Raksha Bandhan : बड़ा भाई- दो भाइयों की तनातनी

अमित ने बस्ता एक ओर फेंका और सुबकता हुआ बिस्तर पर औंधेमुंह लेट गया. मां ने देखा तो हैरानी से पूछा, ‘‘क्या हुआ अमित?’’

‘‘बड़ा आया अपने को बड़ा भाई समझने वाला, बड़ा है तो क्या हर समय मुझे डांटेगा,’’ सुबकते हुए अमित ने अपने बड़े भाई रवि की शिकायत की.

तभी रवि घर में घुसता हुआ बोला, ‘‘मां, आज फिर अमित आवारा लड़कों के साथ घूम रहा था. मैं ने इसे उन के साथ जाने से मना किया तो यह नाराज हो गया. मैं ने इसे कईर् बार कहा है कि वे अच्छे लड़के नहीं हैं, जैसी संगत होगी वैसी रंगत आएगी. संभल जाओ, इस बार तुम्हारे 10वीं के पेपर हैं, 2 महीने बचे हैं. अब भी साल भर की तरह मटरगश्ती में रहोगे तो अच्छे अंक कैसे आएंगे?’’

‘‘हां, तू तो जैसे बड़े अच्छे अंक लाया था न 10वीं में. मनचाहा सब्जैक्ट भी नहीं ले सका. तुझ से तो अच्छे ही अंक लाता हूं कम पढ़ने पर भी. बड़ा बनता है, बड़ा भाई,’’ अमित ने नाराजगी जताई.

‘‘मैं मनचाहा सब्जैक्ट नहीं ले पाया इसीलिए तो तुझे समझता हूं मेहनत कर. छोड़ ऐसे आवारा लड़कों की दोस्ती. मनचाहा सब्जैक्ट नहीं मिलेगा तो कैसे करेगा इंजीनियरिंग,’’ रवि ने समझाया.

‘‘हांहां, कर लूंगा, तू अपने काम से काम रख,’’ अमित ने झल्ला कर कहा.

‘‘नहीं बेटा, ऐसा नहीं कहते,’’ मां ने समझाया, ‘‘अगर वे गलत लड़के हैं तो उन का साथ ठीक नहीं, कल को किसी लफड़े में फंसे तो साथ रहने वाले का नाम भी खराब होता है  भले ही उस ने कुछ न किया हो.’’

‘‘औैर मां, वे लड़के तो क्लास से बंक मार कर कई बार सिनेमा देखने जाते हैं, कभी आवारा लड़कों की तरह आसपास अमरूद तोडेंगे. पता है पिछले महीने इस का दोस्त राजू बाहर घूमता लड़कियां छेड़ता पकड़ा गया था. कालोनी वाले उसे पकड़ कर लाए थे प्रिंसिपल के सामने और दूसरा, क्या नाम है उस का, मुन्ना, वह तो बातबात पर हाथापाई करने में गर्व समझता है. वह स्कूल बुलिंग में अव्वल है,’’ रवि ने स्पष्ट किया.

‘‘हां हैं, तो? हैं तो मेरे दोस्त ही न. तू घबरा मत. मैं इन के साथ रह कर भी गलत नहीं करूंगा, तू अपने काम से काम रख,’’ अमित बोला.

अमित और रवि दोनों भाई शहर के नामी स्कूल में पढ़ते थे. अमित 10वीं में था और उस का बड़ा भाई रवि 12वीं में. अमित बिगड़ैल दोस्तों की संगत में पड़ कर बिगड़ता जा रहा था. रवि बड़ा भाई होने के नाते उसे बारबार समझाता, लेकिन अमित के कान पर जूं न रेंगती. अभी परसों की तो बात थी. क्लास बंक कर अमित मुन्ना के साथ बाहर जाना चाहता था. स्कूल के गेट पर ड्यूटी देते 11वीं के छात्र से मुन्ना और अमित भिड़ गए. फिर गेट कूद कर दोनों बाहर भाग गए. एकाध घंटा मटरगश्ती करने के बाद वापस आए. तब तक प्रिंसिपल तक उन की शिकायत पहुंच चुकी थी. प्रिंसिपल ने मुन्ना के पिता को बुलाया था जबकि अमित के बड़े भाई रवि को उसी समय बुला कर हिदायत दी थी, ‘‘देखो, अमित आवारागर्दी, बुलिंग में आगे बढ़ता जा रहा है. इस का अंजाम आगे चल कर अच्छा नहीं होगा. इसे जिम्मेदार बनाओ, कुछ समझाओ. इस बार सिर्फ समझा रहा हूं. अगली बार पापा को बुलाऊंगा और स्कूल से निकाल दूंगा.’’

‘‘जी सर, मैं इसे समझा दूंगा. मैं इस की जिम्मेदारी लेता हूं. आइंदा यह ऐसा नहीं करेगा,’’ कह कर रवि ने अमित की जिम्मेदारी ली थी औैर किसी अन्य सजा से अमित को बचाया था.

इस के बाद भी जब घर आते समय अमित को समझाया तो ‘हूं’ कह कर अमित ने पल्ला झाड़ लिया. अमित ने मां को इस वाकेए से अवगत करवाया तो मां ने भी अमित को समझाया, लेकिन अमित उलटा बरस पड़ा, ‘‘वे मेरे दोस्त हैं. पता है वे दिलेर हैं इसलिए सब उन से डरते हैं. आज अगर 4 लड़के मुझे पीटने आ जाएं तो वही आगे दिखेंगे बचाने में, यह बड़ा भाई नहीं. खुद तो डरपोक है ही, औरों को भी डरपोक बनने की नसीहत देता है.’’ अमित की आवारगी बढ़ती ही जा रही थी. इधर पेपर नजदीक आ रहे थे. अमित पढ़ाई में भी पिछड़ रहा था, लेकिन वह किसी की मानने को तैयार न था. स्कूल में एक से पंगा हो जाए तो सभी गुंडागर्दी करने लगते, हौकीडंडे ले कर चल देते उन्हें पीटने, जिस कारण आसपास के स्कूलों के लड़कों से भी उन की दुश्मनी हो गई थी. अब तो अमित वैन में वापस घर भी न आता. रवि से कह देता, ‘मुझे तैयारी करने दोस्त के घर जाना है और थोड़ी देर बाद आऊंगा.’ फिर आवारगर्दी करते हुए 2-3 घंटे बाद वह घर आता.

स्कूल में फेयरवैल पार्टी थी. 10वीं वालों को 9वीं के बच्चे विदाई पार्टी दे रहे थे. 11वीं के बच्चों द्वारा 12वीं वालों को फेयरवैल पार्टी दी जानी थी, जो अगले हफ्ते थी. इस के बाद ऐग्जाम्स की तैयारी के लिए छुट्टियां हो जानी थीं.अमित घर से बड़ा हीरो बन कर निकला था. आज कुछ भी पहन कर आने की छूट थी. सो, अमित ने लैदर की जैकेट और जींस की पैंट पहनी औैर सुबह जल्दी यह कह कर निकला कि दोस्तों के साथ स्कूल जाऊंगा.  रवि के स्कूल पहुंचने के बाद भी वह स्कूल नहीं पहुंचा. काफी देर देखने के बाद रवि ने अमित के क्लासमेट रोहन से अमित के बारे में पूछा तो पता चला कि वह मुन्ना, राजू औैर अन्य दोस्तों के साथ गया है. वे किसी लड़की को छेड़ने के कारण झगड़ा कर बैठे हैं और हौकीडंडे आदि ले कर गए हैं उन्हें सबक सिखाने. रवि की तो ऊपर की सांस ऊपर और नीचे की नीचे अटक गई. कहां सभी बच्चे पार्टी का लुत्फ उठा रहे हैं औैर उस का भाई अमित गुंडागर्दी में फंसा है. वह क्या करे समझ नहीं पा रहा था. तभी सामने से अमित अपने उन्हीं दोस्तों के साथ आता दिखा औैर आते ही वे सब ऐसा जताने लगे जैसे कोई किला फतेह कर आए हों, ‘‘आए बड़े मेरे दोस्त की गर्लफै्रंड को छेड़ने वाले,’’ अमित गर्व से कह रहा था.

अमित को देख रवि की जान में जान आई. वह अमित को ठीकठाक देख खुश था, लेकिन डांटने के लहजे में बोला, ‘‘प्रिंसिपल की डांट भूल गए लगता है. उस दिन वारनिंग भी मिली थी तुम्हें, मम्मीपापा भी अकसर समझाते हैं, मैं भी कई बार कह चुका हूं. तुम समझते क्यों नहीं? जरा सी ऊंचनीच हो गई तो सारा कैरियर चौपट हो जाएगा…’’ ‘‘अमित अपने भाई को समझा, हमें डराने की जरूरत नहीं. हम सब समझते हैं,’’ मुन्ना बीच में ही रवि की बात काटता हुआ बोला.

‘‘मुन्ना, तुम चुप रहो. मैं अपने भाई से बात कर रहा हूं. मैं इस का बड़ा भाई हूं, इस का भलाबुरा समझता हूं और मेरी जिम्मेदारी है कि मैं इसे गलत रास्ते पर जाने से रोकूं.’’

‘‘रवि,’’ अमित चिल्लाया. उसे यह बात सब दोस्तों के सामने इंसल्ट लगी, ‘‘ये मेरे दोस्त हैं, इन्हें कुछ कहने की जरूरत नहीं. घर चल कर कह लेना जो कहना है. अब जाओ अपनी क्लास में हमारी भी पार्टी शुरू होने वाली है, आया बड़ा भाई बन कर. हर बात में टांग अड़ाता रहता है.’’

रवि अपने पर खीजता हुआ वापस अपनी क्लास में चला गया. पार्टी शुरू हो गई. रवि की क्लास के एक लड़के राजन ने बताया कि आज उस के छोटे भाई अमित की क्लासमेट, जो उस के दोस्त राजू की गर्लफै्रंड भी है, को पास के स्कूल के एक लड़के ने छेड़ दिया था. वह पार्टी के लिए सजधज कर आ रही थी. वे सभी उन्हें सबक सिखाने गए थे. अमित और उस के साथी पार्टी में मशगूल थे, उधर वे उस स्कूल के जिस लड़के की पिटाई कर आए थे, उस ने बदला लेने की नीयत से कई लड़के इकट्ठे कर लिए थे और स्कूल से कुछ दूर एकत्र हो कर अमित और उस के साथियों के निकलने का इंतजार कर रहे थे. फेयरवैल पार्टी खत्म हुई तो सभी जाने को हुए. तभी किसी ने आ कर खबर दी कि स्कूल के बाहर पास वाले स्कूल के बहुत से लड़के लाठियां और हौकियां लिए अमित, मुन्ना व राजू का इंतजार कर रहे हैं. पिछले गेट से चले जाएं वरना खैर नहीं. उन में से एकदो के पास तो चाकू भी हैं.

खबर आग की तरह फैली औैर रवि के पास भी पहुंची. छुट्टी होते ही रवि अमित के पास जाने को हुआ. वह उसे साथ घर ले जाना चाहता था. किसी अनहोनी से आशंकित रवि अमित को ढूंढ़ रहा था, लेकिन अमित अपने दोस्तों के साथ उसी समय निकला था. सामने के स्कूल से कई लड़के हौकियां व डंडे लिए आते दिखे तो अमित के दोस्तों की सिट्टीपिट्टी गुम हो गई, वे पीछे से कब भाग लिए अमित को पता ही न चला. तभी सामने से आते लड़कों में से एक ने चाकू निकाला और अमित के पेट में घोंपने को हुआ कि तभी रवि वहां भागता हुआ पहुंच गया. उस ने यह सब देख लिया था.     स्थिति भांपते हुए रवि ने अमित को एक ओर धक्का दे दिया, जिस से चाकू अमित के बजाय रवि के पेट में जा घुसा.

रवि के खून बहने लगा. यह देख सभी लड़के नौ दो ग्यारह हो गए, अमित बड़े भाई को इस हाल में देख परेशान हो उठा. तभी वहां कुछ स्कूल के लड़के व स्थानीय निवासी एकत्र हो गए, जिन के सहयोग से रवि को पास के नर्सिंगहोम पहुंचा दिया गया. डाक्टर ने बताया कि रवि का काफी खून बह गया है और वह बेहोश है. खबर मिलते ही प्रिंसिपल व अन्य छात्र भी नर्सिंगहोम पहुंच गए. कुछ छात्र आपस में फुसफुसा रहे थे, ‘‘देखा, बड़ा भाई, बड़ा ही होता है, जिन दोस्तों पर अमित को गुमान था सब भाग गए. मुसीबत में बड़े भाई ने ही अमित की जान बचाई.’’ अमित भी खुद पर खिन्न था. काश, उस ने बड़े भाई की बात मान ली होती. अब तो सब फंसेंगे. उधर चाकू मारने वाले लड़के को भी पुलिस पकड़ लाई थी, उस के कैरियर पर बात आ गई थी. पुलिस को रवि के होश में आने का इंतजार था ताकि उस का बयान ले सके और मामले में अभियुक्त को पकड़ सके.

उसी समय अमित के मम्मीपापा भी आ गए. सभी परेशान थे. अमित मां के गले लग उन के आंचल में अपना मुंह छिपाता दिख रहा था. पश्चात्ताप के आंसू रुक नहीं रहे थे. तभी डाक्टर ने आ कर बताया, ‘‘इंस्पैक्टर साहब, रवि को होश आ गया है. आप बयान ले सकते हैं.’’ इंस्पैक्टर अंदर गए औैर थोड़ी देर बाद बाहर आ गए. आते ही उन्होंने अपने सिपाही को चाकू मारने वाले लड़के को छोड़ने का आदेश दिया और बताया, ‘‘रवि के अनुसार भागते समय गिर जाने से सड़क पर पड़ी कोई लोहे की पत्ती उसे लग गई थी. इस में किसी का कोई कुसूर नहीं, सो किसी पर कोई केस नहीं बनता.’’

रवि के बयान पर सब हैरान थे. वह चाहता तो अपने भाई पर हमला करने वाले को पकड़वा सकता था, लेकिन उस के इस बयान ने सब को बचा लिया था. अमित के आंसू बह निकले, वाकई रवि बड़ा भाई है, उस ने बड़ा भाई होने की जिम्मेदारी बखूबी निभाई है. तभी डाक्टर ने बताया, ‘‘आप रवि से मिल सकते हैं, लेकिन रवि का काफी खून बह गया है, उसे खून चढ़ाना पड़ेगा. डोनर की व्यवस्था करें.’’

‘‘मैं दूंगा अपने बड़े भाई को खून…’’ पीछे से आवाज आई. अमित ने देखा यह वही लड़का था जिस ने चाकू से अमित पर वार किया था, लेकिन रवि को लग गया था.

‘‘हां अमित, अगर तुम्हारा बड़ा भाई चाहता तो हम सब को फंसा सकता था. इस से हम पर केस चलता, हम 10वीं के पेपर भी नहीं दे पाते, सजा भी भुगतनी पड़ती. बुलिंग करते समय इस के अंजाम के बारे में हम ने नहीं सोचा था. रवि ने हमें न केवल सीख दी है बल्कि बड़ा भाई होने की जिम्मेदारी भी निभाई है. मैं संकल्प लेता हूं आज से बुलिंग बंद,’’ वह बोला. तभी मुन्ना और राजू आगे आए औैर बोले, ‘‘तुम ठीक कहते हो दोस्त. रवि ने जान पर खेल कर हमें यह सबक सिखाया है कि हम गलत राह पर चल रहे हैं और अपने ऐसे बयान से सब को बचा कर बता दिया है कि वह अमित का ही नहीं, हम सब का बड़ा भाई है. हम सब उसे खून देंगे और जल्द ठीक कर लेंगे, अब जिम्मेदारी निभाने की बारी हमारी हैं,’’ कहते हुए मुन्ना की भी आंखे भर आईं.

अमित अपने मम्मीपापा के साथ अंदर गया और रवि से लिपट कर रो पड़ा, ‘‘मुझे माफ कर दो भैया. मैं अच्छा बन कर दिखाऊंगा,’’ साथ ही उस ने बड़े भाई के पांव छू कर संकल्प लिया कि मम्मीपापा का सपना पूरा करेगा और अच्छी पढ़ाई कर के इंजीनियर बन कर दिखाएगा.

रक्षाबंधन : हावी हुआ जाति का जहर

‘‘मेरे सामने तो तुम उसे राधा बहन मत बोलो. मुझे तो यह गाली की तरह लगता है,’’ मालती भड़क उठी.

‘‘अगर उस ने बिना कुछ पूछे अचानक आ कर मुझे राखी बांध दी, तो इस में मेरा क्या कुसूर? मैं ने तो उसे ऐसा करने के लिए नहीं कहा था,’’ मोहन बाबू तकरीबन गिड़गिड़ाते हुए बोले.

‘‘हांहां, इस में तुम्हारा क्या कुसूर? उस नीच जाति की राधा से तुम ने नहीं, तो क्या मैं ने ‘राधा बहन, राधा बहन’ कह कर नाता जोड़ा था. रिश्ता जोड़ा है, तो राखी तो वह बांधेगी ही.’’

‘‘उस का मन रखने के लिए मैं ने उस से राखी बंधवा भी ली, तो ऐसा कौन सा भूचाल आ गया, जो तुम इतना बिगड़ रही हो?’’

‘‘उंगली पकड़तेपकड़ते ही हाथ पकड़ते हैं ये लोग. आज राखी बांधी है, तो कल को भाईदूज पर खाना खाने भी बुलाएगी. तुम को तो जाना भी पड़ेगा. आखिर रिश्ता जो जोड़ा है. मगर, मैं तो ऐसे रिश्तों को निभा नहीं पाऊंगी,’’ मालती ने अपने मन का सारा जहर उगल दिया.

राधा अभी राखी बांध कर गई ही थी कि उसे याद आया कि वह मोहन बाबू को मिठाई खिलाना भूल गई थी.

अपने घर से मिठाई ला कर वे खुशीखुशी मोहन बाबू के घर आ रही थी, मगर मोहन बाबू और उन की बीवी मालती की आपस में हो रही बहस सुन कर उस के पैर ठिठक कर आंगन में ही रुक गए.

जब राधा ने उन की पूरी बात सुनी, तो उस के पैरों तले जमीन खिसक गई. उसे लगा जैसे उस ने कोई बहुत बड़ा अपराध कर दिया हो. वह चुपचाप उलटे पैर लौट गई. उस की आंखों में आंसू छलक आए थे.

मोहन बाबू सरकारी स्कूल में टीचर थे. तकरीबन 6 महीने पहले ही वे इस गांव में तबादला हो कर आए थे. यह गांव शहर से काफी दूर था, इसलिए मजबूरन उन्होंने यहीं पर मकान किराए पर ले लिया.

मोहन बाबू बहुत ही मिलनसार और अच्छे इनसान थे. वे बहुत जल्द ही गांव वालों से घुलमिल गए. गांव का हर आदमी उन की इज्जत करता था, क्योंकि वे छुआछूत, जातपांत वगैरह दकियानूसी बातों को नहीं मानते थे.

राधा थी तो विधवा मगर मजदूरी कर के वह अपने बेटे को पढ़ाना चाहती थी

मोहन बाबू के मकान से कुछ ही दूरी पर राधा एक झोंपड़ीनुमा मकान में रहती थी. उस का लड़का मोहन बाबू के स्कूल में पढ़ता था.

राधा थी तो विधवा, मगर मजदूरी कर के वह अपने बेटे को पढ़ाना चाहती थी. उसी पर उस की जिंदगी की सारी उम्मीदें टिकी हुई थीं, इसलिए वह समयसमय पर स्कूल आ कर उस की पढ़ाईलिखाई के बारे में पूछती रहती. उस के बेटे के चलते ही मोहन बाबू की उस से जानपहचान थी.

मोहन बाबू भी राधा के बेटे को चाहते थे, क्योंकि वह पढ़नेलिखने में तेज था, इसलिए वे खुद उस के बेटे पर ज्यादा ध्यान देते थे.

राधा जब भी स्कूल आती, उन से ही मिलती और अपने बेटे के बारे में ढेर बातें करती.

मोहन बाबू राधा को राधा बहन कह कर ही बात करते थे. उन के लिए तो यह केवल संबोधन ही था, मगर राधा तो सचमुच ही उन्हें अपना भाई समझने लगी थी. तभी तो रक्षाबंधन के दिन बिना कुछ सोचेसमझे उस ने उन्हें राखी बांध दी थी.

राधा को अपनी गलती का एहसास तब हुआ, जब उस ने उन की और मालती की आपस में हो रही बातें सुनीं. उस के बाद उस ने मोहन बाबू के घर जाना ही बंद कर दिया.

एक बार 2-3 दिन तक मोहन बाबू स्कूल नहीं आए, तो राधा को चिंता होने लगी. मोहन बाबू ने चाहे उसे ऊपरी तौर पर बहन माना था, मगर उस के लिए तो वह रिश्ता दिल की गहराइयों तक पैठ बना चुका था. लगातार 2-3 दिनों तक उन का स्कूल न आना राधा के लिए चिंता की बात बन गया.

दिल के आगे मजबूर हो कर राधा मोहन बाबू के घर जा पहुंची!

आखिरकार दिल के आगे मजबूर हो कर राधा मोहन बाबू के घर जा पहुंची. घर का दरवाजा खुला हुआ था. उस ने बाहर से ही दोचार बार आवाज लगाई, मगर जब काफी देर तक अंदर से कोई जवाब न आया, तो वह किसी डर से सिहर उठी.

मोहन बाबू पलंग पर चुपचाप लेटे थे. राधा ने पलंग के पास जा कर आवाज लगाई, ‘‘भैया… भैया…’’ मगर उन्होंने कोई जवाब न दिया. वह घबरा गई और उस ने उन्हें झकझोर दिया. मगर उन्होंने तब भी कोई जवाब नहीं दिया.

उस ने मालती को ढूंढ़ा, मगर वह वहां नहीं थी. अस्पताल वहां से तकरीबन 15 किलोमीटर दूर शहर में था, इसलिए आननफानन उस ने किसी तरह एक ट्रैक्टर वाले को और कुछ गांव वालों को तैयार किया, फिर वह उन्हें अस्पताल ले गई.

डाक्टर ने मोहन बाबू को चैक कर तुरंत भरती करते हुए कहा, ‘‘अच्छा हुआ, आप लोग इन्हें समय पर ले आए, वरना हम कुछ नहीं कर पाते. यह बुखार बहुत जल्दी कंट्रोल से बाहर हो जाता है.’’

‘‘अब तो मोहन भैया ठीक हो जाएंगे न?’’ राधा ने आंखों में आंसू लाते हुए डाक्टर से पूछा.

‘‘जब तक इन्हें होश नहीं आ जाता, हम कुछ नहीं कह सकते. मगर मेरा मन इतना जरूर कहता है कि आप जैसी बहन के होते हुए इन्हें कुछ नहीं हो सकता,’’ डाक्टर ने मुसकराते हुए कहा.

मोहन बाबू पलंग पर चुपचाप लेटे थे. उन की दवादारू लगातार चल रही थी, मगर अभी तक उन्हें होश नहीं आया था. राधा उन के पलंग के पास चुपचाप बैठी थी. रहरह कर न जाने क्यों उस की आंखों से आंसू छलक जाते थे.

तकरीबन 12 घंटे बाद मोहन बाबू को होश आया और उन्होंने आंखें खोलीं.

मोहन बाबू को होश में आया देख राधा की आंखें खुशी से चमक उठीं. बाकी सभी गांव वाले तो उन्हें भरती करवा कर चले गए थे. बस, राधा ही अकेली उन के पास देखरेख के लिए थी. हां, कुछ लोग उन का हालचाल पूछने के लिए जरूर आतेजाते थे, मगर काफी कम, क्योंकि लोगों को राधा का वहां होना खलता था.

दवाएं देने व मोहन बाबू की देखरेख की जिम्मेदारी राधा बखूबी निभा रही थी. समय पर दवाएं देना वह कभी नहीं चूकती थी.

मोहन बाबू के मैले पसीने से सने कपड़े धोने में राधा को जरा भी संकोच न होता. उसे खुद के भोजन का तो ध्यान न रहता, मगर उन्हें डाक्टर की सलाह के मुताबिक भोजन ला कर जरूर खिलाती.

मालती मायके गई हुई थी. उसे टैलीग्राम तो कर दिया था, लेकिन उसे आने में 3 दिन लग गए. तीसरे दिन वह घर आ पहुंची.

जब मालती अस्पताल आई, तो राधा मोहन बाबू के पलंग के पास बैठी थी. मोहन बाबू खाना खा रहे थे. उसे देखते ही उन के हाथ मानो थम से गए.

मालती को देखते ही राधा उठ खड़ी हुई और उस के पास आ कर बोली, ‘‘भाभी, अब आप अपनी जिम्मेदारी निभाइए.’’

राधा जाने के लिए पलटी, मगर फिर वह एक पल के लिए रुक कर बोली, ‘‘और हां, मैं ने इन्हें अपने घर का खाना नहीं खिलाया है. होटल से ला कर खिलाना तो मेरी मजबूरी थी. हो सके, तो इस के लिए मुझे माफ कर देना.’’

मालती बस हैरान सी खड़ी हो कर उसे जाते हुए देखती रह गई, मगर कुछ बोल नहीं पाई.

राधा के इन शब्दों को सुन कर मालती क्या समझ चुकी थी

राधा के इन शब्दों को सुन कर मालती समझ चुकी थी कि शायद राधा रक्षाबंधन पर उस के और मोहन बाबू के बीच हुए झगड़े को सुन चुकी है.

कुछ ही दिनों में मोहन बाबू ठीक हो गए और उन्हें अस्पताल से छुट्टी मिल गई. मगर राधा उन के घर नहीं आई. बस, वह लोगों से ही उन का हालचाल मालूम कर लिया करती थी.

एक दिन अचानक मालती राधा के घर जा पहुंची. राधा कुछ चौंक सी गई.

‘‘बैठने के लिए नहीं कहोगी राधा बहन?’’ मालती ने ही चुप्पी तोड़ी.

‘‘हांहां, बैठो भाभी,’’ राधा ने हिचकिचाते हुए कहा और चारपाई बिछा दी.

‘‘कल भाईदूज है. हमारे यहां तो बहनें इस दिन अपने घर भैयाभाभी को भोजन के लिए बुलाती हैं, क्या तुम्हारे यहां ऐसा रिवाज नहीं है?’’

‘‘है तो, मगर…?’’

‘‘अगरमगर कुछ नहीं. हमें और शर्मिंदा मत करो. हम दोनों कल तुम्हारे यहां खाना खाने आएंगे,’’ मालती ने कुछ शर्मिंदा हो कर कहा.

राधा की आंखें खुशी से नम हो गईं. उसे आज लग रहा था कि मोहन बाबू को भाई बना कर उस ने कोई गलती नहीं की.

दागी कंगन : कालगर्ल मुन्नी की दास्तान

‘‘मुन्नी, तुम यहां पर कैसे?’’ ये शब्द कान में पड़ते ही मुन्नी ने अपनी गहरी काजल भरी निगाहों से उस शख्स को गौर से देखा और अचानक ही उस के मुंह से निकल पड़ा, ‘‘निहाल भैया…’’

वह शख्स हामी भरते हुए बोला, ‘‘हां, मैं निहाल.’’

‘‘लेकिन भैया, आप यहां कैसे?’’

‘‘यही सवाल तो मैं तुम से पूछ रहा हूं कि मुन्नी तुम यहां कैसे?’’

अपनी आंखों में आए आंसुओं के सैलाब को रोकते हुए मुन्नी, जिस का असली नाम मेनका था, बोली, ‘‘जाने दीजिए भैया, क्या करेंगे आप जान कर. चलिए, मैं आप को किसी और लड़की से मिलवा देती हूं. मुझ से तो आप के लिए यह काम नहीं होगा.’’

‘‘नहीं मुन्नी, मैं हकीकत जाने बगैर यहां से नहीं जाऊंगा. आखिर तुम यहां आई कैसे? तुम्हें मालूम है कि तुम्हारा भाई राकेश और तुम्हारे मम्मीपापा कितने दुखी हैं?

‘‘वे सब तुम्हें ढूंढ़ढूंढ़ कर हार गए हैं. पुलिस में रिपोर्ट की, जगहजगह के अखबारों में तुम्हारी गुमशुदगी के बारे में खबर दी, लेकिन तुम्हारा कुछ पता ही नहीं चला.

‘‘और आज… जब इतने बरसों बाद तुम मिली, तो इन हालात में… एक कालगर्ल के रूप में.

‘‘मुन्नी, सचसच बताओ, तुम यहां कैसे पहुंची. हमें तो लगा कि तुम प्रकाश, वह तुम्हारा प्रेमी, के साथ भाग गई?थी.

‘‘कितनी पूछताछ की राकेश ने उस से तुम्हारे लिए, लेकिन वह तो कुछ दिनों के लिए खुद ही नदारद था.’’

‘‘आप ठीक कहते हैं निहाल भैया, लेकिन अब सच जान कर भी क्या फायदा सब मेरी ही तो गलती है, सो सजा भुगत रही हूं.’’

‘‘नहीं मुन्नी, ऐसा मत कहो. तुम मुझे सच बताओ.’’

मुन्नी कहने लगी, ‘‘भैया, आप ने जो सुना था, सच ही था. मैं और प्रकाश एकदूसरे को प्यार करते थे. वह मेरे कालेज का दोस्त था. आप को याद होगा कि हम दोनों कालेज से एक फील्ड ट्रिप के लिए शहर से बाहर गए थे. वहीं पर हमारे मन में प्यार के अंकुर फूटे और धीरेधीरे हमारा प्यार परवान चढ़ गया था.

‘‘कालेज की पढ़ाई पूरी होतेहोते हमा घर में मेरी सगाई की बातें चलने लगी थीं. मैं ने पापामम्मी को जैसे ही प्रकाश के बारे में बताया, वे आगबबूला हो उठे. मुझे लगा कि कहीं वे लोग मेरी शादी जबरदस्ती किसी और से न करा दें. सो, मैं ने सारी बात प्रकाश को बताई.

‘‘प्रकाश ने मुझे भरोसा दिलाया और कहा, ‘मेनका, ऐसा कुछ नहीं होगा. मैं किसी भी कीमत पर तुम्हें अपने से अलग नहीं होने दूंगा. बस, तुम मुझ पर?भरोसा रखो.’

‘‘मुझे उस पर पूरा भरोसा था. अब मैं घर में होने वाली हर बात उसे बताने लगी थी. और जैसे ही मुझे लगा कि पापामम्मी मेरी मरजी के खिलाफ शादी तय करने जा रहे हैं, मैं ने प्रकाश को सब बता दिया.

‘‘उसी शाम वह मुझ से मिला. मैं खूब रोई और बोली, ‘मुझे कहीं भगाकर ले चलो प्रकाश, वरना मैं किसी और की हो जाऊंगी और हम हमेशा के लए बिछड़ जाएंगे.’

‘‘प्रकाश ने कहा, ‘मैं अपने घर में बात करता हूं मेनका, तुम बिलकुल चिंता मत करो.’

‘‘अगले ही दिन प्रकाश मेरे लिए अपनी मम्मी के दिए कंगन ले कर आया और बड़े ही अपनेपन से बोला, ‘मेनका, यह मां का आशीर्वाद है हमारे लिए. वे तो तुम्हें बहू बनाने के लिए राजी हैं, पर पिताजी नहीं मान रहे?हैं. सो, हम दोनों घर से भाग जाते?हैं.’

‘‘मैं ने पूछा, ‘लेकिन, हम भाग कर जाएंगे कहां?’

‘‘वह बोला, ‘वैसे तो हमारे पास कोई ठिकाना नहीं है, लेकिन वाराणसी में मेरा एक दोस्त रहता है. मैं ने उस से बात की है. वह वहां नौकरी करता है. हम उसी के पास चलेंगे. वह अपनी ही कंपनी में मेरे लिए नौकरी का इंतजाम भी कर देगा.’

‘‘प्रकाश ने यह भी समझाया, ‘हम वहां रजिस्टर्ड शादी कर लेंगे और फिर अपने घर का इंतजाम भी वहीं कर लेंगे. शायद कुछ समय में हमारे मम्मीपापा भी इस शादी को रजामंदी दे दें.’

‘‘मुझे उस की बातों में सचाई नजर आई और मैं ने उस के साथ भाग जाने का फैसला कर लिया.

‘‘अगले ही दिन मैं घर से कुछ कपड़े व रुपए ले कर रेलवे स्टेशन पहुंच गई.

‘‘हम दोनों प्रकाश के दोस्त के घर पहुंचे और वहां 2 दिन में ही प्रकाश ने नौकरी शुरू कर दी.

‘‘5 दिन बाद उस का दोस्त मुझ से बोला, ‘भाभी, प्रकाश ने आप को बाहर कहीं बुलाया है. आप तैयार हो जाइए. मैं आप को वहां ले चलता हूं.’

‘‘एक बार तो मुझे लगा कि प्रकाश ने मुझे क्यों नहीं बताया, पर अगले ही पल मैं उस के दोस्त के साथ चली गई. मैं जहां पहुंची, वहां प्रकाश पहले से ही मौजूद था.

‘‘उस ने मुझे एक आंटी से मिलवाया और बोला, ‘जिस कंपनी में मैं काम करता हूं, ये उस की मालकिन हैं.’

‘‘वे आंटी भी मुझ से बड़े प्यार से मिलीं. कुछ देर बाद प्रकाश बोला, ‘मेनका, मैं कुछ देर के लिए बाहर हो कर आता हूं, तब तक तुम यहीं रहो.’

‘‘एक बार को मुझे घबराहट हुई, पर आंटी की प्यार भरी छुअन में मुझे मां का रूप नजर आया, सो मैं वहां रुक गई. उस के बाद मेरी जिंदगी में जैसे तूफान आ गया. मुझे एक ही रात में समझ आ गया कि प्रकाश मुझे थोड़े से रुपयों के लालच में उन आंटी के हाथों बेच गया था.

‘‘अब हर रात अलगअलग तरह के ग्राहक आने लगे. मैं ने आंटी के खूब हाथपैर जोड़े और रोरो कर कहा, ‘आंटी प्लीज मुझे जाने दीजिए, मैं भले घर की लड़की हूं. मेरे मम्मीपापा, भाई क्या सोचेंगे मेरे बारे में.’

‘‘लेकिन, आंटी ने मेरी एक न सुनी. पहले 2 लड़कों ने मेरा बलात्कार किया और मुझे कई दिन तक भूखा रखा गया. जब मैं मानी, तब खाना दिया गया और इलाज भी कराया गया. सब लड़कियों ने कहा कि इन की बात मान जाओ, क्योंकि बाहर तो अब कोई अपनाएगा ही नहीं. मैं रोज सजधज कर तैयार होने लगी.

‘‘लेकिन, मुझे बारबार अपने किए पर पछतावा होता. एक बार वहां से भागने की कोशिश भी की, पर पकड़ी गई. उस रात आंटी ने मेरी खूब पिटाई की और उन के दलाल भूखे भेडि़यों की तरह मेरे ऊपर टूट पड़े.

‘‘वहां की एक लड़की प्रिया ने मुझे समझाया, ‘मेनका, अब तुम्हारे पास इस नरक से बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं?है. तुम्हारे साथ कितनी बार तो आंटी के आदमियों ने गैंगरेप किया, तुम्हें क्या हासिल हुआ? इस से तो ग्राहकों की भूख मिटाओगी, कम से कम पैसे तो मिलेंगे. समझौता करने में ही समझदारी है.’

‘‘उस समय मुझे प्रिया की बात ठीक ही लगी और मैं ने अपनेआप को आंटी को सौंप दिया. आंटी बहुत खुश हुईं और मुझे प्यार से रखने लगीं. बस, तब से मेरी ग्राहक को पटाने की ट्रेनिंग शुरू हुई.

‘मुझे दूसरी औरतों के साथ रात के समय सजधज कर भेज दिया जाता. सड़क के किनारे खड़ी हो कर दूसरी लड़कियां अपनी अदाओं से आतेजाते मर्दों को रिझातीं. मैं उन्हें देख कर दंग रह जाती. हर कोई मोटा मुरगा फंसाने की फिराक में रहती.’’

मेनका की बात सुन कर निहाल ने थोड़ा गुस्से में पूछा, ‘‘तुम जब बाहर निकली, तो रात के समय वहां से भाग क्यों नहीं गई?’’

‘‘कैसी बातें करते हैं भैया आप. इतना आसान होता, तो क्या मैं इस धंधे में टिकी रहती? आंटी के दलाल पूरी चौकसी रखते हैं हम पर.’’ मेनका की कहानी सुन कर निहाल की आंखों से आंसू बह निकले.

मेनका आगे बताने लगी, ‘‘दूसरी लड़कियों के साथ मैं भी धीरेधीरे ग्राहक पटाने की ट्रेनिंग ले चुकी थी. शुरू में तो ग्राहक पटाना भी बहुत बुरा लगता था. रात के समय सड़क पर घटिया हरकतें कर अपने अंग दिखा कर उन्हें पटाना पड़ता था.

‘‘उस पर भी लड़कियों में आपस में होड़ मची रहती थी. मैं किसी ग्राहक को जैसेतैसे पटाती, तो रास्ते से ही दूसरी लड़कियां कम पैसों में उसे खींच ले जातीं.

‘‘भैया, मैं नई थी. मुझ से ग्राहक पटते ही नहींथे, तो आंटी बहुत नाराज होतीं. सड़क पर ग्राहक ढूंढ़ने के लिए खड़ी होती, तो लोगों की लालची मुसकान देख कर मेरा दिल दहल जाता. जब कोई पास आ कर बात करता, तो डर के मारे दिल की धड़कनें बढ़ जातीं. कोईकोई तो मेरे पूरे बदन को छू कर भी देखता.

‘‘बस, इतना ही  और उस के लिए तुम्हारी देह का सौदा हर रात होता है,’’ निहाल ने कहा. उस की आंखों से आंसू बहे जा रहे थे, जिन्हें रोकने की वह नाकाम कोशिश कर रहा था.

‘‘बहुत बुरा हाल था भैया. एक बार एक आदमी बहुत नशे में था. मुझे उस के मुंह से आती शराब की बदबू बरदाश्त नहीं हुई और मैं ने उस से अपना मुंह फेर लिया. वह मुझे गाली देते हुए बोला, ‘तू खुद क्या दूध की धुली है?’

‘‘और उस ने मुझे पूरे बदन पर सारी रात दांतों से काट डाला. मैं बहुत रोई, चीखीचिल्लाई, पर कोई मेरी मदद को न आया.

‘‘अगले दिन आंटी ने चमड़ी उधेड़ दी और बोली, ‘हर ग्राहक को नाराज कर देती है. तेरे प्रेमी को ऐसा क्या दिखा था तुझ में क्या सुख देती तू उस को इसीलिए शायद यहां सड़ने को पटक गया तुझे.’

‘‘यह सब सुन कर मुझे बहुत बुरा लगा. मैं ने सोच लिया कि अब काम करूंगी, तो ठीक से.’’

‘‘फिर तुम वाराणसी से मुंबई कैसे पहुंच गई मुन्नी?’’ निहाल ने पूछा.

‘‘वाराणसी छोटा सा शहर है. लोग पैसा कम देते हैं. ऊपर से कई तरह की छूत की बीमारियां हमें दे जाते हैं. जो पैसे मिलते, वे बीमारियों पर ही खर्च हो जाते.

‘‘एक बार मुंबई की कुछ लड़कियां हमें ट्रेनिंग देने आईं, तो मैं ने उन से कहा कि मुझे भी मुंबई ले चलिए. कम से कम बड़े शहर के लोग रकम तो अच्छी देंगे. मैं थोड़ी पढ़ीलिखी हूं और अंगरेजी भी बोलती हूं, इसलिए उन्हें मैं मुंबई के लायक लगी. सो, मुझे यहां भेज दिया. बस, तब से मैं ने इसे अपने कारोबार की तरह अपना लिया.

‘‘कई बार रेड पड़ी. थाने भी गई. शुरू में डरती थी, लेकिन अब मन को मजबूत कर लिया. अब कोई डर नहीं. जब तक जिंदगी है, इसी नरक में जीती रहूंगी. अब तो ग्राहक भी सोशल मीडिया और ह्वाट्सऐप पर मिल जाते हैं. कोडवर्ड होता है, जिस से हमारे दलाल बात करते हैं,’’ और वह ठहाका लगा कर हंस पड़ी. निहाल मेनका के चेहरे पर ढिठाई की हंसी पढ़ चुका था, फिर भी उस ने पूछा, ‘‘निकलना चाहती हो इस नरक से?’’

वह बोली, ‘‘कौन निकालेगा भैया… आप और उस के बाद कहां जाऊंगी? अपने मम्मीपापा के घर या आप के घर? कौन अपनाएगा मुझे?

‘‘निहाल भैया, अब तो मेरी अर्थी इन गंदी गलियों से ही उठेगी,’’ वह बोली और फिर जोर से ठहाका लगा कर हंस पड़ी.

‘‘भैया, मेरी तो सारी बातें पूछ लीं, पर आप ने अपनी नहीं बताई कि आज आप यहां कैसे? आप की शादी हुई या नहीं? आप तो बहुत नेक इनसान हुआ करते थे, फिर यहां कैसे?’’ मेनका ने पूछा.

‘‘पूछो मत मुन्नी, मेरी पत्नी किसी और के साथ संबंध रखती है. मुझे तो जैसे नकार ही दिया है. 2 बच्चे भी हैं. मन तो उन के साथ लगा लेता हूं, पर तुम से कैसे कहूं? तन की भूख मिटाने यहां चला आता हूं कभीकभी.

‘‘मुझे नहीं मालूम था कि आज इस जगह तुम से मिलना होगा. सच पूछो तो समझ नहीं आ रहा है कि आज मैं तुम्हें गलत समझूं या सही.

‘‘तुम जैसी न जाने कितनी लड़कियां हम मर्दों को सुख देती हैं और हमारे घर टूटने से बचाती हैं. हम मर्द तो एक रात का सुख ले कर खुश हो जाते हैं. पर हमारे चलते मजबूरी की मारी लड़कियां अपनी जिंदगी को इस नरक में जीने के लिए मजबूर होती हैं और इन बंद गलियों में कीड़ेमकौड़े की जिंदगी जीती?हैं.

‘‘मुझे माफ करो मुन्नी, यह लो तुम्हारी एक रात की कीमत,’’ इतना कह कर निहाल ने मुन्नी की तरफ पैसे बढ़ा दिए.

मेनका ने कहा, ‘‘भैया, मेरा दर्द बांटने के लिए शुक्रिया, पर किसी को घर में न बताना कि मैं यहां हूं. मेरे मम्मीपापा और भाई मुझे गुमशुदा ही समझ कर जीते रहें तो अच्छा, वरना वे तो जीतेजी मर जाएंगे. और इस रात की कोई कीमत नहीं लूंगी आप से.

‘‘आज आप ने मेरा दर्द बांटा है, किसी दिन शायद मैं आप का दर्द बांट सकूं. अपनी बहन समझ कर आना चाहें तो फिर आ जाइए कभी.’’ सुबह होने को थी. निहाल चुपचाप वहां से उठ कर अपने घर आ गया.

Raksha Bandhan : जिम्मेदारी बहन की सुरक्षा की

‘‘गुडि़या, अब तुम बड़ी हो गई हो. अब तुम्हारी सुरक्षा की पूरी जिम्मेदारी मेरी है. तुम मेरी प्यारी बहन हो. तुम्हें कोई तकलीफ होगी तो मुझे दर्द होगा,’’ सुशांत ने अपनी बहन नेहा को समझाते हुए कहा.

‘‘भाई मैं अब बड़ी हो गई हूं. अपना खयाल रख सकती हूं. आप परेशान न हों, आप भी तो मेरे से केवल 2 साल ही बडे़ हैं,’’ नेहा ने अपना तर्क दिया.

‘‘बहन, मैं जानता हूं कि तुम बड़ी हो चुकी हो. अपना खयाल रख सकती हो. फिर भी मैं हमेशा तुम्हारी रक्षा का वचन देता हूं. 2 साल ही सही पर हूं तो तुम से बड़ा न,’’ सुशांत ने बात को समझाने का प्रयास किया.

‘‘हां, मान गई भाई, तुम जीते और मैं हारी. अब चौकलेट मुझे दो और मुझे इस का स्वाद लेने दो,’’ भाई के तर्क के आगे हार मानते हुए नेहा ने कहा.

इस तरह की जिम्मेदारी भरी नोकझोंक हर घर में भाईबहन के बीच होती ही रहती है. यह नोकझोंक आज की नहीं है. हर पीढ़ी के बीच होती रही है. नई पीढ़ी की बहन को लगता है कि वह बहुत बड़ी, समझदार और जिम्मेदार हो गई है और उसे भाई की मदद की जरूरत नहीं रह गई है. इस के विपरीत भाई को यह लगता है कि उस की बहन अभी मासूम, छोटी सी गुडि़या है, जिसे समाज में अच्छेबुरे का पता नहीं है. ऐसे में वह परेशान हो सकती है.

कई बार बड़ी होती बहन को लगता है कि सुरक्षा के नाम पर भाई या परिवार के दूसरे लोग उस की आजादी में बाधक हैं. असल में यही वह सोच है जो बहन को समझनी चाहिए. भाई या परिवार का कोई सदस्य उस की आजादी में बाधक नहीं होता. वह यह जरूर चाहता है कि लड़की के दामन पर कोई दाग न लगे, जो जीवन भर उसे परेशान करता रहे.

भावनात्मक सुरक्षा भी जरूरी

जब हम बहन की सुरक्षा की बात करते हैं तो केवल शारीरिक सुरक्षा ही मुद्दा नहीं होता बल्कि बहन की शारीरिक सुरक्षा के साथ ही साथ उस की भावनात्मक सुरक्षा भी जरूरी होती है. बड़ी होती बहन के दोस्तों में केवल लड़कियां ही नहीं होतीं लड़के भी होते हैं. इन दोस्तों में कई मासूमियत का लाभ उठाने के प्रयास में रहते हैं. बहन को लगता है कि सुरक्षा के नाम पर उस की आजादी को रोका जा रहा है. ऐसे में कई बार वह ऐसी बातों को छिपा जाती है, जो उस की सुरक्षा के लिए जरूरी होती हैं. ऐसे में जरूरी हो जाता है कि बहन के साथ भाई भावनात्मक रूप से जुड़ा रहे. भाई और बहन के बीच उम्र का अंतर काफी कम होता है. इसलिए बहन और भाई की सोच एकजैसी होती है. कई बार बहन अपने मातापिता को कई बातें नहीं बताती पर अपने भाई को बता देती है.

मनोविज्ञानी डाक्टर मधु पाठक कहती हैं, ‘‘यहां पर भाई की जिम्मेदारी बढ़ जाती है. वह बहन के साथ इमोशनली ऐसे व्यवहार रखे जिस से बहन हर बात उस को बताती रहे. ज्यादातर परेशानियां वहीं से शुरू होती हैं जब बच्चे अपनी बातें छिपाना शुरू करते हैं. यह केवल बहनें ही नहीं भाई भी करते हैं. जब भाई अपनी बातें बहन को बताएगा तो बहन भी उसे अपनी बातें बताने में संकोच नहीं करेगी. जरूरत इस बात की है कि बहन और भाई के बीच रिश्ता दोस्ताना भी बना रहे. अगर भाई पेरैंट्स की तरह बहन से व्यवहार करेगा तो वह बात को छिपा सकती है. दोस्त की तरह भाई संबंध रखेगा तो परेशानी नहीं आएगी. भाई को शारीरिक सुरक्षा के साथ बहन को भावनात्मक सुरक्षा भी देनी चाहिए.’’

सोच बदलने की जरूरत

लड़की और लड़के के बीच समाज एक तरह का फर्क करता है, जिस की वजह से कुछ बातें भाई के लिए उतनी बुरी नहीं समझी जातीं जितनी बहन के लिए समझी जाती हैं. इस बात को समझने के लिए देखें तो भाई की गर्लफ्रैंड को ले कर उतना हंगामा नहीं होता जितना बहन के बौयफ्रैंड को ले कर होता है.

आज जब महिला अधिकारों की बात हो रही है तो बहन भी अपने लिए भाई जैसे अधिकार चाहती है. समाज भाई की गलतियों को उस तरह से नहीं लेता जिस तरह से बहन की गलतियों को लेता है. यह समाज की एक तरह की पुरुषवादी मानसिकता है. यही वजह है कि केवल भाई ही नहीं पेरैंट्स भी बेटी को ले कर बेटे से अधिक सचेत रहते हैं. इस बात से ही लड़कियों का मतभेद होता है. वे इस सोच में भाईबहन के सामाजिक अधिकार के अंतर को ले कर विद्रोही हो जाती हैं.

सामाजिक कार्यकर्ता विनीता ग्रेवाल कहती हैं, ‘‘लड़कियों के भोलेपन का लाभ उठाने वाला पुरुषवर्ग ही होता है. इस में कई बार करीबी रिश्तेदार तक शामिल होते हैं. जरूरत इस बात की है कि लड़कियों को भी यह समझाया जाए कि वे सही और गलत के फर्क को समझ सकें. हमारे समाज में सैक्स की चर्चा पूरी तरह से बेमानी मानी जाती है ़ऐसे में सैक्स को ले कर लड़कियां जागरूक नहीं होतीं, यह बात उन के लिए मुसीबत का सबब बनती है. सैक्स संबंधों को ले कर ज्यादातर लड़कियां इमोशनली ठगी जाती हैं, जिस का प्रभाव केवल उन के  जीवन पर ही नहीं पड़ता बल्कि परिवार पर भी पड़ता है. समाज सीधे सवाल करता है कि लड़की की सुरक्षा का परिवार वालों ने खयाल नहीं रखा. इस वजह से पेरैंट्स और भाई कुछ ज्यादा ही परेशान रहते हैं. अपनी आजादी के साथ लड़कियों को इस तर्क को सामने रख कर सोचना चाहिए, जिस से विद्रोह जैसे हालात से बचा जा सकता है.’’

खुद बनें मजबूत

समय बदल रहा है. आज लड़की को लड़के जैसे अधिकार हासिल हैं. वह भी पढ़ाई, कोचिंग, शौपिंग के लिए खुद ही जाना चाहती है. कई घरों में लड़कियों के भाई नहीं हैं, केवल पेरैंट्स ही हैं. ऐसे में हर जगह बहन की सुरक्षा में भाई नहीं मौजूद रह सकता. तब लड़कियों को खुद ही मजबूत बनना पडे़गा. केवल मानसिक  रूप से ही नहीं शारीरिक रूप से भी उसे मजबूत रहना है. यही नहीं कानून ने जो अधिकार उसे दिए हैं वे भी उसे पता होने चाहिए, जिस से पुलिस और प्रशासन से अपने लिए मदद हासिल कर सके. आज सैल्फ डिफैंस के तमाम कार्यक्रम चल रहे हैं, जिन से लड़कियां अपना बचाव कर सकें. ऐसे में जरूरी है कि लड़कियां शारीरिक मेहनत करें और खुद को मजबूत बनाएं. इस के बाद वे जरूरत पड़ने पर अपना बचाव करने में सक्षम हो सकेंगी, जिस पेरैंट्स और भाई को इस बात का यकीन होता है कि लड़की अपनी सुरक्षा खुद कर सकती है तो वह चिंतामुक्त होता है.

रैड बिग्रेड संस्था लड़कियों को आत्मरक्षा के तमाम गुण सिखाती है. संस्था की संचालक ऊषा विश्वकर्मा कहती हैं, ‘‘केवल भारत में ही नहीं पूरी दुनिया में इस बात की जरूरत महसूस की जा रही है कि लड़कियों को सैल्फ डिफैंस की ट्रेनिंग लेनी चाहिए. इस से कमजोर बौडी वाली लड़कियां भी मजबूत से मजबूत विरोधी को मात दे कर अपना बचाव कर सकती हैं. स्कूल, पेरैंट्स, सरकार और समाज को सहयोग कर के सैल्फ डिफैंस की ट्रेनिंग को बढ़ावा देना चाहिए, जिस से लड़की मजबूत ही नहीं होगी, उस के अंदर का डर भी खत्म हो जाएगा.’’

ऊषा को सैल्फ डिफैंस की ट्रेनिंग देने के लिए कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया जा चुका है. वे अपने स्तर से कई तरह की वर्कशौप कर के सैल्फ डिफैंस की ट्रेनिंग दे रही हैं.

बढ़ाएं आपसी समझदारी

बहन की सुरक्षा भाई की जिम्मेदारी होती है. ऐसे में जरूरी है कि भाईबहन के बीच आपसी समझदारी बढे़. जब दोनों के बीच आपसी समझदारी होगी तो उसे किसी भी तरह की परेशानी का अनुभव नहीं होगा. वह यह नहीं सोचेगी कि सुरक्षा के नाम पर उस की आजादी को प्रभावित किया जा रहा है. जब उस को समझाया जाएगा कि यह सुरक्षा क्यों जरूरी है, तो वह किसी बात को छिपाएगी नहीं. जब भाईबहन एकदूसरे से कुछ छिपाएंगे नहीं तो आपस में समझदारी बढ़ेगी, जिस से खुद ही सुरक्षा का एहसास होगा. सुरक्षा का यह एहसास खुद में आत्मविश्वास पैदा करेगा. आज के दौर में समाज और हालात बहुत बदल चुके हैं. ऐसे में बच्चों के बीच आपसी समझदारी जरूरी है.

अंश वैलफेयर की अध्यक्षा श्रद्धा सक्सेना कहती हैं, ‘‘बदलते दौर में भाई और बहन दोनों को समान अवसर मिले हैं. ऐेसे में जरूरी है कि वे आपसी समझदारी दिखाएं. केवल बहन पर ही नहीं अगर भाई पर भी कोई उंगली उठती है तो बहन को भी उतनी ही तकलीफ होती है. टीनएज में होने वाले क्रश का प्रभाव केवल बहन पर ही नहीं पड़ता भाई का जीवन और कैरियर भी उस से प्रभावित होता है. ऐसे में जब भाईबहन समझदारी भरा व्यवहार करते हैं आपस में बातें शेयर करते हैं तो मुसीबतों से बचे रहते हैं, कई घरपरिवार में बहन बड़ी होती है, ऐसे में वह भाई को पूरी सुरक्षा देती है. भाई केवल बहन को ही नहीं बहन भी भाई को खुश और सुरक्षित देखना चाहती है.’’

Raksha Bandhan: सत्य असत्य- भाग 5

‘‘मैं हड़बड़ा कर उठी. लपक कर देखा, अलमारी में वह चाबी भी नहीं थी. मन एक आशंका से कांप उठा कि भैया कहीं निशा का कुछ अनिष्ट न कर बैठें.’’

पिताजी ने चिंतित स्वर में पूछा, ‘‘वह कहां गया है. तुम से कुछ कहा?’’

‘‘कहा तो नहीं, पर हो सकता है, निशा के पास…,’’ मैं ने उन से पूरी बात कह दी.

औटो से हम निशा के घर पहुंचे. वहां भैया की मोटरसाइकिल भी दिखाई न दी. धड़कते दिल से द्वार की घंटी बजा दी. हम कितनी ही देर खड़े रहे, पर द्वार नहीं खुला. पड़ोसी सुरेंद्र साहब का द्वार खटखटाया तो उन्होंने जो सुनाया, वह अप्रत्याशित था, ‘‘निशा तो महीनाभर हुआ सबकुछ छोड़छाड़़ कर चली भी गई. उस के चाचा उसे लेने आए थे.’’

हम पितापुत्री चिंतित खड़े रह गए. फौरन घर वापस चले आए. भैया लुटेपिटे से सामने ही बैठे थे.

‘‘निशा हम से मिल कर तो जाती,’’ मां के होंठों से निकले इन शब्दों पर पिताजी चीख उठे, ‘‘वह मिल कर जाती, पर क्यों? क्या तुम्हारे बच्चों की कोई जिम्मेदारी नहीं थी. अरे, उस मासूम को रोक तो लेते. वह अकेली अपना सामान बांधे चली गई और कोई उसे घर तक छोड़ने नहीं गया. क्या वह लावारिस थी?’’

भैया बोले, ‘‘मुझे हमेशा डर सताता रहा कि कहीं सचाई जानने के बाद वह मुझ से नफरत न करने लगे.’’

‘‘अब क्या करोेगे? कहीं और शादी को तैयार हो, तो बात करूं?’’ पिताजी ने थकीहारी आवाज में कहा.

‘‘नहीं, शादी तो अब कभी नहीं होगी.’’

‘‘तो क्या तुम्हारी मां तुम्हें जीवनभर पकापका कर खिलाएगी? निशा के चाचा कहां रहते हैं. कुछ जानते हो?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘अच्छी बात है, अब जो जी में आए, वही करो.’’

एक शाम भैया बोले, ‘‘गीता, क्या ऐसा नहीं लगता कि शरीर का कोई हिस्सा ही साथ नहीं दे रहा? मैं तो अपंग सा हो गया हूं.’’

मैं मुंहबाए उन्हें निहारती रह गई, क्या जवाब दूं, सोच ही न पाई.

एक दिन शाम को पिताजी ने चौंका दिया, ‘‘आज शाम कोई आ रहा है, नाश्ते का प्रबंध कर लेना.’’

‘‘कौन आ रहा है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘कहा न कोई है,’’ पिताजी खीझ उठे.

शाम को हम सब निशा को देख कर हैरान रह गए. पिताजी ने मुसकरा कर उस का स्वागत किया, ‘‘आओ बेटी, आओ,’’ पिताजी ने निशा को सोफे पर बैठाया.

‘‘बेटी, तुम्हारा पत्र मिल गया था. तुम्हारे पिताजी की बीमे की पौलिसी संभाल कर रखी है.’’

वह निशा को उस के पिता की भविष्य निधि और दूसरे सरकारी प्रमाणपत्रों के विषय में बताते रहे और वह चुपचाप बैठी सुनती रही.

‘‘बस, तुम्हारे हस्ताक्षर ही चाहिए थे, वरना मैं तुम्हें कभी आने को न कहता. सब हो जाएगा बेटी, कम से कम यहां दिल्ली के सब काम तो मैं निबटा ही दूंगा.’’

निशा ने कुछ न कहा.

मैं ने उस के सामने नाश्ता परोसा तो पिताजी ने टोक दिया, ‘‘पहले इसे हाथमुंह तो धो लेने दो. सुबह से गाड़ी में बैठी है. उठो बेटी, जाओ.’’

एक तरफ रखे बैग में से तौलिया निकाल निशा बाथरूम में चली गई. जब वह बाहर आई तो उसी पल भैया ने घर में प्रवेश किया. उन्होंने चौंकते हुए कहा, ‘‘निशा, तुम कैसी हो?’’

निशा ने कुछ न कहा. हम सब खामोश थे. निशा सिर झुकाए चुपचाप खड़ी थी. पिताजी ने उसे बुलाया तो भैया की तंद्रा भंग हुई.

चाय सब ने इकट्ठे पी. मगर हम औपचारिक बातें भी नहीं कर पा रहे थे.

रात को खाने के बाद वह मेरी बगल में सो गई. मेरे लिए जैसे वक्त थम गया था. आधी रात होने को आई, पर नींद मेरी आंखों में नहीं थी. सहसा ऐसा लगा, जैसे हमारे कमरे में कोई है. मैं

ने भैया को पहचान लिया. वह सीधा निशा की ओर बढ़ रहे थे. मैं सहम गई. फिर देखा, भैया उस के पैरों की तरफ बैठे हैं.

फिर वे हौले से बोले, ‘‘निशा, निशा, उठो. तुम से कुछ बात करनी है.’’

भैया ने कई बार पुकारा, पर उस ने कोई जवाब न दिया. तब भैया ने उसे छुआ तो एहसास हुआ कि निशा को तेज ज्वर है. भैया फौरन डाक्टर को लेने चले गए.

डाक्टर की दवा ने अपना असर दिखाया. सुबह तक निशा की तबीयत में काफी सुधार हो गया था.

मैं चाय ले कर उस के पास गई, ‘‘थोड़ी सी चाय ले लो,’’ फिर भैया से कहा, ‘‘आप भी आ जाइए.’’

‘‘मन नहीं है,’’ निशा ने मना कर दिया.

‘‘क्यों निशा, मन क्यों नहीं है? थोड़ी सी तो पी लो,’’ मैं ने आग्रह किया.

लेकिन वह रो पड़ी. भैया उठ कर पास आ गए. उन्होंने धीरे से उस का हाथ पकड़ा और फिर झुक कर उस का मस्तक चूम लिया, ‘‘सजा ही देना चाहती हो तो मुझे दो, अपनेआप को क्यों जला रही हो? अपराध तो मैं ने किया था.’’

सहसा निशा फूटफूट कर रोने लगी, ‘‘कर्ण, मैं किसकिस को सजा दूं, अपने पिता को. आप को या गीता को? किसी ने भी मेरे मन की नहीं पूछी, सब एकतरफा निर्णय लेते रहे. सच क्या है किसी ने भी तो नहीं जानना चाहा. मैं क्या करूं?’’

फिर थोड़ा रुक कर, खुद को संभाल कर वह आगे बोली, ‘‘मेरी वजह से सब को पीड़ा ही मिली, लेकिन यह सब मैं ने नहीं चाहा था.’’

‘‘जानता हूं निशा, सब जानता हूं. लेकिन अब वैसा कुछ नहीं होगा, मुझ पर यकीन करो.’’

मां और पिताजी दरवाजे पर खड़े थे. मां ने उस का मस्तक चूमते हुए कहा, ‘‘बस बेटी, अब चुप हो जाओ.’’

सांवली, प्यारी सी निशा इस तरह लौट आएगी, यह तो मैं ने कभी सोचा भी न था. पूरी कथा में एक सत्य अवश्य सामने आया था कि सत्य वह नहीं जिसे आंखें देखें, सत्य वह भी नहीं जिसे कान सुनें, सत्य तो मात्र वह  है जिस में सोचसमझ, परख, प्रेम व विश्वास सब का योगदान हो. वास्तविक सत्य तो वही है, बाकी मिथ्या है.

Raksha Bandhan : सत्य असत्य- भाग 4

उस के बाद कई दिन बीत गए. भैया की भूल की वजह से मां और पिताजी ने उन से बात करना लगभग छोड़ रखा था. निशा विद्यालय जाने लगी थी. शाम के समय हम सब चाय पीने साथसाथ बैठते.

एक शाम पिताजी ने फिर से सब को चौंका दिया, ‘‘निशा, कल विजय आने वाला है. आज मैं उस से मिला था. तुम कल जल्दी आ जाना.’’

तभी भैया बोल उठे, ‘‘विजय आज मुझ से भी मिला था, लेकिन उस ने तो नहीं बताया कि आप उस से मिले थे?’’

‘‘तो इस में मैं क्या करूं?’’ पिताजी का स्वर रूखा था, ‘‘मैं पिछले कई दिनों से उस से मिल रहा हूं. निशा के विषय में उस से पूरी बात की है. उस ने तुम से क्यों बात नहीं की, यह तुम जानो.’’

‘फिर भी उसे मुझ से बात तो करनी चाहिए थी, मुझे भी तो वह हर रोज मिलता है.’’

‘‘चलो, उस ने नहीं की, अब तुम्हीं कर लेना. और अपने साथ ही लेते आना.’’

‘‘मैं क्यों उस से बात करूं? हमारा बचपन का साथ है, क्या उसे अपनी शादी की बात मुझ से नहीं करनी चाहिए थी. क्या उस का यह फर्ज नहीं था?’’

‘‘फर्जों की दुहाई मत दो कर्ण, फर्ज तो उस से पूछने का तुम्हारा भी था. निशा कोई पराई नहीं है. कम से कम तुम भी तो आगे बढ़ते.’’

‘‘लेकिन पिताजी, उस ने एक  बार भी निशा का नाम नहीं लिया, दोस्ती में इतना परदा तो नहीं होता.’’

दोस्ती के अर्थ जानते भी हो, जो इस की दुहाई देने लगे हो. फर्ज और दोस्ती बहुत गहरे शब्द हैं, जिन का तुम ने अभी मतलब ही नहीं समझा. सदा अपना ही सुख देखते हो, तुम्हें क्या करना चाहिए, बस, यही सोचते हो. तुम्हें क्या नहीं मिला, हमेशा उस का रोना रोते हो. यह नहीं सोचते कि तुम्हें क्या करना चाहिए था. उस ने बात नहीं की, तो तुम ही पूछ सकते थे. अपनेआप को इतना ज्यादा महत्त्व देना बंद करो.’’

उसी रात मैं ने आखिरी प्रयास किया. निशा से पहली बार पूछा, ‘‘क्या तुम इस रिश्ते से खुश हो?’’

परंतु कुछ न बोल वह खामोश रही.

‘‘निशा, बोलो, क्या इस रिश्ते से तुम खुश हो?’’

उस की चुप्पी से मैं परेशान हो गई.

‘‘भैया पसंद नहीं हैं क्या? मैं तो यही चाहती हूं कि तुम यहीं रहो, इसी घर में. कहीं मत जाओ. भैया तुम से बहुतबहुत प्यार करते हैं,’’ कहते हुए मैं ने उस का हाथ पकड़ कर अपनी तरफ खींचा. फिर जल्दी से बत्ती जलाई. उस की सूजी आंखों में आंसू भरे हुए थे.

सुबह पिताजी के कमरे से भैया की आवाज आई, ‘‘निशा इसी घर में रहेगी.’’

‘‘क्या उस की शादी नहीं होने दोगे? विजय का नाम तुम ने ही सुझाया था न, आज क्या हो गया?’’

‘‘मैं…मैं तब बड़ी उलझन में था, आत्मग्लानि ने मुझे तोड़ रखा था. मैं खुद को उस के काबिल नहीं पा रहा था.’’

‘‘काबिल तो तुम आज भी नहीं हो. जिस से जीवनभर का नाता जोड़ना चाहते हो, क्या उस के प्रति ईमानदार हो? तुम ने उस का कितना बड़ा नुकसान किया है, क्या उसे यह बात बता सकते हो?’’

अब भैया खामोश हो गए.

निशा सामान्य भाव से अपने बाल संवारती रही. फिर उस ने जल्दी से पर्स उठाया. मैं असमंजस में थी कि क्या उस ने पिताजी की बात नहीं सुनी? उस ने मेज पर लगा अपना नाश्ता खाया और बाहर निकल गई.

निशा के जाने के बाद पिताजी बोले, ‘‘देखो कर्ण, जिस से प्यार करते हो, जिस से दोस्ती होने का दम भरते हो, कम से कम उस के प्रति तो ईमानदार रहो. प्यार करते हो तो आगे बढ़ कर उस से कहो. दोस्त से दोस्ती निभाना चाहते हो तो अपने अहं को थोड़ा सा अलग रखना सीखो. मन में कुछ मैल आ गया है, कुछ गलत देखसुन लिया है तो झट से कह कर सचाई की तह तक जाओ. मन ही मन किसी कहानी को जन्म मत दो. अब विजय की बात ही सुन लो. मैं उस से एक बार भी नहीं मिला. तुम से झूठ ही कहता रहा और तुम उस पर क्रोध करते हुए उस से नाराज भी हो गए. अगर खुद ही बात कर ली होती तो मेरा झूठ कब का खुल गया होता. मगर नहीं, तुम तो अपनी ही अकड़ में रहे न.’’

‘‘जी,’’ भैया के साथसाथ मैं भी हैरान रह गई.

‘‘निशा से प्यार करते हो तो उसे साफसाफ सब बता दो.’’

करीब 4 बजे निशा आई. मुंहहाथ धो कर रसोई में जाने लगी, तभी पिताजी ने पूरी कहानी निशा को सुना दी, जिसे वह चुपचाप सुनती रही. हम सांस रोके उस की प्रतिक्रिया का इंतजार करते रहे. शायद सुबह उस ने सुना न हो, मैं यह खुशफहमी पाले बैठी थी.

‘‘बेटी, क्या तुम यह सब जानती थीं?’’ पिताजी उस की तटस्थता पर हैरान रह गए.

निशा ने ‘हां’ में गरदन हिला दी.

‘‘तुम्हें कैसे पता चला?’’ पिताजी उठ कर उस के पास गए तो निशा एकाएक रो पड़ी, फिर संभलते हुए बोली, ‘‘उस दिन जब मैं घर की सफाई कर के लौटी थी…’’ इतना कह कर वह रोने लगी तो पिताजी उठ कर बाहर चले गए. उस के बाद किसी ने उस से कोई बात न की.

थोड़ी देर बाद मुझे निशा की आवाज सुनाई दी, ‘‘गीता, मैं सुबह अपने घर चली जाऊं?’’

मैं ने चौंक कर उस की ओर देखा तो वह बोली, ‘‘अब नौकरी मिल गई है न. और फिर जब जीना है तो अकेले रहने की आदत तो डालनी ही होगी. यहां कब तक रहूंगी?’’

शीघ्र ही उस ने अटैची और बैग तैयार कर लिया और बोली, ‘‘मैं जाती हूं. चाचाजी से मिल कर जाने की हिम्मत नहीं है. वे आएं तो बता देना.’’

मैं ने भैया को पुकारना चाहा कि उसे वे जा कर छोड़ आएं, परंतु निशा ने मना कर दिया. शायद वह भैया की सूरत भी नहीं देखना चाहती थी. रोते हुए उस ने अटैची उठाई और भारी बैग कंधे पर लादे चुपचाप चली गई. अवरुद्ध कंठ से मैं कुछ भी न कह पाई.

निशा के जाने के बाद पिताजी उदास से रहने लगे थे. मगर जो हालात बन गए थे, उन में वे कुछ नहीं कर सकते थे. उस रात मुझे नींद नहीं आई. अलमारी सहेजने लगी तो निशा के घर की दूसरी चाबी हाथ लग गई.

मैं ने वह चाबी भैया के सामने रख दी और कहा, ‘‘अभी तक सोए नहीं?’’

वे सूनीसूनी आंखों से मुझे निहारते रहे.

‘‘जाओ, निशा को ले आओ. अधिकार से हाथ पकड़ कर, क्षमा मांग कर. जैसे भी आप को अच्छा लगे. यह उस के घर की चाबी है.’’

‘‘क्या पागल हो गई हो?’’

‘‘मैं भी साथ चलती हूं. उस से क्षमा मांग लेना. उसे अपने प्यार का विश्वास दिलाना.’’

‘‘बस गीता, बस. अब और नहीं,’’ भैया ने डबडबाई आंखों से मेरी ओर देखा.

इसी तरह 3 हफ्ते बीत गए. एक शाम मां ने भैया से कहा, ‘‘कर्ण, कहीं तुम्हारी शादी की बात चलाएं?’’

‘‘नहीं, मैं शादी नहीं करूंगा.’’

तभी पिताजी बोल उठे, ‘‘अच्छी बात है, मत करना शादी, मगर मेरा एक काम जरूर करना. अगर मुझे कुछ हो गया तो कम से कम अपनी बहन का ब्याह जरूर कर देना.’’

रात को मां की आवाज सुनाई दी. ‘‘निशा कैसी रूखी है, जब से गई है, एक बार फोन तक भी नहीं किया.’’

‘‘तो क्या तुम उस से मिलने गईं? इन दोनों में से कोई एक भी गया उसे देखने?’’ पिताजी ऊंची आवाज में बोले, ‘‘किसी दूसरे से अपेक्षा करना बहुत आसान है, कभी अपना दायित्व भी सोचा है तुम लोगों ने?’’

सुबहसुबह पिताजी के स्वर ने मुझे चौंका दिया, ‘‘गीता, कर्ण कहां है? उस की मोटरसाइकिल भी नहीं है. कहीं गया है क्या?’’

Raksha Bandhan : तृप्त मन- भाग 3

बंगले के दरवाजे के अंदर अभी वह अपना सामान रखवा ही रहा था कि राशी की सहेली ताहिरा आ गई. ताहिरा ने उसे पहचान कर आदाब किया फिर घबराई आवाज में बोली, ‘‘भाईजान, आप से कुछ जरूरी बात करनी है,’’ और इसी के साथ राजन को खींच कर आड़ में ले गई तथा बिना किसी भूमिका के उस ने वह सब राजन को बता दिया, जिसे अब तक राशी घर वालों से छिपाती आ रही थी. ताहिरा ने राजन को बताया कि मेरी सहेली होने के नाते राशी अकसर मेरे घर आती रहती थी. मेरे बडे़ भाई अरशद, जो डाक्टर हैं, से राशी का प्रेम काफी दिनों से चल रहा था…यह बात तो मुझे पता थी. लेकिन वे दोनों शादी करने पर आ जाएंगे…यह मुझे आज ही पता चला है जब दोनों कोर्ट से निराश हो कर लौटे हैं.

थोड़ा सा रुक कर ताहिरा ने साफ कहा, ‘‘यकीन मानिए भाई साहब, उन दोनों के शादी करने की बात का पता मुझे अभी चला है. अत: आप सभी को बता कर आगाह करना मैं ने अपना कर्तव्य समझा है. इतना अच्छा दूल्हा और इतने हौसले से किया जा रहा सारा इंतजाम, अगर आज उन की शादी कोर्ट में हो गई होती तो सब मटियामेट हो जाता. यह तो अच्छा हुआ कि अदालत में हड़ताल हो गई. आप सब बदनामी से अपने को बचा लें यही सोच कर मैं इस समय आप को सूचित करने आई हूं. अब आप को ही सब कुछ संभालना होगा, राजन भाई. हां, इतना जरूर ध्यान रखिएगा कि मेरा कहीं नाम न आए.’’

इतना बताने के बाद ताहिरा जिस तेजी के साथ आई थी उसी तेजी के साथ वापस चली गई.

ताहिरा से मिली सूचना से राजन को जैसे काठ मार गया. वह सोचने लगा कि आज यदि सचमुच वह सब हो गया होता जो ताहिरा ने बताया है तो मांपिताजी की क्या हालत होती. शायद उन्हें संभाल पाना मुश्किल हो जाता. शायद दोनों आत्मसम्मान के लिए आत्महत्या भी कर लेते पर शुक्र है कि यह अनहोनी होने से पहले ही टल गई. अब मैं राशी को समझा लूंगा, इस विश्वास के साथ राजन ने घर के अंदर प्रवेश किया.

सरोजनी और चंद्र प्रकाश ने मुसकरा कर बेटे का स्वागत किया. मां ने अधिकार के साथ सहेजा, ‘‘बेटा, आ गया तू, अब सबकुछ तुझे ही संभालना है.’’

‘‘हां…हां…मां. अब आप लोग निश्ंिचत रहिए, मैं सब संभाल लूंगा. पर मां, राशी कहां है…दिखाई नहीं पड़ रही.’’ राजन ने चारों तरफ नजर घुमाते हुए पूछा.

‘‘अपने कमरे में होगी…आवाज दूं?’’

‘‘रहने दो, मां,’’ राजन बोला, ‘‘बहुत दिन से उस का कान नहीं उमेठा है,’’ कहते हुए राजन राशी के कमरे में पहुंचा. भाई को आया देख कर चेहरे पर बनावटी हंसी बिखेरती राशी उठ खड़ी हुई.

राजन ने गर्मजोशी के साथ पूछा, ‘‘ठीक है, राशी? अच्छा बता, तू ने हमारे होने वाले जीजाजी से इस दौरान बात की थी या नहीं?’’

राजन यह कहते हुए वहीं राशी के करीब बैठ गया. अनेक प्रकार की इधरउधर की बातें करने के बाद उस ने राशी से पूछा, ‘‘सच बताना राशी, यह शादी तेरी पसंद की तो है?’’

राशी चाैंकी…राजन भैया ऐसा क्यों पूछ रहे हैं… क्या उन्हें मेरे बारे में कुछ पता चल गया है? राशी सावधानी से अपने को सहज बनाती हुई धीमी आवाज में बोली, ‘‘हां, भैया, पसंद है…लेकिन आप यह क्यों पूछ रहे हैं?’’

‘‘मुझ से झूठ मत बोल, राशी. यदि यह शादी तुझे पसंद है तो तू आज दोपहर में कहां गई थी?’’ राजन की आवाज में तल्खी थी.

राशी को तो मानो काटो तो खून नहीं…जरूर भैया को सब बातों की जानकारी हो गई है…लेकिन वह कुछ बोली नहीं. राजन ने फिर कहा, ‘‘खुद सोच कर देख राशी कि मुसलमान लड़के से शादी…’’

भाई की बात को बीच में काट कर राशी व्यंग्यात्मक आवाज में बोली, ‘‘भैया, क्या आप ने ईसाई लड़की से शादी नहीं की, जो आप मुझे सबक दे रहे हैं?’’

‘‘तुझे मेरे बारे में गलत पता है राशी. मैं ने शादी नहीं की है. मां ने शायद तुझे बताया नहीं. तुम्हारी शादी में कोई रुकावट खड़ी न हो इस के लिए मैं ने अपनी मनचाही शादी रोक दी. और अब तुम्हारे विवाह के बाद भी जो कुछ करूंगा मांपिताजी की आज्ञा व इच्छा के अनुसार ही करूंगा,’’ इतना कह कर राजन चुप हो गया और फिर नाश्ता करने व घर में काम देखने के लिए चला गया.

राशी को यह जान कर आश्चर्य हुआ कि राजन भैया ने अभी तक विवाह नहीं किया सिर्फ उस के लिए, लेकिन मां ने तो उस से कभी इस बारे में कोई जिक्र ही नहीं किया. वह अपने बड़े भाई से कहे शब्दों की आत्मग्लानि से छटपटाने लगी.

रात में राजन फिर उसे समझाने उस के कमरे में आया तो राशी ने सबसे पहले अपने दिन के व्यवहार के लिए भाई से माफी मांगी फिर दुखी मन से भारी आवाज में बोली, ‘‘भैया, मैं और अरशद एकदूसरे को बहुत चाहते हैं…इस हालत  में तुम्हीं बताओ, शादी न करने  की बात कैसे मेरी समझ में आए.’’

‘‘तेरी बात अपनी जगह ठीक  है, राशी. लेकिन ऐसा कदम उठाते समय तुझे यह ध्यान नहीं आया कि मम्मीपापा को तेरे इस कदम से कितना बड़ा सदमा पहुंचेगा?’’

‘‘भैया,’’ आंसू भरी नजरों से भर्राए स्वर में राशी बोली, ‘‘मुझे सबकुछ पता था और मैं इस बारे में सोचती भी थी पर पता नहीं अरशद को देखने के बाद मुझे क्या हो गया कि मैं प्यार भी कर बैठी और घर से विद्रोह करने पर उतारू हो गई…’’

राशी की बात बीच में ही काटते हुए राजन बोला, ‘‘होता है, राशी…प्यार में ऐसा ही सबकुछ होता है. पर देख मेरी बहना, अभी समय है.. मांपिताजी को इतना बड़ा सदमा न दे कि वे झेल ही न पाएं. अपने मन पर तू नियंत्रण रख कर डाक्टर अरशद को भुलाने की कोशिश कर जो सपना मांपिताजी ने तुझे तेरी शादी को ले कर देखा है उसे पूरा होने दे…बहन, इसी में इस परिवार व हम सब की भलाई है,’’ इतना कहतेकहते राजन की आंखें भी भर आईं.

‘‘एक बात और है राशी,’’ राजन बहन के प्रति आशान्वित हो कर बोला, ‘‘जैसे सुबह का भूला शाम को घर आ जाए तो वह भूला नहीं कहलाता, बस, यही कहावत मुझे प्यारी बहन पर भी लागू हो जाए. मेरी बस, तुझ से यही उम्मीद है. यह भी तुझे ध्यान में रखना होगा राशी कि यह राज की बात हमेशा राज ही बनी रहे.’’

राशी ने स्वीकृति में गरदन हिला दी, जैसे भाई की बात उस की समझ में अच्छी तरह से आ गई है. अभी तक राशी ने इतनी गहराई से बिलकुल नहीं सोचा था…सचमुच मां इतना बड़ा सदमा शायद ही झेल पातीं और इस के आगे राशी कुछ न सोच सकी. और अगले ही पल भाई की गोद में आंसुओं से तर चेहरा छिपा लिया.

राजन ने भी झुक कर तृप्तमन से बहन का सिर चूम लिया. राजन को लगा कि वह समय से आ गया… तो सबकुछ ठीक हो गया, यदि 1-2 दिन की भी देरी हो जाती तो सबकुछ बिगड़ कर कोई बहुत बड़ा अनर्थ हो जाएगा.

Raksha Bandhan : सत्य असत्य- भाग 3

‘‘अगर विजय अच्छा लड़का है तो आप कौन से बुरे हैं. आप क्यों नहीं? साफसाफ बताइए भैया, वह लड़का कौन है, जिस के साथ आप ने उसे देखा था?’’ मैं ने तनिक ऊंचे स्वर में पूछा.

‘‘बोलो कर्ण, कुछ तो बताओ?’’ पिताजी ने भी उन का कंधा हिलाया.

‘‘गीता, कैसी बेकार की बात करती हो. वह मुझे ‘भैया’ कह के पुकारती है. और…’’

‘‘कुछ तो कहेगी न. जब उसे पता चलेगा कि आप उस से प्रेम करते हैं तो हो सकता है, ‘भैया’ न कहे. फिलहाल यह बताइए कि  वह लड़का कौन था, जिसे आप ने…’’

‘‘चुप भी करो गीता, क्यों इस के पीछे पड़ी हो,’’ मां ने मुझे टोक दिया.

‘‘मैं ने कहा न, विजय उस के लिए…’’ भैया बोले तो मैं ने उन की बात काटते हुए कहा, ‘‘आप यह निर्णय करने वाले कौन होते हैं? मैं आज खुद निशा से पूरी बात खोलूंगी, चाहे उसे बुरा ही लगे.’’

‘‘नहीं, उस से कुछ मत पूछना,’’ भैया ने रोका और पिताजी बुरी तरह चीख उठे, ‘‘इस का मतलब है, तुम झूठ बोलते हो. उसे किसी के साथ जरूर देखा था. कहीं तुम्हीं तो उस के पिता को फोन नहीं करते रहे?’’ पिताजी के होंठों से निकला एकएक शब्द सच निकलेगा, मैं ने कभी सोचा नहीं था.

तभी पिताजी ने भैया की गाल पर जोरदार थप्पड़ दे मारा, ‘‘तुझे उस मासूम लड़की पर दोष लगाते शर्म नहीं आई. अरे, हमारी भी बेटी है. यही सब हमारे साथ हो तो तुझे कैसा लगेगा?’’

उस क्षण मां ने बेटे की तरफ नफरत से देखा.

‘‘पिताजी, मैं ने झूठ नहीं बोला था,’’ भैया ने शायद सारी शक्ति बटोरते हुए कहा, ‘‘जो देखा, वह सच था, लेकिन.’’

‘‘लेकिन क्या. अब कुछ बकोगे भी?’’

‘‘जी…जो…जो समझा, वह झूठ था. उस रात अस्पताल में निशा के पिता को देखा तो पता चला कि उस के साथ सदा वही होते थे. वे इतने कम उम्र लगते थे कि मैं धोखा…’’

यह सुनते ही मां ने माथे पर जोर से हाथ मारा, ‘‘सच, तुम्हारी तो बुद्धि ही भ्रष्ट हो गई.’’

उस पल हम चारों के लिए वक्त जैसे थम गया. सचाई जाने बिना उस के पिता को फोन कर के शिकायत करने की भला क्या आवश्यकता थी? आंखों देखा भी गलत हो सकता है और इतना घातक भी, यह मैं ने पहली बार देखासुना था.

पिताजी दुखी स्वर में बोले, ‘‘कैसा जमाना आ गया है. पितापुत्री साथसाथ कहीं आजा भी नहीं सकते. पता नहीं इस नई पीढ़ी ने आंखों पर कैसी पट्टी बांध ली है.’’

उस दिन भैया अपने कार्यालय नहीं जा सके, अपने कमरे में ऐसे बंद हुए कि शाम को ही बाहर निकले.

निशा तब तक नहीं लौटी थी, इसलिए सभी परेशान थे. भैया मोटरसाइकिल निकाल कर बाहर निकल गए और पिताजी खामोशी से उन्हें जाते हुए देखते रहे.

उस दिन हमारे घर में खाना भी नहीं बना. एक शर्म ने सब की भूख मार रखी थी. सहसा पिताजी बोले, ‘‘दोष तुम्हारा भी तो है. कम से कम निशा से साफसाफ पूछतीं तो सही, सारा दोष कर्ण को कैसे दे दूं. तुम भी बराबर की दोषी हो.’’

लगभग डेढ़ घंटे बाद भैया हड़बड़ाए से लौटे और बोले, ‘‘प्रोफैसर सुरेंद्र की पत्नी ने बताया कि वह तो दोपहर को ही चली गई थी.’’

‘‘वह कहां गई होगी?’’ पिताजी ने मेरी ओर देखा.

‘‘चलो भैया, वहीं दोबारा चलते हैं,’’ मैं उन के साथ निशा के घर गई. द्वारा खोला, घर साफसुथरा था, यानी वह सुबह यहां आई थी. पूरा घर छान मारा, पर निशा दिखाई न दी.

अचानक भैया बोले, ‘‘उसे कुछ हो गया तो मैं जीतेजी मर जाऊंगा. मैं ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था, ऐसा अपराध कर बैठूंगा. अब मैं कहां जाऊं?’’

सामने मेज पर एक सुंदर पुरुष की तसवीर पर ताजे फूलों का हार चढ़ा था. मैं तसवीर के नजदीक जा कर सोचने लगी कि निशा ने सच ही कहा था कि उस के पिता बहुत सुंदर थे. भैया को गलतफहमी हो गई होगी, शायद मुझे भी हो जाती.

‘‘अब क्या होगा गीता, तुम्हीं कुछ सोचो?’’ तभी भैया भी उस के पिता की तसवीर के पास आ कर बोले, ‘‘यह देखो गीता, यही तो थे.’’

मैं कुछ और ही सोचने लगी थी. चंद क्षणों बाद बोली, ‘‘भैया, निशा से शादी कर लो. यह तो सत्य ही है कि आप उस से बेहद प्यार करते हैं.’’

‘‘क्या उसे सचाई न बताऊं?’’

‘‘और कितना दुख दोगे उसे? क्या उस से बात और नहीं बिगड़ जाएगी?’’

‘‘क्या निशा के साथ एक झूठा जीवन जी पाऊंगा?’’

‘‘जीवन तो सच्चा ही होगा भैया, परंतु यह जरा सा सत्य हम चारों को सदा छिपाना पड़ेगा, क्योंकि हम उसे और किसी तरह भी अब सुख नहीं दे सकते.’’

भारी मन में हम घर लौट आए. मगर सामने ही बरामदे में निशा को देख हैरान रह गए. एक लंबे समय के बाद मैं ने उसे हंसते देखा था. सामने मेज पर कितने ही पैकेट पड़े थे. डबडबाई आंखें लिए पिताजी उसे एकटक निहार रहे थे. वह उतावले स्वर में बोली, ‘‘गीता, मुझे नौकरी मिल गई.’’

‘‘वह तो ठीक है, मगर तुम बिना हम से कुछ कहे…पता भी है, 3 घंटे से भटक रहा हूं. तुम कहां चली गई थीं?’’ भैया की डूबती सांसों में फिर से संजीवनी का संचार हो गया था.

निशा ने बताया, ‘‘12 बजे घर से निकली तो सोचा, पिताजी के विभाग से होती जाऊं. वहां पता चला कि मेरी नियुक्ति कन्या विद्यालय में हो चुकी है.’’

‘‘लेकिन अब तक तुम थीं कहां?’’ इस बार मैं ने पूछा.

‘‘बता तो रही हूं, मैं विद्यालय देखने चली गई. आज ही उन्होंने मुझे रख भी लिया. 4 बजे वहां से निकली, तब यह सामान खरीदने चली गई. यह देखो. तुम सब के लिए स्वेटर लाई हूं.’’

‘‘तुम्हारे पास इतने पैसे थे?’’ मैं हैरान रह गई.

‘‘आज घर की सफाई की तो पिताजी के कपड़ों से 10 हजार रुपए मिले. उसी दिन वेतन लाए थे न.’’

उस के समीप जा कर मैं ने उस का हाथ पकड़ा, ‘‘पिताजी की आखिरी तनख्वाह इस तरह उड़ा दी.’’

‘‘मेरे पिताजी कहीं नहीं गए. वे यहीं तो हैं,’’ उस ने मेरे पिता की ओर इशारा किया, ‘‘इस घर में मुझे सब मिल गया है. आज जब मैं देर से आई तो इन्होंने मुझे बहुत डांटा. मेरी नौकरी की बात सुन रोए भी और हंसे भी. पिताजी होते तो वे भी ऐसा ही करते न.’’

‘‘हां,’’ स्नेह से मैं ने उस का माथा चूम लिया.

‘‘बहुत भूख लगी है, दोपहर को क्या बनाया था?’’ निशा के प्रश्न पर मैं कुछ कहती, इस से पहले ही पिताजी बोल पड़े, ‘‘आज तुम नहीं थीं तो कुछ नहीं बना, सब भूखे रहे. जाओ, देखो, रसोई में. देखोदेखो जा कर.’’

निशा रसोई की तरफ लपकी. जब वहां कुछ नहीं मिला तो हड़बड़ाई सी बाहर चली आई, ‘‘क्या आज सचमुच सभी भूखे रहे? मेरी वजह से इतने परेशान रहे?’’

‘‘जाओ, अब दोनों मिल कर कुछ बना लो और इस नालायक को भी खिलाओ. इस ने भी कुछ नहीं खाया.’’

निशा ने गहरी नजरों से भैया की ओर देखा.

उस रात हम चारों ही सोच में डूबे थे. खाने की मेज पर एक वही थी, जो चहक रही थी.

‘‘बेटे, तुम्हारे उपहार हमें बहुत पसंद आए,’’ सहसा पिताजी बोले, ‘‘परंतु हम बड़े, हैं न. बच्ची से इतना सब कैसे ले लें. बदले में कुछ दे दें, तभी हमारा मन शांत होगा न.’’

‘‘जी, यह घर मेरा ही तो है. आप सब मेरे ही तो हैं.’’

‘‘वह तो सच है बेटी, फिर भी तुम्हें कुछ देना चाहते हैं.’’

‘‘मैं सिरआंखों पर लूंगी.’’

‘‘मैं चाहता हूं, तुम्हारी शादी हो जाए. मैं ने विजय के पिता से बात कर ली है. वह अच्छा लड़का है.’’

‘‘जी,’’ निशा ने गरदन झुका ली.

हम सब हैरानी से पिताजी की ओर देख रहे थे कि तभी वे बोल उठे, ‘‘झूठ नहीं कहूंगा बेटी, सोचा था तुम्हें अपनी बहू बनाऊंगा, परंतु मेरा बेटा तुम्हारे लायक नहीं है. मैं हीरे को पत्थर से नहीं जोड़ सकता. परंतु कन्यादान कर के तुम्हें विदा जरूर करना चाहता हूं. मेरी बेटी बनोगी न?’’

‘‘जी,’’ निशा का स्वर रुंध गया.

‘‘बस, अब आराम से खाना खाओ और सो जाओ,’’ मुंह पोंछ पिताजी उठ गए और पीछे रह गई प्लेट पर चम्मच चलने की आवाज.

Raksha Bandhan : तृप्त मन- भाग 2

राजन की नौकरी लगे अब 1 साल हो गया था. उस के मन में भारत आने और मातापिता से मिलने की बड़ी इच्छा हो रही थी. वह दफ्तर में 1 माह के अवकाश का आवेदन कर भारत जाने के प्रबंध में लग गया. एअरटिकट मिलते ही राजन ने भारत फोन कर के मां को बताया कि वह फलां तारीख को भारत आ रहा है.

राजन घर पहुंचा तो दबे मन से ही सही पर सब ने उस का स्वागत किया. राजन को कुछ ही सालों में सबकुछ बदलाबदला सा लग रहा था. मां पहले से कुछ कमजोर दिख रही थीं. पिताजी के बाल आधे सफेद हो गए थे और राशी? वह तो कितनी बड़ी लग रही थी. उस के सिर पर हाथ रख कर राजन ने स्नेह से कहा, ‘‘कितनी बड़ी हो गई, राशी तू? तेरे लिए ढेरों चीजें ले आया हूं.’’

राशी कुछ नहीं बोली लेकिन मां ने कहा, ‘‘अब इस के विवाह की चिंता है. जल्दी कहीं बात बन जाती तो कर के हम जिम्मेदारी से मुक्त हो लेते.’’

मां की बात सुन कर राजन को लगा कि मां उस पर कटाक्ष कर रही हैं, फिर भी राजन ने हंस कर राशी से कहा, ‘‘कहीं पसंद किया हो तो बता दे, राशी… पिताजी का ढूंढ़नेभागने का समय बच जाएगा.’’

राशी ने पलट का जवाब दिया, ‘‘मैं तुम्हारी तरह नहीं हूं, भैया, जो घर वालों की इच्छा के खिलाफ जा कर विवाह रचा लूं.’’

बहस बढ़ती देख कर मां ने दोनों को रोका और राशी से बोलीं, ‘‘बहस बंद कर और जा भाई के लिये चायनाश्ते का प्रबंध कर.’’

सरोजनी और चंद्र प्रकाश ने राजन से उस की अमेरिका में की हुई शादी के बारे में कोई बात नहीं की. वे लोग बिलकुल नहीं चाहते थे कि इतने सालों बाद बेटा घर आया है तो कोई तकरार हो. लेकिन राजन ने खुद ही बात छेड़ कर मातापिता को अपने द्वारा लिए निर्णय से अवगत कराते हुए कहा, ‘‘मां, आप कैसे सोचती हैं कि आप लोगों की इजाजत लिए बिना मैं अपनी शादी रचा लेने का साहस कर लेता…इस से तो आप लोगों की प्रतिष्ठा और ममता का अपमान होता. मैं ने निश्चय कर लिया है कि बहन की शादी के बाद ही मैं अपने विवाह के बारे में विचार करूंगा.’’

सरोजनी और चंद्र प्रकाश को बेटे की बात से बड़ी राहत मिली. उन्हें ऐसा लगा जैसे सिर पर लदा कोई बहुत बड़ा बोझ हट गया हो.

1 माह भारत में रह कर राजन अमेरिका वापस आ गया और पहले की तरह जीवन में भागदौड़ फिर शुरू हो गई. देखते ही देखते डेढ़ वर्ष कैसे गुजर गया पता ही न चला. एक दिन मां का फोन आया कि राशी की शादी तय हो गई है. लड़के का परिवार बेहद संभ्रांत है. विवाह की तारीख तय नहीं हुई है…जैसे ही तय होगी. मैं दोबारा तुझे सूचित करूंगी. तुम कम से कम 15 दिन पहले भारत जरूर आ जाना…सारा प्रबंध तुम्हें ही करना है.

शादी की तारीख का पता चलते ही राजन भारत आने की तैयारी में लग गया. राजन ने पहले ही डौली को अपनी परिवारिक समस्याओं से अवगत करा दिया था. डौली ने भी सोचा कि जब राजन के परिवार की समस्या हल हो जाएगी तभी वह विवाह बंधन में बंधेगी.

अब जब राशी की शादी तय होने की सूचना डौली को मिली तो उस ने राजन के साथ जा कर अपनी पसंद का मेकअप का सामान, कई सुंदर साडि़यां और कुछ स्वर्णाभूषण राशी के लिए खरीदे. डौली की इच्छा थी कि वह भी भारत जाए…राशी की शादी देखे. राजन ने उस की इस इच्छा को सहज भाव से मान भी लिया.

विवाह तय होने के बाद से ही सरोजनी को बेटी के बातव्यवहार में बदलाव सा महसूस होने लगा था. हमेशा खुश रहने वाली राशी अब चुपचाप व खोईखोई सी लगती थी. शादी की बात चलते ही वह नाकभौं सिकोड़ कर चली जाती तो सरोजनी ने इसे लड़कियों का स्वाभाविक संकोच मान लिया.

राशी सगाई की रस्म के लिए भी बड़ी मुश्किल से तैयार हुई थी, जबकि इस रस्म के समय जिस ने भी राशी और विशाल को एकसाथ देखा, भूरिभूरि प्रशंसा की.

गोद भराई की रस्म के दूसरे दिन सरोजनी और चंद्र प्रकाश ने राजन को सूचना भेज दी और उस के आने की प्रतीक्षा के साथसाथ विवाह की छिटपुट तैयारी में भी लग गए.

इधर बराबर राशी को परेशान और चिंतित देख कर सरोजनी ने उस से पूछा, ‘‘क्या बात है, बेटी, आजकल तुम बहुत परेशान सी दिखती हो…तबीयत तो ठीक है?’’

मां की बात सुन कर राशी चाैंक सी गई…जैसे उस की कोई चोरी पकड़ ली गई हो, फिर भी अपने को संयत कर सहज आवाज में बोली, ‘‘नहीं, मां…कोई ऐसी बात नहीं है. बस, आजकल सिर में हलकाहलका दर्द बना रहता है…’’

‘‘तो चलो, किसी डाक्टर को दिखा कर दवा ले आते हैं,’’ मां बोली थीं, ‘‘अधिक दिनों तक सिरदर्द का बना रहना ठीक नहीं है.’’

‘‘नहीं, मां…इतना तेज दर्द नहीं है कि डाक्टर के यहां जाने या दवा लेने की जरूरत पडे़…अपनेआप ठीक हो जाएगा,’’ राशी ने मां की बात को टालते हुए कहा.

यद्यपि कई बार राशी के मन में आया कि वह अपनी समस्या से मां को अवगत करा दे, लेकिन तभी दूसरी तरफ मन विरोध भी जाहिर करता, ‘तुम्हारा सोचना तो ठीक है लेकिन यह निश्चित है कि उस के बाद तुम्हारी आकांक्षा पूर्ण न हो सकेगी,’ और मन के इस दोहरे तर्क पर राशी जहां की तहां थम जाती.

विवाह के  कुल 15 दिन शेष बचे थे. उस दिन शाम तक राजन को भी आना था. राशी को लगा कि राजन के आने से पहले उसे अपना काम कर लेना चाहिए अन्यथा भैया के आ जाने पर रुकावट पड़ सकती है. भयग्रस्त मन से ही पर दूसरे दिन दोपहर तक अपना काम पूरा कर लेने का प्रबंध राशी ने कर लिया था.

कोर्ट मैरिज के लिए उस दिन साढे़ 10 बजे के आसपास पूरे इंतजाम के साथ राशी और अरशद  अपने दोस्तों के साथ कोर्ट में पहुंचे पर संयोग कुछ ऐसा बना कि उस दिन अदालत में हड़ताल हो गई और हड़ताल कब तक चलेगी यह भी पता न चल सका. राशी निराश हो कर घर लौट आई और दुखी मन से अपने कमरे में जा कर औंधे मुंह पलंग पर पड़ गई.

राजन की फ्लाइट 9 बजे ही आ गई थी पर वह डौली का इंतजाम करने में लग गया. सब से पहले तो उस ने डौली को एक अच्छे से होटल में ठहराया क्योंकि उस ने पहले ही सोच रखा था कि डौली के भारत आने की खबर वह राशी की शादी से पहले किसी को नहीं देगा. उस के रहने और  सुरक्षा का पूर्ण प्रबंध कर राजन घर आया.

Raksha Bandhan : सत्य असत्य- भाग 2

भैया गरदन नहीं उठा पाए. निशा के पिता का निधन हो चुका था. कैसे कहूं, क्याक्या बीत गया उन 3 दिनों में. मेरे पिता और भाई शव के साथ जम्मू चले गए. वहीं उन के नातेरिश्तेदार थे. पत्थर सी निशा भी साथ गई. एक अध्याय जैसे समाप्त हो गया.

कई दिनों तक घर का माहौल बोझल बना रहा. फिर धीरेधीरे सब सामान्य हो गया. परंतु भैया सामान्य नहीं हो पाए. कई बार मैं सोचती, उन से पूछूं कि उन्होंने खुद को निशा का दोषी क्यों कहा था?

लगभग 15-20 दिन बीत गए थे. एक शाम आंगन में भैया का बदलाबदला स्वर सुनाई दिया, ‘‘अरे निशा, आओ…आओ…’’

हाथ में अटैची पकड़े सामने निशा ही तो खड़ी थी. मां और पिताजी ने प्रश्नसूचक भाव से पहले मेरा मुंह देखा और फिर एकदूसरे का. मैं बढ़ कर उस का स्वागत करती, इस से पहले ही भैया ने उस के हाथ से अटैची ले ली.

‘‘आओ निशा, कैसी हो?’’ मैं ने पूछा तो वह मेरे गले से लग कर फूटफूट कर रो पड़ी.

मां और पिताजी ने उसे बड़े स्नेह से दुलारा.

थोड़ी देर बाद निशा आंसू पोंछती हुई बोली, ‘‘गीता, मेरे पिताजी को किसी ने मुझ से अलग कर दिया. पता नहीं कौन उन्हें फोन कर के यह कहता रहा कि मैं उन से छिप कर किसी से मिलती हूं. भला किसी को मुझ से क्या दुश्मनी होगी? मैं ने तो कभी किसी का बुरा नहीं चाहा. मुझे किस अपराध की सजा मिली?’’

रोतेरोते उस की हिचकी बंध गई. सहसा मेरे मन में एक सवाल उठा कि कौन था वह जिस के साथ भैया ने उसे देखा था? किसी तरह मां ने उसे शांत किया. मैं चाय, नाश्ता ले आई. भैया गुमसुम से सामने बैठ रहे.

निशा को बीएड की परीक्षाएं तो देनी ही थीं, उसी संदर्भ में उस ने पूछा, ‘‘क्या मैं कुछ दिन पेइंगगैस्ट के रूप में आप के पास रह सकती हूं? बीएड के बाद नौकरी कर लूंगी, फिर अपने घर चली जाऊंगी.’’

‘‘अरे, यह क्या कह रही हो बेटी, यह भी तुम्हारा ही घर है. पेइंगगैस्ट नहीं, मालकिन बन कर रहो,’’ पिताजी ने उस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा.

निशा के रहने की व्यवस्था मेरे कमरे में हो गई. हमारा दिनरात का साथ हो गया. वह गृहकार्य में भी दक्ष थी, सो, मां का हाथ भी बंटाती. उस का सांवला रूप मुझे लुभालुभा जाता. परंतु एक जरा सा सत्य मुझे, बस, पीड़ा पर पीड़ा देता रहता.

अपने भाई के लिए भी मैं परेशान रहती. जब से निशा आईर् थी, वे अपने कमरे में ही कैद हो गए थे. चाय, नाश्ता सब खुद ही आ कर भीतर ले जाते. हमारे बीच बैठ कर बातचीत किए जैसे उन्हें सदियां बीत गई थीं. निशा उन की तरफ से तटस्थ थी.

मैं हैरान थी, 4-5 महीने बीतने पर भी निशा ने अपने मित्र का उल्लेख एक बार भी नहीं किया था. मैं सोचती, वह भला कब और किस वक्त उस से मिलती होगी, क्योंकि हमारा तो हर पल का साथ था. कभीकभी भैया एकटक निशा को ही निहारते रहते.

बीएड की परीक्षा हो गईर् और परीक्षाफल आतेआते एक विचित्र घटना घटी. भैया अपने एक परम मित्र से निशा की शादी करवाना चाहते थे. वे बोले, ‘‘निशा, वह कल आएगा, तुम उसे देख लेना. बहुत अच्छा इंसान है. मेरे साथ ही है, बैंक में काम करता है.’’

‘‘लेकिन कर्ण भैया,’’ पहली बार निशा ने मेरे भाई को पुकारा था.

‘‘तुम्हारे पिता के अंतिम शब्द यही थे कि वे तुम्हारी सुखी गृहस्थी नहीं देख पाए. तब यह जिम्मेदारी मैं ने अपने सिर पर ली थी. विजय मेरे साथ कालेज के दिनों से है. वह उतना ही अच्छा है, जितनी अच्छी तुम हो,’’ भैया ने गंभीर स्वर में कहा.

‘‘जी,’’ अवरुद्ध कंठ से वह इतना ही कह पाई.

‘‘तुम अगर उसे पसंद कर…’’ भैया ने आगे कहना चाहा, मगर वह बीच में ही बोल पड़ी, ‘‘उस की जरूरत नहीं है. आप सब पिताजी जैसे ही माननीय हैं. आप जो करेंगे, अच्छा ही करेंगे.’’

‘‘लेकिन भैया,’’ मैं ने हौले से कहा, ‘‘निशा की भी अपनी कुछ पसंद होगी. हो सकता है उसे कोई और पसंद हो. आप अपना फैसला इस तरह इस पर क्यों थोप रहे हैं?’’

‘‘हांहां, बेटे, इस की पसंद भी तो पूछो. शादीब्याह जबरदस्ती का नहीं, प्यार का नाता होता है,’’ मेरे पिताजी बोले.

सहसा निशा रो पड़ी. फिर कुछ क्षणों के बाद बोली, ‘‘मेरी कोई पसंद नहीं है.’’

तभी मेरे मन में विचार आया कि हो सकता है, निशा ने उस पुरुषमित्र को छोड़ दिया हो. सच ही तो है, जो कभी उस का सुखदुख पूछने भी नहीं आया, वह भला कैसा प्रेमी? तब इस अवस्था में वह मेरी भाभी क्यों नहीं बन सकती.

उस रात बड़ी देर तक मुझे नींद नहीं आई. मैं ने निशा की तरफ करवट बदली, तो देखा, वह तकिए में मुंह छिपाए सुबकसुबक कर रो रही थी. पास जा कर उसे हिलाया, उस के हाथपैर काफी ठंडे थे. मैं ने घबरा कर भाई को बुलाया. हम दोनों कितनी देर तक उस के हाथपैर रगड़ते रहे. भैया ने लिहाफ ओढ़ा कर उसे बिठाया तो वह उन की छाती में मुंह छिपा कर बेतहाशा रोने लगी, ‘‘मैं ने अपने पिताजी से कभी कुछ नहीं छिपाया था. मुझे कभी कहीं भी अकेले नहीं जाने देते थे. फिर मुझे अकेली क्यों छोड़ गए? मैं सच कह रही हूं, मैं ने उन से कभी…’’

‘‘मैं जानता हूं निशा, मैं सब जानता हूं,’’ भैया ने अपने कुरते की बांह से उस की आंखें पोंछीं.

थोड़ी देर बाद बोले, ‘‘तुम निर्दोष हो निशा, तुम्हारे पिता तुम से नाराज नहीं थे. वह तो बस, यही कहते रहे कि जहां निशा चाहे, वहीं उसे…’’

‘‘मगर मैं ने चाहा ही क्या था? कुछ भी तो नहीं चाहा था…’’

रातभर भैया हमारे ही कमरे में रहे. मैं हैरान थी कि जिस निशा को वे चरित्रहीन घोषित कर चुके थे, उस पर इतना स्नेह लुटाने का क्या मतलब?

‘‘भैया, निशा के उस मित्र का पता क्यों नहीं करते?’’ मौका पाते ही मैं ने कह दिया.

भैया ने एक  बार मेरी ओर देखा अवश्य, पर बोले कुछ नहीं.,

‘‘जिस इंसान के लिए उस ने अपने पिता को खो दिया, कम से कम उसे निशा से मिलने तो आना चाहिए था न?’’

उस समय भैया नाश्ता कर रहे थे. शायद कौर गले में अटक गया था, क्योंकि उसी क्षण उन्होंने मुझ से पानी मांगा.

उस दिन निशा अपने घर गई हुईर् थी. मां बोलीं, ‘‘इस लड़की ने तो मुझे अपाहिज बना दिया है, किसी काम को हाथ ही नहीं लगाने देती. इस के जाने के बाद मैं घर का कामकाज कैसे करूंगी.’’

पिताजी बोले, ‘‘उसे यहीं रख लो, मुझे भी बहुत प्यारी लगती है.’’

तभी अनायास मैं बोल उठी, ‘‘वह किसी और को पसंद करती है. उस का ब्याह वहीं होना चाहिए, जहां वह चाहे, यह बिना सिरपैर की इच्छा उस से मत बांधो.’’

‘‘किसी और को, पर किसे? उस ने हमें तो कुछ नहीं बताया.’’

‘‘बताया तो उस ने अपने पिता को भी नहीं था. मुझे भी नहीं बताया. परंतु उस से क्या होता है. सत्य तो सत्य ही है न.’’

‘‘तुम ने उसे किसी के साथ देखा है क्या?’’ हाथ का काम छोड़ मां समीप चली आईं. वे सचमुच उसे बहू बनाने को आतुर थीं.

‘‘भैया ने देखा है. और मैं इसे बुरा भी नहीं मानती. निशा वहीं जाएगी, जहां वह चाहेगी.’’

उस समय भैया के चेहरे पर कई रंग आजा रहे थे.

‘‘ऐसी बात है तो मैं आज ही निशा से बात करता हूं,’’ पिताजी बोले.

‘‘नहीं, उस से बात मत कीजिए. वैसे, विजय भी अच्छा लड़का है.’’

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