भारतीय समाज में पहले दूसरों की मौत पर रोने के लिए रुदालियां हुआ करती थीं, जो पैसे ले कर जमींदार या ठाकुर की मौत पर मातम मनाने के लिए बुलाई जाती थीं.
उन रुदालियों का काम होता था कि वे पूरे जोर के साथ छाती कूट कर, दहाड़ें मारमार कर ऐसा माहौल बना देती थीं कि आने वाला रोने के लिए मजबूर हो जाए.
समाज में उन्हें हमेशा ही नीची नजरों से देखा जाता था और उन के साथ कठोरता भरा बरताव किया जाता था. उन के घर भी गांव की सरहदों के बाहर बने होते थे.
साल 1993 में कल्पना लाजमी ने बंगला की महान लेखिका महाश्वेता देवी के उपन्यास ‘रुदाली’ पर एक फिल्म भी बनाई थी. इस फिल्म का लता मंगेशकर और भूपेन हजारिका की आवाज में गाया गया एक गीत ‘दिल हूमहूम करे, घबराए…’ इन रुदालियों के निजी दुख को दिखाता है.
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आज भी राजस्थान में दलित औरतों को जबरन अपने दुख में रुलाया जाता है. ऐसे हालात में कई दिनों तक तथाकथित सामंतों के घरों पर जा कर दलित औरतों को मातम मनाना पड़ता है.
राजस्थान के सिरोही जिले में दर्जनों ऐसे गांव मिले हैं, जहां दलित औरतों को ऊंची जाति के लोगों के घर जा कर किसी की मौत होने पर मातम मनाना पड़ता है.
सिरोही जिले के रेवदर इलाके में धाण, भामरा, रोहुआ, दादरला, मलावा, जोलपुर, दवली, दांतराई, रामपुरा, हाथल, उडवारिया, मारोल, पामेरा वगैरह इलाकों में रुदालियों के सैकड़ों परिवार रहते हैं.
अगर किसी तथाकथित सामंतों के यहां कोई मर जाता है, तो पूरे गांव के दलितों को सिर मुंडवाना पड़ता है. साथ ही, दलित परिवार के बच्चों से ले कर बूढ़े तक का जबरन मुंडन करवाया जाता है. अगर कोई दलित रोने न जाए या दलित सिर न मुंडाए, तो उस परिवार को सताने का दौर शुरू हो जाता है.
माना जाता है कि रुदाली की यह परंपरा राजस्थान में तकरीबन 200 साल से है. चूंकि इस बारे में कोई कानून नहीं है, इसलिए यह परंपरा अभी भी जारी है.
लोक मान्यता है कि रोने से कमजोरी होने का डर रहता है और चेहरा बदसूरत हो जाता है, इसलिए ऊंची जातियों ने अपने चेहरे की खूबसूरती बचाए रखने के लिए यह काम निचली जातियों को दे दिया गया.
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बहरहाल, यह बड़े दुख की बात है कि आजादी के 74 साल बाद भी देश के एक हिस्से में कुप्रथा के नाम पर रुदालियों को बेमन से किसी पराए के लिए आंसू बहाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है. पर क्या इस तरह से दूसरों की मौत पर रोने से अपनों का अपने के प्रति शोक जाहिर हो जाता है?
एक लोकतांत्रिक देश में दलितों को संविधान से मिलने वाले हकों पर यह सीधी सी चोट ही है. आरक्षण की खिलाफत करने वाले कई लोग इस तरह की जातिवादी चोट को दरकिनार कर देते हैं, जो ठीक नहीं है.
आज जरूरत इस बात की है कि एक प्रजातांत्रिक देश में गलत रिवाजों और कुप्रथाओं से छुटकारे की दिशा में ठोस पहल हो और इस तबके को समाज की मुख्यधारा में लाने की भरसक कोशिश की जाए.