पहचान: मां की मौत के बाद क्या था अजीम का हाल

बाढ़ राहत शिविर के बाहर सांप सी लहराती लंबी लाइन के आखिरी छोर पर खड़ी वह बारबार लाइन से बाहर झांक कर पहले नंबर पर खड़े उस व्यक्ति को देख लेती थी कि कब वह जंग जीत कर लाइन से बाहर निकले और उसे एक कदम आगे आने का मौका मिले.

असम के गोलाघाट में धनसिरी नदी का उफान ताडंव करता सबकुछ लील गया है. तिनकातिनका जुटाए सामान के साथ पसीनों की लंबी फेहरिस्त बह गई है. बह गए हैं झोंपड़े और उन के साथ खड़ेभर होने तक की जमीन भी. ऐसे हालात में राबिया के भाई 8 साल के अजीम के टूटेफूटे मिट्टी के खिलौनों की क्या बिसात थी.

खिलौनों को झोंपड़ी में भर आए बाढ़ के पानी से बचाने के लिए अजीम ने न जाने क्याक्या जुगतें की, और जब झोंपड़ी ही जड़ से उखड़ गई तब उसे जिंदगी की असली लड़ाई का पता मालूम हुआ.

राबिया ने 20 साल की उम्र तक क्याक्या न देखा. वह शरणार्थी शिविर के बाहर लाइन में खड़ीखड़ी अपनी जिंदगी के पिछले सालों के ब्योरे में कहीं गुम सी हो गई थी.

राबिया अपनी मां और छोटे भाई अजीम को पास ही शरणार्थी शिविर में छोड़ यहां सरकारी राहत कैंप में खाना व कपड़ा लेने के लिए खड़ी है. परिवार के सदस्यों के हिसाब से कंबल, चादर, ब्रैड, बिस्कुट आदि दिए जा रहे थे.

2 साल का ही तो था अजीम जब उस के अब्बा की मौत हो गई थी. उन्होंने कितनी लड़ाइयां देखीं, लड़ीं, कब से वे भी शांति से दो वक्त की रोटी को दरबदर होते रहे. एक टुकड़ा जमीन में चार सांसें जैसे सब पर भारी थीं. कौन सी राजनीति, कैसेकैसे नेता, कितने छल, कितने ही झूठ, सूखी जमीन तो कभी बाढ़ में बहती जिंदगियां. कहां जाएं वे अब? कैसे जिएं? लाखों जानेअनजाने लोगों की भीड़ में तो बस वही चेहरा पहचाना लगता है जो जरा सी संवेदना और इंसानियत दिखा दे.

पैदा होने के बाद से ही देख रही थी राबिया एक अंतहीन जिहाद. क्यों? क्यों इतना फसाद था, इतनी बगावत और शोर था?

अब्बा के पास एक छोटी सी जमीन थी. धान की रोपाई, कटाई और फसल होने के बाद 2 मुट्ठी अनाज के दाने घर तक लाने के लिए उन्हें कितने ही पापड़ बेलने पड़ते. और फिर भूख और अनाज के बीच अम्मी की ढेरों जुगतें, ताकि नई फसल होने तक भूख का निवाला खुद ही न बन जाएं वे.

इस संघर्ष में भी अम्मी व अब्बा को कभी किसी से शिकायत नहीं रही. न तो सरकार से, न ग्राम पंचायती व्यवस्था से और न जमाने से. जैसा कि अकसर सोनेहीरों में खेलने वाले लोगों को रहती है. शिकायत भी क्या करें? मुसलिम होने की वजह से हर वक्त वे इस कैफियत में ही पड़े रहते कि कहीं वे बंगलादेशी घुसपैठिए न करार दे दिए जाएं. अब्बा न चाहते हुए भी इस खूनी आग की लपटों में घिर गए.

वह 2012 के जुलाई माह का एक दिन था. अब्बा अपने खेत गए हुए थे. खेत हो या घर, हमेशा कई मुद्दे सवाल बन कर उन के सिर पर सवार रहते. ‘कौन हो?’ ‘क्या हो?’ ‘कहां से हो?’ ‘क्यों हो?’ ‘कब से हो?’ ‘कब तक हो?’

इतने सारे सवालों के चक्रव्यूह में घिरे अब्बा तब भी अमन की दुआ मांगते रहते. बोडो, असमिया लोगों की आपत्ति थी कि असम में कोई बाहरी व्यक्ति न रहे. उन का आंतरिक मसला जो भी हो लेकिन आम लोग जिंदगी के लिए जिंदगी की जंग में झोंके जा चुके थे.अब्बा खेत से न लौटे. बस, तब से भूख ने मौत के खौफ की शक्ल ले ली थी. भूख, भय, जमीन से बेदखल हो जाने का संकट, रोजीरोटी की समस्या, बच्चों की बीमारी, देशनिकाला, अंतहीन अंधेरा. घर में ही अब्बा से या कभी किसी पहचान वाले से राबिया ने थोड़ाबहुत पढ़ा था.

पागलों की तरह अम्मी को कागज का एक टुकड़ा ढूंढ़ते देखती. कभी संदूकों में, कभी बिस्तर के नीचे, कभी अब्बा के सामान में. वह सुबूत जो सिद्ध कर दे कि उन के पूर्वज 1972 के पहले से ही असम में हैं. नहीं मिल पाया कोई सुबूत. बस, जो था वह वक्त के पंजर में दफन था. अब्बा के जाने के बाद अम्मी जैसे पथरा गईर् थीं. आखिरकार 14 साल की राबिया को मां और भाई के लिए काम की खोज में जाना ही पड़ा.

कभी कहीं मकान, कभी दुकान में जब जहां काम मिलता, वह करती. बेटी की तकलीफों ने अम्मी को फिर से जिंदा होने को मजबूर कर दिया. इधरउधर काम कर के किसी तरह वे बच्चों को संभालती रहीं.

जिंदगी जैसी भी हो, चलने लगी थी. लेकिन आएदिन असमिया और अन्य लोगों के बीच पहचान व स्थायित्व का विवाद बढ़ता ही रहा. प्राकृतिक आपदा असम जैसे सीमावर्ती क्षेत्रों के लिए नई बात नहीं थी, तो बाढ़ भी जैसे उनकी जिंदगी की लड़ाई का एक जरूरी हिस्सा ही था. राबिया अब तक लाइन के पहले नंबर पर पहुंच गई थी.

सामने टेबल बिछा कर कुरसी पर जो बाबू बैठे थे, राबिया उन्हें ही देख रही थी.

‘‘कार्ड निकालो जो एनआरसी पहचान के लिए दिए गए हैं.’’

‘‘कौन सा?’’ राबिया घबरा गई थी.

बाबू ने थोड़ा झल्लाते हुए कहा, ‘‘एनआरसी यानी नैशनल रजिस्टर औफ सिटिजन्स का पहचानपत्र, वह दिखाओ, वरना सामान अभी नहीं दिया जा सकेगा. जिन का नाम है, पहले उन्हें मिलेगा.’’

‘‘जी, दूसरी अर्जी दाखिल की हुई है, पर अभी बहुतों का नाम शामिल नहीं है. मेहरबानी कर के सामान दे दीजिए. मैं कई घंटे से लाइन में लगी हूं. उधर अम्मी और छोटा भाई इंतजार में होंगे.’’

मिलने, न मिलने की दुविधा में पड़ी लड़की को देख मुहरवाले कार्डधारी पीछे से चिल्लाने लगे और किसी डकैत पर टूट पड़ने जैसा राबिया पर पिल पड़ते हुए उसे धकिया कर निकालने की कोशिश में जुट गए. राबिया के लिए जैसे ‘करो या मरो’ की बात हो गई थी. 2 जिंदगियां उस की राह देख रही थीं. ऐसे में राबिया समझ चुकी थी कि कई कानूनी बातें लोगों के लिए होते हुए भी लोगों के लिए ही तकलीफदेह हो जाती हैं.

बाबू के पीछे खड़े 27-28 साल के हट्टेकट्टे असमिया नौजवान नीरद ने राबिया को मुश्किल में देख उस से कहा, ‘‘आप इधर अंदर आइए. आप बड़े बाबू से बात कर लीजिए, शायद कुछ हो सके.’’

राबिया भीड़ के पंजों से छूट कर अंदर आ गई थी. लोग खासे चिढ़े थे. कुछ तो अश्लील फब्तियां कसने से भी बाज नहीं आ रहे थे. राबिया दरवाजे के अंदर आ कर उसी कोने में दुबक कर खड़ी हो गई.

नीरद पास आया और एक मददगार की हैसियत से उस ने उस पर नजर डाली. दुबलीपतली, गोरी, सुंदर, कजरारी आंखों वाली राबिया मायूसी और चिंता से डूबी जा रही थी. उस ने हया छोड़ मिन्नतभरी नजरों से नीरद को देखा.

नीरद ने आहिस्ते से कहा, ‘‘सामान की जिम्मेदारी मेरी ही है, मैं राहत कार्य निबटा कर शाम को शिविर आ कर तुम्हें सामान दे जाऊंगा. तुम अपना नाम बता दो.’’

राबिया ने नाम तो बता दिया लेकिन खुद की इस जिल्लत के लिए खुद को ही मन ही मन कोसती रही.

नीरद भोलाभाला, धानी रंग का असमिया युवक था. वह गुवाहाटी में आपदा नियंत्रण और सहायता विभाग में सरकारी नौकर था. नौकरी, पैसा, नियम, रजिस्टर, सरकारी सुबूतों के बीच भी उस का अपना एक मानवीय तंत्र हमेशा काम करता था. और इसलिए ही वह मुश्किल में पड़े लोगों को अपनी तरफ से वह अतिरिक्त मदद कर देता जो कायदेकानूनों के आड़े आने से अटक जाते थे.

उस ने राबिया से कहा, ‘‘अभी मैं तुम्हें यहां से सामान दे दूं तो नैशनल रजिस्टर में नाम दर्ज का अलग ही बखेड़ा खड़ा होगा. तुम्हारे परिवार का नाम छूटा है इस पहचान रजिस्टर में.’’

‘‘क्या करें, हम भी उन 40 लाख समय के मारों में शामिल हैं, जिन के सरकारी रजिस्टर में नागरिक की हैसियत से नाम दर्ज नहीं हैं. अब्बा नहीं हैं. जिंदगी जीने के लाले पड़े हुए हैं. नाम दर्ज करवाने के झमेले कैसे उठाएं?’’

‘‘ठीक है, तुम लोग पास ही के सरकारी स्कूल में बने शरणार्थी शिविरों में रह रहे हो न. मैं काम खत्म कर के 6 बजे तक सामान सहित वहां पहुंच जाऊंगा. तुम फिक्र न करो, मैं जरूर आऊंगा?’’

शिविर में आ कर राबिया की आंखें घड़ी पर और दिल दरवाजे पर अटका रहा. 2 कंबल, चादर और खानेपीने के सामान के साथ नीरद राबिया के पास पहुंच चुका था.

अम्मी तो धन्यवाद करते बिछबिछ जाती थीं. राबिया ने बस एक बार नीरद की आंखों में देखा. नीरद ने भी नजरें मिलाईं. क्या कुछ अनकहा सा एकदूसरे के दिल में समाया, यह तो वही जानें, बस, इतना ही कह सकते हैं कि धनसिरी की इस बाढ़ ने भविष्य के गर्भ में एक अपठित महाकाव्य का बीज ला कर रोप दिया था.

शरणार्थी शिविर में रोज का खाना तो दिया जाता था लेकिन नैशनल रजिस्टर औफ सिटिजन्स में जिन का नाम नहीं था, बिना किसी तकरार के वे भेदभाव के शिकार तो थे ही, इस मामले में आवाज उठाने की गुंजाइश भी नहीं थी क्योंकि स्थानीय लोगों की मानसिकता के अनुरूप ही था यह सबकुछ.

बात जब गलतसही की होती है, तब यह सुविधाअसुविधा और इंसानियत पर भी रहनी चाहिए. लेकिन सच यह है कि लोगों की तकलीफों को करीब से देखने के लिए हमेशा एक अतिरिक्त आंख चाहिए होती है.

बेबसी, अफरातफरी, इतिहास की खूनी यादें, बदले की झुलसाती आग, अपनेपरायों का तिकड़मी खेल और भविष्य की भूखी चिंता. राबिया के पास इंतजार के सिवा और कुछ न था.

नीरद जबजब आ जाता, राबिया, अजीम और उन की अम्मी की सांसें बड़ी तसल्ली से चलने लगतीं, वरना वही खौफ, वही बेचैनी.

राबिया नीरद से काफीकुछ कहना चाहती, लेकिन मौन रह जाती. हां, जितना वह मौन रहती उस का अंतर मुखर हो जाता. वह रातरातभर करवटें लेती. भीड़ और चीखपुकार के बीच भी मन के अंदर एक खाली जगह पैदा हो गई थी उस के. राबि?या के मन की उस खाली जगह में एक हरा घास का मैदान होता, शाम की सुहानी हवा और पेड़ के नीचे बैठा नीरद. नीरद की गोद में सिर रखी हुई राबिया. नीरद कुछ दूर पर बहती धनसिरी को देखता हुआ राबिया को न जाने प्रेम की कितनी ही बातें बता रहा है. वह नदी, हां, धनसिरी ही है. लेकिन कोई शोर नहीं, बदला नहीं, लड़ाई और भेदभाव नहीं. सब को पोषित करने वाली अपनी धनसिरी. अपनी माटी, अपना नीरद.

आज शाम को किराए के अपने मकान में लौटते वक्त आदतानुसार नीरद आया. नीरद के यहां आते अब महीनेभर से ऊपर होने को था.

राबिया एक  कागज का टुकड़ा झट से नीरद को पकड़ा उस की नजरों से ओझल हो गई.

अपनी साइकिल पर बैठे नीरद ने कागज के टुकड़े को खोला. असमिया में लिखा था, ‘‘मैं असम की लड़की, तुम असम के लड़के. हम दोनों को ही जब अपनी माटी से इतना प्यार है तो मैं क्या तुम से अलग हूं? अगर नहीं, तो एक बार मुझ से बात करो.’’

नीरद के दिल में कुछ अजीब सा हुआ. थोड़ा सा पहचाना, थोड़ा अनजाना. उस ने कागज के पीछे लिखा, ‘‘मैं तुम्हारी अम्मी से कल बात करूंगा?’’ राबिया को चिट्ठी पकड़ा कर वह निकल गया.

चिट्ठी का लिखा मजमून पढ़ राबिया के पांवों तले जमीन खिसक गई. ‘‘पता नहीं ऐसा क्यों लिखा उस ने? कहीं शादीशुदा तो नहीं? मैं मुसलिम, कहीं इस वजह से वह गुस्सा तो नहीं हो गया? क्या मैं ने खुद को असमिया कहा तो बुरा मान गया वह? फिर जो भी थोड़ाबहुत सहारा था, छिन गया तो?’’

राबिया का दिल बुरी तरह बैठ गया. बारबार खुद को लानत भेज कर भी जब उस के दिल पर ठंडक नहीं पड़ी तो अम्मी के पास पहुंची. उन्हें भरसक मनाने का प्रयास किया कि वे तीनों यहां से चल दें. जो भी हो वह नीरद को अम्मी से बात करने से रोकना चाहती थी.

अम्मी बेटी की खुद्दारी भी समझती थीं और दुनियाजहान में अपने हालात भी, कहा, ‘‘बेटी, बाढ़ से सारे रास्ते कटे पड़े हैं. कोई ठौर नहीं, खाना नहीं, फिर जिल्लत जितनी यहां है, उस से कई गुना बाहर होगी. जान के लाले भी पड़ सकते हैं. नन्हे अजीम को खतरा हो सकता है. तू चिंता न कर, मैं सब संभाल लूंगी.’’

शाम को कुछ रसद के साथ नीरद हाजिर हुआ और सामान राबिया को पकड़ा कर अम्मी के पास जा बैठा. अम्मी का हाथ अपने हाथों में ले कर उस ने कहा, ‘‘राबिया की वजह से आप से और अजीम से जुड़ा. अब मैं सचमुच यह चाहता हूं कि आप तीनों मेरे साथ गुवाहाटी चलें. जब मेरा यहां का काम खत्म हो जाए तब मैं आप सब से हमेशा के लिए बिछुड़ना नहीं चाहता. गुवाहाटी में मैं राबिया को एक एनजीओ संस्था में नौकरी दिलवा दूंगा. अजीम का दाखिला भी स्कूल में हो जाएगा. आप सिलाई वगैरह का कोई काम देख लेना. और रहने की चिंता बिलकुल न करिए. वहां हमारा अपना घर है. आप को किसी चीज की कोई चिंता न होने दूंगा.’’

राबिया की तो जैसे रुकी हुई सांस अचानक चल पड़ी थी. बारिश में लथपथ हवा जैसे वसंत की मीठी बयार बन गई थी. अम्मी ने नीरद के गालों को अपनी हथेलियों में भर कर कहा, ‘‘बेटा, जैसा कहोगे, हम वैसा ही करेंगे. अब तुम्हें हम सब अपना ही नहीं, बल्कि जिगर का टुकड़ा भी मानते हैं.’’

अजीम यहां से जाने की बात सुन नीरद की पीठ पर लद कर नीरद को दुलारने लगा. नीरद ने राबिया की ओर देखा. राबिया मारे खुशी के बाहर दौड़ गई. वह अपनी खुशी की इस इंतहा को सब पर जाहिर कर शर्मसार नहीं होना चाहती थी जैसे.

महीनेभर बाद वे गुवाहाटी आ गए थे. नीरद के दोमंजिला मकान से लगी खाली जगह में एक छोटा सा आउटहाउस किस्म का था, शायद माली आदि के लिए. छत पर ऐसबेस्टस था. लेकिन छोटा सा 2 कमरे वाला हवादार मकान था. बरामदे के एक छोर पर रसोई के लिए जगह घेर दी गई थी. वहां खिड़की थी तो रोशनी की भी सहूलियत थी. पीछे छोटा सा स्नानघर आदि था. एक अदद सूखी जमीन पैर रखने को, एक छत सिर ढांपने को, बेटी राबिया की एनजीओ में नौकरी, अजीम का सरकारी स्कूल में दाखिला और खुद अम्मी का एक टेलर की दुकान पर सिलाई का काम कर लेना- इस से ज्यादा उन्हें चाहिए भी क्या था.

पर बात यह भी थी कि उन के लिए इतना पाना ही काफी नहीं रहा. नैशनल रजिस्टर औफ सिटिजन्स का सवाल तलवार बन कर सिर पर टंगा था. अगर जी लेना इतना आसान होता तो लोग पीढ़ी दर पीढ़ी एक आशियाने की तलाश में दरबदर क्यों होते? क्यों लोग अपनी कमाई हुई रोटी पर भी अपना हक जताने के लिए सदियों तक लड़ाई में हिस्सेदार होते? नहीं था इतना भी आसान जीना.

अभी 3-4 दिन हुए थे कि नीरद की मां आ पहुंची उन से मिलने. राबिया की मां ने सोचा था कि वे खुद ही उन से मिलने जाएंगी, लेकिन नीरद ने मना कर दिया था. जब तक वे दुआसलाम कर के उन के बैठने के लिए कुरसी लातीं, नीरद की मां ने तोप के गोले की तरह सवाल दागने शुरू किए.

‘‘नीरद ढंग से बताता कुछ नहीं, आप लोग हैं कौन? धर्मजात क्या है आप की? आप की बेटी रोज कहां जाती है? नीरद ने किराया कुछ बताया भी है या नहीं? हम ने यह घर माली के लिए बनवाया था. अब जब तक आप लोग हो, मेरा बगीचा फिर से सही कर देना. वैसे, हो कब तक आप लोग?’’

अम्मी ने हाथ जोड़ दिए, कहा, ‘‘दीदी, नीरद बड़ा अच्छा बच्चा है. बाढ़ में हमारा घरबार सब डूब गया. समय थोड़ा सही हो जाए, चले जाएंगे.’’

सिर से पांव तक राबिया की अम्मी को नीरद की मां ने निहारा और कहा, ‘‘घरवालों के सीने में मूंग दल कर बाहर वालों पर रहमकरम कर रहा है, अच्छा बच्चा तो होगा ही.’’

नीरद की मां का इस तरह बोल कर निकल जाना अम्मी को काफी मायूस कर गया. अब चोरों की तरह अपनी ही नजरों से खुद को छिपाना भारी हो गया था. हमेशा बस यही डर कि किसी को पता न लग जाए कि वे सरकारी लिस्ट के बाहर के लोग हैं. जाने कितनी पुश्तों से इस माटी में रचेबसे अब अचानक खुद को घुसपैठिए सा महसूस करने लगे हैं. जैसे धरती पर बोझ. जैसे चोरी की जिंदगी छिपाए नहीं छिप रही.

भरोसा उन्हें इस अनजान धरती पर भले ही नीरद का था, लेकिन काम के सिलसिले में वह भी तो अकसर शहर से बाहर ही रहता. इस घटना को अभी 4-5 दिन बीते होंगे. नीरद अभी भी शहर से बाहर ही था और दूसरे दिन आने वाला था. राबिया ने शाम को अपनी रसोई की खिड़की से एक साया सा देखा. वह साया एक पल को खिड़की के सामने रुक कर तुरंत हट गया.

उस रात थोड़ा डर कर भी वह शांत रह गई, किसी से कुछ नहीं कहा. नीरद दूसरे दिन घर वापस आया और उन से मिला भी, लेकिन बात आईगईर् हो गई. नीरद 3 दिनों बाद फिर शहर से बाहर गया. शाम को रसोई की खिड़की के बाहर राबिया ने फिर एक आकृति देखी. एक पल रुक कर वह आकृति सामने से हट गई. राबिया दौड़ कर बाहर गई. कोई नहीं था. राबिया पसोपेश में थी. अम्मी खामख्वाह परेशान हो जाएंगी. यह सोच कर वह बात को दबा गई.

हां, राबिया को इन सब से छुट्टी नहीं मिली. खिड़की, एक आकृति, इन सब का डर और फिर बाहर झपटना और कुछ न देख पाना. राबिया मानसिक रूप से लगातार टूट रही थी.

अगले हफ्ते नीरद वापस आया तो उसे सारी बातें बताने की सोच कर भी वह डर कर पहले चुप रह गई.

दरअसल, राबिया का डर लाजिमी था. एक तो नीरद ने उन दोनों के आपसी रिश्ते पर अब तक बात नहीं की थी, दूसरे, अम्मी और अजीम की जिंदगी राबिया की किसी गलती की वजह से अधर में न लटक जाए. दरअसल, राबिया तो अब तक नीरद की चुप्पी देख खुद के एहसासों को भी खत्म कर लेने का जिगर पैदा कर चुकी थी.

खिड़की पर रोजरोज किसी का दिखना कोई छोड़ा जाने वाला मसला नहीं लगा राबिया को और उस ने हिम्मत कर ही ली कि नीरद को सारी बातें बताई जाएं.

नीरद समझदार था. उसे अंदेशा हुआ कि हो न हो कोई राबिया के लिए ही आता हो. गिद्दों की नजर पड़ने में देर ही कहां लगती है. एक परिवार को वह खुद के भरोसे उन की जमीन से उखाड़ लाया है. क्या वह राबिया के लिए कोई जिम्मेदारी महसूस करता है? क्या यह सिर्फ जिम्मेदारी ही है?

अजीम बाहर खेल रहा था, और अम्मी टेलर की दुकान से अभी तक नहीं लौटी थीं. नीरद को यह सही वक्त लगा. उस ने राबिया से कहा, ‘‘राबिया, मैं तुम से एक बात पूछना चाहता हूं.’’

राबिया की धड़कनें धनसिरी के उफानों से भी तेज चलने लगीं. आशानिराशा के बीच डोलती उस की आंखों की पुतलियां भरसक स्थिर होने की कोशिश में लगीं नीरद की आंखों से जा टकराईं.

नीरद ने कहा, ‘‘राबिया, तुम्हारा नाम मुझे लंबा लगता है, मैं तुम्हें ‘राबी’ कह कर बुलाना चाहता हूं. इजाजत है?’’

‘‘है, है, सबकुछ के लिए इजाजत है.’’

राबिया का दिल खुशी के मारे मन ही मन बल्लियों उछल पड़ा. मगर शर्मीली राबिया बर्फ की मूरत बनी एक ही जगह शांत खड़ी रही और जमीन की ओर देखती स्वीकृति में बस सिर ही हिला सकी.

नीरद ने धीरे से पूछा, ‘‘तुम्हारी पसंद में कोई लड़का है जिस से तुम शादी कर सको? मुझे बता दो, यहां मैं ही तुम सब का अपना हूं?’’

‘इस की बातें किसी पराए की तरह चुभती हैं. कभी इस ने मेरे मन को टटोलने की कोशिश नहीं की. जबकि मैं न जाने इसे कब से अपना सबकुछ…’ राबिया आक्रोश पर काबू नहीं रख सकी और नीरद के सामने अपनेआप को जैसे पूरा खोल कर रख दिया अचानक, ‘‘चूल्हे में जाए

तुम्हारा अपनापन. आठों पहर दिल में कुढ़ती हूं, आंखों का पानी अब तेजाब बन गया है. अब सब्र नहीं मुझ में.’’

नीरद नजदीक आ कर उस की दोनों बांहें पकड़ उस की आंखों की गहरी झील में उतरता रहा. कितनी सीपियां यहां मोती छिपाए पड़ी हैं. वह कितना बेवकूफ था जो झिझकता ही रह गया.

राबिया प्रेम समर्पण और लज्जा से थरथरा उठी. धीरेधीरे वह नीरद के बलिष्ठ बाजुओं के घेरे में खुद को समर्पित कर उस के सीने से जा लगी.

नीरद ने उस पर अपनी पकड़ मजबूत करते हुए पूछा, ‘‘शादी करोगी मुझ से?’’

‘‘पर कैसे? तुम कर पाओगे? मेरा तो कोई नहीं, लेकिन तुम्हारा परिवार और समाज?’’

‘‘तुम प्यार करती हो न मुझ से?’’

‘‘क्या अब और भी कुछ कहना पड़ेगा मुझे?’’

‘‘फिर तुम मेरी हो चुकी, राबी. कोईर् इस सच को अब झुठला नहीं सकता.’’

नीरद के मन की हूर अब नीरद के लिए सच बन कर जमीन पर उतर चुकी थी. लेकिन इस सच को परिवार और समाज की जड़बुद्धि को कुबूल करवाना कोई हंसीखेल नहीं था.

असम के ग्रामीण इलाकों में बाढ़ का प्रकोप कुछ कम हुआ तो एनआरसी यानी नैशनल रजिस्टर औफ सिटीजन्स का प्रकरण फिर शुरू हुआ.

राबिया का परिवार अपना घरबार, जमीन खो कर जड़ से कट चुका था. अभी के हालात में दो जून की रोटी और अमन से जीने की हसरत इतनी माने रखती थी कि अम्मी और राबिया फिर से उसी पचड़े में नहीं पड़ना चाहती थीं.

इधर, नीरद चाहता था कि एनआरसी की दूसरी लिस्ट में उन का नाम आ जाए. अभी नीरद इसी मामले में बात कर अपने घर की सीढि़यों से ऊपर चढ़ा ही था, और बाहर तक उसे छोड़ने आई राबिया अपने घर की तरफ मुड़ी ही थी, कि शाम के धुंधलके वाले सन्नाटे में कोई राबिया का मुंह झटके से अपने हाथों में दबा, तेजी से पीछे जंगल की ओर घसीट ले गया. वह इतनी फुरती में था कि राबिया को संभलने का मौका न मिला.

राबिया के घर के पीछे घनी अंधेरी झाडि़यों में ले जा कर उस ने राबिया को जमीन पर पटक दिया और उस के सीने पर बैठ गया. उस के चेहरे के पास अपना चेहरा ले जा कर अपना मोबाइल औन कर के उस ने अपना चेहरा दिखाया और शैतानी स्वर में पूछा, ‘‘पहचाना?’’

राबिया घृणा और भय से सिहर उठी. उस ने अपना चेहरा राबिया के चेहरे के और करीब ला कर फुसफुसा कर कहा, ‘‘जो सोचा भी नहीं जा सकता वह कभीकभी हो जाता है. अब तुम्हारे सामने 3 विकल्प हैं. पहला, तुम रोज रात को इसी जगह मेरी हसरतें पूरी करो चाहे नीरद से रिश्ता रखो. दूसरा, अपने परिवार को ले कर चुपचाप यहां से चली जाओ, किसी से बिना कुछ कहे, नीरद से भी नहीं. अंतिम विकल्प, मुझ से बगावत करो, इसी घर में रहो, नीरद को फांसो और अंजाम भुगतने के लिए तैयार रहो.

‘‘वैसे, अंजाम भी सुन ही लो. 3 जिंदगियां खतरे में होंगी. नीरद, अजीम और तुम्हारी अम्मी की. हां, तुम्हें आंच नहीं आने दूंगा जानेमन. तुम तो मेरी हसरतों की आग में घी का काम करोगी.’’

सन्नाटे पर चोट सी पड़ती उस की खूंखार आवाज से बर्फ सी ठंडी पड़ चुकी राबिया दहल गई थी. उस के शरीर को अश्लील तरीके से छूता हुआ वह परे हट बैठा और अपनी कठोर हथेली में उस के गालों को भींच कर बोला, ‘‘देखा, मैं कितना शानदार इंसान हूं. मैं तुम्हें आसानी से हासिल कर सकता था, लेकिन मैं चाहता हूं तुम खुद को खुद ही मुझे सौंपो. जैसे सौंपोगी नीरद को. उफ, वह क्या मंजर होगा. तुम मेरी आगोश में होगी- और वह पल, नीरद के साथ धोखा… कयामत आएगी उस पर.

‘‘लगेहाथ यह भी बता दूं, नीरद की शादी तय हो गई है, खानदानी लड़की से, सरकारी लिस्ट वाली.’’

राबिया बेहोशी सी हालत में घर पहुंची तो यथासंभव खुद को संभाले रही और नीरद के साथ बाहर चले जाने का बहाना बना दिया. लड़की जात ही ऐसी होती है, ड्रामेबाज. कभी मां से, कभी प्रेमी, पति, भाई या पिता से झूठ बोलती ही रहती है. अपना दर्द छिपाती है, डर छिपाती है ताकि अपने निश्चित रहें, शांत और खुश रहें.

सुबह हुई तो राबिया को फिर शाम का डर सताने लगा. इतने में नीरद आ गया. उस का व्यवहार उखड़ा सा था. आते ही वह कह पड़ा, चलो, अब और नहीं रुकूंगा. रजिस्ट्री मैरिज के लिए आज ही आवेदन दे दूंगा.’’

राबिया सकते में थी. ‘‘इतनी जल्दी? सब मानेंगे कैसे?’’ फिर रजिस्ट्री होगी कैसे? वह तो सब की नजर में घुसपैठिया है.

कागज का टुकड़ा जाने कब कहां किस बाढ़ में बह गया. वे तो बेगाने ही हो गए. नीरद ने अम्मी के पांव छू लिए. कहा, ‘‘अम्मी, आप बस आशीर्वाद दे दो, बाकी मैं संभाल लूंगा. रात को घर में मां और भाई ने खूब हंगामा किया.

‘‘मां ने मेरी शादी एक नामी खानदानी परिवार में तय कर रखी है. मोटी रकम देंगे वे. मुझे कल रात यह बात पता चली. मेरे पिता की मृत्यु के बाद से मैं ही घर की जिम्मेदारी उठा रहा हूं. पिता की पैंशन से मां मनमाना खर्च करती हैं और 32 साल के मेरे निकम्मे बड़े भाई को दे देती हैं. बड़ा भाई पहली शादी से तलाक ले कर आवारागर्दी करता है. पार्टी से जुड़ा है और पार्टी फंड के नाम पर उगाही कर के जेब गरम करता है. अब इन दोनों का मेरी निजी जिंदगी में दखल मैं कतई बरदाश्त नहीं करूंगा.’’

राबिया के दिल में तूफान उठा. वह अपने साथ हुए उस भयानक हादसे को जेहन में रोक कर न रख सकी. आंसुओं का सैलाब उमड़ पड़ा, ‘‘नीरद,’’ कहते हुए उस की हिचकियां बंध गईं. अम्मी अजीम को ले कर बाहर चली गईं.

नीरद पास आ गया था. उस की आंखों में बेइंतहा प्रेम और हाथों में अगाध विश्वास का स्पर्श था. उस ने पूछा, ‘‘क्या हुआ है, राबी? बताओ मुझे. शायद कहीं मेरा अंदेशा तो सही नहीं? तुम ही बताओ राबी?’’

‘‘तुम्हारा बड़ा भाई,’’ सिर झुकाए हुए आंसुओं की धार में राबिया के सारे मलाल बाहर निकल आए. नीरद को गुस्से में होश न रहा, चिल्ला कर पूछा, ‘‘क्या कर दिया कमजर्फ ने?’’

राबिया सकते में आ गई. नीरद के हाथ पकड़ कर विनती के स्वर में कहा, ‘‘कुछ कर नहीं पाया, मगर जंगल में खींच कर ले गया था मुझे.’’ बाकी बातें सुनते ही नीरद आपे से बाहर हो गया, कहा, ‘‘चलो थाने, रिपोर्ट लिखाएंगे.’’

‘‘आप के परिवार की इज्जत?’’

‘‘तुम्हारे दुख से बड़ी नहीं. क्या तुम ने उस का चेहरा देखा था? उस ने जैसा तुम्हें धमकाया था, वैसा वाकई कर दिखाया?’’

‘‘साफसाफ देखा मैं ने उसे. वह खुद चाहता था कि मैं उसे पहचानूं, खौफ खाऊं.’’

नीरद उन तीनों को ले कर थाने तो गया लेकिन वहां उन की नागरिकता के प्रश्न पर उन्हें जलील ही होना पड़ा. पुलिस वालों ने कहा, ‘‘तब तो पहले एनआरसी में नाम दर्ज करवाओ, फिर यहां आओ. जब हमारे यहां के नागरिक हो ही नहीं, तो हमें क्या वास्ता?’’

न्याय, अन्याय और सुखदुख की मीमांसा अब इंसानियत के हाथों में नहीं थी. बाध्य हो कर नीरद ने अपने कद्दावर दोस्त माणिक का सहारा लिया. वह एक सामाजिक संस्था का मुखिया था और समाज व राजनीतिक जीवन में उस की गहरी पैठ थी.

उस ने उन लोगों को शरण भी दी और देखभाल का जिम्मा भी लिया. नीरद भी कुछ दिन माणिक के घर से औफिस आनाजाना करता रहा.

इस बीच, नीरद ने अपने बड़े भाई की हरकतों का उस की ही पार्टी के राज्य हाईकमान से शिकायत की और उसे काबू में रखने का इशारा करते हुए उन की पार्टी की बदनामी का जिक्र किया. हाईकमान को बात समझ आ गई. उसी शाम जब वह फिर राबिया को तहसनहस करने के मंसूबे बांध उस के खाली घर के पास बिना कुछ जाने मंडरा रहा था. पार्र्टी हाईकमान के गुर्गों ने राबिया के घर के पीछे की झाडि़यों में ले जा कर उस की सारी हसरतें पूरी कर दीं. साथ ही, हाईकमान का आदेश भी सुना दिया, ‘पार्टी बदनाम हुई तो वह जिंदा नहीं बचेगा.’

इधर, यह कहानी यहां रुक तो गई, लेकिन नीरद की जिंदगी की नई कहानी कैसे शुरू हो? रजिस्ट्री तो तब होगी जब राबिया खुद को असम की लड़की साबित कर पाएगी.

पर क्या नीरद का प्रेम इन बातों का मुहताज है? जब उस ने धर्मजाति नहीं देखी तो अब नागरिकता पर अपने प्रेम की बलि चढ़ा दे?

प्रेम तो मासूम तितली सा नादान, दूसरों के दर्द, दूसरों की खुशी का वाहक  है जैसे परागकणों को तितलियां ले जाती हैं एक से दूसरे फूलों में.

नीरद ने अपना तबादला दिसपुर कर देने की अर्जी लगाई. भले ही वहां काम ज्यादा हो, लेकिन राबिया को नजदीक पाने के लिए वह कुछ ज्यादा भी मेहनत कर लेगा.

सच कहते हैं, भला मानुष कभी अकेला नहीं पड़ता. चार दुश्मन अगर उस के हों भी, सौ दोस्त भी उस के हर सुखदुख में साथ होते हैं. नीरद भी ऐसा ही था. ज्यादातर वह लोगों से मदद लेता कम था, देता अधिक था. औफिस के सारे स्टाफ वाले उस की अच्छाई के कायल थे. इसलिए कानून भले ही अड़ंगा था, मगर इंसानों ने इंसानियत का तकाजा अपने कंधों पर संभाल लिया था. नीरद और राबिया के प्यार की मासूमियत को सभी दिल से महसूस कर रहे थे और औफिस में फाइलें आगे बढ़ाते हुए उस के दिसपुर स्थानांतरण की राह प्रशस्त कर दी थी.

दिसपुर पहुंच कर नीरद और नीरद की राबी ने गुवाहाटी और दिसपुर के कुछ लोगों के सामने एकदूसरे को अपना बना लिया.

देश अभी भी बड़ी अफरातफरी में था. इंसानों पर जाति, धर्म और नागरिकता के टैग लगाने की बड़ी रेलमपेल लगी थी. इधर, नीरद और राबी ने दुनिया की रीत पर लिख दी अपने प्यार की पहचान. इंसान की सब से बड़ी पहचान राबी और उस के परिवार को मिल गई थी.

उफ्फ ये पति और समोसा: शादी के बाद एक पत्नी की कहानी

सलोनी की शादी के लिए सब उस के पीछे पड़े थे कि समय से होनी चाहिए नहीं फिर अच्छा पति नहीं मिलेगा…

सलोनी ने सारे व्रतउपवास कर लिए. अब इंतजार था कि कोई राजकुमार आएगा और उसे घोड़े पर बैठा कर ले जाएगा और जिंदगी हो जाएगी सपने जैसी. प्रतीक्षा को विराम लगा. आ गए राजकुमार साहब घोड़े पर तो नहीं पर कार पर चढ़ कर आ गए.

हां तो शादी के पहले का हाल भी बताना जरूरी है. सगाई के बाद ही सलोनी को ये राजकुमार साहब लगे फोन करने. घंटो बतियाते, चिट्ठी भी लिखतेलिखाते. सलोनी के तो पौ बारह, पढ़ालिखा बांका जवान मुंडा जो मिल गया था… शादी धूमधाम से हुई. सलोनी की मुसकान रोके नहीं रुक रही थी.

राजकुमार साहब भी शुरुआत में हीरो की माफिक रोमांटिक थे पर पति बनते ही दिमाग चढ़ गया 7वें आसमान पर ‘मैं पति हूं.’ सलोनी भी भौचक्का कि इन महानुभाव को हुआ… क्या अभी तक तो बड़े सलीके से हंसतेमुसकराते थे जनाब, लेकिन पति बनते ही नाकभौं सिकोड़ कर बैठ गए. प्रेम के महल में हुक्म की इंतहा यह बात कुछ हजम नहीं हुई पर शादी की है तो हजम करनी ही पड़ेगी तो सलोनी ने अपना पूरा हाजमा ठीक किया.

मगर पति को यह कैसे बरदाश्त कि पत्नी का हाजमा सही हो रहा है कुछ तो करना पड़ेगा वरना पति बनने का क्या फायदा.

‘‘कपड़े क्यों नहीं फैलाए अभी तक… मशीन में सड़ जाएंगे,’’ पति महाशय ने अपना भोंपू फूंका.

सलोनी ने सहम कर कहा, ‘‘भूल गई थी.’’

‘‘कैसे भूल गई फेसबुक, व्हाट्सऐप, किताबें याद रहती हैं… यह कैसे भूल गई.’’

‘अब भूल गई तो भूल गई. भूल सुधार ली जाएगी,’ सलोनी ने मन में कहा.

‘‘भूलना कितनी बड़ी गलती, अब जाओ कोई काम मत करना मेरा मैं खुद कर लूंगा,’’ पति महाशय ने ऐलान कर दिया.

‘ठीक है जनाब कर लो बहुत अच्छा. ऐसे भी मुझे कपड़े फैलाने पसंद नहीं,’ सलोनी ने मन में सोचा.

पति महाशय ने मुंह फुला लिया… अब बात नहीं करेंगे. बात नहीं करेंगे तो वह भी कुछ घंटे नहीं बल्कि पूरे 3-4 दिन नहीं करेंगे… इतनी बड़ी भूल जो कर दी सलोनी ने. अब सलोनी का हाजमा कहां से ठीक हो. अब तो ऐसिडिटी होनी ही है, फिर सिरदर्द.

एक बार सलोनी पति महाशय के औफिस के टूअर पर साथ आई थी. पति महाशय ने रात को गैस्टहाउस के कमरे में साबुन मांगा. सलोनी ने साबूनदानी पकड़ाई पर यह क्या उस में तो छोटा सा साबुन का टुकड़ा था. पति महाशय का गुस्सा 7वें आसमान पर… बस पूरा 1 हफ्ता बात नहीं की. औफिस के टूअर में घूमने आई सलोनी की घुमाई गैस्टहाउस में ही रह गई… इतनी बड़ी भूल जो कर दी थी.

उस के बाद से सलोनी कभी साबुन ले जाना नहीं भूली.

पति महाशय ने इसी में गर्व से सीना तान लिया कि सलोनी की इतनी बड़ी गलती जो उन्होंने सुधार दी. सलोनी ने भी सोचा कि पति के इस तरह मुंह फुलाने की गलती को सुधारा जाए पर पति कहां सुधरने वाले. उन का मुंह गुब्बारे जैसा फूला तो जल्दी पिचकेगा नहीं, आखिर पति हैं न.

सलोनी एक बार घूमने गई थी बड़े शौक से. पति महाशय ने ऊंची एड़ी के सैंडल खरीदे. सलोनी सैंडल पहन कर ज्यों ही घूमने निकली ऊंची एड़ी का एक सैंडल गया टूट और पति महाशय गए रूठ. उस पर से ताना भी मार दिया, ‘‘कभी इतनी ऊंची एड़ी के सैंडल पहने नहीं तो खरीदे क्यों? अब चलो बोरियाबिस्तर समेट वापस चलो.’’

सलोनी हो गई हक्काबक्का… इतनी सी बात पर इतना बवाल… आखिर सैंडल का ही तो था सवाल दूसरे ले लेंगे. नहीं तो नहीं… एक बार पति महाशय का मुंह तिकोना हो गया तो सीधा होने में समय लगता है पर सलोनी को भी ऐसे आड़ेतिरछे सीधा करना खूब आता है. सौरी बोल कर मामला रफादफा किया और पति महाशय को घुमाघुमा के घुमा लिया.

कभीकभी पति महाशय का स्वर चाशनी में लिपटा होता है पर ऐसा बहुत कम ही होता है, हिटलर के नाती जो ठहरे. एक बार बड़े प्यार से सलोनी को जन्मदिन पर घुमाने का वादा कर औफिस चले गए और लौटने पर सलोनी के तैयार होने में सिर्फ 5 मिनट की देरी पर बिफर पड़े. नाकभौं सिकोड़ कर ले गए मौल लेकिन मुंह से एक शब्द नहीं फूटा. सलोनी ने अपनी फूटी किस्मत को कोसा. ऐसे नमूने पति जो मिले थे उसे.

सलोनी पति की प्रतीक्षा में थी कि पति टूर से लौट कर आएंगे तो साथ में खाना खाएंगे. पति महाशय लौटे 11 बजे. जैसे ही सुना कि सलोनी ने खाना नहीं खाया तो बस जोर से डपट दिया और पूरी रात मुंह घुमा कर लेटे रहे. सलोनी ने फिल्मों में कुछ और ही देखा था पर हकीकत तो कुछ और ही थी. वह दिन और आज का दिन सलोनी ने पति की प्रतीक्षा किए बगैर ही खाने का नियम बना लिया… कौन भूखे पेट को लात मारे और भूखे रह कर कौन से उसे लड्डू मिलने वाले थे…

कभीकभी भ्रम का घंटा मनुष्य को अपने में लपेटे में ले ही लेता है. सलोनी को लगा कि पति महाशय का त्रिकोण अब सरल कोण में तबदील होने लगा है पर भ्रम तो भ्रम ही होता है सच कहां होता है. सलोनी को प्रतीत हुआ कि उस का एकलौता पति भी सलोना हो गया है पर सूरत

और सीरत में फर्क होता है न… सूरत से सलोना और सीरत… व्यंग्यबाण चला दिया, ‘‘आजकल बस पढ़तीलिखती ही रहती हो घर का काम भी मन से किया करो नहीं तो कोई जरूरत नहीं करने की…’’

सलोनी ने कुछ ऊंचे स्वर में कहा, ‘‘दिखता नहीं है कि मैं कितना काम करती हूं.’’

इतना कहना था कि पति जनाब ने मुंह फुला लिया कि पढ़लिख कर सलोनी का दिमाग खराब हो रहा है.

सलोनी ने भी ठान लिया कि इस बार नहीं मनाएगी, पर हमेशा की तरह सलोनी ने ही मनाया, ‘‘तुम रूठी रहो मैं मनाता रहूं,’’ यह गीत सलोनी की जिंदगी में लिंग बदल कर बज रहा था और धूमधड़ाके से बजता आ रहा था.

सलोनी ने एक दिन अपनी माताश्री से अपनी व्यथाकथा कह डाली, ‘‘मां, पापा तो ऐसे

हैं नहीं…’’

माताश्री मुसकराईं, ‘‘बेटी, तुम्हारे पापा बहुत अच्छे हैं पर पति कैसे हैं

उस का दुखड़ा अब तुम से क्या बताऊं… मेरी दुखती रग पर तुमने हाथ रख दिया. दरअसल, यह पति नामक प्रजाति होती ही ऐसी है… इस प्रजाति में कोई भी जैविक विकास की अवधारणा लागू नहीं होती, इसलिए जो है जैसा है, इन्हीं से उल?ो रहो… ये कभी सुलझने वाले नहीं. लड़के प्रेमी, भाई, मित्र, पिता सब रूप में अच्छे हैं पर पति बनते ही देवता इन पर सवार हो जाते हैं. सलोनी ने देवी चढ़ना सुना था पर देवता… उसे वह गाना याद आने लगा, ‘भला है बुरा है जैसा भी है मेरा पति मेरा…’’

‘‘पर माताश्री, फिर स्त्री के अधिकारों का क्या और स्त्री विमर्श का प्रश्न?’’ सलोनी ने पूछा

‘‘सलोनी बेटी, तुम्हारा पति त्रिकोण ही सही  पर तिकोना समोसा खिलाता है न.’’

‘‘हां, वह तो खिलाता है.’’

‘‘बस फिर कोई बात नहीं, उस की बातें एक कान से सुनो दूसरे से निकालो और अपना काम धीरेधीरे करते चलो,’’ माताश्री ने पति का मर्म समझ दिया.

सलोनी ने एक ठंडी आह भरी और मुंह से निकला ‘उफ ये पति.’

अंत भला तो सब भला : नन्द-भाभी की लड़ाई में कौन जीता

संगीता को यह एहसास था कि आज जो दिन में घटा है, उस के कारण शाम को रवि से झगड़ा होगा और वह इस के लिए मानसिक रूप से तैयार थी. लेकिन जब औफिस से लौटे रवि ने मुसकराते हुए घर में कदम रखा तो वह उलझन में पड़ गई.

‘‘आज मैं बहुत खुश हूं. तुम्हारा मूड हो तो खाना बाहर खाया जा सकता है,’’ रवि ने उसे हाथ से पकड़ कर अपने पास बैठा लिया.

‘‘किस कारण इतना खुश नजर आ रहे हो ’’ संगीता ने खिंचे से स्वर में पूछा.

‘‘आज मेरे नए बौस उमेश साहब ने मुझे अपने कैबिन में बुला कर मेरे साथ दोस्ताना अंदाज में बहुत देर तक बातें कीं. उन की वाइफ से तो आज दोपहर में तुम मिली ही थीं. उन्हें एक स्कूल में इंटरव्यू दिलाने मैं ही ले गया था. मेरे दोस्त विपिन के पिताजी उस स्कूल के चेयरमैन को जानते हैं. उन की सिफारिश से बौस की वाइफ को वहां टीचर की जौब मिल जाएगी. बौस मेरे काम से भी बहुत खुश हैं. लगता है इस बार मुझे प्रमोशन जरूर मिल जाएगी,’’ रवि ने एक ही सांस में संगीता को सारी बात बता डाली. संगीता ने उस की भावी प्रमोशन के प्रति कोई प्रतिक्रिया जाहिर करने के बजाय वार्त्तालाप को नई दिशा में मोड़ दिया, ‘‘प्रौपर्टी डीलर ने कल शाम जो किराए का मकान बताया था, तुम उसे देखने कब चलोगे ’’

‘‘कभी नहीं,’’ रवि एकदम चिड़ उठा.

‘‘2 दिन से घर के सारे लोग बाहर गए हुए हैं और ये 2 दिन हम ने बहुत हंसीखुशी से गुजारे हैं. कल सुबह सब लौट आएंगे और रातदिन का झगड़ा फिर शुरू हो जाएगा. तुम समझते क्यों नहीं हो कि यहां से अलग हुए बिना हम कभी खुश नहीं रह पाएंगे…हम अभी उस मकान को देखने चल रहे हैं,’’ कह संगीता उठ खड़ी हुई.

‘‘मुझे इस घर को छोड़ कर कहीं नहीं जाना है. अगर तुम में जरा सी भी बुद्धी है तो अपनी बहन और जीजा के बहकावे में आना छोड़ दो,’’ गुस्से के कारण रवि का स्वर ऊंचा हो गया था. ‘‘मुझे कोई नहीं बहका रहा है. मैं ने 9 महीने इस घर के नर्क में गुजार कर देख लिए हैं. मुझे अलग किराए के मकान में जाना ही है,’’ संगीता रवि से भी ज्यादा जोर से चिल्ला पड़ी. ‘‘इस घर को नर्क बनाने में सब से ज्यादा जिम्मेदार तुम ही हो…पर तुम से बहस करने की ताकत अब मुझ में नहीं रही है,’’ कह रवि उठ कर कपड़े बदलने शयनकक्ष में चला गया और संगीता मुंह फुलाए वहीं बैठी रही.

उन का बाहर खाना खाने का कार्यक्रम तो बना ही नहीं, बल्कि घर में भी दोनों ने खाना अलगअलग और बेमन से खाया. घर में अकेले होने का कोई फायदा वे आपसी प्यार की जड़ें मजबूत करने के लिए नहीं उठा पाए. रात को 12 बजे तक टीवी देखने के बाद जब संगीता शयनकक्ष में आई तो रवि गहरी नींद में सो रहा था. अपने मन में गहरी शिकायत और गुस्से के भाव समेटे वह उस की तरफ पीठ कर के लेट गई. किराए के मकान में जाने के लिए रवि पर दबाव बनाए रखने को संगीता अगली सुबह भी उस से सीधे मुंह नहीं बोली. रवि नाश्ता करने के लिए रुका नहीं. नाराजगी से भरा खाली पेट घर से निकल गया और अपना लंच बौक्स भी मेज पर छोड़ गया. करीब 10 बजे उमाकांत अपनी पत्नी आरती, बड़े बेटे राजेश, बड़ी बहू अंजु और 5 वर्षीय पोते समीर के साथ घर लौटे. वे सब उन के छोटे भाई के बेटे की शादी में शामिल होने के लिए 2 दिनों के लिए गांव गए थे.

फैली हुई रसोई को देख कर आरती ने संगीता से कुछ तीखे शब्द बोले तो दोनों के बीच फौरन ही झगड़ा शुरू हो गया. अंजु ने बीचबचाव की कोशिश की तो संगीता ने उसे भी कड़वी बातें सुनाते हुए झगड़े की चपेट में ले लिया. इन लोगों के घर पहुंचने के सिर्फ घंटे भर के अंदर ही संगीता लड़भिड़ कर अपने कमरे में बंद हो गई थी. उस की सास ने उसे लंच करने के लिए बुलाया पर वह कमरे से बाहर नहीं निकली. ‘‘यह संगीता रवि भैया को घर से अलग किए बिना न खुद चैन से रहेगी, न किसी और को रहने देगी, मम्मी,’’ अंजु की इस टिप्पणी से उस के सासससुर और पति पूरी तरह सहमत थे. ‘‘इस की बहन और मां इसे भड़काना छोड़ दें तो सब ठीक हो जाए,’’ उमाकांत की विवशता और दुख उन की आवाज में साफ झलक रहा था.

‘‘रवि भी बेकार में ही घर से कभी अलग न होने की जिद पर अड़ा हुआ है. शायद किराए के घर में जा कर संगीता बदल जाए और इन दोनों की विवाहित जिंदगी हंसीखुशी बीतने लगे,’’ आरती ने आशा व्यक्त की.‘‘किराए के घर में जा कर बदल तो वह जाएगी ही पर रवि को यह अच्छी तरह मालूम है कि उस के घर पर उस की बड़ी साली और सास का राज हो जाएगा और वह इन दोनों को बिलकुल पसंद नहीं करता है. बड़े गलत घर में रिश्ता हो गया उस बेचारे का,’’ उमाकांत के इस जवाब को सुन कर आरती की आंखों में आंसू भर आए तो सब ने इस विषय पर आगे कोई बात करना मुनासिब नहीं समझा.

शाम को औफिस से आ कर रवि उस से पिछले दिन घटी घटना को ले कर झगड़ा करेगा, संगीता की यह आशंका उस शाम भी निर्मूल साबित हुई. रवि परेशान सा घर में घुसा तो जरूर पर उस की परेशानी का कारण कोई और था. ‘‘मुझे अस्थाई तौर पर मुंबई हैड औफिस जाने का आदेश मिला है. मेरी प्रमोशन वहीं से हो जाएगी पर शायद यहां दिल्ली वापस आना संभव न हो पाए,’’ उस के मुंह से यह खबर सुन कर सब से ज्यादा परेशान संगीता हुई.

‘‘प्रमोशन के बाद कहां जाना पड़ेगा आप को ’’ उस ने चिंतित लहजे में पूछा.

‘‘अभी कुछ पता नहीं. हमारी कंपनी की कुछ शाखाएं तो ऐसी घटिया जगह हैं, जहां न अच्छा खानापीना मिलता है और न अस्पताल, स्कूल जैसी सुविधाएं ढंग की हैं,’’ रवि के इस जवाब को सुन कर उस का चेहरा और ज्यादा उतर गया.

‘‘तब आप प्रमोशन लेने से इनकार कर दो,’’ संगीता एकदम चिड़ उठी, ‘‘मुझे दिल्ली छोड़ कर धक्के खाने कहीं और नहीं जाना है.’’ ‘‘तुम पागल हो गई हो क्या  मैं अपनी प्रमोशन कैसे छोड़ सकता हूं ’’ रवि गुस्सा हो उठा.

‘‘तब इधरउधर धक्के खाने आप अकेले जाना. मैं अपने घर वालों से दूर कहीं नहीं जाऊंगी,’’ अपना फैसला सुना कर नाराज नजर आती संगीता अपने कमरे में घुस गई.

आगामी शनिवार को रवि हवाईजहाज से मुंबई चला गया. उस के घर छोड़ने से पहले ही अपनी अटैची ले कर संगीता मायके चली गई थी. रवि के मुंबई चले जाने से संगीता की किराए के अलग घर में रहने की योजना लंगड़ा गई. उस के भैयाभाभी तो पहले ही से ऐसा कदम उठाए जाने के हक में नहीं थे.

उस की दीदी और मां रवि की गैरमौजूदगी में उसे अलग मकान दिलाने का हौसला अपने अंदर पैदा नहीं कर पाईं. विवाहित लड़की का ससुराल वालों से लड़झगड़ कर अपने भाईभाभी के पास आ कर रहना आसान नहीं होता, यह कड़वा सच संगीता को जल्द ही समझ में आने लगा. कंपनी के गैस्टहाउस में रह रहा रवि उसे अपने पास रहने को बुला नहीं सकता था और संगीता ने अपनी ससुराल वालों से संबंध इतने खराब कर रखे थे कि वे उसे रवि की गैरमौजूगी में बुलाना नहीं चाहते थे.

सब से पहले संगीता के संबंध अपनी भाभी से बिगड़ने शुरू हुए. घर के कामों में हाथ बंटाने को ले कर उन के बीच झड़पें शुरू हुईं और फिर भाभी को अपनी ननद की घर में मौजूदगी बुरी तरह खलने लगी. संगीता की मां ने अपनी बेटी की तरफदारी की तो उन का बेटा उन से झगड़ा करने लगा. तब संगीता की बड़ी बहन और जीजा को झगड़े में कूदना पड़ा. फिर टैंशन बढ़ती चली गई. ‘‘हमारे घर की सुखशांति खराब करने का संगीता को कोई अधिकार नहीं है, मां. इसे या तो रवि के पास जा कर रहना चाहिए या फिर अपनी ससुराल में. अब और ज्यादा इस की इस घर में मौजूदगी मैं बरदाश्त नहीं करूंगा,’’ अपने बेटे की इस चेतावनी को सुन कर संगीता की मां ने घर में काफी क्लेश किया पर ऐसा करने के बाद उन की बेटी का घर में आदरसम्मान बिलकुल समाप्त हो गया. बहू के साथ अपने संबंध बिगाड़ना उन के हित में नहीं था, इसलिए संगीता की मां ने अपनी बेटी की तरफदारी करना बंद कर दिया. उन में आए बदलाव को नोट कर के संगीता उन से नाराज रहने लगी थी.

संगीता की बड़ी बहन को भी अपने इकलौते भाई को नाराज करने में अपना हित नजर नहीं आया था. रवि की प्रमोशन हो जाने की खबर मिलते ही उस ने अपनी छोटी बहन को सलाह दी, ‘‘संगीता, तुझे रवि के साथ जा कर ही रहना पड़ेगा. भैया के साथ अपने संबंध इतने ज्यादा मत बिगाड़ कि उस के घर के दरवाजे तेरे लिए सदा के लिए बंद हो जाएं. जब तक रवि के पास जाने की सुविधा नहीं हो जाती, तू अपनी ससुराल में जा कर रह.’’ ‘‘तुम सब मेरा यों साथ छोड़ दोगे, ऐसी उम्मीद मुझे बिलकुल नहीं थी. तुम लोगों के बहकावे में आ कर ही मैं ने अपनी ससुराल वालों से संबंध बिगाड़े हैं, यह मत भूलो, दीदी,’’ संगीता के इस आरोप को सुन कर उस की बड़ी बहन इतनी नाराज हुई कि दोनों के बीच बोलचाल न के बराबर रह गई. रवि के लिए संगीता को मुंबई बुलाना संभव नहीं था. संगीता को बिन बुलाए ससुराल लौटने की शर्मिंदगी से हालात ने बचाया.

दरअसल, रवि को मुंबई गए करीब 2 महीने बीते थे जब एक शाम उस के सहयोगी मित्र अरुण ने संगीता को आ कर बताया, ‘‘आज हमारे बौस उमेश साहब के मुंह से बातोंबातों में एक काम की बात निकल गई, संगीता… रवि के दिल्ली लौटने की बात बन सकती है.’’

‘‘कैसे ’’ संगीता ने फौरन पूछा.

अनुंकपा के आधार पर उस की पोस्टिंग यहां हो सकती है.’’

‘‘मैं कुछ समझी नहीं ’’ संगीता के चेहरे पर उलझन के भाव उभरे.

‘‘मैं पूरी बात विस्तार से समझाता हूं. देखो, अगर रवि यह अर्जी दे कि दिल के रोगी पिता की देखभाल के लिए उस का उन के पास रहना जरूरी है तो उमेश साहब के अनुसार उस का तबादला दिल्ली किया जा सकता है.’’ ‘‘लेकिन रवि के बड़े भैयाभाभी भी तो मेरे सासससुर के पास रहते हैं. इस कारण क्या रवि की अर्जी नामंजूर नहीं हो जाएगी ’’

‘‘उन का तो अपना फ्लैट है न ’’

‘‘वह तो है.’’

‘‘अगर वे अपने फ्लैट में शिफ्ट हो जाएं तो रवि की अर्जी को नामंजूर करने का यह कारण समाप्त हो जाएगा.’’

‘‘यह बात तो ठीक है.’’

‘‘तब आप अपने जेठजेठानी को उन के फ्लैट में जाने को फटाफट राजी कर के उमेश साहब से मिलने आ जाओ,’’ ऐसी सलाह दे कर अरुण ने विदा ली. संगीता ने उसी वक्त रवि को फोन मिलाया.

‘‘तुम जा कर भैयाभाभी से मिलो, संगीता. मैं भी उन से फोन पर बात करूंगा,’’ रवि सारी बात सुन कर बहुत खुश हो उठा था. संगीता को झिझक तो बड़ी हुई पर अपने भावी फायदे की बात सोच कर वह अपनी ससुराल जाने को 15 मिनट में तैयार हो गई. रवि के बड़े भाई ने उस की सारी बात सुन कर गंभीर लहजे में जवाब दिया, ‘‘संगीता, इस से ज्यादा खुशी की बात और क्या हो सकती है कि रवि का तबादला दिल्ली में हो जाए पर मुझे अपने फ्लैट को किराए पर मजबूरन चढ़ाना पढ़ेगा. उस की मासिक किस्त मैं उसी किराए से भर पाऊंगा.’’ रवि और संगीता के बीच फोन पर 2 दिनों तक दसियों बार बातें हुईं और अंत में उन्हें बड़े भैया के फ्लैट की किस्त रवि की पगार से चुकाने का निर्णय मजबूरन लेना पड़ा.

सप्ताह भर के अंदर बड़े भैया का परिवार अपने फ्लैट में पहुंच गया और संगीता अपना सूटकेस ले कर ससुराल लौट आई. रवि ने कूरियर से अपनी अर्जी संगीता को भिजवा दी. उसे इस अर्जी को रवि के बौस उमेश साहब तक पहुंचाना था. संगीता ने फोन कर के उन से मिलने का समय मांगा तो उन्होंने उसे रविवार की सुबह अपने घर आने को कहा. ‘‘क्या मैं आप से औफिस में नहीं मिल सकती हूं, सर ’’ संगीता इन शब्दों को बड़ी कठिनाई से अपने मुख ने निकाल पाई.

‘‘मैं तुम्हें औफिस में ज्यादा वक्त नहीं दे पाऊंगा, संगीता. मैं घर पर सारे कागजात तसल्ली से चैक कर लूंगा. मैं नहीं चाहता हूं कि कहीं कोई कमी रह जाए. यह मेरी भी दिली इच्छा है कि रवि जैसा मेहनती और विश्वसनीय इनसान वापस मेरे विभाग में लौट आए. क्या तुम्हें मेरे घर आने पर कोई ऐतराज है ’’

‘‘न… नो, सर. मैं रविवार की सुबह आप के घर आ जाऊंगी,’’ कहते हुए संगीता का पूरा शरीर ठंडे पसीने से नहा गया था. उस के साथ उमेश साहब के घर चलने के लिए हर कोई तैयार था पर संगीता सारे कागज ले कर वहां अकेली पहुंची. उन के घर में कदम रखते हुए वह शर्म के मारे खुद को जमीन में गड़ता महसूस कर रही थी. उमेश साहब की पत्नी शिखा का सामना करने की कल्पना करते ही उस का शरीर कांप उठता था. रवि के मुंबई जाने से कुछ दिन पूर्व ही वह शिखा से पहली बार मिली थी. उस मुलाकात में जो घटा था, उसे याद करते ही उस का दिल किया कि वह उलटी भाग जाए. लेकिन अपना काम कराने के लिए उसे उमेश साहब के घर की दहलीज लांघनी ही पड़ी.

अचानक उस दिन का घटना चक्र उस की आंखों के सामने घूम गया. उस दिन रवि शिखा को एक स्कूल में इंटरव्यू दिलाने ले जा रहा था. रवि का बैंक उस स्कूल के पास ही था. उसे बैंक में कुछ पर्सनल काम कराने थे. जितनी देर में शिखा स्कूल में इंटरव्यू देगी, उतनी देर में वह बैंक के काम करा लेगा, ऐसा सोच कर रवि कुछ जरूरी कागज लेने शिखा के साथ अपने घर आया था. संगीता उस दिन अपनी मां से मिलने गई हुई थी. वह उस वक्त लौटी जब शिखा एक गिलास ठंडा पानी पी कर उन के घर से अकेली स्कूल जा रही थी. वह शिखा को पहचानती नहीं थी, क्योंकि उमेश साहब ने कुछ हफ्ते पहले ही अपना पदभार संभाला था.

‘‘कौन हो तुम  मेरे घर में किसलिए आना हुआ ’’ संगीता ने बड़े खराब ढंग से शिखा से पूछा था.

‘‘रवि और मेरे पति एक ही औफिस में काम करते हैं. मेरा नाम शिखा है,’’ संगीता के गलत व्यवहार को नजरअंदाज करते हुए शिखा मुसकरा उठी थी.

‘मेरे घर मेें तुम्हें मेरी गैरमौजूदगी में आने की कोई जरूरत नहीं है… अपने पति को धोखा देना है तो कोई और शिकार ढूंढ़ो…मेरे पति के साथ इश्क लड़ाने की कोशिश की तो मैं तुम्हारे घर आ कर तुम्हारी बेइज्जती करूंगी,’’ उसे यों अपमानित कर के संगीता अपने घर में घुस गई थी. तब उसे रोज लगता था कि रवि उस के साथ उस के गलत व्यवहार को ले कर जरूर झगड़ा करेगा पर शिखा ने रवि को उस दिन की घटना के बारे में कुछ बताया ही नहीं था. अब रवि की दिल्ली में बदली कराने के लिए उसे शिखा के पति की सहायता चाहिए थी. अपने गलत व्यवहार को याद कर के संगीता शिखा के सामने पड़ने से बचना चाहती थी पर ऐसा हो नहीं सका.

उन के ड्राइंगरूम में कदम रखते ही संगीता का सामना शिखा से हो गया.

‘‘मैं अकारण अपने घर आए मेहमान का अपमान नहीं करती हूं. तुम बैठो, वे नहा रहे हैं,’’ उसे यह जानकारी दे कर शिखा घर के भीतर चल दी.

‘‘प्लीज, आप 1 मिनट मेरी बात सुन लीजिए,’’ संगीता ने उसे अंदर जाने से रोका.

‘‘कहो,’’ अपने होंठों पर मुसकान सजा कर शिखा उस की तरफ देखने लगी.

‘‘मैं…मैं उस दिन के अपने खराब व्यवहार के लिए क्षमा मांगती हूं,’’ संगीता को अपना गला सूखता लगा.

‘‘क्षमा तो मैं तुम्हें कर दूंगी पर पहले मेरे एक सवाल का जवाब दो…यह ठीक है कि तुम मुझे नहीं जानती थीं पर अपने पति को तुम ने चरित्रहीन क्यों माना ’’ शिखा ने चुभते स्वर में पूछा.

‘‘उस दिन मुझ से बड़ी भूल हुई…वे चरित्रहीन नहीं हैं,’’ संगीता ने दबे स्वर में जवाब दिया.

‘‘मेरी पूछताछ का भी यही नतीजा निकला था. फिर तुम ने हम दोनों पर शक क्यों किया था ’’

‘‘उन दिनों मैं काफी परेशान चल रही थी…मुझे माफ कर…’’

‘‘सौरी, संगीता. तुम माफी के लायक नहीं हो. तुम्हारी उस दिन की बदतमीजी की चर्चा मैं ने आज तक किसी से नहीं की है पर अब मैं सारी बात अपने पति को जरूर बताऊंगी.’’

‘‘प्लीज, आप उन से कुछ न कहें.’’

‘‘मेरी नजरों में तुम कैसी भी सहायता पाने की पात्रता नहीं रखती हो. मुझे कई लोगों ने बताया है कि तुम्हारे खराब व्यवहार से रवि और तुम्हारे ससुराल वाले बहुत परेशान हैं. अपने किए का फल सब को भोगना ही पड़ता है, सो तुम भी भोगो. शिखा को फिर से घर के भीतरी भाग की तरफ जाने को तैयार देख संगीता ने उस के सामने हाथ जोड़ दिए, ‘‘मैं आप से वादा करती हूं कि मैं अपने व्यवहार को पूरी तरह बदल दूंगी…अपनी मां और बहन का कोई भी हस्तक्षेप अब मुझे अपनी विवाहित जिंदगी में स्वीकार नहीं होगा…मेंरे अकेलेपन और उदासी ने मुझे अपनी भूल का एहसास बड़ी गहराई से करा दिया है.’’

‘‘तब रवि जरूर वापस आएगा… हंसीखुशी से रहने की नई शुरुआत के लिए तुम्हें मेरी शुभकामनाएं संगीता…आज से तुम मुझे अपनी बड़ी बहन मानोगी तो मुझे बड़ी खुशी होगी.’’

‘‘थैंक यू, दीदी,’’ भावविभोर हो इस बार संगीता उन के गले लग कर खुशी के आंसू बहाने लगी थी. उमेश साहब के प्रयास से 4 दिन बाद रवि के दिल्ली तबादला होने के आदेश निकल गए. इस खबर को सुन कर संगीता अपनी सास के गले  लग कर खुशी के आंसू बहाने लगी थी. उसी दिन शाम को रवि के बड़े भैया उमेश साहब का धन्यवाद प्रकट करने उन के घर काजू की बर्फी के डिब्बे के साथ पहुंचे.

‘‘अब तो सब ठीक हो गया न राजेश ’’

‘‘सब बढि़या हो गया, सर. कुछ दिनों में रवि बड़ी पोस्ट पर यहीं आ जाएगा. संगीता का व्यवहार अब सब के साथ अच्छा है. अपनी मां और बहन के साथ उस की फोन पर न के बराबर बातें होती हैं. बस, एक बात जरा ठीक नहीं है, सर.’’

‘‘कौन सी, राजेश ’’

‘‘सर, संयुक्त परिवार में मैं और मेरा परिवार बहुत खुश थे. अपने फ्लैट में हमें बड़ा अकेलापन सा महसूस होता है,’’ राजेश का स्वर उदास हो गया.

‘‘अपने छोटे भाई के वैवाहिक जीवन को खुशियों से भरने के लिए यह कीमत तुम खुशीखुशी चुका दो, राजेश. अपने फ्लैट की किस्त के नाम पर तुम रवि से हर महीने क्व10 हजार लेने कभी बंद मत करना. यह अतिरिक्त खर्चा ही संगीता के दिमाग में किराए के मकान में जाने का कीड़ा पैदा नहीं होने देगा.’’

‘‘आप ठीक कह रहे हैं, सर. वैसे रवि से रुपए ले कर मैं नियमित रूप से बैंक में जमा कराऊंगा. भविष्य में इस मकान को तोड़ कर नए सिरे से बढि़या और ज्यादा बड़ा दोमंजिला मकान बनाने में यह पैसा काम आएगा. तब मैं अपना फ्लैट बेच दूंगा और हम दोनों भाई फिर से साथ रहने लगेंगे,’’ राजेश भावुक हो उठा. ‘‘पिछले दिनों रवि को मुंबई भेजने और तुम्हारे फ्लैट की किस्त उस से लेने की हम दोनों के बीच जो खिचड़ी पकी है, उस की भनक किसी को कभी नहीं लगनी चाहिए,’’ उमेश साहब ने उसे मुसकराते हुए आगाह किया. ‘‘ऐसा कभी नहीं होगा, सर. आप मेरी तरफ से शिखा मैडम को भी धन्यवाद देना. उन्होंने रवि के विवाहित जीवन में सुधार लाने का बीड़ा न उठाया होता तो हमारा संयुक्त परिवार बिखर जाता.’’

‘‘अंत भला तो सब भला,’’ उमेश साहब की इस बात ने राजेश के चेहरे को फूल सा खिला दिया था.

क्या मिला: उसने पूरी जिंदगी क्यों झेली तकलीफ

अब मैं 70 साल की हो गई. एकदम अकेली हूं. अकेलापन ही मेरी सब से बड़ी त्रासदी मुझे लगती है. अपनी जिंदगी को मुड़ कर देखती हूं तो हर एक पन्ना ही बड़ा विचित्र है. मेरे मम्मीपापा के हम 2 ही बच्चे थे. एक मैं और मेरा एक छोटा भाई. हमारा बड़ा सुखी परिवार. पापा साधारण सी पोस्ट पर थे, पर उन की सरकारी नौकरी थी.

मैं पढ़ने में होशियार थी. मुझे पापा डाक्टर बनाना चाहते थे और मैं भी यही चाहती थी. मैं ने मेहनत भी की और उस जमाने में इतना कंपीटिशन भी नहीं था. अतः मेरा सलेक्शन इसी शहर में मेडिकल में हो गया. पापा भी बड़े प्रसन्न. मैं भी खुश.

मेडिकल पास करते ही पापा को मेरी शादी की चिंता हो गई. किसी ने एक डाक्टर लड़का बताया. पापा को पसंद आ गया. दहेज वगैरह भी तय हो गया.

लड़का भी डाक्टर था तो क्या मैं भी तो डाक्टर थी. परंतु पारंपरिक परिवार होने के कारण मैं भी कुछ कह नहीं पाई. शादी हो गई. ससुराल में पहले ही उन लोगों को पता था कि यह लड़का दुबई जाएगा. यह बात उन्होंने हम से छुपाई थी. पर लड़की वाले की मजबूरी… क्या कर सकते थे.

मैं पीहर आई और नौकरी करने लगी. लड़का 6 महीने बाद आएगा और मुझे ले जाएगा, यह तय हो चुका था. उन दिनों मोबाइल वगैरह तो होता नहीं था. घरों में लैंडलाइन भी नहीं होता था. चिट्ठीपत्री ही आती थी.

पति महोदय ने पत्र में लिखा, मैं सालभर बाद आऊंगा. पीहर वालों ने सब्र किया. हिंदू गरीब परिवार का बाप और क्या कर सकता था? मैं तीजत्योहार पर ससुराल जाती. मुझे बहुत अजीब सा लगने लगा. मेरे पतिदेव का एक महीने में एक पत्र  आता. वो भी धीरेधीरे बंद होने लगा. ससुराल वालों ने कहा कि वह बहुत बिजी है. उस को आने में 2 साल लग सकते हैं.

मेरे पिताजी का माथा ठनका. एक कमजोर अशक्त लड़की का पिता क्या कर सकता है. हमारे कोई दूर के रिश्तेदार के एक जानकार दुबई में थे. उन से पता लगाया तो पता चला कि उस महाशय ने तो वहां की एक नर्स से शादी कर ली है और अपना घर बसा लिया है. यह सुन कर तो हमारे परिवार पर बिजली ही गिर गई. हम सब ने किसी तरह इस बात को सहन कर लिया.

पापा को बहुत जबरदस्त सदमा लगा. इस सदमे की सहन न कर पाने के कारण उन्हें हार्ट अटैक हो गया. गरीबी में और आटा गीला. घर में मैं ही बड़ी थी और मैं ने ही परिवार को संभाला. किसी तरह पति से डाइवोर्स लिया. भाई को पढ़ाया और उस की नौकरी भी लग गई. हमें लगा कि हमारे अच्छे दिन आ गए. हम ने एक अच्छी लड़की देख कर भैया की शादी कर दी.

मुझे लगा कि अब भैया मम्मी को संभाल लेगा. भैया और भाभी जोधपुर में सैटल हो गए थे. मैं ने सोचा कि जो हुआ उस को टाल नहीं सकते. पर, अब मैं आगे की पढ़ाई करूं, ऐसा सोच ही रही थी. मेरी पोस्टिंग जयपुर में थी. इसलिए मैं यहां आई, तो अम्मां को साथ ले कर आई. भैया की नईनई शादी हुई है, उन्हें आराम से रहने दो.

मैं भी अपने एमडी प्रवेश परीक्षा की तैयारी में लगी. राजीखुशी का पत्र भैयाभाभी भेजते थे. अम्मां भी खुश थीं. उन का मन जरूर नहीं लगता था. मैं ने कहा, ‘‘अभी थोड़े दिन यहीं रहो, फिर आप चली जाना.‘‘ ‘‘ठीक है. मुझे लगता है कि थोड़े दिन मैं बहू के पास भी रहूं.‘‘

‘‘अम्मां थोड़े दिन उन को अकेले भी एंजौय करने दो. नईनई शादी हुई है. फिर तो तुम्हें जाना ही है.‘‘
इस तरह 6 महीने बीत गए. एक खुशखबरी आई. भैया ने लिखा कि तुम्हारी भाभी पेट से है. तुम जल्दी बूआ बनने वाली हो. अम्मां दादी.

इस खबर से अम्मां और मैं बहुत प्रसन्न हुए. चलो, घर में एक बच्चा आ जाएगा और अम्मां का मन पंख लगा कर उड़ने लगा. ‘‘मैं तो बहू के पास जाऊंगी,‘‘ अम्मां जिद करने लगी. मैं ने अम्मां को समझाया, ‘‘अम्मां, अभी मुझे छुट्टी नहीं मिलेगी? जैसे ही छुट्टी मिलेगी, मैं आप को छोड़ आऊंगी. भैया को हम बुलाएंगे तो भाभी अकेली रहेंगी. इस समय यह ठीक नहीं है.‘‘

वे भी मान गईं. हमें क्या पता था कि हमारी जिंदगी में एक बहुत बड़ा भूचाल आने वाला है. मैं ने तो अपने स्टाफ के सदस्यों और अड़ोसीपड़ोसी को मिठाई मंगा कर खिलाई. अम्मां ने पास के मंदिर में जा कर प्रसाद भी चढ़ाया. परंतु एक बड़ा वज्रपात एक महीने के अंदर ही हुआ.

हमारे पड़ोस में एक इंजीनियर रहते थे. उन के घर रात 10 बजे एक ट्रंक काल आया. मुझे बुलाया. जाते ही खबर को सुन कर रोतेरोते मेरा बुरा हाल था. मेरे भाई का एक्सीडेंट हो गया. वह बहुत सीरियस था और अस्पताल में भरती था.

अम्मां बारबार पूछ रही थीं कि क्या बात है, पर मैं उन्हें बता नहीं पाई. यदि बता देती तो जोधपुर तक उन्हें ले जाना ही मुश्किल था. पड़ोसियों ने मना भी किया कि आप अम्मां को मत बताइए.

अम्मां को मैं ने कहा कि भाभी को देखने चलते हैं. अम्मां ने पूछा, ‘‘अचानक ही क्यों सोचा तुम ने? क्या बात हुई है? हम तो बाद में जाने वाले थे?‘‘

किसी तरह जोधपुर पहुंचे. वहां हमारे लिए और बड़ा वज्रपात इंतजार कर रहा था. भैया का देहांत हो गया. शादी हुए सिर्फ 9 महीने हुए थे.

भाभी की तो दुनिया ही उजड़ गई. अम्मां का तो सबकुछ लुट गया. मैं क्या करूं, क्या ना करूं, कुछ समझ नहीं आया. अम्मां को संभालूं या भाभी को या अपनेआप को?

मुझे तो अपने कर्तव्य को संभालना है. क्रियाकर्म पूरा करने के बाद मैं भाभी और अम्मां को साथ ले कर जयपुर आ गई. मुझे तो नौकरी करनी थी. इन सब को संभालना था. भाभी की डिलीवरी करानी थी.

भाभी और अम्मां को मैं बारबार समझाती.

मैं तो अपना दुख भूल चुकी. अब यही दुख बहुत बड़ा लग रहा था. मुझ पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा था. उन दिनों वेतन भी ज्यादा नहीं होता था.

मकान का किराया चुकाते हुए 3 प्राणी तो हम थे और चौथा आने वाला था. नौकरी करते हुए पूरे घर को संभालना था.

अम्मां भी एक के बाद एक सदमा लगने से बीमार रहने लगीं. उन की दवाई का खर्चा भी मुझे ही उठाना था.

मैं एमडी की पढ़ाईलिखाई वगैरह सब भूल कर इन समस्याओं में फंस गई. भाभी के पीहर वालों ने भी ध्यान नहीं दिया. उन की मम्मी पहले ही मर चुकी थी. उन की भाभी थीं और पापा बीमार थे. ऐसे में किसी ने उन्हें नहीं बुलाया. मैं ही उन्हें आश्वासन देती रही. उन्हें अपने पीहर की याद आती और उन्हें बुरा लगता कि पापा ने भी मुझे याद नहीं किया. अब उस के पापा ना आर्थिक रूप से संपन्न थे और ना ही शारीरिक रूप से. वे भला क्या करते? यह बात तो मेरी समझ में आ गई थी.

अम्मां को भी लगता कि सारा भार मेरी बेटी पर ही आ गया. बेटी पहले से दुखी है. मैं अम्मां को भी समझाती. इस छोटी उम्र में ही मैं बहुत बड़ी हो गई थी. मैं बुजुर्ग बन गई थी.

भाभी की ड्यू डेट पास में आने पर अम्मां और भाभी मुझ से कहते, ‘‘आप छुट्टी ले लो. हमें डर लगता है?‘‘

‘‘अभी से छुट्टी ले लूं. डिलीवरी के बाद भी तो लेनी है?‘‘

बड़ी मुश्किल से उन्हें समझाया. रात को परेशानी हुई तो मैं भाभी को ले कर अस्पताल गई और उन्हें भरती कराया. अस्पताल वालों को पता ही था कि मैं डाक्टर हूं. उन्होंने कहा कि आप ही बच्चे को लो. सब से पहले मैं ने ही उठाया. प्यारी सी लड़की हुई थी.

सुन कर भाभी को अच्छा नहीं लगा. वह कहने लगी, ‘‘लड़का होता तो मेरा सहारा ही बनता.‘‘

‘‘भाभी, आप तो पढ़ीलिखी हो कर कैसी बातें कर रही हैं? आप बेटी की चिंता मत करो. उसे मैं पालूंगी.‘‘

उस का ज्यादा ध्यान मैं ने ही रखा. भाभी को अस्पताल से घर लाते ही मैं ने कहा, ‘‘भाभी, आप भी बीएड कर लो, ताकि नौकरी लग जाए.‘‘

विधवा कोटे से उन्हें तुरंत बीएड में जगह मिल गई. बच्चे को छोड़ वह कालेज जाने लगी. दिन में बच्ची को अम्मां देखतीं. अस्पताल से आने के बाद उस की जिम्मेदारी मेरी थी. पर, मैं ने खुशीखुशी इस जिम्मेदारी को निभाया ही नहीं, बल्कि मुझे उस बच्ची से विशेष स्नेह हो गया. बच्ची भी मुझे मम्मी कहने लगी.

नौकरानी रखने लायक हमारी स्थिति नहीं थी. सारा बोझ मुझ पर ही था. किसी तरह भाभी का बीएड पूरा हुआ और उन्हें नौकरी मिल गई. मुझे थोड़ी संतुष्टि हुई. पर पहली पोस्टिंग अपने गांव में मिली. भाभी बच्ची को छोड़ कर चली गई. हफ्ते में या छुट्टी के दिन ही भाभी आती. बच्ची का रुझान अपनी मम्मी की ओर से हट कर पूरी तरह से मेरी ओर और अम्मां की तरफ ही था. हम भी खुश ही थे.

पर, मुझे लगा कि भाभी अभी छोटी है. वह पूरी जिंदगी कैसे अकेली रहेगी?

मैं ने भाभी से बात की. भाभी रितु बोली, ‘‘मुझे बच्चे के साथ कौन स्वीकार करेगा?‘‘

मैं ने कहा, ‘‘तुम गुड़िया की चिंता मत करो. उसे हम पाल लेंगे.‘‘

उस के बाद मैं ने भाभी रितु के लिए वर ढूंढ़ना शुरू किया. माधव नाम के एक आदमी ने भाभी से शादी करने की इच्छा प्रकट की. हम लोग खुश हुए. पर उस ने भी शर्त रख दी कि रितु भाभी अपनी बेटी को ले कर नहीं आएगी, क्योंकि उन के पहले ही एक लड़की थी.

मैं ने तो साफ कह दिया, ‘‘आप इस बात की चिंता ना करें. मैं बिटिया को संभाल लूंगी. मैं उसे पालपोस कर बड़ा करूंगी.‘‘

उस पर माधव राजी हो गया और यह भी कहा कि आप को भी आप के भाई की कमी महसूस नहीं होने दूंगा.

सुन कर मुझे भी बहुत अच्छा लगा. शुरू में माधव और रितु अकसर आतेजाते रहे. अम्मां को भी अच्छा लगता था, मुझे भी अच्छा लगता था. मैं भी माधव को भैया मान राखी बांधने लगी. सब ठीकठाक ही चल रहा था.

उन्होंने कोई जिम्मेदारी नहीं उठाई, परंतु अपने शहर से हमारे घर पिकनिक मनाने जैसे आ जाते थे. इस पर भी अम्मां और मैं खुश थे.

जब भी वे आते भाभी रितु को अपनी बेटी मान अम्मां उन्हें तिलक कर के दोनों को साड़ी, मिठाई, कपड़े आदि देतीं.

अब गुड़िया बड़ी हो गई. वह पढ़ने लगी. पढ़ने में वह होशियार निकली. उस ने पीएचडी की. उस के लिए मैं ने लड़का ढूंढा. अच्छा लड़का राज भी मिल गया. लड़कालड़की दोनों ने एकदूसरे को पसंद कर लिया. अब लड़के वाले चाहते थे कि उन के शहर में ही आ कर शादी करें.

मैं उस बात के लिए राजी हो गई. मैं ने सब का टिकट कराया. कम से कम 50 लोग थे. सब का टिकट एसी सेकंड क्लास में कराया. भाभी रितु और माधव मेहमान जैसे हाथ हिलाते हुए आए.

यहां तक भी कोई बात नहीं. उस के बाद उन्होंने ससुराल वालों से मेरी बुराई शुरू कर दी. यह क्यों किया, मेरी समझ के बाहर की बात है. अम्मां को यह बात बिलकुल सहन नहीं हुई. मैं ने तो जिंदगी में सिवाय दुख के कुछ देखा ही नहीं. किसी ने मुझ से प्रेम के दो शब्द नहीं बोले और ना ही किसी ने मुझे कोई आर्थिक सहायता दी.

मुझे लगा, मुझे सब को देने के लिए ही ऊपर वाले ने पैदा किया है, लेने के लिए नहीं. पेड़ सब को फल देता है, वह स्वयं नहीं खाता. मुझे भी पेड़ बनाने के बदले ऊपर वाले ने मनुष्यरूपी पेड़ का रूप दे दिया लगता है.

मुझे भी लगने लगा कि देने में ही सुख है, खुशी है, संतुष्टि है, लेने में क्या रखा है?

मैं ने भी अपना ध्यान भक्ति की ओर मोड़ लिया. अस्पताल जाना, मंदिर जाना, बाजार से सौदा लाना वगैरह.

गुड़िया की ससुराल तो उत्तर प्रदेश में थी, परंतु दामाद राज की पोस्टिंग चेन्नई में थी. शादी के बाद 3 महीने तक गुड़िया नहीं आई. चिट्ठीपत्री बराबर आती रही. अब तो घर में फोन भी लग गया था. फोन पर भी बात हो जाती. मैं ने कहा कि गुड़िया खुश है. उस को जब अपनी मम्मी के बारे में पता चला, तो उसे भी बहुत बुरा लगा. फिर हमारा संबंध उन से बिलकुल कट गया.

3 महीने बाद गुड़िया चेन्नई से आई. मैं भी खुश थी कि बच्ची देश के अंदर ही है, कभी भी कोई बात हो, तुरंत आ जाएगी. इस बात को सोच कर मैं बड़ी आश्वस्त थी. पर गुड़िया ने आते ही कहा, ‘‘राज का सलेक्शन विदेश में हो गया है.‘‘

इस सदमे को कैसे बरदाश्त करूं? पुरानी बातें याद आने लगीं. क्या इस बच्ची के साथ भी मेरे जैसे ही होगा? मेरे मन में एक अनोखा सा डर बैठ गया. मैं गुड़िया से कह न पाई, पर अंदर ही अंदर घुटती ही रही.

शुरू में राज अकेले ही गए और मेरा डर मैं किस से कहूं? पर गुड़िया और राज में अंडरस्टैंडिंग बहुत अच्छी थी. बराबर फोन आते. मेल आता था. गुड़िया प्रसन्न थी. मैं अपने डर को अंदर ही अंदर महसूस कर रही थी.

फिर 6 महीने बाद राज आए और गुड़िया को ले गए. मुझे बहुत तसल्ली हुई. पर अम्मां गुड़िया के वियोग को सहन न कर पाईं. उस के बाद अम्मां निरंतर बीमार रहने लगीं.

अम्मां का जो थोड़ाबहुत सहारा था, वह भी खत्म हो गया. उन की देखभाल का भार और बढ़ गया.

एक साल बाद फिर गुड़िया आई. तब वह 2 महीने की प्रेग्नेंट थी. राज ने फिर अपनी नौकरी बदल ली. अब कनाडा से अरब कंट्री में चला गया. वहां राज सिर्फ सालभर के लिए कौंट्रैक्ट में गया था. अब तो गुड़िया को ले जाने का ही प्रश्न नहीं था. गुड़िया प्रेग्नेंट थी.

क्या आप मेरी स्थिति को समझ सकेंगे? मैं कितने मानसिक तनावों से गुजर रही थी, इस की कल्पना भी कोई नहीं कर सकता. मैं किस से कहती? अम्मां समझने लायक स्थिति में नहीं थीं. गुड़िया को कह कर उसे परेशान नहीं करना चाहती थी. इस समय वैसे ही वह प्रेग्नेंट थी. उसे परेशान करना तो पाप है. गुड़िया इन सब बातों से अनजान थी.

डाक्टर ने गुड़िया को बेड रेस्ट के लिए कह दिया था. अतः वह ससुराल भी जा नहीं सकती थी. उस की सासननद आ कर कभी उस को देख कर जाते. उन के आने से मेरी परेशानी ही बढ़ती, पर मैं क्या करूं? अपनी समस्या को कैसे बताऊं? गुड़िया की मम्मी ने तो पहले ही अपना पल्ला झाड़ लिया था.

मैं जिम्मेदारी से भागना नहीं चाहती थी, परंतु विभिन्न प्रकार की आशंकाओं से मैं घिरी हुई थी. मैं ने कभी कोई खुशी की बात तो देखी नहीं, हमेशा ही मेरे साथ धोखा ही होता रहा. मुझे लगने लगा कि मेरी काली छाया मेरी गुड़िया पर ना पड़े. पर, मैं इसे किसी को कह भी नहीं सकती. अंदर ही अंदर मैं परेशान हो रही थी. उसी समय मेरे मेनोपोज का भी था.

इस बीच अम्मां का देहांत हो गया.

गुड़िया का ड्यू डेट भी आ गया और उस ने एक सुंदर से बेटे को जन्म दिया. मैं खुश तो थी, पर जब तक उस के पति ने आ कर बच्चे को नहीं देखा, मेरे अंदर अजीब सी परेशानी होती रही थी.

जब गुड़िया का पति आ कर बच्चे को देख कर खुश हुआ, तब मुझे तसल्ली आई.

अब तो गुड़िया अपने पति के साथ विदेश में बस गई और मैं अकेली रह गई. यदि गुड़िया अपने देश में होती तो मुझ से मिलने आती रहती, पर विदेश में रहने के कारण साल में एक बार ही आ पाती. फिर भी मुझे तसल्ली थी. अब कोरोना की वजह से सालभर से ज्यादा हो गया, वह नहीं आई. और अभी आने की संभावना भी इस कोरोना के कारण दिखाई नहीं दे रही, पर मैं ने एक लड़की को पढ़ालिखा कर उस की शादी कर दी. भाभी की भी शादी कर दी. यह तसल्ली मुझे है. पर बुढ़ापे में रिटायर होने के बाद अकेलापन मुझे खाने को दौड़ता है. इस को एक भुक्तभोगी ही जान सकता है.

अब आप ही बताइए कि मेरी क्या गलती थी, जो पूरी जिंदगी मैं ने इतनी तकलीफ पाई? क्या लड़की होना मेरा गुनाह था? लड़का होना और मेरी जिंदगी से खेलना मेरे पति के लड़का होने का घमंड? उस को सभी छूट…? यह बात मेरी समझ में नहीं आई? आप की समझ में आई तो मुझे बता दें.

मिट्टी का तेल: चिंकी को किस बात का डर था

बूआ और फूफा गुड़गांव से अपने बेटे और नई बहू के साथ मिलने आए थे. दिन भर का कार्यक्रम था. खाना खा कर उन्हें वापस जाना भी था. उमाशंकर ने भी अपने बेटे अतुल की शादी कुछ माह पहले ही की थी. शादी के बाद बूआ और फूफा पहली बार आए थे. स्वागत का विशेष प्रबंध था.

उमाशंकर की पत्नी राजरानी ने झिड़क कर कहा, ‘‘कुछ तो सोच कर बोला करो. बहुएं घर में हैं और सुन भी रही हैं.’’

उमाशंकर ने झिड़की की परवा न कर हंसते हुए कहा, ‘‘अरे यार, उन्हें ही तो सुना रहा हूं. समय पर चेतावनी मिल जाए तो आगे कोई गड़बड़ नहीं होगी और तुम भी आराम से उन पर राज कर सकोगी.’’

‘‘मुझे ऐसा कोई शौक नहीं,’’ राजरानी ने समझदारी से कहा, ‘‘मेरी बहू सुशील, सुशिक्षित और अच्छे संस्कार वाली है. कोई शक?’’

गुड़गांव से आए फूफाजी उठ कर कुछ देर पहले हलके होने के लिए बाथरूम गए थे. जब लौटे तो हंस रहे थे.

कौशल्या ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘किस बात पर हंस रहे हो? बाथरूम में जो पोस्टर चिपका हुआ है उसे पढ़ कर आए हो?’’

‘‘अजीबोगरीब पोस्टर बाथरूम और अपने कमरे में चिपकाना आजकल के नौजवान लड़केलड़कियों का शौक है, पर मुझे हंसी उस पर नहीं आ रही है,’’ फूफाजी ने उत्तर दिया.

‘‘तो फिर?’’ कौशल्या ने पूछा.

फूफाजी ने उमाशंकर से पूछा, ‘‘क्यों भई, बाथरूम में मिट्टी का तेल क्यों रखा हुआ है?’’

उमाशंकर ने जोरदार हंसी के साथ जो उत्तर दिया उस से न चाहते हुए भी दोनों नई बहुएं सहम गईं.

रात के अंधेरे में चिंकी ने बेचैनी से पूछा, ‘‘पिताजी क्या सच कह रहे थे?’’

‘‘क्या कह रहे थे?’’ अतुल ने चिंकी का हाथ पकड़ कर खींचते हुए पूछा.

‘‘वही मिट्टी के तेल वाली बात,’’ चिंकी ने हाथ छुड़ाते हुए कहा.

‘‘ओ हो, तुम भी कितनी मूर्ख हो,’’ अतुल ने चिढ़ कर कहा, ‘‘पिताजी मजाक कर रहे थे और उन्हें मजाक करने की आदत है. तुम औरतों की कमजोरी यही है कि मजाक नहीं समझतीं. अब उस दिन बिना बात तुम्हारी मम्मी भी भड़क गई थीं.’’

‘‘मेरी मां तुम्हारी भी तो कुछ लगती हैं. बेचारी कितनी सीधीसादी हैं. उन का मजाक उड़ाना कोई अच्छी बात थी?’’ चिंकी ने क्रोध से कहा, ‘‘मेरी मां के बारे में कभी कुछ मत कहना.’’

‘‘अच्छा बाबा माफ करो,’’ अतुल ने प्यार से चिंकी को फिर पास खींचा, ‘‘अब तो चुप हो जाओ.’’

‘‘मैं चुप कैसे रह सकती हूं,’’ चिंकी ने शंका से पूछा, ‘‘बताओ न, क्या पिताजी सच कह रहे थे?’’

अब अतुल चिढ़ गया. खीज कर बोला, ‘‘हां, सच कह रहे थे. तो फिर? और यह भी सुनो. इस घर में पहले भी 3-4 बहुएं जलाई जा चुकी हैं और शायद अब तुम्हारी बारी है.’’

चिंकी छिटक कर दूर हो गई. उस रात समझौते की कोई गुंजाइश नहीं थी.

अगले दिन सबकुछ सामान्य था क्योंकि सब अपने- अपने काम रोज की तरह कर रहे थे. कोई तनाव नहीं. सबकुछ एक बदबू के झोंके की तरह उड़ गया था. फिर भी चिंकी जितनी बार बाथरूम जाती, मिट्टी के तेल की बोतल को नई दृष्टि से देखती थी और तरहतरह के दुष्ट विचार मन में आ जातेथे.

एकांत पा कर मां के नाम पत्र लिखा. सारी बातें विस्तार से लिखीं कि शादी में कहीं दहेज में तो कोई कमी नहीं रह गई? लेनेदेने में तो कहीं कोई चूक नहीं हो गई? अतुल को तो किसी तरह मना लेगी, पर ससुर के लिए आने वाली होली पर सूट का कपड़ा और सास के लिए कांजीवरम वाली साड़ी जो जानबूझ कर नहीं दी गई थी, अब अवश्य दे देना. हो सके तो अतुल के लिए सोने की चेन और सास के लिए कंगन भी बनवा देना. पता नहीं कब क्या हो जाए? वैसे माहौल देखते हुए ऐसी कोई आशंका नहीं है. ऊपर से सब का व्यवहार अच्छा है और प्यार से रखते हैं.

पत्र पढ़ कर मां घबरा गईं.

‘‘मेरा मन तो बड़ा घबरा रहा है,’’ मां ने कहा, ‘‘आप जाइए और चिंकी को कुछ दिनों के लिए ले आइए.’’

‘‘अब ऐसे कैसे ले आएं?’’ पिताजी ने चिंता से कहा, ‘‘चिंकी ने किसी की शिकायत भी तो नहीं की है. ले आने का कोई कारण तो होना चाहिए. हम दोनों का रक्तचाप ठीक है और मधुमेह की भी शिकायत नहीं है.’’

‘‘यह कोई हंसने की बात है,’’ मां ने आंसू रोकते हुए कहा, ‘‘कुछ तो बात हुई होगी जिस से चिंकी इतना परेशान हो गई. जो कुछ उस ने मांगा है वह होली पर दे आना. मेरी बेटी को कुछ हो न जाए.’’

‘‘कुछ नहीं होगा. तुम बेकार में दुखी हो रही हो,’’ पिताजी ने कहा, ‘‘उमाशंकरजी को हंसीमजाक करने की आदत है. दहेज के लिए उन्होंने आज तक कोई शिकायत नहीं की.’’

‘‘आदमी का मन कब फिर जाए कोई कह सकता है क्या? आप समझा कर अतुल को एक चिट्ठी लिख दीजिए,’’ मां ने कहा.

‘‘मैं ऐसा कुछ नहीं करूंगा,’’ पिताजी ने दृढ़ता से कहा, ‘‘हां, तुम चिंकी को जरूर लिख दो. कोई चिंता की बात नहीं है. सब ठीक हो जाएगा.’’

मां ने नाराजगी से पति को देखा और चिंकी को सांत्वना का पत्र लिखने बैठ गईं.

होली आई तो अतुल और चिंकी को घर आने की दावत दी. दामाद का खूब सत्कार हुआ. कुछ अधिक ही.

चिंकी ने मां को अलग ले जा कर पूछा, ‘‘आप ने सूट का कपड़ा और साड़ी खरीदी?’’

‘‘नहीं, तेरे पिताजी नहीं मानते. कहते हैं कि फालतू देने से लालच बढ़ जाता है. फिर कोई मांग भी तो नहीं की. हां, अतुल के लिए सोने की चेन बनवा दी है,’’ मां ने प्यार से कहा.

‘‘मां, बस तुम भी…चिंकी ने निराशा से कहा,’’ भुगतना तो मुझे ही पड़ेगा. आप को क्या. बेटी ब्याह दी, किस्सा खत्म. क्या अखबार नहीं पढ़तीं? टीवी नहीं देखतीं? हर रोज बहुओं के साथ हादसे हो रहे हैं.’’

‘‘बेटी, तेरे सासससुर ऐसे नहीं हैं,’’ मां ने समझाने की कोशिश की.

‘‘ठीक है मां…’’ चिंकी ने गिरते आंसुओं को थाम लिया.

जब बेटी और दामाद को बिदा किया तो ढेरों मिठाई और पकवान साथ में दिया. हजारहजार रुपए से टीका भी कर दिया.

अतुल ने विरोध किया, ‘‘मम्मीजी, इतना सब देने की क्या जरूरत है?’’

‘‘बेटा, करना तो बहुत कुछ चाहते थे पर अभी तो इतना ही है,’’ सास ने कहा, ‘‘तुम सब खुश रहो यही मन की इच्छा है.’’

‘‘मम्मीजी, आप का आशीर्वाद है तो सब ठीक ही होगा,’’ अतुल ने जल्दी से कहा, ‘‘अब चलें, देर हो रही है.’’

‘‘उमाशंकरजी और अपनी मम्मी को हमारा आदर सहित प्रणाम कहना,’’ पिताजी ने कहा.

ससुराल आने पर चिंकी बाथरूम गई तो मिट्टी के तेल की बोतल को अपनी जगह पाया. पता नहीं क्या होगा? सासससुर को शिकायत का कोई अवसर नहीं देगी. वैसे धीरेधीरे अतुल को रास्ते पर लाना होगा. जल्दी से जल्दी दूसरा घर या तबादले का प्रबंध करना पड़ेगा. मन के किसी एक कोने में आशंका का दिया जल रहा था.

छुट्टी का दिन था. रात हो चली थी. अतुल किसी काम से बाहर गया हुआ था. अचानक घर की रोशनी चली गई. घोर अंधेरा छा गया. अकसर आधे घंटे में बिजली आ जाती थी, पर आज बहुत देर हो गई.

अंधेरे में क्या करे कुछ सूझ नहीं रहा था.

उमाशंकर ने टटोलते हुए कहा, ‘‘राजरानी, एक टार्च थी न, कहां है? कुछ याद है.’’

‘‘आप की मेज की दराज में है,’’ राजरानी ने कहा, ‘‘पर उस का क्या करोगे? बैटरी तो है नहीं. बैटरी लीक कर गई थी तो फेंक दी थी.’’

उधर रसोई में टटोलते हुए और कुछ बर्तन इधरउधर गिराते हुए राजरानी बड़बड़ा रही थी, ‘‘मरी माचिस भी कहां रख दी, मिल ही नहीं रही है. और यह अतुल भी पता नहीं अंधेरे में कहां भटक रहा होगा.’’

अगर अचानक अंधेरा हो जाए तो बहुत देर तक कुछ नहीं सूझता. राजरानी, उमाशंकर और चिंकी तीनों ही कुछ न कुछ ढूंढ़ रहे थे, पर कभी दीवार से तो कभी फरनीचर से और कभी दरवाजे से टकरा जाते थे.

कमरे में टटोलते हुए चिंकी के हाथ में कुछ आया. स्पर्श से ध्यान आया कि कुछ दिन पहले उस ने एक लैंप देखा था. शायद वही है. पता नहीं कब से पड़ा था. अब बिना तेल के तो जल नहीं सकता.

उसे ध्यान आया, मिट्टी के तेल की बोतल बाथरूम में रखी है. कुछ तो करना होगा. दीवार के सहारे धीरेधीरे कमरे से बाहर निकली. पहला कमरा सास का था. फिर टीवी रूम था. आगे वाला बाथरूम था. दरवाजा खुला था. कुंडी नहीं लगी थी. एक कदम आगे कमोड था. बोतल तक हाथ पहुंचने के लिए कमोड पर पैर रख कर खड़े होना था. चिंकी यह सब कर रही थी, पर न जाने क्यों उस का दिल जोरों से धड़क रहा था.

जैसे ही बोतल हाथ लगी उसे मजबूती से पकड़ लिया. आहिस्ता से नीचे उतरी. फिर से दीवार के सहारे अपने कमरे में पहुंची. अब लैंप का ढक्कन खोल कर उस में तेल डालना था. अंधों की तरह एक हाथ में लैंप पकड़ा और दूसरे हाथ में बोतल. कुछ अंदर गया तो कुछ बाहर गिरा.

लो कितनी मूर्ख हूं मैं? चिंकी बड़बड़ाते हुए बोली. अब माचिस कहां है? माचिस इतनी देर से उस की सास को नहीं मिली तो उसे क्या मिलेगी? सारी मेहनत बेकार गई. अतुल तो सिगरेट भी नहीं पीता.

तभी चिंकी को ध्यान आया कि पिछले माह वह अतुल के साथ एक होटल में गई थी. होटल की ओर से उस के नाम वाली माचिस हर ग्राहक को उपहार में दी गई थी. अतुल ने वह माचिस अपनी कोट की जेब में डाल ली थी. माचिस को अभी भी जेब में होना चाहिए.

जल्दी से तेल की बोतल नीचे रखी और कपड़ों की अलमारी तक पहुंची. सारे कपड़े टटोलते हुए वह कोट पकड़ में आया. गहरी सांस ली और जेब में हाथ डाला. माचिस मिल गई. वह बहुत खुश हुई. जैसे ही जलाने लगी बोतल पर पैर लगा और सारा तेल गिर कर फैल गया.

उमाशंकर ने पूछा, ‘‘राजरानी, मिट्टी के तेल की बदबू कहां से आ रही है? क्या तुम ने तेल की बोतल तो नहीं गिरा दी?’’

‘‘अरे, मैं तो कब से यहां रसोई में खड़ी हूं,’’ राजरानी ने कहा, ‘‘मरी माचिस ढूंढ़ रही हूं.’’

‘‘अब छोड़ो भी माचिसवाचिस,’’ उमाशंकर ने कहा, ‘‘यहां आ जाओ और बैठ कर बिजली आने का इंतजार करो.’’

चिंकी ने माचिस जलाई और गिरी बोतल को हाथ में उठा लिया.

उमाशंकर ने लाइट की चमक देखी तो चिंकी के कमरे की ओर आए और वहां जो नजारा देखा तो सकपका गए. झट से दौड़ कर गए और चिंकी के हाथ से जलती माचिस की तीली छीन ली और अपने हाथ से मसल कर उसे बुझा दी.

‘‘लड़की तू कितनी पागल है?’’ उमाशंकर ने डांट कर कहा, ‘‘तू भी जलती और सारे घर में आग लग जाती.’’

तभी बिजली आ गई और सब की आंखें चौंधिया गईं. चिंकी ने जो दृश्य देखा समझ गई कि वह कितनी बड़ी भूल करने जा रही थी. घबरा कर कांपने लगी.

उमाशंकर ने हंस कर उसे झूठी सांत्वना दी, ‘‘मरने की बड़ी जल्दी है क्या?’’

और चिंकी को जो शर्म आई वह कभी नहीं भूली. शायद भूलेगी भी नहीं.

ममता का आंगन: मां के लिए कैसे बदली निशा की सोच

विदाई की बेला… हर विवाह समारोह का सब से भावुक कर देने वाला पल. सुंदर से लहंगे में आभूषणों से लदी निशा धीरेधीरे आगे कदम बढ़ा रही थी. आंसुओं से उस का चेहरा भीगा जा रहा था. सहेलियां और भाभियां उलाहना दे रहीं थीं, “अरे इतना रोओगी तो मेकअप धुल जाएगा.” इसी तरह की चुहलबाजी हो रही थी.

मगर वह चाह कर भी अपने आंसू नहीं रोक पा रही थी. खुद को दोराहे पर खड़ा महसूस कर रही थी आज वह.

सजीधजी सुंदर सी कार उसे पिया के घर ले जाने के लिए तैयार खड़ी थी. अजय कार में बैठ चुका था. निशा ने कनखियों से देखा तो लगा कि अजय बेसब्री से उस का इंतजार कर रहा था, मानो कह रहा हो, “अब बस भी करो निशा… नए घर में भी लोग तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं.”

वह एक कदम आगे बढ़ती तो दो कदम पीछे वाली स्थिति थी. पापाभैया पास में ही खड़े थे. निशा पलट कर पापा के गले लग कर रोने लगी. भाई उसे प्यार से सहला रहा था, मानो पापा से छुड़ाना चाह रहा हो और कह रहा हो,” दीदी, एक नई सुंदर सी दुनिया तुम्हारी प्रतीक्षा में है. उस का स्वागत करो.”

तभी उस ने देखा कि मां किसी अपराधिनी सी दूर खड़ी अपने ढुलकते आंसुओं को छिपाने का असफल प्रयास कर रही थी. दोनों तरफ से स्थिति कमोबेश एक सी ही थी.

मां आगे बढ़ कर उसे गले लगाने का साहस नहीं कर पा रही थी क्योंकि उन्हें डर था कि कहीं निशा नाराज ना हो जाए. ये अधिकार निशा ने उन्हें आज तक दिया ही नहीं था.

इधर, निशा भी चाहते हुए ममत्व की प्यास को सहलाने में नाकाम साबित हो रही थी. बड़ी ही मुश्किल से मां धीरेधीरे आगे आ कर खड़ी हो गई. मौसी, बुआ सभी से निशा प्रेम से गले मिल रही थी, तभी अचानक मां के दिल में गहरा दर्द का सैलाब उमड़ पड़ा और उसे जोर की रुलाई आ गई.

यह देख कर निशा से रहा नहीं गया. वह मां की तरफ बढ़ी. दोनों मांबेटी इस तरह गले मिलीं जैसे दोनों को एकदूसरे से कोई शिकवाशिकायत ही ना हो. शब्द साथ नहीं दे रहे थे. बस कुछ देर एकदूसरे से लिपट कर दोनों पूर्ण हो गई थी. अब निशा को जाना ही था, क्योंकि कार काफी देर से स्टार्ट हो कर खड़ी थी.

नए घर में पहुंच कर निशा को बहुत प्यारसम्मान मिला. शुरू के कुछ दिनों में उसे किसी भी काम में हाथ नहीं लगाने दिया. उस की छोटी प्यारी सी ननद अपनी मां के हर काम में हाथ बंटाती. धीरेधीरे हाथों की मेहंदी का रंग छूटने के साथसाथ नेहा भी घरपरिवार की जिम्मेदारियों में शामिल हो गई. जबकि मां के घर में वह कोई भी काम नहीं करती थी, मगर ससुराल तो ससुराल ही होता है. शुरुआत में कुछ कठिनाई भी आई. कई बार वह रो पड़ती थी कि अपनी समस्या किसे बताए.. क्योंकि अपनी मां को तो उस ने पूर्ण रूप से तिरस्कृत किया हुआ था

मां ने कई बार प्रयास किया था कि निशा घर के थोड़े बहुत काम सीख ले, परंतु ढाक के वही तीन पात. जब कुछ छोटी थी तो पापा के लाड़प्यार की वजह से और फिर बड़ी होने पर मां से एक अनकही रंजिश होने के नाते. यूं निशा को काम करने में कोई परेशानी नहीं थी, परंतु वह मां से कुछ नहीं सीखना चाहती थी. न जाने क्यों उन्हें अपना दुश्मन समझने लगी थी वह.

विवाह को लगभग 20 दिन बीत चुके थे. निशा की सास उसे एक बड़ा सा डब्बा देते हुए बोली, “बेटा, यह बौक्स तुम्हारी मां ने तुम्हें सरप्राइस के तौर पर दिया है. तुम्हीं इसे खोलना और देखना कि इस में क्या है. अपने सारे जेवर डब्बे में रख देना. लौकर में रखवा देंगे. घर में रखना सुरक्षित नहीं होगा.”

शाम को जब निशा अपने जेवर डब्बे में करीने से संभाल रही थी, तो उस ने वह बौक्स भी खोला. वह देख कर अवाक रह गई. डब्बे में सुंदर से सोने और हीरे के जेवरात थे और साथ में एक पत्र भी.

यह पत्र उस की मां रीता ने लिखा था, “प्यारी निशा, तुम्हारे पापा का मुझ से शादी करने का मकसद सिर्फ इतना था कि उन की अनुपस्थिति में मैं तुम्हारी देखभाल कर सकूं. अब तुम्हारा विवाह हो चुका है. समय के साथ धीरेधीरे समझ जाओगी कि एक पिता के लिए अकेले संतान को पालना कितना मुश्किल होता है. मां तो सिर्फ मां होती है. यह सौतेला शब्द तो हमारे समाज ने ही गढ़ा है. पूर्वाग्रह से ग्रसित यह भावना किसी स्त्री को जाने समझे बगैर ही खलनायिका बना देती है. तुम्हारा विदाई के समय मुझ से लिपटना मुझे उम्रभर की खुशी दे गया.

“मेरा बचपन भी कुछ तुम्हारी ही तरह बीता है. सदा सुखी रहना.

“और हां, अपनी मां से मिलने कब आ रही हो?”

वह सोच में पड़ गई. उस की आंखों से आंसू बहने लगे. उसे इन गहनों में से ममत्व की सुगंध आने लगी. वह काफी देर तक उन्हें देखती रही. इन में से कुछ गहने उस की अपनी मां के थे और अधिकतर नई मां के, जिसे उस ने मां तो कभी माना ही नहीं.

दरअसल, निशा के जीवन में दुखद मोड़ तब आया, जब 12 साल की उम्र में उस की मां की मृत्यु हो गई थी. लाड़प्यार से पली एकलौती संतान कुदरत के इस अन्याय को सहने की समझ भी नहीं रखती थी. पिता राजेश भी परेशान. एक तो पत्नी की असमय मृत्यु का गम, दूसरा 12 साल की बिटिया को पालने की जिम्मेदारी. ऐसी कच्ची उम्र में जब बच्चे कई तरह के शारीरिक और मानसिक परिवर्तनों से गुजरते हैं, एक पिता के लिए बहुत ही मुश्किल हो जाता है, ऐसे में खासकर बिटिया का लालनपालन करना.

कुछ लोगों ने सलाह दी कि वह निशा की मौसी से विवाह कर ले. क्योंकि अपनी बहन की संतान को जितने प्यार से वह पालेगी, ऐसा कोई दूसरी महिला नहीं कर सकती. परंतु निशा की मौसी उस के पिता से उम्र में बहुत छोटी थी, इसलिए राजेश को यह मंजूर नहीं था. खैर, समय की मांग को देखते हुए रीता के साथ निशा के पिता राजेश का पुनर्विवाह सादे समारोह में हो गया.

मां को गए अभी सिर्फ एक ही साल हुआ था. निशा की यादों में मां की हर बात जिंदा थी. इकलौती संतान होने की वजह से मातापिता का संपूर्ण प्यार उसी पर निछावर था.

राजेश ने रीता के साथ विवाह तो किया, परंतु निशा को किसी भी मनोवैज्ञानिक संकट में वह नहीं डालना चाहते थे. रीता भी खुद बहुत समझदार थी. इधर निशा भावनात्मक मानसिक और शारीरिक तौर पर आने वाले बदलावों से गुजर रही थी.

मां उसे भावनात्मक सहारा देने का भरसक प्रयास करती, परंतु निशा हर बार मां को ठुकरा देती है. अकेलीअकेली उदास सी रहती थी वह. नई मां कभी पिता से हंस कर, खिलखिला कर बात करती, तो निशा परेशान हो उठती. उसे लगता कि इस महिला ने आ कर उस की मां की जगह ले ली है.

निशा की मां की साड़ियां राजेश के कहने पर अगर रीता ने पहन लीं, तो निशा आगबबूला हो उठती. यह सब देख कर रीता ने अपनेआप को बहुत संयमित कर लिया था. वह नहीं चाहती थी कि किशोरावस्था में किसी बच्चे के दिमाग पर कोई गलत असर पड़े. समय के साथसाथ निशा का अकेलापन दूर करने के लिए एक छोटा भाई आ चुका था. आश्चर्य कि छोटे भाई से निशा को कोई शिकायत नहीं थी. वह उस के साथ खेलती और अब थोड़ा खुश रहने लगी थी. लेकिन मां के प्रति अपने व्यवहार को वह नहीं बदल पाई थी.

22 साल की उम्र पूरी होने पर घर वालों से विचारविमर्श के बाद निशा का विवाह तय कर दिया गया. निशा ने भी कोई अरुचि नहीं दिखाई. वह तो मानो नई मां से छुटकारा पाना चाहती थी.

आज इन गहनों को संभालते वक्त वह सोचने लगी कि अपनी मां की साड़ी तक वह नई मां को नहीं पहनने देती थी और इस अनचाही मां ने तो उसे खूब लाड़प्यार से पाला. कभी अपने बेटे और उस में कोई फर्क नहीं किया.

विवाह के समय अपनी सुंदर कीमती साड़ियां और भारी गहने सब उसी को सौंप दिए, जैसा कोई असली मां करती है.

तभी सासू मां ने उसे आवाज दे कर दरवाजे पर अपनी उपस्थिति का एहसास कराया. निशा का उदासीन चेहरा देख कर वह बोली, “अरे बेटा, क्या बात है…? मैं ने लौकर वाली बात कह कर तुम्हारा दिल तो नहीं दुखाया… दरअसल, घर में इतना कीमती सामान रखना असुरक्षित है इसीलिए मैं ने ऐसा कह दिया.”

“अरे नहीं मम्मी, ऐसी बात नहीं है,” कह कर वह रुक गई. आगे और कहती भी क्या..? कैसे कह देती कि जिस मां ने अपना सर्वस्व उस के लालनपालन में लुटा दिया, उस से वह इतनी नफरत करती थी कि पश्चाताप करने की भी कोई राह ही नहीं सूझ रही है.

खैर, सासू मां समझदार थी. सब जानते हुए भी वे अनजान ही बनी रहीं. इधर निशा के अंदर उधेड़बुन चलती रही.

शाम को अजय आ कर बोला,”अगले 2-3 दिन में हम तुम्हारे घर मम्मीपापा से मिलने चल रहे हैं.”

दरअसल, अजय की मां ने ही उसे निशा को मां के घर ले जाने की सलाह दी थी. वह धीरे से बोली, “ठीक है.” मगर मन ही मन बड़ी शर्मिंदा हो रही थी कि कैसे सामना करूंगी मां का.

अगले दिन सुबह मौसी का फोन आया. निशा आत्मग्लानि से भरी हुई थी. उस ने मौसी से मां का जिक्र किया. तब मौसी ने ही उसे बताया कि अजय के साथ उस का विवाह उस की मां रीता ने ही तय किया था. दरअसल, अजय की मां रीता की बचपन की सहेली थी. अजय की मां का विवाह तो समय से हो गया, परंतु यह रीता का दुर्भाग्य था कि बहुत ही छोटी उम्र में उस की मां की मृत्यु हो गई. पिता ने दूसरा विवाह नहीं किया. पारिवारिक सदस्यों के साथ मिल कर खुद ही अपनी बेटी को पालने की जिम्मेदारी ली. परिवार के बीच में रीता की परवरिश तो ठीकठाक हो गई, परंतु उस के विवाह में देरी होती रही, क्योंकि दादादादी की मृत्यु हो चुकी थी. ताऊताई अपनी गृहस्थी में व्यस्त हो गए थे. अब रह गए थे रीता और उस के पिता. वह पिता को छोड़ कर कहीं नहीं जाना चाहती थी.

अधिक उम्र हो जाने पर भी लड़की के लिए लड़का मिलना कभीकभी मुश्किल काम साबित हो जाता है. इसीलिए जब राजेश की पहली पत्नी की मृत्यु हुई, तब रीता का विवाह उन के साथ इस शर्त पर हुआ कि उन की बेटी निशा को अपनी बेटी की तरह मान कर पालेगी. और रीता ने यह जिम्मेदारी बखूबी निभाई. कुछ साल बाद अपना बेटा होने के बावजूद भी उस ने दोनों बच्चों में कभी कोई फर्क नहीं किया. और आज भी यह रीता ही थी, जिस ने निशा का रिश्ता अपनी सहेली के बेटे अजय से करवाया था, ताकि वह स्वयं अपनी बेटी के भविष्य को ले कर आशान्वित रहे. परंतु यह बात परिवार के किसी भी सदस्य ने निशा को नहीं बताई थी, क्योंकि उसे तो नई मां से अत्यधिक बैर था. फिर वह ये बात कैसे बरदाश्त करती…?

यह जान कर निशा अत्यधिक दुखी और शर्मिंदा थी. उस ने साहस कर के मां को फोन मिलाया.

उधर से मां की प्यारी सी आवाज आई,” बेटा, रिश्तों को सहेजने की कोई उम्र नहीं होती. जब भी अवसर मिले, इन्हें संवार लो.”

शायद मां इस से आगे कुछ नहीं बोल पाई और इधर निशा मायके जाने की तैयारी में जुट गई, क्योंकि उधर ममता का आंगन बांह पसारे उस के इंतजार में था.

लेखिका- अमृता पांडेय

दुनिया नई पुरानी : एक परिवार ऐसा भी

एक सीधीसादी, संतुष्ट जिंदगी जी रहा था जनार्दन का परिवार. सबकुछ ठीकठाक चल रहा था लेकिन एक दिन ऐसा जलजला आया जो परिवार की सारी खुशियां बहा ले गया.

पदोन्नति के साथ जनार्दन का तबादला किया गया था. अब वे सीनियर अध्यापक थे. दूरदराज के गांवों में 20 वर्षों का लंबा सेवाकाल उन्होंने बिता दिया था. उन की पत्नी शहर आने पर बहुत खुश थी. गांव की अभावभरी जिंदगी से वह ऊब चुकी थी. अपने बच्चों को पढ़ानेलिखाने में जनार्दन व उन की पत्नी ने खूब ध्यान दिया था.

उन की 2 बेटियां और एक बेटा था. बड़ी का नाम मालती, मंझली मधु और छोटे बेटे का नाम दीपू था. मालती सीधीसादी मगर गंभीर स्वभाव की, तो मधु थोड़ी जिद्दी व शरारती थी, जबकि दीपू थोड़ा नटखट था.

मालती बीए की पढ़ाई कर रही थी, मधु 11वीं में पढ़ रही थी और दीपू तीसरी कक्षा में पढ़ रहा था. समय बीत रहा था.

वहां गांव में जनार्दन पैदल ही स्कूल जातेआते थे. यहां शहर में आ कर उन्होंने बाइक ले ली थी. जिस पर छुट्टी के दिन श्रीमतीजी को बैठा कर जनार्दन शौपिंग करने या घूमने जाते थे. उन की पत्नी दुपहिया वाहन में सैर कर फूले न समाती. कभीकभी दीपू भी जिद कर मांबाप के बीच बैठ कर सवारी का आनंद ले लेता था.

मधु विज्ञान विषय ले कर पढ़ रही थी. जनार्दन ने शहर के एक ट्यूशन सैंटर में भी अब उस का दाखिला करवा दिया था. वह बस से आयाजाया करती. दीपू को जनार्दन खुद स्कूल छोड़ जाया करते और लौटते समय ले आते. एक व्यवस्थित ढर्रे पर जीवन चल रहा था.

नई कालोनी में आ कर जनार्दन की पत्नी बच्चों के लालनपालन में तल्लीन थी. दिन के बाद रात, रात के बाद दिन. समय कट रहा था. बेहद घरेलू टाइप की महिला थी वह. एक ऐसी आम भारतीय महिला जिस का सबकुछ उस का पति, बच्चे व घर होता है. मां का यह स्वभाव बड़ी बेटी को ही मिला था.

मधु ट्यूशन खत्म होते ही बस से ही लौटती. कालोनी के पास ही बस का स्टौप था. ट्यूशन सैंटर के पास एक ढाबा था. शहर के लड़के और बाबू समुदाय अपने खाने का शौक पूरा करने वहां आते थे. एक दिन यहीं पर मधु सड़क पार कर बसस्टौप के लिए जा रही थी, एक कार टर्न लेते हुए मधु के एकदम पास आ कर रुकी. मधु घबरा गई थी. वह पीछे हट गई. कारचालक ने कार किनारे पार्क की और मधु के पास आया, बोला, ‘‘मैडम, सौरी, मैं जरा जल्दी में था.’’  दोनों की आंखें चार हुईं.

‘‘दिखाई नहीं देता क्या,’’ वह गुस्से से बोली.

‘‘अब एकदम ठीक दिखाई देता है मैडम.’’ उस ने मधु की आंखों में आंखें डालते हुए कहा.

‘‘नौनसैंस,’’ मधु ने उसे गुस्से से देख कर कहा.

फिर मधु बसस्टौप की तरफ बढ़ चली. वह उसे जाता हुआ देखता रहा. उस का नाम था शैलेश. शहर के एक कपड़े के व्यापारी का बेटा. अब तो शैलेश अकसर ट्यूशन सैंटर के पास दिखता- कभी ढाबे से निकलते हुए, कभी कार खड़ी कर इंतजार करते हुए. फिर वही हुआ जो ऐसे में होता है. एक शरारत पहचान में, पहचान दोस्ती में, और फिर दोस्ती प्यार में बदल गई.

बस की जगह अब मधु कार या कभी बाइक में ट्यूशन से लौटती. मधु के मातापिता इस बात से अनजान थे. लेकिन कालोनी के एक अशोकन सर को सबकुछ पता था. इधर अशोकन सर

शाम की चहलकदमी को निकलते और कालोनी से कुछ कदम दूर मधु कार से कभी बाइक से उतरती, दबेपांव धीरेधीरे घर की ओर जाती. इन की हायबाय उन्होंने कितनी ही बार देखी.

मां तो यही सोचती कि उस की बेटी सयानी है, विज्ञान की छात्रा है, एक दिन उसे डाक्टर बनना है. वह एक मौडर्न लड़की है. दुनिया में आजकल यही तो चाहिए. पिता को घर की जिम्मेदारियों से फुरसत कहां मिलती है भला.

लेकिन मधु के प्यार की भनक मालती को लग गई थी. उस के फोनकौल्स अब ज्यादा ही आ रहे थे. जब देखो मोबाइल फोन कान से लगाए रहती. एक शाम जब वह काफी देर बातें कर चुकी, तो मालती ने पूछा, ‘‘मधु, कौन था वह जिस से तुम इतनी हंसहंस कर बातें कर रही थी? तुम कहीं ऐसेवैसे के चक्कर में तो नहीं पड़ गईं. अपनी पढ़ाई का खयाल रखना.’’

मधु ने जवाब में कहा, ‘‘नहीं दीदी, ऐसीवैसी कोई बात नहीं है.’’

आखिर एक दिन उस ने दीदी को बता ही दिया कि वह शैलेश से प्यार करने लगी है. वह अच्छा लड़का है.’’

मालती ने मन में सोचा, ‘शायद यह सब सच हो.’

एक दिन अचानक मुख्यभूमि से जनार्दन के पास फोनकौल आई.

उन्हें अपने पैतृक गांव जाना पड़ा. उन के मित्र वेंकटेश ने फौरन उन के विमान टिकट का बंदोबस्त किया. पापामम्मी दोनों को जाना था. ज्यों ही मम्मीपापा गए, मधु ने दीदी से कहा कि वह 2-3 दिनों के लिए चेन्नई जाना चाहती है. शैलेश 2-3 दिनों के लिए अपने बिजनैस के सिलसिले में चेन्नई जाएगा. वह उसे भी साथ ले जाना चाहता है.

‘‘दीदी, तू साथ दे दे. बस, 2-3 दिनों की ही तो बात है.’’

मालती अवाक रह गई. मगर वह क्या कर पाती भला. उस की ख्वाहिश और बारबार यह आश्वासन कि शैलेश बहुत अच्छा लड़का है, वह उस से शादी करने को राजी है. मालती ने उसे इजाजत दे दी. शैलेश के साथ विमान से मधु चेन्नई चली गई. मालती का जैसे दिन का चैन और रातों की नींद उड़ गई थी. पता नहीं क्या हो जाए. लेकिन चौथे दिन वह शैलेश के साथ लौट आई थी. टूरिस्ट सीजन की वजह से उन्हें किसी ने ज्यादा नोटिस नहीं किया था.

एक सप्ताह के बाद मम्मीपापा मुख्यभूमि से लौट आए थे. गांव की पुश्तैनी जमीन का उन का हिस्सा उन्हें मिलने वाला था. मम्मीपापा के लौट आने पर मालती का मन बेहद हलका हो गया था.

समय गुजरता जा रहा था. जनार्दन और उन की पत्नी बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए दिनरात एक कर रहे थे. मालती अब बीए पास कर चुकी थी. वह आगे पढ़ने की सोच रही थी. दीपू 7वीं कक्षा में पहुंच गया था और मधु अब कालेज में पढ़ रही थी.

आधुनिक खयाल की लड़की होने के कारण मधु के पहनावे भी आधुनिक थे. उस की सहेलियां अमीर घरों की थीं. उन लड़कियों के बीच एक नाम बहुत ही सुनाई देता था- बबलू. वैसे उस का सही नाम जसवंत था. बबलू कभी अकेला नहीं घूमता था, 3-4 चेले हमेशा उसे घेरे रहते. क्यों न हों, वह शहर के एक प्रभावी नेता का बेटा जो था. ऊपर से वह तबीयत का भी रंगीन था. उस ने जब मधु को देखा, तो देखता ही रह गया उस की गोरी काया और भरपूर यौवन को. पर मधु भला उस पर क्यों मोहित होती, वह तो शैलेश की दीवानी थी. जब कभी कक्षाएं औफ होतीं तो मधु अपना समय शैलेश के साथ ही बिताती, कभी किसी पार्क या किसी दूसरी जगह पर.

जर्नादन और वेंकटेश की दोस्ती अब पारिवारिक बंधन में बदलने जा रही थी. वेंकटेश के बेटे को मालती बहुत पसंद थी. पिछले बरस उस ने अपनी सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की थी और उस की सरकारी नौकरी भी लग गई थी.

एक सुबह वेंकटेश और उन की पत्नी अपने बेटे का रिश्ता मालती के लिए ले कर आ गए थे. और अगले फागुन में शादी की तिथि निकल आई थी. मालती शादी के बाद भी पढ़ाई करे, उन्हें एतराज नहीं था. मां यही तो चाहती थी कि उस की बेटी को अच्छी ससुराल मिले.

इधर, मधु कालेज में अपनी सहेलियों की मंडली में हंसतीखेलती व चहकती रहती. क्लास न होने पर कैंटीन में समय बिताती या लाइब्रेरी में पत्रिकाएं उलटतीपलटती. कभीकभार शैलेश उसे पार्क में बुला लेता. बबलू तो बस हाथ मसोस कर रह जाता. वैसे, बहुत बार उस ने मधु को आड़ेहाथों लेने की कोशिश की थी.

वह गांधी जयंती की सुबह थी. कालेज में हर वर्ष की तरह राष्ट्रपिता की जयंती मनाने का प्रबंध बहुत ही अच्छे तरीके से किया गया था. लड़कियां रंगबिरंगे कपड़ों में कालेज के कैंपस और पंडाल में आजा रही थीं. तभी, बबलू की टोली ने देखा कि मधु शैलेश की कार में बैठ रही है.

अक्तूबर का महीना. सूरज की किरणों में गरमी बढ़ रही थी. शहर से दूर समुद्र के किनारे एक पेड़ के तने से लगे मधु और शैलेश बैठे हुए थे. शैलेश का सिर मधु की गोद में था और मधु की उंगलियां उस के बालों से खेल रही थीं. जब भी दोनों को मौका मिलता तो शहर से दूर दोनों एकदूसरे की बांहों में समा जाते. तभी, शैलेश ने जमीन पर फैले पत्तों में किसी के पैरों की पदचाप सुनी और वह उठ गया, देखा कि सामने एक नौजवान खड़ा है और उस के पीछे 3 और लड़के. मधु ने देखा, वह बबलू था.

और अगले क्षण बबलू ने मधु को हाथों में जकड़ लिया. बब्लू ने मधु को उस की गिरफ्त से छुड़ाना चाहा और पूछा, ‘‘तुम लोग कौन हो और इस बदतमीजी का मतलब…’’ बात अभी पूरी भी न हो पाई थी कि बबलू के बूटों का एक प्रहार उस की कमर पर पड़ा. वह उठ कर भिड़ना ही चाहता था कि बबलू का एक सख्त घूंसा उस के गाल पर पड़ा.

बबलू के इशारे पर 2 लड़कों ने उसे पीटना शुरू कर दिया. शैलेश ने मधु को अपनी बलिष्ठ बांहों में उठा लिया और पास ही के जंगल की ओर बढ़ चला. मधु प्रतिवाद करती रही. बबलू का तीसरा सहायक भी उन के पीछे पहुंच गया था.

शाम तक मधु के न लौटने पर जनार्दन व उन के घर वाले घोर चिंता में घिर गए. उन्होंने पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करा दी. मालती अनजाने भय से अंदर ही अंदर घबरा रही थी.

अगले दिन यह खबर जंगली आग की तरह फैल गई थी कि शहर से दूर जंगल में एक लड़की का शव और समुद्र के किनारे एक लड़का घायल अवस्था में मिला है. पुलिस हरकत में आई. उस ने शव को अस्पताल पहुंचा दिया और घायल लड़के को अस्पताल में भरती करा दिया.

जनार्दन को पुलिस ने अस्पताल बुला लिया था शिनाख्त के लिए. जब पुलिस अधिकारी ने शव के मुंह से कपड़ा हटाया, जनार्दन के मुंह से चीख निकल गई. वे वहीं गिर पड़े.

दोपहर तक शव कालोनी में लाया गया. कालोनी के लिए वह दिन शोक का था. सभी जनार्दन परिवार के दुख में शामिल थे. मां का रो कर बुरा हाल था, छोटे दीपू को जैसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था. मालती दहाड़ें मारमार कर रो रही थी. जर्नादन के लिए सबकुछ एक अबूझ पहेली की तरह था. उन के सपनों का महल धराशायी हो गया था. रोरो कर उन का भी बुरा हाल था.

मालती के सिवा कौन जानता था कि मधु के जीवन के ऐसे अंत के लिए मालती भी तो जिम्मेदार थी. काश, शुरू से उस ने उसे बढ़ावा न दिया होता और मांपिताजी को सबकुछ बता दिया होता. दहाड़े मार कर रोती मालती को अड़ोसीपड़ोसी ढांढ़स बंधा रहे थे.

जन्म समय: एक डौक्टर ने कैसे दूर की शंका

रिसैप्शन रूम से बड़ी तेज आवाजें आ रही थीं. लगा कि कोई झगड़ा कर रहा है. यह जिला सरकारी जच्चाबच्चा अस्पताल का रिसैप्शन रूम था. यहां आमतौर पर तेज आवाजें आती रहती थीं. अस्पताल में भरती होने वाली औरतों के हिसाब से स्टाफ कम होने से कई बार जच्चा व उस के संबंधियों को संतोषजनक जवाब नहीं मिल पाता था.

अस्पताल बड़ा होने के चलते जच्चा के रिश्तेदारों को ज्यादा भागादौड़ी करनी पड़ती थी. इसी झल्लाहट को वे गुस्से के रूप में स्टाफ व डाक्टर पर निकालते थे.

मुझे एक तरह से इस सब की आदत सी हो गई थी, पर आज गुस्सा कुछ ज्यादा ही था. मैं एक औरत की जचगी कराते हुए काफी समय से सुन रहा था और समय के साथसाथ आवाजें भी बढ़ती ही जा रही थीं. मेरा काम पूरा हो गया था. थोड़ा मुश्किल केस था. केस पेपर पर लिखने के लिए मैं अपने डाक्टर रूम में गया.

मैं ने वार्ड बौय से पूछा, ‘‘क्या बात है, इतनी तेज आवाजें क्यों आ रही हैं?’’

‘‘साहब, एक शख्स 24-25 साल पुरानी जानकारी हासिल करना चाहते हैं. बस, उसी बात पर कहासुनी हो रही है.’’ वार्ड बौय ने ऐसे बताया, जैसे कोई बड़ी बात नहीं हो.

‘‘अच्छा, उन्हें मेरे पास भेजो,’’ मैं ने कुछ सोचते हुए कहा.

‘‘जी साहब,’’ कहता हुआ वह रिसैप्शन रूम की ओर बढ़ गया.

कुछ देर बाद वह वार्ड बौय मेरे चैंबर में आया. उस के साथ तकरीबन 25 साल की उम्र का नौजवान था. वह शख्स थोड़ा पढ़ालिखा लग रहा था. शक्ल भी ठीकठाक थी. पैंटशर्ट में था. वह काफी परेशान व उलझन में दिख रहा था. शायद इसी बात का गुस्सा उस के चेहरे पर था.

‘‘बैठो, क्या बात है?’’ मैं ने केस पेपर पर लिखते हुए उसे सामने की कुरसी पर बैठने का इशारा किया.

‘‘डाक्टर साहब, मैं कितने दिनों से अस्पताल के धक्के खा रहा हूं. जिस टेबल पर जाऊं, वह यही बोलता है कि यह मेरा काम नहीं है. उस जगह पर जाओ. एक जानकारी पाने के लिए मैं 5 दिन से धक्के खा रहा हूं,’’ उस शख्स ने अपनी परेशानी बताई.

‘‘कैसी जानकारी?’’ मैं ने पूछा.

‘‘जन्म के समय की जानकारी,’’ उस ने ऐसे बोला, जैसे कि कोई बड़ा राज खोला.

‘‘किस के जन्म की?’’ आमतौर पर लोग अपने छोटे बच्चे के जन्म की जानकारी लेने आते हैं, स्कूल में दाखिले के लिए.

‘‘मेरे खुद के जन्म की.’’

‘‘आप के जन्म की? यह जानकारी तो तकरीबन 24-25 साल पुरानी होगी. वह इस अस्पताल में कहां मिलेगी. यह नई बिल्डिंग तकरीबन 15 साल पुरानी है. तुम्हें हमारे पुराने अस्पताल के रिकौर्ड में जाना चाहिए.

‘‘इतना पुराना रिकौर्ड तो पुराने अस्पताल के ही रिकौर्ड रूम में होगा, सरकार के नियम के मुताबिक, जन्म समय का रिकौर्ड जिंदगीभर तक रखना पड़ता है.

‘‘डाक्टर साहब, आप भी एक और धक्का खिला रहे हो,’’ उस ने मुझ से शिकायती लहजे में कहा.

‘‘नहीं भाई, ऐसी बात नहीं है. यह अस्पताल यहां 15 साल से है. पुराना अस्पताल ज्यादा काम के चलते छोटा पड़ रहा था, इसलिए तकरीबन 15 साल पहले सरकार ने बड़ी बिल्डिंग बनाई.

‘‘भाई यह अस्पताल यहां शिफ्ट हुआ था, तब मेरी नौकरी का एक साल ही हुआ था. सरकार ने पुराना छोटा अस्पताल, जो सौ साल पहले अंगरेजों के समय बना था, पुराना रिकौर्ड वहीं रखने का फैसला किया था,’’ मैं ने उसे समझाया.

‘‘साहब, मैं वहां भी गया था, पर कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला. बोले, ‘प्रमाणपत्र में सिर्फ तारीख ही दे सकते हैं, समय नहीं,’’’ उस शख्स ने कहा.

आमतौर पर जन्म प्रमाणपत्र में तारीख व जन्मस्थान का ही जिक्र होता है, समय नहीं बताते हैं. पर हां, जच्चा के इंडोर केस पेपर में तारीख भी लिखी होती है और जन्म समय भी, जो घंटे व मिनट तक होता है यानी किसी का समय कितने घंटे व मिनट तक होता है, यानी किसी का समय कितने घंटे व मिनट पर हुआ.

तभी मेरे दिमाग में एक सवाल कौंधा कि जन्म प्रमाणपत्र में तो सिर्फ तारीख व साल मांगते हैं, इस को समय की जरूरत क्यों पड़ी?

‘‘भाई, तुम्हें अपने जन्म के समय की जरूरत क्यों पड़ी?’’ मैं ने उस से हैरान हो कर पूछा.

‘‘डाक्टर साहब, मैं 26 साल का हो गया हूं. मैं दुकान में से अच्छाखासा कमा लेता हूं. मैं ने कालेज तक पढ़ाई भी पूरी की है. मुझ में कोई ऐब भी नहीं है. फिर भी मेरी शादी कहीं तय नहीं हो पा रही है. मेरे सारे दोस्तों व हमउम्र रिश्तेदारों की भी शादी हो गई है.

‘‘थकहार कर घर वालों ने ज्योतिषी से शादी न होने की वजह पूछी. तो उस ने कहा, ‘तुम्हारी जन्मकुंडली देखनी पड़ेगी, तभी वजह पता चल सकेगी और कुंडली बनाने के लिए साल, तारीख व जन्म के समय की जरूरत पड़ेगी.’

‘‘मेरी मां को जन्म की तारीख तो याद है, पर सही समय का पता नहीं. उन्हें सिर्फ इतना पता है कि मेरा जन्म आधी रात को इसी सरकारी अस्पताल में हुआ था.

‘‘बस साहब, उसी जन्म के समय के लिए धक्के खा रहा हूं, ताकि मेरा बाकी जन्म सुधर जाए. शायद जन्म का सही समय अस्पताल के रिकौर्ड से मिल जाए.’’

‘‘मेरे साथ आओ,’’ अचानक मैं ने उठते हुए कहा. वह उम्मीद के साथ उठ खड़ा हुआ.

‘‘यह कागज व पैन अपने साथ रखो,’’ मैं ने क्लिप बोर्ड से एक पन्ना निकाल कर कहा.

‘‘वह किसलिए?’’ अब उस के चौंकने की बारी थी.

‘‘समय लिखने के लिए,’’ मैं ने उसे छोटा सा जवाब दिया.

‘‘मेरी दीवार घड़ी में जितना समय हुआ है, वह लिखो,’’ मैं ने दीवार घड़ी की ओर इशारा करते हुए कहा.

उस ने हैरानी से लिखा. सामने ही डिलीवरी रूम था. उस समय डिलीवरी रूम खाली था. कोई जच्चा नहीं थी. डिलीवरी रूम में कभी भी मर्द को दाखिल होने की इजाजत नहीं होती है. मैं उसे वहां ले गया. वह भी हिचक के साथ अंदर घुसा.

मैं ने उस कमरे की घड़ी की ओर इशारा करते हुए उस का समय नोट करने को कहा, ‘‘अब तुम मेरी कलाई घड़ी और अपनी कलाई घड़ी का समय इस कागज में नोट करो.’’

उस ने मेरे कहे मुताबिक सारे समय नोट किए.

‘‘अच्छा, बताओ सारे समय?’’ मैं ने वापस चैंबर में आ कर कहा.

‘‘आप की घड़ी का समय दोपहर 2.05, मेरी घड़ी का समय दोपहर 2.09, डिलीवरी रूम का समय दोपहर 2.08 और आप के चैंबर का समय दोपहर 2.01 बजे,’’ जैसेजैसे वह बोलता गया, खुद उस के शब्दों में हैरानी बढ़ती जा रही थी.

‘‘सभी घडि़यों में अलगअलग समय है,’’ उस ने इस तरह से कहा कि जैसे दुनिया में उस ने नई खोज की हो.

‘‘देखा तुम ने अपनी आंखों से, सब का समय अलगअलग है. हो सकता है कि तुम्हारे ज्योतिषी की घड़ी का समय भी अलग हो. और जिस ने पंचांग बनाया हो, उस की घड़ी में उस समय क्या बजा होगा, किस को मालूम?

‘‘जब सभी घडि़यों में एक ही समय में इतना फर्क हो, तो जन्म का सही समय क्या होगा, किस को मालूम?

‘‘जिस केस पेपर को तुम ढूंढ़ रहे हो, जिस में डाक्टर या नर्स ने तुम्हारा जन्म समय लिखा होगा, वह समय सही होगा कि गलत, किस को पता?

‘‘मैं ने सुना है कि ज्योतिष शास्त्र के अनुसार एक पल का फर्क भी ग्रह व नक्षत्रों की जगह में हजारों किलोमीटर में हेरफेर कर देता है. तुम्हारे जन्म समय में तो मिनटों का फर्क हो सकता है.

‘‘सुनो भाई, तुम्हारी शादी न होने की वजह यह लाखों किलोमीटर दूर के बेचारे ग्रहनक्षत्र नहीं हैं. हो सकता है कि तुम्हारी शादी न होने की वजह कुछ और ही हो. शादियां सिर्फ कोशिशों से होती हैं, न कि ग्रहनक्षत्रों से,’’ मैं ने उसे समझाते हुए कहा.

‘‘डाक्टर साहब, आप ने घडि़यों के समय का फर्क बता कर मेरी आंखें खोल दीं. इतना पढ़नेलिखने के बावजूद भी मैं सिर्फ निराशा के चलते इन अंधविश्वासों के फेर में फंस गया. मैं फिर से कोशिश करूंगा कि मेरी शादी जल्दी से हो जाए.’’ अब उस शख्स के चेहरे पर निराशा की नहीं, बल्कि आत्मविश्वास की चमक थी.

सती: अवनि की जिंदगी में क्या हुआ पति की मौत के बाद

अवनी ने मनीष को दवा खिलाई और बाहर आ कर ड्राइंगरूम में टीवी देखने लगी. तभी अंदर से मनीष
के चिल्लाने की आवाज आई. अवनी भगाती हुई अंदर गई तो देखा मनीष गुस्से से भरा बैठा था.

अवनी को देखते ही बोला,”तुम मेरी नर्स हो या पत्नी? 2 मिनट भी साथ नहीं बैठ सकतीं? तुम्हें नाम, पैसा, 2 बेटे, कोठी क्या कुछ नहीं दिया और मेरे बीमार पड़ते ही तुम ने नजरें फेर लीं?”

अवनी इस से पहले कुछ बोलती, उस के दोनों बेटे रचित, सार्थक और सासससुर भी आ गए थे.

रचित गुस्से में बोला,”मम्मी, शर्म आनी चाहिए आप को। एक दिन टीवी नहीं देखोगी तो कोई तूफान नहीं आ जाएगा।”

सास गुस्से में बोलीं,”पत्नी अपने पति के लिए क्या क्या नहीं करती। मेरे बेटे को कैंसर क्या हुआ अवनी कि तुम ने अपनी नजरें ही फेर लीं…”

अवनी कमरे में एक तरफ अपराधी की तरह बैठी रही, वह अपराध जो उस ने किया ही नहीं था. मनीष के सिर पर अवनी ने जैसे ही हाथ फेरा मनीष ने झटक कर हाथ हटा दिया। अवनी की आंखों मे आंसू आ गए. उसे पता था मनीष कैंसर के कारण चिड़चिड़ा हो गया है पर वह क्या करे? वह पूरी कोशिश करती है पर आखिर है तो इंसान ही. पिछले 3 सालों से मनीष के कैंसर का इलाज चल रहा था. अवनी शुरुआत में रातदिन मनीष के साथ साए की तरह बनी रहती थी. पर धीरेधीरे वह तनमन से थक गई थी.

पर परिवार के सब लोग मनीष का भार अवनी पर डाल कर निश्चिंत हो गए थे. मनीष की बीमारी मानों
अवनी के लिए एक कैदखाना हो गई थी. अवनी के उठनेबैठने, कपड़े पहनने तक पर सब की निगाहें रहती थीं. अवनी अगर थोड़ा सा तैयार हो जाती तो मनीष की नजरों में सवाल तैरने लगते थे. अवनी का बहुत मन होता मनीष को बताने का कि उसे दुख है पर वह जीना नहीं छोड़ सकती.

पिछले 3 सालों से अवनी ने घर से बाहर कदम नहीं रखा था. किसी की शादी या कोई समारोह होता तो अवनी के सासससुर दोनों बेटों के साथ चले जाते थे. अवनी को ऐसा महसूस होने लगा था कि वह मनीष
के जिंदा होते हुए भी सती हो गई है. सती तो शायद पति की चिता के साथ एक बार ही जली थी पर अवनी तो पिछले 3 सालों से तिलतिल कर जल रही थी.

कल रात बहुत देर से अवनी की आंख लगी और मनीष के चिल्लाने की आवाज से एक झटके से खुल गई.
मनीष गुस्से में बड़बड़ा रहा था,”अगर मेरे पास पैसा न होता तो तुम तो मुझे सड़क पर बैठा देतीं।”

अवनी बिना कुछ बोले चुपचाप चाय बनाने चली गई. उस को देखते ही सास बोलीं,”आज तो तुम ने हद
कर दी है, कब मनीष कुछ खाएगा और कब वह दवा लेगा? तुम्हें पता है न कीमोथेरैपी के लिए डाइट का अच्छा होना जरूरी है…”

मनीष को चाय और बादाम दे कर अवनी नहाने चली गई. जब नहा कर बाहर निकली तो देखा कमरे में से
किसी के जोरजोर से हंसने की आवाज आ रही थी. अवनी ने गीले बालों को तौलिए से लपेट रखा था।कुछ गीले बाल छितर कर इधरउधर बिखरे हुए थे और इंडिगो ब्लू रंग का सूट उस पर खूब खिल रहा था.

जैसे ही वह बाहर आई, वह युवक बोला,”अरे भाभीजी को तो देख कर लगता ही नहीं इन के 18 और 20 साल के बेटे भी होंगे।”

मनीष कड़वा सा मुंह बनाते हुए बोला,”हां कुदरत ने सारा बुढ़ापा तेरे भैया के ही नसीब में लिख दिया है,”
और फिर वह फफकफफक कर रोने लगा. अवनी अपराधी की तरह खड़ी रह गई.

अवनी सब समझती थी। कीमोथेरैपी के कारण मनीष के बाल झड़ गए थे। चेहरे पर काले धब्बे पड़ गए थे और आंखे अंदर धंस गई थीं. पर अवनी को समझ नहीं आता था कि वह कैसे मनीष का मनोबल बढ़ाए.

तभी वह युवक बोला,”अरे अवनीजी, आप ने मुझे पहचाना नहीं, मैं मनीष की बुआ का बेटा हूं और रिश्ते में
आप का देवर हूं। मेरा नाम कुणाल है।”

अवनी बोली,”अरे आप बैठो, मैं चायनाश्ते का इंतजाम करती हूं।”

अवनी ने फटाफट कुक की मदद से पनीर के परांठे, ढोकला, सूजी का हलवा और लालमिर्च की चटनी बना
ली थी. जैसे ही वह बाहर निकली तो मनीष को डाइनिंग टेबल पर बैठा देख कर खुश हो गई.

कुणाल बोला,”जल्दीजल्दी नाश्ता लगाएं, बड़ी कस कर भूख लगी है।”

आज शायद लगभग 1 साल के बाद मनीष ने डाइनिंग टेबल पर बैठ कर सब के साथ खाया होगा. कुणाल पूरे समय चुटकले सुनाता रहा और अवनी के नाश्ते की तारीफ करता रहा. न जाने क्यों अवनी को लग रहा था कि कुणाल के आने से पूरे घर में खुशियों की लहर आ गई है. नाश्ते के बाद सब लोग अपनेअपने काम में लग गए और कुणाल ड्राइंगरूम में बैठ कर टीवी पर कोई प्रोग्राम देखने लगा. अवनी भी वहीं बैठ कर सब्जी काटने लगी और सब्जी काटतेकाटते कुणाल से बोली,”और आप के घर में सब कैसे हैं?”

कुणाल हंसते हुए बोला,”मैं ही घर हूं।
और कोई नहीं है मेरे घर में। मैं अच्छा हूं तो घर भी अच्छा है।”

अवनी बोली,”आप ने अब तक शादी नहीं करी क्या?”

कुणाल बोला,”करी थी मगर सोनल शादी के 4 साल बाद मुझ से अलग हो गई थी।”

अवनी ने धीमे से कहा,”सौरी…”

कुणाल हंसते हुए बोला,”अरे इस में सौरी की क्या बात है। अगर कोई मेरी टाइप की मिलेगी तो शादी कर लूंगा।”

कुणाल बिजनैस के सिलसिले में यहां आया हुआ था. वह अगले दिन से रोज सुबह काम पर निकल जाता
और शाम को आ जाता था. उस के आते ही अवनी के चेहरे पर रौनक आ जाती थी. कुणाल अवनी से सुखदुख की बात कर लेती थी.

धीरेधीरे कुणाल और अवनी के बीच अच्छी दोस्ती हो गई थी. कुणाल लगभग 2 महीने रहा और इन 2 महीनों में वह हर वीकैंड पर आउटिंग का प्लान करता था. जब पहली बार कुणाल ने मूवी का प्लान बनाया तो रचित और सार्थक का हमेशा की तरह अपने प्रोग्राम बने हुए थे.

सासससुर जब तैयार हो गए तो कुणाल बोला,”मनीष भैया और अवनी भाभी नही चलेंगे?”

अवनी की सास बोलीं,”अरे मनीष कहीं आताजाता नहीं है। वह तो तेरे कहने पर हम भी बरसों बाद मूवी
देखने जा रहे हैं।”

कुणाल ने जबरदस्ती मनीष को यह कहते हुए तैयार कर लिया कि अगर मन नहीं लगा तो वह खुद बीच में ही मनीष के साथ घर आ जाएगा.

जब इंटरवल में कुणाल और अवनी पौपकौर्न लेने गए तो कुणाल बोला,”ऐसे ही खुश रहा करो, अच्छी लगती हो। भैया बीमार हैं पर आप क्यों उन के साथ समय से पहले ही सती हो रही हो?”

कुणाल जातेजाते अवनी को हिम्मत और साहस दे गया था. अब अवनी महीने में 1 बार जरूर बाहर अपने दोस्तों से मिलने या मूवी देखने चली जाती थी. मनीष की चिड़चिड़ाहट, बच्चों की शिकायतें या
सासससुर की नसीहतों को अब अवनी अनदेखा कर देती थी. जब भी अवनी को अकेलापन लगता या हौसला टूटने लगता तो वह कुणाल से फोन पर बात कर लेती थी. मनीष के अंतिम दिनों में कुणाल भी वहीं आ गया था. कुणाल के आने से अवनी को हर तरह से सहारा मिल गया था.

जब मनीष की मृत्यु हो गई तो कुणाल ही था जो पूरे परिवार के लिए रातदिन खड़ा रहा था. वह पूरे 1 माह रुका और जाने से पहले कुणाल ने अवनी को कहा,”जब कभी भी मेरी जरूरत महसूस हो बस एक कौल कर देना…”

अब अवनी ने फिर से अपनी जिंदगी नई सिरे से शुरू करनी चाही पर उस का अपना परिवार उसे यह करने
से रोक रहा था. जब अवनी ने अपने ससुर से बिजनैस जौइन करने की बात करी तो ससुर बोले,”यह उम्र तुम्हारे बेटों की बिजनैस सीखने की है। तुम घर पर रह कर योगसाधना में अपना ध्यान लगाओ। पूजापाठ करो ताकि अगले जन्म में वैधव्य का दुख न भोगना पड़े।”

अवनी उन की अंधविश्वास भरी बातें सुन कर हैरान रह जाती। अगर वह थोड़ा ढंग से तैयार हो जाती तो सास की तीखी नजरें उसे चुभती रहती थीं. अवनी कभीकभी दुखी हो कर सोचती कि इस से अच्छा तो पहला जमाना था जब पति के साथ ही पत्नी सती हो जाती थी। कम से कम रोज तिलतिल कर मरना तो नहीं पड़ता था.

मनीष की मृत्यु को पूरे 1 साल हो गए थे. आज मनीष की बरसी थी और कुणाल भी आया हुआ था. अवनी
को देखते ही बोला,”यह तुम ने अपना क्या हाल बना लिया है? भैया की मृत्यु हुई है तुम्हारी नहीं।”

अवनी फफकफफक कर रो पड़ी और बोली,”काश, मैं ही मर जाती, कुणाल। मेरे कपड़े पहनने, हंसनेबोलने सब पर पाबंदी है। मेरे खुद के बेटे मुझे खुश देखते ही शक करने लगते हैं। मुझे बाहर काम करने की इजाजत नहीं है। घर पर कोई काम है नहीं, बच्चे बड़े हो गए हैं। बताओ मैं क्या करूं?

“इस पूजापाठ, व्रत में मेरी श्रद्धा नहीं है। मुझे एक सामान्य औरत की तरह जीने का मन है। मुझे देवी नहीं बनना है…”

कुणाल ने एकाएक कहा,”अवनी, मुझ से शादी करोगी?”

अवनी एकदम से हक्कीबक्की रह गई और बोली,”क्या कह रहे हो तुम? मेरे 2-2 जवान बेटे हैं…”

कुणाल बोला,”हां 2-2 बेटे हैं जिन्हें कभी भी तुम्हारी जरूरत नहीं थी।सोच कर बताना, अगर जवाब न भी होगा तो भी तुम्हारा दोस्त बन कर हमेशा खड़ा रहूंगा।”

कुणाल के जाने के बाद अवनी बहुत दिनों तक सोचविचार करती रही मगर उस के अंदर डर उसे भयभीत करता रहता।

कुछ दिनों बाद मनीष के परिवार में ही शादी थी. सब लोग अच्छे से तैयार हुए मगर अवनी जैसे ही तैयार हो
कर बाहर आई तो सास बोलीं,”यह नारंगी रंग की साड़ी के बजाए कोई लाइट कलर पहन लो। लोग क्या सोचेंगे कि तुम्हें जरा भी मनीष के जाने का दुख नहीं है।”

जैसे ही अवनी जाने लगी तो बड़े बेटे रचित की आवाज आई,”मम्मी, यह लिपस्टिक भी हलकी कर लीजिए।लोग आप को ऐसे देखें तो अच्छा नहीं लगता।”

अवनी अंदर जा कर फूटफूट कर रोई और जब बाहर निकली तो वह एक सफेद साड़ी में लिपटी थी।

ससुरजी गुस्से में बोले,”यह जानबूझ कर नाटक क्यों कर रही हो अवनी, ताकि सब को लगे हम एक विधवा पर जुल्म कर रहे हैं…”

आखिरकार अवनी उस शादी में गई ही नहीं मगर उस रात बहुत देर तक वह कुणाल से बात करती रही।
अगले दिन सब के सामने अवनी ने कुणाल से विवाह करने का फैसला सुना दिया। दोनों बेटे सकते में
आ गए थे.

सास रोते हुए बोलीं,”तेरा चक्कर तो कुणाल से शायद बहुत पहले से ही चल रहा था, अवनी. तभी तो तुम मेरे
बीमार बेटे की देखभाल नहीं करती थीं।”

ससुरजी बोले,”बेवकूफ औरत, यह तुम्हारे बेटों की शादी की उम्र है नाकि तुम्हारी. जरा अपनी उम्र का लिहाज तो करो. 2 साल भी तुम से मर्द के बिना नहीं रहा जा रहा है?”

सार्थक गुस्से में बोला,”अगर आप ने कुणाल से शादी करी तो आप हम से रिश्ता तोड़ लेना।”

अवनी के मातापिता भी उस के फैसले से खुश नहीं थे. अवनी की भाभी बोलीं,”दीदी, सार्थक और
रचित के बारे में तो सोचो। कुछ वर्षों बाद आप के पोतेपोती खिलाने की उम्र हो जाएगी और आप डोली में बैठने की तैयारी कर रही हो… अगर आप अकेली होतीं तो ठीक था पर आप के तो 2 जवान बेटे हैं, आप को क्यों किसी सहारे की आवश्यकता है?”

अवनी को समझ नहीं आ रहा था कि वह कैसे किसी को समझाए. जिंदगी का मतलब बस रोटी, कपड़ा और
मकान ही तो नहीं है. सब के विरोध के बावजूद भी अवनी और कुणाल ने कोर्ट में विवाह कर लिया था.

जब सब पुराने रिश्तों से रीति हो कर अवनी कुणाल का हाथ थाम कर उस के घर मे आई तो उस की आंखें
गीली थीं. अवनी कुणाल से बोली,”कुणाल, मुझे मेरे बेटों ने अपनी जिंदगी से बेदखल कर दिया है।”

कुणाल हंसते हुए बोला,”अवनी, देरसवेर रचित और सार्थक तुम्हारा पहलू समझ जाएंगे. सती प्रथा को समाप्त करने के लिए किसी को तो पहल करनी होती है न…”

अवनी के मन में ये पंक्तियां बारबार उमड़ रही थीं,”न बनना चाहती हूं मैं देवी और न ही बनना चाहती हूं सती, मैं हूं एक सामान्य नारी जो हर उम्र में चाहती है जीवन में भावनाओं की गति.

बीमार थीं क्या: नीलू क्यों हो गई डिप्रेशन की शिकार

‘‘क्याबात है मुन्नी, पीलीपीली सी क्यों लग रही हो? बीमार थीं क्या?’’ भाभी की मां ने बड़े स्नेह से सिर पर हाथ रख कर मेरा हालचाल पूछा तो मन भीग सा गया. कोई आप के स्वास्थ्य की इतनी चिंता करे तो अच्छा लगता ही है.

‘‘अपने खानेपीने का खयाल रखा करो बेटा. औरत घर की धुरी होती है. वही अगर बीमार पड़ जाए तो पूरा घर अस्तव्यस्त हो जाता है.’’

‘‘जी, आंटीजी, तबीयत थोड़ी ठीक नहीं थी. पहले वायरल हो गया था. उस के बाद खांसी ने जकड़ लिया. आप सुनाइए, कैसा चल रहा है? घर में सब ठीक हैं न?’’

उन के जाने पर मैं सोच में पड़ गई कि क्या सचमुच मेरा चेहरा पीलापीला लग रहा है? अभी तो मैं भाई की शादी के लिए सजीसंवरी हूं. भारी मेकअप करने और गहनों से लदीफंदी मैं इन्हें पीली क्यों लगी? क्या मेकअप ने भी मेरा पीला रंग नहीं छिपाया?

मुझे चिंता ने घेर लिया कि कितना तो खयाल रखती हूं मैं अपनी सेहत का. फिर भी हर साल बीमार हो जाती हूं. पिछले साल भी टाइफाइड होने पर बेहद कमजोर हो गई थी. पूरे 4 महीने लग गए थे मुझे अपनेआप और घर को संभालने में. राजीव कितनी छुट्टियां लेते. हार कर उन की मां और मेरी मां को हमारा घर संभालना पड़ा था. दोनों बारीबारी से आती थीं. तब से अपना विशेष खयाल रखती हूं, क्योंकि पहले ही मैं ससुराल और मायके वालों को परेशान कर चुकी हूं.

भाभी की मां फिर मेरे पास आ कर बोलीं, ‘‘देखो बेटा, सुबहसुबह उठ कर सैर करने जाया करो. रात को 5-6 बादाम भिगो दिया करो.

सुबह छील कर शहद और अदरक के साथ लिया करो.’’

न जाने वे क्याक्या बोलती रहीं. इस का मतलब मैं अभी तक बीमार हूं. क्या राजीव मुझ से झूठ बोलते हैं? मेरे खून की जांच तो वे कराते रहते हैं. वे तो कहते हैं कि अब मेरी तबीयत पूरी तरह ठीक है. शरीर में सारे तत्त्व पूरे हैं. फिर मैं स्वयं भी कोई कमजोरी महसूस नहीं करती. भाई की शादी की तैयारी में भी मैं ने भागभाग कर सारे काम किए हैं और अभीअभी बरात के लिए तैयार हो कर आई हूं. मुझे किसी ने बताया क्यों नहीं कि मैं इतनी बीमार लग रही हूं.

तभी कोई आ गया और भाभी की मां उन से बातें करने में व्यस्त हो गईं. मैं अनमनी सी भारी कदमों से एक बार फिर भीतर वाले कमरे में चली गई. राजीव ने क्या झूठ बोला मेरे साथ? वे तो कहते थे अब हम अपना परिवार बढ़ाने के बारे में सोच सकते हैं. उस के लिए मेरी सेहत अब पूरी तरह उपयुक्त है, तो क्या राजीव ने झूठ कहा मुझ से कि मैं स्वस्थ हूं? क्या सभी

मुझ से छिपा रहे हैं मेरी बिगड़ी हालत? भैयाभाभी भी, मां भी और विजय भैया भी?

मैं स्वयं को आईने में निहारने लगी कि बीमार तो नहीं लग रही हूं मैं.

एक ही तो बहन हूं मैं अपने भाइयों की. लाडप्यार से पली. सभी सिरआंखों पर लेते हैं मुझे. मैं बीमार हूं किसी ने बताया क्यों नहीं मुझे? क्या सभी ने एकदूसरे को यह समझा रखा है कि जो भी मुझ से मिले बस यही कहे कि मैं बहुत सुंदर लग रही हूं?

अभी बाहर कार से जब मैं निकली तब दिल्ली वाले मौसाजी मिल गए. मुझे देख कर कितने खुश हुए थे, ‘‘अरे वाह, आज तो हमारी बच्ची बहुत सुंदर लग रही है… जीती रहो.’’

अगर मैं बीमार लग रही होती तो क्या मौसाजी बताते नहीं? राजीव तो बारबार तारीफ करते ही हैं मेरी परंतु उन पर अब क्या भरोसा करूं. सवाल यह नहीं है मैं कैसी लग रही हूं, सवाल यह है कि क्या मैं अब भी बीमार ही हूं?

‘‘नीलू, जरा इधर आना तो,’’ भीतर आतेआते दूल्हा बने विजय भैया बोले, ‘‘जरा सूईधागे से सेहरा पगड़ी के साथ ही सी दो… बारबार उतर रहा है. अरे वाह, कितनी सुंदर लग रही है आज मेरी गुडि़या,’’ कुछ पलों को विजय भैया अपना सेहरा संभालना भूल से गए.

मैं शीशे के सामने चुपचाप खड़ी थी. भाई के शब्दों पर आंखें भर आईं मेरी.

‘अरे, क्या हुआ है तुझे नीलू… चुपचाप सी क्यों है?’’

भैया ने पास आ कर सिर पर हाथ रखा.

‘‘क्या मैं अभी भी बीमार लगती हूं विजय भैया?’’ मैं ने पूछा.

‘‘नहीं तो. किस ने कहा तुम बीमार हो? जब थीं तब थीं अब तो ठीक हो. क्या तुम्हें स्वयं पता नहीं चलता? भागदौड़ कर सारे काम कर रही हो… क्या बीमार महसूस करती हो?’’

मैं चुपचाप सूईधागा ला कर भैया का सेहरा पगड़ी के साथ सीने लगी. तभी वहां राजीव और विजय भैया के मित्र आ गए.

‘‘यह भाभी की मां की बुरी आदत है विजय कि जिस पर भी प्यार आ रहा है उसी की सेहत खराब करती जा रही हैं… बाहर मुझे मिलीं तो कहने लगीं मैं बहुत बीमार लग रहा हूं… रंग पीला पड़ गया है… हटो जरा सामने से मैं देखूं तो कहां से पीलानीला लग रहा हूं मैं,’’ कह विजय भैया को एक तरफ कर राजीव भी शीशे में स्वयं को गौर से देखने लगे. फिर बोले, ‘‘यार, अच्छाभला तो हूं मैं. पिछले ही महीने मैं ने अपने सारे कपड़े खुलवाए हैं. अगर कमजोर होता तो सब से पहले कपड़े ही ढीले पड़ते हैं न?’’

कुछ देर और आईने में खुद को देख कर राजीव बोले, ‘‘आज तो मैं ने भी खास मेकअप किया है भई… घर का दामाद हूं मैं… अच्छीखासी पौलिश की है चेहरे पर. फिर भी मेरा रंग पीला लग रहा है. बता न विजय क्या सचुमच मैं बीमार लग रहा हूं?’’

क्षण भर को विजय भैया ने मेरा हाथ रोक दिया. मैं भी तनिक चौंकी राजीव के शब्दों पर. हम तीनों की नजरें मिलीं और फिर मिलीजुली हंसी कमरे में गूंज गई.

‘‘लगता है तुम दोनों से ही उन्हें खास प्यार है… क्या करें वे भी. तुम उन की बेटी ननद हो… सुना होगा न तुम बीमार थीं बस उसी को लक्ष्य किया होगा… मुझे भी जब मिलती हैं यही कहती हैं क्या बात है विजय बीमार हो क्या? तबीयत तो ठीक है न बड़े कमजोर लग रहे हो.’’

हंसी में उड़ गया सारा तनाव. वास्तव में कुछ लोगों का प्यार करने का यही ढंग होता है. वे आप के दुश्मन नहीं होते. बस एक तरीका होता है प्यार जताने का जबकि आप की सेहत से भी उन का कोई लेनादेना नहीं होता. वे तो मात्र अपने स्नेह और अपनत्व का प्रदर्शन करते हैं. यह अलग बात है मुझ जैसे बीमारी से उठ कर बड़ी मेहनत कर के स्वस्थ होते इंसान पर इस का विपरीत प्रभाव पड़ता है. मैं बीमार थी अब मैं स्वस्थ होना चाहती हूं. अगर वे मुझ से यही कह देतीं कि वाह नीलू, अब तुम अच्छी लग रही हो. अब कमजोर भी नहीं लग रही तो शायद मेरा उत्साह बढ़ जाता और भाई की शादी की चहलपहल में भी मैं अवसाद से न घिरती.

प्यार इस तरह क्यों व्यक्त किया जाए कि जिस से प्यार किया जा रहा हो उस पर नकारात्मक प्रभाव पड़े और वह राजीव और मेरी तरह पागल होने लगे. आज के व्यस्त जीवन में जीवन जीवन ही कहां रह गया है. मशीन की तरह काम करते हैं हम पतिपत्नी… हंसने के लिए भी समय नहीं. खुश हैं कि नहीं यह भी पता नहीं चलता. मानों हंसना भी एक मशीनी क्रिया है. हंस दिए तो हंस दिए. न तो न सही.

आज दिल से सजधज कर भाई की बरात के लिए तैयार हुई तो उन के प्यार ने सब फीका कर दिया. प्यार प्यार कहां रहा वह तो गाली बन गया. भई, अच्छेभले इंसान से अगर इस तरह प्यार किया जाएगा तो उस पर मुझ जैसे इंसान वाला ही प्रभाव पड़ेगा न.

बरात चल पड़ी. खासी गर्मजोशी थी हम सब में. लड़की वालों के घर पहुंचे. जयमाला की रस्म होने लगी. दुलहन से मिलने लगे सब.

‘‘क्या बात है बेटा, बड़ी कमजोर लग रही हो, तबीयत ठीक नहीं थी क्या?’’ यह सुनाई दिया.

मुड़ कर देखा, भाभी की मां दुलहन से प्यार से पूछ रही थीं. राजीव और विजय मेरी तरफ देख मुसकराने लगे, मगर दुलहन के चेहरे पर वही भाव जो कुछ समय पहले मेरे और राजीव के चेहरे पर थे

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