोच पा रही थी. वही फिर बोली, ‘‘सुधा, घर तो खाली है ही मेरा मन भी एकदम खाली है. लगता है घनी अंधेरी रात है और मैं वीरान सड़क पर अकेली खड़ी हूं… रीते हाथ.

Hindi Story : हैलमैट – सबल सिंह क्यों पहनते थे हैलमेट

Hindi Story : सबल सिंह ने घर से मोटरसाइकिल बाहर निकाली और अपनी पत्नी को आवाज दी, ‘‘जल्दी चलो.’’

उन्हें पड़ोसी को देखने अस्पताल जाना था. वे पड़ोसी जिन से उन के संबंध बहुत अच्छे नहीं थे. कई बार बच्चों को ले कर, कूड़ाकरकट फेंकने को ले कर उन का आपस में झगड़ा हो चुका था.

सबल सिंह अपने नियम से चलते थे. कचरा अपने घर के सामने फेंकते थे. पड़ोसी रामफल का कहना था, ‘या तो कचरा जलाइए या कचरा गाड़ी आती है नगरपालिका की, उस में डालिए.’

‘मैं कचरा गाड़ी का रास्ता देखता रहूं. कभी भी आ जाते हैं. फिर एक मिनट के लिए भी नहीं रुकते,’ सबल सिंह ने कहा था.

‘तो कचरा पेटी में डालिए,’ रामफल ने कहा था.

‘कचरा पेटी घर से एक किलोमीटर दूर है. क्या वहां तक कचरा ले कर जाऊं? यह क्या बात हुई…’

‘तो जला दीजिए.’

‘आप को क्या तकलीफ है? आप मुझ से जलते हैं.’

‘मैं क्यों जलूंगा?’

‘पिछली बार बच्चों के झगड़ने पर

मैं ने आप के बच्चे को डांट दिया था इसलिए…’

‘बच्चे हैं… साथ खेलेंगे तो लड़ेंगे भी और फिर साथ खेलेंगे. आप ने मेरे बच्चे को डांटा, मैं ने तो कुछ नहीं कहा. लेकिन आप के बच्चे को मैं ने डांटा तो आप लड़ने आ गए थे.’

‘मेरे बच्चे को डांटने का हक किसी को नहीं है. उस के मातापिता हैं अभी.’

‘फिर आप ने मेरे बच्चे को क्यों डांटा? उस के मातापिता भी जिंदा हैं.’

‘उसी बात का तो आप बदला लेते रहते हैं. कभी कचरे की आड़ में तो कभी नाली सफाई के नाम पर.’

‘मैं ऐसा आदमी नहीं हूं. सही को सही, गलत को गलत कहता हूं. यह मेरा स्वभाव है.’

‘आप अपना स्वभाव बदलिए. सहीगलत कहने वाले आप कौन होते हैं?’

फिर रामफल कुछ कहते, सबल सिंह उस का जवाब देते. बात से बात निकलती और बहस बढ़ती जाती. बेमतलब का तनाव बढ़ता. मन में खटास आती. रामफल अस्पताल में थे. महल्ले के सभी लोग देखने जा चुके थे.

सबल सिंह की पत्नी ने कहा, ‘‘दूरदूर के लोग मिल कर आ गए हैं. हमारे तो पड़ोसी हैं. हम कोई दुश्मन तो हैं नहीं. पड़ोसियों में थोड़ीबहुत बहस तो होती रहती है. इनसानियत और पड़ोसी धर्म के नाते हमें उन्हें देखने चलना चाहिए.’’

सबल सिंह को बात ठीक लगी. उन्होंने कहा, ‘‘आज शाम को ही चलते हैं.’’ और सबल सिंह ने मोटरसाइकिल स्टार्ट की. पत्नी बाहर आईं तो उन्होंने कहा, ‘‘आप हैलमैट तो लगा लीजिए.’’

‘‘अभी पुलिस की चैकिंग नहीं चल रही है. तुम बैठो.’’

‘‘हैलमैट पुलिस से बचने के लिए नहीं, बल्कि हमारी हिफाजत के लिए जरूरी है.’’

‘‘पढ़ीलिखी बीवियों का यही तो नुकसान है. उपदेश बहुत देती हैं. तुम बैठो न.’’

रमा मोटरसाइकिल के पीछे बैठ गईं. सबल सिंह ने मोटरसाइकिल की स्पीड बढ़ा दी तो रमा ने कहा, ‘‘धीरे चलिए. मोटरसाइकिल है, हवाईजहाज की तरह मत चलाइए.’’

‘‘मैं इसी तरह चलाता हूं. आप शांति से बैठी रहिए.’’

उन्हें दाएं मुड़ना था. गाड़ी थोड़ी धीमी की और दाईं तरफ घुमा दी, तभी पीछे से कोई जोर से चीखा. चीख के साथ मोटरसाइकिल के ब्रेक की आवाज आई. पीछे वाले की मोटरसाइकिल सबल सिंह की मोटरसाइकिल से टकरातेटकराते बची थी.

वह आदमी चीखा, ‘‘मुड़ते समय इंडीकेटर नहीं दे सकते?’’

सबल सिंह भी चीखे, ‘‘शहर में इतनी तेज गाड़ी क्यों चलाते हो कि कंट्रोल न हो सके?’’

‘‘गलती तुम्हारी थी, तुम्हें इंडीकेटर देना चाहिए,’’ वह आदमी बोला.

‘‘गलती तुम्हारी है, तुम्हें धीरे चलना चाहिए.’’

पीछे वाली मोटरसाइकिल पर 3 लोग बैठे हुए थे.

सबल सिंह ने कहा, ‘‘एक मोटरसाइकिल पर 3 सवारी करना गैरकानूनी है.’’

वह आदमी थोड़ा डर गया. उसे अपनी गलती का अहसास हुआ. वह बिना कुछ बोले आगे निकल गया.

पत्नी रमा ने कहा, ‘‘दूसरों की गलती तो आप तुरंत पकड़ लेते हैं और अपनी गलती का क्या? आप भी तो स्पीड में चल रहे थे.’’

सबल सिंह ने कहा, ‘‘ऐसा करना पड़ता है. सामने वाले की गलती को निकालना जरूरी है, नहीं तो वह चढ़ बैठता हमारे ऊपर.’’

सबल सिंह ने मोटरसाइकिल की स्पीड को फिर बढ़ा दिया. सामने चौक पर उन्होंने देखा कि पुलिस की गाड़ी चैकिंग कर रही थी.

उन्होंने मोटरसाइकिल धीमी की और वापस मोड़ दी.

‘‘क्या हुआ?’’ रमा ने पूछा.

‘‘सामने चैकिंग चल रही है. दूसरे रास्ते से चलना होगा.’’

‘‘आप के पास गाड़ी के कागजात तो हैं.’’

‘‘हां हैं, लेकिन तुम इन पुलिस वालों को नहीं जानतीं. न जाने किस बात का चालान काट दें. इन का तो काम ही है. गाड़ी अपनी, लाइसैंस भी है, फिर भी हमें ही चोरों की तरह छिप कर, रास्ता बदल कर निकलना पड़ता है. ऐसा है कानून हमारे देश का,’’ कहते हुए सबल सिंह ने बाइक मोड़ी और दूसरे रास्ते की ओर घुमा दी.

‘‘अगर इस रास्ते के किसी चौक पर पुलिस वाले चैकिंग करते मिल गए तब क्या करोगे? कोई तीसरा रास्ता भी?है?’’ पत्नी रमा ने पूछा.

सबल सिंह चुप रहे. उन्हें आगे गाड़ी रोकनी पड़ी. सुनसान रास्ता था. सामने कुछ लड़के खड़े थे, पूरा रास्ता रोके हुए.

‘‘पुलिस से बचोगे तो गुंडों में फंसोगे. जो कुछ पास में है सब निकाल कर रख दो, नहीं तो लाश मिलेगी दोनों की,’’ कहते हुए एक मजबूत कदकाठी के मवालीटाइप आदमी ने चाकू निकाल कर सबल सिंह पर तान दिया. बाकी मवालियों ने सबल सिंह की घड़ी, मोबाइल फोन, पर्स और चाकूधारी ने रमा का मंगलसूत्र और हाथ में पहनी सोने की अंगूठी उतार ली.

‘‘चलो, भागो यहां से. पुलिस में शिकायत की तो खैर नहीं तुम्हारी,’’ चाकूधारी मवाली ने कहा.

रमा गुस्से में चीख पड़ीं, ‘‘चालान से बचने के चक्कर में लाख रुपए का सामान चला गया.’’

‘‘शुक्र है जान बच गई और मोटरसाइकिल भी. चलो, निकलते हैं. अस्पताल से वापसी पर थाने में रिपोर्ट दर्ज करेंगे,’’ सबल सिंह ने कहा.

किसी तरह वे अस्पताल पहुंचे. सबल सिंह अब कोई जोखिम नहीं लेना चाहते थे. सो, उन्होंने मोटरसाइकिल अस्पताल के स्टैंड पर खड़ी कर दी.

अस्पताल में रामफल से मिले. हालचाल पूछने पर रामफल ने बताया कि उन्हें फर्स्ट स्टेज का कैंसर है.

‘‘फालतू के शौक से खर्चा भी हो और बीमारी भी. अब तो तंबाकू, सिगरेट बंद कर दो,’’ सबल सिंह ने यहां भी अपना ज्ञान बघारा. लेकिन पीडि़त रामफल ने इस का बुरा नहीं माना और कहा, ‘‘मैं तो शुरुआती स्टेज पर हूं.

2-4 लाख रुपए का खर्चा कर के बच भी जाऊंगा शायद. मैं ने तो तोबा कर ली. तुम भी बंद कर दो शराब पीना.’’

‘‘मैं कौन सी रोज पीता हूं?’’ सबल सिंह ने कहा.

‘‘जहर तो थोड़ा भी बहुत होता है,’’ रामफल ने कहा.

रामफल और सबल सिंह यहां भी बहस करने लगे. पत्नी रमा ने इशारा किया, तब शांत हुए. इस के बाद

वे पुलिस चौकी गए. रिपोर्ट लिखाई. हवलदार ने सब से पहला सवाल पूछा, ‘‘पत्नी के साथ उस सुनसान रास्ते से गए ही क्यों थे?’’

झूठासच्चा जवाब दे कर वे वापस लौटे. इस तरह दिनदहाड़े लुटने से उन्हें खुद पर गुस्सा आ रहा था. इस गुस्से में मोटरसाइकिल की रफ्तार बढ़ती गई. पत्नी रमा उन्हें गाड़ी धीरे चलाने के लिए कहती रहीं, लेकिन उन्होंने ध्यान नहीं दिया. वे बस यही सोच रहे थे कि अब पत्नी के लिए मंगलसूत्र, अंगूठी फिर से बनवानी पड़ेगी. अगर हैलमैट लगा लेते तो क्या चला जाता? थोड़े से बचने के चक्कर में बड़ा नुकसान उठाना पड़ा.

हैलमैट रखा तो था घर पर. कम से कम परिवार के साथ चलते समय तो हिफाजत का ध्यान रखना चाहिए. पत्नी क्या सोच रही होगी. घर में लोग अलग डांटफटकार करेंगे. बच्चे भी डांटेंगे और मातापिता भी.

तभी सामने से एक मोटरसाइकिल पर 3 लड़के तेज रफ्तार में आ रहे थे. सबल सिंह ने तेजी से हौर्न बजाया. सामने वाला संभल तो गया लेकिन फिर भी बहुत संभालने पर भी हलके से दोनों मोटरसाइकिल टकराईं. थोड़ा सा बैलैंस बिगड़ा लेकिन लड़के ने मोटरसाइकिल संभाल ली और वे भाग निकले.

लेकिन सबल सिंह नहीं संभल पाए. उन की मोटरसाइकिल गिरी. काफी दूर तक घिसटी. पत्नी की चीख सुनी उन्होंने. वे गाड़ी के नीचे दबे पड़े थे. पत्नी उन से थोड़ी दूरी पर बेहोशी की हालत में पड़ी थी.

आतेजाते लोगों में से कुछ उन्हें शराबी, तेज स्पीड से चलने की कहकर निकल रहे थे. कुछ लोगों ने अपना मोबाइल फोन निकाल कर वीडियो बनानी शुरू कर दी. धीरेधीरे भीड़ इकट्ठी हो गई.

सबल सिंह को बहुत दर्द हो रहा था. वे सोच रहे थे, ये कैसे लोग हैं जो घायल लोगों की मदद करने के बजाय मोबाइल फोन से फोटो खींच रहे हैं. वीडियो बना रहे हैं. टक्कर मारने वाले तो भाग निकले. क्या मैं ने भी किसी घायल के साथ ऐसा बरताव किया था. हां, किया था.

वे मदद की गुहार लगा रहे थे. भीड़ इस बात पर टीकाटिप्पणी कर रही थी कि गलती किस की है. इन की या उन लड़कों की. समय खराब होता है तो कुछ भी हो सकता है. पुलिस को खबर की जाए या एंबुलैंस को. पता नहीं, औरत जिंदा भी है या मर गई. पुलिस के झंझट में कौन पड़े? इन्हें भी देख कर चलना चाहिए.

वीडियो अपलोड कर के ह्वाट्सऐप, फेसबुक पर भेज दिए गए थे. सबल सिंह को अपने से ज्यादा लोगों की भीड़ कमजोर नजर आ रही थी.

तभी भीड़ को चीरते हुए एक आदमी आया. उस ने भीड़ को डांटते हुए कहा, ‘‘शर्म नहीं आती आप लोगों को. घायलों की मदद करने की जगह तमाशा बना रखा है.’’

फिर उस आदमी ने अपने साथियों को पुकारा. सब ने मिल कर सबल सिंह को मोटरसाइकिल से निकाला. उन की बेहोश पत्नी को अपनी गाड़ी में लिटाया और अस्पताल चलने के लिए कहा.

सबल सिंह के हाथपैर में मामूली चोट लगी थी. पत्नी को होश आ चुका था. उन की कमर में चोट लगी थी.

डाक्टर ने कहा, ‘‘घबराने की कोई बात नहीं है. सब ठीक है. अच्छा है,

सिर में चोट नहीं लगी, वरना बचना मुश्किल था.’’

सबल सिंह सोच रहे थे कि काश, उन्होंने हैलमैट लगाया होता तो ये सारे झंझट ही नहीं होते.

Hindi Story : गणपति का जन्म – विकृत बच्चे को देख क्या हुआ

Hindi Story : फूलचंद ने फटा हुआ कंबल खींचखींच कर एकदूसरे के साथ सट कर सो रहे तीनों बच्चों को ठीक से ओढ़ाया और खुद राख के ढेर में तब्दील हो चुके अलाव को कुरेद कर गरमी पाने की नाकाम कोशिश करने लगा.

जाड़े की रात थी. ऊपर से 3 तरफ से खुला हुआ बरामदा. सांयसांय करती हवा हड्डियों को काटती चली जाती थी. गनीमत यही थी कि सिर पर छत थी.

अंदर कमरे में फूलचंद की बीवी सुरना प्रसव वेदना से तड़प रही थी. रहरह कर उस की चीखें रात के सन्नाटे को चीरती चली जाती थीं. पड़ोसी रामचरन की घरवाली और सुखिया दाई उसे ढाढ़स बंधा रही थीं.

मगर फूलचंद का ध्यान न तो सुरना की पीड़ा की ओर था, न ही उस के मन में आने वाले मेहमान के प्रति कोई उल्लास था. सच तो यह था कि अनचाहे बोझ को ले कर वह चिंतित ही था.

परिवार की माली हालत पहले से ही खस्ता थी. जब तक मिल चलती रही तब तक तो गनीमत थी. मगर पिछले 8 महीने से मिल में तालाबंदी चल रही थी और अब वह मजदूरी कर के किसी तरह परिवार का पेट पाल रहा था.

लेकिन रोज काम मिलने की कोई गारंटी न थी. कई बार फाकों की नौबत आ चुकी थी. कर्ज था कि बढ़ता ही जा रहा था. ऐसे में वह चौथा बच्चा फूलचंद को किसी नई मुसीबत से कम नजर नहीं आ रहा था. लेकिन समय के चक्र के आगे बड़ेबड़ों की नहीं चलती, फिर फूलचंद की तो क्या बिसात थी.

तभी सुरना की हृदय विदारक चीख उभरी और धीरेधीरे एक पस्त कराह में ढलती चली गई. फूलचंद ने भीतर की आवाजों पर कान लगाए. अंदर कुछ हलचल तो हो रही थी. मगर नवजात शिशु का रुदन सुनाई नहीं पड़ रहा था. अब फूलचंद को खटका हुआ, ‘क्या बात हो सकती है?’ कहीं कुछ अनहोनी तो नहीं हो गई? मगर पूछूं भी तो किस से? अंदर जा नहीं सकता.

फूलचंद मन मार कर बैठा रहा. अब तो दोनों औरतों में से ही कोई बाहर आती, तभी कुछ पता चल पाता. हां, सुरना की कराहें उसे कहीं न कहीं आश्वस्त जरूर कर रही थीं.

प्रतीक्षा की वे घडि़यां जैसे युगों लंबी होती चली गईं. काफी देर बाद सुखिया दाई बाहर निकली. फूलचंद ने डरतेडरते पूछा, ‘‘सब ठीक तो है न?’’

‘‘हां, लड़का हुआ है,’’ सुखिया ने निराश स्वर में बताया, ‘‘मगर…’’

‘‘क्यों, क्या हुआ?’’ फूलचंद व्यग्र हो उठा.

‘‘अब मैं क्या कहूं. तुम खुद ही जा कर देख लो.’’

इस के बाद सुखिया तो चली गई, लेकिन फूलचंद की उलझन और बढ़ गई, ‘ऐसी क्या बात है, जो सुखिया से नहीं बताई गई? कहीं बच्चा मरा हुआ तो नहीं? मगर यह बात तो सुखिया बता सकती थी.’

कुछ देर बाद रामचरन की घरवाली भी यह कह कर चली गई, ‘‘कोई दिक्कत आए तो बुला लेना.’’

अब फूलचंद के अंदर जाने में कोई रुकावट नहीं थी. वह धड़कते दिल से अंदर घुसा. सुरना अधमरी सी चारपाई पर पड़ी थी. बगल में शिशु भी लेटा था.

सुरना ने आंखें खोल कर देखा. मगर फूलचंद की कुछ पूछने की हिम्मत न हुई. हां, उस की आंखों में कौंधती जिज्ञासा सुरना से छिपी न रह सकी. उस ने शिशु के मुंह पर से कपड़ा हटा दिया और खुद आंखें मूंद लीं.

आंखें तो फूलचंद की भी एकबारगी खुद ब खुद मुंद गईं. सामने दृश्य ही ऐसा था. नवजात शिशु का चेहरा सामान्य शिशुओं जैसा न था. माथा अत्यंत संकरा और लगभग तिकोना था. आंखें छोटीछोटी और कनपटियों तक फटी हुई थीं. कान भी असामान्य रूप से लंबे थे. सब से विचित्र बात यह थी कि शिशु का ऊपरी होंठ था ही नहीं. हां, नाक अत्यधिक लंबी हो कर ऊपरी तालू से जा लगी थी.

फूलचंद जड़ सा खड़ा था, ‘यह कैसी माया है? हुआ ही था तो अच्छाभला होता. नहीं तो जन्म लेने की क्या जरूरत थी. मुझ पर हालात की मार पहले ही क्या कम थी, जो यह नई मुसीबत मेरे सिर आ पड़ी. क्या होगा इस बच्चे का? अपना यह कुरूप ले कर इस दुनिया में यह कैसे जिएगा? क्या होगा इस का भविष्य?’

फूलचंद ने डरतेडरते पूछा, ‘‘इस की आवाज?’’

‘‘पता नहीं,’’ सुरना ने कमजोर आवाज में बताया, ‘‘रोया तक नहीं.’’

‘हैं,’ फूलचंद ने सोचा, ‘क्या यह गूंगा भी होगा?’

सुरना पहले ही काफी दुखी प्रतीत हो रही थी. इसलिए फूलचंद ने और कोई सवाल न किया. बस, अपनेआप को कोसता रहा और बाहर सोए तीनों बच्चों को ला ला कर अंदर लिटाता रहा. फिर खुद भी उन्हीं के साथ सिकुड़ कर लेटा रहा.

मगर उस की आंखों में नींद का नामोनिशान नहीं था. रहरह कर नवजात शिशु का चेहरा आंखों के आगे नाचने लगता था. तरहतरह की आशंकाएं मन में उठ रही थीं. फूलचंद ने सुना था कि उस तरह के बच्चे कुछ दिनों के ही मेहमान होते हैं. मगर वह बच्चा अगर जी गया तो…?

इसी तरह की उलझनों में पड़े हुए फूलचंद ने बाकी रात आंखों में ही काट दी.

सुबह होतेहोते रामचरन की घरवाली के माध्यम से यह बात महल्ले भर में जंगल की आग की तरह फैल गई कि फूलचंद के यहां विचित्र बालक का जन्म हुआ है.

बस, फिर क्या था. तमाशबीन औरतों के झुंड के झुंड आने शुरू हो गए. उन का तांता टूटने का नाम ही नहीं लेता था. वह एक ऐसी मुसीबत थी जिस की फूलचंद ने कल्पना तक नहीं की थी. मगर चुप्पी साधे रहने के सिवा कोई दूसरा चारा भी नहीं था.

तभी तमाशबीन औरतों के एक झुंड के साथ भगवानदीन की मां राधा आई. उस ने सारा वातावरण ही बदल कर रख दिया. राधा ने बच्चे को देखते ही हाथ जोड़ कर प्रणाम किया. फिर जमीन पर बैठ कर माथा झुकाया और साथ आई औरतों को फटकार लगाई, ‘‘अरी, ऐसे दीदे फाड़फाड़ कर क्या देख रही हो? प्रणाम करो. यह तो साक्षात गणेशजी ने कृपा की है सुरना पर. इस की तो कोख धन्य हो गई.’’

साथ आई औरतें अभी तक तो राधा के क्रियाकलाप अचरज से देख रही थीं. किंतु उस की बात सुनते ही जैसे उन की भी आंखें खुलीं. सब ने शिशु को प्रणाम किया. सुरना की कोख को सराहा और हाथ में जो भी सिक्का था, वही चारपाई के सामने अर्पित करने के बाद जमीन पर माथा टेक दिया.

अब राधा बाहर फूलचंद के पास दौड़ी आई. वह थकान और चिंता के कारण बाहर चबूतरे पर घुटनों में सिर डाले बैठा था. राधा ने उसे झिंझोड़ कर उठाया, ‘‘अरे, क्या रोनी सूरत बनाए बैठा है यहां. तुझे तो खुश होना चाहिए, भैया. सुरना की कोख पर साक्षात ‘गणेशजी’ ने कृपा की है. तेरे तो दिन फिर गए. और देख, वह तो माया दिखाने आए हैं अपनी. वह रुकेंगे थोड़ा ही. जब तक हैं, खुशीखुशी उन की सेवा कर. हजारों वर्षों में किसीकिसी को ही ऐसा अवसर मिलता है.’’

फूलचंद चमत्कृत हो उठा, ‘‘यह बात तो मेरे दिमाग में आई ही नहीं थी, काकी.’’

‘‘अरे, तुम लोग ठहरे उम्र व अक्ल के कच्चे,’’ राधा ने बड़प्पन झाड़ा, ‘‘तुम्हें ये सब बातें कहां से सूझें. और हां, लोग दर्शन को आएंगे तो किसी को मना न करना, बेटा. उन पर कोई अकेले तेरा ही हक थोड़ा है. वह तो साक्षात ‘परमात्मा’ हैं, वह सब के हैं, समझा?’’

फूलचंद ने नादान बालक की तरह हामी भरी और लपक कर अंदर पहुंचा. दरअसल, अब वह शिशु को एक नई नजर से देखना चाहता था. मगर चारपाई के पास पड़े पैसों को देख कर वह एक बार फिर चक्कर खा गया. सुरना से पूछा, ‘‘यह क्या है?’’

‘‘वही लोग चढ़ा गए हैं,’’ सुरना ने बताया, ‘‘काकी कहती थीं, गणेशजी…’’

‘‘और नहीं तो क्या,’’ फूलचंद में जैसे नई जान पड़ने लगी थी, ‘‘न तो तेरी मति में यह बात आई, न ही मेरी. मगर हैं ये साक्षात गणेशजी ही.’’

‘‘हम लोग उन की माया क्या जान सकें. अपनी माया वही जानें.’’

फूलचंद को एकाएक शिशु की चिंता सताने लगी, ‘‘यह तो हिलताडुलता भी नहीं. देख सांस तो चलती है न?’’

सुरना ने कपड़ा हटा कर देखा. सांसें चल रही थीं.

फूलचंद को अब दूसरी चिंता हुई, ‘‘भला एकआध बार दूधवूध चटाया या नहीं?’’

सुरना ने तनिक दुखी स्वर में कहा, ‘‘दूध तो मुंह में दाब ही नहीं पाता.’’

‘‘ओह,’’ फूलचंद झल्लाया, ‘‘क्या इसे भूखा मारोगी? देखो, मैं रुई का फाहा बना कर देता हूं. तुम उसी से दूध इस के मुंह में टपका देना. गला सूखता होगा.’’

शिशु का गला सींचने का यह उपक्रम चल ही रहा था कि कुछ और लोग कथित गणेशजी के दर्शनार्थ आ पहुंचे. इस बार औरतों के अलावा मर्द भी आए थे. दूसरी खास बात यह थी कि कुछ लोगों के हाथों में फूल और फल भी थे. फूलचंद ने लपक कर प्रसन्न मन से सब का स्वागत किया, ‘‘आइए आइए, आप लोग भी दर्शन कीजिए.’’

दोपहर ढलतेढलते कथित गणेशजी के जन्म की खबर पासपड़ोस के महल्लों तक फैल गई. श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ने लगी. मिठाई, फल, मेवा, फूल आदि जो बन पाता, लिए चले आ रहे थे. उस के अलावा नकदी का चढ़ावा भी कम न था.

शाम को किसी पड़ोसी ने सलाह दी, ‘‘कुछ परचे छपवा कर बांट दिए जाएं, ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों को खबर हो जाए और वे दर्शन का लाभ प्राप्त कर सकें.’’

फूलचंद को वह सलाह जंची. पता नहीं, कब उस की भी यह दिली इच्छा हो आई थी कि जितने ज्यादा लोग दर्शन का लाभ उठा लें, उतना ही अच्छा.

आननफानन मजमून बनाया गया और एक पड़ोसी ने खुद आगे बढ़ कर परचे छपवा कर अगले ही दिन मुहैया कराने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली.

रात करीब 10 बजे दर्शनार्थियों का तांता टूटा. तब फूलचंद ने दर्शन बंद होने की घोषणा की. उस रात फूलचंद के परिवार ने बहुत दिनों बाद तृप्ति भर सुस्वाद भोजन का आनंद उठाया था. दूसरे दिन परचे बंटे और एक स्थानीय अखबार के प्रतिनिधि आ कर बच्चे की तसवीर खींच ले गए. अखबार में बच्चे की तसवीर और विचित्र बालक के जन्म की खबर छपते ही, शहर में जैसे आग सी लग गई. दूरदराज के महल्लों से भी लोग दर्शन के लिए टूट पड़े.

फूलचंद के घर के सामने मेला सा लग गया. पता नहीं, कहां से फूल आदि ले कर एक माली बैठ गया. उस के अलावा महल्ले के हलवाई को दम मारने की फुरसत न थी. उस भीड़ को व्यवस्थित ढंग से दर्शन कराने के लिए फूलचंद को अपने कमरे का दूसरा दरवाजा (जो अभी तक बंद रखा जा रहा था) खोलना पड़ा. अब लोग कतार बांधे एक दरवाजे से अंदर आते थे और दर्शन कर के दूसरे दरवाजे से बाहर निकल जाते थे.

फूलचंद और उस के बच्चे सुबहसुबह ही नहाधो कर साफसुथरे कपड़े पहन लेते और दर्शन की व्यवस्था में जुट जाते. घर में अब न तो पहले जैसा तनाव था, न ही कुढ़न. सभी जैसे उल्लास की लहरों में तैरते रहते थे.

फूलचंद थोड़ीथोड़ी देर बाद सुरना के पास आ कर उस के कान में शिशु को रुई के फाहे से दूध चटाते रहने की हिदायत देता रहता था. इस बहाने वह अपनेआप को आश्वस्त भी कर लेता था कि शिशु अभी जीवित है.

रात को भी वह कई बार शिशु को देखता और उस की सांसें चलती देख कर चैन से सो जाता. सब कुछ सामान्य ढंग से चल रहा था. कहीं कोई समस्या न थी. हां, एक समस्या यह जरूर पैदा हो गई थी कि चढ़ावे में चढ़ी मिठाई का क्या किया जाए. उसे उपभोग के लिए ज्यादा दिन बचाए रखना संभव न था. यों फूलचंद ने महल्ले में अत्यंत उदारतापूर्वक प्रसाद बांटा था. फिर भी मिठाई चुकने में न आती थी.

लेकिन उस समस्या का हल भी निकल आया. रात में मिठाई फूलचंद के यहां से उठा कर हलवाई के हाथों बेच दी जाती, फिर सुबह श्रद्धालुओं के हाथों में होती हुई दोबारा फूलचंद के यहां चढ़ा दी जाती.

छठे दिन भोर में ही सुरना ने फूलचंद को जगाया और घबराई हुई आवाज में कहा, ‘‘देखो, इस को क्या हो गया?’’

फूलचंद ने हड़बड़ा कर शिशु को उघाड़ दिया. झुक कर गौर से देखा. उस की सांसें बंद हो चुकी थीं. हताश हो कर सुरना की ओर देखा, ‘‘खेल खत्म हो गया.’’ सुरना की रुलाई खुद व खुद फूट पड़ी. मगर फूलचंद ने उसे रोका, ‘‘नहीं, रोनाधोना बंद करो. इस को ऐसे ही लेटा रहने दो. देखो, किसी से जिक्र न करना. थोड़ी देर में लोग दर्शन के लिए आने लगेंगे.’’

सुरना ने रोतेरोते ही कहा, ‘‘मगर यह तो…’’

‘‘तो क्या हुआ?’’ फूलचंद ने कहा, ‘‘यह तो वैसे भी न तो रोता था, न ही हिलताडुलता था. लोगों को क्या पता चलेगा? हां, शाम को कह देंगे कि भगवान ने माया समेट ली.’’ और फिर जैसे सुरना को समझाने के बहाने फूलचंद अपनेआप को भी समझाने लगा, ‘कोई हम ने तो भगवान से यह स्वरूप मांगा न था. यह तो उन्हीं की कृपा थी. शायद हमारी गरीबी ही दूर करने आए थे. आज दिन भर लोग और दर्शन कर लेंगे तो कुछ बुरा तो नहीं हो जाएगा.’

सुरना घुटनों पर माथा टेके सिसकती रही. फूलचंद ने फिर समझाया, ‘‘देखो, अब ज्यादा दुख न करो. ज्यादा दिन तो इसे वैसे भी नहीं जीना था. और जी जाता तो क्या होता इस का. उठो, तैयार हो कर रोज की तरह बैठ जाओ. लोग आने ही वाले हैं.’’ सुरना बिना कुछ बोले तैयार होने के लिए उठ गई. थोड़ी देर बाद ही वहां दर्शनार्थियों का तांता लगना शुरू हो गया और भेंट व प्रसाद के रूप में फूलों, मिठाइयों एवं सिक्कों के ढेर लगने लगे.

Hindi Story : किसकी कितनी गलती

Hindi Story : नेहा को अस्पताल में भरती हुए 3 दिन हो चुके थे. वह घर जाने के लिए परेशान थी. बारबार वह मम्मीपापा से एक ही सवाल पूछ रही थी, ‘‘डाक्टर अंकल मुझे कब डिस्चार्ज करेंगे? मेरी पढ़ाई का नुकसान हो रहा है. 15 सितंबर से मेरे इंटरनल शुरू हो जाएंगे. अभी मैं ने तैयारी भी नहीं की है. अस्पताल में भरती होने की वजह से मैं पूजा के साथ खेल भी नहीं पा रही हूं. मेरा मन उस के साथ खेलने को कर रहा है. यहां मुझे जरा भी अच्छा नहीं लगता, इसलिए मुझे जल्दी से घर ले चलो.’’

नेहा की इन बातों का कोई ज वाब उस के मम्मीपापा के पास नहीं था. मम्मीपापा को चुप देख कर उस ने पूछा, ‘‘मम्मी पूजा आ गई क्या?’’

‘‘नहीं बेटा, अभी तो 7 बजने में 10 मिनट बाकी हैं, वह तो 7 बजे के बाद आती है. आप आराम से नाश्ता कर लीजिए.’’  ‘‘जी मम्मी.’’ नेहा ने बडे़ ही इत्मीनान से कहा.

नेहा इंदौर में जीजीआईसी में 6वीं में पढ़ती थी. वह अपनी सहेली पूजा के साथ स्कूल जाती थी. पूजा उस के पड़ोस में ही रहती थी. दोनों में गहरी दोस्ती थी. कभी नेहा पूजा के घर जा कर होमवर्क करती तो कभी पूजा उस के घर आ जाती. होमवर्क के बाद दोनों साथसाथ खेलतीं.

उस दिन जब हिंदी के टीचर विनोद प्रसाद पढ़ा रहे थे तो उन की नजर नेहा पर चली गई. वह चुपचाप सिर झुकाए बैठी थी. उन्हें लगा कि नेहा को कोई परेशानी है तो उन्होंने पूछा, ‘‘क्या बात है नेहा?’’

विनोद प्रसाद के इस सवाल पर नेहा चौंकी. उस ने धीरे से कहा, ‘‘कुछ नहीं सर, थोड़ा पेट में दर्द है.’’

‘‘नेहा बेटा… आप को पहले बताना चाहिए था. अभी आप के लिए औफिस से दवा मंगवाता हूं.’’

विनोद प्रसाद ने औफिस से दवा मंगा कर खिलाई तो नेहा को थोड़ा आराम मिल गया. दोपहर एक बजे छुट्टी हुई तो वह पूजा के साथ घर आ गई. घर आ कर उस ने स्कूल बैग एक ओर फेंका और सोफे पर लेट गई. उस की मम्मी राधिका ने उस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘बेटा, कपड़े बदल कर हाथमुंह धो लो, उस के बाद खाना खा कर आराम कर लेना. ‘‘मुझे भूख नहीं है मम्मी. अभी कुछ भी खाने का मन नहीं हो रहा है.’’ नेहा ने कहा.

‘‘बेटा, थोड़ा ही खा लो. आज मैं ने आप की पसंद का खाना बनाया है.’’

‘‘कहा न मम्मी मुझे भूख नहीं है, प्लीज मम्मी जिद मत कीजिए. मेरे पेट में दर्द हो रहा है, इसलिए खाने का मन नहीं हो रहा है.’’

‘‘बेटा, जब आप के पेट में दर्द हो रहा है तो आप को स्कूल नहीं जाना चाहिए था. पापा आते ही होंगे, उन से आप के लिए दवा मंगवाती हूं.’’

‘‘मम्मी, स्कूल में विनोद सर ने दवा दी थी. दवा खाने के बाद थोड़ा आराम मिल गया था. लेकिन अभी फिर दर्द होने लगा है. मम्मी मेरे पेट में कई दिनों से इसी तरह रुकरुक कर दर्द हो रहा है. कभी हल्का दर्द होता है तो कभी अचानक बहुत तेज दर्द होने लगता है.’’ नेहा ने पेट दबा कर कहा.

नेहा अपनी बात कह ही रही थी कि उस के पापा राकेश उस के पास आ कर खड़े हो गए, ‘‘हैलो नेहा बेटा, मेरी बच्ची कैसी है?’’

‘‘लो पापा का नाम लिया और वह आ गए.’’ राधिका ने नेहा के बाल सहलाते हुए कहा.

‘‘हैलो पापा.’’ नेहा ने धीमी आवाज में पापा का स्वागत किया.

‘‘राधिका नेहा को कुछ हुआ है क्या, जो इतनी सुस्त लग रही है? परेशान होने की कोई बात नहीं है, इस के पेट में थोड़ा दर्द है.’’  राकेश ने नेहा को गोद में बिठा कर प्यार से उस की नाक पकड़ कर हिलाई तो कुछ कहने के बजाय नेहा ने मुसकरा दिया. रात को होमवर्क करने के बाद वह सिर्फ एक गिलास दूध पी कर सो गई.

अगले दिन सुबह नेहा स्कूल जाने के लिए नहीं उठ सकी. राधिका उसे जगाने आई तो वह उदास लेटी छत को एकटक ताक रही थी. नेहा के मासूम चेहरे पर आंखों से बहे आंसू सूख कर अपने वजूद की गवाही दे रहे थे. मम्मी कब उस के पास आ कर बैठ गईं, नेहा को पता ही नहीं चला था.

राधिका ने प्यार से उस के सिर पर हाथ फेरते हुए उस के मासूम चेहरे को ध्यान से देखा. उन्हें लगा कि नेहा कुछ ज्यादा ही परेशान है तो उन्होंने पूछा, ‘‘बेटा मम्मा को बताओ ना क्या बात है? आप ने होमवर्क नहीं किया क्या या फिर स्कूल के टीचर आप को डांटते हैं?’’  ‘‘मम्मी, ऐसी कोई बात नहीं है. मैं अपना सारा काम कम्पलीट रखती हूं. इसलिए मुझे कोई टीचर नहीं डांटता.’’ नेहा ने दबी आवाज में कहा.

‘‘तो फिर क्या बात है बेटा?’’

‘‘मम्मी, कुछ दिनों से मेरे पेट में दर्द रहता है. मेरा पेट भी पहले से बड़ा हो गया है.’’

राधिका ने नेहा की फ्रौक को ऊपर की ओर खिसका कर उस के पैर को गौर से देखा तो उन्हें लगा कि शायद नेहा के पेट में सूजन आ गई है. उन्होंने यह बात राकेश को बताई तो उन्होंने पत्नी को तसल्ली देते हुए कहा, ‘‘चलो, आज इसे डाक्टर को दिखा देते हैं. लापरवाही करना ठीक नहीं है. राधिका, तुम इसे नाश्ता कराओ, तब तक मैं नहाधो कर तैयार हो जाता हूं.’’

ठीक 11 बजे राकेश राधिका और नेहा को ले कर अस्पताल पहुंच गए. उन्होंने नंबर लिया और डा. राहुल जैन के चैम्बर के सामने पड़े सोफे पर बैठ गए. नंबर आने पर वह नेहा को ले कर अंदर गए, जबकि राधिका बाहर ही बैठी रही. डा. राहुल जैन ने नेहा से कई सवाल किए. इस के बाद उन्होंने कहा, ‘‘पहले आप बच्ची का सोनोग्राफी करा लीजिए. उस के बाद जो रिपोर्ट आएगी, उस के अनुसार ही इलाज होगा.’’

डाक्टर की पर्ची और नेहा को साथ ले कर राकेश अस्पताल में उस ओर बढ़ गए, जिधर सोनोग्राफी होती थी.

सोनोग्राफी की रिपोर्ट 2 घंटे बाद मिल गई. राकेश राधिका और नेहा को सोफे पर बैठा कर अकेले ही डाक्टर की केबिन में दाखिल हो गए. रिपोर्ट देख कर डा. जैन सन्न रह गए. उन के चेहरे से लगा, जैसे रिपोर्ट पर उन्हें विश्वास नहीं हुआ हो. उन्होंने एक बार फिर रिपोर्ट को गौर से देखा. उस के बाद दबे स्वर में कहा, ‘‘मि. राकेश, नेहा इज प्रेग्नेंट.’’

यह सुन कर राकेश अवाक रह गए. वह जिस तरह बैठे थे, उसी तरह बैठे रह गए. मानो कुछ सुना ही न हो. वह डा. जैन को बिना पलक झपकाए देखते रह गए. जबकि उन्हें कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. उन की आंखों के सामने अंधेरा छा गया था.

‘‘मिस्टर राकेश, खुद को संभालिए.’’ डा. जैन ने उन्हें दिलासा देते हुए कहा.

राकेश पसीने से पूरी तरह तर हो चुके थे. एकबारगी उठ कर बाहर आ गए. उन का हाल देख कर राधिका सहम उठी. डरतेडरते उन्होंने पूछा, ‘‘रिपोर्ट देख कर क्या बताया डाक्टर ने.’’

राकेश किस तरह बताते कि उन की कली जैसी बेटी मां बनने वाली है. वह निढाल हो कर सोफे पर बैठ गए.

‘‘क्या बात है जी?’’ राधिका ने बेचैनी से पूछा, ‘‘आप बताइए न, क्या हुआ है मेरी बच्ची को, आप बताते क्यों नहीं हैं?’’

राकेश की खामोशी राधिका के दिल में नश्तर की तरह चुभ रही थी. पत्नी को बेचैन देख कर राकेश ने रुंधी आवाज में कहा, ‘‘घर चल कर बताता हूं.’’

2 किलोमीटर का सफर पूरा होने में जैसे युग लग गया. इस बीच राधिका के मन में न जाने कितने खयाल आए. तरहतरह की आशंकाएं उसे परेशान करती रहीं. घर पहुंच कर राकेश ने नेहा को बिस्तर पर लिटा कर आराम करने को कहा.

लेटने के बाद नेहा ने पूछा, ‘‘पापा, डाक्टर अंकल ने क्या बताया, मेरे पेट का दर्द कब ठीक होगा? मेरे टेस्ट होने वाले हैं. आप डाक्टर अंकल से कहिए कि मुझे जल्दी से ठीक कर दें, वरना पूजा के नंबर मुझ से ज्यादा आ जाएंगे.’’

राकेश ने नेहा के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘बेटा, आप जल्दी ठीक हो जाओगी. घबराने की कोई बात नहीं है.’’

राधिका बड़ी बेसब्री से राकेश का इंतजार कर रही थी. जैसे ही राकेश उन के पास आए, उन्होंने बेचैनी से पूछा, ‘‘डा. साहब ने क्या बताया है, क्या हुआ है मेरी बच्ची को?’’

राधिका की बांह पकड़ कर राकेश ने कहा, ‘‘आप को किस मुंह से अपनी बरबादी की कहानी सुनाऊं. हम लोग लुट गए राधिका. बर्बाद हो गए. हम किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहे. डाक्टर ने बताया है कि नेहा 6 महीने की गर्भवती है.’’

राकेश का इतना कहना था कि राधिका को ऐसा लगा कि सब कुछ घूम रहा है. आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा है. वह गिरी और बेहोश हो गई.

राकेश उस के मुंह पर पानी के छींटे मारते हुए उसे होश में लाने की कोशिश करने लगे. कभी वह उन का मुंह पकड़ कर हिलाते तो कभी कहते, ‘‘उठो राधिका, उठो खुद को संभालो. वरना नेहा का क्या होगा?’’

कुछ देर में राधिका उठी और पति के गले लग कर फफकफफक कर रोने लगी, पतिपत्नी की समझ में नहीं आ रहा था कि यह सब कैसे हुआ, किस ने नेहा के साथ यह गंदा काम किया? रोतेरोते राधिका ने कहा, ‘‘हमारी बेटी के साथ यह नीच हरकत किस ने की, किस ने मासूम कली को बेरहमी से मसल दिया? उस कमीने को हमारी मासूम बेटी पर जरा भी तरस नहीं आया. उस ने हमें समाज में मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा.’’

इस के बाद आंचल से आंखें साफ कर के राधिका नेहा के पास आ गई. प्यार से उस के सिर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘बेटी नेहा, अब तबीयत कैसी है?’’

‘‘मम्मी अब थोड़ा ठीक है, लेकिन बीचबीच में दर्द होने लगता है.’’ नेहा ने मासूमियत से कहा.

‘‘डाक्टर अंकल ने कहा है कि नेहा बहुत जल्दी ठीक हो जाएगी.’’ राकेश ने दिल पर पत्थर रख कर मुश्किल से बेटी को समझाया.

पतिपत्नी में से किसी की हिम्मत नहीं हो रही थी कि नेहा से किस तरह से इस मुद्दे पर बात करें. लेकिन बात तो करनी ही थी. आखिर राधिका ने नेहा से बड़े प्यार से पूछा, ‘‘बेटा, आप के साथ स्कूल में किसी ने गलत काम किया है क्या?’’

‘‘नहीं मम्मी, किसी ने मेरे साथ कोई गलत काम नहीं किया है.’’

एक मांबाप के लिए शायद दुनिया में सब से बुरा सवाल यही होगा. खैर, काफी समझानेबुझाने पर नेहा ने बताया, ‘‘पवन भैया मेरे साथ गंदा काम करते थे.’’

पवन नेहा की बुआ यानी राकेश की बहन का बेटा था. इसलिए उस के घर आनेजाने में किसी तरह की कोई पाबंदी नहीं थी. नेहा के इस जवाब से पतिपत्नी सिर थाम कर बैठ गए. घर का भेदी लंका ढाए. नेहा को गले लगा कर राधिका ने उस के कान के पास अपना मुंह ले जा कर लगभग फुसफुसाते हुए पूछा, ‘‘बेटा, आप के साथ पवन कब से यह गंदा काम कर रहा था? आप ने मम्मीपापा को यह बात पहले क्यों नहीं बताई.’’

नेहा के आंसू नाजुक गालों से होते हुए राधिका के कंधे को भिगो रहे थे. उस ने सिसकते हुए कहा, ‘‘मम्मी, आप को कैसे बताती. पवन भैया मुझे मार देते. वह मेरे साथ गलत काम करते थे. उस के बाद कहते थे कि किसी को कुछ बताया तो तेरा गला दबा कर जान ले लूंगा.’’

नेहा अभी भी उस वहशी को भइया कह रही थी. राधिका ने पूछा, ‘‘बेटा, आप के साथ यह गंदा काम कब से हो रहा था?’’

‘‘मम्मी जब आप घर का सामान लेने बाजार जाती थीं, उसी बीच भैया आ कर मेरे साथ जबरदस्ती करते थे. उस के बाद चौकलेट देते. मैं चौकलेट लेने से मना करती तो मुझे मारने की धमकी देते. किसी से कुछ बताने को भी मना करते थे. मम्मी, मैं बहुत डर गई थी, इसलिए आप लोगों को कुछ नहीं बता पाई.’’

‘‘कोई बात नहीं बेटा.’’ राकेश ने खुद को झूठी दिलासा देते हुए कहा.

‘‘सुनिए जी, अब क्या किया जाए?’’ राधिका ने पूछा.

‘‘अब क्या होगा. कुछ भी हो मैं इस वहशी को जिंदा नहीं छोड़ूंगा, इस के लिए चाहे मुझे जेल ही क्यों न जाना पड़े.’’ राकेश ने कहा.

‘‘नहीं, पहले आप नेहा के बारे में सोचिए. चलो डा. जैन को एक बार और दिखाएं और नेहा का अबौर्शन कराना जरूरी है. उस के बाद आगे की काररवाई करेंगे.’’

‘‘यह भी ठीक रहेगा,’’ राकेश ने मरजी के विपरीत हामी भरी.

इस के बाद अस्पताल जा कर डा. जैन से नेहा का गर्भ गिराने के लिए कहा तो डा. जैन ने कहा, ‘‘देखिए, मिस्टर राकेश, यह पुलिस केस है, इसलिए पहले आप एफआईआर कराएं, उस के बाद ही कुछ हो सकता है.’’

‘‘डाक्टर साहब, ऐसा अत्याचार मुझ पर मत कीजिए. मैं वैसे ही बहुत परेशान हूं, अब आप भी परेशान न करें.’’ राकेश ने गिड़गिड़ाते हुए कहा.

‘‘देखिए, आप समझने की कोशिश कीजिए राकेशजी. आप की बेटी 6 महीने की गर्भवती है. इसलिए उस का अबौर्शन नहीं किया जा सकता. उस की जान को खतरा हो सकता है.’’

‘‘डाक्टर साहब, अब हम इस पाप का क्या करें. हम तो किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहे.’’

‘‘राकेशजी, आप समझने की कोशिश कीजिए. ऐसा करने से नेहा की जान जा सकती है. फिर यह गैरकानूनी भी है, सो आई एम सौरी.’’ डा. राहुल जैन ने हाथ खड़े कर दिए.

नेहा 3 दिनों से अस्पताल में भरती थी. वह मम्मीपापा से बारबार पूछ रही थी कि अस्पताल से उसे कब छुट्टी मिलेगी. उस की पढ़ाई का नुकसान हो रहा है. 15 तारीख से उस के इंटरनल शुरू होने वाले हैं. जबकि उस ने अभी तैयारी भी नहीं की है. उसे पूजा के साथ खेलना है.

राकेश ने कोर्ट से नेहा का गर्भपात कराने की इजाजत मांगी, लेकिन फिलहाल अभी उन्हें इस में कामयाबी नहीं मिली है. पवन के खिलाफ थाने में विभिन्न धाराओं के अंतर्गत मुकदमा दर्ज करा दिया गया है, उस की धरपकड़ के लिए पुलिस जगहजगह छापे मार रही है. लेकिन अभी वह पकड़ा नहीं जा सका है. पुलिस ने उस की गिरफ्तारी के लिए उस का फोन नंबर ही नहीं, उस के दोस्तों, रिश्तेदारों और घर वालों के फोन नंबर सर्विलांस पर लगा रखे हैं.

अब देखना यह है कि क्या कोर्ट राकेश की फरियाद पर नेहा का गर्भपात कराने की इजाजत देता है. इस के लिए कोर्ट पहले डाक्टरों के पैनल से रिपोर्ट मांगेगा कि गर्भपात कराने से 12 साल की बच्ची को कोई नुकसान तो नहीं पहुंचेगा. इस रिपोर्ट के बाद कोर्ट कोई फैसला देगा. लेकिन फैसला आने तक राकेश और राधिका के लिए एकएक पल गुजारना वर्षों गुजारने के बराबर है, जो उन्हें हर एक पल बर्बादी का अहसास दिलाता है.

राधिका ने राकेश से उलाहना देते हुए कहा, ‘‘मैं आप से हमेशा कहती थी कि पवन पर आंख मूंद कर के इतना भरोसा मत करो, लेकिन आप को उस पर बड़ा नाज था. आप हमेशा मेरी बातों को नजरअंदाज करते थे.’’

‘‘राधिका अब बस भी करो, मैं वैसे ही बहुत परेशान हूं, मुझे क्या पता था कि वह मेरे भरोसे का इतना बुरा सिला देगा. चलो, मैं तुम्हारी बात मानता हूं कि अगर पवन को इतनी छूट न देता तो आज हमें यह दिन देखना न पड़ता.’’

इस के बाद एक लंबी सांस ले कर राकेश ने आगे कहा, ‘‘चलो, मान लिया मेरी गलती से यह हुआ, लेकिन तुम्हारी भी गलती कम नहीं है. नेहा को प्रैग्नेंट हुए आज पूरे 6 महीने हो गए हैं और तुम्हें इस की जरा भी भनक नहीं लग सकी. राधिका, मैं तो पूरा दिन औफिस में रहता हूं, लेकिन तुम भी तो नेहा का ध्यान नहीं रख पाईं. उस दरिंदे के भरोसे नेहा को अकेली छोड़ कर क्यों बाजार चली जाती थीं? तुम्हें नेहा से हर तरह की पूछताछ करनी चाहिए थी. तुम उस की मां होेने के साथ, उस की सखीसहेली भी हो, सुनो राधिका, होनी को कोई नहीं टाल सकता, लेकिन सावधानी जरूरी है. हर किसी पर भरोसा नहीं करना चाहिए चाहे कोई कितना ही सगा रिश्तेदार क्यों न हो.’’

Hindi Story : विश्वास – एक मां के भरोसे की कहानी

Hindi Story : दोपहर के 2 बजे थे. शिवानी ने आज का हिंदी अखबार उठाया और सोफे पर बैठ कर खबरों पर सरसरी नजर दौड़ाने लगी. हत्या, लूटमार, चोरी, ठगी और हादसों की खबरें थीं. जनपद में ही बलात्कार की 2 खबरें थीं. एक 10 साला बच्ची से पड़ोस के एक लड़के ने बलात्कार किया और दूसरी 15 साला लड़की से स्कूल के ही एक टीचर ने किया बलात्कार. पता नहीं क्या हो रहा है? इतने अपराध क्यों बढ़ रहे हैं? कहीं भी सिक्योरिटी नहीं रही. अपराधियों को पुलिस, कानून व जेल का जरा भी डर नहीं रहा.

बलात्कार की खबरें पढ़ कर शिवानी मन ही मन गुस्सा हो गई. यह कैसा समय आ गया है कि किसी भी उम्र की औरत या बच्ची महफूज नहीं है. बच्चियों से भी बलात्कार. इन बलात्कारियों को ऐसी सजा मिलनी चाहिए, जो ये भविष्य में ऐसे घिनौने अपराध करने के काबिल ही न रहें.

शिवानी की नजर दीवार पर लगी घड़ी पर पड़ी. दोपहर के ढाई बज रहे थे. अभी तक मोनिका स्कूल से नहीं लौटी थी? स्कूल से डेढ़ बजे छुट्टी होती है. आधा घंटा घर लौटने में लगता है. अब तक तो मोनिका को घर आ जाना चाहिए था.

शिवानी के पति कमलकांत एक प्राइवेट कंपनी में असिस्टैंट मैनेजर थे. उन की 8 साला एकलौती प्यारी सी बेटी मोनिका शहर के एक मशहूर मीडियम स्कूल में तीसरी क्लास में पढ़ रही थी. पढ़ने में होशियार मोनिका बातें भी बहुत प्यारीप्यारी करती थी.

शादी के बाद कमलकांत ने शिवानी से कहा था, ‘देखो शिवानी, हमें अपने घर में केवल एक ही बच्चा चाहिए. हम उसी को अच्छी तरह पाल लें, अच्छी तालीम दिला दें, चाहे वह लड़का हो या लड़की. यही गनीमत होगी. उस के बाद हमें दूसरे बच्चे की चाह नहीं करनी है.’

शिवानी भी पति के इस विचार से सहमत हो गई थी. वह खुद एमए, बीऐड थी, पर बेटी के लिए उस ने नौकरी करना ठीक न समझा और एक घरेलू औरत बन कर रह गई.

शिवानी के दिल की धड़कनें बढ़ने लगीं. कहां रह गई मोनिका? सुबह साढ़े 7 बजे वह आटोरिकशा में बैठ कर गई थी. 5 बच्चे और भी जाते हैं उस के साथ. मोनिका सब से पहले बैठती है और सब से बाद में उतरती है.

आटोरिकशा चलाने वाला श्यामलाल पिछले साल से बच्चों को ले जा रहा था, पर कभी लेट ही नहीं हुआ. लेकिन 2 दिन से श्यामलाल बीमार पड़ा था. कल उस का भाई रामपाल आया था आटोरिकशा ले कर.

तब शिवानी ने पूछा था, ‘आज तुम्हारा भाई श्यामलाल कहां रह गया?’

‘उसे 3 दिन से बुखार है. उस ने ही मुझे भेजा है,’ रामपाल ने कहा था.

पहले भी 2-3 बार रामपाल ही बच्चों को ले कर गया और छोड़ कर गया था. वह भी शहर में आटोरिकशा चलाता था.

आज शिवानी को खुद पर गुस्सा आ रहा था. वह रामपाल का मोबाइल नंबर लेना भूल गई थी. मोबाइल नंबर लेना न तो कल ध्यान रहा और न ही आज. अगर उस के पास रामपाल का मोबाइल नंबर होता, तो पता चल जाता कि देर क्यों हो रही है. पता नहीं, वह पढ़ीलिखी समझदार होते हुए भी ऐसी बेवकूफी क्यों कर गई?

शिवानी के मन में एक डर समा गया और वह सिहर उठी. उस का रोमरोम कांप उठा. दिल की धड़कनें मानो कम होती जा रही थीं. उस ने धड़कते दिल से श्यामलाल का मोबाइल नंबर मिलाया.

‘हैलो… नमस्कार मैडम,’ उधर से श्यामलाल की आवाज सुनाई दी.

‘‘नमस्कार. तुम्हारा भाई रामपाल अभी तक मोनिका को ले कर घर नहीं आया. पौने 3 बज रहे हैं. पता नहीं कहां रह गया वह? मेरे पास तो रामपाल का मोबाइल नंबर भी नहीं है?’’

‘इतनी देर तो नहीं होनी चाहिए थी. स्कूल से घर तक आधे घंटे से भी कम का रास्ता है. मैं ने उस का फोन मिलाया, तो फोन नहीं लग रहा है. पता नहीं, क्या बात है?

‘सुबह मैं ने उस से कहा था कि बच्चों को छोड़ कर सीधे घर आ जाना. डाक्टर के पास जाना है. दवा लानी है. 3 दिन से बुखार नहीं उतर रहा है,’ श्यामलाल बोला.

‘‘मुझे बहुत चिंता हो रही है. बेचारी मोनिका पता नहीं किस हाल में होगी?’’ शिवानी रोंआसा हो कर बोली.

थोड़ी देर बाद शिवानी ने मोनिका की क्लास में पढ़ने वाली एक बच्ची की मम्मी को मोबाइल मिला कर कहा, ‘‘हैलो… मैं शिवानी बोल रही हूं…’’

‘कहिए शिवानीजी, कैसी हैं आप?’ उधर से एक औरत की मिठास भरी आवाज सुनाई दी.

‘‘क्या आप की बेटी मुनमुन स्कूल से आ गई है?’’

‘हां, वह तो 2 बजे से पहले ही आ गई थी. क्यों, क्या बात हुई?’

‘‘हमारी मोनिका अभी तक घर नहीं आई है.’’

‘यह क्या कह रही हैं आप? एक घंटा होने को है. आखिर कहां रह गई वह? आजकल का समय भी बहुत खराब चल रहा है. रोजाना अखबार में बच्चियों के बारे में उलटीसीधी खबरें छपती रहती हैं. हम अपने बच्चों को इन लोगों के साथ भेज तो देते हैं, पर इन का कोई भरोसा नहीं. किसी के मन का क्या पता…

‘आप पुलिस में रिपोर्ट तो लिखवा ही दीजिए. देर करना ठीक नहीं है.’

यह सुनते ही शिवानी का दिल बैठता चला गया. उस के मन में एक हूक सी उठी और वह रोने लगी. उस ने स्कूल में फोन मिलाया. उधर से आवाज सुनाई दी, ‘जय भारत स्कूल…’

‘‘मैं शिवानी बोल रही हूं. हमारी बेटी मोनिका तीसरी क्लास में पढ़ती है. वह अभी तक घर नहीं पहुंची. स्कूल में कोई बच्ची तो नहीं रह गई? छुट्टी कब हुई थी?’’

‘यहां तो कोई बच्ची नहीं है. छुट्टी ठीक समय पर डेढ़ बजे हुई थी. आप की बेटी किस तरह घर पहुंचती है?’

‘‘एक आटोरिकशा से. आटोरिकशा चलाने वाला श्यामलाल बीमार था, तो उस का भाई रामपाल आटोरिकशा ले कर आया था.’’

‘बाकी बच्चे घर पहुंचे या नहीं?’

‘‘जी हां, सभी पहुंच गए. बस, मेरी बेटी नहीं पहुंची.’’

‘आप पुलिस में सूचना दीजिए. इतनी देर से बच्ची घर नहीं पहुंची. कुछ तो गड़बड़ जरूर है. आजकल किस पर विश्वास करें? कुछ पता नहीं चलता कि इनसान है या शैतान?’

यह सुन कर शिवानी की आंखों से बहते आंसू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे. लग रहा था, मानो जिस्म की ताकत निकलती जा रही हो.

शिवानी ने कमलकांत को मोबाइल फोन मिलाया.

‘हैलो…’ उधर से कमलकांत की आवाज सुनाई दी.

‘‘मोनिका अभी तक स्कूल से नहीं आई,’’ शिवानी ने रोते हुए कहा.

‘क्या कह रही हो… 3 बज चुके हैं. आखिर कहां रह गई वह? आटोरिकशा वाले का नंबर मिलाया?’ कमलकांत की डरी सी आवाज सुनाई दी.

‘‘आज भी उस का भाई रामपाल आया था. उस का नंबर मेरे पास नहीं है. श्यामलाल ने कहा है कि रामपाल का फोन नहीं मिल रहा है. सभी बच्चे अपने घरों में पहुंच चुके हैं, पर हमारी मोनिका अभी तक नहीं आई,’’ कहतेकहते शिवानी सिसकने लगी.

‘शिवानी, मैं घर आ रहा हूं. अभी पुलिस स्टेशन पहुंच कर रिपोर्ट लिखवाता हूं,’ कमलकांत की चिंता में डूबी गुस्साई आवाज सुनाई दी.

15 मिनट बाद ही कमलकांत घर पहुंच गए. शिवानी सोफे पर कटे पेड़ की तरह गिरी हुई सिसक रही थी.

‘‘शिवानी, अपनेआप को संभालो. हम पर अचानक जो मुसीबत आई है, उस का मुकाबला करना है. मैं अब पुलिस स्टेशन जा रहा हूं,’’ कहते हुए कमलकांत कमरे से बाहर निकले.

तभी घर के बाहर एक आटोरिकशा आ कर रुका.

उसे देखते ही कमलकांत चीख उठे, ‘‘अबे, अब तक कहां मर गया था?’’

शिवानी भी झटपट कमरे से बाहर निकली. कमलकांत ने देखा कि रामपाल के माथे पर पट्टी बंधी हुई थी. चेहरे पर भी मारपिटाई के निशान थे.

मोनिका आटोरिकशा से उतर रही थी. रामपाल ने मोनिका का बैग उठाया. शिवानी ने मोनिका को गोद में उठा कर इस तरह गले लगा लिया, मानो सालों बाद मिली हो.

कमलकांत ने मोनिका से पूछा, ‘‘बेटी, तुम ठीक हो?’’

‘‘हां पापा, मैं ठीक हूं. अंकल को सड़क पर पुलिस ने मारा,’’ मोनिका बोली.

कमलकांत व शिवानी चौंके. वे दोनों हैरानी से रामपाल की ओर देख रहे थे.

‘‘रामपाल, क्या बात हुई? यह चोट कैसे लगी? आज इतनी देर कैसे हो गई? हम तो परेशान थे कि पता नहीं आज क्या हो गया, जो अब तक मोनिका घर नहीं आई,’’ कमलकांत ने पूछा.

‘‘चिंता करने की तो पक्की बात है, साहबजी. रोजाना तो बेटी 2 बजे तक घर आ जाती थी और आज साढ़े 3 बज गए. इतनी देर तक जब बेटी या बेटा घर न पहुंचे, तो घबराहट तो हो ही जाती है,’’ रामपाल ने कहा.

‘‘तुम्हें चोट कैसे लगी?’’ शिवानी ने हैरानी से पूछा.

आटोरिकशा के एक पहिए में पंक्चर हो गया. पंक्चर लगवाने में आधा घंटा लग गया. आगे चौक पर जाम लगा था. कुछ लोग प्रदर्शन कर किसी मंत्री का पुतला फूंक रहे थे. कुछ देर वहां हो गई. मैं इधर ही आ रहा था. मैं जानता था कि आप को चिंता हो रही होगी…’’ कहतेकहते रामपाल रुका.

‘‘फिर क्या हुआ? मोनिका कह रही है कि तुम्हें पुलिस ने मारा?’’ कमलकांत ने पूछा.

‘‘मोनिका बेटी ठीक कह रही है. मोटरसाइकिल पर स्टंट करते हंसतेचीखते हुए 3 लड़के आ रहे थे. मुझे लगा कि वे आटोरिकशा से टकरा जाएंगे, तो मैं ने तेजी से हैंडल घुमाया. एक दुकान के बाहर एक मोटरसाइकिल खड़ी थी. वह मोटरसाइकिल से हलका सा टकरा गया और मोटरसाइकिल पर बैठा तकरीबन 5 साल का बच्चा गिर गया. गिरते ही बच्चा रोने लगा.

‘‘दुकान से पुलिस का एक सिपाही कुछ सामान खरीद रहा था. वह वरदी में था, बच्चा व मोटरसाइकिल उसी की थी.

‘‘मैं ने आटोरिकशा से उतर कर सिपाही से हाथ होड़ कर माफी मांगी. उस ने मुझे गाली देते हुए 4-5 थप्पड़ मार दिए. इतना ही नहीं, मेरी गरदन पकड़ कर जोर से धक्का दिया, तो मेरा सिर आटोरिकशा से टकरा गया और खून निकलने लगा.

‘‘पास में ही एक डाक्टर की दुकान थी. मैं ने वहां पट्टी कराई और सीधा यहां आ रहा हूं,’’ रामपाल के मुंह से यह सुन कर कमलकांत और शिवानी के गुस्से का ज्वारभाटा शांत होता चला गया.

अचानक शिवानी के मन में दया उमड़ी. उस ने हमदर्दी जताते हुए कहा, ‘‘ओह, यह तो बहुत बुरा हुआ. तुम्हें चोट भी लग गई.’’

‘‘मैडमजी, मुझे अपनी चोट का जरा भी दुख नहीं है. मगर मोनिका बेटी को जरा भी चोट लग जाती या कुछ हो जाता, तो मुझे बहुत दुख होता. आप अपने बच्चे को हमारे साथ किसी विश्वास से भेजते हैं. हमारा भी तो यह फर्ज बनता है कि हम उस विश्वास को बनाए रखें, टूटने न दें,’’ रामपाल ने कहा.

‘‘रुको रामपाल, मैं तुम्हारे लिए चाय लाती हूं.’’

‘‘शुक्रिया मैडमजी, चाय फिर कभी. घर पर भैया इंतजार कर रहे होंगे. बहुत देर हो चुकी है. मुझे उन को भी ले कर डाक्टर के पास जाना है. आप भैया को मोबाइल पर सूचना दे दो कि मोनिका घर आ गई है. उन को भी चिंता हो रही होगी,’’ रामपाल ने कहा और आटोरिकशा ले कर चल दिया.

Hindi Story : गुरु की शिक्षा – बड़ी मामी से सब क्यों परेशान थे

Hindi Story : सारे घर में कोलाहल मचा हुआ था, ‘‘अरे, छोटू, साथ वाला कमरा साफ कर दिया न?’’

‘‘अरे, सुमति, देख तो खाना वगैरह सब तैयार है.’’

‘‘अजी, आप क्यों ऐसे बैठे हैं, जल्दी कीजिए.’’

पूरे घर को पद्मा ने सिर पर उठा रखा था. बड़ी मामी जो आ रही थीं दिल्ली.

वैसे तो निर्मला, सुजीत बाबू की मामी थीं, इस नाते वह पद्मा की ममिया सास हुईं, परंतु बड़े से छोटे तक वह ‘बड़ी मामी’ के नाम से ही जानी जाती थीं. बड़ी मामी ने आज से करीब 8-9 वर्ष पहले दिल्ली छोड़ कर अपने गुरुभभूतेश्वर स्वामी के आश्रम में डेरा जमा लिया था. उन्होंने दिल्ली क्यों छोड़ी, यह बात किसी को मालूम नहीं थी. हां, बड़ी मामी स्वयं यही कहती थीं, ‘‘हम तो सब बंधन त्याग कर गुरुकी शरण में चले गए. वरना दिल्ली में कौन 6-7 लाख की कोठी को बस सवा 4 लाख में बेच देता.’’

जाने के बाद लगभग 4 साल तक बड़ी मामी ने किसी की कोई खोजखबर नहीं ली थी. पर एक दिन अचानक तार भेज कर बड़ी मामी आ धमकीं मामा सहित. बस, तब से हर साल दोनों चले आते थे. पद्मा पर उन की विशेष कृपादृष्टि थी. कम से कम पद्मा तो यही समझती थी.

उस दिन भी रात की गाड़ी से बड़ी मामी आ रही थीं. इसलिए सभी भागदौड़ कर रहे थे. रात को पद्मा और सुजीत बाबू दोनों उन्हें स्टेशन पर लेने गए. वैसे घर से स्टेशन अधिक दूर न था, फिर भी पद्मा जितनी जल्दी हो सका, घर से निकल गई.

पद्मा को गए अभी 15 मिनट ही हुए थे कि बड़ी जोर से घर की घंटी बजी.

‘‘छोटू, देखो तो,’’ सुमति बोली.

छोटू ने दरवाजा खोला. वह हैरानी से चिल्लाया, ‘‘बहूजी, बड़ी मामी.’’

समीर और सुमति फौरन दौड़े.

‘‘मामीजी आप मां कहां है?

‘‘तो क्या पद्मा मुझे लेने पहुंची है? मैं ने तो 5-7 मिनट इंतजार किया. फिर चली आई.’’

‘‘हां, दूसरों को सहनशीलता का पाठ पढ़ाती हैं. परंतु खुद…’’ समीर धीरे बोला, परंतु सुमति ने स्थिति संभाल ली.

थोड़ी देर में पद्मा और सुजीत बाबू भी हांफते हुए आ गए.

‘‘नमस्कार, मामाजी,’’

‘‘जुगजुग जिओ. देख री पद्मा, तेरे लिए घर के सारे मसाले ले आई हूं. हमें आश्रम में सस्ते मिलते हैं न.’’

पद्मा गद्गद हो गई,  ‘‘इतनी तकलीफ क्यों की, मामीजी.’’

‘‘अरी, तकलीफ कैसी? तुझे मुफ्त में थोड़े ही दूंगी. वैसे मैं तो दे दूं, पर हमारे गुरुजी कहते हैं, किसी से कुछ लेना नहीं चाहिए. क्यों बेकार तुम्हें ‘पाप’ का भागीदार बनाऊं. क्यों जी?’’

‘‘हां जी,’’ मामाजी तो जैसे समर्थन के लिए तैयार थे.

पद्मा का मुंह ही उतर गया.

पद्मा को छोड़ कर घर में कोई भी अन्य व्यक्ति मामी को पसंद नहीं करता था. बस, वह हमेशा अपने आश्रम की बातें करती थीं. कभी अपने गुरुकी तारीफों के पुल बांधने लगतीं परंतु उन की कथनी और करनी में जमीनआसमान का अंतर था. जितने दिन बड़ी मामी रहतीं, पूरे घर में कोहराम मचाए रखतीं. सभी भुनभुनाते रहते थे, सिर्फ पद्मा को छोड़ कर. उस पर तो बड़ी मामी के गुरुऔर आश्रम का भूत सवार था.

दूसरे दिन सुबह 5 बजे उठ कर बड़ी मामी ने जोरजोर से मंत्रोच्चारण शुरू कर दिया. सुमति को रेडियो सुनने का बहुत शौक था. उस ने देखा कि 7 बज रहे हैं. वैसे भी बड़ी मामी तो 5 बजे की उठी थीं, इसलिए उस ने रेडियो चालू कर दिया. पर बड़ी मामी का मुंह देखते ही बनता था. लाललाल आंखें ऐसी कि खा जाएंगी.

पद्मा ने देखा तो फौरन बहू को झिड़का, ‘‘बंद कर यह रेडियो, मामीजी पाठ कर रही हैं.’’

‘‘रहने दे, बहू. मेरा क्या, मैं तो बरामदे में पाठ कर लूंगी. किसी को तंग करने की शिक्षा हमारे गुरु ने नहीं दी है.’’

‘‘नहींनहीं, बड़ी मामी. चल री बहू, बंद कर दे.’’

रेडियो तो बंद हो गया पर सुमति का चेहरा उतर गया. दोपहर में छोटू ने रेडियो लगा दिया तो बड़ी मामी उसे खाने को दौड़ीं, ‘‘अरे मरे, नौकर है, और शौक तो देखो राजा भोज जैसे. चल, बंद कर इसे. मुझे सोना है.’’

छोटू बोला, ‘‘अच्छा, बड़ी मामी, फिर तुम्हारे गुरुका टेप चला दूं.’’

‘‘ठहर दुष्ट, मेरे गुरुजी के बारे में ऐसा बोलता है. आज तुझे न पिटवाया तो मेरा नाम बदल देना.’’

जब तक पद्मा को पूरी बात पता चले, छोटू खिसक चुका था.

‘‘सच बहूजी, अब तो 15 दिन तक रेडियो, टीवी सब बंद,’’ छोटू ने कहा.

‘‘हां रे,’’ सुमति ने गहरी सांस ली.

अगले दिन शाम को चाय पीते हुए बड़ी मामी बोल पड़ीं, ‘‘हमारे आश्रम में खानेपीने की बहुत मौज है. सब सामान मिलता है. समोसा, कचौरी, दालमोठ, सभी कुछ, क्यों जी?’’

‘‘हां जी,’’ सदा की भांति मामाजी ने उत्तर में सिर हिलाया.

पद्मा खिसिया गई, ‘‘बड़ी मामी, यहां भी तो सब मिलता है. जा छोटू, जरा रोशन की दुकान से 8 समोसे तो ले आ.’’

‘‘रहने दो, बहू, हम ने तो खूब खाया है अपने समय में. खुद खाया और सब को खिलाया. मजाल है, किसी को खाली चाय पिलाई हो.’’

‘‘तो मामीजी, हम ने भी तो बिस्कुट और बरफी रखी ही है,’’ सुमति ने कहा.

बस, बड़ी मामी तो सिंहनी सी गरजीं, ‘‘देखा, बहू.’’

पद्मा ने भी झट बहू को डांट दिया, ‘‘बहू, बड़ों से जबान नहीं लड़ाते. चल, मांग माफी.’’

‘‘रहने दे, बहू, हम तो अब इन बातों से दूर हो चुके हैं. सच, न किसी से दोस्ती, न किसी से बैर. क्यों जी?’’

‘‘हां जी,’’ मामाजी ने खूंटे से बंधे प्यादे की तरह सिर हिलाया.

‘‘बहू, शाम को जरा बाजार तो चलना. कुछ खरीदारी करनी है,’’ सुबह- सुबह मामी ने आदेश सुनाया.

‘‘आज शाम,’’ पद्मा चौंकी.

‘‘क्यों, क्या हुआ?’’

‘‘आज मां को अपनी दवा लेने डाक्टर के पास जाना है,’’ समीर ने बताया.

‘‘मैं क्या जबरदस्ती कर रही हूं. वैसे हमारे गुरुजी ने तो परसेवा को परमधर्म बताया है.’’

‘‘हांहां, मामीजी, मैं चलूंगी. दवा फिर ले आऊंगी.’’

‘‘सोच ले, बहू, हमारा क्या है, हम तो गुरु  के आसरे चलते हैं,’’ टेढ़ी नजरों से समीर को देखती हुई मामी चली गईं.

समीर ने मां को समझाना चाहा, पर उस पर तो गुरुजी के वचनों का भूत सवार था. बोली, ‘‘ठीक ही तो है, बेटा. परसेवा परम धर्म है.’’

और शाम को पद्मा बाजार गई. पर लौटतेलौटते सवा 8 बजे गए. बड़ेबड़े 2 थैले पद्मा ने उठाए हुए थे और हांफ रही थी.

आते ही बड़ी मामी बोलीं, ‘‘सुनो जी, यहां आज बाजार लगा हुआ था. अच्छा किया न, चले गए. सामान काफी सस्ते में मिल गया है.’’

सारा सामान निकाल कर मामी एकदम उठीं और बोलीं, ‘‘हाय री, पद्मा, लिपस्टिक तो लाना भूल ही गए. अब कल चलेंगे.’’

‘‘मामीजी, आप और लिपस्टिक?’’ सुमति बोली.

‘‘अरे, हम तो इन बंधनों से मुक्त हो गए हैं, वरना कौन मैं इतनी बूढ़ी हो गई हूं. हमारे आश्रम में तो नातीपोती वाली भी लाललाल रंग की लिपस्टिक लगाती हैं. मैं तो फिर भी स्वाभाविक रंग लेती हूं. सच, क्या पड़ा है इन चोंचलों में. हमारे लिए तो गुरु ही सबकुछ हैं.’’

‘बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम,’ छोटू फुसफुसाया तो समीर और सुमति चाह कर भी हंसी न रोक सके. हालांकि बड़ी मामी ने छोटू की बात तो नहीं सुनी फिर भी उन्होंने भृकुटि तान लीं.

अगले दिन पद्मा की तबीयत खराब हो गई. इसलिए उठने में थोड़ी देर हो गई. उस ने देखा कि बड़ी मामी रसोई में चाय बना रही हैं.

‘‘मुझे उठा दिया होता, मामीजी,’’  पद्मा ने कहा.

‘‘नहींनहीं, तुम सो जाओ चैन से. हमारे गुरुजी ने इतना तो सिखाया ही है कि कोई काम न करना चाहे तो उस के साथ जबरदस्ती नहीं करनी चाहिए.’’

‘‘नहींनहीं, मामीजी. ऐसी बात नहीं. आज जरा तबीयत ठीक नहीं थी,’’ पद्मा मिमियाई.

‘‘तो बहू, जा कर आराम कर न. हम किसी से कुछ आशा नहीं करते. यह हमारे गुरुजी की शिक्षा है.’’

उस दिन तो पद्मा के मन में आया कि कह दे ‘चूल्हे में जाओ तुम और तुम्हारे गुरुजी.’

दोपहर को खाते वक्त बड़ी मामी ने सुमति से पूछा, ‘‘क्यों सुमति, दही नहीं है क्या?’’

‘‘नहीं मामीजी. आज सुबह दूध अधिक नहीं मिला. इसलिए जमाया नहीं. नहीं तो चाय को कम पड़ जाता.’’

‘‘हमारे आश्रम में तो दूधघी की कोई कमी नहीं है. न भी हो तो हम कहीं न कहीं से जुगाड़ कर के मेहमानों को तो खिला ही देते हैं.’’

‘‘हां, अपनी और बात है. भई, हम न तो लालच करते हैं, न ही हमें जबान के चसके हैं. हमारे गुरुजी ने तो हमें रूखीसूखी में ही खुश रहना सिखाया है क्यों जी?’’

‘‘हां जी,’’ रटारटाया उत्तर मिला.

‘‘रूखीसूखी?’’ सुमति ने मुंह बिगाड़ा, ‘‘2 सूखे साग, एक रसे वाली सब्जी, रोटी, दालभात, चटनी, पापड़ यह रूखीसूखी है?’’

शाम को बड़ी मामी ने फिर शोर मचाया, ‘‘हम ने तो सबकुछ छोड़ दिया है. अब लिपस्टिक लगानी थी. पर हमारे गुरुजी ने शिक्षा दी है, किसी की चीज मत इस्तेमाल करो. भले ही खुद कष्ट सहना पड़े.’’

‘‘लिपस्टिक न लगाने से कैसा कष्ट, मामीजी?’’ छोटू ने छेड़ा.

‘‘चल हट, ज्यादा जबान न लड़ाया कर,’’ बड़ी मामी ने उसे झिड़क दिया.

आखिर पद्मा को बड़ी मामी के साथ बाजार जाना ही पड़ा. लौटी तो बेहद थकी हुई थी और बड़ी मामी थीं कि अपना ही राग अलाप रही थीं, ‘‘जितना हो सके, दूसरों के लिए करना चाहिए. नहीं तो जीवन में रखा ही क्या है, क्यों जी?’’

‘‘हां जी,’’ मामाजी के बोलने से पहले ही छोटू बोला और भाग गया.

एक दिन बैठेबैठे ही बड़ी मामी बोलीं, ‘‘जानती है, पद्मा, वहां अड़ोस- पड़ोस में मैं ने तेरी बहुत तारीफें कर रखी हैं. सब से कहती हूं, ‘बहू हो तो पद्मा जैसी. मेरा बड़ा खयाल रखती है. क्याक्या सामान नहीं ले कर रखती मेरे लिए.’ सच बहू, तू मेरी बहुत सेवा करती है.’’

पद्मा तो आत्मविभोर हो गई. कुछ कह पाती, उस से पहले ही बड़ी मामी फिर से बोल पड़ीं, ‘‘हां बहू, सुना है यहां काजू की बरफी बहुत अच्छी मिलती है. सोच रही थी, लेती जाऊं. वैसे हमें कोई लालसा नहीं है. पर अपनी पड़ोसिनों को भी तो दिखाऊंगी न कि तू ने क्या मिठाई भेजी है.’’

पद्मा तो ठंडी हो गई, ‘इस गरमी में, जबकि पीने को दूध तक नहीं है, इन्हें बरफी चाहिए, वह भी काजू वाली. 80 रुपए किलो से कम क्या होगी?’

अभी पद्मा इसी उधेड़बुन में थी कि बड़ी मामी ने फिर मुंह खोला, ‘‘बहू, अब किसी को कोई चीज दो तो खुले दिल से दो. यह क्या कि नाम को पकड़ा दी. यह पैसा कोई साथ थोड़े ही चलेगा. यही हमारे गुरुजी का कहना है. हम तो उन्हीं की बताई बातों पर चलते हैं.’’

पद्मा को लगा कि अगर वह जल्दी ही वहां से न खिसकी तो जाने बड़ी मामी और क्याक्या मांग बैठेंगी.

फिर बड़ी मामी ने नई बात छेड़ दी. ‘‘जानती है, बहू. हमारे गुरुजी कहते हैं कि जितना हो सके मन को संयम में रखो. खानपान की चीजों की ओर ध्यान कम दो. अब तू जाने, घर में सब के साथ मैं भी अंटसंट खा लेती हूं. पर मेरा अंतर्मन मुझे कोसता है, ‘छि:, खाने के लिए क्या मरना.’ इसलिए बहू, आज से हमारे लिए खाने की तकलीफ मत करना. बस, हमें तो रात में एक गिलास दूध, कुछ फल और हो सके तो थोड़ा मेवा दे दिया कर, आखिर क्या करना है भोगों में पड़ कर.’’

कहां तो पद्मा बड़ी मामी के गुण गाते न थकती थी, कहां अब वह पछता रही थी कि किस घड़ी में मैं ने यह बला अपने गले बांध ली थी.

बस, जैसेतैसे 20 दिन गुजरे, जब बड़ी मामी जाने लगीं तो सब खुश थे कि बला टलने को है. पर जातेजाते भी बड़ी मामी कह गईं, ‘‘बहू, अब कोई इतनी दूर से भाड़ा लगा कर आए और रखने वाले महीना भर भी न रखें तो क्या फायदा? हमारे गुरुजी तो कहते हैं, ‘घर आया मेहमान, भगवान समान’ पर अब वह बात कहां. हां, हमारे यहां कोई आए, तो हम तो उसे तब तक न छोड़ें जब तक वह खुद न जाने को चाहे.’’

यह सुन कर सुमति ने पद्मा की ओर देखा तो पद्मा कसमसा कर रह गई.

‘‘अच्छा बहू, इस बार आश्रम आना. तू ने तो देख रखा है, कैसा अच्छा वातावरण है. सत्संग सुनेगी तो तेरे भी दिमाग में गुरु के कुछ वचन पड़ेंगे, क्यों जी?’’

‘‘हां जी,’’ मामाजी का जवाब था.

बड़ी मामी को विदा करने के बाद सब हलकेफुलके हो कर घर लौटे. घर आ कर समीर ने पूछा, ‘‘क्यों मां, कब का टिकट कटा दूं?’’

‘‘कहां का?’’ पद्मा ने पूछा.

‘‘वहीं, तुम्हारे आश्रम का. बड़ी मामी न्योता जो दे गई हैं.’’

‘‘न बाबा, मैं तो भर पाई उस गुरु से और उस की शिष्या से. कान पकड़ लेना, जो दोबारा उन का जिक्र भी करूं. शिष्या ऐसी तो गुरु के कहने ही क्या. सच, आज तक मैं ऊपरी आवरण देखती रही. सुनीसुनाई बातों को ही सचाई माना. परंतु सच्ची शिक्षा है, अपने अच्छे काम. ये पोंगापंथी बातें नहीं.’’

‘‘सच कह रही हो, मां?’’ आश्चर्यचकित समीर ने पूछा.

‘‘और नहीं तो क्या, क्यों जी?’’

और समवेत स्वर सुनाई दिया, ‘‘हां जी.’’

Hindi Story : शुभचिंतक – शक्की पत्नी की दुविधा

Hindi Story : राकेश से झगड़ कर सविता महीने भर से मायके में रह रही थी. उन के बीच सुलह कराने के लिए रेणु और संजीव ने उन दोनों को अपने घर बुलाया. यह मुलाकात करीब 2 घंटे चली पर नतीजा कुछ न निकला.

‘‘अब साक्षी के साथ मेरा कोई संबंध नहीं है,’’ राकेश बोला, ‘‘अतीत के उस प्रेम को भुलाने के बाद ही मैं ने सविता से शादी की है. अब वह मेरी सिर्फ सहकर्मी है. उसे और मुझे ले कर सविता का शक बेबुनियाद है. हमारे विवाहित जीवन की सुरक्षा व सुखशांति के लिए यह नासमझी जबरदस्त खतरा पैदा कर रही है.’’ अपने पक्ष में ऐसी दलीलें दे कर राकेश बारबार सविता पर गुस्से से बरस पड़ता था.

‘‘मैं नहीं चाहती हूं कि ये दोनों एकदूसरे के सामने रहें,’’ फुफकारती हुई सविता बोली, ‘‘इन्हें किसी दूसरी जगह नौकरी करनी होगी. इन की उस के साथ ही नौकरी करने की जिद हमारी गृहस्थी के लिए खतरा पैदा कर रही है.’’ ‘‘तुम्हारे बेबुनियाद शक को दूर करने के लिए मैं अपनी लगीलगाई यह अच्छी नौकरी कभी नहीं छोडूंगा.’’

‘‘जब तक तुम ऐसा नहीं करोगे, मैं तुम्हारे पास नहीं लौटूंगी.’’

दोनों की ऐसी जिद के चलते समझौता होना असंभव था. नाराज हो कर राकेश वापस चला गया. ‘‘हमारा तलाक होता हो तो हो जाए पर राकेश की जिंदगी में दूसरी औरत की मौजूदगी मुझे बिलकुल मंजूर नहीं है,’’ सविता ने कठोर लहजे में अपना फैसला सुनाया तो उस की सहेली रेणु का दिल कांप उठा था.

रेणु के पति संजीव ने सविता के पास जा कर उस का कंधा पकड़ हौसला बढ़ाने वाले अंदाज में कहा, ‘‘सविता, मैं तुम से पूरी तरह सहमत हूं. राकेश की नौकरी न छोड़ने की जिद यही साबित कर रही है कि दाल में कुछ काला है. तुम अभी सख्ती से काम लोगी तो कई भावी परेशानियों से बच जाओगी.’’ राकेश की इस सलाह को सुन कर सविता और रेणु दोनों ही चौंक पड़ीं. वह बिलकुल नए सुर में बोला था. अभी तक वह सविता को राकेश के पास लौट जाने की ही सलाह दिया करता था.

‘‘मैं अभी भी कहती हूं कि राकेश पर विश्वास कर के सविता को वापस उस के पास लौट जाना चाहिए. उसे उलटी सलाह दे कर आप बिलकुल गलत शह दे रहे हैं,’’ रेणु की आवाज में नाराजगी के भाव उभरे. ‘‘मेरी सलाह बिलकुल ठीक है. राकेश को अपनी पत्नी की भावनाओं को समझना चाहिए. यह यहां रहती रही तो जल्दी ही उस की अक्ल ठिकाने आ जाएगी.’’

संजीव को अपने पक्ष में बोलते देख सविता की आवाज में नई जान पड़ गई, ‘‘रेणु, तुम मेरी सब से अच्छी सहेली हो. कम से कम तुम्हें तो मेरी मनोदशा को समझ कर मेरा पक्ष लेना चाहिए. मुझे तो आज संजीव अपना ज्यादा बड़ा शुभचिंतक नजर आ रहा है.’’ ‘‘लेकिन यह समझदारी की बात नहीं कर रहे हैं,’’ रेणु ने नाराजगी भरे अंदाज में उन दोनों को घूरा.

‘‘मेरा बताया रास्ता समझदारी भरा है या नहीं यह तो वक्त ही बताएगा रेणु. फिलहाल लंच कराओ क्योंकि भूख के मारे अब पेट का बुरा हाल हो रहा है,’’ संजीव ने प्यार से अपनी पत्नी रेणु का गाल थपथपाया, पर वह बिलकुल भी नहीं मुसकराई और नाराजगी दर्शाती रसोई की तरफ बढ़ गई. आगामी दिनों में संजीव का सविता के प्रति व्यवहार पूरी तरह से बदल गया. इस बदलाव को देख रेणु हैरान भी होती और परेशान भी.

‘‘सविता, तुम जैसी सुंदर, स्मार्ट और आत्मनिर्भर युवती को अपमान भरी जिंदगी बिलकुल नहीं जीनी चाहिए… ‘‘तुम राकेश से हर मामले में इक्कीस हो, फिर तुम क्यों झुको और दबाव में आ कर गलत तरह का समझौता करो?

‘‘तुम जैसी गुणवान रूपसी को जीवनसंगिनी के रूप में पा कर राकेश को अपने भाग्य पर गर्व करना चाहिए. तुम्हें उस के हाथों किसी भी तरह का दुर्व्यवहार नहीं सहना है,’’ संजीव के मुंह से निकले ऐसे वाक्य सविता का मनोबल भी बढ़ाते और उस के मन की पीड़ा भी कम करते. अगर रेणु सविता को बिना शर्त वापस लौटने की बात समझाने की कोशिश करती तो वह फौरन नाराज हो जाती.

धीरेधीरे सविता और संजीव एक हो गए और रेणु अलगथलग पड़ती चली गई. राकेश की चर्चा छिड़ती तो उस के शब्दों पर दोनों ही ध्यान नहीं देते. सविता संजीव को अपना सच्चा हितैषी बताती. अब रेणु के साथ अकसर उस का झगड़ा ही होता रहता था. सविता के सामने ही संजीव अपनी पत्नी रेणु से कहता, ‘‘यह बेचारी कितनी दुखी और परेशान चल रही है. इस कठिन समय में इस का साथ हमें देना ही होगा.

‘‘अपने दुखदर्द के दायरे से निकल कर जब यह कुछ खुश और शांत रहने लगेगी तब हम जो भी इसे समझाएंगे, वह इस के दिमाग में ज्यादा अच्छे ढंग से घुसेगा. अभी हमें इस का मजबूत सहारा बनना है, न कि सब से बड़ा आलोचक.’’

संजीव, सविता का सब से बड़ा प्रशंसक बन गया. उस के हर कार्य की तारीफ करते उस की जबान न थकती. उसे खुश करने को वह उस के सुर में सुर मिला कर बोलता. उस के लतीफे सुन सविता हंसतेहंसते दोहरी हो जाती. अपने रंगरूप की तारीफ सुन उस के गाल गुलाबी हो उठते. ‘‘तुम कहीं सविता पर लाइन तो नहीं मार रहे हो?’’ एक रात अपने शयनकक्ष में रेणु ने पति संजीव से यह सवाल पूछ ही लिया.

‘‘इस सवाल के पीछे क्या ईर्ष्या व असुरक्षा का भाव छिपा है, रेणु?’’ संजीव उस की आंखों में आंखें डाल कर मुसकराया. ‘‘अभी तो ऐसा कुछ नहीं हुआ है न?’’

‘‘जिस दिन मैं अपनी आंखों से कुछ गलत देख लूंगी उस दिन तुम दोनों की खैर नहीं,’’ रेणु ने नाटकीय अंदाज में आंखें तरेरीं.

संजीव ने हंसते हुए उसे छाती से लगाया और कहा, ‘‘पति की जिंदगी में दूसरी औरत के आने की कल्पना ऐसा सचमुच हो जाने की सचाई की तुलना में कहीं ज्यादा भय और चिंता को जन्म देती है डार्लिंग. मैं सविता का शुभचिंतक हूं, प्रेमी नहीं. तुम उलटीसीधी बातें न सोचा करो.’’ उस वक्त संजीव की बांहों के घेरे में कैद हो कर रेणु अपनी सारी चिंताएं भूल गई पर सविता व अपने पति की बढ़ती निकटता के कारण अगले दिन सुबह से वह फिर तनाव का शिकार हो गई थी.

संजीव का साथ सविता को बहुत भाने लगा था. वह लगभग रोज शाम को उन के घर चली आती या फिर संजीव आफिस से लौटते समय उस के घर रुक जाता. सविता के मातापिता व भैयाभाभी उसे भरपूर आदरसम्मान देते थे. उन सभी को लगता कि संजीव से प्रभावित सविता उस के समझाने से जल्दी ही राकेश के पास लौट जाएगी. सविता ने एक शाम ड्राइंगरूम में सामने बैठे संजीव से कहा, ‘‘यू आर माई बेस्ट फ्रेंड. तुम्हारा सहारा न होता तो मैं तनाव के मारे पागल ही हो जाती. थैंक यू वेरी मच.’’

‘‘दोस्तों के बीच ऐसे ‘थैंक यू’ कानों को चुभते हैं, सविता. हमारी दोस्ती मेरे जीवन में भी खुशियों की महक भर रही है. तुम्हारे शानदार व्यक्तित्व से मैं भी बहुत प्रभावित हूं,’’ संजीव की आंखों में प्रशंसा के भाव उभरे. ‘‘तुम दिल के बहुत अच्छे हो, संजीव.’’

‘‘और तुम बहुत सुंदर हो, सविता.’’ संजीव ने उस की प्रशंसा आंखों में गहराई से झांकते हुए की थी. उस की भावुक आवाज सविता के बदन में अजीब सी सरसराहट दौड़ा गई. वह संजीव की आंखों से आंखें न मिला सकी और लजाते से अंदाज में उस ने अपनी नजरें झुका लीं.

संजीव अचानक उठा और उस के पास आ कर बोला, ‘‘मेरे होते हुए तुम किसी बात की चिंता न करना. मैं हर पल तुम्हारे साथ हूं. कल रविवार को नाश्ता हमारे साथ करना, बाय.’’ आगे जो हुआ वह सविता के लिए अप्रत्याशित था. संजीव ने बड़े भावुक अंदाज में उस का हाथ पकड़ कर चूम लिया था. संजीव की इस हरकत ने सविता की सोचनेसमझने की शक्ति हर ली. उस ने नजरें उठाईं तो संजीव की आंखों में उसे अपने लिए प्रेम के गहरे भाव नजर आए.

संजीव को सविता अपना अच्छा दोस्त और सब से बड़ा शुभचिंतक मानती थी. उस दोस्त ने अब प्रेमी बनने की दिशा में पहला कदम उस का हाथ चूम कर उठाया था. संजीव की आंखों में देखते हुए सविता पहले शर्माए से अंदाज में मुसकराई और फिर अपनी नजरें झुका लीं. उस ने संजीव को अपना प्रेमी बनने की इजाजत इस मुसकान के रूप में दे दी थी.

बिना और कुछ कहे संजीव अपने घर चला गया था. उस रात सविता ढंग से सो नहीं पाई थी. सारी रात मन में संजीव व राकेश को ले कर उथलपुथल चलती रही थी. सुबह तक वह न राकेश के पास लौटने का निर्णय ले सकी और न ही संजीव से निकटता कम करने का. मन में घबराहट व उत्तेजना के मिलेजुले भाव लिए वह अगले दिन सुबह संजीव और रेणु के घर पहुंच गई. मौका मिलते ही वह संजीव से खुल कर ढेर सारी बातें करने की इच्छुक थी. नएनए बने

प्रेम संबंध को निभाने के लिए बड़ी गोपनीयता व सतर्कता की जरूरत को वह रेखांकित करने के लिए आतुर थी. ‘‘रेणु नाराज हो कर मायके चली गई है,’’ घर में प्रवेश करते ही संजीव के मुंह से यह सुन कर सविता जोर से चौंक पड़ी थी.

‘‘क्यों नाराज हुई रेणु?’’ सविता ने धड़कते दिल से पूछा. ‘‘कल शाम तुम्हारा हाथ चूमने की खबर उस तक पहुंच गई.’’

‘‘वह कैसे?’’ घबराहट के मारे सविता का चेहरा पीला पड़ गया. ‘‘शायद तुम्हारी भाभी ने कुछ देखा और रेणु को खबर कर दी.’’

‘‘यह तो बहुत बुरा हुआ, संजीव. मैं रेणु का सामना कैसे करूंगी? वह मेरी बहुत अच्छी सहेली है,’’ सविता तड़प उठी. सविता को सोफे पर बिठाने के बाद उस की बगल में बैठते हुए संजीव ने दुखी स्वर में कहा, ‘‘कल शाम जो घटा वह गलत था. मुझे अपनी भावनाओं को नियंत्रण में रखना चाहिए था.’’

‘‘दोस्ती को कलंकित कर दिया मैं ने,’’ सविता की आंखों से आंसू बहने लगे. एक गहरी सांस छोड़ कर संजीव बोला, ‘‘रेणु से मैं बहुत प्यार करता हूं. फिर भी न जाने कैसे तुम ने मेरे दिल में जगह बना ली है…तुम से भी प्यार करने लगा हूं मैं…रेणु बहुत गुस्से में थी. मुझे समझ नहीं आ रहा है, अब क्या होगा?’’

‘‘हम से बड़ी भूल हो गई है,’’ सविता सुबक उठी. ‘‘ठीक कह रही हो तुम. तुम्हारे दुखदर्द को बांटतेबांटते मैं भावुक हो उठता था. तुम्हारा अकेलापन दूर करने की कोशिश मैं शुभचिंतक बन कर रहा था और अंतत: प्रेमी बन बैठा.’’

‘‘कुसूरवार मैं भी बराबर की हूं, संजीव. जो पे्रम अपने पति से मिलना चाहिए था, उसे अपने दोस्त से पाने की इच्छा ने मुझे गुमराह किया.’’ ‘‘तुम ठीक कह रही हो, सविता,’’ संजीव सोचपूर्ण लहजे में बोला, ‘‘तुम अगर राकेश के साथ होतीं…उस के साथ प्रसन्न व सुखी होतीं, तो हमारे बीच अच्छी दोस्ती की सीमा कभी न टूटती. तुम्हारा अकेलापन, राकेश से बनी अनबन और मेरी सहानुभूति व तुम्हारा सहारा बनने की कोशिशें हमारे बीच अवैध प्रेम संबंध को जन्म देने का कारण बन गए. अब क्या होगा?’’

‘‘मुझे राकेश के पास लौट जाना चाहिए…अपनी सहेली के दिल पर लगे जख्म को भरने का यही एक रास्ता है, बाद में कभी मैं उस से माफी मांग लूंगी,’’ सविता ने कांपते स्वर में समस्या का हल सामने रखा. ‘‘तुम्हारा लौटना ही ठीक रहेगा, सविता, फिर मेरे दिमाग में एक और बात भी उठ रही है.’’

‘‘कौन सी बात?’’ ‘‘यही कि तुम राकेश से दूर हो कर अगर मेरी सहानुभूति व ध्यान पा कर गुमराह हो सकती हो, तो आजकल राकेश भी तुम से दूर व अकेला रह रहा है. उस लड़की साक्षी के साथ उस का आज संबंध नहीं भी है, तो कल को वह ऐसी ही सहानुभूति व अपनापन तुम्हारे पति से जता कर उस के दिल में अवैध प्रेम संबंध का बीज क्या आसानी से नहीं बो सकेगी?’’

संजीव की अर्थपूर्ण नजरें सविता के दिल की गहराइयों तक उतर गईं. देखते ही देखते आंसुओं के बजाय उस की आंखों में तनाव व चिंता के भाव उभर आए.

‘‘यू आर वेरी राइट, संजीव,’’ सविता अचानक उत्तेजित सी नजर आने लगी, ‘‘राकेश से अलग रह कर मैं सचमुच भारी भूल कर रही हूं. खुद भी मुसीबत का शिकार बनी हूं और उधर राकेश को किसी साक्षी की तरफ धकेलने का इंतजाम भी नासमझी में खुद कर रही हूं. आई मस्ट गो बैक.’’ ‘‘हां, तुम आज ही राकेश के पास लौट जाओ. मैं भी रेणु को मना कर वापस लाता हूं.’’

‘‘रेणु मुझे माफ कर देगी न?’’ ‘‘जब मैं कहूंगा कि आज तुम ने मुझे यहां आ कर खूब डांटा, तो वह निश्चित ही तुम्हें कुसूरवार नहीं मानेगी. तुम दोनों की दोस्ती बनाए रखने को…एकदूसरे की इज्जत आंखों में बनाए रखने को मैं सारा कुसूर अपने ऊपर ले लूंगा.’’

‘‘थैंक यू, संजीव. मैं सामान पैक करने जाती हूं,’’ सविता झटके से उठ खड़ी हुई. ‘‘मेरी शुभकामनाएं तुम्हारे साथ हैं,’’ संजीव भावुक हो उठा.

‘‘तुम बहुत अच्छे दोस्त…बहुत अच्छे इनसान हो.’’ ‘‘तुम भी, अपना और राकेश का ध्यान रखना. गुडबाय.’’

सविता ने हाथ हिला कर ‘गुडबाय’ कहा और दरवाजे की तरफ बढ़ गई.

उस के जाने के बाद दरवाजा बंद कर के संजीव ड्राइंगरूम में लौटा तो मुसकराती रेणु ने उस का स्वागत किया. वह अंदर वाले कमरे से निकल कर ड्राइंगरूम में आ गई थी. ‘‘तुम ने तो कमाल कर दिया. सविता तो राकेश के पास आज ही वापस जा रही है,’’ रेणु बहुत प्रसन्न नजर आ रही थी.

‘‘मुझे खुशी है कि मेरी योजना सफल रही. सविता को यह बात समझ में आ गई है कि जीवनसाथी से, उस की जिंदगी में दूसरी औरत की उपस्थिति के भय के कारण दूर रहना मूर्खतापूर्ण भी है और खतरनाक भी.’’ ‘‘मैं फोन कर के राकेश को पूरे घटनाक्रम की सूचना दे देता हूं,’’ संजीव मुसकराता हुआ फोन की तरफ बढ़ा.

‘‘आप ने अपनी योजना की जानकारी मुझे आज सुबह से पहले क्यों नहीं दी?’’ ‘‘तब तुम्हारी प्रतिक्रियाओं में बनावटीपन आ जाता, डार्लिंग.’’

‘‘योजना समाप्त हुई, तो अब सविता को भुला तो दोगे न?’’ ‘‘तुम अकेला छोड़ कर नहीं जाओगी तो उस का प्रेम मुझे कभी याद नहीं आएगा जानेमन,’’ उसे छेड़ कर संजीव जोर से हंसा तो रेणु ने पहले जीभ निकाल कर उसे चिढ़ाया और फिर उस की छाती से जा लगी.

Hindi Story : सप्ताह का एक दिन – क्या थी शोभा की समस्या

Hindi Story : अजय अभी भी अपनी बात पर अडिग थे, ‘‘नहीं शोभा, नहीं… जब बेटी के पास हमारे लिए एक दिन का भी समय नहीं है तब यहां रुकना व्यर्थ है. मैं क्यों अपनी कीमती छुट्टियां यहां रह कर बरबाद करूं…और फिर रह तो लिए महीना भर.’’

‘‘पर…’’ शोभा अभी भी असमंजस में ही थीं.

‘‘हम लोग पूरे 2 महीने के लिए आए हैं, इतनी मुश्किल से तो आप की छुट्टियां मंजूर हो पाई हैं, फिर आप जल्दी जाने की बात कहोगे तो रिचा नाराज होगी.’’

‘‘रिचा…रिचा…अरे, उसे हमारी परवा कहां है. हफ्ते का एक दिन भी तो नहीं है उस के पास हमारे लिए, फिर हम अभी जाएं या महीने भर बाद, उसे क्या फर्क पड़ता है.’’

अजय फिर बिफर पड़े थे. शोभा खामोश थीं. पति के मर्म की चोट को वह भी महसूस कर रही थीं. अजय क्या, वह स्वयं भी तो इसी पीड़ा से गुजर रही थीं.

अजय को तो उस समय भी गुस्सा आया था जब फोन पर ही रिचा ने खबर दी थी, ‘‘ममा, जल्दी यहां आओ, आप को सौरभ से मिलवाना है. सच, आप लोग भी उसे बहुत पसंद करेंगे. सौरभ मेरे साथ ही माइक्रोसौफ्ट में कंप्यूटर इंजीनियर है. डैशिंग पर्सनैलिटी, प्लीजिंग बिहेवियर…’’ और भी पता नहीं क्याक्या कहे जा रही थी रिचा.

अजय का पारा चढ़ने लगा, फोन रखते ही बिगड़े थे, ‘‘अरे, बेटी को पढ़ने भेजा है. वह वहां एम.एस. करने गई है या अपना घर बसाने. दामाद तो हम भी यहां ढूंढ़ लेंगे, भारत में क्या अच्छे लड़कों की कमी है, कितने रिश्ते आ रहे हैं. फिर हमारी इकलौती लाड़ली बेटी, हम कौन सी कमी रहने देंगे.’’

बड़ी मुश्किल से शोभा अजय को कुछ शांत कर पाई थीं, ‘‘आप गुस्सा थूक दीजिए…देखिए, पसंद तो बेटी को ही करना होगा, तो फिर यहां या वहां क्या फर्क पड़ता है. अब हमें बुला रही है तो ठीक है, हम भी देख लेंगे.’’

‘‘अरे, हमें तो वहां जा कर बस, उस की पसंद पर मुहर लगानी है. उसे हमारी पसंद से क्या लेनादेना. हम तो अब कुछ कह ही नहीं सकते हैं,’’ अजय कहे जा रहे थे.

बाद में रिचा के और 2-3 फोन आए थे. बेमन से ही सही पर जाने का प्रोग्राम बना. अजय को बैंक से छुट्टी मंजूर करानी थी, पासपोर्ट, वीजा बनना था, 2 महीने तो इसी में लग गए…अब इतनी दूर जा रहे हैं, खर्चा भी है तो कुछ दिन तो रहें, यही सब सोच कर 2 महीने रुकने का प्रोग्राम बनाया था.

पर यहां आ कर तो महीना भर काटना भी अजय को मुश्किल लगने लगा था. रिचा का छोटा सा एक कमरे का अपार्टमेंट. गाड़ी यहां अजय चला नहीं सकते थे, बेटी ही कहीं ले जाए तो जाओ…थोड़ेबहुत बस के रूट पता किए पर अनजाने देश में सभी कुछ इतना आसान नहीं था.

फिर सब से बड़ी बात तो यह कि रिचा के पास समय नहीं था. सप्ताह के 5 दिन तो उस की व्यस्तता के होते ही थे. सुबह 7 बजे घर से निकलती तो लौटने में रात के 8 साढे़ 8 बजते. दिन भर अजय और शोभा अपार्टमेंट में अकेले रहते. बड़ी उत्सुकता से वीक एंड का इंतजार रहता…पर शनिवार, इतवार को भी रिचा का सौरभ के साथ कहीं जाने का कार्यक्रम बन जाता. 1-2 बार ये लोग भी उन के साथ गए पर फिर अटपटा सा लगता. जवान बच्चों के बीच क्या बात करें…इसलिए अब खुद ही टाल जाते, सोचते, बेटी स्वयं ही कुछ कहे पर रिचा भी तो आराम से सौरभ के साथ निकल जाती.

‘‘सबकुछ तो बेटी ने तय कर ही लिया है. बस, हमारी पसंद का ठप्पा लगवाना था उसे, पर बुलाया क्यों था हमें जब सप्ताह का एक दिन भी उस के पास हमारे लिए नहीं है,’’ अजय का यह दर्द शोभा भी महसूस कर रही थीं, पर क्या कहें?

अजय ने तो अपना टिकट जल्दी का करवा लिया था. 1 ही सीट खाली थी. कह दिया रिचा से कि बैंक ने छुट्टियां कैंसल कर दी हैं.

‘‘मां, तुम तो रुक जातीं, ठीक है, पापा महीना भर रह ही लिए, छुट्टियां नहीं हैं, और अभी फिलहाल तो सीट भी 1 ही मिल पाई है.’’

शोभा ने चुपचाप अजय की ओर देखा था.

‘‘भई, तुम्हारी तुम जानो, जब तक चाहो बेटी के पास रहो, जब मन भर जाए तो चली आना.’’

अजय की बातों में छिपा व्यंग्य भी वह ताड़ गई थीं, पर क्या कहतीं, मन में जरूर यह विचार उठा था कि ठीक है रिचा ने पसंद कर लिया है सौरभ को, पर वह भी तो अच्छी तरह परख लें, अभी तो ठीक से बात भी नहीं हो पाई है और फिर उस के इस व्यवहार से अजय को चोट पहुंची है. यह भी तो समझाना होगा बेटी को. अजय तीसरे दिन चले गए थे.

अब और अकेलापन था…बेटी की तो वही नचर्या थी. क्या करें…इधर सुबह टहलने का प्रोग्राम बनाया तो सर्दी, जुकाम, खांसी सब…

जब 2-3 दिन खांसते हो गए तो रिचा ने ही उस दिन सुबहसुबह मां से कह दिया, जब वह चाय बना रही थीं, ‘‘अरे, आप की खांसी ठीक नहीं हो रही है, पास ही डा. डेनियल का नर्सिंग होम है, वहां दिखा दूं आप को…’’

‘‘अरे, नहीं,’’ शोभा ने चाय का कप उठाते हुए कहा, ‘‘खांसी ही तो है. गरम पानी लूंगी, अदरक की चाय तो ले ही रही हूं. वैसे मेरे पास कुछ दवाइयां भी हैं, अब यहां तो क्या है, हर छोटीमोटी बीमारी के लिए ढेर से टेस्ट लिख देते हैं.’’

‘‘नहीं मां, डा. डेनियल ऐसे नहीं हैं. मैं उन से दवा ले चुकी हूं. एक बार पैर में एलर्जी हुई थी न तब…बिना बात में टेस्ट नहीं लिखेंगे, और उन की पत्नी एनी भी मुझे जानती हैं, अभी मेरे पास टाइम है, आप को वहां छोड़ दूं. वैसे क्लिनिक पास ही है. आप पैदल ही वापस आ जाना, घूमना भी हो जाएगा.’’

रिचा ने यह सब इतना जोर दे कर कहा था कि शोभा को जाना ही पड़ा.

डा. डेनियल का क्लिनिक पास ही था… सुबह से ही काफी लोग रिसेप्शन में जमा थे. नर्स बारीबारी से सब को बुला रही थी.

यहां सभी चीजें एकदम साफसुथरी करीने से लगी हुई लगती है और लोग कितने अनुशासन में रहते हैं.

शोभा की विचार शृंखला शुरू हो गई थी, उधर रिचा कहे जा रही थी, ‘‘मां, डा. डेनियल ने अपनी नर्स से विवाह कर लिया था और अस्पताल तो वही संभाल रही हैं, किसी डाक्टर से कम नहीं हैं, अभी पहले डा. डेनियल की मां आप का बायोडाटा लेंगी…75 से कम उम्र क्या होगी, पर सारा सेके्रटरी का काम वही करती हैं.’’

‘‘अपने बेटे के साथ ही रहती होंगी,’’ शोभा ने पूछा.

‘‘नहीं, रहती तो अलग हैं. असल में बहू से उन की बनती नहीं है, बोलचाल तक नहीं है पर बेटे को भी नहीं छोड़ पाती हैं, तो यहां काम करती हैं.’’

शोभा को रिचा की बातें कुछ अटपटी सी लगने लगी थीं. उधर नर्स ने अब शोभा का ही नाम पुकारा था.

‘‘अच्छा, मां, मैं अब चलूं, आप अपनी दवा ले कर चली जाना, रास्ता तो देख ही लिया है न, बस 5 मिनट पैदल का रास्ता है, यह रही कमरे की चाबी,’’ कह कर रिचा तेजी से निकल गई थी.

नर्स ने शोभा को अंदर जाने का इशारा किया. अंदर कमरे में बड़ी सी मेज पर कंप्यूटर के सामने डा. मिसेज जौन बैठी थीं.

‘‘हाय, हाउ आर यू,’’ वही चिर- परिचित अंदाज इस देश का अभिवादन करने का.

‘‘सो, मिसेज शोभा प्रसाद…व्हाट इज योर प्रौब्लम…’’ और इसी के साथ मिसेज जौन की उंगलियां खटाखट कंप्यूटर पर चलने लगी थीं.

शोभा धीरेधीरे सब बताती रहीं, पर वह भी अभिभूत थीं, इस उम्र में भी मिसेज जौन बनावशृंगार की कम शौकीन नहीं थीं. करीने से कटे बाल, होंठों पर लाल गहरी लिपस्टिक, आंखों में काजल, चुस्त जींस और जैकेट.

हालांकि उन के चेहरे से उम्र का स्पष्ट बोध हो रहा था, हाथ की उंगलियां तक कुछ टेढ़ी हो गई थीं, क्या पता अर्थराइटिस रहा हो. फिर भी कितनी चुस्ती से सारा काम कर रही थीं.

‘‘अब आप उधर जाओ… डा. डेनियल देखेंगे आप को.’’

शोभा सोच रही थीं कि मां हो कर भी यह महिला यहां बस, जौब के एटीकेट्स की तरह  ही व्यवहार कर रही हैं…कहीं से पता नहीं चल रहा है कि     डा. डेनियल उसी के बेटे हैं.

डा. डेनियल की उम्र भी 50-55 से कम क्या होगी…लग भी रहे थे, एनी भी उसी उम्र के आसपास होगी…पर वह काफी चुस्त लग रही थी और उस की उम्र का एहसास नहीं हो रहा था. बनावशृंगार तो खैर यहां की परंपरा है.

‘‘यू आर रिचाज मदर?’’ डा. डेनियल ने देखते ही पूछा था. शायद रिचा ने फोन कर दिया होगा.

खैर, उन्होंने कुछ दवाइयां लिख दीं और कहा, ‘‘आप इन्हें लें, फिर फ्राइडे को और दिखा दें…आप को रिलीफ हो जाना चाहिए, नहीं तो फिर मैं और देख लूंगा.’’

‘‘ओके, डाक्टर.’’

शोभा ने राहत की सांस ली. चलो, जल्दी छूटे. दवाइयां भी बाहर फार्मेसी से मिल गई थीं. पैदल घर लौटने से घूमना भी हो गया. दिन में कई बार फिर मिसेज जौन का ध्यान आता कि वह भी तो मां हैं पर रिचा ने कैसे इतनी मैकेनिकल लाइफ से अपनेआप को एडजस्ट कर लिया है. वहां देख कर तो लगता ही नहीं है कि मां की बेटेबहू से कोई बात भी होती होगी. रिचा भी कह रही थी कि मां अकेली हैं, अलग रहती हैं. अपने टाइम पर आती हैं, कमरा खोलती हैं, काम करती हैं. पता नहीं, शायद इन लोगों की मानसिकता ही अलग हो.

जैसे दर्द इन्हें छू नहीं पाता हो, तभी तो इतनी मुस्तैदी से काम कर लेते हैं. शोभा को फिर रिचा का ध्यान आया. इस वीक एंड में वह बेटी से भी खुल कर बात करेंगी. भारत जाने से पहले सारी मन की व्यथा उड़ेल देना जरूरी है. वह थोड़े ही मिसेज जौन की तरह हो सकती हैं.

वैसे डा. डेनियल की दवा से खांसी में काफी फायदा हो गया था. फिर भी रिचा ने कहा, ‘‘मां, आप एक बार और दिखा देना…चाहो तो इन दवाओं को और कंटीन्यू करा लेना.’’

वह भी सोच रही थीं कि इडे को जा कर डाक्टर को धन्यवाद तो दे ही दूं. पैदल घूमना भी हो जाएगा.

सब से रहस्यमय व्यक्तित्व तो उन्हें मिसेज जौन का लगा था. इसलिए उन से भी एक बार और मिलने की इच्छा हुई थी…आज अपेक्षाकृ त कम भीड़ थी, नर्स ने बताया कि आज एनी भी नहीं आई हैं, डाक्टर अकेले ही हैं,…

‘‘क्यों…’’

‘‘एनी छुट्टी रखती हैं न फ्राइडे को.’’

‘‘अच्छा, पर सेक्रेटरी,’’

‘‘हां, आप इधर चली जाओ, पर जरा ठहरो, मैं देख लूं.’’

मिसेज जौन के कमरे के बाहर अब शोभा के भी पैर रुक गए थे. शायद वह फोन पर बेटे से ही बात कर रही थीं.

‘‘पर डैनी…पहले ब्रेकफास्ट कर लो फिर देखना पेशेंट को…यस, मैं ने मफी बनाए थे…लाई हूं और यहां काफी भी बना ली है…यस कम सून…ओके.’’

‘‘आप जाइए…’’

नर्स ने कहा तो शोभा अंदर गईं… वास्तव में आज मिसेज जौन काफी अच्छी लग रही थीं…आज जौन वाला एटीट्यूड भी नहीं था उन का.

‘‘हलो, मिसेज शोभा, यू आर ओके नाउ,’’ चेहरे पर मुसकान फैल गई थी मिसेज जौन के.

‘‘यस…आय एम फाइन…’’ डाक्टर साहब ने अच्छी दवाइयां दीं.’’

‘‘ओके, ही इज कमिंग हिअर… यहीं आप को देख लेंगे. आप काफी लेंगी,’’ मिसेज जौन ने सामने रखे कप की ओर इशारा किया.

‘‘नो, थैंक्स, अभी ब्रेकफ ास्ट कर के ही आई हूं.’’

शोभा को आज मिसेज जौन काफी बदली हुई और मिलनसार महिला लगीं.

‘‘यू आर आलसो लुकिंग वेरी चियरफुल टुडे,’’ वह अपने को कहने से रोक नहीं पाई थीं.

‘‘ओह, थैंक्स…’’

मिसेज जौन भी खुल कर हंसी थीं.

‘‘बिकौज टुडे इज फ्राइडे…दिस इज माइ डे, मेरा बेटा आज मेरे पास होगा, हम लोग नाश्ता करेंगे, आज एनी नहीं है इसलिए, यू नो मिसेज शोभा, वीक का यही एक दिन तो मेरा होता है. दिस इज माई डे ओनली डे इन दी फुल वीक,’’ मिसेज जौन कहे जा रही थीं और शोभा अभिभूत सी उन के चेहरे पर आई चमक को देख रही थीं.

शब्द अभी भी कानों में गूंज रहे थे …ओनली वन डे इन ए वीक…

फिर अजय याद आए, बेटी के पास सप्ताह भर में एक दिन भी नहीं है हमारे लिए …अजय का दर्द भरा स्वर…और आज उसे लगा, मानसिकता कहीं भी अलग नहीं है.

वही मांबाप का हृदय…वही आकांक्षा फिर अलग…कहां हैं हम लोग.

‘ओनली डे इन ए वीक…’ वाक्य फिर ठकठक कर दिमाग पर चोट करने लगा था.

Hindi Story : जुआरी – क्या थी बड़े भैया की वसीयत

Hindi Story : ‘जिंदगी क्या इतनी सी होती है?’ बड़े भैया अपने बिस्तर पर करवटें बदलते हुए सोच रहे थे और बचपन से अब तक के तमाम मौसम उन की धुंधली नजर में तैरने लगे. अंत में उन की नजर आ कर उन कुछ करोड़ रुपयों पर ठहर गई जो उन्होंने ताउम्र दांत से पकड़ कर जमा किए थे. कितने बड़े परिवार में उन्होंने जन्म लिया था. बड़ी बहन कपड़े पहना कर बाल संवारती थी, बीच की बहन टिफिन थमाती थी. जूते पहन कर जब वह बाहर निकलते तो छोटा भाई साइकिल पकड़ कर खड़ा मिलता था.

‘भैया, मैं भी बैठ जाऊं?’ साइकिल बड़े भाई को थमाते हुए छोटा विनम्र स्वर में पूछता. ‘चल, तू भी क्या याद रखेगा…’ रौब से यह कहते हुए साइकिल का हैंडल पकड़ कर अपना बस्ता छोटे भाई को पकड़ा देते फिर पीठ पर एक धौल मारते हुए कहते, ‘चल, फटाफट बैठ.’

छोटा साइकिल की आगे की राड पर मुसकराता हुआ बैठता. तीसरा जब तक आता उन की साइकिल चल पड़ी होती. अगले दिन साइकिल पर बैठने का नंबर जब तीसरे भाई का आता तो दूसरे को पैदल ही स्कूल जाना पड़ता. इस तरह तीनों भाई भागतेदौड़ते कब स्कूल से कालिज पहुंच गए पता ही नहीं चला.

कितनी तेज रफ्तार होती है जिंदगी की. कालिज में आने के बाद उन की जिंदगी में बैथिनी क्या आई, वह अपने ही खून से अलग होते चले गए. बैथिनी का भाई सैमसन उन के साथ कालिज में पढ़ता था. ईसाई धर्म वाले इस परिवार का उन के ब्राह्मण परिवार से भला क्या और कैसा मेल हो सकता था. पढ़ाई पूरी होतेहोते तो बैथिनी के साथ उन की मुहब्बत की पींगें आसमान को छूने लगीं. सैमसन का नेवी में चुनाव हो गया तो उन का आर्मी में. वह जब कभी भी अपने प्रेम का खुलासा करना चाहते उन का ब्राह्मण होना आडे़ आ जाता और उन की बैथिनी इस ब्राह्मण घर की दहलीज नहीं लांघने पाती. पिताजी असमय ही काल का ग्रास बन गए और वह आर्मी की अपनी टे्रनिंग में व्यस्त हो गए.

फौज की नौकरी में वह जब कभी छुट्टी ले कर घर आते उन के लिए रिश्तों की लाइन लग जाती और वह बड़े मन से लड़कियां देखने जाते. कभी मां के साथ तो कभी बड़ी बहनों और उन के पतियों के साथ. पिताजी ने काफी नाम कमाया था, सो बहुत से उच्चवर्गीय परिवार इस परिवार से रिश्ता जोड़ना चाहते थे पर उन के मन की बात किसे मालूम थी कि वह चुपचाप बैथिनी को अपनी हमसफर बना चुके थे. वह मां के जीतेजी उन की नजर में सुपुत्र बने रहे और कपटी आवरण ओढ़ लड़कियां देखने का नाटक करते रहे. वैसे भी पिताजी की मृत्यु के बाद घर में उन से कुछ पूछनेकहने वाला कौन था. 4 बड़ी बेटियों के बाद उन का जन्म हुआ था. उन के बाद 3 छोटे भाई और सब से छोटी एक और बहन भी थी. सो वह अपने ‘बड़ेपन’ को कैश करना बचपन से ही सीख गए थे. चारों बड़ी बहनों का विवाह तो पिताजी ही कर गए थे. अब बारी उन की थी, सो मां की चिंता आंसुओं में ढलती रहती पर न उन्हें कोई लड़की पसंद आनी थी और न ही आई.

छोटे भाइयों को भी अपने राम जैसे भाई का सच पता नहीं था, तभी तो भारतीय संस्कृति व परिवार की डोर थामे वे देख रहे थे कि उन का बड़ा भाई सेहरा बांधे तो उन का भी नंबर आए. वह जानते थे कि जिस ईसाई लड़की को उन्होंने अपनी पत्नी बनाया है उस का राज एक न एक दिन खुल ही जाएगा, अत: कुछ इस तरह का इंतजाम कर लेना चाहिए कि घर में बड़े होने की प्रतिष्ठा भी बनी रहे और उन की इस गलती को ले कर घर व रिश्तेदारी में कोई बवाल भी न खड़ा हो.

इस के लिए उन्होंने पहले तो सेना की नौकरी से इस्तीफा दिया फिर बैथिनी को ले कर इंगलैंड पहुंच गए. हां, अपने विदेश जाने से पहले वह एक बड़ा काम कर गए थे. उन्होंने इस बीच, सब से छोटी बहन का ब्याह कर दिया था. अब 3 भाई कतार में थे कि बड़े भैया ब्याह करें तो उन का नंबर आए. 70 साल की मां की आंखों में बड़े के ब्याह को ले कर इतने सपने भरे थे कि वह पलकें झपकाना भी भूल जातीं. आखिर इंतजार का यह सिलसिला तब टूटा जब उन से छोटे ने अपना जीवनसाथी चुन कर विवाह कर लिया. मां को इस प्रकार चूल्हा फूंकते हुए भी तो जवान बेटा नहीं देख सकता था. वह भी तब जब बड़ा भाई विदेश चला गया हो.

घर में आई पहली बहू को मां इतना लाड़दुलार कभी नहीं दे पाईं जितना उन्होंने बड़े की बहू के लिए अपनी झोली में समेट कर रखा था. उस बीच बड़े के गुपचुप ब्याह की खबर हवा में तैरती हुई मां के पास न जाने कितनी बार पहुंची लेकिन वह तो बड़े के खिलाफ कुछ भी सुनने के लिए तैयार नहीं थीं. बहू दिशा यह सोच कर कि वह अपना फर्ज पूरा कर रही है, अपने में मग्न रहने का प्रयास करती. मां से बडे़ की अच्छाई सुनतेसुनते जब उस के कान पक जाते तो उन की उम्र का लिहाज कर वह खुद ही वहां से हट जाती थी. संस्कारी, सुशिक्षित परिवार की होने के कारण दिशा बेकार की बातों पर चुप्पी साध लेना ही उचित समझती. वह जब भी विदेश से आते, मां उन के विवाह का ही राग अलापती रहतीं, जबकि कई बार अनेक माध्यमों से उन के कान में बडे़ बेटे के विवाह की बात आ चुकी थी. बाकी सब चुप ही रहते. वही गरदन हिलाहिला कर मां के प्यार को कैश करते रहते. अपने मुंह से उन्होंने ब्याह की बात कभी न कही, न स्वीकारी और पिताजी के बाद तो साहस किस का था जो उन से कोई कुछ पूछाताछी करता. बडे़ भाई के रूप में वह महानता की ऐसी विभूति थे जिस में कोई बुराई हो ही नहीं सकती.

धीरेधीरे सब भाइयों ने विवाह कर लिया. कब तक कौन किस की बाट देखता? सब अपनीअपनी गृहस्थी में व्यस्तत्रस्त थे तो मां की आंखों में बड़े के ब्याह के सपने थे, जबकि वह विदेश में अपनी प्रेयसी पत्नी के साथ मस्त थे. वह जब भी हिंदुस्तान आते तो अकेले. दिखावा इतना करते कि हर भाई को यही लगता कि बडे़ भैया बस, केवल उसी के हैं पर भीतर से निर्विकार वे सब को नचा कर फिर से उड़ जाते. जब भी उन के हिंदुस्तान आने की खबर आती, सब के मन उड़ने लगते, आंखें सपने बुनतीं, हर एक को लगता इस बार बड़े भैया जरूर उसे विदेश ले जाने की बात करेंगे. आखिर यही तो होता है. परिवार का एक सदस्य विदेश क्या जाता है मानो सब की लाटरी निकल आती है. लेकिन उन्होंने किसी भी भाई की उंगली इस मजबूती से नहीं पकड़ी कि वह उन के साथ हवाई जहाज में बैठ सके. शायद उन्हें भीतर से कोई डर था कि घर के किसी भी सदस्य को स्पांसर करने से कहीं उन की पोलपट्टी न खुल जाए. गर्ज यह कि वह अपनी प्रिय बैथिनी के चारों ओर ताउम्र घूमते रहे. जब घूमतेघूमते थक जाते तो कुछ दिनों के लिए भारत चले आते थे.

मां की मौत के बाद ही वह बैथिनी को ले कर घर की दहलीज लांघ सके थे. पर अब फायदा भी क्या था? सब के घर अलगअलग थे, सब की अपनी सोच थी और सब के मन में विदेश का आकर्षण, जो बड़े भैया को देखते ही लाखों दीपों की शक्ल में उजास फैलाने लगता.

वर्ष गुजरते रहे और परिवार की दूसरी पीढ़ी की आंखों में विदेश ताऊ के पास जा कर पैसा कमाने के स्वप्न फीके पड़ते रहे. भारत में उन्होंने अपना ‘एन आर आई’ अकाउंट खुलवा रखा था सो जब भी आते बैंक में जा कर रौब झाड़ते. उन के व्यवहार से भी उन के डालर और पौंड्स की महक उठती रहती. इंगलैंड में भी उन का अच्छाखासा बैंक बैलेंस था. औलाद कोई हुई नहीं. जब तक काम किया, उस के बाद एक उम्र तक आतेआते उन्हें देश की याद सताने लगी. बैथिनी को भारत नहीं आना था और उन्हें विदेश में नहीं रहना था, सो जीवन की गोधूलि बेला में वह एक बार भाई के बेटे के विवाह में विदेश से देश क्या आए वापस न जाने की ठान ली.

भाइयों के पेट में प्रश्नों का दर्द पीड़ा देने लगा. जिस औरत के साथ बड़े भाई ने पूरा जीवन बिता दिया उसे इस उम्र में कैसे छोड़ सकते हैं? अब वह भाइयों के पास ही रहने लगे थे और क्रमश: वह और बैथिनी एकदूसरे से दूर हो गए थे. अब परिवार के युवा वर्ग की आशा निराशा में बदल चुकी थी. बस, अब तो यह था कि जो उन की सेवा करता रहे, उसी को लड्डू मिल जाए. पर वह तो जरूरत से ज्यादा ही समझदार थे. अपने हाथों में भरे हुए लड्डुओं की खुशबू जहां रहते वहां हवा में बिखेर देते और जब तक लड्डू किसी को मिलें उन्हें समेट कर वह वहां से दूसरे भाई के पास चल देते.

अब कुछ सालों से उन का स्वास्थ्य साथ नहीं दे रहा था, सो उन्हें एक भाई के पास जम कर रहना ही पड़ा. शायद वह समझ नहीं पा रहे थे या मानने को तैयार नहीं थे कि उन्हें अपने शरीर को छोड़ कर जाना होगा. एक ‘एन आर आई’ की अकड़ में वह रहते… ‘एन आर आई’ होने के भ्रम में वह बरसों तक इसी खौफ में सांसें गिनते रहे कि कोई उन्हें लूट लेगा. बैथिनी को कितनीकितनी बार उन की बीमारी की खबर दी गई पर उस का रटारटाया उत्तर रहता, ‘उस को ही यहां पर आना होगा, मैं तो भारत में आने से रही.’ सो न वह गए और न बैथिनी आई. आज वह पलंग पर लेटेलेटे अपने जीवन को गोभी के पत्तों की तरह उतरता देख रहे हैं. उन्हें आज परत दर परत खुलता जीवन जैसे नंगा हो कर खुले आकाश के नीचे बिखेर रहा है और उन के हाथ में पकड़े लड्डू चूरचूर हो रहे हैं पर उन की बंद मुट्ठी किसी को उस में से एक कण भी देने के लिए तैयार नहीं है.

यों तो हमसब ही शून्य में अपने ऊपर आरोपित तामझामों का लबादा ओढ़े खडे़ हैं, सब ही तो भीतर से नंगे, अपनेआप को झूठे आवरणों में छिपाए हुए हैं. कोई पाने के लालच में सराबोर तो कोई खोने के भय से भयभीत. जिंदगी के माने कुछ भी हो सकते हैं. बडे़ भैया अब गए, तब गए, इसी ऊहापोह में कई दिन तक छटपटाते रहे पर उन की मुट्ठियां न खुलीं. ‘एन आर आई’ के तमगे को लिपटाए एक शख्स अकेलेपन के जंगल से गुजरता हुआ बंद मुट््ठियों को सीने से लगाए एक दिन अचानक ही शांत हो गया. फिर बैथिनी को बताया गया. फोन पर सुन कर बैथिनी बोली, ‘‘जितनी जल्दी हो सके मुझे डैथ सर्टिफिकेट भेज देना,’’ इतना कह कर फोन पटक दिया गया. भली मानस उस की मिट्टी तो सिमट जाने देती.

खैर, अब बडे़ भैया की अटैचियां खुलने की बारी थी. शायद उन में ही कहीं लड्डू छिपा कर रख गए हों. सभी भाई, भतीजे, बहुएं, बड़े भैया के सामान के चारों ओर उत्सुक दृष्टि व धड़कते दिल से गोल घेरे में बैठेखडे़े थे. ‘‘लो, यह रही वसीयत,’’ एक पैक लिफाफे को खोलते हुए छोटा भाई चिल्लाया.

‘‘लाओ, मुझे दो,’’ बीच वाले ने छोटे के हाथ से लगभग छीन कर पढ़ना शुरू किया…आखिर में लिखा था, ‘मेरी सारी चल और अचल संपत्ति मेरी पत्नी बैथिनी को मिलेगी और इंगलैंड व भारत का सब अकाउंट मैं पहले ही उस के नाम कर चुका हूं.’ अब सभी भाई व उन के बच्चे एक- दूसरे की ओर चोर नजरों से देख कर हारे हुए जुआरियों की भांति पस्त हो कर सोफों में धंस गए थे और शून्य में वहीं बडे़ भैया की ठहाकेदार हंसी गूंजने लगी थी.

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