भारत में 10 करोड़ से भी ज्यादा बुजुर्ग हैं और साल 2050 तक इन की तादाद साढ़े 32 करोड़ हो जाने की उम्मीद है जो कुल आजादी का तकरीबन 20 फीसदी है.
मिनिस्ट्री फौर स्टैटिस्टिक्स ऐंड प्रोग्राम इंप्लीमैंटेशन द्वारा साल 2016 में दी गई रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में 10 करोड़, 39 लाख बुजुर्ग हैं जिन की उम्र 60 साल से ऊपर है. ये कुल आबादी का तकरीबन 8.5 फीसदी हैं.
एआईएससीसीओएन के 2015-16 के सर्वे के मुताबिक, अपने परिवार के साथ रह रहे 60 फीसदी बुजुर्गों को गालीगलौज व मारपीट तक सहनी पड़ती है, जबकि 39 फीसदी बुजुर्ग अकेले ही रहना पसंद करते हैं.
हैल्पएज इंडिया द्वारा देश के 19 छोटेबड़े शहरों में 4,500 से ज्यादा बुजुर्गों पर किए एक सर्वे के मुताबिक, 44 फीसदी बुजुर्गों का कहना है कि सार्वजनिक जगहों पर उन के साथ बुरा सुलूक होता है, वहीं 53 फीसदी बुजुर्गों का कहना है कि समाज उन के साथ भेदभाव करता है. ढलती उम्र, धीरेधीरे काम करने और ऊंचा सुनने की वजह से लोग उन से रूखा बरताव करते हैं.
सेवा करें मेवा मिलेगा
आमतौर पर इस मतलबी दुनिया में बुजुर्गों के पास अपनों का ही साथ नहीं होता, पर रुपएपैसों के मामले में उन का दबदबा रहता है. ज्यादा कुछ नहीं तो भी अपना मकान तो होता ही है.
ऐजवैल फाउंडेशन द्वारा की गई एक स्टडी के मुताबिक, 65 फीसदी बुजुर्गों के पास कोई आमदनी का जरीया नहीं होता, पर 35 फीसदी बुजुर्गों के पास प्रोपर्टी, पैसा, बचत, इन्वैस्टमैंट्स और पुश्तैनी जायदाद होती है.
कभी अच्छी नौकरी में रहे या अच्छा कारोबार करने वाले ज्यादातर बुजुर्ग अब बड़े घरों में अकेले ही जी रहे हैं. कुछ बुजुर्गों के बच्चे विदेश जा कर बस चुके हैं तो कुछ दूसरे शहरों में पढ़ाई या नौकरी के सिलसिले में रह रहे हैं.
इन बुजुर्गों की जिंदगी अपनों की कमी की खलिश में तप रही होती है. तनहा जिंदगी गुजारे नहीं गुजरती.
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इन बुजुर्गों में से कुछ अपने दूर के रिश्तेदारों को साथ रहने के लिए अपने घर बुला लेते हैं तो कुछ नौकरों के भरोसे ही अपनी बचीखुची जिंदगी गुजारने की कोशिश करते हैं.
यही नहीं, इस बुढ़ापे की उम्र में उन्हें कोई न कोई बीमारी भी जकड़े रहती है, सुनाई कम देने लगता है, नजरें धुंधली हो चुकी होती हैं वगैरह.
ऐसे में कोई शख्स बुढ़ापे की लाठी बन कर अगर इन की जिंदगी में शामिल हो जाता है, इन की खुशियों और गमों को बांटने की कोशिश करता है तो इन बुजुर्गों की बोझिल बूढ़ी आंखों में उस के लिए प्यार उमड़ पड़ता है. धीरेधीरे वह शख्स ऐसे बुजुर्गों के लिए अपनों से बढ़ कर बन जाता है. समय के साथ मुमकिन है कि बुजुर्ग अपना सबकुछ उस बेगाने के नाम लिख कर दुनिया से विदा हो जाएं और वह शख्स थोड़े समय में ही हजारपति से करोड़पति का सफर तय कर ले.
कोई चाहे मैनेजर हो, ड्राइवर हो या घरेलू नौकरानी, यह मुमकिन है कि अगर दिल लगा कर बुजुर्गों की सेवा की जाए तो मेवा खाने को जरूर मिलेगा. बस, सब्र रखना होगा.
यकीन रखिए, यह उस बेगाने के लिए फायदे का सौदा साबित होगा. ज्यादातर मामलों में बुजुर्ग अंतिम समय में काम आने वाले को बहुतकुछ दे देते हैं. उन से दूर रह रहे बच्चे भी काफी उदार हो जाते हैं और पिता या मां का अंतिम दिनों में खयाल रखने वालों का जम कर ध्यान रखते हैं.
इस सिलसिले में एक उदाहरण रांची से सटे एक गांव में रहने वाले रामलाल का लिया जा सकता है.
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रामलाल ने शुरू से ही अपनी जिंदगी में गरीबी देखी थी. वह रतनलाल के यहां माली का काम किया करता था. रतनलाल तीजत्योहार पर उस के बीवीबच्चों को पुराने कपड़े, मिठाइयां वगैरह दे देते थे. रामलाल भी रतनलाल के साथ खुद को जुड़ा हुआ महसूस करने लगा था.
समय के साथ रतनलाल बूढ़े हो चले. उन के दोनों बेटे शहर जा कर बस गए. घर में पतिपत्नी ही रह गए. पत्नी की तबीयत भी खराब रहने लगी थी. नौकर तो कई थे, पर धीरेधीरे जब उम्र के साथ रतनलाल कमजोर होने लगे और कमाई भी घटती चली गई तो नौकरों ने भी साथ छोड़ दिया.
ऐसे समय में एक रामलाल ही था जिस ने रतनलाल का साथ नहीं छोड़ा. रामलाल की बीवी भी रतनलाल के घर साफसफाई का काम करने लगी. कुछ समय बाद रतनलाल की पत्नी चल बसीं. अब बस रामलाल व उस की बीवी ही बुजुर्ग रतनलाल की देखभाल करते रहे.
एक दिन रतनलाल को भी लकवा मार गया. बेटे ने 2 दिन के लिए आ कर अपनी हाजिरी दी और रामलाल पर सब सौंप कर वह शहर चला गया.
रतनलाल पैसों के हिसाबकिताब से ले कर घर चलाने के सभी कामों के लिए रामलाल पर निर्भर थे. रामलाल के सामने हजारों रुपए यों ही पड़े रहते, पर उस ने कभी एक पैसा इधरउधर नहीं किया.
इधर रामलाल का बेटा शहर जा कर पढ़ना चाहता था. रामलाल ने यह बात रतनलाल को बताई थी, पर कभी पैसे मांगे नहीं. समय यों ही बीतता रहा.
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एक दिन रतनलाल ने एक वकील बुलाया और अपना बंगला रामलाल के नाम कर दिया. यह देख रामलाल हैरान रह गया.
रतनलाल ने उसे गले लगाते हुए कहा कि यह उस की मेहनत और ईमानदारी का बदला है. अपने बेटे ने जो नहीं किया, वह एक गैर ने किया. तो फिर बेटे का क्या हक? हक तो उस गैर का ही होगा न. रामलाल की आंखों से खुशी के आंसू बहने लगे.
यह महज कहानी नहीं, बल्कि एक सचाई है.
कोई शौर्टकट नहीं
सेवा करें पर शौर्टकट में नहीं, बल्कि दिल से, ईमानदारी से करें. खाना बनाना हो, देखभाल करनी हो या बाहर के काम हों, सबकुछ अपना बन कर करें. आप अपने घर वालों के लिए जैसे जीजान लगा देते हैं, एक बार इन अकेले बुजुर्गों के लिए भी वैसा कर के देखें. वे आप की झोली खुशियों से भर देंगे.