बेटी की माहवारी, पिता दिखाए समझदारी

एक सुबह प्रिया अपने स्कूल की एक पिकनिक ट्रिप के लिए तैयार हो रही थी. 9वीं जमात के दोनों सैक्शन को सूरजकुंड घुमाने का प्रोग्राम था. प्रिया अपने बैग में खानेपीने का सामान रख रही थी. तभी उस ने एक पैकेट उठाया और रसोईघर में जा कर उसे कैंची से काटने लगी. राकेश भी लाड़लाड़ में प्रिया के पीछे जा कर देखने लगा और पूछा, ‘‘क्या काट रही हो?’’ प्रिया ने प्लास्टिक का एक पैकेट दिखाते हुए कहा, ‘‘यह है. और क्या काटूंगी…’’ राकेश ने देखा कि प्रिया उस पैकेट से 2 सैनेटरी पैड निकाल कर अपने बैग में रख रही थी. राकेश ने बड़े प्यार से उस के सिर पर हाथ रखा और ‘ध्यान से रहना’ बोल कर रसोईघर से बाहर चला आया.

एक पिता का अपनी बेटी के लिए ऐसा लगाव यह दिखाता है कि बदलते जमाने में बेटी की माहवारी को ले कर पिता में यह जागरूकता होनी ही चाहिए. न तो प्रिया की तरह कोई बेटी सैनेटरी पैड को ले कर झिझक महसूस करे और न ही राकेश की तरह कोई पिता अपनी बेटी के ‘उन दिनों’ के बारे में जान कर शर्मिंदा हो. यह उदाहरण इस बात को भी सिरे से नकारता है कि सिर्फ मांबेटी में ही गुपचुप तरीके से माहवारी पर बात की जाए, क्योंकि आज भी समाज में यही सोच गहरे तक पैठी है कि औरत ही औरत की इस समस्या को अच्छी तरह से समझ सकती है और मर्दों को परदा रखना चाहिए, जबकि विज्ञान के नजरिए से सोचें तो माहवारी के बारे में जितनी जानकारी औरतों या लड़कियों को होनी चाहिए, उतनी ही मर्दों और लड़कों को भी होनी चाहिए, गरीब और निचली जाति में तो खासकर. माहवारी में सैनेटरी पैड कितना अहम होता है, स्कौटलैंड से इस बात को समझते हैं. माहवारी से जुड़ी गरीबी को मिटाने के लिए यह देश पीरियड प्रोडक्ट्स को बिलकुल मुफ्त बनाने वाला पहला देश बन गया है.

इस सिलसिले में स्कौटलैंड सरकार ने बताया कि वह ‘पीरियड प्रोडक्ट ऐक्ट’ लागू होते ही दुनिया की पहली ऐसी सरकार बन गई है, जो माहवारी संबंधी बने सामान तक मुफ्त पहुंच के हक की कानूनी तौर पर हिफाजत करती है. इस नए कानून के तहत स्कूलों, कालेजों, यूनिवर्सिटी और स्थानीय सरकारी संस्थाओं के लिए यह जरूरी हो गया है कि वे अपने शौचालयों में सैनेटरी पैड समेत माहवारी संबंधी प्रोडक्ट मुहैया कराएं. पर, भारत जैसे देश में सरकारी योजनाओं का ढिंढोरा पीटने के बावजूद हालात उतने अच्छे नहीं हैं. यूनिसेफ के मुताबिक, दक्षिण एशिया की एकतिहाई से ज्यादा लड़कियां अपनी माहवारी के दौरान खासतौर पर स्कूलों में शौचालयों और पैड्स की कमी के चलते स्कूल से छुट्टी कर लेती हैं. माहवारी के चलते होने वाली बीमारियों के बारे में बहुत सी औरतें अनजान ही रहती हैं. अकेले भारत की बात करें, तो यहां 71 फीसदी लड़कियां अपना पहला पीरियड होने से पहले तक माहवारी से अनजान होती हैं. सरकारी एजेंसियों के मुताबिक, भारत में 60 फीसदी किशोरियां माहवारी के चलते स्कूल नहीं जा पाती हैं. तकरीबन 80 फीसदी औरतें अभी भी घर पर बने पैड (कपड़ा) का इस्तेमाल करती हैं.

हालात तब और बुरे हो जाते हैं, जब बेटियां अपने पिता या भाई से अपनी इस कुदरत की देन से होने वाली समस्याओं के बारे में खुल कर नहीं बता पाती हैं, जबकि ज्यादातर बेटियां अपने पिता को ही अपना हीरो मानती हैं. नाजनखरे दिखा कर उन से अपने सारे काम करा लेती हैं, पर जब माहवारी की बात आती है, तो चुप्पी साध लेती हैं. पिता भी तो अपनी लाड़ली पर जान छिड़कते हैं, फिर ऐसी कौन सी खाई है, जो इस मसले पर उन दोनों के बीच आ जाती है?

दरअसल, हमारे समाज में धार्मिक जंजाल के चलते मर्दों का इतना ज्यादा दबदबा है कि वे ऐसी समस्याओं पर बात करना बड़ा ओछा काम समझते हैं. उन के मन में यही खयाल रहता है कि ‘क्या अब ये दिन आ गए, जो मैं अपनी बेटी के ‘उन दिनों’ का भी हिसाबकिताब रखूं? दुकानदार से किस मुंह से सैनेटरी पैड मांगूंगा? पासपड़ोस में पता चल गया तो मेरी नाक कट जाएगी…’

यहीं भारत जैसे देश मार खा जाते हैं. इश्तिहारों में कितना ही ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का राग अलाप लो, पर जब तक इस देश के मर्द समाज की औरतों के प्रति दकियानूसी सोच में बदलाव नहीं आता है, तब तक कोई ठोस नतीजा नहीं सामने आएगा, फिर वह लड़कियों की माहवारी की समस्या हो या उन की पढ़ाईलिखाई.

इस बदलाव की शुरुआत पिता को अपनी बेटी की माहवारी से ही करनी चाहिए. उन्हें अपनी बच्ची के बदलते शरीर के बारे में पूछताछ के लिए झिझकना नहीं चाहिए. बेटी के जवानी की दहलीज पर जाते ही उस में आ रहे शारीरिक बदलावों के बारे में बात करें. माहवारी शुरू होने से पहले ही बेटी द्वारा अच्छी साफसफाई बनाए रखने की अहमियत के बारे में बताएं. जिस तरह दूसरे कामों में बेटी का हौसला बढ़ाते हैं, वैसे ही माहवारी पर भी उन्हें हिम्मत दें कि यह तो हर बेटी को कुदरत से मिला एक नायाब तोहफा है, जिस से उसे मां बनने का सुख मिलता है और परिवार आगे बढ़ता है. यह छोटी सी पहल समाज में एक बड़ा बदलाव ला सकती है.

अंधविश्वास: झूठे आदर्श पाखंड को जन्म देते हैं

आदर्श पाखंड़ को जन्म देते हैं आप को यह पढ़ कर शायद हैरानी हो कि भारत में जितने भी जानेमाने धर्मगुरु हुए हैं, उन में से ज्यादातर किसी न किसी ठीक न हो सकने वाली बीमारी से पीडि़त रहे हैं या अभी भी हैं. जो दूसरों को यह उपदेश देते थे कि ओम का उच्चारण करते रहने से, ओम की जय करने से, प्राणायाम करने से रोग पास भी नहीं फटकते, पर वे खुद किसी न किसी बीमारियों से जरूर पीडि़त थे. इस की एक खास वजह है.

यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि जब भी कोई इनसान अपनी किसी कुदरती इच्छा को दबाने की कोशिश करता रहता है, तो उस की वह इच्छा उस आदमी के अचेतन मन में चली जाती है. फिर वह किसी न किसी मनोकायिक (साइकोसोमैटिको) बीमारी को जरूर जन्म देने लगती है. जनवरी, 2022 में मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले में एक अस्पताल में तब हड़कंप मच गया, जब जिले के सौस गांव से एक विक्षिप्त बाबा को एंबुलैंस में लाया गया था. वह गांव में कभी कीचड़ में लोट जाता, तो कभी पेड़ों पर चढ़ जाता या ड्रामा करता. अस्पताल में भी वह बाबा नर्सिंग स्टाफ के सामने नंगा हो जाता, तो कभी वार्डबौयों पर हमला करने लगता. उसे पुलिस के हवाले कर दिया गया.

पर सवाल है कि ऐसे हालात आए ही क्यों? इसलिए कि बाबाओं को कहा जाता है कि इच्छाओं को दबाओ और वे खुद बीमार हो जाते हैं. राजा हो या रंक, साधु हो या संत, कोई भी कुदरत के इस नियम से बच नहीं पाता. बढ़ती इच्छाओं को दबाने के खिलाफ सजा देने का कुदरत का यह एक ढंग है. आप देखोगे कि जो भी इनसान ?ाठे आदर्शों की चादर ओढ़ कर पाखंड वाली जिंदगी जी रहा होगा, वह किसी न किसी बड़ी बीमारी से भी जरूरत पीडि़त होगा. वह बीमारी ही उस की मौत की वजह भी बन जाती है. भारत में यह भी एक विडंबना ही है कि लोग किसी के चरित्र का मूल्यांकन केवल इस बात से लगाते हैं कि अमुक इनसान ने अपनी कामवासनाओं को कितना कंट्रोल में रखा हुआ है.

जो इनसान कामवासनाओं के बारे में खुले स्वभाव का होता है, उसे हम चरित्रहीन मानने लगते हैं और जो ब्रह्मचारी होने का ढोंग करता हो, उस की पूजा करने लगते हैं और उसे दानदक्षिणा भी देने लगते हैं. एक गलत सोच के चलते हिंदू धर्म में हजारों सालों में सब से ज्यादा अहमियत ब्रह्मचर्य को दी गई है. साधुसंन्यासी इसलिए भी समाज में इज्जत पा रहे हैं, क्योंकि वे ब्रह्मचर्य पालन का दावा करते हैं. जिस तरह एक पीएचडी डिगरी लेने वाला अपने नाम के साथ डाक्टर लिखने लगता है, उसी तरह कई साधुसंन्यासी समाज में ज्यादा से ज्यादा इज्जत पाने के लिए अपने नाम के साथ ‘बाल ब्रह्मचारी’ की डिगरी भी जोड़ देते हैं.

मजे की बात यह है कि पूरे संसार में भारतीय ही सब से ज्यादा कामुक हैं. वे एक साल में ही पूरे आस्ट्रेलिया की आबादी के बराबर बच्चे पैदा कर देते हैं. भारतीयों के बिस्तर उन के खेतों से ज्यादा उपजाऊ माने जाते हैं. मनोवैज्ञानिक इस बात से पूरी तरह सहमत हैं कि जब भी कोई इनसान हठपूर्वक ब्रह्मचर्य साधने की कोशिश करने लगता है, तो कामुकता भी उस का पीछा करती रहती है, जो अपना रूप बदल कर सामने आती रहती है. ब्रह्मचर्य की साधना करने वाला दिनरात अपने कामकेंद्र के इर्दगिर्द ही जिंदगी बिताने लगता है. वह किसी जंगल में या गुफा में तपस्या कर रहा होगा, तो उस के सपनों में अप्सराएं आ कर उस की साधना भंग करने लगेंगी.

कुछ अज्ञानी लोगों ने सोचेसमझे बिना ही वीर्य के संबंध में कई तरह की गलत बातें फैला रखी हैं. कुछ शास्त्रों में यह भी पढ़ने को मिलता है कि इनसान अगर 32 किलो भोजन खाता है, तो उस से शरीर में 800 ग्राम रक्त बनता है. उस 800 ग्राम रक्त में से केवल 20 ग्राम वीर्य ही बनता है. पर मैडिकल जांचपड़ताल से यह पता चला है कि पुरुष के शरीर में वीर्य बनना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. जिस तरह से पाचक ग्रंथियां भोजन को पचाने के लिए पाचक रस छोड़ती रहती हैं, उसी तरह से यौन ग्रंथियां वीर्य बनाती रहती हैं. जब वीर्य में शुक्राणुओं की संख्या जरूरत से ज्यादा बढ़ जाती है, तो वीर्य सपनों के रूप में शरीर से बाहर निकल जाता है. यह कुदरत द्वारा बनाई गई एक आनंददायक व्यवस्था है.

पर धर्मशास्त्र व कुछ धर्मगुरु ऐसा प्रचार करते हैं कि लोग हमेशा डरे रहें. शरीर के अंदर वीर्य बनने की प्रक्रिया हमेशा चलती ही रहती है, इसलिए जरूरत से ज्यादा वीर्य को शरीर के अंदर रोक पाना मुमकिन नहीं है. पर बहुत से लोग खासतौर पर धर्मगुरु इस सच को छिपाने के लिए कई तरह के ढोंग करने लगते हैं. अपने नाम के साथ ‘बाल ब्रह्मचारी’ लिखना भी ऐसा ही एक ढोंग मात्र है. जो लोग हठपूर्वक ब्रह्मचर्य का पालन कर रहे होते हैं, वे भी इस उम्मीद में जी रहे होते हैं कि स्वर्ग में जा कर तो उन की देखभाल अप्सराएं करेंगी, जो उन की हर आज्ञा का पालन करेंगी. जब इनसान अपनी किसी इच्छा को हठपूर्वक दबा लेता है, तो वह इच्छा उस के मन में जा कर दब जाती है, फिर इनसान को उस दबी हुई इच्छा को पूरा करने के लिए किसी न किसी पाखंड का सहारा लेना पड़ता है. जो लोग गृहस्थी त्याग देते हैं, वे आश्रम या कुटिया बना कर रहने लगते हैं.

जिन औरतों के पति नामर्द होने के कारण बच्चा पैदा नहीं कर सकते, उन्हें अपने आश्रम में अकेले में बुला लेते हैं. अपनी दबी हुई काम इच्छाओं को पूरा करने के लिए ही तंत्र साधना के नाम पर औरतों की पूजा करने लगते हैं और तंत्र के नाम पर यौन क्रियाओं में लग जाते हैं. धर्मगुरुओं के आश्रमों में ऐसी बातें हमेशा होती ही रहती हैं, क्योंकि यह सब धर्म के नाम पर होता है, इसलिए लोग इन्हें चुपचाप सहन कर लेते हैं. भारत में कई धर्मगुरु यह ढोंग भी करते रहते हैं कि वे तो पैसों को हाथ तक नहीं लगाते. पर जब ये विदेशों में जाते हैं, तो वहां करोड़ों रुपयों में खेलने लगते हैं. महंगी से महंगी कारें खरीद लेते हैं. पांचसितारा आश्रमों को बना लेते हैं. हिंदू समाज ने समाधि लगाने को भी बहुत इज्जत दे रखी है, इसलिए कई साधुसंत यह ढोंग करने लगते हैं कि वे समाधि की उच्च अवस्था को भी हासिल हो चुके हैं.

कई तो अपने नाम के साथ भी ‘समाधिनाथ’ तक लिखने लगते हैं. लोेगों को प्रभावित करने के लिए वे अपनी समाधि का खूब प्रचार करते हैं और करवाते हैं. आम लोगों को प्रभावित करने के लिए वे कुछ दिनों के लिए खुद को मिट्टी में दबा लेते हैं, फिर जिंदा बाहर निकल आते हैं. अंधविश्वासी लोग इस काम को एक चमत्कार मान कर उन्हें खूब दानदक्षिणा देते हैं. इस मौके और हमदर्दी का फायदा उठा कर मंदिर बनाने के नाम पर लाखों रुपए जमा कर लिए जाते हैं. किंतु भोलेभाले लोग यह सम?ा ही नहीं पाते कि ऐसे काम केवल जादू दिखाने जैसी ट्रिक की मदद से ही किए जाते हैं. चमत्कार या भगवान को पाने से इस का कोई संबंध नहीं होता. ऐसे लोग प्राणायाम व सांसों को काबू में करने की कला सीख कर ऐसा करने में कामयाब हो जाते हैं. साइबेरिया के बर्फीले प्रदेश के भालू 6 महीने तक खुद को बर्फ में ही दबा कर सोए रहते हैं. बरसात के बाद मेढक जमीन के नीचे ही दबे पड़े रहते हैं. ठंड से बचने के लिए सांप भी खुद को मिट्टी के नीचे दबाए रखते हैं. इस से उन की कोई समाधि नहीं लग जाती.

कुछ दिन जमीन के नीचे दबे रहने का समाधि से कोई संबंध नहीं होता. एक धर्मगुरु का बायां हाथ काम नहीं करता था. इस विकलांगता को भी उन्होंने समाधि के नाम पर खूब भुनाया. वे बारबार कहते रहते थे कि जब वे समाधि में बैठे थे, तो उन के इस हाथ को दीमक लग गई थी. बहुत से धर्मगुरु अपने झूठे दावों का पाखंड कर के नाम कमाने में लगे रहे हैं. उन झूठे दावों को साबित करने के लिए उन्होंने कई तरह के इंतजाम कर रखे होते हैं. आप को अपने चारों ओर कई साधुसंन्यासी ऐसे मिल जाएंगे, जिन का बरताव पागलों जैसा होता है. कुछ तो छोटीछोटी बातों पर भी गुस्सा हो जाते हैं. भोलेभाले लोग यह सम?ाने लगते हैं कि इन पर भगवान का उन्माद छाया हुआ है, इसीलिए वे ऐसा बरताव कर रहे हैं. पर वे यह नहीं जानते हैं कि भगवान की कोई खुमारी नहीं होती. ऐसे लोग केवल मनोवैज्ञानिक वजहों से ही बीमार होते हैं.

ससुर-बहू के नाजायज संबंध, दुखद होता है अंत

आखिरकार कुंदन कुमार ने खुदकुशी कर ली. शायद इस बुजदिली के अलावा उसे कोई और रास्ता सूझ नहीं रहा था. जब अपने ही बेवफाई और बेईमानी करते हैं, तो एक समय के बाद नफरत खुद की बेबसी पर भी होने लगती है. फिर कुछ दिनों बाद जिंदगी बेमानी लगने लगती है. यही सब कई दिनों से कुंदन कुमार के साथ हो रहा था, जिस ने बीवी की बेवफाई और चाचा की मनमानी की सजा खुद को देते हुए इस दुनिया को अलविदा कह दिया. पटना बाजार इलाके के गांव कुरथौल के रहने वाले इस नौजवान की बीवी किसी जवान आशिक या पुराने यार के साथ नहीं,

बल्कि अपने ही चाचा ससुर जसवंत सिंह के साथ भाग गई थी. पीछे रह गए थे मां के लिए बिलखते 2 मासूम बच्चे और बीवी की इस हरकत पर कलपता कुंदन कुमार, जिस की दुनिया में अंधेरा छा गया था. 22 मई, 2022 को जहर खाने के पहले कुंदन कुमार इंसाफ पाने के लिए पुलिस थाने गया था, लेकिन वहां से भी उसे दुत्कार कर भगा दिया गया था. कुंदन कुमार की बीवी और चाचा में कब और कैसे जिस्मानी संबंध बन गए थे, इस की उसे भनक भी नहीं लगी. घर का बुजुर्ग होने के नाते गांव में ही रहने वाले जसवंत सिंह का घर में आनाजाना आम था.

कुंदन कुमार का माथा उस समय ठनका था, जब गांव के ही कुछ लोगों से उस ने इस बाबत सुना. पहले तो कुंदन कुमार को यकीन ही नहीं हुआ कि पिता समान चाचा अपनी बेटी समान बहू के साथ शारीरिक संबंध बना सकता है और पत्नी की रजामंदी भी इस में है, पर जब यह सच निकला तो वह तिलमिला उठा. बेकार गया समझाना कुंदन कुमार ने बारीबारी से चाचा और पत्नी को समझाया कि यह ठीक नहीं है, रिश्तों की मानमर्यादा के खिलाफ है, लेकिन इश्क में गले तक डूबे इस बेमेल जोड़े के कानों पर जूं भी नहीं रेंगी. हद तो तब हो गई, जब टोकने पर जसवंत सिंह ने उसे जान से मारने की धमकी दे डाली. बात चूंकि पहले से फैल चुकी थी,

इसलिए कुंदन कुमार ने पुलिस की मदद लेनी चाही, पर वहां से भी निराशा ही हाथ लगी, तो दूसरे जो हकीकत में अपने थे, के गुनाह और गलती की सजा उस ने खुद को दे डाली. कुंदन कुमार की मौत के बाद गांव वालों ने पुलिस के निकम्मेपन और लापरवाही के खिलाफ सड़क पर प्रदर्शन किया, तो पुलिस ने उस की पत्नी और चाचा के खिलाफ खुदकुशी के लिए उकसाने का मामला दर्ज कर लिया. अफसोस और हैरत की बात तो यह भी थी कि जो लोग ‘हायहाय’ कर रहे थे, उन में से कुछ थाने से लौटते समय उस पर ताने भी कस रहे थे. बात बहुत जल्द आईगई हो गई, लेकिन कई सवाल अपने पीछे छोड़ गई है कि आखिर क्यों ससुरबहू में जिस्मानी संबंध बन जाते हैं और इस हद तक हो जाते हैं कि वे आपस में नए लड़केलड़कियों जैसा इश्क करने लगते हैं?

क्यों प्यार में डूबे ससुरबहू को दीनदुनिया, की परवाह नहीं रहती है? कहने को तो कहा जा सकता है कि ‘दिल तो है दिल, दिल का एतबार, क्या कीजे… आ गया जो किसी पे प्यार, क्या कीजे…’ लेकिन ऐसा प्यार क्या वाकई प्यार होता है और उसे जायज करार देना चाहिए, जो अपने ही बेटे की गृहस्थी पर डाका डाले? यही प्यार किसी की हत्या और खुदकुशी की वजह बन जाए और इस से किसी को कुछ हासिल न हो, तो इसे प्यार क्या खा कर कहा जाए. इसे सिर्फ सैक्स की हवस कह कर भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, क्योंकि एक बार समझाने या धमकाने पर हमबिस्तरी करने का सिलसिला रुकना मुमकिन है, लेकिन यह बात प्यार पर लागू नहीं होती,

जिस के चलते आशिक और माशूक वाकई अंधे हो जाते हैं और समझाइश के दायरे से काफी दूर हो चुके होते हैं. कत्ल ही कर दिया कुंदन कुमार की तरह की ही कहानी राजस्थान के अलवर के बहरोड़ इलाके के रहने वाले विक्रम सिंह की है, जिस की हत्या उस के पिता बलवंत सिंह और पत्नी पूजा ने मिल कर की थी. 5 मार्च, 2022 की रात के तकरीबन 3 बजे सैक्स के लिए तड़प रहा बलवंत सिंह अपने बेटेबहू के कमरे में गया और आहिस्ता से 29 साला पूजा को बुलाया, जो तुरंत चाबी भरी गुडि़या की तरह अपने 62 साल के ससुर के पीछेपीछे चल दी और ससुर के कमरे में पहुंचते ही उन दोनों ने रासलीला शुरू कर दी. लेकिन इस बार बेसब्र हो रहे ससुरबहू यह नहीं देख पाए कि विक्रम सिंह भी जाग गया है और दबे पैर उन के पीछे आ रहा है. पिता के कमरे का जो सीन विक्रम सिंह ने देखा, वह उस के लिए किसी सदमे से कम नहीं था. पूजा और बलवंत सिंह सबकुछ भूलभाल कर एकदूसरे से इस तरह से लिपटे थे कि अब कभी एकदूसरे से अलग ही नहीं होंगे. विक्रम सिंह का खून खौला,

लेकिन अपनेआप को काबू करते हुए वह किसी तरह अपने कमरे में आ गया. अभी विक्रम सिंह सोच ही रहा था कि यह क्या हो रहा है और वह क्या करे, तभी बलवंत सिंह और पूजा आ गए. उन दोनों ने उसे जकड़ा और दुपट्टे से उस का गला घोंट दिया. इस के बाद अलवर के नामी कारोबारी बलवंत सिंह सुबह रोजाना की तरह सैर पर निकल गए, जिस से लोग उन्हें देख लें और पूजा भी घर के कामकाज में ऐसे लग गई मानो कुछ देर पहले उस ने पति को नहीं, बल्कि कान पर भिनभिनाते मच्छर को मारा हो. योजना के मुताबिक, उन दोनों ने फोन से जानपहचान वालों और नातेरिश्तेदारों को विक्रम सिंह की मौत की खबर देते हुए रोनेधोने का कामयाब ड्रामा किया.

इन की साजिश भी कामयाब हो जाती, लेकिन शव यात्रा में शामिल आए लोगों का माथा यह देख कर ठनका कि किसी को भी विक्रम सिंह का चेहरा नहीं दिखाया जा रहा है. यह बात चोर की दाढ़ी में तिनका सरीखी थी, क्योंकि मरने वाले के अंतिम दर्शन आम रिवाज है. शक होने पर पूजा के ही भाई ने पुलिस वालों को फोन कर दिया. छानबीन और पूछताछ में उन दोनों ने अपना गुनाह कबूल कर लिया. उजागर यह भी हुआ कि बलवंत सिंह की पत्नी की मौत 2 साल पहले हुई थी, तभी से इन दोनों में नाजायज संबंध बन गए थे. रईसों के इस घर में 64 लाख रुपए भी तिजोरी में रखे थे, जो बलवंत सिंह को एक जमीन बेचने के बाद मिले थे. मुमकिन है कि यह भारीभरकम नकदी भी इस वारदात की वजह रही हो. बलवंत सिंह जैसे विधुर बूढ़ों की सैक्स की भूख कैसे मिटे,

यह एक अलग बहस का मुद्दा हो सकता है, लेकिन बहू को अपने जाल में फंसा कर इसे शांत किया जाए, तो अंत दुखद होना कुदरती बात है, क्योंकि कोई बेटा यह बरदाश्त नहीं कर सकता कि उस के पिता और पत्नी आपस में सैक्स संबंध बनाते हुए उसे धोखा दें. प्यार या हवस कुंदन कुमार की मौत के बाद जितनी हैरानी कुरथौल गांव के लोगों को हुई थी, उतनी ही हैरानी अलवर शहर के लोगों को विक्रम सिंह की हत्या पर हुई थी. ऐसी खबरें, जिन में पूरा घर बरबाद हो जाता है, सोचने को मजबूर करती हैं कि आखिर यह प्यार था या हवस थी? देखा जाए, तो ऐसे संबंधों में दोनों ही चीजें बराबरी से रहती हैं. 1-2 बार ये संबंध भले ही लिहाज और दबाव में बनते हों, लेकिन फिर धीरेधीरे ससुरबहू दोनों को ही हमबिस्तरी की लत या आदत कुछ भी कह लें, पड़ जाती है और इस में उन्हें इतना मजा आने लगता है कि वे किसी अंजाम की परवाह नहीं करते हैं. यहां से पैदा होता है एक जुर्म,

फिर भले ही वह कुंदन कुमार की खुदकुशी हो या विक्रम सिंह की हत्या हो. ससुरबहू के नाजायज संबंध कभी हैरानी की बात नहीं रहे, कम से कम इस लिहाज से तो कतई नहीं कि ये एक मर्द और एक औरत के बीच कायम होते हैं, लेकिन चूंकि ये सभी के लिए नुकसानदेह साबित होते हैं, इसलिए ससुरबहू को इन के अंजाम पर गौर करते हुए इन्हें पनपने ही नहीं देना चाहिए और अगर पनप चुके हों तो तुरंत इन पर लगाम लगा देनी चाहिए. एकांत के मौके इफरात से मिलते हैं और कोई आसानी से शक नहीं करता, पर इस का बेजा फायदा उठाना अकसर बड़ी परेशानी का सबब बन जाता है. सच यह भी है कि पति के निकम्मे, आवारा, नशेड़ी, बेरोजगार, दब्बू या नामर्द होने पर ऐसे संबंधों के पनपने में सहूलियत रहती है. पत्नी को सैक्स की भूख मिटाने के लिए कहीं और नहीं ताकना पड़ता,

वह आसानी से ससुर से ही आशनाई कर बैठती है, लेकिन गलत आखिर गलत ही होता है, इस हकीकत से भी मुंह नहीं मोड़ा जा सकता. वह दौर और था, जब बचपन में बेटे की शादी हो जाती थी और ससुर की उम्र 35-40 साल होती थी. घर का मुखिया होने के नाते वह बहू से जोरजबरदस्ती करता भी था, तो किसी की हिम्मत उसे रोकनेटोकने की नहीं होती थी. लेकिन अब बहुतकुछ बदल जाने के बाद भी इन नाजायज ताल्लुकात का सिलसिला थम नहीं रहा है, तो जरूरत जागरूकता और समझ की है कि राज आज नहीं तो कल खुलना ही है और एक अपराध होना तय है, तो क्यों न अभी से संभला जाए. द्य ड्डनहीं बनना ससुर के बच्चे की मां ससुर अगर जोरजबरदस्ती करे, तो बहू ज्यादा विरोध नहीं कर पाती. ऐसा ही कुछ ग्वालियर के नजदीक मालनपुर की सुमित्रा (बदला हुआ नाम) के साथ हुआ. उत्तर प्रदेश के जालौन की सुमित्रा की शादी जून, 2021 में हुई थी. शुरू के कुछ दिन तो हंसीखुशी से बीते, लेकिन जल्द ही ससुर की नीयत उस की जवानी और खूबसूरती पर डोलने लगी.

13 फरवरी, 2022 को ससुर ने जबरदस्ती उस से शारीरिक संबंध बनाए, जिस से वह पेट से हो आई. यह बात उस ने घर वालों को बताई, तो बवंडर मच गया. अपनी गैरत बचाने और ससुर की हैवानियत उजागर करने के लिए सुमित्रा ने ग्वालियर हाईकोर्ट में याचिका दायर करते हुए आपबीती बताई व बच्चा गिराने की इजाजत मांगी. 22 मई, 2022 को कोर्ट ने उस से हलफनामा मांगा है कि वाकई उस के पेट में पल रहे बच्चे का पिता उस का ससुर है और अगर बच्चा ससुर का नहीं हुआ, तो उस पर ससुर की इज्जत पर कीचड़ उछालने और बच्चे की हत्या करने का मुकदमा चलाया जाएगा. हाईकोर्ट ने यह सख्ती इसलिए भी बरती है कि कुछ मामलों में बहुत सी औरतें नजदीकी रिश्ते के किसी मर्द पर ऐसे ही आरोप लगा कर बाद में मुकर गईं.

अब देखना दिलचस्प होगा कि सुमित्रा क्या करती है. वैसे, सटीक तरीका डीएनए टैस्ट का है, जिस से यह पता चल जाता है कि बच्चा किस का है. यह इसलिए भी जरूरी है कि कोई औरत झूठा हलफनामा भी दे सकती है. सुमित्रा जैसी बहुओं को चाहिए कि वे ससुर की जोरजबरदस्ती का समय रहते विरोध करें और तुरंत थाने में रिपोर्ट दर्ज कराएं. ससुरबहू ने की शादी हर मामले में यह जरूरी नहीं है कि बहू के साथ संबंध ससुर द्वारा उसे डराधमका कर, लालच दे कर या बहलाफुसला कर ही बनाए जाते हैं, बल्कि कई बार बहू खुद ससुर के प्यार में अंधी हो जाती है. ऐसा ही एक अजीबोगरीब मामला पिछले साल जून महीने में राजस्थान के अलवर में देखने में आया था, जब 52 साल के ससुर प्रभाती लाल ने अपनी 29 साल की बहू लाली देवी से शादी कर ली थी.

काम उन्होंने गुपचुप नहीं किया था, बल्कि पहले दिल्ली जा कर आर्य समाज मंदिर में सात फेरे लिए और फिर शादी रजिस्टर्ड कराने के लिए तीस हजारी कोर्ट भी गए थे. प्यार होने के बाद वे दोनों दिल्ली के द्वारका इलाके के सैक्टर-3 में जा कर किराए के मकान में बाकायदा मियांबीवी की तरह रहने लगे थे. उन्होंने समझदारी दिखाते हुए तमाम कानूनी एहतियात बरते थे. लाली देवी ने अलवर में ही अपने पति पर मारपीट का आरोप लगाते हुए उस से तलाक ले लिया था और बहू के प्यार में पड़े प्रभाती लाल ने भी अपनी बीवी को तलाक दे दिया था यानी शादी पर एतराज जताने की कोई वजह नहीं छोड़ी थी. दिलचस्प बात लाली देवी का 2 बच्चों की मां होना है. अब इस रिश्ते पर कोई उंगली नहीं उठा सकता है. यह और बात है कि दादा प्रभाती लाल ही अपनी बहू लाली देवी के बच्चों का पिता बन गया है और वह अपने ही पति की मां बन गई है. बहू को जायज और कानूनी तौर पर पत्नी बनाने का देश का यह पहला उजागर मामला है.

सामाजिक अनदेखी की शिकार युवतियां, क्या है इस की जड़ में

‘यत्र नार्यस्तु पूज्यते…’ जैसे जुमले कह कर स्त्री को मानसम्मान का प्रतीक मानने वाले कट्टरपंथी देश में आज स्त्री की पूजा होती है रेप से, एकतरफा प्यार में कैंची द्वारा गोदगोद कर उस की हत्या से, निर्भया की तरह मौत के बाद भी इंसाफ न मिलने से या फिर गुरमेहर की तरह अभिव्यक्ति की आजादी का दमन कर गालियां व रेप की धमकी दे कर. इस के बाद खुद को जगत गुरु कहा जाता है. ये तो चंद मामले हैं जो सर्वविदित हैं जबकि आएदिन सुर्खियों में ऐसे मामले आते हैं जिन का सीधा संबंध नारी से होता है लेकिन पुरुषवादी मानसिकता, कट्टरतावादी धर्म पर चलता समाज उस के छींटे भी नारी पर ही डालता है और कहा जाता है कि ये सब होने की वजह युवतियों का घर से निकलना, छोटे कपड़े पहनना, पुरुषों संग मेलजोल बढ़ाना है.

अगर ये सब बातें ही इन जघन्य अपराधों का कारण हैं तो छोटीछोटी बच्चियों के साथ बलात्कार के इतने सारे मामले क्यों प्रकाश में आते हैं? गांवों में जहां लड़कियां न तो पढ़ रही हैं और न छोटे कपड़े पहन रही हैं, वे क्यों वहां मर्दों की शिकार बनती हैं?

समाज में निरंतर बढ़ते अपराध का कारण भी हमारे धर्म की जड़ों में है जहां जन्म से ही लड़के के जन्म पर खुशी और लड़की होने पर शोक मनाया जाता है. बड़े होने पर दहेज हत्याएं, समाज में दकियानूसी सोच का उन्हें शिकार होना पड़ता है. इन्हीं कारणों के चलते एक और अपराध जन्म लेता है भ्रूण हत्या का.

अगर परीक्षण कर पता चला कि गर्भ में लड़की है तो उसे वहीं मार दिया जाता है. इतने साल बाद भी हम समाज की कुरीतियों को बदल नहीं पाए, दहेज प्रथा, बाल विवाह, लड़कियों को कम शिक्षा दिलाना आदि कुरीतियां आज भी समाज में व्याप्त हैं.

नारी को सदा धर्म में भोग की वस्तु माना गया और उसे पुरुष से कमतर आंका गया है. स्त्री निंदा में भी कसर नहीं छोड़ी गई, लेकिन जब हम समाज में यह भेदभाव देखते हैं तो भी आवाज नहीं उठाते, कारण यह भी है कि आवाज कैसे दबाई जाए सब को पता है.

निर्भया कांड को ही ले लीजिए. इस कांड के बाद पूरे देश में धरनाप्रदर्शन, कैंडिल मार्च हुए, नई समितियां गठित की गईं, नए कानून बने, फास्ट ट्रैक अदालतों का निर्माण हुआ, लेकिन बलात्कारियों के पता होने व पकड़े जाने पर भी क्या हम निर्भया को न्याय दिला पाए?

एक दूसरे मामले में कैंची से गोद कर एक सिरफिरा सरेराह युवती को मार देता है तो क्या हुआ? ताजा मामला गुरमेहर का है. आखिर उस का गुनाह क्या है? सिर्फ यही न कि उस ने अपने मन की बात कही? यही कि कट्टरपंथी एबीवीपी का विरोध किया? उस के खिलाफ उसे गालियां दी गईं और उसे अपमानित किया गया. रेप करवा देंगे जैसी धमकियां मिलीं, क्यों?

रेप, एसिड अटैक, दहेज हत्या जैसी बातों की शिकार युवतियां ही हो रही हैं. न्याय के इतने पैर पसारने, सिक्योरिटी की नई तकनीक, आत्मरक्षा के तरीकों और पुलिस की चौकस निगाह के बावजूद आज ये सब हो रहा है.

हाल ही में एक और मामला प्रकाश में आया है जिस में दिल्ली से सटे ग्रेटरनोएडा के लौयड कालेज के निदेशक ने युवतियों के क्लास में 20 मिनट देर से पहुंचने पर उन्हें गालियां दीं. यहां तक कि जूता उठा कर मारने के लिए उन के पीछे भी दौड़े. भले ही उन के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर कार्यवाही की गई और अगले दिन उन का इस्तीफा ले कर तत्काल प्रभाव से उन्हें हटा दिया गया, लेकिन युवतियों का अपमान तो हुआ न.

गुरमेहर कौर का मामला

 गुरमेहर कौर दिल्ली यूनिवर्सिटी के लेडी श्रीराम कालेज की छात्रा है और बहुत बोल्ड भी. रामजस कालेज में इतिहास विभाग ने 2 दिन का ‘कल्चरर औफ प्रोटैस्ट’ सैमिनार आयोजित किया था, जिस में पिछले साल विवादों में आए जेएनयू के छात्र उमर खालिद और छात्रसंघ के पूर्व सदस्य को भी आमंत्रित किया गया था, लेकिन एबीवीपी के विरोध के चलते कार्यक्रम रद्द करना पड़ा. कार्यक्रम रद्द होते ही दोनों गुटों यानी एबीवीपी और आईसा में तनातनी हो गई, जिस में कईर् छात्र घायल हो गए.

ये सब गुरमेहर से देखा नहीं गया और उस ने इस हिंसा के विरोध में एबीवीपी के खिलाफ सोशल मीडिया पर एक कैंपेन चलाया, जिसे छात्रों का खूब समर्थन मिला, जिस से एबीवीपी बौखला गई. उसे लगा कि लड़की होते हुए उस ने हमारे खिलाफ आवाज उठाने की जुर्रत की, जो उन के लिए खौफ पैदा करने वाली थी.

बदले में एबीवीपी ने साल भर पुराना मुद्दा उछाला और भारतपाकिस्तान शांति के प्रयास के लिए डाले गए गुरमेहर के एक वीडियो, जिस में गुरमेहर ने कहा था, ‘मेरे पिता को पाकिस्तान ने नहीं युद्ध ने मारा’ को उभारा गया और गुरमेहर को राष्ट्रविरोधी करार दिया गया. उसे न केवल रेप जैसी धमकी मिली बल्कि भद्दी गालियों का भी सामना करना पड़ा.

गुरमेहर इस से डरी नहीं और उस ने कहा कि जो सच था मैं ने वही कहा, मैं एबीवीपी से नहीं डरती. भले ही मैं इस अभियान से अलग हो रही हूं लेकिन इस का मतलब यह नहीं कि मैं डर गई, बल्कि मैं किसी भी तरह की हिंसा नहीं चाहती.

विचारों की कैसी स्वतंत्रता

आज हर व्यक्ति को विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, लेकिन यह कैसी स्वतंत्रता जहां अपनी बात रखने पर बवाल मच जाता है. यह सिर्फ महिलाओं के साथ है पुरुषों के साथ नहीं, क्योंकि जब समाज में पुरुष कुछ गलत कहें या करें तो उस मामले को दबा दिया जाता है, लेकिन अगर महिला कुछ कहे तो यह समाज को बरदाश्त नहीं होता बल्कि उसे शारीरिक व मानसिक रूप से प्रताडि़त करने की धमकी दे कर चुप कराने की कोशिश की जाती है.

किसी भी महिला के लिए यह धमकी काफी डरावनी होती है, क्योंकि एक बार अगर उस का रेप हो जाए तो समाज उसे हेयदृष्टि से देखता है और यहां तक कि पढ़ीलिखी होने के बाद भी कोई उस से शादी करना पसंद नहीं करता, भले ही उस की कोई गलती न हो.

इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि महिलाओं को आज भी विचारों की स्वतंत्रता नहीं है और अगर कोई बोलने की जुर्रत करती भी है तो उसे भी गुरमेहर की तरह बिना किसी गलती के अपने घर वापस लौटना पड़ता है.

महिलाओं के हिस्से गालियां ही क्यों

बात चाहे बौयफ्रैंड की इच्छापूर्ति की हो या फिर घर में पति की बात मानने की, जहां भी महिला ने किसी बात को मनाने से इनकार किया तो उसे मांबहन की गालियां दे कर अपनी बात को मनवाने की कोशिश की जाती है और अगर फिर भी उस ने इनकार किया तो ब्लैकमेलिंग की धमकी दी जाती है आखिर ऐसा क्यों?

जब रिश्ता आपसी सहमति से बना हो तो उस में जबरदस्ती कैसी? क्या महिलाएं सिर्फ  भोग की वस्तु हैं जब चाहे उन्हें यूज करो और जब मन भर जाए तो निकाल कर फेंक दो? अपनी इस मानसिकता को जब तक पुरुष नहीं बदलेंगे तब तक समाज व देश का भला नहीं हो पाएगा और पलपल पर महिलाओं को अपमानित हो कर अपने पैदा होने पर ही पछताने पर मजबूर होना पड़ेगा.

आवाज को दबाने वाले दबंग

लाठीपत्थर बरसाने वाले, होहल्ला मचाने वाले ज्यादा दबंग हैं. उन में से ज्यादातर किसी धर्म के मानने वाले ही नहीं परम भक्त और उन के सेवक, दुकानदार हैं. वे धर्म के नाम पर रोब झाड़ते हैं और जबरन चंदा वसूली करते हैं. इन के सामने पुलिस भी नतमस्तक हो जाती है.

इन दबंगों को प्रशासन या सरकार का खुला संरक्षण प्राप्त होता है. ये साफ कह देते हैं कि अगर बात बिगड़ती दिखी तो हम पैसों और पावर के दम पर सब संभाल लेंगे, तुम्हें डरने की जरूरत नहीं. ऐसे में इन के हौसले तो और बुलंद होंगे ही.

पुरुष हमेशा प्रत्यक्षदर्शी ही क्यों

 जब पुरुष समाज में खुद का अहम रोल मानते हैं और समझते हैं कि उन के बिना महिला का कोई वजूद नहीं तो अकसर ऐसा देखने में आता है कि जब भी कोई बदतमीजी या फिर रेप वगैरा की घटना होती है या फिर मुसीबत में होेने पर महिला हैल्प मांगती है तो पुरुष क्यों चुप्पी साध लेते हैं. तब क्यों नहीं मर्दानगी दिखाते?

दोषी घूमते हैं आजाद

 आज माहौल ऐसा बन गया है कि जो निर्दोष है वह सजा भुगतता है, लोगों के घटिया कमैंट का शिकार होता है और जो वास्तव में दोषी है वह खुलेआम आजाद घूम कर और खौफ पैदा करता है.

असल में इस का दोष हमारी कानूनव्यवस्था में है, क्योंकि कभी रेप के आरोपी को नाबालिग के नाम पर छोटीमोटी सजा दे कर छोड़ दिया जाता है तो कभी दोषी मोटी रकम चढ़ा कर अफसरों का मुंह बंद करवा कर आजाद घूमता है.

फ्रीडम औफ स्पीच का समर्थन जरूरी

 डीयू में जहां देशविदेश से छात्र पढ़ कर अपना कैरियर संवारते हैं, जहां न पढ़ाई में और न ही किसी और चीज में भेदभाव होता है तो फिर वहां जब महिलाएं सच के खिलाफ आवाज उठाती हैं तो उन का हमेशा विरोध क्यों होता है.

विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ ही है कुछ अप्रिय कहने की स्वतंत्रता, तारीफ करनी हो तो किसी स्वतंत्रता की जरूरत ही नहीं. यह तो सऊदी अरब में भी कर सकते हैं और उत्तर कोरिया में भी, भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ है अप्रिय सच बोलना, तथ्यों पर सही बेबाक समीक्षा करना. देशभक्ति के नाम पर धर्मभक्ति को थोपने की कोशिश की जा रही है

और हिंदू या इसलामी झंडे की जगह तिरंगा लहरा कर धर्मभक्ति को राष्ट्रभक्ति कहने की कोशिश भारत, इसलामी देशों और कम्युनिस्ट देशों में जम कर हो रही है.

महिलाओं को तो फ्रीडम औफ स्पीच का अधिकार है ही नहीं. आज भले ही गुरमेहर अभियान से पीछे हट गई है, लेकिन फिर भी उस ने अपनी आवाज बुलंद कर दुनिया को बहुत पावरफुल मैसेज दिया है कि अगर आप सही हैं तो डरें नहीं. अगर इस तरह हर किशोरी, युवती, महिला सोचेगी तो कोई भी नारीशक्ति को कमजोर नहीं कर पाएगा और न ही रेप, मारने जैसी धमकियां दे कर डरा पाएगा.

प्यार में जाति-धर्म की दीवार का नहीं काम

प्यार दो दिलों का मेल है. जब किसी को किसी से प्यार होता है तो वह उस की जातिधर्म से परे होता है. लेकिन जब प्यार को परवान चढ़ाने की बात आती है तो जातिधर्म की दीवार आड़े आ जाती है. ऐसे में कई प्रेमी युगलों को अपने प्यार को दफन करना पड़ता है. क्या इस नफरत की दीवार को तोड़ा नहीं जा सकता?

हमारे देश में जाति और धर्म इस कदर हावी है कि वे दिलों के रिश्तों को समझ ही नहीं पाते. जब कभी किसी अन्य धर्मावलंबी लड़के या लड़की से प्यार की बात सामने आती है तो दोनों ही पक्ष के लोग इसे सिरे से नकार देते हैं.

कट्टरपंथी लोग, चाहे वे किसी भी जातिधर्म के क्यों न हों, अपने धर्म से इतर रिश्ते को कुबूल नहीं करते. उन की सोच को बदलना नामुमकिन है. यदि उन की जातिधर्म का लड़का या लड़की दूसरी जातिधर्म की लड़की या लड़के से शादी कर भी ले तो वे उस के साथ कोई रिश्ता नहीं रखते. वे उसे अपनी धनसंपत्ति से बेदखल या वंचित कर देते हैं. कुछ तो ऐसे जोड़े को अपने जाति और समाज से अलग कर देते हैं.

यदि लड़का और लड़की वयस्क हैं, अपनी मरजी से अन्य जातिधर्म की लड़की से शादी करना चाहते हैं तो लड़की के परिजन लड़के के विरुद्ध अपहरण या बहलाफुसला कर भगा कर ले जाने की एफआईआर दर्ज कराते हैं. यही नहीं, प्रेमी पर बलात्कार या यौनशोषण का मामला भी दर्ज करने से नहीं हिचकते. ऐसे में लड़की लाख दुहाई दे, परिजनों के हाथपैर जोड़े पर वे अपना निर्णय नहीं बदलते.

हमारे एक परिचित हैं. उन की लड़की को दूसरे धर्म के लड़के से प्रेम हो गया. दोनों ने अपने परिजनों को मनाने की कोशिश की. क्योंकि दोनों ही चाहते थे कि उन के परिजन इस खुशी में शामिल हो कर उन्हें अपना प्यार दें. लेकिन दोनों के ही परिजनों ने इस रिश्ते के प्रति अपनी असहमति व्यक्त की. मजबूर हो कर उन्हें कोर्ट मैरिज करनी पड़ी.

विडंबना देखिए कि न तो वह किसी की बहू के रूप में स्वीकार की गई और न ही बेटी बनी रह सकी, क्योंकि मातापिता ने उस से अपना रिश्ता तोड़ लिया. दोनों ने शादी तो की लेकिन शादी की खुशियां न मिलीं.

हमारे एक मित्र हैं. उन का बेटा डाक्टर है. उसे अपने साथ पढ़ने वाली दूसरे धर्म की लड़की से प्यार हो गया. लड़की वालों ने भले ही रिश्ते के लिए हां कर दी हो लेकिन लड़के वाले अपनी जिद पर अड़ गए कि हम तो अपने धर्म में ही शादी करेंगे. परिणामस्वरूप प्रेमी युगल का संजोया सपना टूट गया.

अमेरिकी थिंकटैंक प्यू रिसर्च सैंटर के अनुसार, भारत में ज्यादातर लोग दूसरे धर्मों में शादी करने के फैसले को सही नहीं मानते हैं. इन में 80 प्रतिशत मुसलिम और 67 प्रतिशत हिंदू हैं. सैंटर ने देश के 26 राज्यों और 3 केंद्रशासित प्रदेशों के 30 हजार लोगों पर सर्वे किया है. सर्वे का शीर्षक ‘भारत में धर्म: सहिष्णुता और अलगाव’ था, जिस में देश में 17 भाषाएं बोलने वाले लोगों को शामिल किया गया. इस में 67 प्रतिशत हिंदुओं का कहना था कि यह जरूरी है कि हिंदू महिलाओं को दूसरे धार्मिक समुदायों में शादी करने से रोका जाए. वहीं 65 प्रतिशत हिंदुओं ने कहा कि ‘हिंदू पुरुषों को भी दूसरे धर्म में शादी नहीं करनी चाहिए.’

उन लोगों की भी कमी नहीं है जो कि अपने ही धर्म में जाति के हिसाब से रिश्ते को मंजूर करते हैं. रिश्ता समान बिरादरी का होना जरूरी है. अपनी बिरादरी से नीचे बिरादरी वाले लड़के को बेटी ब्याहना वे अपनी तौहीन समझते हैं. इसी प्रकार, ऊंची जाति या कुल के लोग अपने से नीची जाति या कुल की लड़की को अपनी बहू बनाना नहीं चाहते. यहां जाति की ऊंचनीच प्यार में बाधक बन जाती है.

ऐसी बात नहीं है कि सिर्फ हिंदू या मुसलिमों में ही कट्टरपंथी लोग हैं. अन्य धर्म जैसे सिख, ईसाई, पारसी, बौद्ध धर्म में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है. विडंबना देखिए कि उन्हें विदेशी दामाद या विदेशी बहू तो मंजूर है लेकिन अपने ही देश की अन्य जातिधर्म में रिश्ता मंजूर नहीं. जब वे विदेशी लड़केलड़की को अपना सकते हैं तो स्वदेशी खून को अपनाने में क्या बुराई है?

ऐसा एक नहीं, सैंकड़ों उदाहरण हैं जिन में जाति, धर्म की दीवार के कारण युवाओं को अपने प्यार का गला घोंटना पड़ा. इतिहास इस बात का साक्षी है. समय के साथ बहुतकुछ बदल गया है. आज कंप्यूटर, इंटरनैट का युग है. नहीं बदली तो जातिधर्म को ले कर लोगों की सोच.

लोगों को यह बात समझ में क्यों नहीं आती कि न तो कोई धर्म ऊंचा है और न ही कोई नीचा. इसी प्रकार, ऊंचीनीची जाति का भेद हम ने ही बनाया है. इंसान चाहे वह किसी भी जातिधर्म या कुल में पैदा हुआ हो, न किसी से श्रेष्ठ है और न कमतर. हमें अपनी सोच बदलनी चाहिए.

प्यार और शादी एक पवित्र बंधन है. रिश्ते की मिठास तभी है जब हम दूसरी जातिधर्म के रिश्ते को कुबूल करें. अपनी संतानों की खुशी में ही मांबाप को खुशी होनी चाहिए, न कि अपने अडि़यल रवैए की वजह से उन के प्यार और दांपत्य में जहर घोलना चाहिए.

हमें जाति और धर्म के बीच सहिष्णुता बरतनी होगी. जातिधर्म को ले कर नफरत त्यागनी होगी. शादी के बाद यदि लड़की ससुराल के धर्म के साथ अपने धर्म का भी पालन करे तो इस में क्या बुराई है? जब वह ऐसा कर सकती है तो लड़का क्यों नहीं?  उसे भी लड़की की जातिधर्म के प्रति आदरसम्मान प्रकट करना चाहिए.

कोई भी धर्म नफरत फैलाने की बात नहीं करता. हर धर्म में शांति, सौहार्द की बात कही गई है तो फिर जातिधर्म को ले कर नफरत क्यों? आप चाहे जिस जातिधर्म या कुल के हों, आप पहले इंसान और भारतीय हैं. यही आप की पहचान है.

यदि आप पर लव जिहाद कानून लागू होता है तो बिना कानूनी तरीके से धर्म परिवर्तन किया विवाह गैरकानूनी माना जाएगा. जैसे उत्तर प्रदेश धर्मांतरण निषेध अध्यादेश 2020 का पालन होना चाहिए. गैरकानूनी तरीके से किए गए धर्म परिवर्तन के बाद की गई शादी को मान्यता नहीं दी जा सकती. अध्यादेश, जो कि अब अधिनियम बन चुका है, की धारा 8 और 9 का अनुपालन करना जरूरी है.

कानून की धारा 8 में कहा गया है कि जो व्यक्ति अपना धर्म परिवर्तन करना चाहता है उसे कम से कम 60 दिनों पहले संबंधित जिले के जिलाधिकारी या अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट को अपनी इच्छा व्यक्त करने के लिए एक निर्धारित फार्म में घोषणापत्र देना होगा. धर्म को बलपूर्वक, जबरदस्ती, किसी प्रभाव या प्रलोभन से बदला नहीं जा सकता.

कानून की धारा 9 में कहा गया है कि धर्म परिवर्तन करने वाले व्यक्ति को संबंधित जिलाधिकारी को धर्म परिवर्तन करने की तिथि के 60 दिनों के भीतर एक निर्धारित फार्म में घोषणापत्र भरना होगा. तभी यह कानूनी माना जाएगा. वैसे, 10 राज्यों में इस तरह के कानून लागू हैं.

जीवन की राह आसान बनाएं पेरेंट्स के फैसले

इच्छा और जरूरत का अंतर जेब में रखे पैसों से निर्धारित होता है. बच्चों की कौन सी इच्छा पूरी करनी है और उन की क्या जरूरत है, यह मातापिता से बेहतर कोई नहीं समझ सकता. उन के फैसले अनुभव और जरूरत के हिसाब से होते हैं.

अक्षत का मूड बहुत खराब था. वह 12वीं के बाद अपने दोस्त कनिष्क की तरह विदेश में पढ़ने जाना चाहता था. पर अक्षत के मम्मीपापा ने एजुकेशन लोन के लिए साफ मना कर दिया था. अक्षत के पापा के अनुसार, ‘‘विदेश में पढ़ने के लिए 30 लाख रुपए का लोन लेने से अच्छा है कि अक्षत भारत के ही किसी अच्छे कालेज से ग्रेजुएशन कर ले.

लेकिन आज, अक्षत के शब्दों में, ‘‘उस समय मैं मम्मीपापा से बेहद नाराज था पर उन्होंने एकदम सही फैसला लिया था. नहीं तो आज मैं और मेरा पूरा परिवार एजुकेशन लोन के कर्ज में डूबा रहता. कोरोना के कारण वैसे ही भविष्य अंधकार में है.’’

ऊर्जा अपनी जन्मदिन की पार्टी अपनी दूसरी फ्रैंड्स की तरह महंगे फाइवस्टार होटल में देना चाहती थी. लेकिन उस की मम्मी ने कहा कि वे लोग एक जन्मदिन के लिए 50 हजार रुपए का खर्च वहन नहीं कर सकते. ऊर्जा ने गुस्से में जन्मदिन पर किसी को नहीं बुलाया. पर उस की जन्मदिन की रात को 12 बजे जब उस की सारी सहेलियां केक ले कर पहुंचीं, तो ऊर्जा की खुशी का ठिकाना न रहा. ऊर्जा की मम्मी ने उस की सभी दोस्तों के मम्मीपापा से परमिशन ले ली थी. पूरी रात ऊर्जा दोस्तों के साथ धमाचौकड़ी करती रही. रात में मम्मीपापा के गले लगते हुए ऊर्जा बोली, ‘‘मम्मी, यह जन्मदिन अब तक का सब से अच्छा जन्मदिन था. जगह से ज्यादा महत्त्वपूर्ण होता है लोगों का साथ.’’

काविश को एप्पल का फोन लेने का कितना मन था. उस के ग्रुप में सब के पास एप्पल का ही मोबाइल था. पर उस के पापा ने उस के लिए अपने बजट के हिसाब से उसे एक अपडेटेड एंड्रोइड मोबाइल दिला दिया था. काविश ने गुस्से में उस मोबाइल को यूज नहीं किया था. तभी लौकडाउन हो गया और अचानक से लैपटौप लेना जरूरी हो गया था. काविश के पापा का बिजनैस भी नहीं चल पा रहा था. काविश को समझ नहीं आया था कि वह लैपटौप कैसे लेगा? लेकिन उस के पापा अगले दिन ही काविश के लिए लैपटौप खरीद कर ले आए थे. उन्होंने काविश को सम झाते हुए कहा, ‘‘बेटा, मोबाइल तुम्हारी इच्छा थी जिसे पूरा करना जरूरी नहीं था, मगर लैपटौप तुम्हारी आवश्यकता थी. अगर मैं अपनी जेब के अनुसार फैसला नहीं लेता और तुम्हें महंगा मोबाइल दिला देता तो अब तुम्हारे लिए लैपटौप नहीं खरीद पाता.’’

बहुत बार ऐसा होता है कि हम अपने मम्मीपापा के फैसलों से सहमत नहीं होते हैं. ऐसा हो भी सकता है कि उन के फैसले आप को आज के समय के हिसाब से अनुकूल न लगें, लेकिन एक बात अवश्य याद रखें कि उन के फैसले उन के अनुभव के हिसाब से होंगे. अगर उन के फैसलों से आप को लाभ नहीं होगा तो नुकसान भी कदापि नहीं होगा.

चलिए अब जानते हैं कुछ कारण कि क्यों हमारे मातापिता हमारे फैसले अपनी जेब को देख कर लेते हैं.

जितनी चादर उतने ही पैर फैलाएं : अगर मम्मीपापा आप की जिद मान कर अपनी चादर से बाहर पैर फैलाएंगे तो बाद में वह आप के लिए ही नुकसानदेह होगा. ऐसा हो सकता है कि आप की जिद पूरी करने के चक्कर में वे अपने जरूरी खर्चों में कटौती कर दें. इसलिए अपने मम्मीपापा के फैसलों को सम झने की कोशिश करें, इस में सब की भलाई ही छिपी हुई होती है.

अनुभव है महत्त्वपूर्ण : मांबाप के हर निर्णय में उन के अनुभव की सीख होती है. उन्होंने आप से अधिक दुनिया देखी है. मम्मीपापा घर की आर्थिक हालत के हिसाब से ही आप की जरूरत और इच्छाओं को पूरा करते हैं. इसलिए उन के फैसलों को दिल से स्वीकार करें.

दूसरों से न करें तुलना : अपने दोस्तों से अपनी तुलना कभी न करें. हर किसी के परिवार का आर्थिक स्तर अलग होता है और सब का रहनसहन भी आर्थिक स्तर के हिसाब से ही तय होता है. अगर आप के दोस्त के पास एप्पल का फोन है तो जरूरी नहीं कि आप भी वही लें. बेवजह की तुलना आप को नकारात्मक ही बनाएगी.

जरूरत और इच्छाओं में फर्क करना सीखें : यह बात अवश्य याद रखें कि जरूरतों और इच्छाओं में फर्क करना सीख लें. आप के मम्मीपापा आप की जरूरतों को पूरा करने के लिए ही बाध्य हैं. अपनी इच्छाओं को पूरा करना आप की जिम्मेदारी है. अगर अपनी आर्थिक स्थिति के हिसाब से आप फर्क करना नहीं सीखेंगे तो सदा ही दुखी रहेंगे.

खुल कर करें बातचीत : कभीकभी ऐसा भी हो सकता है कि आप के लिए कोई वस्तु आवश्यक हो लेकिन मम्मीपापा की नजरों में वह जरूरी न हो. ऐसे में आप परेशान न हों. मम्मीपापा से खुल कर बातचीत करें. अगर आप की बात में उन्हें वजन लगा तो वे अवश्य आप को वह वस्तु दिलाने से गुरेज नही करेंगे.

झूठी शान बढ़ाती हैं मुश्किलें : अगर आप के मम्मीपापा आप की  झूठी शान के कारण अपनी जेब से अधिक खर्च करेंगे तो भविष्य में आप की ही मुश्किलें बढ़ेंगी.  झूठी आनबानशान से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है सादा और सरल जीवन. अपनी जेब के अनुसार किए गए फैसले भविष्य की खुशियों को सदा के लिए सुनिश्चित कर लेते हैं.

आज का कर्ज भविष्य का मर्ज : यह बात गांठ बांध कर रख लें कि कर्ज से बड़ा कोई मर्ज नहीं होता है. आप के कहे अनुसार, अगर आप के मम्मीपापा आप के सपनों को पूरा करने के लिए कर्ज भी ले लेंगे तो उन के साथसाथ आप भी इस मर्ज का शिकार हो जाएंगे. अगर अपने जीवनकाल में वे इस मर्ज से उबर न पाए तो आप भी इस मर्ज का शिकार हो जाएंगे. तनावरहित जीवन जीने के लिए, कर्ज नामक मर्ज से सदैव दूर रहें. जेब के अनुसार किए गए मम्मीपापा के फैसले आप के जीवन की राह को आसान बनाते हैं.

मेहमान बनें, सिरदर्द नहीं : रखें इन बातों का खयाल

अपने किसी जानपहचान वाले या सगेसंबंधी के यहां छुट्टियां मनाने जाना एक सुखद अनुभव है. भागदौड़ भरी जिंदगी में वहां कई ऐसे पल मिल जाते हैं, जब हमें चैन की सांसें मिलती हैं. आबोहवा बदलने से बहुत सी परेशानियां तो अपनेआप ही चली जाती हैं. चाहे कोई भी उम्र हो, सब के लिए कुछ न कुछ जरूर होता है. हम खुद को तरोताजा महसूस करने लगते हैं.

आसान शब्दों में कहें तो हमारा तनमन आने वाले समय के लिए रीचार्ज हो जाता है, इसलिए हमारा भी यह फर्ज है कि जिन लोगों के चलते हम को इतना सब मिला, उन के लिए हम भी थोड़ा सोचें.

चलिए, जिक्र करते हैं उन बातों की, जिन का हमें मेहमान बनते वक्त हमेशा खयाल रखना चाहिए:

* अगर हमारा कार्यक्रम लंबा है यानी 15-20 दिन या महीनेभर का है, तो कोशिश की जानी चाहिए कि उसी शहर में जाएं, जहां एक से ज्यादा रिश्तेदार हों. 2-2, 3-3 दिन तक बारीबारी से सब के यहां रुकते रहने से किसी पर ज्यादा बोझ भी नहीं पड़ेगा और सभी से मुलाकात भी हो जाएगी.

* छुट्टियों में किसी खास के पास जाने की आदत नहीं बनानी चाहिए. इस से उस के मन में आप के लिए नयापन लगातार कम होता जाता है, भले ही वह आप का मायका या पुश्तैनी घर ही क्यों न हो. समय के साथ लोगों की पसंद और प्राथमिकताएं लगातार बदलती हैं.

* बहुत से लोगों की आदत होती है कि किसी के भी घर पहुंच जाते हैं. लोग भले ही ऊपर से कुछ न कहें, लेकिन आज की गलाकाट प्रतियोगिता के जमाने में हर कोई इतना फ्री नहीं होता कि उस को बारबार किसी की खातिरदारी करने में दिलचस्पी हो, वह भी दूर के जानपहचान वालों की. खुद को किसी के सिर पर थोपने की लत अपनी इज्जत के लिए भी खतरा है.

* हम अपने घर में तो बच्चों को खूब रोकटोक करते हैं, लेकिन किसी के घर मेहमान बन कर जाते ही उन पर से ध्यान हटा लेते हैं. ऊपर से उन के सामने ही यह बोल कर कि ‘यह तो बहुत शरारती है’ एक तरह से उन को खुली छूट दे देते हैं.

मेजबान खुद आप को संभालने में जुटा हुआ है, ऐसे में अगर आप के बच्चे उस के घर में धमाचौकड़ी, तोड़फोड़ करते रहेंगे, तो झिझक के मारे वह उन को तो कुछ नहीं कहेगा, लेकिन आप के अगली बार न आने की बात मन में जरूर सोचने लगेगा.

* अकसर देखा गया है कि अपने से कम पैसे वाले मेजबान को मेहमान अपना रोब दिखाने का ‘सौफ्ट टारगेट’ समझ लेते हैं. आप कितने महंगे कपड़े पहनते हैं, कितने का खाते हैं. इस का गैरजरूरी हिसाब देना मेजबान के मन में आप के लिए नेगेटिव भाव पैदा करता है.

* मेजबान के बच्चों की तुलना ज्यादा नंबर लाने वाले अपने बच्चे से मत कीजिए. इस से वे बच्चे आप से कन्नी काटने लगेंगे. बच्चों को असहज देख उन के मांबाप भी असहज हो जाएंगे.

अगर आप मेजबान के बच्चों का सचमुच भला चाहते हैं, तो उन्हें कभीकभार दोस्त की तरह सलाह दे दें. अपने बच्चों के सामने इशारोंइशारों में छोटा कतई न दिखाएं.

* हर किसी का अपना स्वभाव होता है. हो सकता है कि किसी को ज्यादा लोगों से मिलनाजुलना पसंद न हो या वह आप से न मिलना चाहे. घर में जिन से आप की अच्छी अंडरस्टैंडिंग है, उन तक ही सीमित रहिए. इस से आप को भरपूर स्वागत का अनुभव होगा.

* जिस मेजबान की जो हैसियत है, उसे उस की जरूरत के हिसाब से उपहार दें. सभी जगह आधा किलो मिठाई का डब्बा ले कर चलने की आदत सही नहीं है. हर कोई आप से प्यार किसी न किसी उम्मीद के साथ ही करता है, इस सच को स्वीकार करना सीखें.

* मेजबान से बहुत ज्यादा प्यार जताना वह भी केवल शब्दों के जरीए, उन के मन में आप की इमेज पर बुरा असर डालेगा. सच्चा प्यार है तो उस को अपने काम से दिखलाइए, वरना बदलाव सामान्य रखिए. खोखली बातें कुछ दिनों तक ही अच्छी लगती हैं.

इन बातों का ध्यान रखें और देखें कि हर मेजबान खुद ही कहेगा, ‘‘आप का हमारे घर में स्वागत है.’’

पत्नी की बात मानना नहीं है दब्बूपन की निशानी

पुरुषप्रधान समाज में आज महिलाएं हर क्षेत्र में नेतृत्व कर रही हैं. ऐसे में पढ़ीलिखी, योग्य व समझदार पत्नी की राय को सम्मान देना पति का गुलाम होना नहीं, बल्कि उस की बुद्धिमत्ता को दर्शाता है.

कपिल इंजीनयर हैं. लोक सेवा आयोग से चयनित राकेश उच्च पद पर हैं. विभागीय परिचितों, साथियों में दोनों की इमेज पत्नियों से डरने, उन के आगे न बोलने वाले भीरु या डरपोक पतियों की है. पत्नियों का आलम यह है कि नौकरी संबंधी समस्याओं की बाबत मशवरे के लिए पतियों के उच्च अधिकारियों के पास जाते समय वे भी उन के साथ जाती हैं.

उच्चाधिकारियों से मशवरे के दौरान कपिल से ज्यादा उन की पत्नी बात करती है. सोसाइटी में कपिल की दयनीय स्थिति को ले कर खूब चर्चाएं होती हैं. वहीं, राकेश ने अपनी स्थिति को जैसे स्वीकार ही कर लिया है और उन्हें इस से कोई दिक्कत नहीं है. असल में, उन्हें पत्नी की सलाह से बहुत बार लाभ हुए. बहुत जगह वह खुद ही काम करा आती. वे सब के सामने स्वीकार करते हैं कि शादी के बाद उन की काबिल पत्नी ने बहुत बड़ा त्याग किया है. वे घर व बाहर के सभी काम खुशीखुशी करते हैं, पत्नी की डांट भी खाते हैं और कभी ऐसा नहीं लगता कि वे खुद को अपमानित महसूस करते हों.

वास्तव में जो पतिपत्नी आपस में अच्छी समझ रखते हैं और मिलजुल कर निर्णय लेते हैं उन के घर में आपसी सामंजस्य और हंसीखुशी का माहौल रहता है. जरूरत इस बात की है कि पति हो या पत्नी, दोनों एकदूसरे की राय को बराबर महत्त्व व सम्मान दें और कोई भी निर्णय किसी एक का थोपा हुआ न हो. यदि पत्नी ज्यादा समझदार, भावनात्मक रूप से संतुलित व व्यावहारिक है तो पति अगर उस की राय को मानता है तो इस में पति को दब्बू न समझ कर, समझदार समझा जाना चाहिए.

इस के विपरीत, महेश और उन की पत्नी का दांपत्य जीवन इसलिए कभी सामान्य नहीं रह पाया क्योंकि उन्होंने अपनी दबंग पत्नी के सामने खुद को समर्पित नहीं किया. उन का सारा वैवाहिक जीवन लड़तेझगड़ते, एकदूसरे पर अविश्वास और शक करते हुए बीता. इस के चलते उन के बच्चे भी इस तनाव का शिकार हुए.

कई परिवार ऐसे दिख जाएंगे जिन में पति की कोई अस्मिता या सम्मान नहीं दिखेगा और पत्नियां पूरी तरह से परिवार पर हावी रहती हैं. ये पति अपने इस जीवन को स्वीकार कर चुके होते हैं और परिस्थितियों से समझौता कर चुके होते हैं. ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या ये दब्बू या कायर व्यक्ति हैं जिन का कोई आत्मसम्मान नहीं है? या फिर किन स्थितियों में उन्होंने हालात से समझौता कर लिया है और अपनी स्थिति को स्वीकार कर लिया है? अगर गहन विश्लेषण करें तो इन स्थितियों के कारण सामाजिक, पारिवारिक ढांचे में निहित दिखते हैं, जिन के कारण कई लोगों को अवांछित परिस्थितियों को भी स्वीकार करना पड़ता है.

समाज में एक बार शादी हो कर उस का टूटना बहुत ही खराब बात मानी जाती है. विवाह जन्मजन्मांतर का बंधन माना जाता है. और फिर बच्चों का भविष्य, परिवार की जगहंसाई, समाज का संकीर्ण रवैया आदि कई बातें हैं जिन के कारण लोग बेमेल शादियों को भी निभाते रहते हैं. कर्कशा और झगड़ालू पत्नियों के साथ  पति सारी जिंदगी बिता देते हैं. ऐसी स्त्रियां बच्चों तक को अपने पिता के इस तरह खिलाफ कर देती हैं कि बच्चे भी बातबात पर पिता का अपमान कर मां को ही सही ठहराते हैं और पुरुष बेचारे खून का घूंट पी कर सब चुपचाप सहन करते रहते हैं. समाज का स्वरूप पुरुषवादी है और यदि वह पत्नी की बात मानता है, उस की सलाह को महत्त्व देता है तो परिवार व समाज द्वारा उस पर दब्बू होने का ठप्पा लगा दिया जाता है.

बच्चे भी तनाव के शिकार

श्रमिक कल्याण विभाग के एक औफिसर की पत्नी ने पति की सारी कमाई यानी घर, प्रौपर्टी हड़प कर, बच्चों को भी अपने पक्ष में कर के गुंडों की मदद से पति को घर से निकलवा दिया और वह बेचारा दूसरे महल्ले में किराए का कमरा ले कर रहता है, कभीकभार ही घर आता है. आखिर, इस तरह के एकतरफा संबंध चलते कैसे रहते हैं?  इतना अपमान झेल कर भी पुरुष क्यों  ऐसी पत्नियों के साथ निभाते रहते हैं?

वास्तव में सारा खेल डिमांड और सप्लाई का है. भारतीय समाज में शादी होना एक बहुत बड़ा आडंबर होने के साथसाथ एक सामाजिक बंधन ज्यादा है. चाहे उस बंधन में प्रेम व विश्वास हो, न हो, फिर भी उसे तोड़ना बहुत ही कठिन है. वैवाहिक संबंध को तोड़ने पर समाज, रिश्तेदारों, आसपास के लोगों के सवालों को झेलना और सामाजिक अवहेलना को सहन करना बहुत ही दुखदायी होता है. और एक नई जिंदगी की शुरुआत करना तो और भी दुष्कर होता है. ऐसे में व्यक्ति अकेला हो जाता है और मानसिक रूप से टूट जाता है.

बच्चों का भी जीवन परेशानियों से भर जाता है. उन की पढ़ाई, कैरियर सब प्रभावित होते हैं, साथ ही, बच्चे मानसिक रूप से अस्थिर हो कर कई तरह के तनावों का शिकार हो जाते हैं

इन परिस्थितियों में अनेक लोग इसी में समझदारी समझते हैं कि बेमेल रिश्ते को ही झेलते रहा जाए और शांति बनाए रखने के लिए चुप ही रहा जाए. जब पति घर में शांति बनाए रखने के लिए चुप रहते हैं और पत्नी के साथ जवाबतलब नहीं करते तो इस तरह की अधिकार जताने वाली शासनप्रिय महिलाएं इस का फायदा उठाती हैं और पतियों पर और ज्यादा हावी होने की कोशिश करने लगती हैं. ऐसी पत्नी को इस बात का अच्छी तरह भान होता है कि यह व्यक्ति उसे छोड़ कर कहीं नहीं जा सकता. अगर पति कुछ विरोध करने की कोशिश करता भी है तो वह उस पर झूठा इलजाम लगाने लगती है. यहां तक कि उसे चरित्रहीन तक साबित कर देती है.

ऐसी हालत में पुरुष की स्थिति मरता क्या न करता की हो जाती है. इधर कुआं तो उधर खाई. पति को अपने चंगुल में रखना ऐसी स्त्रियों का प्रमुख उद्देश्य होता है. वे घर तो घर, बाहर व चार लोगों के सम्मुख भी पति पर अपना अधिकार व शासन प्रदर्शित करने से बाज नहीं आतीं. और धीरेधीरे यह उन की आदत में आ जाता है. स्थिति को और ज्यादा हास्यास्पद बनने न देने के लिए पतियों के पास चुप रहने के सिवा चारा नहीं होता. इसे उन का दब्बूपन समझ कर उन पर दब्बू होने का ठप्पा लगा दिया जाता है. यह इमेज बच्चों की नजरों में भी पिता के सम्मान को कम कर देती है और ये औरतें बच्चों को भी अपने स्वार्थ व अपने अधिकार को पुख्ता बनाने के लिए इस्तेमाल करती हैं. समस्या की जड़ हमारे समाज का दकियानूसी ढांचा है जहां व्यक्ति इस संबंध को तोड़ने की हिम्मत नहीं कर पाता और अपना सारा जीवन इसी तरह काट देता है.

हमेशा केवल स्त्रियों की त्रासदी का जिक्र किया जाता है. कई पुरुषों का जीवन भी त्रासदीपूर्ण होता है, ऐसा गलत स्त्री से जुड़ जाने के कारण हो जाता है. ऐसे पुरुषों के प्रति भी सहानुभूति रखनी चाहिए और वैवाहिक जीवन को डिमांड व सप्लाई का खेल न बना कर प्रेम व एकदूसरे के प्रति सम्मान की भावना से पूर्ण बनाना चाहिए.

पतिपत्नी गाड़ी के 2 पहिए

इस समस्या को दूसरे पहलू से भी देखा जाना चाहिए. एक धारणा बना रखी गई है कि पुरुष हमेशा स्त्री से ज्यादा समझदार होते हैं. समाज ने पारिवारिक, आर्थिक व सामाजिक सभी तरह के निर्णय लेने के अधिकार पुरुष के लिए रिजर्व कर दिए हैं. जबकि, यह तथ्य हमेशा सही नहीं हो सकता कि पुरुष ही सही निर्णय ले सकते हैं, स्त्री नहीं. जो स्त्री सारा घर चला सकती है, उच्चशिक्षा ग्रहण कर बड़ेबड़े पद संभाल सकती है वह पति को निर्णय लेने में अपनी सलाह या मशवरा क्यों नहीं दे सकती?

कई बार देखा गया है कि स्त्रियां परिस्थितियों को ज्यादा सही ढंग से समझ पाती हैं और अधिक व्यावहारिक निर्णय लेती हैं. ऐसे में यदि पति अपनी पत्नी की राय को सम्मान देता है, उस के मशवरे को मानता है तो उस पर दब्बू होने का ठप्पा लगा देना कैसे उचित है?

परिवार में केवल एक के द्वारा लिए गए फैसले एकतरफा और जल्दबाजी में लिए गए भी हो सकते हैं. जब कहते हैं कि, पतिपत्नी एक गाड़ी के 2 पहिए हैं, तो भला एक पहिए से गाड़ी कैसे चल सकती है? पत्नी को पति की अर्धांगिनी कहा जाता है लेकिन वही अर्धांगिनी अपनी बात मानने को या उस की राय पर विचार करने को कहे तो उसे शासन करना कहा जाता है. अब वह समय आ गया है कि दकियानूसी धारणाओं को छोड़ परिवार के निर्णयों को लेने में स्त्री की राय को भी प्राथमिकता दी जाए और उसे पूरा महत्त्व दिया जाए.

Holi 2024: रिश्तों में रंग घोले होली की ठिठोली

वैसे तो होली रंगों का त्योहार है पर इस में शब्दों से भी होली खेलने का पुराना रिवाज रहा है. होली ही ऐसा त्योहार है जिस में किसी का मजाक उड़ाने की आजादी होती है. उस का वह बुरा भी नहीं मानता. समय के साथ होली में आपसी तनाव बढ़ता जा रहा है. धार्मिक और सांप्रदायिक कुरीतियों की वजह से होली अब तनाव के साए में बीतने लगी है. पड़ोसियों तक के साथ होली खेलने में सोचना पड़ता है. अब होली जैसे मजेदार त्योहार का मजा हम से अधिक विदेशी लेने लगे हैं. हम साल में एक बार ही होली मनाते हैं पर विदेशी पानी, कीचड़, रंग, बीयर और टमाटर जैसी रसदार चीजों से साल में कई बार होली खेलने का मजा लेते हैं. भारत में त्योहारों में धार्मिक रंग चढ़ने से दूसरे धर्म और बिरादरी के लोग उस से दूर होने लगे हैं.

बदलते समय में लोग अपने करीबियों के साथ ही होली का मजा लेना पसंद करते हैं. कालोनियों और अपार्टमैंट में रहने वाले लोग एकदूसरे से करीब आने के लिए होली मिलन और होली पार्टी जैसे आयोजन करने लगे हैं. इस में वे फूलों और हर्बल रंगों से होली खेलते हैं. इस तरह के आयोजनों में महिलाएं आगे होती हैं. पुरुषों की होली पार्टी बिना नशे के पूरी नहीं होती जिस की वजह से महिलाएं अपने को इन से दूर रखती हैं. अच्छी बात यह है कि होली की मस्ती वाली पार्टी का आयोजन अब महिलाएं खुद भी करने लगी हैं. इस में होली गेम्स, होली के गीतों पर डांस और होली क्वीन चुनी जाती है. महिलाओं की ऐसी पहल ने अब होली को पेज थ्री पार्टी की शक्ल दे दी है. शहरों में ऐसे आयोजन बड़ी संख्या में होने लगे हैं. समाज का एक बड़ा वर्ग अब भी होली की मस्ती से दूर ही रह रहा है.

धार्मिक कैद से आजाद हो होली

समाजशास्त्री डा. सुप्रिया कहती हैं, ‘‘त्योहारों की धार्मिक पहचान मौजमस्ती की सीमाओं को बांध देती है. आज का समाज बदल रहा है. जरूरत इस बात की है कि त्योहार भी बदलें और उन को मनाने की पुरानी सोच को छोड़ कर नई सोच के हिसाब से त्योहार मनाए जाएं, जिस से हम समाज की धार्मिक दूरियों, कुरीतियों को कम कर सकें. त्योहार का स्वरूप ऐसा बने जिस में हर वर्ग के लोग शामिल हो सकें. अभी त्योहार के करीब आते ही माहौल में खुशी और प्रसन्नता की जगह पर टैंशन सी होने लगती है. धार्मिक टकराव न हो जाए, इस को रोकने के लिए प्रशासन जिस तरह से सचेत होता है उस से त्योहार की मस्ती उतर जाती है. अगर त्योहार को धार्मिक कैद से मुक्ति मिल जाए तो त्योहार को बेहतर ढंग से एंजौय किया जा सकता है.’’

पूरी दुनिया में ऐसे त्योहारों की संख्या बढ़ती जा रही है जो धार्मिक कैद से दूर होते हैं. त्योहार में धर्म की दखलंदाजी से त्योहार की रोचकता सीमित हो जाती है. त्योहार में शामिल होने वाले लोग कुछ भी अलग करने से बचते हैं. उन को लगता है कि धर्म का अनादार न हो जाए कि जिस से वे अनावश्यक रूप से धर्म के कट्टरवाद के निशाने पर आ जाएं. लोगों को धर्म से अधिक डर धर्म के कट्टरवाद से लगता है. इस डर को खत्म करने का एक ही रास्ता है कि त्योहार को धार्मिक कैद से मुक्त किया जाए. त्योहार के धार्मिक कैद से बाहर होने से हर जाति व धर्म के लोग आपस में बिना किसी भेदभाव के मिल सकते हैं.

मस्त अंदाज होली का

होली का अपना अंदाज होता है. ऐसे में होली की ठिठोली के रास्ते रिश्तों में रस घोलने की पहल भी होनी चाहिए. होली की मस्ती का यह दस्तूर है कि कहा जाता है, ‘होली में बाबा देवर लागे.’ रिश्तों का ऐसा मधुर अंदाज किसी और त्योहार में देखने को नहीं मिलता. होली चमकदार रंगों का त्योहार होता है. हंसीखुशी का आलम यह होता है कि लोग चेहरे और कपड़ों पर रंग लगवाने के बाद भी खुशी का अनुभव करते हैं. होली में मस्ती के अंदाज को फिल्मों में ही नहीं, बल्कि फैशन और लोकरंग में भी खूब देखा जा सकता है. साहित्य में होली का अपना विशेष महत्त्व है. होली में व्यंग्यकार की कलम अपनेआप ही हासपरिहास करने लगती है. नेताओं से ले कर समाज के हर वर्ग पर हास्यपरिहास के अंदाज में गंभीर से गंभीर बात कह दी जाती है.

इस का वे बुरा भी नहीं मानते. ऐसी मस्ती होली को दूसरे त्योहार से अलग करती है. होली के इस अंदाज को जिंदा रखने के लिए जरूरी है कि होली में मस्ती को बढ़ावा दिया जाए और धार्मिक सीमाओं को खत्म किया जाए. रिश्तों में मिश्री सी मिठास घोलने के लिए होली से बेहतर कोई दूसरा तरीका हो ही नहीं सकता है. होली की मस्ती के साथ रंगों का ऐसा रेला चले जिस में सभी सराबोर हो जाएं. सालभर के सारे गिलेशिकवे दूर हो जाएं. कुछ नहीं तो पड़ोसी के साथ संबंध सुधारने की शुरुआत ही हो जाए.

Holi 2024: होली से दूरी, यंग जेनरेशन की मजबूरी

होली का दिन आते ही पूरे शहर में होली की मस्ती भरा रंग चढ़ने लगता है लेकिन 14 साल के अरनव को यह त्योहार अच्छा नहीं लगता. जब सारे बच्चे गली में शोर मचाते, रंग डालते, रंगेपुते दिखते तो अरनव अपने खास दोस्तों को भी मुश्किल से पहचान पाता था. वह होली के दिन घर में एक कमरे में खुद को बंद कर लेता  होली की मस्ती में चूर अरनव की बहन भी जब उसे जबरदस्ती रंग लगाती तो उसे बहुत बुरा लगता था. बहन की खुशी के लिए वह अनमने मन से रंग लगवा जरूर लेता पर खुद उसे रंग लगाने की पहल न करता. जब घर और महल्ले में होली का हंगामा कम हो जाता तभी वह घर से बाहर निकलता. कुछ साल पहले तक अरनव जैसे बच्चों की संख्या कम थी. धीरेधीरे इस तरह के बच्चों की संख्या बढ़ रही है और होली के त्योहार से बच्चों का मोहभंग होता जा रहा है. आज बच्चे होली के त्योहार से खुद को दूर रखने की कोशिश करते हैं.

अगर उन्हें घरपरिवार और दोस्तों के दबाव में होली खेलनी भी पड़े तो तमाम तरह की बंदिशें रख कर वे होली खेलते हैं. पहले जैसी मौजमस्ती करती बच्चों की टोली अब होली पर नजर नहीं आती. इस की वजह यही लगती है कि उन में अब उत्साह कम हो गया है.

1. नशे ने खराब की होली की छवि

पहले होली मौजमस्ती का त्योहार माना जाता था लेकिन अब किशोरों का रुझान इस में कम होने लगा है. लखनऊ की राजवी केसरवानी कहती है, ‘‘आज होली खेलने के तरीके और माने दोनों ही बदल गए हैं. सड़क पर नशा कर के होली खेलने वाले होली के त्योहार की छवि को खराब करने के लिए सब से अधिक जिम्मेदार हैं. वे नशे में गाड़ी चला कर दूसरे वाहनों के लिए खतरा पैदा कर देते हैं ऐसे में होली का नाम आते ही नशे में रंग खेलते लोगों की छवि सामने आने लगती है. इसलिए आज किशोरों में होली को ले कर पहले जैसा उत्साह नहीं रह गया है.’’

2. एग्जाम फीवर का डर

होली और किशोरों के बीच ऐग्जाम फीवर बड़ी भूमिका निभाता है. वैसे तो परीक्षा करीबकरीब होली के आसपास ही पड़ती है. लेकिन अगर बोर्ड के ऐग्जाम हों तो विद्यार्थी होली फैस्टिवल के बारे में सोचते ही नहीं हैं क्योंकि उन का सारा फोकस परीक्षाओं पर जो होता है. पहले परीक्षाओं का दबाव मन पर कम होता था जिस से बच्चे होली का खूब आनंद उठाते थे. अब पढ़ाई का बोझ बढ़ने से कक्षा 10 और 12 की परीक्षाएं और भी महत्त्वपूर्ण होने लगी हैं, जिस से परीक्षाओं के समय होली खेल कर बच्चे अपना समय बरबाद नहीं करना चाहते.

होली के समय मौसम में बदलाव हो रहा होता है. ऐसे में मातापिता को यह चिंता रहती है कि बच्चे कहीं बीमार न पड़ जाएं. अत: वे बच्चों को होली के रंग और पानी से दूर रखने की कोशिश करते हैं, जो बच्चों को होली के उत्साह से दूर ले जाता है. डाक्टर गिरीश मक्कड़ कहते हैं, ‘‘बच्चे खेलकूद के पुराने तौरतरीकों से दूर होते जा रहे हैं. होली से दूरी भी इसी बात को स्पष्ट करती है. खेलकूद से दूर रहने वाले बच्चे मौसम के बदलाव का जल्द शिकार हो जाते हैं. इसलिए कुछ जरूरी सावधानियों के साथ होली की मस्ती का आनंद लेना चाहिए.’’ फोटोग्राफी का शौक रखने वाले क्षितिज गुप्ता का कहना है, ‘‘मुझे रंगों का यह त्योहार बेहद पसंद है. स्कूल में बच्चों पर परीक्षा का दबाव होता है. इस के बाद भी वे इस त्योहार को अच्छे से मनाते हैं. यह सही है कि पहले जैसा उत्साह अब देखने को नहीं मिलता.

‘‘अब हम बच्चों पर तमाम तरह के दबाव होते हैं. साथ ही अब पहले वाला माहौल नहीं है कि सड़कों पर होली खेली जाए बल्कि अब तो घर में ही भाईबहनों के साथ होली खेल ली जाती है. अनजान जगह और लोगों के साथ होली खेलने से बचना चाहिए. इस से रंग में भंग डालने वाली घटनाओं को रोका जा सकता है.’’

3. डराता है जोकर जैसा चेहरा

होली रंगों का त्योहार है लेकिन समय के साथसाथ होली खेलने के तौरतरीके बदल रहे हैं. आज होली में लोग ऐसे रंगों का उपयोग करते हैं जो स्किन को खराब कर देते हैं. रंगों में ऐसी चीजों का प्रयोग भी होने लगा है जिन के कारण रंग कई दिनों तक छूटता ही नहीं. औयल पेंट का प्रयोग करने के अलावा लोग पक्के रंगों का प्रयोग अधिक करने लगे हैं. लखनऊ के आदित्य वर्मा कहता है, ‘‘मुझे होली पसंद है पर जब होली खेल रहे बच्चों के जोकर जैसे चेहरे देखता हूं तो मुझे डर लगता है. इस डर से ही मैं घर के बाहर होली खेलने नहीं जाता.’’

उद्धवराज सिंह चौहान को गरमी का मौसम सब से अच्छा लगता है. गरमी की शुरुआत होली से होती है इसलिए इस त्योहार को वह पसंद करता है. उद्धवराज कहता है, ‘‘होली में मुझे पानी से खेलना अच्छा लगता है. इस फैस्टिवल में जो फन और मस्ती होती है वह अन्य किसी त्योहार में नहीं होती. इस त्योहार के पकवानों में गुझिया मुझे बेहद पसंद है. रंग लगाने में जोरजबरदस्ती मुझे अच्छी नहीं लगती. कुछ लोग खराब रंगों का प्रयोग करते हैं, इस कारण इस त्योहार की बुराई की जाती है. रंग खेलने के लिए अच्छे किस्म के रंगों का प्रयोग करना चाहिए.’’

4. ईको फ्रैंडली होली की हो शुरुआत

‘‘होली का त्योहार पानी की बरबादी और पेड़पौधों की कटाई के कारण मुझे पसंद नहीं है. मेरा मानना है कि अब पानी और पेड़ों का जीवन बचाने के लिए ईको फ्रैंडली होली की पहल होनी चाहिए. ‘‘होली को जलाने के लिए प्रतीक के रूप में कम लकड़ी का प्रयोग करना चाहिए और रंग खेलते समय ऐसे रंगों का प्रयोग किया जाना चाहिए जो सूखे हों, जिन को छुड़ाना आसान हो. इस से इस त्योहार में होने वाले पर्यावरण के नुकसान को बचाया जा सकता है,’’ यह कहना है सिम्बायोसिस कालेज के स्टूडेंट रह चुके शुभांकर कुमार का. वह कहता है, ‘‘समय के साथसाथ हर रीतिरिवाज में बदलाव हो रहे हैं तो इस में भी बदलाव होना चाहिए. इस से इस त्योहार को लोकप्रिय बनाने और दूसरे लोगों को इस से जोड़ने में मदद मिलेगी.’’

एलएलबी कर रहे तन्मय को होली का त्योहार पसंद नहीं है. वह कहता है, ‘‘होली पर लोग जिस तरह से पक्के रंगों का प्रयोग करने लगे हैं उस से कपड़े और स्किन दोनों खराब हो जाते हैं. कपड़ों को धोने के लिए मेहनत करनी पड़ती है. कई बार होली खेले कपड़े दोबारा पहनने लायक ही नहीं रहते. ‘‘ऐसे में जरूरी है कि होली खेलने के तौरतरीकों में बदलाव हो. होली पर पर्यावरण बचाने की मुहिम चलनी चाहिए. लोगों को जागरूक कर इन बातों को समझाना पड़ेगा, जिस से इस त्योहार की बुराई को दूर किया जा सके. इस बात की सब से बड़ी जिम्मेदारी किशोर व युवावर्ग पर ही है.

होली बुराइयों को खत्म करने का त्योहार है, ऐसे में इस को खेलने में जो गड़बड़ियां होती हैं उन को दूर करना पड़ेगा. इस त्योहार में नशा कर के रंग खेलने और सड़क पर गाड़ी चलाने पर भी रोक लगनी चाहिए.’’

5. किसी और त्योहार में नहीं होली जैसा फन

होली की मस्ती किशोरों व युवाओं को पसंद भी आती है. एक स्टूडेंट कहती है, ‘‘होली ऐसा त्योहार है जिस का सालभर इंतजार रहता है. रंग और पानी किशोरों को सब से पसंद आने वाली चीजें हैं. इस के अलावा होली में खाने के लिए तरहतरह के पकवान मिलते हैं. ऐसे में होली किशोरों को बेहद पसंद आती है

‘‘परीक्षा और होली का साथ रहता है. इस के बाद भी टाइम निकाल कर होली के रंग में रंग जाने से मन अपने को रोक नहीं पाता. मेरी राय में होली जैसा फन अन्य किसी त्योहार में नहीं होता. कुछ बुराइयां इस त्योहार की मस्ती को खराब कर रही हैं. इन को दूर कर होली का मजा लिया जा सकता है.’’ ऐसी ही एक दूसरी छात्रा कहती हैं, ‘‘होली यदि सुरक्षित तरह से खेली जाए तो इस से अच्छा कोई त्योहार नहीं हो सकता. होली खेलने में दूसरों की भावनाओं पर ध्यान न देने के कारण कई बार लड़ाईझगड़े की नौबत आ जाती है, जिस से यह त्योहार बदनाम होता है. सही तरह से होली के त्योहार का आनंद लिया जाए तो इस से बेहतर कोई दूसरा त्योहार हो ही नहीं सकता.

‘‘दूसरे आज के किशोरों में हर त्योहार को औनलाइन मनाने का रिवाज चल पड़ा है. वे होली पर अपनों को औनलाइन बधाइयां देते हैं. भले ही हमारा लाइफस्टाइल चेंज हुआ हो लेकिन फिर भी हमारा त्योहारों के प्रति उत्साह कम नहीं होना चाहिए.’’

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें