अयोध्या में राम मंदिर बनने से देश में अंधआस्था का कारोबार बढ़ेगा. इस से देश और समाज का लंबे समय तक भला नहीं होगा, क्योंकि जिन देशों में धार्मिक कट्टरपन हावी रहा है, वहां गरीबी और पिछड़ापन बढ़ा है. भारत की जीडीपी बढ़ोतरी 8 सालों में सब से नीचे के पायदान पर है. बेरोजगारी सब से ज्यादा बढ़ी है.
80 के दशक में अयोध्या में राम मंदिर की राजनीति गरम होनी तेज हो गई थी. उस समय केंद्र में सरकार चला रही कांग्रेस धर्म की राजनीति के दबाव में आ गई थी. तब के प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने पहले अयोध्या में राम मंदिर में पूजा के लिए ताला खुलवा दिया था, इस के साथ ही राम मंदिर शिलान्यास के लिए भी कोशिश तेज कर दी थी.
धर्म की राजनीति करने वाली भारतीय जनता पार्टी को अपने लिए यह सही नहीं लग रहा था. ऐसे में भाजपा ने कांग्रेस से अलग हुए राजीव गांधी के करीबी विश्वनाथ प्रताप सिंह को समर्थन दिया और उन्होंने केंद्र में अपनी सरकार बनाई.
प्रधानमंत्री बनने के बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह को इस बात का अंदाजा हो चुका था कि भाजपा धर्म की राजनीति कर रही है. ऐसे में वह बहुत दिन सरकार की सहयोगी नहीं रह पाएगी. भाजपा की धर्म की राजनीति को मात देने के लिए उन्होंने पिछड़ों और वंचितों को इंसाफ दिलाने के लिए मंडल कमीशन लागू कर दिया.
ये भी पढ़ें- पौलिटिकल राउंडअप: भाजपा की बढ़ी मुसीबत
मंडल कमीशन के लागू होने से अगड़ों बनाम पिछड़ों की गुटबाजी सामने आ गई. ऐसे में पिछड़े धर्म का साथ छोड़ कर मंडल कमीशन के फैसले के साथ खड़े हो गए. पिछड़ा वर्ग अब मुख्यधारा में आ गया. 40-50 फीसदी पिछड़े वर्ग को भाजपा भी छोड़ने को तैयार नहीं थी. ऐसे में पार्टी ने पिछड़े वर्ग के नेताओं को आगे किया.
30 अक्तूबर, 1990 को जब राम मंदिर बनाने के लिए कारसेवा आंदोलन की नींव पड़ी तो धर्म की राजनीति ने उत्तर प्रदेश में अपना गढ़ बना लिया. हिंदुत्व का उभार तेजी से शुरू हुआ.
धर्म की इस राजनीति को रोकने का काम पिछड़ी जातियों के नेता मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव जैसों के कंधों पर आ गया. कारसेवा को सख्ती के साथ रोकने के चलते मुलायम सिंह यादव को मुसलिमों का मजबूत साथ मिला.
इस के बाद ‘मंडल’ और ‘कमंडल’ की राजनीति के बीच दलितों में भी जागरूकता आई. दलितों की अगुआ बहुजन समाज पार्टी द्वारा की गई दलित और पिछड़ा वर्ग की राजनीति ने सवर्ण राजनीति को प्रदेश से बाहर कर दिया.
साल 1990 से साल 2017 के बीच यानी 27 साल में केवल 2 मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह और राम प्रकाश गुप्ता ही सवर्ण जाति के मुख्यमंत्री बने. इन का कार्यकाल केवल 3 साल का रहा. बाकी के 24 साल उत्तर प्रदेश में दलित और पिछड़ी जाति के मुख्यमंत्री राज करते रहे.
‘मंडल’ से उभरे पिछड़े
मंडल कमीशन लागू होने का सब से बड़ा असर हिंदी बोली वाले प्रदेशों दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार में हुआ. यहां की राजनीति में पिछड़ों का बोलबाला दिखने लगा.
ये भी पढ़ें- महाराष्ट्र: शरद पवार ने उतारा भाजपा का पानी
सवर्ण जातियों की अगुआई करने वाली भाजपा को अपने जातीय समीकरण ‘ठाकुर, ब्राह्मण और बनिया’ को छोड़ कर दलित, पिछड़ों और अति पिछड़ों को आगे करना पड़ा, तो भाजपा को मध्य प्रदेश में उमा भारती, उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह को आगे कर के मंदिर की राजनीति को अहमियत देनी पड़ी.
मंदिर के बहाने इन पिछड़े नेताओं ने धर्म की राजनीति के सहारे भाजपा में खुद को मजबूत किया. आगे चल कर भाजपा में लंबे समय तक पिछड़ों की बादशाहत कायम रही.
साल 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भाजपा में पिछड़े नेताओं को दोबारा किनारे किया गया. अयोध्या के नायक कहे जाने वाले कल्याण सिंह को भाजपा छोड़ कर बाहर तक जाना पड़ा.
लेकिन, भाजपा से अलग देश की राजनीति में पिछड़ों को दरकिनार करना मुमकिन नहीं रह गया था.
उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान में पिछड़ी जातियों का उभार कुछ इस कदर हुआ कि सवर्ण जातियां पीछे चली गईं. राम के प्रदेश अयोध्या में तो दलित और पिछड़ा गठजोड़ पूरी तरह से हावी हो गया. इस में मुसलिमों के मिल जाने से प्रदेश में ऊंची जातियों की राजनीति खत्म सी हो गई थी.
नतीजतन, भाजपा ने दलितों और पिछड़ों को पार्टी से जोड़ना शुरू किया. यहां दलितों और पिछड़ों की अगुआई करने वाली बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी अपने लोगों को जोड़ने से चूक गई और भाजपा ने मौके का फायदा उठा कर दलितपिछड़ों को धर्म से जोड़ कर मुसलिम वोट बैंक को हाशिए पर डाल दिया.
धर्म के घेरे में दलितपिछड़े
भाजपा ने उत्तर प्रदेश में अपने जनाधार को मजबूत करने के लिए साल 2014 से दलितपिछड़ों को पार्टी से जोड़ना शुरू किया. धीरेधीरे दलित और पिछड़े धर्म की ओर झुकने लगे. ऐसे में दलित और पिछड़ी जातियां ‘मंडल’ के मुद्दों को दरकिनार कर ‘कमंडल’ की धर्म की राजनीति पर भरोसा जताना शुरू करने लगीं. यहीं से प्रदेश की राजनीतिक दिशा कमजोर होने लगी.
ये भी पढ़ें- हे राम! देखिए मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की दो नावों की सवारी
धर्म को केंद्र में रख कर राजनीति करने वाली भाजपा को उत्तर प्रदेश में जबरदस्त समर्थन हासिल होने लगा. लोकसभा चुनाव में भाजपा ने वोट का धार्मिक धु्रवीकरण शुरू किया. प्रदेश में हिंदुत्व का उभार साल 1992 के समय चक्र में वापस घूम गया. ऐसे में लोकसभा चुनाव के बाद साल 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को बहुमत से सरकार बनाने का मौका मिला.
साल 2017 के विधानसभा चुनाव में हिंदुत्व के उभार को देखते हुए भाजपा ने विकास के मुद्दे को वापस छोड़ कर धर्म के मुद्दे को हवा देना शुरू किया.
उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव के पहले भाजपा को यह उम्मीद नहीं थी कि हिंदुत्व का मुद्दा कारगर साबित होगा, इसलिए चुनाव के पहले योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं घोषित किया गया था.
चुनाव जीतने के बाद भाजपा ने योगी आदित्यनाथ को जब मुख्यमंत्री बनाया, तो भी हिंदुत्व के मुद्दे पर इतना भरोसा नहीं था. यही वजह थी कि उपमुख्यमंत्री के रूप में भाजपा ने ब्राह्मण जाति से डाक्टर दिनेश शर्मा और अति पिछड़ी जाति से केशव प्रसाद मौर्य को चुना.
पर, बाद में उत्तर प्रदेश में जिस तरह से योगी आदित्यनाथ को लोगों ने पसंद किया और 2019 के लोकसभा चुनाव में केंद्र में भाजपा की वापसी हुई, उस के बाद हिंदुत्व को हिट फार्मूला मान लिया गया.
हिंदुत्व की गोलबंदी
हिंदुत्व की कामयाब गोलबंदी करने के बाद भाजपा राम मंदिर की राह पर आगे बढ़ गई. अब भाजपा को यह सम झ आ चुका था कि दलित और पिछड़े जाति नहीं धर्म के मुद्दे पर चल रहे हैं. ऐसे में भाजपा को उत्तर प्रदेश में पकड़ बनाए रखने के लिए राम मंदिर पर बड़ा फैसला लेना जरूरी हो गया था.
भाजपा पर यह आरोप लग रहा था कि वह राम मंदिर की राजनीति कर के खुद तो सत्ता की कुरसी हासिल कर चुकी है और अयोध्या में रामलला तंबू में रह रहे हैं.
सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद भाजपा की अब रणनीति यह है कि साल 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के पहले राम मंदिर बनना शुरू हो जाए और साल 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले राम मंदिर बन कर तैयार हो जाए. इस बीच अयोध्या को भव्य धर्मनगरी बनाने के लिए काम चलता रहे.
ये भी पढ़ें- एक-एक कर बिखरता जा रहा एनडीए गठबंधन, 1999 में पहली बार देश में बनाई थी सरकार
मोदी और योगी
नरेंद्र मोदी भी अयोध्या मसले से चर्चा में आए थे. साल 2002 में अयोध्या से शिलादान कार्यक्रम से वापस आते कारसेवकों पर ट्रेन के डब्बे पर हमला हुआ था. इस को गोधरा कांड के नाम से जाना जाता है. गोधरा कांड के बाद ही गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी हिंदुत्व के नए सियासी नायक के रूप में उभरे.
दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने प्रदेश में धार्मिक आस्था को जनजन तक पहुंचाने के लिए हिंदू त्योहारों को बड़े रूप में मनाने का काम किया. कुंभ ही नहीं, बल्कि कांवड़ यात्रा तक को अहमियत दी गई. अयोध्या में भव्य दीपोत्सव और राम की मूर्ति लगाने का संकल्प भी इस का हिस्सा बना.
साल 2019 का लोकसभा चुनाव जीतने के बाद जब नरेंद्र मोदी दोबारा केंद्र में सरकार बनाने में कामयाब हुए तो राम मंदिर आंदोलन को पूरा करने की कोशिश तेज कर दी.
अब अयोध्या के मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद केंद्र सरकार के लिए मंदिर बनाना कामयाब हो गया है.
साल 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव और 2024 के लोकसभा चुनाव भी राम मंदिर के मुद्दे पर लड़े जाएंगे.
हाशिए पर धर्मनिरपेक्षता
धर्म की राजनीति ने देश में कट्टरपन को बढ़ावा दिया है. धार्मिक कट्टरता के असर में धर्मनिरपेक्षता को राष्ट्र विरोधी मान लिया गया है.
ये भी पढ़ें- कमलेश तिवारी हत्याकांड खुलासे से खुश नहीं परिवार
धार्मिक निरपेक्षता की बात करने वाले राजनीतिक दल मुखर विरोध करने की हैसियत में नहीं रह गए हैं. 80 के दशक में जो हालत भाजपा की थी, उस में अब बाकी दल शामिल हो गए हैं. कट्टरपन ने देश के माहौल को बिगाड़ा है. धर्म की राजनीति इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं है. धर्म की राजनीति देश के भविष्य के लिए खतरनाक है.
पूरी दुनिया के देशों को देखें तो विकास वहीं हुआ है, जहां कट्टरपन कम रहा है. भारत के 2 पड़ोसी देश पाकिस्तान और बंगलादेश की तुलना करें तो कम कट्टर बंगलादेश ने ज्यादा तरक्की की है.
हालांकि सोवियत संघ में कम्यूनिस्ट कट्टरपन तानाशाही में बदल गया था, जिस के बाद वहां बंटवारे के हालात बन गए. जो सोवियत संघ एक समय में अमेरिका के साथ खड़ा हो कर दुनिया की नंबर वन की रेस में शामिल था, पर अपने कट्टरपन के चलते अमेरिका से विकास की दौड़ में कई साल पीछे चला गया.
मिडिल ईस्ट के देशों में इराक, ईरान, सीरिया, लेबनान जैसे देश धार्मिक कट्टरपन में सुलग रहे हैं. माली तौर पर मजबूत होने के बाद भी वे पिछड़े हुए हैं. इस की वजह यही है कि वहां धार्मिक कट्टरपन आगे नहीं बढ़ने दे रहा है.
भारत अपने धार्मिक कट्टरपन में जिस राह पर चल रहा है, वहां से वापस आना आसान नहीं है.
धार्मिक कट्टरपन के बहाने विकास, रोजगार के मुद्दों को हाशिए पर धकेल दिया गया है.
इतना ही नहीं, देश की माली हालत और बेरोजगारी सब से खराब हालत में है. चुनाव जीतने के लिए जहां तरक्की और रोजगार की बात होनी चाहिए, वहां धर्म के आधार पर वोट लेने के लिए धार्मिक मुद्दों का सहारा लिया जाता है. करतारपुर कौरिडोर और राम मंदिर को ही विकास का रोल मौडल माना जा रहा है.
साल 1992 के बाद उत्तर प्रदेश में रोजगार की हालत पर अगर सरकार एक श्वेतपत्र जारी कर दे तो हालात पता चल जाएंगे. उत्तर प्रदेश के औद्योगिक शहरों में शामिल कानपुर, आगरा, फिरोजाबाद, अलीगढ़, मुरादाबाद, वाराणसी और सहारनपुर में चमड़ा, कांच, ताला, पीतल, बनारसी साड़ी और लकड़ी का कारोबार बुरे दौर में है.
ये उद्योगधंधे कभी प्रदेश की पहचान हुआ करते थे. सरकार अब इन को आगे बढ़ाने के बजाय धार्मिक पर्यटन को बढ़ावा दे रही है.
ये भी पढ़ें- धान खरीदी के भंवर में छत्तीसगढ़ सरकार!
आज यह बात आम लोगों को सम झाई जा रही है कि राम मंदिर बनने से प्रदेश में पर्यटन बढ़ जाएगा, बेरोजगारी खत्म हो जाएगी. यह बात वैसे ही है, जैसे नोटबंदी के बाद यह कहा जा रहा था कि इस से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा.