इतिहास केवल जलियांवाला बाग की खूनी होली का ही हाल बताता है, उस के हत्यारे का अंत नहीं लिखता. मगर जो ‘शहीद उधम सिंह’ नाम से परिचित हैं उन के खून में यह नाम सुनते ही एक गरमी का उबाल सा पैदा हो जाता है. लुधियाना शहर में शहीद उधम सिंह नगर कसबे में घूमते हुए पहली बार इसी तरह का रोमांच मुझे भी हो आया था. मेरे सामने वह चेहरा उभर आया, बिलकुल उसी तरह का, जो कभी मेरे दादाजी ने अपनी आपबीती के छोटे से हिस्से में चित्रित किया था. उन की यह आपबीती इस प्रकार थी…

1938 की बात है. उन दिनों मैं और मेरे 2 साथी लंदन में थे. गुरुद्वारा हमारा अस्थायी घर था. लंदन आने वाला करीब हर भारतीय वहां आ कर कुछ दिन ठहरता था. एक दिन सुबह हम ने वहां एक नए भारतीय को देखा. उस की नजरें भी हम पर पड़ीं, लेकिन हमें काम पर जाने की जल्दी थी इसलिए हम ने शाम को उस से मिलने का फैसला किया. शाम को वह खुद ही कमरे के बाहर हमारी प्रतीक्षा कर रहा था. हमें देख कर वह उठ खड़ा हुआ और हाथ जोड़ कर बोला, ‘सत श्री अकाल.’

उस की आवाज में अजीब तरह का खिंचाव था. अभिवादन का जवाब दे कर हम ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा. कमीज और तहमत, सिर पर सफेद साफा और पीछे लटकता हुआ तुर्रा. यही उस का पहनावा था. उस के सिर पर केश नहीं थे पर आवाज उस की खास कड़क थी, जो उसे सिख जमींदार घराने का दर्शाती थी. यों पहली नजर में हमें गुंडा लगा था.

‘‘मेरा नाम उधमसिंह है,’’ उस ने बताया. शिष्टाचारवश हम ने बढ़ कर उस से हाथ मिलाया और अपना परिचय दिया.

‘‘कौन सा गांव है, भाई साहब, आप का?’’ मैं ने पूछा.

‘‘सनाम, बरनाले के पास. आप का?’’

‘‘गिल्लां गांव है, लुधियाने के पास.’’ उस के चेहरे पर उभरी रौनक और गहरी हो गई. वह बोला, ‘‘गिल्लां? नहर के पास वाला न? तब तो हम आसपास के ही हैं,’’ और उस ने बढ़ कर मुझे मजबूत आलिंगन में कस लिया. वतन से दूर एक बेगाने देश में कोई हमवतन और वह भी अपने ही गांव के पास का मिल जाए तो इस प्रकार की अलौकिक खुशी होती है.  यह हमारी उस से पहली मुलाकात थी. इस के बाद वह हमारे बहुत करीब आता गया पर हम सदा उस से दूर रहने की कोशिश करते. हम सुबह काम पर चले जाते और शाम को वापस आते. वह भी इसी तरह करता, पर हम ने उस से कभी उस के धंधे के बारे में पूछने की कोशिश नहीं की. न ही उस ने कभी बताने की इच्छा जाहिर की. हमारा खयाल था कि वह चार सौ बीसी का धंधा करता होगा. उस के अंदर कोई दिलेर दिल भी होगा, इस की कभी हम ने कल्पना भी नहीं की थी.

वह समय निकाल कर शाम को हमारे पास आ बैठता और घंटों इधरउधर की हांकता रहता. उस की बातें अधिकतर गोरों के प्रति रोष से भरी होती थीं. हर समय वह गोरों को भारत से निकालने के स्वप्न देखता रहता. खासतौर पर 2 गोरे उस की आंखों में बहुत खटकते थे. पहला जनरल डायर और दूसरा ओडवायर. उन्हें मारने की कसमें वह कई बार खा चुका था.एक दिन मैं ने उस से पूछा, ‘‘उधमसिंह, भई, अगर तुम्हें गोरे इतने नापसंद हैं, तो तुम यहां आखिर करने क्या आए हो?’’

‘‘अपना असली मकसद पूरा करने.’’

‘‘कौन सा?’’ हम सब ने एकसाथ पूछा.

‘‘शादी,’’ वह छूटते ही तपाक से बोला.

दिन बीतते गए और उस के साथ हमारे संबंध घनिष्ठ होते गए. इतने घनिष्ठ कि जब हम ने कमरे किराए पर लिए तो उसी मकान में एक कमरा उस ने भी जबरदस्ती किराए पर ले लिया. उस ने इस का कारण बताया, ‘‘तुम से जुदा हो कर मैं रह ही नहीं सकता.’’ अभी भी हम उस के कामधंधे के बारे में अनभिज्ञ थे. एक दिन आखिर मैं ने इस बारे में पूछ ही लिया. तो वह बोला, ‘‘मेरा काम, इनकलाब.’’

मैं हंस पड़ा और बोला, ‘‘वह तो तुम्हारी बातों और कारनामों से ही लगता है. अच्छा भई इनकलाबी, तेरा गुरु कौन है?’’

‘‘उस ने बताया भगत सिंह.’’ जैसेजैसे समय बीतता गया हम उस के प्रति अधिकाधिक शक्की होते गए. यह बात निराली होती जा रही थी. उस समय 1939 चल रहा था. एक दिन सिरदर्द के कारण मैं औफिस से जल्दी घर लौट आया. आ कर चाय बनाई और पीने ही लगा था कि तभी खटखट सीढि़यां चढ़ता हुआ वह अंदर आ गया.

‘‘आ, उधमा, चाय पी,’’ मैं ने कहा तो वह बोला ‘‘नहीं, नहीं, बस पी. मैं कुछ दिन पहले यहां रखी एक चीज लेने आया हूं. ले सकता हूं?’’

‘‘जरूर भई, अगर तेरी कोई चीज है तो जरूर ले  सकता है.’’ मेरे कमरे में एक आला था जो न जाने कब से कीलें ठोंक कर बंद किया हुआ था. मैं ने कभी उस पर ध्यान भी नहीं दिया था. उस ने जेब से एक पेचकश निकाला और फट्टियों के पेच खोल दिए. फिर बीच में से एक रिवाल्वर निकाल कर जेब में डाला और फट्टियों को उसी तरह ठोंक कर वह मेरे सामने आ खड़ा हुआ. फिर उस ने चाय की मांग की. मैं ने उस के लिए चाय बनाई और खुद इस उधेड़बुन में लग गया कि कैसा खतरनाक आदमी है यह. अगर पुलिस यहां आ कर रिवाल्वर ढूंढ़ लेती तो मुझे बेकार में मुसीबत उठानी पड़ती.

मैं ने पूछा, ‘‘कब रख गया था भई, तू इसे यहां?’’

‘‘यार, सद्दा, अब तुम से क्या छिपाना. गोरी सरकार न जाने क्यों मुझ से डरती है? मेरा नाम पुलिस ने दस नंबरियों की लिस्ट में लिख रखा है. इसीलिए मुझे वापस अपने मुल्क जाने की भी इजाजत नहीं है. पिछले कुछ दिनों से तो पुलिस की मुझ पर खास नजर है. इसीलिए मैं इसे यहां रख गया था.’’ फिर उस की आवाज में वही कड़क पैदा हो गई, ‘‘क्या तुम बहादुर हिंदुस्तानी नहीं हो? क्या तुम उस देश की औलाद नहीं हो, जहां भगत सिंह पैदा हुआ?’’

‘‘जानते हो एक बार जब वह छोटा था तो उस से किसी ने पूछा था, ‘तुम ने अपने खेत में क्या बोया है, भागू?’ वह नन्हा सा बालक बड़े जोश में बोला था, ‘बंदूकें,’ तुम भी उसी धरती के बेटे हो. देश के लिए अपनी कुरबानी से डरते हो? और क्या तुम्हें मुझ पर अब जरा भी विश्वास नहीं? अगर यही बात है तो, जाओ, तुम्हें मैं कुछ नहीं कहूंगा. जाओ, तुम्हें इजाजत है. जा कर पुलिस को बता दो कि मेरे पास हथियार है. वह आ कर मुझे पकड़ लेगी. सद्दा, मैं तुम से मुहब्बत करता हूं. अगर तुम्हें इस से खुशी होगी तो मैं उमरकैद भी झेल लूंगा.’’ इतना कह कर वह चुप हो गया और मुझ पर होने वाली प्रतिक्रिया देखने लगा. मगर मैं आंखें झुकाए बुत बना बैठा रहा. थोड़ी देर बाद वह उठा और तेजी से बाहर चला गया. उस दिन पहली बार मैं ने जाना कि उस में देश के प्रति प्रेम कितना कूटकूट कर भरा हुआ था. अब मेरे दिल में उस के लिए प्यार और श्रद्धा थी. बातों ही बातों में मैं ने एक दिन उस से कहा, ‘‘उधमसिंह, तुम अगर देश को आजाद करवाना चाहते हो तो तुम्हें भारत में रह कर ही कुछ करना चाहिए. यहां तो कुछ भी फर्क नहीं पड़ सकता.’’

मेरी बात सुन कर उस के चेहरे पर गम की तसवीर उभर आई, ‘‘हां,’’ वह लंबी सांस छोड़ता हुआ बोला, ‘‘मेरे देश के हजारों निहत्थे भाइयों को डायर और ओडवायर ने जलियांवाला बाग में गोलियों से भुनवा दिया था. उन में मेरा भाई और बापू भी…’’ उस की आंखें भर आईं और गला रुंध गया.

फिर धीरेधीरे उस ने अपने बचपन की वह घटना सुनाई जिस से उसे उन की मौत का पता चला था. 13 अप्रैल, 1919 यानी बैसाखी का दिन था. जलियांवाला बाग में अनजान, निहत्थे, परवाने इकट्ठे हो कर सभा कर रहे थे. गुलामी की दास्तां सुनने के लिए बूढ़े, बच्चे और स्त्रियां वहां इकट्ठी हुई थीं. ब्रिटिश सरकार इस अहिंसक सभा की ताकत देख चुकी थी. एक गांधी के साथ हजारों गांधी बनते देख वह बौखला उठी. उस की चालाक राजनीति भी कांप गई. इसलिए इस से निबटने का अधिकार सरकार ने फौजी जनरलों को दिया और उन जनरलों को ताकत के घमंड में इस बला से निबटने का एक ही तरीका सूझा, वह था गोलियां चलाने का. उन के हुक्म से ही मशीनगनों का घेरा बाग के चारों तरफ लगा दिया गया. इन घेरा डालने वालों में वे नमकहराम भी थे जो अपनी नौकरी के लिए देश को आजाद होता नहीं देखना चाहते थे. इस के बाद की खूनी होली की कहानी इतिहास के कई पन्नों पर काली स्याही से लिखी हुई है. यह कहानी कुछ ही दिनों में बड़ेबड़े शहरों से दूरदराज के गांवों में जा पहुंची. लाशों को पहचान कर अपने पतियों, भाइयों, बहनों और बेटों को जान लेने वाले तो थोड़े ही थे. अधिकांश लोगों ने तो जो घर नहीं पहुंचे उन्हें भी मारा गया समझ लिया.

संगरूर जिले का एक गांव है सनाम. एक घर में गांव के वृद्धवृद्धाओं का रोना सुनाईर् दे रहा था. उस का पति और बेटा भी जलियांवाला बाग में गए थे और आज उन्हें गए तीसरा दिन था. तभी एक छोटा सा बालक भागता हुआ आ कर अपनी मां की गोद में दुबक गया. मां और इतने लोगों को रोता देख बालक चाहे कुछ नहीं समझा था, पर इतना जरूर समझ गया कि लोग ऐसे किसी के मरने पर ही रोते हैं. अबोध बालक कुछ बड़ा हुआ और स्कूल जाने लगा. एक दिन सुबह बच्चों की एक टोली तख्तीबस्ता संभाले, बातें करती, उछलतीकूदती स्कूल जा रही थी. उस में यह बालक भी था. जलियांवाला बाग की खूनी होली को 3 वर्ष बीत चुके थे. मौत के गम धुंधले पड़ चुके थे. तभी एक बालक ने उस से पूछा, ‘‘उधमा, तेरा बापू और वीर कहां गए हैं?’’

बालक बिना सोचे ही बोला, ‘‘परदेश को.’’

‘‘तुझे किस ने कहा, ओए?’’

‘‘मां ने. क्यों?’’

‘‘मेरी मां तो रात बापू से कह रही थी, ‘बेचारे उधम के बापू और वीर को मरे 3 साल हो गए. गोरे बड़े बुरे हैं. जब उधम जवान होगा तो वह जरूर उन की मौत का बदला लेगा.’ तेरे बापू और वीर को, उधमा, गोरों ने ही मार दिया है. है न?’’

छोटे से उधम की आंखों के आगे बचपन का वह दिन नाच उठा जो उस ने मां की गोद में दुबक कर देखा था. उसे थोड़ाथोड़ा विश्वास हो गया कि राणा ठीक ही कह रहा होगा. अपने बाप और भाई की मौत की कहानी सुनते ही वह ताव खा गया. उसने सोचा कि वह मां से सचाई जानेगा और अगर यह सच है तो वह अंगरेजों से बदला लेगा. वह लगभग दौड़ता हुआ घर पहुंचा और एक ही सांस में मां से कई सवाल पूछ गया, ‘‘मां, बापू और वीर को गोरों ने मार दिया था क्या? तू तो कहती थी परदेश गए हैं. आज राणा ने मुझे सबकुछ बता दिया.’’

मां अपने बेटे को लौटता देख पहले ही हैरान थी. अब दबी हुई बात उस के मुंह से सुन सकते की हालत में आ गई. पति और जवान बेटे की याद कर पुराना घाव फूट निकला. उस की आंखों में आंसू चमक आए. काम छोड़ उस ने अपने बेटे को छाती से लगा लिया और फफकफफक कर रोने लगी. ‘‘मां, तू रो मत. मैं ला कर उन गोरों को अपने खेत की क्यारियों में गाड़ दूंगा. तू बता, वे कौन थे.’’ ‘कौन’ के बारे में बूढ़ी ने लोगों से यही सुना था कि वह ‘डैर’ था, कोईर् बड़ा अफसर और एक उस का साथी था. यही उस ने उधम को भी बता दिया. उधम ने भी सोच लिया कि वह बड़ा हो कर जरूर बदला लेगा.

जलियांवाला बाग की घटना से सारे देश में रोष की लहर फैल गई थी. ठाकुर बाबू ने ‘सर’ की उपाधि त्याग दी. बड़ेबड़े नेताओं के भाषण आग में घी का काम करने लगे. ये सब देख कर गोरी सरकार डर गई. लोगों को शांत करने के लिए उस ने जनरल डायर और ओडवायर को उन के पदों से हटा कर इंगलैंड भेज दिया. अपनी कहानी के अंत में उधम सिंह ने बताया कि वह गदर पार्टी का मैंबर बन गया था. उसी के सहारे वह अमेरिका गया और फिर यहां आ गया. एक दिन शाम को हम सब चाय पी रहे थे. वह भी साथ था. प्याला खाली कर के वह मेज पर रखता हुआ बोला, ‘‘अच्छा दोस्तो, आज शायद यह तुम लोगों के साथ मेरी आखिरी चाय है. यदि कोई गलती हुई हो तो माफ कर देना,’’ फिर उस ने जेब से बटुआ निकाला और मेरे एक साथी को कुछ पैसे दिए. शायद कभी उधार लिए होंगे, पर मेरा ध्यान उस के नाम कार्ड पर गया. उस पर लिखा था, ‘एमएसए.’ मैं बड़ा हैरान हुआ.

‘‘यह क्या, भाई, उधम?’’ मैं ने कार्ड की तरफ इशारा किया.

‘‘मोहम्मद सिंह ‘आजाद’,’’ वह बोला और जोर से हंस दिया. उसी दिन शाम को हमारा प्रोग्राम कैंस्टन हौल जाने का बन गया. उस दिन वहां भारत में उठ रहे आजादी के इनकलाब के बारे में मीटिंग होनी थी. हम अपनी सीटों पर बैठे थे. मीटिंग अभी शुरू भी नहीं हुईर् थी कि तभी मेरे साथी ने इशारा किया. सामने की 2 पंक्तियां छोड़ कर एक किनारे पर ‘वह’ बैठा था.

‘‘अरे, यह तो कहीं जा रहा था,’’ साथी बोला.

‘‘इसे कहां जाना है. इस की बातों और सच में बड़ा फर्क है,’’ दूसरे साथी ने कहा और दोनों हंस दिए. मीटिंग शुरू हो चुकी थी. सामने मंच पर कई लोगों के बीच जनरल डायर बैठा था. उसी के साथ उस के दाईं ओर ओडवायर बैठा था. ये दोनों ही उधम के असली शिकार थे. वह कहता था कि इन्होंने हजारों निहत्थों… जलियांवाला बाग… मेरा खून गरम हो कर तेजी से नाडि़यों में चक्कर काटने लगा. तभी वह उठा और बाहर चला गया. कुछ देर बाद फिर वह अंदर आ गया और धीमी चाल चलता हुआ मंच की ओर चढ़ चला. उस समय डायर बोल रहा था, ‘‘दंगे करने वाले हिंदुस्तानी बिलकुल पागल हैं…’’

सब एकटक भाषण सुन रहे थे. तभी फुरती से उधम ने अपनी जेब से हाथ निकाला. मैं इतना ही देख पाया कि उस के हाथ में वही रिवाल्वर था. इस के बाद ‘ठांय…ठांय…ठांय…’ 3 गोलियों की आवाज हुई. सारा हौल कांप उठा. मंच पर बैठे डायर का सिर छाती पर आ गिरा. ओडवायर भी एक ओर लुढ़क गया.

‘‘तो उस ने अपना काम पूरा कर दिया. अपने बाप और भाई की मौत का बदला, हजारों निहत्थों की मौत का बदला…’ कुछ ही क्षण में उस के साथ बिताए सारे क्षण मेरे सामने उभरते चले गए. गोली मार कर वह भागा नहीं, रिवाल्वर थामे उसी प्रकार खड़ा रहा. थोड़ी देर में ही पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया और हौल का घेरा डाल लिया. सुबह अखबारों में छपा था, ‘एक भारतीय युवक मोहम्मद सिंह ‘आजाद’ ने जनरल डायर और ओडवायर पर गोलियां चलाईं. उस समय वे कैंग्सटन हौल में भारत में उभरी स्थिति पर भाषण दे रही थे. जनरल डायर की घटनास्थल पर ही मृत्यु हो गई. ओडवायर गोलियों से हताहत हो गए हैं.’ उस पर मुकदमा चला और उसे सजा ए मौत मिली.

मैं बिस्तर पर पड़ा हुआ था. काली रात और भी स्याह होती जा रही थी. तभी उस में एक रोशनी उभर आई और एक चेहरे में बदल गई. वह था उधम का चेहरा… देश का बेटा या गुंडा, इनकलाबी या चारसौबीस… उस की याद के कई पन्ने मेरे सामने पलटने लगे. मगर उस का चेहरा मुसकरा रहा था. अदालत के कटघरे में खड़ा वह अपनी वकालत कर रहा था.

‘‘तुम ने गोली क्यों चलाई?’’ जज ने पूछा.

वह कड़क कर बोला, ‘‘हजारों बेगुनाहों और निहत्थों से भी क्या किसी ने ऐसे पूछा था?’’

‘‘जानते हो तुम्हारे जुर्म की सजा फांसी होगी?’’

‘‘हां, बहुत अच्छी तरह जानता हूं,’’ तुम्हारी अदालत में एक अंगरेज को मारने की सजा मौत है और हजारों हिंदुस्तानियों को मारने का इनाम शाबाशी.’’

‘‘उन्होंने सरकार का हुक्म पूरा किया था, यह उन का कर्तव्य था. हमारी अदालत तुम्हें फांसी की सजा देगी.’’

‘‘मौत का डरावा मुझे मत दीजिए, जजसाहब. आप जो चाहें कर सकते हैं. मैं ने भी अपने देश का एक काम पूरा किया है जो मेरा कर्तव्य था. मेरी पार्टी की अदालत ने भी उन्हें गोलियों की सजा दी थी. सजा देने का यह काम मुझे सौंपा गया था. मगर मुझे दुख है कि ओडवायर छूट गया. फिर भी कोई बात नहीं. मेरा कोईर् और भाई उसे भी पार लगा देगा. उस से कहना कि तैयार रहे.’’ जज ने कलम उठा कर सजा का फौर्म भरा और मेज पर कलम मार कर निब तोड़ दी. तभी मैं ने उसे सींखचों में खड़ा देखा. मैं उस से बात कर रहा था.

‘‘यह तुम ने क्या किया, उधमा?’’

‘‘मैं ने अपने देशवासियों की निर्मम मौत का बदला लिया है.’’

‘‘मगर तुम तो यहां शादी करने आए थे?’’

वह जोर से हंसा, ‘‘तुम्हें बरात में नहीं बुलाया, सद्दा, इसलिए. तुम्हें पता नहीं मेरी शादी तो हो गई, अब तो कुछ दिन में मेरी सुहागरात आने वाली है. तुम्हें शादी में बुला नहीं सका.’’ मेरी आंखों में आंसू उभर आए. तभी समय पूरा होने की घंटी खनखना गई. अपने आंसू छिपाने के लिए मैं लौट पड़ा. वह बोला, ‘‘अच्छा, अलविदा, सद्दा. देखो, मेरे लिए रोना नहीं,’’ और वह लय के साथ कुछ गुनगुनाने लगा.

आज उस लय को याद करता हूं तो लगता है, बिलकुल इन शब्दों की तान थीं, ‘मेरा रंग दे बसंती चोला…’

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