गहरी पैठ

देश में अच्छे दिन आने वाले हैं या देश सताए गए लोगों (केवल हिंदू) की पनाह की जगह बनने वाला है, यह अब सपना ही रह गया है. पाकिस्तान, बंगलादेश या अफगानिस्तान से धर्म के नाम पर सताए जाने वाले भारत तो तब आएंगे न जब यहां उन्हें कुछ भविष्य दिखेगा. अगर 1947 से 2020 तक, 73 सालों से, वे वहां रह रहे हैं और जिंदा हैं तो इस का मतलब है कि अपनी रोजीरोटी तो कमा पा रहे हैं. भारत में तो भारतीयों के लिए रोजीरोटी के लाले पड़ रहे हैं. भाजपा की जबान में आने वाले 4 करोड़ हिंदुओं को हम खिलाएंगे क्या?

इंजीनियरिंग आज देश की हालत सुधारने की पहली जरूरत है. कुछ भी बनाना हो, सड़क, स्कूल, अस्पताल, जेल, डिटैंशन सैंटर, मंदिर, मूर्ति सब से पहले इंजीनियर की जरूरत होती है. अगर इंजीनियरों की जरूरत ही नहीं तो मतलब साफ है कि कुछ बन नहीं रहा. वैसे, कुछ बड़ा बनता दिख भी नहीं रहा सिवा मंदिरों के.

इंजीनियरिंग कालेजों को इजाजत देने वाली संस्था आल इंडिया काउंसिल औफ टैक्निकल ऐजूकेशन ने फैसला किया है कि अब 2 साल तक कोई नया इंजीनियरिंग कालेज नहीं खोला जाएगा. देश में 27 लाख सीटों वाले कालेज पहले से मौजूद हैं और 3-4 सालों से उन में दाखिला लेने वालों में कमी होती जा रही है. 2019 में 13 लाख ने ही इस महंगी पढ़ाई में अपनी पूंजी लगाने की इच्छा दिखाई, क्योंकि शायद उन्हें पता है कि नौकरी तो मिलनी नहीं.

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यह बेहद शर्म की बात है कि जो सरकार बड़ेबड़े सपने दिखा रही हो, 5 ट्रिलियन डौलर (जो भी इस का मतलब हो) के उत्पादन वाला देश बना डालेगी का दावा कर रही हो, जगद्गुरु होने का घमंड कर रही हो, रोज भाषणों पर भाषण लाद रही हो, वहां आगे बढ़ने की पहली जरूरत इंजीनियरों को नौकरी तक नहीं दे पा रही है.

यह कमी प्लानिंग की नहीं गिरते कौंफिडैंस की है. गांवकसबों सब जगह यह बात फैल चुकी है कि इंजीनियरिंग की महंगी पढ़ाई के बाद नौकरियां तो मिलेंगी नहीं. सरकार खुद अब कुछ बनाएगी नहीं. रिजर्वेशन प्राइवेट नौकरियों में है नहीं. तो फिर कोई क्यों खेतमकान बेच कर लड़कों को इंजीनियरिंग पढ़ाने में पैसा लगाए? अगर पिछड़ों और शैड्यूल कास्टों का रिजर्वेशन रखा तो बहुत से लड़के किसी भी तरह का जुगाड़ कर के इंजीनियरिंग करते ताकि सरकारी नौकरी मिल सके.

अब जब पक्का है कि सरकारी नौकरी तो है ही नहीं और यह भी पक्का है कि प्राइवेट नौकरियां तो ऊंची जमातों के लोग खा जाएंगे, तो गांवकसबों में थोड़े पैसे वाले घरों के लड़के भी इंजीनियरिंग में 5-7 साल लगाने का रिस्क लेने को तैयार नहीं. आज की सरकार तो कह रही है अच्छी नौकरी तो गौरक्षक गैंग का मैंबर बनना है और उस के लिए डिगरी की जरूरत नहीं.

आजकल सीसीटीवी कैमरे पुलिस से ज्यादा जरूरी हो गए हैं. जरूरत है कि हर गांवकसबे में भी ये लगाए जाएं, क्योंकि जनता की देखभाल अब पुलिस के बस की नहीं रह गई है. लोगों को डर पुलिस या कानून से नहीं, बल्कि सीसीटीवी कैमरों से है.

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दिल्ली में एक ईरिकशा ड्राइवर, उस की बीवी और 3 बच्चों की सनसनीखेज मौत का राज सीसीटीवी कैमरों से ही खुला. पता चला कि कत्ल करने वाला चचेरा भाई ही था, जिस ने 30 हजार रुपए उधार ले रखे थे. कई बार रुपए वापस मांगने पर वह इतना गुस्सा हो गया कि उस ने एकएक कर के 3 घंटों में पांचों की हत्या कर डाली और फरार हो गया. शुरू में लगा था कि यह खुदकुशी का मामला है, पर धीरेधीरे सीसीटीवी कैमरों से राज खुल गए. अभी हर घर में सीसीटीवी कैमरे चाहे न लगे हों, पर जहां लगे हैं, वहां उन कैमरों की रिकौर्डिंग चैक कर के पूरी कहानी का पता चल जाता है.

इस मामले में 7 दिनों तक किसी को कुछ पता न चला. जब घर से लाशों के सड़ने की बदबू आने लगी तो पता चला कि मामला क्या है.

पैसे की तंगी और चौपट होते धंधों की वजह से खुदकुशी अब सिर्फ किसान ही नहीं कर रहे, शहरों में व्यापारी, ड्राइवर, मजदूर भी कर रहे हैं और ऐसे माहौल में किसी को दिए 30 हजार रुपए बहुत हो जाते हैं. उधार देने वाला जब रुपए वापस मांगता है तो उधार लेने वाले के लिए आफत सी हो जाती है और नतीजतन उधार देने वालों की हत्या तक कर दी जाती है. जब तक लोगों को भरोसा था कि आज नहीं तो कल पैसा आ ही जाएगा, मामला चल रहा था और लोग गरीबी में भी गुजारा कर लेते थे, पर अब कल का भी भरोसा नहीं है, क्योंकि माहौल बहुत खराब हो गया है और बुरे से बुरा हो रहा है.

धर्म का ढिंढोरा पीट कर पिछले 6 सालों में वैसे भी लोगों को बहुत मारपीट के लिए तैयार किया गया है. देशभर में दलितों और मुसलिमों को मारनेपीटने को पुलिस अनदेखा कर देती है. उत्तर प्रदेश में ही नहीं और कई राज्यों, जिन में दिल्ली शामिल है, में पुलिस ने खुद तोड़फोड़ की है, बेहरमी से पिटाई की है, जो सीसीटीवी कैमरों में रिकौर्ड हो गई है. जामिया और जेएनयू में पुलिस की मौजूदगी में गोलियां चलीं, होस्टल में घुस कर पिटाई की गई.

बिहार में कन्हैया कुमार के काफिले पर 7 बार हमले हुए. उत्तर प्रदेश, दिल्ली और बिहार के महान मुखिया थाने से भाषण बघारते रहे. दिल्ली में पुलिस अमित शाह के कंट्रोल में है और दिल्ली के चुनावों में एक बार भी उन्होंने उन लोगों के लिए हमदर्दी का एक बोल न बोला, जिन की पिटाई हुई.

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ऐसे माहौल में 30 हजार रुपए के लिए 5 हत्याएं हो जाएं, तो क्या बड़ी बात है. पुलिस तो जब आएगी, तब आएगी, पहला बचाव और सुबूत तो भई सीसीटीवी कैमरे ही हैं. यह धंधा आज जम कर पनप रहा है. पता नहीं सरकार की कितनी पत्ती है इस में.

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