Family Story: दोस्तियाप्पा – आखिर दादी की डायरी में क्या लिखा था?

Family Story: दादी अकसर दादाजी से कहा करती थीं कि जिंदगी में एक यार तो होना ही चाहिए. सुनते ही दादाजी बिदक जाया करते थे.

‘किसलिए?’ वे चिढ़ कर पूछते.

‘अपने सुखदुख सा?ा करने के लिए,’ दादी का जवाब होता, जिसे सुन कर दादाजी और भी अधिक भड़क जाते.

‘क्यों? घरपरिवार, मातापिता, भाईबहन, पतिसहेलियां काफी नहीं हैं जो यार की कमी खल रही है. भले घरों की औरतें इस तरह की बातें करती कभी देखी नहीं. हुंह, यार होना चाहिए,’ दादाजी देर तक बड़बड़ाते रहते. यह अलग बात थी कि दादी को उस बड़बड़ाहट से कोई खास फर्क नहीं पड़ता था. वे मंदमंद मुसकराती रहती थीं.

मैं अकसर सोचा करती थी कि हमेशा सखीसहेलियों और देवरानीजेठानी से घिरी रहने वाली दादी का ऐसा कौन सा सुखदुख होता होगा जिसे सा?ा करने के लिए उन्हें किसी यार की जरूरत महसूस होती है.

‘‘दादी, आप की तो इतनी सारी सहेलियां हैं, यार क्या इन से अलग होता है?’’ एक दिन मैं ने दादी से पूछा तो दादी अपनी आदत के अनुसार हंस दीं. फिर मु?ो एक कहानी सुनाने लगीं.

‘‘मान ले, तुझे कुछ पैसों की जरूरत है. तू ने अपने बहुत से दोस्तों से मदद मांगी. कुछ ने सुनते ही बहाना बना कर तुझे टाल दिया. ऐसे लोगों को जानपहचान वाला कहते हैं. कुछ ने बहुत सोचा और हिसाब लगा कर देखा कि कहीं उधार की रकम डूब तो नहीं जाएगी. आश्वस्त होने के बाद तु?ो समयसीमा में बांध कर मांगी गई रकम का कुछ हिस्सा दे कर तेरी मदद के लिए जो तैयार हो जाते हैं उन्हें मित्र कहते हैं. और जो दोस्त बिना एक भी सवाल किए चुपचाप तेरे हाथ में रकम धर दे, उसे ही यार कहते हैं. कुछ सम?ां?’’ दादी ने कहा.

‘‘जी समझ यही कि जो दोस्त आप से सवालजवाब न करे, आप को व्यर्थ सलाहमशवरा न दे और हर समय आप के साथ खड़ा रहे वही आप का यार है. है न?’’ मैं ने अपनी समझ से कहा.

‘‘बिलकुल सही. लेकिन तेरे दादाजी को ये तीनों एक ही लगते हैं,’’ कहते हुए दादी की आंखों में उदासी उतर आई. यार न होने की टीस उन्हें सालने लगी.

मैं बचपन से ही अपने दादादादी के साथ रहती हूं, क्योंकि मेरे मम्मीपापा दोनों नौकरी करते हैं. चूंकि दादाजी भी सरकारी सेवा में थे, इसलिए दादी न तो उन्हें अकेला छोड़ सकती थीं और न ही वे चाहती थीं कि उन की पोती आया और नौकरों के हाथों में पले. इसलिए, सब ने मिल कर तय किया कि मैं अपनी दादी के पास ही रहूंगी. बस, इसीलिए मेरा और दादी का दोस्तियाप्पा बना हुआ है.

जब से हमारे सामने वाले घर में सीमा आंटी रहने के लिए आई हैं तब से हमारे घर में भी रौनक बढ़ गई है. सीमा आंटी हैं ही इतनी मस्तमौला. जिधर से निकलती हैं, हंसी के अनार फोड़ती जाती हैं. चूंकि हमारे घर आमनेसामने हैं, इसलिए इन अनारों की रोशनी सब से ज्यादा हमारे घर पर ही होती है.

सीमा आंटी शायद कहीं नौकरी करती हैं. आंटी को गप्पें मारने का बहुत शौक है. औफिस से आने के बाद वे शाम ढलने तक दादीदादाजी के साथ गप्पें मारती रहती हैं. दादी कहीं इधरउधर गई भी हों तो भी उन्हें कोई खास फर्क नहीं पड़ता. चायकौफी के दौर में डूबी वे दादाजी के साथ ही देर तक गपियाती रहती हैं.

मैं ने कई बार नोटिस किया है कि जब दादाजी अकेले होते हैं तब सीमा आंटी के ठहाकों में गूंज अधिक होती है. उस समय दादाजी के चेहरे पर भी ललाई बढ़ जाती है. पिछले कुछ दिनों से तो तीनों का बाहर आनाजाना भी साथ ही होने लगा है.

जब से सीमा आंटी हमारी जिंदगी का हिस्सा बनी हैं तब से दादाजी दादी के प्रति जरा नरम हो गए हैं. आजकल वे दादी के इस तर्क पर बहस नहीं करते कि जिंदगी में यार होना चाहिए कि नहीं. लेकिन हां, खुल कर इस की वकालत तो वे अब भी नहीं करते.

‘‘आप को नहीं लगता कि सीमा आंटी दादाजी में ज्यादा ही इंटरैस्ट लेने लगी हैं,’’ एक दिन मैं ने दादी को छेड़ा. दादी हंस दीं और बोलीं, ‘‘शायद इसी से उन्हें जिंदगी में यार की अहमियत सम?ा में आ जाए.’’

दादी की सहजता मुझे आश्चर्य में डाल रही थी. ‘‘आप को जलन नहीं होती?’’ मैं ने पूछा.

‘‘किस बात की जलन?’’ अब आश्चर्यचकित होने की बारी दादी की थी.

‘‘अरे, आप उन की पत्नी हो. आप के पति के साथ कोई और समय बिता रहा है. आप को इसी बात की जलन होनी चाहिए और क्या?’’ मैं ने अपनी बात साफ की.

‘‘तो क्या हुआ, यार कहां पति या पत्नी के अधिकारों का अतिक्रमण करता है?’’ दादी ने उसी सहजता से कहा. मैं उन की सरलता पर हंस दी.

आज दादी हमारे बीच नहीं हैं. अचानक उन्हें दिल का दौरा पड़ा और वे हम सब को हतप्रभ सा छोड़ कर अनंत यात्रा पर चल दीं. 15 दिनों बाद मम्मीपापा सामाजिक औपचारिकताएं निभा कर वापस चले गए. वे तो मु?ो और दादाजी को भी अपने साथ ले जाने की जिद कर रहे थे लेकिन दादाजी किसी सूरत में इस घर को छोड़ कर जाने को तैयार नहीं हुए. मैं उन की देखभाल करने के लिए उन के पास रुक गई. वैसे भी, मेरी स्नातक की पढ़ाई अभी चल ही रही थी.

एक दोपहर दादी की अलमारी सहेजते समय मु?ो उन के पुराने पर्स के अंदर एक छोटी सी चाबी मिली. सभी ताले टटोल लिए, लेकिन उस चाबी का कोई ताला मु?ो नहीं मिला. बात आईगई हो गई. फिर एक दिन जब मैं ने दादी का पुराना बक्सा खोल कर देखा तो उस में एक छोटी सी कलात्मक मंजूषा मु?ो दिखाई दी. उस पर लगा छोटा सा ताला मु?ो उस छोटी चाबी की याद दिला गया. लगा कर देखा तो ताला खुल गया.

मंजूषा के भीतर मुझे एक पुरानी पीले पड़ते पन्नों वाली छोटी सी डायरी मिली. ताले का रहस्य जानने के लिए मैं दादाजी को बिना बताए उसे छिपा कर अपने साथ ले आई. रात को दादाजी के सोने के बाद मैं ने वह डायरी निकाल कर पढ़ना शुरू किया.

पन्नादरपन्ना दादी खुलती जा रही थीं. डायरी में जगहजगह किसी धरम का जिक्र था. डायरी में लिखी बातों के अनुसार मैं ने सहज अनुमान लगाया कि धरम दादी की प्रेम कहानी का नायक नहीं था, वह उन का यार था. जब भी वे परेशान होतीं तो सिर्फ धरम से बात करती थीं.

मु?ो याद आया कि दादी अकसर छत पर जा कर फोन पर किसी से बात किया करती थीं. दादाजी के आते ही तुरंत नीचे दौड़ आती थीं. जब वे वापस नीचे आती थीं तो एकदम हवा सी हलकी होती थीं. मैं अंदाजा लगा रही हूं कि शायद वे धरम से ही बात करती होंगी.

दादी की डायरी क्या थी, दुखों का दस्तावेज थी. हरदम मुसकराती दादी अपनी हंसी के पीछे कितने दर्द छिपाए थीं, यह मुझे आज पता चल रहा है. पता नहीं क्यों दादाजी एक खलनायक की छवि में ढलते जा रहे हैं.

दादी और दादाजी का विवाह उन के समय के चलन के अनुसार घर के बड़ों का तय किया हुआ रिश्ता था. धरम उन दोनों के उन के बचपन का यार था. हालांकि, दुनियाजहान की बातेंशिकायतें दादी दादाजी से ही करती थीं लेकिन दादाजी का जिक्र या उन के प्रति उपजी नाराजगी को जताने के लिए भी तो कोई अंतरंग साथी होना चाहिए न. भावनाओं के मटके जहां छलकते थे, वह पनघट था धरम. यह बात दादाजी भी जानते थे लेकिन वे कभी भी स्त्रीपुरुष के याराने के समर्थक नहीं थे.

धीरेधीरे प्यार को अधिकार ढकने लगा और धरम दादाजी की आंखों में रेत सा अड़ने लगा. दादाजी को धरम के साथ दादी की निकटता डराने लगी. खोने का डर उन्हें अपराध करने के लिए उकसाने लगा. उन्होंने अपने प्यार का वास्ता दे कर दादी को उन के यार से दूर करने की साजिश की. दादाजी की खुशी और परिवार की सुखशांति बनाए रखने के लिए दादी ने धरम से दूरियां बना लीं. वे अब दादाजी के सामने धरम का जिक्र नहीं करती थीं. दादाजी को लगा कि वे अपने षड्यंत्र में कामयाब हो गए, लेकिन वे दादी को धरम से दूर कहां कर पाए.

डायरी इस बात की गवाह है कि दादी अपने आखिरी समय तक धरम से जुड़ी हुई थीं और मैं इस बात की गवाही पूरे होशोहवास में दे सकती हूं कि दादी की जिंदगी धरम को कलंकरहित यार का दर्जा दिलवाने की आस में ही पूरी हो गई.

आखिरी पन्ना पढ़ कर डायरी बंद करने लगी तो पाया कि मेरा चेहरा आंसुओं से तर था. दादी ने अपनी अंतिम पंक्तियों में लिखा था, ‘‘हमारे समाज में सिर्फ व्यक्ति ही नहीं, बल्कि कुछ शब्द भी लैंगिक भेदभाव का दंश ?ोलते हैं. स्त्री और पुरुष के संदर्भ में उन की परिभाषा अलग होती है. उन्हीं अभागे शब्दों में से एक शब्द है ‘यार’. उस का सामान्य अर्थ बहुत जिगरी होने से लगाया जाता है लेकिन जब यही शब्द कोई महिला किसी पुरुष के लिए इस्तेमाल करे तो उस के चरित्र की चादर पर काले धब्बे टांक दिए जाते हैं.’’

पता नहीं दादी द्वारा लिखा गया यही पन्ना आखिरी था या इस के बाद दादी का कभी डायरी लिखने का मन ही नहीं हुआ, क्योंकि दादी ने किसी भी पन्ने पर कोई तारीख अंकित नहीं की थी. लेकिन इतना तो तय था कि दादी के याराने को न्याय नहीं मिला. काश, कोई जिंदगी में यार की अहमियत सम?ा सकता. काश, समाज याराने को स्त्रीपुरुष की सीमाओं से बाहर स्वीकार कर पाता.

दादी के न रहने पर दादाजी एकदम चुप से हो गए थे. कितने दिन तो घर से बाहर ही नहीं निकले. सीमा आंटी के आने पर जरूर उन का अबोला टूटता था. सीमा आंटी भी उन्हें अकेलेपन के खोल से बाहर लाने की पूरी कोशिश कर रही थीं. कोशिश थी, आखिर तो कामयाब होनी ही थी. दादाजी फिर से हंसनेबोलने लगे. रोज शाम सीमा आंटी का इंतजार करने लगे. जब भी कभी परेशान या दादी की याद में उदास होते, सब से पहला फोन सीमा आंटी को ही जाता.

आंटी भी अपने सारे जरूरी काम छोड़ कर उन का फोन अटैंड करतीं. मैं कई बार देखती कि जब दादाजी बोल रहे होते तब आंटी चुपचाप उन्हें सुनतीं. न वे अपनी तरफ से कोई सलाह देतीं और न ही कभी किसी काम में दादाजी की गलती निकाल कर उन्हें कठघरे में खड़ा करतीं. क्या वे दादाजी की यार थीं?

सीमा आंटी दादाजी के लिए उस दीवार जैसी हो गई थीं जिस के सहारे इंसान अपनी पीठ टिका कर बैठ जाता है और मौन आंसू बहा कर अपना दिल भी हलका कर लेता है, यह जानते हुए भी कि यह दीवार उस की किसी भी मुश्किल का हल नहीं है. लेकिन हां, दुखी होने पर रोने के लिए हर समय हाजिर जरूर है.

दादी को गए साल होने को आया.  2 दिनों बाद उन की बरसी है. दादाजी पूरी श्रद्धा के साथ आयोजन में जुटे हैं. सीमा आंटी उन की हरसंभव सहायता कर रही हैं. मेरे मम्मीपापा भी आ चुके हैं. घर में एक उदासी सी छाई है. लग रहा है जैसे दादाजी के भीतर कोई मंथन चल रहा है.

‘‘मिन्नी, आज शाम मेरा एक दोस्त धरम आने वाला है,’’ दादाजी ने कहा. सुनते ही मैं चौंक गई. ‘धरम यानी दादी का यार… तो क्या दादाजी सब जान गए? क्या दादी की डायरी उन के हाथ लग गई?’ मैं ने लपक कर अपनी अलमारी संभाली. दादी की डायरी तो जस की तस रखी थी. धरम अंकल के आने का कारण मेरी समझ में नहीं आ रहा था. मैं ने टोह लेने के लिए दादाजी को टटोला.

‘‘धरम अंकल कौन हैं, पहले तो कभी नहीं आए हमारे घर?’’ मैं ने पूछा.

‘‘धरम तेरी दादी का जिगरी था. वह बेचारी इस रिश्ते को मान्यता दिलाने के लिए जिंदगीभर संघर्ष करती रही. लेकिन मैं ने कभी स्वीकार नहीं किया. आज जब अपने मन के पेंच खोलने के लिए किसी चाबी की जरूरत महसूस करता हूं तो उस का दर्द समझ में आता है,’’ दादाजी की आंखों में आंसू थे.

दादी की बरसी पर धरम अंकल आए. पता नहीं दादाजी ने उन से क्या कहा कि दोनों देर तक एकदूसरे से लिपटे रोते रहे. सीमा आंटी भी उन के पास ही खड़ी थीं. थोड़ा सहज हुए दादाजी ने सीमा आंटी की तरफ इशारा करते हुए धरम अंकल से उन का परिचय करवाया. ‘‘यह सीमा है. हमारी पड़ोसिन… मेरी यार.’’ और तीनों मुसकरा उठे.

मैं भी खुश थी. आज दादी के याराने को मान्यता मिल गई थी.

Family Story: पहचान – आखिर वसुंधरा अपनी ननद को क्या देना चाहती थी?

Family Story, लेखिका- शोभा मेहरोत्रा

बड़ी जेठानी ने माथे का पसीना पोंछा और धम्म से आंगन में बिछी दरी पर बैठ गईं. तभी 2 नौकरों ने फोम के 2 गद्दे ला कर तख्त पर एक के ऊपर एक कर के रख दिए. दालान में चावल पछोरती ननद काम छोड़ कर गद्दों को देखने लगी. छोटी चाची और अम्माजी भी आंगन की तरफ लपकीं. बड़ी जेठानी ने गर्वीले स्वर में बताया, ‘‘पूरे ढाई हजार रुपए के गद्दे हैं. चादर और तकिए मिला कर पूरे 3 हजार रुपए खर्च किए हैं.’’

आसपास जुटी महिलाओं ने सहमति में सिर हिलाया. गद्दे वास्तव में सुंदर थे. बड़ी बूआ ने ताल मिलाया, ‘‘अब ननद की शादी में भाभियां नहीं करेंगी तो कौन करेगा?’’ ऐसे सुअवसर को खोने की मूर्खता भला मझली जेठानी कैसे करती. उस ने तड़ से कहा, ‘‘मैं तो पहले ही डाइनिंग टेबल का और्डर दे चुकी हूं. आजकल में बन कर आती ही होगी. पूरे 4 हजार रुपए की है.’’

घर में सब से छोटी बेटी का ब्याह था. दूरपास के सभी रिश्तेदार सप्ताहभर पहले ही आ गए थे. आजकल शादीब्याह में ही सब एकदूसरे से मिल पाते हैं. सभी रिश्तेदारों ने पहले ही अपनेअपने उपहारों की सूची बता दी थी, ताकि दोहरे सामान खरीदने से बचा जा सके शादी के घर में.

अकसर रोज ही उपहारों की किस्म और उन के मूल्य पर चर्चा होती. ऐसे में वसुंधरा का मुख उतर जाता और वह मन ही मन व्यथित होती.

वसुंधरा के तीनों जेठों का व्यापार था. उन की बरेली शहर में साडि़यों की प्रतिष्ठित दुकानें थीं. सभी अच्छा खाकमा रहे थे. उस घर में, बस, सुकांत ही नौकरी में था. वसुंधरा के मायके में भी सब नौकरी वाले थे, इसीलिए उसे सीमित वेतन में रहने का तरीका पता था. सो, जब वह पति के साथ इलाहाबाद रहने गई तो उसे कोई कष्ट न हुआ.

छोटी ननद रूपाली का विवाह तय हुआ तो उसे बड़ी प्रसन्नता हुई, क्योंकि रूपाली की ससुराल उसी शहर में थी जहां उस के बड़े भाई नियुक्त थे. वसुंधरा पुलकित थी कि भाई के घर जाने पर वह ननद से भी मिल लिया करेगी. वैसे भी रूपाली से उसे बड़ा स्नेह था. जब वह ब्याह कर आई थी तो रूपाली ने उसे सगी बहन सा अपनत्व दिया था. परिवार के तौरतरीकों से परिचित कराया और कदमकदम पर साथ दिया.

शादी तय होने की खबर पाते ही वह हर महीने 5 सौ रुपए घरखर्च से अलग निकाल कर रखने लगी. छोटी ननद के विवाह में कम से कम 5 हजार रुपए तो देने ही चाहिए और अधिक हो सका तो वह भी करेगी. वेतनभोगी परिवार किसी एक माह में ही 5 हजार रुपए अलग से व्यय कर नहीं सकता. सो, बड़ी सूझबूझ के साथ वसुंधरा हर महीने 5 सौ रुपए एक डब्बे में निकाल कर रखने लगी.

1-2 महीने तो सुकांत को कुछ पता न चला. फिर जानने पर उस ने लापरवाही से कहा, ‘‘वसुंधरा,  तुम व्यर्थ ही परेशान हो रही हो. मेरे सभी भाई जानते हैं कि मेरा सीमित वेतन है. अम्मा और बाबूजी के पास भी काफी पैसा है. विवाह अच्छी तरह निबट जाएगा.’’

वसुंधरा ने तुनक कर कहा, ‘‘मैं कब कह रही हूं कि हमारे 5-10 हजार रुपए देने से ही रूपाली की डोली उठेगी. परंतु मैं उस की भाभी हूं. मुझे भी तो कुछ न कुछ उपहार देना चाहिए.’’

‘‘जैसा तुम ठीक समझो,’’ कह कर सुकांत तटस्थ हो गए.

वसुंधरा को पति पर क्रोध भी आया कि कैसे लापरवाह हैं. बहन की शादी है और इन्हें कोई फिक्र ही नहीं. इन का क्या? देखना तो सबकुछ मुझे ही है. ये जो उपहार देंगे उस से मेरा भी तो मान बढ़ेगा और अगर उपहार नहीं दिया तो मैं भी अपमानित होऊंगी, वसुंधरा ने मन ही मन विचार किया और अपनी जमापूंजी को गिनगिन कर खुश रहने लगी.

जैसा सोचा था, वैसा ही हुआ. रूपाली के विवाह के एक माह पहले ही उस के पास 5 हजार रुपए जमा हो गए. उस का मन संतोष से भर उठा. उस ने सहर्ष सुकांत को अपनी बचत राशि दिखाई. दोनों बड़ी देर तक विवाह की योजना की कल्पना में खोए रहे.

विवाह में जाने से पहले बच्चे के कपड़ों का भी प्रबंध करना था. वसुंधरा पति के औफिस जाते ही नन्हे मुकुल के झालरदार झबले सिलने बैठ जाती. इधर कई दिनों से मुकुल दूध पीते ही उलटी कर देता. पहले तो वसुंधरा ने सोचा कि मौसम बदलने से बच्चा परेशान है. परंतु जब 3-4 दिन तक बुखार नहीं उतरा तो वह घबरा कर बच्चे को डाक्टर के पास ले गई. 2 दिन दवा देने पर भी जब बुखार नहीं उतरा तो डाक्टर ने खूनपेशाब की जांच कराने को कहा. जांच की रिपोर्ट आते ही सब के होश उड़ गए. बच्चा पीलिया से बुरी तरह पीडि़त था. बच्चे को तुरंत नर्सिंग होम में भरती करना पड़ा.

15 दिन में बच्चा तो ठीक हो कर घर आ गया परंतु तब तक सालभर में यत्न से बचाए गए 5 हजार रुपए खत्म हो चुके थे. बच्चे के ठीक होने का संतोष एक तरफ था तो दूसरी ओर अगले महीने छोटी ननद के विवाह का आयोजन सामने खड़ा था. वसुंधरा चिंता से पीली पड़ गई. एक दिन तो वह सुकांत के सामने फूटफूट कर रोने लगी. सुकांत ने उसे धीरज बंधाते हुए कहा, ‘‘अपने परिवार को मैं जानता हूं. अब बच्चा बीमार हो गया तो उस का इलाज तो करवाना ही था. पैसे इलाज में खर्च हो गए तो क्या हुआ? आज हमारे पास पैसा नहीं है तो शादी में नहीं देंगे. कल पैसा आने पर दे देंगे.’’

वसुंधरा ने माथा ठोक लिया, ‘‘लेकिन शादी तो फिर नहीं होगी. शादी में तो एक बार ही देना है. किसकिस को बताओगे कि तुम्हारे पास पैसा नहीं है. 10 साल से शहर में नौकरी कर रहे हो. बहन की शादी के समय पर हाथ झाड़ लोगे तो लोग क्या कहेंगे?’’

बहस का कोई अंत न था. वसुंधरा की समझ में नहीं आ रहा था कि वह खाली हाथ ननद के विवाह में कैसे शामिल हो. सुकांत अपनी बात पर अड़ा था. आखिर विवाह के 10 दिन पहले सुकांत छुट्टी ले कर परिवार सहित अपने घर आ पहुंचा. पूरे घर में चहलपहल थी. सब ने वसुंधरा का स्वागत किया. 2 दिन बीतते ही जेठानियों ने टटोलना शुरू किया, ‘‘वसुंधरा, तुम रूपाली को क्या दे रही हो?’’

वसुंधरा सहम गई मानो कोई जघन्य अपराध किया हो. बड़ी देर तक कोई बात नहीं सूझी, फिर धीरे से बोली, ‘‘अभी कुछ तय नहीं किया है.’’

‘पता नहीं सुकांत ने अपने भाइयों को क्या बताया और अम्माजी से क्या कहा,’ वसुंधरा मन ही मन इसी उलझन में फंसी रही. वह दिनभर रसोई में घुसी रहती. सब को दिनभर चायनाश्ता कराते, भोजन परोसते उसे पलभर का भी कोई अवकाश न था. परंतु अधिक व्यस्त रहने पर भी उसे कोई न कोई सुना जाता कि वह कितने रुपए का कौन सा उपहार दे रही है. वसुंधरा लज्जा से गड़ जाती. काश, उस के पास भी पैसे होते तो वह भी सब को अभिमानपूर्वक बताती कि वह क्या उपहार दे रही है.

वसुंधरा को सब से अधिक गुस्सा सुकांत पर आता जो इस घर में कदम रखते ही मानो पराया हो गया. पिछले एक सप्ताह से उस ने वसुंधरा से कोई बात नहीं की थी. वसुंधरा ने बारबार कोशिश भी की कि पति से कुछ समय के लिए एकांत में मिले तो उन्हें फिर समझाए कि कहीं से कुछ रुपए उधार ले कर ही कम से कम एक उपहार तो अवश्य ही दे दें. विवाह में आए 40-50 रिश्तेदारों के भरेपूरे परिवार में वसुंधरा खुद को अत्यंत अकेली और असहाय महसूस करती. क्या सभी रिश्ते पैसों के तराजू पर ही तोले जाते हैं. भाईभाभी का स्नेह, सौहार्द का कोई मूल्य नहीं. जब से वसुंधरा ने इस घर में कदम रखा है, कामकाज में कोल्हू के बैल की तरह जुटी रहती है. बीमारी से उठे बच्चे पर भी ध्यान नहीं देती. बच्चे को गोद में बैठा कर दुलारनेखिलाने पर भी उसे अपराधबोध होता. वह अपनी सेवा में पैसों की भरपाई कर लेना चाहती थी.

वसुंधरा मन ही मन सोचती, ‘अम्माजी मेरा पक्ष लेंगी. जेठानियों के रोबदाब के समक्ष मेरी ढाल बन जाएंगी. रिश्तेदारों का क्या है. विवाह में आए हैं, विदा होते ही चले जाएंगे. उन की बात का क्या बुरा मानना. शादीविवाह में हंसीमजाक, एकदूसरे की खिंचाई तो होती ही है. घरवालों के बीच अच्छी अंडरस्टैंडिंग रहे, यही जरूरी है.’

परंतु अम्माजी के हावभाव से किसी पक्षधरता का आभास न होता. एक नितांत तटस्थ भाव सभी के चेहरे पर दिखाई देता. इतना ही नहीं, किसी ने व्यग्र हो कर बच्चे की बीमारी के बारे में भी कुछ नहीं पूछा. वसुंधरा ने ही 1-2 बार बताने का प्रयास किया कि किस प्रकार बच्चे को अस्पताल में भरती कराया, कितना व्यय हुआ? पर हर बार उस की बात बीच में ही कट गई और साड़ी, फौल, ब्लाउज की डिजाइन में सब उलझ गए. वसुंधरा क्षुब्ध हो गई. उसे लगने लगा जैसे वह किसी और के घर विवाह में आई है, जहां किसी को उस के निजी सुखदुख से कोई लेनादेना नहीं है. उस की विवशता से किसी को सरोकार नहीं है.

वसुंधरा को कुछ न दे पाने का मलाल दिनरात खाए जाता. जेठानियों के लाए उपहार और उन की कीमतों का वर्णन हृदय में फांस की तरह चुभता, पर वह किस से कहती अपने मन की व्यथा. दिनरात काम में जुटी रहने पर भी खुशी का एक भी बोल नहीं सुनाई पड़ता जो उस के घायल मन पर मरहम लगा पाता.

शारीरिक श्रम, भावनात्मक सौहार्द दोनों मिल कर भी धन की कमी की भरपाई में सहायक न हुए. भावशून्य सी वह काम में लगी रहती, पर दिल वेदना से तारतार होता रहता. विवाह धूमधाम से संपन्न हुआ.

सभी ने बढ़चढ़ कर इस अंतिम आयोजन में हिस्सा लिया. विदा के समय वसुंधरा ने सब की नजर बचा कर गले में पड़ा हार उतारा और गले लिपट कर बिलखबिलख कर रोती रूपाली के गले में पहना दिया.

रूपाली ससुराल में जा कर सब को बताएगी कि छोटी भाभी ने यह हार दिया है, हार 10 हजार रुपए से भला क्या कम होगा. पिताजी ने वसुंधरा की पसंद से ही यह हार खरीदा था. हार जाने से वसुंधरा को दुख तो अवश्य हुआ, पर अब उस के मन में अपराधबोध नहीं था. यद्यपि हार देने का बखान उस ने सास या जेठानी से नहीं किया, पर अब उस के मन पर कोई बोझ नहीं था. रूपाली मायके आने पर सब को स्वयं ही बताएगी. तब सभी उस का गुणगान करेंगे. वसुंधरा के मुख पर छाए चिंता के बादल छंट गए और संतोष का उजाला दमकने लगा.

रूपाली की विदाई के बाद से ही सब रिश्तेदार अपनेअपने घर लौटने लगे थे. 2 दिन रुक कर सुकांत भी वसुंधरा को ले कर इलाहाबाद लौट आए. कई बार वसुंधरा ने सुकांत को हार देने की बात बतानी चाही, पर हर बार वह यह सोच कर खामोश हो जाती कि उपहार दे कर ढिंढोरा पीटने से क्या लाभ? जब अपनी मरजी से दिया है, अपनी चीज दी है तो उस का बखान कर के पति को क्यों लज्जित करना. परंतु स्त्रीसुलभ स्वभाव के अनुसार वसुंधरा चाहती थी कि कम से कम पति तो उस की उदारता जाने. एक त्योहार पर वसुंधरा ने गहने पहने, पर उस का गला सूना रहा. सुकांत ने उस की सजधज की प्रशंसा तो की, पर सूने गले की ओर उस की नजर न गई.

वसुंधरा मन ही मन छटपटाती. एक बार भी पति पूछे कि हार क्यों नहीं पहना तो वह झट बता दे कि उस ने पति का मान किस प्रकार रखा. लेकिन सुकांत ने कभी हार का जिक्र नहीं छेड़ा.

एक शाम सुकांत अपने मित्र  विनोद के साथ बैठे चाय पी रहे  थे. विनोद उन के औफिस में ही लेखा विभाग में थे. विनोद ने कहा, ‘‘अगले महीने तुम्हारे जीपीएफ के लोन की अंतिम किस्त कट जाएगी.’’

सुकांत ने लंबी सांस ली, ‘‘हां, भाई, 5 साल हो गए. पूरे 15 हजार रुपए लिए थे.’’ संयोग से बगल के कमरे में सफाई करती वसुंधरा ने पूरी बात सुन ली. वह असमंजस में थी. सोचा कि सुकांत ने जीपीएफ से तो कभी लोन नहीं लिया. लोन लिया होता तो मुझ को अवश्य पता होता. फिर 15 हजार रुपए कम नहीं होते. सुकांत में तो कोई गलत आदतें भी नहीं हैं, न वह जुआ खेलता है न शराब पीता है. फिर 15 हजार रुपए का क्या किया. अचानक वसुंधरा को याद आया कि 5 साल पहले ही तो रूपाली की शादी हुई थी.

वसुंधरा अपनी विवशता पर फूटफूट कर रोने लगी. काश, सुकांत ने उसे बताया होता. उस पर थोड़ा विश्वास किया होता. तब वह ननद की शादी में चोरों की तरह मुंह छिपाए न फिरती. हार जाने का गम उसे नहीं था. हार का क्या है, अपने लौकर में पड़ा रहे या ननद के पास, आखिर उस से रहा नहीं गया. उस ने सुकांत से पूछा तो उस ने बड़े निरीह स्वर में कहा, ‘‘मैं ने सोचा, मैं बताऊंगा तो तुम झगड़ा करोगी,’’ फिर जब वसुंधरा ने हार देने की बात बताई तो सुकांत सकते में आ गया. फिर धीमे स्वर में बोला, ‘‘मुझे क्या पता था तुम अपना भी गहना दे डालोगी. मैं तो समझता था तुम बहन के विवाह में 15 हजार रुपए देने पर नाराज हो जाओगी,’’ वसुंधरा के मौन पर लज्जित सुकांत ने फिर कहा, ‘‘वसुंधरा, मैं तुम्हें जानता तो वर्षों से हूं किंतु पहचान आज सका हूं.’’

वसुंधरा को अपने ऊपर फक्र हो रहा था, पति की नजरों में वह ऊपर जो उठ गई थी.

Family Story: मां – क्या नीरा ने अपने बेटे को खुद से दूर किया?

Family Story: अब सबकुछ सनी ही तो था नीरा के लिए जीने का एकमात्र सहारा. कैसे दूर कर देती उसे अपनेआप से. लेकिन अब उस के हाथ में कुछ नहीं था. निर्णय सनी का था.

तीसरी बार फिर मोबाइल की घंटी बजी थी. सम झते देर नहीं लगी थी मीरा को कि फिर वही राजुल का फोन होगा. आज जैसी बेचैनी उसे कभी महसूस नहीं हुई थी. सनी भी तो अब तक आया नहीं था. यह भी अच्छा है कि उस के सामने फोन नहीं आया. मोबाइल की घंटी लगातार बजती जा रही थी. कांपते हाथों से उस ने मोबाइल उठाया-

‘‘हां, तो मीरा आंटी, फिर क्या सोचा आप ने?’’ राजुल की आवाज ठहरी हुई थी.

‘‘तुम फिर एक बार सोच लो,’’ मीरा ने वे ही वाक्य फिर से दोहराने चाहे थे. ‘‘मेरा तो एकमात्र सहारा है सनी, तुम्हारा क्या, तुम तो किसी को भी गोद ले सकती हो.’’

‘‘अरे, आप सम झती क्यों नहीं हैं? किसी और में और सनी में तो फर्क है न. फिर मैं कह तो रही हूं कि आप को कोई कमी नहीं होगी.’’

‘‘देखो, सनी से ही आ कर कल सुबह बात कर लेना,’’ कह कर मीरा ने फोन रख दिया था. उस की जैसे अब बोलने की शक्ति भी चुकती जा रही थी.

यहां मैं इतनी दूर इस शहर में बेटे को ले कर रह रही हूं. ठीक है, बहुत संपन्न नहीं है, फिर भी गुजारा तो हो ही रहा है. पर राजुल इतने वर्षों बाद पता लगा कर यहां आ धमकेगी, यह तो सपने में भी नहीं सोचा था. बेटे की इतनी चिंता थी, तो पहले आती.

अब जब पालपोस कर इतना बड़ा कर दिया, बेटा युवा हो गया तो… एकाएक फिर  झटका लगा था. यह क्या निकल गया मुंह से, क्यों कल सुबह आने को कह दिया, सनी तो चला ही जाएगा, वियोग की कल्पना करते ही आंखें भर आई थीं. सनी उस का एकमात्र सहारा.

पिछले 3 दिनों से लगातार फोन आ रहे थे राजुल के. शायद यहां किसी होटल में ठहरी है, पुराने मकान मालिक से ही पता ले कर यहां आई है. और 3 दिनों से मीरा का रातदिन का चैन गायब हो गया है. पता नहीं कैसे जल्दबाजी में उस के मुंह से निकल गया कि यहां आ कर सनी से बात कर लेना. यह क्या कह दिया उस ने, उस की तो मति ही मारी गई.

‘‘मां, मां, कितनी देर से घंटी बजा रहा हूं, सो गईं क्या?’’ खिड़की से सनी ने आवाज दी, तब ध्यान टूटा.

‘‘आई बेटा, तेरा ही इंतजार कर रही थी,’’ हड़बड़ा कर उठी थी मीरा.

‘‘अरे, इंतजार कर रही थीं तो दरवाजा तो खोलतीं. देखो, बाहर कितनी ठंड है,’’ कहते हुए अंदर आया था सनी, ‘‘अब जल्दी से खाना गरम कर दो, बहुत भूख लगी है और नींद भी आ रही है.’’

किचन में आ कर भी विचारतंद्रा टूटी नहीं थी मीरा की. अभी बेटा कहेगा कि फिर वही सब्जी और रोटी, कभी तो कुछ और नया बना दिया करो. पर आज तो जैसेतैसे खाना बन गया, वही बहुत है.

‘‘यह क्या, तुम नहीं खा रही हो?’’ एक ही थाली देख कर सनी चौंका था.

‘‘हां बेटा, भूख नहीं है, तू खा ले, अचार निकाल दूं?’’

‘‘नहीं रहने दो, मु झे पता था कि तुम वही खाना बना दोगी. अच्छा होता, प्रवीण के घर ही खाना खा आता. उस की मां कितनी जिद कर रही थीं. पनीर, कोफ्ते, परांठे, खीर और पता नहीं क्याक्या बनाया था.’’

मीरा जैसे सुन कर भी सुन नहीं पा रही थी.

‘‘मां, कहां खो गईं?’’ सनी की आवाज से फिर चौंक गई थी.

‘‘पता है, प्रवीण का भी सलैक्शन हो गया है. कोचिंग से फर्क तो पड़ता है न, अब राजू, मोहन, शिशिर और प्रवीण सभी चले जाएंगे अच्छे कालेज में. बस मैं ही, हमारे पास भी इतना पैसा होता, तो मैं भी कहीं अच्छी जगह पढ़ लेता,’’ सनी का वही पुराना राग शुरू हो गया था.

‘‘हां बेटा, अब तू भी अच्छे कालेज में पढ़ लेना, मन चाहे कालेज में ऐडमिशन ले लेना, बस, सुबह का इंतजार.’’

‘‘क्या? कैसी पहेलियां बु झा रही हो मां. सुबह क्या मेरी कोईर् लौटरी लगने वाली है, अब क्या दिन में भी बैठेबैठे सपने देखने लगी हो. तबीयत भी तुम्हारी ठीक नहीं लग रही है. कल चैकअप करवा दूंगा, चलना अस्पताल मेरे साथ,’’ सनी ने दो ही रोटी खा कर थाली खिसका दी थी.

‘‘अरे खाना तो ढंग से खा लेता,’’ मीरा ने रोकना चाहा था.

‘‘नहीं, बस. और हां, तुम किस लौटरी की बात कर रही थीं?’’

‘‘हां, लौटरी ही है, कल सुबह कोई आएगा तु झ से मिलने.’’

‘‘कौन? कौन आएगा मां,’’ सनी चौंक गया था.

‘‘तू हाथमुंह धो कर अंदर चल, फिर कमरे में आराम से बैठ कर सब सम झाती हूं.’’

मीरा ने किसी तरह मन को मजबूत करना चाहा था. क्या कहेगी किस प्रकार कहेगी.

‘‘हां मां, आओ,’’ कमरे से सनी ने आवाज दी थी.

मन फिर से भ्रमित होने लगा. पैर भी कांपे. किसी तरफ कमरे में आ कर पलंग के पास पड़ी कुरसी पर बैठ गई थी मीरा.

‘‘क्या कह रही थीं तुम, किस लौटरी के बारे में?’’ सनी का स्वर उत्सुकता से भरा हुआ था.

मीरा ने किसी तरह बोलना शुरू किया, ‘‘बेटा, मैं आज तु झे सबकुछ बता रही हूं, जो अब तक बता नहीं पाई. तेरी असली मां का नाम राजुल है, जोकि बहुत बड़ी प्रौपर्टी की मालिक हैं. उन की कोई और औलाद नहीं है. वे अब तु झे लेने आ रही हैं,’’ यह कहते हुए गला भर्रा गया था मीरा का और आंसू छिपाने के लिए मुंह दूसरी ओर मोड़ लिया था उस ने.

मां, आप कह क्या रही हो, मेरी असली मां कोई और है. तो अब तक कहां थी, आई क्यों नहीं?’’ सनी सम झ नहीं पा रहा था कि आज मां को हुआ क्या है? क्यों इतनी बहकीबहकी बातें कर रही हैं.

‘‘हां बेटा, तेरी असली मां वही है. बस, तु झे जन्म नहीं देना चाह रही थी तो मैं ने ही रोक दिया था और कहा था कि जो भी संतान होगी, मैं ले लूंगी. मेरे भी कोईर् औलाद नहीं थी. मैं वहीं अस्पताल में नर्स थी. बस, तु झे जन्म दे कर और मु झे सौंप कर वह चली गई.’’

‘‘अब तू जो भी सम झ ले. हो सके तो मु झे माफ कर दे. मैं ने अब तक तु झ से यह सब छिपाए रखा था. मेरे लिए तो तू बेटे से भी बढ़ कर है. बस, अब और कुछ मत पूछ,’’ यह कहते फफक पड़ी थी मीरा और जोर की रुलाई को रोकते हुए कमरे से बाहर निकल गई.

अपने कमरे में आ कर गिर रुलाई फूट ही पड़ी थी. सनी उस का बेटा इतने लाड़प्यार से पाला उसे. कल पराया हो जाएगा. सोचते ही कलेजा मुंह को आने लगता है. कैसे जी पाएगी वह सनी के बिना. इतना दुख तो उसे अपने पति जोसेफ के आकस्मिक निधन पर भी नहीं हुआ था. तब तो यही सोच कर संतोष कर लिया था कि बेटा तो है उस के पास. उस के सहारे बची जिंदगी निकल जाएगी. यही सोच कर पुराना शहर छोड़ कर यहां आ कर अस्पताल में नौकरी कर ली थी. तब क्या पता था कि नियति ने उस के जीवन में सुख लिखा ही नहीं. तभी तो, आज राजुल पता लगाते हुए यहां आ धमकी है.

शायद वक्त को यही मंजूर होगा कि सनी को अच्छा, संपन्न परिवार मिले, उस का कैरियर बने, तभी तो राजुल आ रही है. बेटा भी तो यही चाहता है कि उसे अच्छा कालेज मिले. अब कालेज क्या, राजुल तो उसे ऐसे ही कई फैक्ट्री का मालिक बना देगी.

ठीक है, उसे तो खुश होना चाहिए. आखिर, सनी की खुशी में ही तो उस की भी खुशी है. और उस की स्वयं की जिंदगी अब बची ही कितनी है, काट लेगी किसी तरह.

लेकिन अपने मन को लाख उपाय कर के भी वह सम झा नहीं पा रही थी. पुराने दिन फिर से सामने घूमने लगे थे. तब वह राजुल के पड़ोस में ही रहा करती थी. राजुल के पिता नगर के नामी व्यवसायी थे. उन्हीं के अस्पताल में वह नर्स की नौकरी कर रही थी. राजुल अपने पिता की एकमात्र संतान थी. खूब धूमधाम से उस की शादी हुई पर शादी के चारपांच माह बाद ही वह तलाक ले कर पिता के घर आ गईर् थी. तब उसे 3 माह का गर्भ था. इसीलिए वह एबौर्शन करा कर नई जिंदगी जीना चाह रही थी. इस काम के लिए मीरा से संपर्क किया गया. तब तक मीरा और जोसेफ की शादी हुए एक लंबा अरसा हो चुका था और उन की कोई संतान नहीं थी.

मीरा ने राजुल को सम झाया था. ‘तुम्हारी जो भी संतान होगी, मैं ले लूंगी. तुम एबौर्शन मत करवाओ.’

बड़ी मुश्किल से इस बात के लिए राजुल तैयार हुई थी. और बेटे को जन्म दे कर ही उस शहर से चली गई. बेटे का मुंह भी नहीं देखना चाहा था उस ने.

सनी का पालनपोषण उस ने और जोसेफ ने बड़े लाड़प्यार से किया था. राजुल की शादी फिर किसी नामी परिवार के बेटे से हो गई थी और वह विदेश चली गई थी.

यह तो उसे राजुल के फोन से ही मालूम पड़ा कि वहां उस के पति का निधन हो गया और अब वह अपनी जायदाद संभालने भारत आ गई है, चूंकि निसंतान है, इसलिए चाह रही है कि सनी को गोद ले ले, आखिर वह उसी का तो बेटा है.

मीरा सम झ नहीं पा रही थी कि नियति क्यों उस के साथ इतना क्रूर खेल खेल रही है. सनी उस का एकमात्र सहारा, वह भी अलग हो जाएगा, तो वह किस के सहारे जिएगी.

आंखों में नींद का नाम नहीं था. शरीर जैसे जला जा रहा था. 2 बार उठ कर पानी पिया.

सुबह उठ कर रोज की तरह दूध लाने गई, चाय बनाई. सोचा, कमरा थोड़ा ठीकठाक कर दे, राजुल आती होगी. सनी को भी जगा दे, पर वह जागा हुआ ही था. उसे चाय थमा कर वह अपने कमरे में आ गई. बेटे को देखते ही कमजोर पड़ जाएगी. नहीं, वह राजुल के सामने भी नहीं जाएगी.

जब राजुल की कार घर के सामने रुकी, तो उस ने उसे सनी के ही कमरे में भेज दिया था. ठीक है, मांबेटा आपस में बात कर लें. अब उस का काम ही क्या है? वैसे भी राजुल के पिता के इतने एहसान हैं उस पर, अब किस मुंह से वह सनी को रोक पाएगी. पर मन था कि मान ही नहीं रहा था और राजुल और सनी के वार्त्तालाप के शब्द पास के कमरे से उस के कानों में पड़ भी रहे थे.

‘‘बस बेटा, अब मैं तु झे लेने आ गईर् हूं. मीरा ने बताया था कि तू अपने कैरियर को ले कर बहुत चिंतित है. पर तु झे चिंता करने की कोई जरूरत नहीं. करोड़ों की जायदाद का मालिक होगा तू,’’ राजुल कह रही थी.

‘‘कौन बेटा, कैसी जायदाद, मैं अपनी मां के साथ ही हूं, और यहीं रहूंगा. ठीक है, बहुत पैसा नहीं है हमारे पास, पर जो है, हम खुश हैं. मेरी मां ने मु झे पालपोस कर बड़ा किया है और आप चाहती हैं कि इस उम्र में उन्हें छोड़ कर चल दूं. आप होती कौन हैं मेरे कैरियर की चिंता करने वाली, कैसे सोच लिया आप ने कि मैं आप के साथ चल दूंगा?’’ सनी का स्वर ऊंचा होता जा रहा था.

इतने कठोर शब्द तो कभी नहीं बोलता था सनी. मीरा भी चौंकी थी. उधर, राजुल का अनुनयभरा स्वर, ‘‘बेटे, तू मीरा की चिंता मत कर, उन की सारी व्यवस्था मैं कर दूंगी. आखिर तू मेरा बेटा ही है, न तो मैं ने तु झे गोद दिया था, न कानूनीरूप से तेरा गोदनामा हुआ है. मैं तेरी मां हूं, अदालत भी यही कहेगी मैं ही तेरी मां हूं. परिस्थितियां थीं, मैं तु झे अपने पास नहीं रख पाई. मीरा को मैं उस का खर्चा दूंगी. तू चाहेगा तो उसे भी साथ रख लेंगे. मु झे तेरे भविष्य की चिंता है. मैं तेरा अमेरिका में दाखिला करा दूंगी, यहां तु झे सड़ने नहीं दूंगी. तू मेरा ही बेटा है.’’

‘‘मत कहिए मु झे बारबार बेटा, आप तो मु झे जन्म देने से पहले ही मारना चाहती थीं. आप को तो मेरा मुंह देखना भी गवारा नहीं था. यह तो मां ही थीं जिन्होंने मु झे संभाला और अब इस उम्र में वे आप पर आश्रित नहीं होंगी. मैं हूं उन का बेटा, उन की संभाल करने वाला, आप को चिंता करने की जरूरत नहीं है, सम झीं? और अब आप कृपया यहां से चली जाएं, आगे से कभी सोचना भी मत कि मैं आप के साथ चल दूंगा.’’

सनी ने जैसे अपना निर्णय सुना दिया था. फिर राजुल शायद धीमे स्वर में रो भी रही थी. मीरा सम झ नहीं पा रही थी कि क्या कह रही है.

तभी सनी का तेज स्वर सुनाई दिया, ‘‘मैं जो कुछ कह रहा हूं, आप सम झ क्यों नहीं पा रही हैं. मैं कोई बिकाऊ कमोडिटी नहीं हूं. फिर जब आप ने मु झे मार ही दिया था तो अब क्यों आ गई हैं मु झे लेने. मैं बालिग हूं, मु झे अपना भविष्य सोचने का हक है. आप चाहें तो आप भी हमारे साथ रह सकती हैं. पर मैं, आप के साथ मां को छोड़ कर जाने वाला नहीं हूं. आप मु झे भी सम झने की कोशिश करें. मेरा अपना भी उत्तरदायित्व है. जिस ने मु झे पालापोसा, बड़ा किया, मैं उसे इस उम्र में अंधकार में नहीं छोड़ सकता. कानून आप की मदद नहीं करेगा. दुनिया में आप की बदनामी अलग होगी. आप भी शांति से रहें, हमें भी रहने दें. आप मु झे सम झने की कोशिश करें. अब मैं और कुछ कहूं और अपशब्द निकल जाएं मेरे मुंह से, मेरी रिक्वैस्ट है, आप चली जाएं. सुना नहीं आप ने?’’

सनी की आवाज फिर और तेज हो गई थी.

इधर, राजुल धड़ाम से दरवाजा बंद करते हुए निकल गई थी. फिर कार के जाने की आवाज आई. मीरा की जैसे रुकी सांसें फिर लौट आई थीं. सनी कमरे से बाहर आया और मां के गले लग गया और बोला, ‘‘मेरी मां सिर्फ आप हो. कहीं नहीं जाऊंगा आप को छोड़ कर.’’ मीरा को लगा कि उस की ममता जीत गई है.

Family Story: शर्त – क्यों श्वेता अपनी शादी से खुश नहीं थी?

Family Story: आजलगभग 16 साल बाद श्वेता ने सलोनी की तसवीर फेसबुक पर देखी और श्वेता फिर से छलांग लगा कर कालेज वाली छुईमुई उमराव जान बन गई. अदअसल 2 दशक पहले श्वेता और सलोनी अभिन्न मित्र थीं. दोनों के घरों में कोई समानता नहीं थी. सलोनी का राजमहल सा घर जो शहर की सब से पौश कालोनी कवि नगर में स्थित था वहीं श्वेता का छोटा सा घर निम्नवर्गीय कालोनी विजय नगर में था, पर इन सब बातों के बावजूद श्वेता और सलोनी की दोस्ती कलकल बहते हुए पानी की तरह चलती रही.

सलोनी जहां सांवले रंग, साधारण नैननक्श पर गजब के आत्मविश्वास की स्वामिनी थी वहीं श्वेता गौर वर्ण, भूरी आंखें, तीखे नैननक्श की मलिका थी. दोनों एकदूसरे के न केवल रंगरूप में, बल्कि आचारविचार में भी बिलकुल विपरीत थीं. जहां सलोनी बेहद बिंदास और दिल की साफ थी वहीं श्वेता थोड़ी सी सिमटी हुई और खुद में खोई रहती थी.

श्वेता मन ही मन अपने जीवनस्तर की तुलना सलोनी से करती और खुद को सदा कमतर पाती थी. पर उसे पूरा विश्वास था कि उस के राजसी रूपसौंदर्य के कारण वह किसी अमीर खानदान की ही बहू बनेगी और श्वेता के घर वह बडे़ और अमीर लोगों के तौरतरीके का अनुकरण करने ही जाती थी.

आज सलोनी का जन्मदिन था और सभी सहेलियां कानपुर के पांचसितारा होटल में इकट्ठा हुई थीं. वहीं पर सलोनी ने अपनी सब सहेलियों की मुलाकात विभोर से कराई, जो उस के पिता के मित्र का बेटा था और इंजीनियरिंग की पढ़ाई कानुपर के सरकारी कालेज से कर रहा था. विभोर 5 फुट 10 इंच लंबा आकर्षक नौजवान था.

जैसेकि आमतौर पर होता है, सब लड़कियों ने पूरा होटल सिर पर उठा रखा था बस श्वेता ही थी जो चुपचाप सहमी सी एक कोने में बैठी हुई थी.

विभोर ने मुसकराते हुए सलोनी से कहा, ‘‘ये छुईमुई कौन हैं, बिलकुल उमराव जान लग रही हैं.’’

सलोनी खींच कर श्वेता को वहीं ले गई और बोली, ‘‘यह छुईमुई श्वेता है और मेरी सब से पुरानी और करीबी दोस्त.’’

फिर खाना और्डर होने लगा. ऐसेऐसे व्यंजन जिन के नाम भी श्वेता ने नहीं सुने थे. वह और घबरा गई. तभी विभोर श्वेता की बगल में आ कर बैठ गया और मेनू कार्ड उस के हाथों से ले लिया. फिर धीमे से उस के कानों में बोला, ‘‘जो मैं और्डर करूंगा तुम भी वही करना.’’

यह सुन कर श्वेता की जान में जान आ गई. विभोर ने श्वेता जैसी कोई लड़की अब  तक देखी नहीं थी. उस की अपनी मां, बहनें बहुत ही अलग किस्म की थीं. यह छुईमुई जैसी लड़की से उस का पहला परिचय था. बातबात पर चेहरे का लज्जा से लाल हो जाना, दुपट्टे के कोने से खेलना, पसीनापसीना होना और बिना किसी प्रसाधन के भी इतना सुंदर दिखना, विभोर का यह पहला तजरबा था.

वापसी में श्वेता को घर जाने की जल्दी थी तो वह औटो के लिए निकल गई, तभी पीछे से विभोर आया और बोला, ‘‘छुईमुई तुम मेरे साथ चलो, मेरे कालेज का रास्ता वहीं से है.’’

श्वेता घबरा कर चुप खड़ी रही तो विभोर हंस कर बोला, ‘‘तुम्हें घर के बाहर ही उतार दूंगा, कौफी पीने के लिए घर के अंदर नहीं आऊंगा.’’

श्वेता चुपचाप बैठ गई और मोटरसाइकिल हवा से बातें करने लगी. एक अजीब सी खुशी और दुविधा में घिरी श्वेता घर पहुंची. विभोर पहला ऐसा लड़का था, जिस ने इतना बेबाक हो कर उस से बात की. खोईखोई सी वह अपने पलंग पर लेट गई और विभोर का उसे छुईमुई कहना उस की तुलना उमराव जान से करना, सबकुछ ने उस के दिल के तार ?ांकृत कर दिए और उस की आंखों में इंद्रधनुषी रंग उतर आए, जिन के सपने वह बचपन से देखती आई थी.

श्वेता अब अपने रखरखाव का ध्यान पहले से अधिक रखने लगी थी और अब उस का अधिकतर समय सलोनी के घर ही व्यतीत होता था.

दरअसल, श्वेता विभोर को देखने के बहाने अपना डेरा सलोनी के घर जमाए रहती थी और यह बात सलोनी भी जानती थी. इसलिए उस ने एक दिन श्वेता से कह भी दिया, ‘‘श्वेता विभोर हर किसी से ऐसे ही मजाक करता रहता है, बहुत खिलंदड़ स्वभाव का है वह.’’

मगर श्वेता को लगा कि विभोर श्वेता के चारों ओर उमराव जान कह कर मंडराता रहता है, इसलिए सलोनी जलती है क्योंकि विभोर हमेशा सलोनी को काला हीरा कह कर चिढ़ाता है.

देखते ही देखते 2 वर्ष साल गए और श्वेता, विभोर और सलोनी की दोस्ती ऐसे ही चलती रही. विभोर ने कभी भी श्वेता से अपने प्यार का इजहार नहीं किया पर प्यार का क्या कभी इजहार करा जाता है, यह तो महसूस किया जाता है और श्वेता तो पिछले 2 सालों से श्वेता विभोर के प्यार में भीगी हुई थी. उसे तो मानो अपनी मंजिल मिल गई थी.

उधर विभोर को जहां एक तरफ श्वेता की खामोशी और घबराहट बहुत आकर्षक लगती थी वहीं सलोनी का आत्मविश्वास, उस की हर बात को मूक सहमति न दे कर तर्कवितर्क करना उसे प्रभावित करता था.

विभोर ने श्वेता से कोई वादा नहीं किया था पर श्वेता को पूरा विश्वास था कि विभोर उस का हाथ मांगने आएगा. कालेज खत्म हो गया था तो सलोनी ने अपने पापा का बिजनैस जौइन कर लिया था और श्वेता ने विभोर के प्रस्ताव का इंतजार करना आरंभ कर दिया.

विभोर और श्वेता फोन से एकदूसरे से लगातार संपर्क में थे. इस बीच विभोर की नौकरी लग गई पर वह अधिक खुश नहीं था, उसे और आगे बढ़ना था. श्वेता हर बार विभोर को फोन पर यह सुनाती थी कि उस के लिए बहुत सारे विवाह के प्र्रस्ताव आ रहे हैं पर विभोर को सम?ा नहीं आ रहा था कि श्वेता ये सब उसे क्यों बताती रहती है.

एक दिन ?ां?ाला कर उस ने फोन पर बोल भी दिया, ‘‘कैसी दोस्त हो तुम श्वेता मैं अपनी नौकरी के कारण परेशान हूं और तुम्हें बस विवाह की पड़ी है. हां मालूम है मु?ो तुम बहुत खूबसूरत हो तो रोका किस ने है तुम्हें कर लो न शादी,’’ और फिर फोन काट दिया.

श्वेता को लगा कि विभोर असुरक्षित महसूस कर रहा है कि कहीं उस का विवाह कहीं और न हो जाए, पर मन ही मन श्वेता खुश थी कि चलो विभोर अब जल्द ही सिर के बल दौड़ा आएगा.

एक दिन अचानक शाम को सलोनी का फोन आया, उसे अर्जेंट बुलाया था. वहां जा कर देखा तो पता चला सलोनी उड़ीउड़ी सी घूम रही है, श्वेता को देखते ही बोली, ‘‘शुक्र है तुम आ गई, यार आज मेरा रोका है और सुनेगी किस के साथ?’’

श्वेता वहीं धम से बैठ गई और फिर बोली, ‘‘सलोनी यह कैसा मजाक है, विभोर तो अभी विवाह के बारे में सोच भी नहीं सकता है… उस ने मु?ा से खुद बोला था.’’

सलोनी हंसते हुए बोली, ‘‘अरे पगली तू बहुत भोली है, विभोर ने अपनी एक नई यूनिट आरंभ करी है और उस में मेरे पापा ने 50% पैसा लगाया है तथा उस यूनिट का बेसिक प्लान मेरा था तो दोनों के पापा ने सोचा जब एकसाथ काम ही करना है तो फिर जिंदगी भी एकसाथ क्यों न गुजारी जाए.’’

श्वेता कड़वाहट से चिल्ला कर बोली, ‘‘यह क्यों नहीं बोलती कि तुम ने अपने पैसों से उसे खरीद लिया है.’’

सलोनी श्वेता की बात सुन कर सकते में आ गई पर फिर भी संयत स्वर में बोली, ‘‘श्वेता, विभोर का अपना निर्णय है, उस ने सुंदरता से अधिक अपनी तरक्की को महत्त्व दिया है, तुम बहुत सुंदर हो श्वेता पर जिंदगी में आगे बढ़ने के लिए काबिलीयत और स्मार्टनैस भी चाहिए, जो शायद उसे मु?ा में नजर आई होगी.’’

श्वेता ने कहा, ‘‘यह नहीं हो सकता, विभोर मेरे अलावा और किसी से शादी नहीं कर सकता है और मैं तुम से हर बात में बेहतर हूं.’’

सलोनी बोली, ‘‘यह हो चुका है श्वेता, जरूरी नहीं है सब लोग रूप के ही दीवाने हों. कुछ लोग रूप से अधिक बुद्धि को भी महत्त्व देते हैं, मेरे ही कारण विभोर यह नया यूनिट लगा पाया है.’’

श्वेता बोली, ‘‘सलोनी अपने पापा के वैभव पर तुम्हें बहुत घमंड है न और इसी धन के बल पर तुम ने विभोर को हथिया लिया है पर मेरी भी यह बात सुन लो, अब रूपरंग के साथसाथ यह वैभव और धन भी मेरा दास बन कर रहेगा, यह मेरी शर्त है तुम से.’’

सलोनी मुसकराते हुए बोली, ‘‘तुम्हारी सोच गलत है श्वेता पर देखेंगे अगर कभी जिंदगी के किसी मोड़ पर टकराए तो.’’

उस दिन के बाद श्वेता ने सलोनी और विभोर नामक अध्याय अपनी जिंदगीरूपी किताब  से हमेशा के लिए खत्म कर दिया था पर वह अपनी शर्त नहीं भूली थी बस उस की जिंदगी का एक ही मकसद था किसी भी कीमत पर धनवान बनना, इस कारण वह एक के बाद एक मध्यवर्गीय रिश्ते नकारती रही और जहां श्वेता का मन करता था वहां दहेज की लंबी लिस्ट देख कर उस के घर वालों के पसीने छूट जाते. घर वाले श्वेता के रवैए से परेशान हो गए थे.

देखते ही देखते श्वेता ने 30 साल भी पूरे कर लिए. इसी बीच एक दिन श्वेता एक दूर की रिश्तेदारी में विवाह में सम्मिलित होने गई थी. वहीं पर उसे राजेश्वरी ने अपने बेटे विकास के लिए पसंद कर लिया. विकास खानदानी रईस था और बहुत अच्छे पद पर कार्यरत था, पर दिखने में बहुत ही साधारण था. विकास की पहली बीबी की 1 साल पहले मृत्यु हो गई थी और उस के 5 और 7 साल के 2 बच्चे थे.

जब यह रिश्ता आया तो श्वेता के मां और बाबूजी बोले, ‘‘सगी बेटी है सौतेली नहीं, पैसा हुआ तो क्या हुआ, है तो पूरे 38 साल का. न बाबा न ऐसा महल नहीं चाहिए और फिर 2-2 बच्चे भी हैं.’’

मगर श्वेता ने आगे बढ़ कर इस रिश्ते को स्वीकार कर लिया. वह अपने एकाकी जीवन से ऊब चुकी थी और यह पहला ऐसा रिश्ता था जो उसे पसंद आया था. उसे विकास के बच्चों या विकास से कोई मतलब नहीं था, उसे मतलब था विकास के रुतबे से, पैसों से.

आज विवाह के 10 साल बीत गए थे, जिस धन के लिए श्वेता ने विवाह किया था   वह यहां पर भरपूर था. दोनों बच्चे होस्टल में थे और विकास उस की आंखों के इशारे पर उठता और बैठता था. फिर भी एक टीस थी श्वेता के मन में जो जबतब उसे मायूस कर देती थी.

विकास उसे हाथोंहाथ रखता था पर फिर भी दोनों का रिश्ता पतिपत्नी का नहीं, दास मालिक का सा लगता था. श्वेता जैसी खूबसूरत पत्नी पा कर विकास धन्य हो उठा था, वह हमेशा श्वेता की खूबसूरती का उपासक ही बना रहा. पति बनने की कोशिश कभी न करी. दोनों बच्चों के साथ श्वेता ने हमेशा एक सम्मानजनक दूरी बना कर रखी थी. श्वेता और विकास के अपना कोई बच्चा कभी नहीं हो पाया था पर इस का भी श्वेता को कभी अफसोस नहीं हुआ था. बच्चा न होने के कारण श्वेता के शरीर पर मांस की एक परत भी नहीं चढ़ी थी, जैसी वह 10 साल पहले लगती थी वैसी ही आज भी लगती थी और आईने में यह देख कर श्वेता की गरदन घमंड से तन जाती थी.

ऐसे ही एक दिन श्वेता ने अचानक फेसबुक पर सलोनी को देखा और उस की तसवीर देख कर उसे असीम आनंद आ गया. सलोनी बेहद अनाकर्षक लग रही थी पर विभोर अभी भी जस का तस बना हुआ था, फिर से श्वेता के मन में टीस सी उठी. यह विभोर नाम की टीस ही थी जो उसे सामान्य होने नहीं देती थी.

और फिर नियति जैसे खुद ही सलोनी और विभोर को उस के सामने खींच लाई. विभोर को अपने व्यापार के सिलसिले में ही कोई फाइल पास करवानी थी, जो विकास की मदद से ही हो सकती थी.

जैसे ही दफ्तर में विकास को पता चला कि सलोनी, श्वेता के शहर की ही है और उस की मित्र भी थी तो फौरन विकास ने उन्हें अपने घर पर आमंत्रित कर लिया. श्वेता भले ही ऊपर से भुनभुना रही थी पर अंदर से बेहद खुश थी, चलो अब तो वह सलोनी को अपना राजपाट दिखा पाएगी, विभोर को भी तो पता चले कि उस ने क्या खोया है और किस कांच के टुकड़े को वह हीरा सम?ा कर ले गया है. बहुत घमंड था न सलोनी को अपनी योग्यता और स्मार्टनैस पर, परंतु आज सलोनी भी देख लेगी कि जीवन के तराजू में मेरे वैभव, मेरी सुंदरता का पलड़ा भारी है.

विभोर और सलोनी समय से कुछ पहले ही आ गए थे. दोनों पुराने दिनों को याद करने लगे पर श्वेता ऐसा व्यवहार कर रही थी जैसे उसे कुछ भी याद न हो.

श्वेता ने ही सलोनी से कहा, ‘‘क्या हाल बना रखा है सलोनी तुम ने… तुम पहले से तीन गुना हो गई हो, जिम नहीं जाती हो क्या?’’ और फिर बड़ी अदा से अपना साड़ी का पल्ला ठीक करते हुए कनखियों से विभोर की तरफ देखने लगी पर विभोर की आंखों में सलोनी के लिए प्यार और सम्मान देख कर वह राख हो गई.

सलोनी हंसते हुए बोली, ‘‘श्वेता, मां बनने के बाद तो वजन बढ़ ही जाता है. जब तुम्हारे खुद के बच्चे होंगे न तो पता चलेगा.’’

ऐसा लगा मानो श्वेता के मुंह पर किसी ने सफेदी पोत दी हो और फिर सलोनी अपने बच्चों का प्रशस्ति गान करने लगी.

तभी श्वेता को ध्यान आया उसे तो विकास के बच्चों के बारे में कुछ भी नहीं पता.  वह बस विकास की पत्नी ही बनी रही, उस ने उन बच्चों की मां बनने की पहल कभी नहीं की.

श्वेता ने फिर खाने की मेज पर सब को बुलाया, उसे पूरी उम्मीद थी कि सलोनी और विभोर उस के खाने की अनदेखी नहीं कर पाएंगे. पर यहां भी श्वेता को निराशा ही हाथ लगी. सलोनी अधिकतर व्यंजनों को देख कर बोली, ‘‘श्वेता, तुम्हारे व्यंजनों को देख कर विकास की सेहत का राज सम?ा आ गया.’’

विकास की बढ़ती हुई तोंद की तरफ उन दोनों का इशारा था. श्वेता कट कर रह गई.

श्वेता को सम?ा नहीं आ रहा था उस का रूप, उस का वैभव क्यों सलोनी और विभोर को प्रभावित नहीं कर पा रहा, विभोर उस की खूबसूरती पर ध्यान क्यों नहीं दे रहा है? विभोर और सलोनी के रिश्ते में बहुत सुंदर तालमेल था जो श्वेता के वैवाहिक रिश्ते से नदारद था, क्योंकि श्वेता ने तो विवाह बस धन के लिए किया था खाने के बाद विभोर और विकास कार्य संबंधी बातों के लिए बगीचे में बैठ गए. सलोनी को अपने वैभव से दमकते ड्राइंगरूम में बैठा कर, श्वेता कौफी लेने के लिए चली गई.

कौफी पीतेपीते सलोनी 2 मिनट रुकी. श्वेता को लगा शायद अब वह उस की मेहमाननवाजी की प्रशंसा करेगी पर सलोनी खिलखिलाकर बोली, ‘‘श्वेता, तुम्हें अपनी शर्त याद है क्या अभी भी? लगता है तुम ने शर्त जीत ली है.’’

श्वेता ने कोई जवाब नहीं दिया पर उस के मन को पता था कि वह फिर से शर्त हार गई है. उसे पता था कि वह खूबसूरत है पर बस अपने लिए.

‘‘उस ने विकास से शादी बस सलोनी से बराबरी के लिए की है पर सलोनी अब भी उस से कहीं आगे है, क्योंकि एक पत्नी की सफलता उस के रंगरूप में नहीं उस के पति और बच्चों के साथ उस के रिश्तों की गहराई और गरमाहट से ?ालकती है, जो श्वेता के विवाह में कहीं नहीं थी.

सलोनी खिलखिलाती हुई बगीचे की तरफ चली गई. श्वेता को लग रहा था उस की बेमतलब की शर्त ने उस की जिंदगी को ऐसे मोड़ पर ला कर खड़ा कर दिया, जिस की शायद कोई मंजिल ही नहीं है.

Family Story: ओमा – 80 साल की ओमा और लीसा का क्या रिश्ता था

Family Story: ओमा का यह नित्य का नियम बन गया था. दोपहर के 2 बजते ही वे घर के बाहर पड़ी आराम कुरसी पर आ कर बैठ जातीं. वजह, यह लीसा के आने का समय होता.

5 साल की लीसा किंडरगार्टन से छुट्टी होते ही पीठ पर स्कूल बैग लादे तेज कदमों से घर की ओर चल पड़ती. कुछ दूरी तक तो उस की सहेलियां साथसाथ चलतीं, फिर वे अपनेअपने घरों की ओर मुड़ जातीं.

लीसा का घर सब से आखिर में आता. डेढ़ किलोमीटर चल कर आने में लीसा को एक या दो बार अपनी पानी की बोतल से 2-3 घूंट पानी पीना पड़ता. उस के पैरों की गति तब बढ़ जाती जब उसे सौ मीटर दूर से अपना घर दिखाई देने लगता.

तीनमंजिला मकान के बीच वाले तल्ले में लीसा अपने पापा व मम्मा के साथ रहती है. नीचे वाले तल्ले में ओमा रहती हैं (जरमनी में ग्रैंड मदर को ओमा कहते हैं) और सब से ऊपर वाली मंजिल में रूबिया आंटी व मोहम्मद अंकल रहते हैं.

ओमा इस मकान की मालकिन की मां हैं. मकान मालकिन, जिन्हें सभी किराएदार ‘लैंड लेडी’ कह कर संबोधित करते हैं, इस तीनमंजिला मकान से 3 घर छोड़ कर चौथे मकान में रहती हैं.

80 साल की ओमा यहां अकेली रहती हैं. जरमनी में 80 साल के वृद्ध महिलापुरुष उतने ही स्वस्थ दिखते हैं जितने भारत में 60-65 के. वे अपने सभी काम खुद करती हैं. वैसे भी, इस देश में घरेलू नौकर जैसी कोई व्यवस्था नहीं है.

सूरज निकलने के पहले ओमा रोजाना उठती हैं और दिन की शुरुआत अपने बगीचे की साफसफाई से करती हैं. वे चुनचुन कर मुर झाई पत्तियों को पौधों से अलग करतीं, खुरपी से पौधों की जड़ों के आसपास की मिट्टी को उथलपुथल करतीं और अंत में एकएक पौधे को सींचतीं.

सुबह के 8 बजते ही वे अपनी साइकिल उठातीं और 2 किलोमीटर दूर बेकरी से ताजी ब्रैड व अंडे लातीं. इस देश में साइकिल 3 साल के छोटे से बच्चे से ले कर 90-95 साल तक के बुड्ढे सभी चलाते हैं.

साढ़े 11 बजे से साढ़े 12 बजे तक का दोपहर वाला समय उन का पार्क में चहलकदमी में गुजरता. पार्क से आ कर वे लंच लेतीं, फिर लीसा के आने के इंतजार में बाहर आ कर कुरसी पर बैठ जाती हैं.

लीसा के पापा अर्नव और मम्मा चित्रा 10 वर्ष पहले जरमनी आए थे. उन्हें उन की भारतीय कंपनी की ओर से एक साल के प्रशिक्षण कार्यक्रम में बेंगलुरु से वोल्डार्फ भेजा गया था, तब उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि उन के टैलेंट को देखते हुए जरमन कंपनी उन्हें यहीं रख लेगी.

चित्रा और अर्नव ने भी अन्य भारतीयों की तरह शहर में रहने के बजाय दूर गांव में रहना पसंद किया. इस की मुख्य वजह शहर की तुलना में गांव में आधे किराए में अच्छा मकान मिल जाना तो था ही, साथ ही साथ गांव का शांत व स्वच्छ पर्यावरण भी था.

वैसे यहां के गांव भी शहरों की तरह सर्वसुविधा संपन्न हैं. व्यवस्थित रूप से आकर्षक बसाहट, स्वच्छ व चिकनी सड़कें, चौबीसों घंटे शुद्ध ठंडा व गरम पानी, चारों तरफ हरियाली और उत्तम ड्रेनेज सिस्टम. कितनी भी तेज बारिश हो, न तो कभी पानी भरेगा और न ही कभी बिजली जाएगी.

हारेनबर्ग नाम के इस गांव में किंडरगार्टन के अतिरिक्त 8वीं जमात तक का स्कूल, छोटा सा अस्पताल, खेल का मैदान, जिम्नेजियम और 2 बड़े सुपर मार्केट हैं, जिन में जरूरत की सभी चीजें मिल जाती हैं.

हारेनबर्ग की दोनों दिशाओं में 10-12 किलोमीटर की दूरी पर 2 छोटे शहर हैं, जहां अच्छी मार्केट, बड़ा अस्पताल, सैलून व पैट्रोल पंप हैं.

चित्रा और अर्नव को अभी जरमन नागरिकता नहीं मिली है. लीसा को जन्म लेते ही यहां की नागरिकता मिल चुकी है. जिले के मेयर लीसा के लिए स्वयं उपहार ले कर बधाई देने घर आए थे. यहां

की प्रथा है, जरमन शिशु के जन्म होने  पर उस की नागरिकता संबंधी समस्त औपचारिकताएं तत्क्षण पूरी हो जाती हैं और उस जिले के मेयर को सूचित किया जाता है, फिर मेयर स्वयं उपहार के साथ शिशु से मिलने आते हैं.

लीसा के जन्म के समय ओमा और लैंड लेडी ने चित्रा की वैसी ही सेवा की थी, जैसी एक मां अपनी बेटी की गर्भावस्था के दौरान करती है.

इस देश में अगर किसी बाहरी व्यक्ति को किसी परेशानी का सामना करना होता है तो वह है, यहां की डाइश भाषा. सभी जरमन डाइश में ही बात करना पसंद करते हैं. चित्रा और अर्नव ने शुरुआती परेशानी के बाद जल्दी ही डाइश भाषा की कोचिंग लेनी शुरू कर दी थी. नतीजा रहा कि वे अब तीनों स्तर की परीक्षा उत्तीर्ण कर चुके हैं और डाइश बोलने लगे हैं. लीसा अभी है तो 5 साल की, पर वह डाइश, अंगरेजी और हिंदी तीनों भाषाएं अच्छी तरह से बोल लेती है.

किंडरगार्टन से लौट कर आने पर वह ओमा की टीचर बन जाती है और ओमा बन जाती हैं किंडरगार्टन की स्टूडैंट. ओमा जानबू झ कर गलतियां करती हैं, ताकि लीसा से प्यारभरी डांट खा सकें.

ओमा की फ्रिज में वे सभी तरह की आइसक्रीम और जूस रखे होते हैं जो लीसा को पसंद हैं.

किंडरगार्टन से लौटने पर लीसा जैसे ही घर के पास पहुंचने को होती, ओमा को बाहर इंतजार करते बैठे देख, मुसकराते हुए दौड़ लगाती और पीठ से बैग उतार कर ओमा की गोदी में फेंक, सीधे उन की रसोई में घुस जाती. फिर अपनी मनपसंद आइसक्रीम फ्रिज से निकाल कर डाइनिंग टेबल पर आ कर खाने बैठ जाती.

ओमा लीसा के आने के पहले ही डाइनिंग टेबल पर सारे व्यंजन सजा कर रख देती हैं. लीसा या तो औमलेट या अपनी पसंद का कोई अन्य आइटम खाती, फिर अपनी सहेलियों के बारे में ओमा को विस्तार से बताना शुरू कर देती. शाम 4 बजे तक लीसा की धमाचौकड़ी चलती जब तक चित्रा औफिस से नहीं आ जाती. चित्रा की कार पोर्च में पार्क होते ही लीसा अपना बैग उठा कर अपने घर की सीढि़यां चढ़ने लगती.

ओमा का यह समय आराम करने का होता. शाम को वे या तो घूमने निकलतीं या फिर अपने बगीचे में बैठ कर सामने खेल रहे बच्चों को निहारती रहती हैं. जब कभी लीसा की सहेलियां खेलने के लिए नहीं आतीं, तब लीसा के साथ उस के पापा अर्नव खेल रहे होते हैं.

ओमा को शायद खाली बैठना पसंद ही नहीं था. वे बगीचे में बैठीं या तो स्वेटर बुन रही होतीं या मोजे बना रही होतीं. उन्होंने लीसा के लिए अनेक रंगबिरंगे स्वेटर और मोजे बना कर चित्रा को दिए हैं.

चित्राअर्नव की शादी की सालगिरह पर उन्होंने क्रोशिया से खूबसूरत मेज कवर बना कर चित्रा को भेंट किया था. केक बनाने में तो वे माहिर हैं. सप्ताह में 2-3 दिन उन के बनाए हुए स्वादिष्ठ केक चित्रा और अर्नव को भी खाने को मिलते हैं. ओमा और लीसा की जुगलबंदी देख लैंड लेडी कहती हैं, जरूर इन दोनों का कोई छिपा रिश्ता होगा. चित्रा को वे दिन नहीं भूलते जब 3 माह पहले अगस्त के महीने में लीसा बीमार पड़ी थी. इतना तेज बुखार था कि उस का पूरा बदन जल रहा था. ओमा भी बहुत चिंतित थीं.

एक दिन एक विशेषज्ञ डाक्टर से लीसा की हालत बयान कर उन के दिए लिक्विड को ले कर ओमा आई थीं. उस लिक्विड को लीसा के माथे पर देर तक वे लगाती रही थीं. उस दवा ने असर दिखाया और अगले दिन लीसा ठीक हो चली थी.

नवंबर माह के तीसरे सप्ताह में इस बार यहां का तापमान माइनस में पहुंचने लगा था. बर्फबारी भी शुरू हो गई थी. औरों की तरह चित्रा और अर्नव ने भी अपनीअपनी कारों के समर टायर बदलवा कर विंटर टायर लगवा लिए थे.

यूरोपियन देशों में बर्फ गिरने के पहले टायर बदलना अनिवार्य होता है. सर्दी के लिए अलग टायर होते हैं जो बर्फ पर फिसलन रोकते हैं.

इधर ओमा ने अभी से क्रिसमस की तैयारियां शुरू कर दी थीं. इस बार उन्होंने लीसा के लिए कुछ सरप्राइज सोच रखा था. क्रिसमस पर पूरा हारेनबर्ग सज कर तैयार हो जाता है ठीक उसी तरह जैसे दीवाली पर भारत के शहर सज जाते हैं.

लीसा भी क्रिसमस को ले कर बेहद उत्साहित है. किंडरगार्टन के सारे बच्चे अब क्रिसमस की ही बातें करते हैं. अर्नव और चित्रा अगले रविवार को क्रिसमस मेला देखने जाने की योजना बना ही रहे थे, तभी चित्रा के पास मां का फोन आया. भाई की शादी की खुशखबरी थी. मां ने बड़े प्यार से आग्रह किया था कि यदि वे लोग जल्दी पहुंच सकें तो सभी तैयारियों में बड़ी मदद मिल जाएगी.

चित्रा और अर्नव ने देर तक सलाहमशवरा उपरांत भारत यात्रा को अंतिम रूप दिया. एक माह की यात्रा में 15 दिन चित्रा को मां के पास भोपाल में रहना था और बाकी के 15 दिन ससुराल में.

लीसा उदास थी, क्योंकि उस का क्रिसमस सैलिब्रेशन छूट रहा था. ओमा भी निरुत्साहित हो गईं, उन की प्रिय लीसा एक माह के लिए उन से दूर जा रही थी.

भोपाल पहुंच कर चित्रा भाई की शादी की तैयारियों में जीजान से लग गई.

जलवायु परिवर्तन का सब से अधिक असर बच्चों पर पड़ता है, उन्हें नई जगह के वातावरण से सामंजस्य बनाने में समय लगता है. लीसा को अगले सप्ताह ही सर्दीजुकाम के साथ बुखार आ गया. जरमनी में होते तो वहां डाक्टर बच्चों को तुरंत कोई दवा नहीं देते, 3 दिन तक इंतजार करने को कहते हैं. बुखार ज्यादा बढे़ तो ठंडे पानी की पट्टी रखने को कहते हैं. पर यहां उस की नानी परेशान हो उठीं.

चित्रा ने मां को आश्वस्त किया. चित्रा अपने साथ पैरासिटामोल दवा ले कर आई थी, किंतु अर्नव ने एक दिन और इंतजार करने को कहा. चित्रा की मां का देसी उपचार में विश्वास था, सो वे काढ़ा बना कर ले आईं. लीसा ने किसी तरह एक घूंट गटका, फिर उसे और पिलाना मुश्किल हो गया.

देररात लीसा सपने में जोर से चीखी, फिर बैठ कर रोने लगी. चित्रा और अर्नव भी उठ कर बैठ गए.

चित्रा ने जब लीसा को सीने से लगाते हुए प्यार किया, तब उस का सिसकना बंद हुआ. लीसा पसीने से भीगी हुई थी, पर उस का बुखार उतर चुका था. कुछ देर बाद चित्रा ने लीसा से प्यार से पूछा, ‘‘लीसा, तुम कोई सपना देख रही थीं? सपने में ऐसा क्या देखा कि इतनी जोर से चीखीं?’’

‘‘मैं और ओमा जंगल में जा रहे थे, तभी एक टाइगर आ गया. टाइगर मेरे ऊपर  झपटा, तो मु झे बचाने के लिए बीच में ओमा आ गईं. तभी टाइगर उन का एक हाथ मुंह में दबा कर ले गया और उन के कटे हुए हाथ से खून बह रहा था.’’

‘‘तुम ने कल टाइगर वाला कोई टीवी सीरियल देखा था क्या?’’

‘‘हां, पर उस में 2 टाइगर आपस में फाइट कर रहे थे.’’

‘‘चलो, कोई बात नहीं, सपना था. ओमा बिलकुल ठीक हैं, कल वीडियोकौल पर तुम्हारी बात भी करा देंगे. मैं दूसरे कपड़े लाती हूं, इन्हें बदल देते हैं, पसीने से भीग गए हैं.’’

अगले दिन लीसा ने जिद पकड़ ली कि उसे ओमा से बात करनी है. चित्रा ने ओमा को कई बार फोन लगाया, पर हर बार उन का मोबाइल स्विच औफ बता रहा था. अर्नव ने चित्रा से कहा, ‘‘मैं मोहम्मद को फोन लगाता हूं, वह नीचे जा कर ओमा से बात करा देगा.’’

मोहम्मद ने फोन पर बताया कि वह अपने देश तुर्की आया हुआ है और उसे ओमा के बारे में कोई जानकारी नहीं है.

चित्रा ने कहा, ‘‘मैं लैंड लेडी को फोन लगाती हूं. हो सकता है, ओमा अपनी बेटी के यहां गई हों.’’

लैंड लेडी ने जो बताया, उस से चित्रा की चीख निकल गई.

‘‘चित्रा, बड़ी दुखद सूचना है, ओमा घरेन के सिटी अस्पताल में एडमिट हैं. 2 दिन पहले रात में उन्होंने कोई सपना देखा था कि लीसा दरवाजे पर खड़ी उन्हें आवाज दे रही है. वे हड़बड़ा कर उठीं तो लड़खड़ा कर गिर पड़ीं. उन का बायां हिस्सा लकवाग्रस्त हो गया है. आवाज भी साफ नहीं निकल रही है. लीसा को बारबार याद कर रही हैं. डाक्टर ने बोला है, ठीक हो जाएंगी, पर कुछ माह लगेंगे.’’

चित्रा ने लीसा को सिर्फ यही बताया कि ओमा अभी वीडियोकौल पर नहीं आ सकतीं, उन की तबीयत ठीक नहीं है, डाक्टर ने आराम करने को कहा है.

एक माह बाद जब चित्रा और अर्नव लीसा के साथ वापस जरमनी पहुंचे, तो लीसा ओमा से मिलने की खुशियोंभरी कल्पना में डूबी हुई थी. फ्रैंकफर्ट हवाईअड्डे से बाहर निकल कर कार में बैठते ही उसे लग रहा था कि काश, कुछ ऐसा हो जाए कि उस की कार उड़ कर ओमा के पास पहुंच जाए.

उधर, ओमा की दुनिया पूरी तरह उलटपुलट हो चुकी थी. कभी खाली न बैठने वाली ओमा अब व्हीलचेयर पर गुमसुम सी बैठी रहतीं. उन के साथ अब चौबीसों घंटे केयरटेकर रोमानियन महिला डोरोथी रहती.

डोरोथी ओमा के सारे काम करती, उन्हें उठानेबिठाने से ले कर खाना खिलाने, सुलाने तक के. एक प्रकार से ओमा अब डोरोथी पर ही पूरी तरह से निर्भर थीं.

चित्रा के कार से उतरने के पहले ही लीसा दौड़ कर ओमा के बंद दरवाजे को खटखटा रही थी. डोरोथी ने जब दरवाजा खोला, तो लीसा उसे देख कर वहीं ठिठक गई. तब तक चित्रा ने वहां पहुंच कर डोरोथी को पूरी बात सम झाई.

अंदर बिस्तर पर लेटी ओमा को देख लीसा मुसकराई तो ओमा के होंठों पर भी मुस्कान  झलकी व उन के मुख से अस्पष्ट सी आवाज निकली, ‘‘ली…सू…’’ और आंखों से आंसू बह चले.

चित्रा ने अपनी हथेली से उन के आंसू पोंछे और लीसा का हाथ उन के हाथ में पकड़ा दिया.

Family Story: ऊंची उड़ान – अंकुर का सपना कैसे पूरा हुआ

Family Story: ‘जन गण मन अधिनायक जय हे… भारत भाग्य विधाता…’ की धुन स्टेडियम में गूंज रही थी और गोल्ड मैडल के विजेता के रूप में भारत के अंकुर का नाम पुकारा जा रहा था. ओलिंपिक खेलों में अंकुर ने मैडल जीत कर सभी का मान बढ़ाया था.

अंकुर के पिता विजय भी टैलीविजन पर यह सीन देख रहे थे. घर पर बधाई देने वालों के आनेजाने का दौर भी जारी था.

विजय की आंखों में बारबार आंसू तैर जाते थे. उन का रुमाल आंसुओं से भीग चुका था, पर आंसू तो थम ही नहीं रहे थे.

विजय अंकुर की मां की तसवीर के सामने खड़े हो गए और उस से बात करने लगे, “राधिका… काश, आज तुम भी साथ होती तो अपने बेटे की इस जीत पर कितना खुश होती…”

इतना कह कर विजय की आंखों से आंखों से उमड़ पड़े. उन से खड़ा नहीं हुआ जा सका, तो वे वहीं सोफे में ही धंस गए. उन की रोती आंखों के सामने राधिका के साथ गुजारे पल घूमने लगे.

अंकुर का मन बचपन से ही खेल की तरफ था. दूसरे लड़कों की तरह वह भी क्रिकेट का दीवाना था, पर राधिका और विजय ने उसे समझाया कि वह बैडमिंटन में अपना कैरियर बनाए और उस के लिए जरूरी था कि अंकुर किसी स्पोर्ट्स कालेज में पढ़े.

अपनी अथक मेहनत से अंकुर को लखनऊ के स्पोर्ट्स कालेज में दाखिला भी मिल गया था. यह एक बड़ी बात थी और ठीक एक महीने के बाद अंकुर को स्पोर्ट्स कालेज जौइन करने जाना था.

अंकुर के जाने से विजय खुश तो थे, पर बेटे के दूर जाने से वे दुखी भी थे. अंकुर उन का एकलौता बेटा था और अभी तो उसे बाहर की दुनिया की कोई भी समझ नहीं थी. जब देखो मां के आंचल से ही बंधा रहता है…

‘कैसे रह पाएगा वह  स्पोर्ट्स कालेज में? किस तरह वहां की कड़ी मेहनत को झेल पाएगा अंकुर?’ इन बातों को सोच कर विजय परेशान रहते, पर उन की पत्नी राधिका इस बात को बड़ी शान से भुना रही थी अपने परिचितों और रिश्तेदारों को फख्र से बताती कि चाहते तो सभी हैं कि उन का बच्चा स्पोर्ट्स कालेज में जाए, पर भला वहां दाखिला मिलना इतना आसान कहां है?

विजय अकसर सोचते भी कि राधिका कितनी पत्थरदिल है… एकलौता बेटा बाहर जा रहा है और वह है कि प्यार दिखाने के बजाय इस मौके को भी ऐंजौय कर रही है.

एक बार तो विजय ने अंकुर से कहा भी था, ‘बेटे, मैं ने कई लोगों को स्पोर्ट्स कालेज की सख्ती और नियमों से भाग कर घर आते हुए देखा है. तुम चाहो तो बीटैक कर लो या कोई दूसरा कैरियर अपना लो…’

इस से पहले कि अंकुर कुछ बोलता राधिका ने ही बात काटते हुए कहा, ‘आप मेरे लड़के को कमजोर मत बनाइए. सोना आग में तपे बिना कुंदन नहीं बनता है… और फिर किसी भी क्षेत्र में कैरियर बनाने के लिए मेहनत तो करनी ही पड़ेगी,’ इस बात पर विजय बेचारे चुप हो जाते.

राधिका ने अंकुर के लिए एक बहुत ही सख्त टाइमटेबल बनाया हुआ था, जिस में सुबह 4 बजे से उठ कर जौगिंग, कसरत और बैडमिंटन का अभ्यास शामिल था. इस के बाद एक हैल्दी नाश्ता जिस में बहुत सी चीजें अंकुर को नापसंद थीं, फिर भी राधिका उसे जबरदस्ती खिलाती थी.

राधिका के मुंह से अपने बेटे के दूर जाने की बात का जिक्र विजय ने कभी नहीं सुना था, जबकि वे अकसर अकेले में बैठ कर रो लेते थे.

आखिरकार वह दिन भी आ गया जब अंकुर को स्पोर्ट्स कालेज जाना था. विजय दुखी थे, पर राधिका एक चट्टान की तरह सख्त थी और उस के सख्त रवैए से अंकुर को भी मानसिक बल मिला और उस ने हंसते हुए सब से विदाई ली. राधिका का चेहरा अब भी सपाट था.

अंकुर के जाने के बाद राधिका घर के कामों में फिर से लग गई और विजय निढाल हो कर बिस्तर पर गिर पड़े.

अंकुर को गए कई महीने बीत गए थे. एक रात जब विजय रात के 2 बजे पानी पीने के लिए उठे, तो उन्होंने देखा कि राधिका कुरसी पर बैठी अपनी डायरी के पन्नों पर कुछ लिख रही थी. आज से पहले विजय ने उसे ज्यादा लिखते हुए तो देखा नहीं था, फिर आज वह क्या लिख रही थी?

सुबह उठ कर विजय ने राधिका को जगाया तो वह न जाग सकी. रात में ही सोते समय उसे दिल का दौरा पड़ा था और अब वह अपने इस शरीर को अलविदा कह चुकी थी.

आननफानन में सभी रिश्तेदारों को खबर की गई और राधिका का अंतिम संस्कार हुआ. अंकुर भी मां की असमय मौत से बहुत दुखी था.

दुनिया का दस्तूर है कि मरने वाले के साथ कोई नहीं जाता. सब को अपना अपना जीवन जीना ही पड़ता है. रिश्तेदार भी अपनेअपने घर लौट गए थे और अंकुर को भी कालेज लौटना ही पड़ा, जहां उस का राष्ट्रीय टीम के लिए चयन होना था. धीरेधीरे अंकुर अपने खेल को अपनी कड़ी मेहनत से  निखारता चला गया.

समय कुछ और बीता. एक दिन विजय अकेलेपन से ऊब रहे थे, तो उन्होंने घर की साफसफाई शुरू की. उन्हें वह डायरी दिखी, जिस में उस रात राधिका कुछ लिख रही थी.

विजय ने राधिका की डायरी को पढ़ना शुरू किया :

‘वीणा से सुर निकल सकें इसलिए उस के तारों में कसाव होना बहुत जरूरी है… मैं जानती हूं कि अंकुर मुझ से कभी दूर नहीं गया, पर मेरी थोड़ी सी भी नरमी उसे कमजोर बना देगी, इसलिए मुझे सख्त बने रहना होगा, नहीं तो अंकुर भी अपना आगे का सफर पूरा नहीं कर सकेगा…

‘मैं जानती हूं कि लोग कहेंगे कि कितनी पत्थरदिल मां है… पर मां हूं इसीलिए अच्छाबुरा मुझे ही तो सोचना होगा. कभीकभी अपने आंसुओं को पी लेना भी जरूरी होता है…

‘बाहर कितनी ठंड है…

पंख फैलाने दो उसे

इतनी सुबह कैसे जागेगा…

पंख फैलाने दो उसे

अभी तो मेरे बिना सोता नहीं…

पंख फैलाने दो उसे

मेरे हाथ का खाना ही उसे भाता है… पंख फैलाने दो उसे.’

“बधाई हो विजय भाई, आप के बेटे ने देश के लिए गोल्ड मेडल जीता है…” बाहर से आती किसी की आवाज ने विजय की यादों पर ब्रेक लगा दिया.

विजय राधिका की तसवीर को फिर से निहारते हुए बोले, “मैं ने तुम्हे कितना गलत समझा था… आज तुम्हारे सख्त रवैए और अनुशासन के चलते अंकुर के जीवन की वीणा में संगीत भी बज रहा है और अंकुर ने सिर्फ पंख ही नहीं फैलाए हैं, बल्कि आसमान में उड़ान भी भर ली है… एक ऊंची उड़ान.”

Family Story: सालते क्षण – उसे सालते क्षण की कमी कब महसूस हुई?

Family Story: 5 वर्षों के निर्वासन के बाद मैं फिर यहां आया हूं. सोचा था, यहां कभी नहीं आऊंगा लेकिन प्राचीन सालते क्षणों को नए परिवेश में देखने के मोह का मैं संवरण न कर पाया था. जीवन के हर निर्वासित क्षण में भी इस मोह की स्मृति मेरे मन के भीतर बनी रही थी और मैं इसी के उतारचढ़ाव संग घटताबढ़ता रहा था. फिर भी आज तक मैं यह न जान पाया कि यह मोह क्यों और किस के प्रति है? हां, एक नन्ही सी अनुभूति मेरे मन के भीतर अवश्य है जो मु झे बारबार यहां आने के लिए बाध्य करती रही है. यह अनुभूति मां के प्रति भी हो सकती है और अमृतसर की इस धरती के प्रति भी जिस की मिट्टी में लोटपोट कर मैं बढ़ा हुआ. इसे ले कर मैं कभी एक मन नहीं हो पाया था. यदि हो भी पाता तो भी मु झे बारबार यहां आना पड़ता.

बस से मैं बड़ी बदहवासी में उतरा. बदहवासी यहां आने की कि वे क्षण जिन के लिए मैं यहां आया हूं, अपने परिवेश में यदि ज्यों के त्यों हुए तो जो निरर्थकता मन के भीतर आएगी, उस का सामना कैसे कर पाऊंगा?

बाद में हाथ में पकड़े ब्रीफकेस में सहेज कर रखी नोटों की गड्डी से मु झे बल मिलता है. थोड़ी देर के लिए मैं इस एहसास से मुक्त हो जाता हूं कि अब मैं मां का निखट्टू पुत्र नहीं हूं. निखट्टू मेरा उपनाम है. इस के साथ ही मु झे याद हो आते हैं मेरे दूसरे उपनाम भी. सीधा और भोला होने के वश रखा गया ‘भलोल’ उपनाम. सदा नाक बहती रहने के वश रखा ‘दोमुंही’ उपनाम. इन उपनामों से बारबार चिढ़ाने से मेरा जो रुदन निकलता तो मां से ले कर छोटे भाई तक को गली में लड़ती कौशल्या की आवाज का आभास होता था.

9वीं में मेरे कौशल्या उपनाम की बड़ी चर्चा थी. मेरे मन में यह प्रश्न उस समय भी था और आज भी है कि अगर मैं भलोल हूं या मेरी नाक बहती है तो इस में मैं कहां दोषी हूं? और यह भी कि, मेरी दुर्दशा करने वाले मेरे अपने कहां हुए? अब सोचता हूं मेरा इन के साथ केवल रोटीकपड़े तक का संबंध रहा है. वह भी इस घर में पैदा हुआ हूं शायद इसलिए.

मु झे पता ही नहीं चला कि कब संगम सिनेमा से गुजर कर पिंगलबाड़े तक पहुंच गया था. पिंगलबाड़े से मुड़ने पर पहले तहसील आती है. छुट्टी के रोज भी यहां भीड़ रहती है. जमघट लगा रहता है. मुकदमे ही मुकदमे. मुकदमे अपनों पर जमीनों के लिए. कत्लों के मुकदमे. तारतार होते रिश्ते. बेहिसाब दुश्मनी, कोई अंत नहीं.

मैं जल्दी से आगे बढ़ जाता हूं. आगे वह क्रिकेट ग्राउंड आता है जिस पर मैं बचपन में अपने साथियों संग क्रिकेट खेला करता था. मां कहती, क्रिकेट ने मेरी पढ़ाई ले ली. मैं कैसे कहता कि बड़े भाई की नईनई शादी, एक ही कमरे में परदे लगा कर उन के सोने का बंदोबस्त, रातभर चारपाई की चरमराहट, परदे के पीछे के दृश्यों की परिकल्पनाओं ने मु झे पढ़ने नहीं दिया था. पढ़ने के लिए मैं मौडल टाउन चाचाजी के पास और चालीस कुओं पर भी जाता पर परदे के पीछे की परिकल्पनाएं मेरा पीछा नहीं छोड़ती थीं. धीरेधीरे मैं पढ़ने में खंडित होता गया था. परीक्षा परिणाम आया तो मैं फेल था.

पढ़ने के लिए जब फिर दाखिला भरा तो बड़े भाई का मत बड़ा साफ था, ‘तुम्हें अब की बार याद रखना होगा. व्यक्ति कारखाने में पैसा तब लगाता है जब उसे लाभ दिखाई दे.’

विडंबना देखें, जब यही बात राजू भाई ने इन्हें कही थी तो सब के सम झाने और मनाने पर भी पढ़ाई छोड़ दी थी. राजू भाई केवल यही चाहते थे कि कुक्कु का चक्कर छोड़ कर अपनी पढ़ाई पर ध्यान दे. आज वही शब्द कहने से वे बिलकुल नहीं हिचकचाए थे.

राजू भाई ठीक कहते थे, जिस बात का विरोध आज हम अपनी जान दे कर करते हैं, कोई समय आता है हम परिस्थितियों द्वारा इतने असहाय होते हैं कि उसी बात को बिना शर्त स्वीकार कर लेते हैं. उस समय उन की यह बात सम झ में नहीं आई थी. आज सम झ में आती है. मैं ने भी पढ़ाई छोड़ दी थी. इसलिए नहीं कि मु झे उन की बात सम झ में आ गई थी, बल्कि इसलिए कि बड़े भाई के शब्द मु झ से सहन नहीं हुए थे. बड़े भाई को भी शायद राजू भाई के यही शब्द सहन नहीं हुए होंगे. हम दोनों एकदूसरे की बात सहन कर लेते तो शायद हालात दूसरे होते.

देखता हूं क्रिकेट ग्राउंड भी अब वहां नहीं है. सोचा था, जब मैं वहां पहुंचूंगा तो बच्चे पहले की तरह खेलते मिलेंगे. उन को खेलते देख मैं अपने बचपन के दिनों को याद कर लूंगा. वहां एक सुंदर बंगला हुआ करता था. और भी कई सुंदर बंगले बन गए थे. मैं किसी को कुछ कह नहीं सकता था. बच्चों के उल्लास तो आएदिन खत्म किए जाते हैं.

बड़े भारी मन से मैं अपनी गली की ओर बढ़ता हूं. गली के मोड़ तक आतेआते मेरे पांव ढीले पड़ जाते हैं. आगे बढ़ने की इच्छा नहीं होती. गली के लोग मु झे निखट्टू नाम से जानते हैं. मु झे देखते ही आग की तरह यह खबर फैल जाएगी. न जाने समय के कौन से क्षणों में मेरा नाम निखट्टू पड़ा. इस नाम से पीछा छुड़ाने के लिए मैं ने मोटर मैकेनिकी, कुलीगीरी, रिकशा चलाने से ले कर होटल में बरतन मांजने तक के काम किए. पर इस निखट्टू नाम से पीछा नहीं छूटा, चाहे तन के सुंदर कपड़े और नोटों से भरा ब्रीफकेस मु झे एहसास दिलाता है कि अब मैं मां का निखट्टू पुत्र नहीं रहा हूं.

जानता हूं मैं मन की हीनभावना से छला गया हूं. यही भावना मु झे बल देती है. गली में  झांक कर देखता हूं कि जिस बात की अपेक्षा थी वैसा कुछ नहीं था. गली में मु झे कोई दिखाई नहीं दिया था. सबकुछ बदल गया था. महाजनों का घर और बड़ा हो गया था. पहले हौजरी की एक मशीन हुआ करती थी, अब बहुत सी मशीनें लग गई हैं. गली भी पक्की हो गई है. मंसो की भैंसों के कारण जहां गंदगी फैली रहती थी, मु झे गली में कहीं भैंस दिखाई नहीं दी थी.

घर के समीप पहुंचा तो मैं चकरा गया. हमारा घर कहां गया? उस की जगह खूबसूरत दोमंजिला मकान खड़ा था. मैं ने इधरउधर देखा कि कोई पहचान वाला मिले तो पूछूं कि दिनेश साहनी का घर यही है? एकाएक ऊपर लिखे ‘साहनी विला’ पर मेरी नजर पड़ी. दरवाजे पर एक ओर बड़े भाई के नाम की तख्ती भी दिखाई दे गई.

भाई के नाम के नीचे लगी घंटी दबाने पर किसी अंजान महिला ने दरवाजा खोला. वह कपड़ों से नौकरानी लग रही थी. मु झे देख कर शायद वह यह पूछती कि आप को किस से मिलना है कि इतने में ‘‘कौन है?’’ कहती हुई मां दरवाजे तक चली आईं. मु झे देख कर आश्चर्य के भाव उन के चेहरे पर आए, फिर सामान्य हो गईं. मुख से निखट्टू निकलतेनिकलते रह गया पर निकला नहीं.

मां को देख कर नौकरानी सी लगने वाली भीतर चली गई. मां ने दरवाजा पूरा खोल दिया. मैं उस को प्रणाम करने के बाद बड़े अनमने भाव से भीतर चला आया. कदम रखते ही आंखें चुंधिया गईं. पूरे कमरे में ईरानी कालीन, एक ओर बड़ी सी डाइनिंग टेबल, दरवाजे के पास चमकदार फ्रिज, एक तरफ सोफा व बैड, गद्देदार कुरसियां और टीवी. टीवी के पीछे वाली दीवार पर मोतियों से बनाई गई एक औरत की आकृति फ्रेम की गई थी.

मैं आगे नहीं बढ़ पाया. न ही मां ने मु झे बढ़ने के लिए कहा. बैठने के लिए भी नहीं कहा. मैं ने महसूस किया कि मु झे बैठाने से ज्यादा उस को यह बताने की चिंता है कि सारा सामान जिसे देख कर हैरान हूं, कहां से और कैसे आया है? मां बोली, ‘‘ये सारा सामान दिनेश ने फौरेन से मंगवाया है. यह ईरानी कालीन अभी पिछले महीने ही आया है. टीवी और फ्रिज बहुत पहले आ गया था. पूरे 10 लाख रुपए लगे हैं.’’

मैं ने महसूस किया, मेरे ब्रीफकेस में पड़ी रकम एकदम छोटी है. जो रकम मां ने बताई थी, उस से दोगुनी छोटी. इन 5 वर्षों में जो क्षण मु झे सालते रहे हैं वे और बड़े हो गए हैं. जाने कहां से पीड़ा की एक तीखी अनुभूति भीतर से उठी और भीतर तक चीरती चली गई. पीड़ा इसलिए कि निखट्टू उपनाम से मुक्ति पाने की जो इच्छा ले कर यहां आया था, वह जाती रही.

बैठक और ड्योढ़ी मिला कर ड्राइंगरूम में इतनी कीमत की चीजें हैं तो भीतर के कमरों में जाने क्याक्या देखने को मिले. मां ने बताया, ‘‘अपनी पत्नी के सारे गहने बेच कर जिस होटल में तुम बरतन मांजते थे उसी होटल को खरीद लिया था. यह उसी की करामात है कि हमें कोई कमी नहीं है.’’ ऐसे कहा जैसे अब भी उसी होटल में बरतन मांजता होऊं. ‘‘गांव की जमीन उस ने छेड़ी तक नहीं. कहता था जिस में सब हिस्सेदार हों उस में वह कुछ नहीं करेगा.’’ मां को भय हुआ कि कहीं मैं होटल में अपने हिस्से का दावा न करने लगूं. इसलिए साफ बात करना ठीक सम झी. मैं कहने को हुआ कि इस मकान में भी तो मेरा हिस्सा है, पर चुप रहा.

बाद में मां ने महसूस किया कि उन्होंने मु झे बैठने को नहीं कहा. ‘‘बूट उतार कर सोफे पर बैठ जाओ.’’ यह सुन कर मैं संकुचित हो उठा कि उस का अपना बेटा, अपने भाई की ईरानी कालीन पर बूट पहन कर बैठ नहीं सकता. कालीन पर तो बूट पहन कर ही बैठा जाता है.

मैं ने यह भी महसूस किया कि घर छोड़ते समय जिस तरह मु झे ले कर मां भावशून्य थी उस में और वृद्धि हो गई है. न मैं बैठा और न ही मैं ने बूट उतारे. कहा, ‘‘चलूंगा मां. देखने आया था कि शायद तुम्हें मेरा अभाव खटकता हो. पर नहीं, यहां सबकुछ उलट है. तुम्हें मेरा अभाव नहीं था बल्कि मु झे तुम्हारा अभाव था. कितना विलक्षण है कि बेटे को मां का अभाव है पर मां को नहीं.’’

वहां से निकलने के बाद भी पीछे से मां की आवाज आती रही, ‘‘कुछ खातेपीते जाओ. भाई से नहीं मिलोगे? होटल नहीं देखोगे?’’ मु झे मां की आवाज किसी कुएं से आती सुनाई दी. मां, दिनेश भाई के साथ इसलिए है कि दोनों एक ही वृत्ति के हैं. बेईमान और धोखेबाज. मैं ने तो यह महसूस किया कि अब तक के सालते क्षणों में कुछ और क्षण समावेश कर गए हैं. और यह भी कि क्षण यदि खुद में बदल भी जाएं तो निरथर्कता और बढ़ जाती है जो आदमी को जीवनभर सालती है.

Family Story: आकाश में मचान – संतोषजी ने उस अंजान रिश्ते का क्या नाम दिया

Family Story, लेखक- डा. करुणा उमरे

सबकुछ हंसीखुशी चल रहा था. लेकिन एक दिन डा. अनिल ने मेरे पति के गंभीर रोग के बारे में बताते हुए इन्हें शहर के किसी अच्छे डाक्टर को दिखाने की सलाह दी. मेरी सहूलियत के लिए उन्होंने किसी डाक्टर शेखर के नाम एक पत्र भी लिख कर दिया था.

बड़े भैया दिल्ली में रहते हैं. उन से फोन पर बात कर के पूछा तो कहने लगे, ‘‘अपना घर है, तुम ने पूछा है, इस का मतलब हम लोग गैर हो गए,’’ और न जाने कितना कुछ कहा था. इस के बाद ही हम लोगों ने दिल्ली जाने का कार्यक्रम बनाया. यद्यपि मैं जेठानीजी को सही रूप से पहचानती थी, पर ये तो कहते नहीं थकते थे कि दिल्ली वाली भाभी बिलकुल मां जैसी हैं, तुम तो बेवजह उन पर शक करती हो. फिर भी मैं अपनी तरफ से पूरी तरह तैयार हो कर आईर् थी कि जो भी कुछ होगा उस का सामना करूंगी.

हम दोनों लगभग 2 बजे दिन में दिल्ली पहुंच गए. स्टेशन से घर पहुंचने में कोई परेशानी नहीं हुई. नहाधो कर खाना खाने के बाद ये आराम करतेकरते सो गए और मैं बरतन, झाड़ू में व्यस्त हो गई. यद्यपि सफर की थकान से सिरदर्द हो रहा था, फिर भी रसोई में लग गई, ताकि भाभी को कुछ कहने का मौका न मिले.

शाम को 7 बजे अस्पताल जा कर चैकअप कराना है. यह बात मेरे दिमाग में घूम रही थी. मैं ने एक घंटा पहले ही जरूरी कागजों तथा डा. अनिल के लिखे पत्र को सहेज कर रख लिया था. चूंकि पहला दिन था और कनाट प्लेस जाना था, इसलिए एक घंटा पहले ही घर से निकली थी.

हमें डा. शेखर का क्लीनिक आसानी से मिल गया था. मैं ने दवाई का पुराना परचा और चिट्ठी पकड़ा दी, जिसे देख कर उन्होंने कहा था, ‘‘ ज्यादा चिंता की बात नहीं है. 15-20 दिनों के इलाज से देखेंगे, संभावना है, ठीक हो जाएंगे, वरना इन का औपरेशन करना पड़ेगा. परंतु डरने की कोई बात नहीं. सुबहशाम सैर करें और नियमित यहां से इलाज कराएं.’’

हम लोग उन की बातों से आश्वस्त हो कर पूछतेपूछते बसस्टौप तक आए. वहां से घर तक के लिए बस मिल गई थी.

एक दुकान से केक, बिस्कुट और कुछ फल खरीदे तथा घर के लिए चल दिए. मेरे हाथों में इतना सारा सामान देख कर जेठानीजी बोली थीं, ‘‘इस तरह फुजूलखर्ची मत करो, घर के घी से बने बेसन के लड्डू तो लाई हो, गुझियां भी हैं, फिर इन्हें खरीदने की जरूरत क्या…’’ उन की बात काटते हुए मैं ने कहा, ‘‘शहर के बच्चे हैं, घर में बनी मिठाई तो खाएंगे नहीं, इसलिए केक, बिस्कुट ले लिए हैं.’’

‘‘ठीक है’’, कह कर उन्होंने एक लंबी सांस भरी.

भैया औफिस से आ गए थे. हम लोगों को देख कर भैया और बच्चे खिल से गए. हम लोगों ने भैया के पैर छुए और बच्चों ने हम लोगों के. भाभी बैठेबैठे पालक काट रही थीं.

मैं बहुत थकान महसूस कर रही थी, थोड़ा आराम करना चाहती थी, पर तभी पता चला कि भाभी की तबीयत ठीक नहीं है. मैं ने भाभी से कहा, ‘‘आप आराम कर लीजिए, रसोई मैं बना लूंगी.’’

दूसरे दिन सुबह सूरज निकलने से पहले इन्हें सैर कराने ले गई. जैसा भैया ने बताया था, लेन पार करते ही पार्क दिखाई दिया. यहां यह देख कर बहुत अच्छा लगा कि इधरउधर घास पर लोग चहलकदमी कर रहे थे.

हम दोनों एक बैंच पर बैठे ही थे कि एक सज्जन ने इन्हें उठाया और बोले, ‘‘चलिए, उठिए, आप घूमने आए हैं या बैठने.’’ हम लोग उन के साथ थोड़ी देर तक घूमफिर कर वापस उसी बैंच पर आ कर बैठ गए. फिर हम लोगों ने एकदूसरे का परिचय लिया. उन्होंने अपना नाम संतोष बताया. उन की बेटी राधिका 9वीं कक्षा में पढ़ रही है तथा उन की पत्नी ने आत्महत्या की थी.

यह पूछने पर कि दूसरा विवाह क्यों नहीं किया. वे बोले, ‘‘दूसरे विवाह के लिए कोई उपयुक्त साथी नहीं मिला.’’ उन का दुख एक मौनदुख था, क्योंकि पत्नी की आत्महत्या से रिश्तेदार व अन्य लोग उन्हें शक की नजर से देखते थे. वे अपनेआप को अस्तित्वहीन सा समझ रहे थे. मेरे पति ने उन्हें समझाया, ‘‘देखिए संतोषजी, आप की बेटी ही आप की खुशी है. वही आप के अंधेरे जीवन में खुशी के दीप जलाएगी.’’

हम लोग घर वापस आए तो भाभी अभी अपने कमरे से बाहर नहीं निकली थीं. भैया उस समय मंजन कर रहे थे. मैं फौरन चाय बनाने रसोई में चली गई. चाय बनाने के बाद मैं उपमा बनाने की तैयारी करने लगी. बच्चे कह रहे थे, ‘‘चाची आ गईं और मम्मी का ब्लडप्रैशर बढ़ गया.’’

मैं उन की बातें सुन कर मुसकराई और भाभी का हालचाल लेने उन के कमरे में चली गई. भाभी उस समय पत्रिका पढ़ रही थीं. मुझे देखते ही थोड़ी संकुचित सी हो गई, बोलीं, ‘‘आओआओ, जरा शरीर भारी हो रहा है, डाक्टर ने आराम करने के लिए कहा है. बीपी बढ़ा है.’’

‘‘अरे भाभी, आप भी कैसा संकोच कर रही हैं, मैं हूं न, निश्ंिचत रहिए’’, मैं ने शब्दों को भारी कर कहा, जैसे कह रही हूं, आप का ब्लडप्रैशर हमेशा बढ़ा रहे.

अब मैं थकती नहीं हूं. सबकुछ दिनचर्या में शामिल हो गया है. डा. शेखर के क्लीनिक जाना और लौटते समय सब्जी, फल, दूध, ब्रैड आदि लाना. उन सब में खर्च इलाज से भी ज्यादा हो रहा है. मुझे चिंता इस बात की है कि अब पैसे भी गिन कर ही बचे हैं और दवाखाने का बिल चुकाना बाकी है.

इन्हीं तनावों से घिरी होने के कारण आज मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था, क्योंकि कपड़े बदलते समय रुपयों का पुलिंदा वहीं कमरे में ही छूट गया था और जो छूट गया सो गया. बस, गलती यह  हुई कि चाय बनाने की जल्दी में वह रुपयों का पुलिंदा उठाना भूल गई. यद्यपि मुझे याद आया, मैं वह पुलिंदा लेने भागी, मेरे कपड़े तो वैसे ही पडे़ थे पर वह पुलिंदा नहीं था. मुझे काटो तो खून नहीं. मुझे ऐसा लगा जैसे मैं चक्कर खा कर गिर जाऊंगी. ये ड्राइंगरूम में बैठे टैलीविजन देख रहे थे, पर उस समय मैं ने इन से कुछ नहीं कहा.

टहलने के लिए जब बाहर निकले तो मुझे गुमसुम देख कर इन्होंने पूछा, ‘‘क्या बात है?’’ मैं चुप रही. कैसे कहूं. समझ में नहीं आ रहा था. मैं चक्कर खा कर गिरने ही वाली थी कि इन्होंने संभाल लिया और समझाने के लहजे से कहा, ‘‘देखो, तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है, घर में आराम करो, मैं घूमफिर कर आ जाऊंगा.’’

इस बात से इन्हें भी तो धक्का लगेगा, यह सोच कर मेरी आंखों में आंसू आ गए.

‘‘अरे, क्या हुआ, सचमुच तुम बहुत थक गई हो, मेरी देखभाल के साथ घर का सारा काम तुम्हें ही करना पड़

रहा है.’’

‘‘नहीं, यह बात नहीं है.’’

‘‘तो क्या बात है?’’

‘‘चलो, वहीं पार्क में बैठ कर बताती हूं.’’

फिर सारी बात मैं ने इन्हें बता दी. ये बोले, ‘‘चिंता मत करो, जो नहीं होना था वह हो गया. अब समस्या यह है कि आगे क्या करें और कैसे करें. भैया से उधार मांगने पर पूछेंगे कि तुम तैयारी से क्यों नहीं आए? यदि सही बात बताई तो बात का बतंगड़ बनेगा.’’

फिर ये चुप हो गए. गहरी चिंता की रेखाएं इन के चेहरे से साफ झलक रही थीं. मुझे धैर्य तो दिया पर स्वयं विचलित हो गए.

संतोषजी भी हर दिन की तरह चेहरे पर मुसकान लिए अपने समय पर आ गए. हम लोगों ने झिझकते हुए उन्हें अपनी समस्या बताई तथा मदद करने के लिए कहा.

वे कुछ देर खामोश सोचते रहे, फिर बोले, ‘‘मैं मदद करने को तैयार हूं, आप परदेसी हैं, इसलिए एकदम से भरोसा भी तो नहीं कर सकता. आप अपनी कोईर् चीज गिरवी रख दें. जब 3 माह बाद आप लोग यहां दोबारा दिखाने के लिए आएंगे, तब पैसे दे कर अपनी चीज ले जाना. हां, इन पैसों का मैं कोई ब्याज नहीं लूंगा.’’

मरता क्या न करता. हम लोग तैयार हो गए. मेरे गले में डेढ़ तोले की चेन थी, उसे दे कर रुपया उधार लेना तय हो गया.

संतोषजी अपने घर गए और 5 हजार रुपए ला कर इन की हथेली पर रख दिए. मैं ने उन का उपकार माना और सोने की चेन उन्हें दे दी.

इस घटना के बाद इन की आंखों में उदासीनता गहरा गई. मुझे भलाबुरा कहते, डांटते. मेरी इस लापरवाही के लिए आगबबूला होते तो शायद इन का मन हलका हो जाता, पर भाई के संरक्षण में यह धोखा इन्हें पच नहीं रहा था. संतोषजी दुनियादारी की बातें, रिश्तेनातों के खट्टेमीठे अनुभव सुनाते रहे, समझाते रहे पर इन्होंने एक शब्द भी नहीं कहा.

घर जा कर मैं ने रात में इन को समझाया, ‘‘समझ लो चेन कहीं गिर गई या रुपयों का पुलिंदा ही कहीं बाहर गिर गया. इस तरह मन उदास करोगे तो इलाज ठीक से नहीं हो पाएगा. तनाव मत लो, बेकार अपनेआप को परेशान कर रहे हो. अब यह गलती मुझ से हुई है, मुझे ही भुगतना पड़ेगा.’’

कुछ दिन और बीत गए. संतोषजी उसी तरह मिलते, बातें करते, हंसतेहंसाते रहे. बातोंबातों में मैं ने उन्हें बताया कि कल डाक्टर ने एक्सरे लेने को कहा है. रिपोर्ट ठीक रही तो 5वें दिन छुट्टी कर देंगे. संतोषजी को अचानक जैसे कुछ याद आ गया, बोले, ‘‘आज से 5वें दिन तो मेरा जन्मदिन

है. जन्मदिन, भाभी, जन्मदिन.’’ उन

का इस तरह चहकना मुझे बहुत

अच्छा लगा.

‘‘उस दिन 16 तारीख है न, आप लोगों को मेरे घर भोजन करना पड़ेगा,’’ फिर गंभीरता से इन का हाथ अपने हाथ में ले कर बोले, ‘‘पत्नी की मृत्यु के बाद पहली बार मेरे मुंह से जन्मदिन की तारीख निकली है.’’

16 तारीख, यह जान कर मैं भी चौंक पड़ी, ‘‘अरे, उस दिन तो हमारी शादी की सालगिरह है.’’

‘‘अरे वाह, कितना अच्छा संयोग है. संतोषजी, उस दिन यदि रिपोर्ट अच्छी रही तो आप और आप की बेटी हमारे साथ बाहर किसी अच्छे रैस्टोरैंट में खाना खाएंगे,’’ हंसते हुए इन्होंने कहा.

‘‘मेरा मन कहता है कि आप की रिपोर्ट अच्छी ही आएगी, पर भोजन तो आप लोगों को मेरे घर पर ही करना पड़ेगा. इसी बहाने आप लोग हमारे घर तो आएंगे.’’

मैं ने इन की ओर देखा, तो ये बोले, ‘‘ठीक है’’, फिर बात तय हो गई. संतोषजी खिल उठे. अब तक की मुलाकातों से उन के प्रति एक अपनापन जाग उठा था. अच्छा संबंध बने तो मनुष्य अपने दुख भूलने लगता है. हम लोग भी खुश थे.

समय बीता. एक्सरे की रिपोर्ट के अनुसार हड्डी में पहले जितना झुकाव था, उस से अब कम था. डाक्टर का कहना था कि ऐसी ही प्रगति रही तो औपरेशन की जरूरत नहीं पड़ेगी. नियमित व्यायाम और संतुलित भोजन जरूरी है. इन्हीं 2 उपायों से अपनेआप को ठीक से दुरुस्त करना होगा. मुझे अंदर ही अंदर बड़ी खुशी हुई. औपरेशन का बड़ा संकट जो टला था. डाक्टर ने दवाइयां लिख दी थीं, 3 माह बाद एक्सरे द्वारा जांच करानी पड़ेगी. डाक्टर का कहना था, हड्डी को झुकने से बचाना है. मैं ने बिल चुकाया और डाक्टर को धन्यवाद दिया.

कुछ दवाइयां खरीदीं और फिर वहीं एक नजदीकी दुकान से संतोषजी को जन्मदिन का उपहार देने के लिए कुरतापाजामा और मिठाई का डब्बा खरीदा. फिर हमेशा की तरह सब्जी वगैरह ले कर हम घर आ गए.

इन्होंने भाभी से रिपोर्ट के बारे में बताया और कल सुबह लौटने की बात कही. भाभी पहले तो तटस्थ बैठी थीं, फिर चौंक कर बोलीं, ‘‘अरे, चले जाना, 2-4 दिन और रह लो’’, फिर अफसोस जाहिर करती हुई बोलीं, ‘‘इस बार तो सब तुम्हें ही करना पड़ा. तुम न होतीं तो पता नहीं कैसे चलता. ऐसे समय नौकरानी भी छुट्टी ले कर चली गई. कहते हैं न, मुसीबत चौतरफा आती है.’’

‘‘अरे भाभी, किया तो क्या हुआ, अपने ही घर में किया’’, मेरी आवाज में कुछ चिढ़ने का लहजा आ गया था.

शाम को हम लोग संतोषजी के घर गए. साफसुथरा, सजा हुआ प्यारा सा घर. फिल्मी हीरोइन जैसी सुंदर बेटी राधिका. देखते ही उस ने हाथ जोड़ कर हम लोगों से नमस्ते किया.

मैं ने तो उसे अपने गले से लगा लिया और एक चुंबन उस के माथे पर जड़ दिया. इन्होंने उस के सिर पर हाथ फिराते हुए आशीर्वाद दिया.

मैं अपनी नजरों को चारों ओर दौड़ा रही थी, तभी संतोषजी की आवाज

गूंज उठी और सब ने एकदूसरे को बधाइयां दीं. मैं ने मिठाई का डब्बा राधिका के हाथ में और कुरतापाजामा का पैकेट संतोषजी के हाथ में थमा दिया.

भोजन टेबल पर लगा था. हंसते, मजाक करते हम लोग भोजन का आनंद ले रहे थे. हर चीज स्वादिष्ठ बनी थी. हम लोग सारी औपचारिकताएं भूल कर आप से तुम पर आ गए थे.

संतोषजी कह रहे थे कि 3 माह बाद जब दोबारा आना, तब यहीं ठहरना. देखो भाई, संकोच मत करना. और एक पैकेट हमारे हाथ में थमा दिया.

‘‘जरूरजरूर आएंगे. आप के रुपए देने तो जरूर आएंगे. कोशिश करेंगे, अगली बार ही रुपए वापस कर दें, और यदि नहीं हुआ तो क्षमा करना, भाई,’’ इन्होंने बड़े प्रेम से कहा तो संतोषजी ने इन के हाथों को अपने हाथों में ले लिया और बोले, ‘‘कैसी बातें करते हैं. दोस्ती की है तो इसे निभाऊंगा भी, चाहो तो आजमा के देख लेना.’’

तब तक मैं ने पैकेट खोल लिया था. एक सुनहरी डब्बी में मेरी वाली

सोने की चेन रखी थी. एक पल आंख मुंदी और सारी स्थिति समझ में आ गई.

मेरी आंखों में आंसू आ गए. कितने महान हैं वे – संकट से उबारा भी और रिश्ते के बंधन में भी बांधा. मैं उन के चरणों में झुकी ही थी कि उन्होंने मुझे बीच में ही रोक लिया और बोले, ‘‘नहीं बहन, नहीं’’, संतोषजी की आंखें सजल हो गईं. उन के मुंह से आगे कुछ न निकल सका.

राधिका अपने पापा से लिपट गई. ‘‘पापा, आप कितने अच्छे हैं.’’ फिर हम लोगों के पास आ कर वह खड़ी हो गई. ऐसा लगा जैसे समुद्र के तट पर फैले बैंगनी रंग ने जीवन के आकाश में मचान बना दी हो.

Family Story: चाहत – क्या शोभा के सपने पूरे हुए?

Family Story, लेखिका- एकता एस दुबे

‘थक गई हूं मैं घर के काम से.  बस, वही एकजैसी दिनचर्या, सुबह से शाम और फिर शाम से सुबह. घर की सारी टैंशन लेतेलेते मैं परेशान हो चुकी हूं. अब मु?ो भी चेंज चाहिए कुछ,’ शोभा अकसर ही यह सब किसी न किसी से कहती रहतीं.

एक बार अपनी बोरियतभरी दिनचर्या से अलग, शोभा ने अपनी दोनों बेटियों के साथ रविवार को फिल्म देखने और घूमने का प्लान बनाया. शोभा ने तय किया इस आउटिंग में वे बिना कोई चिंता किए सिर्फ और सिर्फ आनंद उठाएंगी.

मध्यवर्गीय गृहिणियों को ऐसे रविवार कम ही मिलते हैं जिस में वे घर वालों पर नहीं, बल्कि अपने ऊपर समय और पैसे दोनों खर्च करें. इसलिए इस रविवार को ले कर शोभा का उत्साहित होना लाजिमी था.

यह उत्साह का ही कमाल था कि इस रविवार की सुबह, हर रविवार की तुलना में ज्यादा जल्दी उठ गई थीं.

उन को जल्दी करतेकरते भी सिर्फ नाश्ता कर के तैयार होने में ही 12 बज गए. शो 1 बजे का था, वहां पहुंचने और टिकट लेने के लिए भी समय चाहिए था. ठीक समय पर वहां पहुंचने के लिए बस की जगह औटो ही विकल्प दिख रहा था और यहीं से शोभा के मन में ‘चाहत और जरूरत’ के बीच में संघर्ष शुरू हो गया. अभी तो आउटिंग की शुरुआत ही थी, तो चाहत की विजय हुई.

औटो का मीटर बिलकुल पढ़ीलिखी गृहिणियों की डिगरी की तरह, जिस से कोई काम नहीं लेना चाहता पर हां, जिन का होना भी जरूरी होता है, एक कोने में लटका था. इसलिए किराए का भावताव तय कर के सब औटो में बैठ गए.

शोभा वहां पहुंच कर जल्दी से टिकट काउंटर पर जा कर लाइन में लग गईं.

जैसे ही उन का नंबर आया तो उन्होंने अंदर बैठे व्यक्ति को ?ाट से 3 उंगलियां दिखाते हुए कहा, ‘3 टिकट.’

अंदर बैठे व्यक्ति ने भी बिना गरदन ऊपर किए, नीचे पड़े कांच में उन उंगलियों की छाया देख कर उतनी ही तीव्रता से जवाब दिया, ‘1200 रुपए.’

शायद शोभा को अपने कानों पर विश्वास नहीं होता यदि वे साथ में उस व्यक्ति के होंठों को 1,200 रुपए बोलने वाली मुद्रा में हिलते हुए न देखतीं.

फिर भी मन की तसल्ली के लिए एक बार और पूछ लिया, ‘कितने?’

इस बार अंदर बैठे व्यक्ति ने सच में उन की आवाज नहीं सुनी पर चेहरे के भाव पढ़ गया.

उस ने जोर से कहा, ‘1200…’

शोभा की अन्य भावनाओं की तरह उन की आउटिंग की इच्छा भी मोरनी की तरह निकली जो दिखने में तो सुंदर थी पर ज्यादा ऊपर उड़ नहीं सकी और धम्म… से जमीन पर आ गई.

पर फिर एक बार दिल कड़ा कर के उन्होंने अपने परों में हवा भरी और उड़ीं, मतलब 1,200 रुपए उस व्यक्ति के हाथ में थमा दिए और टिकट ले कर थिएटर की ओर बढ़ गईं.

10 मिनट पहले दरवाजा खुला. हौल में अंदर जाने वालों में शोभा बेटियों के साथ सब से आगे थीं.

अपनीअपनी सीट ढूंढ़ कर सब यथास्थान बैठ गए. विभिन्न विज्ञापनों को ?ोलने के बाद, मुकेश और सुनीता के कैंसर के किस्से सुन कर, साथ ही उन के वीभत्स चेहरे देख कर तो शोभा का पारा इतना ऊपर चढ़ गया कि यदि गलती से भी उन्हें अभी कोई खैनी, गुटखा या सिगरेट पीते दिख जाता तो 2-4 थप्पड़ उसे वहीं जड़ देतीं और कहतीं कि मजे तुम करो और हम अपने पैसे लगा कर यहां तुम्हारा कटाफटा लटका थोबड़ा देखें. पर शुक्र है वहां धूम्रपान की अनुमति नहीं थी.

लगभग आधे मिनट की शांति के बाद सभी खड़े हो गए. राष्ट्रगान चल रहा था. साल में 2-3 बार ही एक गृहिणी के हिस्से में अपने देश के प्रति प्रेम दिखाने का अवसर प्राप्त होता है और जिस प्रेम को जताने के अवसर कम प्राप्त होते हैं उसे जब अवसर मिले तो वह हमेशा आंखों से ही फूटता है.

वैसे, देशप्रेम तो सभी में समान ही होता है चाहे सरहद पर खड़ा सिपाही हो या एक गृहिणी, बस, किसी को दिखाने का अवसर मिलता है किसी को नहीं. इस समय शोभा वीररस में इतनी डूबी हुई थीं कि उन को एहसास ही नहीं हुआ कि सब लोग बैठ चुके हैं और वे ही अकेली खड़ी हैं, तो बेटी ने उन को हाथ पकड़ कर बैठने को कहा.

अब फिल्म शुरू हो गई. शोभा कलाकारों की अदायगी के साथ भिन्नभिन्न भावनाओं के रोलर कोस्टर से होते हुए इंटरवल तक पहुंचीं.

चूंकि, सभी घर से सिर्फ नाश्ता कर के निकले थे तो इंटरवल तक सब को भूख लग चुकी थी. क्याक्या खाना है, उस की लंबी लिस्ट बेटियों ने तैयार कर के शोभा को थमा दी.

शोभा एक बार फिर लाइन में खड़ी थीं. उन के पास बेटियों द्वारा दी गई खाने की लंबी लिस्ट थी तो सामने खड़े लोगों की लाइन भी लंबी थी.

जब शोभा के आगे लगभग 3-4 लोग बचे होंगे तब उन की नजर ऊपर लिखे मैन्यू पर पड़ी, जिस में खाने की चीजों के साथसाथ उन के दाम भी थे. उन के दिमाग में जोरदार बिजली कौंध गई और अगले ही पल बिना कुछ समय गंवाए वे लाइन से बाहर थीं.

400 रुपए के सिर्फ पौपकौर्न, समोसा 80 रुपए का एक सैंडविच 120 रुपए की एक और कोल्डड्रिंक 150 रुपए की एक.

एक गृहिणी, जिस ने अपनी शादीशुदा जिंदगी ज्यादातर रसोई में ही गुजारी हो, को एक टब पौपकौर्न की कीमत दुकानदार 400 रुपए बता रहे थे.

शोभा के लिए यह वही बात थी कि कोई सूई की कीमत 100 रुपए बताए और उसे खरीदने को कहे.

उन्हें कीमत देख कर चक्कर आने लगे. मन ही मन उन्होंने मोटामोटा हिसाब लगाया तो लिस्ट के खाने का खर्च, आउटिंग के खर्च की तय सीमा से पैर पसार कर पर्स के दूसरे पौकेट में रखे बचत के पैसों, जो कि मुसीबत के लिए रखे थे, तक पहुंच गया था. उन्हें एक तरफ बेटियों का चेहरा दिख रहा था तो दूसरी तरफ पैसे. इस बार शोभा अपने मन के मोर को ज्यादा उड़ा न पाईं और आनंद के आकाश को नीचा करते हुए लिस्ट में से सामान आधा कर दिया. जाहिर था, कम हुआ हिस्सा मां अपने हिस्से ही लेती है. अब शोभा को एक बार फिर लाइन में लगना पड़ा.

सामान ले कर जब वे अंदर पहुंचीं तो फिल्म शुरू हो चुकी थी. कहते हैं कि यदि फिल्म अच्छी होती है तो वह आप को अपने साथ समेट लेती है. ऐसा  लगता है मानो आप भी उसी का हिस्सा हों. और शोभा के साथ हुआ भी वही. बाकी की दुनिया और खाना सब भूल कर शोभा फिल्म में बहती गईं और तभी वापस आईं जब फिल्म समाप्त हो गई. वे जब अपनी दुनिया में वापस आईं तो उन्हें भूख सताने लगी.

थिएटर से बाहर निकलीं तो थोड़ी ही दूरी पर उन्हें एक छोटी सी चाटभंडार की दुकान दिखाई दी और सामने ही अपना गोलगोल मुंह फुलाए गोलगप्पे नजर आए. गोलगप्पे की खासीयत होती है कि उन से कम पैसों में ज्यादा स्वाद मिल जाता है और उस के पानी से पेट भर जाता है.

सिर्फ 60 रुपए में तीनों ने पेटभर गोलगप्पे खा लिए. घर वापस पहुंचने की कोई जल्दी नहीं थी, तो शोभा ने अपनी बेटियों के साथ पूरे शहर का चक्कर लगाते हुए घूम कर जाने वाली बस पकड़ी.

बस में बैठीबैठी शोभा के दिमाग में बहुत सारी बातें चल रही थीं. कभी वे औटो के ज्यादा लगे पैसों के बारे में सोचतीं तो कभी फिल्म के किसी सीन के बारे में सोच कर हंस पड़तीं, कभी महंगे पौपकौर्न के बारे में सोचतीं तो कभी महीनों या सालों बाद उमड़ी देशभक्ति के बारे में सोच कर रोमांचित हो उठतीं.

उन का मन बहुत भ्रमित था कि क्या यही वह ‘चेंज’ है जो वे चाहतीं थीं? वे सोच रही थीं कि क्या सच में वे ऐसा ही दिन बिताना चाहती थीं जिस में दिन खत्म होने पर उन के दिल में खुशी के साथ कसक भी रह जाए?

तभी छोटी बेटी ने हाथ हिलाते हुए अपनी मां से पूछा, ‘‘मम्मी, अगले संडे हम कहां चलेंगे?’’

अब शोभा को ‘चाहत और जरूरत’ में से किसी एक को चुनना था. उन्होंने सब की जरूरतों का खयाल रखते हुए, साथ ही अपनी चाहत का भी तिरस्कार न करते हुए, कहा, ‘‘आज के जैसे बस से पूरा शहर देखते हुए बीच चलेंगे और सनसैट देखेंगे.’’

शोभा सोचने लगीं कि अच्छा हुआ जो प्रकृति अपना सौंदर्य दिखाने के पैसे नहीं लेती और प्रकृति से बेहतर चेंज कहीं और से मिल सकता है भला?

शोभा को प्रकृति के साथसाथ अपना घर भी बेहद सुंदर नजर आने लगा था. उस का अपना घर, जहां उस के सपने हैं, अपने हैं और सब का साथ भी तो.

Family Story: मैं सास ही भली – क्या वाणी एक अच्छी बहू बन पाई

Family Story: ‘‘वाणी, बस मुझे तुम से यही कहना है कि मेरी मम्मी को भी अपनी मां ही समझना, उन्हें सास मत सम झना. दीदी का जब से विवाह हुआ है, उन्हें अकेलापन लगता होगा. तुम बिलकुल अपनी मां की तरह ही रहना उन के साथ, प्रौमिस करो, वाणी,’’ फोन पर दूसरी तरफ वाणी ने क्या कहा होगा, यह तो नहीं जान सकती थी लतिका, पर अपने बेटे मयंक की फोन पर यह बात सुन कर उन्हें बेटे पर गर्व हो आया, वाह, कितनी अच्छी बात कर रहा है उन का बेटा, गर्व से सीना चौड़ा हो गया, आंखों में चमक उभर आई.

एक महीने बाद ही तो मयंक का विवाह होना था. वह वाणी से प्रेमविवाह कर रहा था. मयंक ने जब मां लतिका को पहली बार वाणी से मिलवाया था, तो वाणी उन्हें पहली नजर में ही पसंद आ गई थी.

सुंदर, स्मार्ट, खूब हंसमुख वाणी का घर मुंबई के एक इलाके पवई में लतिका के घर से कुछ दूरी पर ही था. वाणी और मयंक अच्छे पद पर थे. दोनों एक कौमन फ्रैंड के घर पर मिले थे. दोस्ती, प्यार, फिर अब विवाह होने वाला था. वाणी अपने मातापिता की इकलौती संतान थी.

लतिका की बेटी सुनयना का विवाह 2 वर्षों पहले हुआ था. वह सपरिवार अमेरिका में थी.

लतिका और उस के पति विनोद बहुत उत्साहपूर्वक विवाह की तैयारियों में व्यस्त थे. वाणी लतिका से फोन पर काफी संपर्क में रहती थी. अभी से ही वह लतिका का दिल जीत चुकी थी. और आज बेटे की फोन पर बात सुन कर तो लतिका के पैर ही जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. विनोद जैसे ही औफिस से आए, लतिका ने उन के साथ बैठ कर चाय पीते हुए मयंक की फोन पर सुनी बात बताई. विनोद ने कहा, ‘‘वाह, तुम तो बहुत लकी हो. एक बेटी गई, दूसरी बेटी घर आ रही है. चलो, अच्छा है. मयंक सचमुच सम झदार बेटा है.’’

लतिका का वाणी को बहू बना कर लाने का उत्साह और भी बढ़ गया था. दिन गिन रही थीं. कब बहू आए और उन्हें अच्छा साथ मिले. कुछ महीनों से उन का स्वास्थ्य भी ठीक नहीं था. और वाणी बहू बन कर आ भी गई, घर की दीवारें जैसे चहक उठीं. लतिका ने खुलेदिल से उस पर स्नेह की वर्षा कर दी. पहले ही दिन वाणी उन से लिपट गई, ‘‘मैं आप को मयंक की तरह मम्मी नहीं कहूंगी, मैं अपनी मम्मी को मां ही कहती हूं, आप को भी मां ही कहूंगी. अब आप भी मेरी मां जैसी ही तो हैं न.’’

‘‘हां, बेटा, और क्या, मु झे अपनी मां ही सम झना, सास नहीं. यह सासबहू का रिश्ता मु झे भी कुछ डराता ही है. हम मांबेटी की तरह ही रहेंगे,’’ विनोद वाहवाह कर उठे, कहने लगे, ‘‘यह क्या? दोनों मांबेटी बन कर रहोगी तो मैं और मयंक तो बोर हो जाएंगे, क्यों मयंक?’’

मयंक सम झा नहीं, बोला, ‘‘क्यों, पापा?’’

‘‘अरे, सासबहू का कोई ड्रामा देखने को नहीं मिलेगा, बोर नहीं होंगे?’’ मयंक हंस पड़ा, वाणी ने इतरा कर कहा, ‘‘नहीं, पापा, आप को सासबहू का कोई ड्रामा देखने को नहीं मिलेगा. ये मेरी मां हैं, सास नहीं.’’

‘‘ओह, मेरी बच्ची,’’ लतिका ने अपनी बांहें फैला दीं, वाणी उन की बांहों में लाड़ से समा गई. सुनयना हंसती हुई यह दृश्य देख रही थी, जो वाणी के लिए अमेरिका से आई थी. बोली, ‘‘यह तो अच्छा है, अब तो आप मु झे याद ही नहीं करेंगी.’’

वाणी ने कहा, ‘‘अरे नहीं दीदी, एक घर में 2 बेटियां भी तो होती हैं न, मां के लिए तो सब बराबर होती हैं, हैं न, मां?’’ लतिका तो ऐसी लाड़ दिखाने वाली बहू पा कर निहाल थीं, फौरन हां में सिर हिलाया. हंसीखुशी के माहौल में एक हफ्ता खूब शानदार बीता. फिर दोनों एक हफ्ते के लिए हनीमून पर चले गए. वहां से भी वाणी लतिका को मां, मां कर के  लगातार संपर्क में रही. लतिका बहुत खुश थी. जिस दिन मयंक और वाणी घूम कर वापस आए, वाणी ने घर में घुसते हुए अपने बैग जमीन पर पटके और आराम से सोफे पर पसर गई, ‘‘ओह मां, थक गई, चाय चाहिए,’’ रात के 8 बज रहे थे. सुनयना का पति राजीव विवाह अटैंड कर के लौट चुका था. वहां उस के मातापिता भी राजीव और सुनयना के साथ ही रहते थे.

लतिका ने कहा, ‘‘पर बेटा, अब तो खाना लग ही गया है. तुम लोग फ्रैश हो कर खाना पहले खा लेते, चाय बाद में पी लेना.’’

‘‘नहीं मां, चाय पीने का मन है, बना दो न,’’ वाणी ने इस तरह कहा कि सुनयना को हंसी आ गई. उस ने लतिका को देख कर आंख मारते हुए कहा, ‘‘आप की दूसरी बेटी के लिए मैं चाय बना लाती हूं,’’ चाय आने तक वाणी फ्रैश हो चुकी थी. मयंक भी सोफे पर पसरा था. लतिका मयंक से ट्रिप के बारे में पूछती रही. विनोद भी आ गए, तो सब ने खाना शुरू किया. खाना देख कर वाणी ने कहा, ‘‘मां, छोले तो ठीक हैं पर यह आलूगोभी. मां, मेरा दिमाग खराब हो जाता है आलूगोभी देख कर.’’

लतिका चौंकी, ‘‘ओह, पसंद नहीं है?’’

‘‘न मां, बिलकुल नहीं, मु झे यह टिफिन में कभी मत देना?’’

विनोद ने कहा, ‘‘तुम्हें औफिस में टिफिन चाहिए, मैं और मयंक तो औफिस की कैंटीन में ही खा लेते हैं. लतिका के ऊपर सुबह खाने का काफी काम आ जाता था. उस की तबीयत भी ठीक नहीं रहती.’’

‘‘पर पापा, मां हमेशा टिफिन देती थीं. कैंटीन का खाना तो मैं रोजरोज खा ही नहीं सकती.’’

लतिका के चेहरे पर कुछ सोचने के भाव आए, फिर पूछ लिया, ‘‘क्या ले जाना पसंद करोगी, बेटा.’’

‘‘खूब अच्छीअच्छी चीजें, मां?’’

मयंक ने कहा, ‘‘तुम एक काम करना, थोड़ा जल्दी उठ कर मम्मी के साथ किचन देख लेना कि क्या बनाना है?’’

‘‘न बाबा, सुबह कहां किचन में जाने का मन होगा, घर में टिफिन मां ही बनाती थीं, ये भी तो अब मेरी मां हैं. अब मेरा यही घर है, यही मां, है न मां?’’ भोला चेहरा लिए वाणी ऐसे बात कर रही थी कि किसी को पलभर तो कुछ सू झा ही नहीं. विनोद और सुनयना की नजरें मिलीं, दोनों ने अपनी हंसी मुश्किल से रोकी. सुनयना काफी स्नेहिल स्वभाव की लड़की थी, बोली, ‘‘मम्मी, आप मेरा टिफिन बनाती थीं न, अब वाणी का भी बना देना,’’ लतिका ने ठंडी सांस लेते हुए हां में सिर हिला दिया.

वे रात को सोने लेटीं तो विनोद ने उन्हें छेड़ा, ‘‘कैसा लग रहा है? एक और बेटी की मां बन कर. लतिका ने उन्हें घूरा तो विनोद हंस पड़े. रात के 11 बज रहे थे. इतने में वाणी की आवाज आई, ‘‘मां, मां.’’

‘‘अब क्या हुआ,’’ कहती हुई लतिका अपने बैडरूम से बाहर निकलीं, ‘‘क्या हुआ, बेटा?’’

‘‘मां, बहुत दिन हो गए, गरम दूध चाहिए, सोने से पहले मु झे गरम दूध पीने की आदत है.’’

‘‘हां, ले लो बेटा, तुम्हारा घर है, जाओ, ले लो.’’

‘‘नहीं मां, आप दे दो, मैं थक गई हूं, प्लीज मां.’’

‘‘अच्छा,’’ लतिका को जैसे करंट सा लगा था. अभी तो किचन समेट कर फुरसत मिली थी. और तो किसी को दूध पीने की आदत थी नहीं. लतिका दूध गरम कर के लाई. इतनी देर में वाणी सोफे पर लेट कर अपने फोन में कुछ कर रही थी. मां, मां, सुन कर सुनयना भी आ गई थी. वाणी गटागट दूध पी गई, बोली, ‘‘थैंक्स, मां, अब अच्छी नींद आएगी. मां, मु झे रोज रात में दूध देना,’’ फिर लतिका से लिपट कर उन का गाल चूम लिया, ‘‘बाय, गुडनाइट मां, गुडनाइट दीदी.’’

उस के जाने के बाद सुनयना हंसी, ‘‘क्या हुआ, मां, शौक्ड लग रही हो,’’ सुनयना के कहने के ढंग पर लतिका को हंसी आ गई. ‘चुप रहो तुम’ कह कर हंसती हुई सोने गईं तो विनोद ने फिर छेड़ा, ‘‘क्या हुआ, तुम्हारी नई बेटी ‘मां, मां’ क्यों कर रही थी?’’

‘‘उसे दूध पीना था.’’

‘‘क्या?’’ जोर से हंसे विनोद.

‘‘हां, अब रोज देना है उसे गरम दूध, उसे अच्छा लगता है,’’ दोनों इस बात पर हंसीमजाक करते रहे.

कुछ दिन बाद सुनयना चली गई. सब अपने रूटीन में व्यस्त थे. देखने में तो सब बहुत अच्छा चल रहा था पर लतिका की हालत इन 3 महीनों में पस्त हो चुकी थी. प्यारी सी, लाड़प्यार से लिपटती, नखरे उठवाती बहू को किसी भी बात के लिए टोकने की लतिका की हिम्मत ही नहीं होती थी. एक दिन विनोद से कहा भी, ‘‘ऐसे नखरे तो सुनयना ने भी कभी नहीं उठवाए मु झ से.’’

एक दिन सब डिनर कर रहे थे. मयंक ने बहुत ही लगाव से पूछा, ‘‘मम्मी, अब आप को दीदी की कमी तो नहीं खलती न? वाणी तो आप के साथ अपनी मां की तरह ही रहती है न?’’

वाणी लतिका का चेहरा देख रही थी. लतिका ने उस के भोले से चेहरे पर उत्तर की प्रतीक्षारत आंखों में  झांकते हुए कहा, ‘‘हां, हां, अपनी मां ही सम झती है,’’ वाणी बहुत खुश हुई, उठ कर लतिका के गले में बांहें डाल दीं, कहा, ‘‘मैं इस घर में आ कर कितनी खुश हूं, मां. बता नहीं सकती.’’

विनोद बस, लतिका को देख मुसकरा दिए. वे अपनी पत्नी के बढ़े हुए काम, उन का कमरदर्द, थकान सब सम झ रहे थे. पर वाणी को क्या, कैसे कहा जाए, सम झ ही नहीं आ रहा था. नया विवाह था. शुरू में ही कुछ कह कर मतभेद उत्पन्न नहीं करना चाहते थे. वाणी से और कोई शिकायत भी तो नहीं थी किसी को. सब को प्यार करती थी, खुश रहती थी. पूरा दिन औफिस में रह कर शाम को मां, मां करती घर आती थी. लतिका कैसे किसी बात पर उसे टोके. वे तो बहुत शांतिपसंद और स्नेहिल स्वभाव की महिला थीं.

वाणी को घर के कामों में हाथ बंटाने का कोई शौक न था, न उसे जरूरत महसूस हो रही थी. साफसफाई करने वाली मेड उमा ही लतिका का हाथ बंटा रही थी. एक दिन विनोद ने सलाह दी, ‘‘लतिका, उमा से कहो, खाना भी बना दिया करे. अपनी नई बेटी से तो तुम्हें कुछ हैल्प मिलने के आसार नजर नहीं आ रहे.’’

उमा पुरानी मेड थी, घर की सदस्या की तरह ही थी. वह अब लतिका के कहे अनुसार खाना भी बनाने लगी थी. अब लतिका को कुछ आराम हुआ, बैकपेन में कुछ राहत सी मिली. वाणी के आने से पहले वह सब संभाल तो रही थी पर जब से वाणी आई थी, उन का काम बहुत बढ़ गया था. पहले तो जो भी बनता था, तीनों खा लेते थे. पर वाणी के खानेपीने में खूब नखरे थे, उस के लिए कुछ अलग ही अचानक बनाना पड़ जाता था. मां, मां कर के कुछ फरमाइश करती तो लतिका कुछ मना कर ही न पाती थी. रात को सब डिनर कर रहे थे. वाणी चुप सी थी. लतिका ने पूछा, ‘‘क्या हुआ, बेटा? थक गई क्या? बहुत चुप हो.’’

‘‘मां.’’

‘‘हां, बोलो न.’’

‘‘एक बात कहूं?’’

‘‘अरे, बोलो न क्या हुआ?’’

‘‘मां, मु झे उमा आंटी के हाथ का खाना उतना अच्छा नहीं लग रहा है.’’

‘‘पर वह वैसे ही बनाती है जैसा मैं उसे बताती हूं.’’

‘‘पर मां, आप जैसी रोटी नहीं है उन की.’’

मयंक ने कहा, ‘‘तो  क्या हुआ, ये भी काफी अच्छी हैं.’’

‘‘पर मु झे मां के हाथ की रोटी अच्छी लगती है न.’’

‘‘चुपचाप खा लो वाणी, खाना अच्छा है,’’ मयंक ने फिर कहा.

पर वाणी तो अपनी तरह की एक ही बहू थी, बोली, ‘‘मां, बस मेरे लिए 2 रोटी बना दोगी कल से? प्लीज.’’

लतिका को धक्का सा लगा, क्या है यह लड़की. सम झ ही नहीं आया क्या कहे. वाणी ने फिर कहा, ‘‘बस, मेरी 2 रोटी बनाने में तो आप को तकलीफ नहीं होगी न, मां?’’

मयंक ने कहा, ‘‘अरे, चुपचाप खा लो जैसी बनी है. एक तो तुम कुछ भी काम नहीं करतीं, क्यों मां का काम बढ़ाती रहती हो?’’

वाणी ने उसे घूरा, ‘‘तुम चुप रहो, मैं अपनी मां से बात कर रही हूं, तुम्हें क्या परेशानी है?’’ विनोद और लतिका एकदूसरे का मुंह देख रहे थे, क्या कहें अब.

लतिका ने कह दिया, ‘‘हां, बना दूंगी.’’

‘‘ओह मां, आप कितनी अच्छी हैं, बिलकुल मेरी मां की तरह. वे भी मेरी हर बात मान जाती हैं,’’ कहतेकहते उठ कर लतिका के गले में बांहें डाल दीं वाणी ने. सोने से पहले वाणी को गरम दूध का गिलास पकड़ा कर लतिका कमरे में आईं. आंखों पर हाथ रख कर लेट गईं. आज दिनभर उन की तबीयत ढीली ही थी. विनोद ने पूछा, ‘‘क्या हुआ?’’

‘‘कुछ नहीं,’’ कहती वे मुसकराईं तो विनोद हंसे, ‘‘दूसरी बेटी के बारे में सोच रही हो न?’’

‘‘सुनो.’’

‘‘हां, बोलो न.’’

‘‘क्या कोई उसे कह सकता है कि वह मु झे अपनी मां नहीं, सास ही सम झ ले. मैं सास ही भली,’’ दोनों हाथ जोड़ कर अपने माथे से लगा कर लतिका ने नाटकीय स्वर में कहा तो विनोद जोर से हंस पड़े.

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