कबीरदास बीच चौराहे पर लुकाटी लिये खड़े हैं. दूर तलक कोई  नजर नहीं आ रहा है. कबीरदास शांत भाव से चहलकदमी कर रहे हैं.

‘अरे ! शहर का व्यवस्तम चौराहा है या जंगल .दिनदहाड़े ऐसी शांति….’ कबीरदास बुदबुदाते खड़े हो जाते हैं. आखिर क्यों कोई मेरे साथ चलने की तो छोड़ो, बात करने को तैयार नहीं !  कुछ  समझने को तैयार नहीं !

शहर में हल्ला हो गया है- सुनो-सुनो, गांधी चौक से न गुजरना, वहां कबीरा खड़ा है.

रोहरानंद ने सुना तो उठ खड़ा हुआ- कबीर साहेब हमारे शहर आए हैं और लोग कतरा रहे हैं ? कैसे कृतध्न लोग हैं… रोहरानंद उत्सुक आगे बढ़ा तो नगर के एक गणमान्य ने  रोक- ‘ऐ ऐ… उधर न जाओ भईया .’

रोहरानंद सुनी अनसुनी कर आगे बढ़ा. एक राजनीतिज्ञ ने टोका- ‘मरना है क्या ?’ मगर रोहरानंद आगे बढ़ा. एक अभिनेत्री बोली- ‘इधर आइए न !’ मगर अनसुनी कर रोहरानंद आगे बढ़ता चला गया .’

गांधी चौक पर कबीरदास खड़े हैं .रोहरानंद पास पहुंचा तो कबीर साहेब की चरण वंदना की, उन्होंने कहा- मैं सुनता था, भारत में मेरी बड़ी कद्र है,पर आज स्वप्न टूट गया. उनके स्वर में आर्त भाव था.

ये भी पढ़ें- बुलडोजर : कैसे पूरे हुए मनोहर के सपने

-‘बाबा ! ऐसा नहीं है. आप तो हम भारतीयों के मन, आत्मा में बसे हुये हैं यह बात तो सारी दुनिया जानती है.’

‘हां, आज देख लिया. सुबह से खड़ा हूं, कितने लोग आए ? देखो मुझे मत भरमाओ. इस देश की तासीर बदली नहीं है, कल भी ऐसी थी, आज भी…’

रोहरानंद का मुंह फटा का फटा रह गया- ‘बाबा ! ऐसा कैसे कह रहे हैं ? ”

‘ ‘छ: सौ वर्ष पूर्व भी लोग मुझसे छिटककर दूर भाग जाते थे . मैं जब कहता- तेरा मेरा मनुआ कैसे इक होई रे… तू कहता कागज की लेखी मैं कहता आंखन की देखी… तो लोग टुकुर-टुकुर देखते और ऐसे भागते जैसे मैं कोई दूसरी दुनिया का आया हूं.”

‘बाबा !’ रोहरानंद ने कहा-‘ देखिए, मैं तो आया हूं न !’

‘ तुम अपवाद हो उस समय भी चंद लोग थे. मगर बहुसंख्यक तो देख कर छिटकने वाले ही हैं.’

‘ अच्छा बाबा ! आपको इसमें बड़ी कोफ्त होती होगी न… जब आप कहते हैं कबीरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठी हाथ, जो घर फूंके आपना, चले हमारे साथ.

कबीरदास हंस पड़े, मगर इस हंसी में खुलापन नहीं था- ‘मैंने जो दिल में आया अंर्तरात्मा की आवाज उठी, कहा, अब लोग सोए हुए हैं, तो मैं क्या करूं.

‘ मगर बाबा ! कवि की सार्थकता तो इसी में है कि लोग उसके बताए रास्ते पर चलें .बड़ी कोफ्त होती होगी न !’

– ‘देखो  मैंने कहा है न… कबीरा तेरी झोपड़ी गल कटयन के पास, जो करनगे सो भरनगे, तुम क्यो भयो उदास.”

‘हां ! आपने तो बड़ी  तल्खी के साथ सांचा मार्ग बताया है.आप की गणना इसलिए तो महानतम कवियों में होती है.’ रोहरनंद ने सविनय कहा.

‘गणना ! गणना से क्या होगा भाई…’ ‘लोग आपका तहेदिल से सम्मान करते हैं.अक्सर सभा, संगोष्ठी, संसद, विधानसभा में आपकी वाणी  गुंजारित होती है ।’

‘हां, मैं भी सुनता हूं, मगर…”

‘जी ? रोहरानंद ने आश्चर्य प्रकट किया .’मगर कोई तो हो जो उस रास्ते पर चले. पूरी व्यवस्था ही विपरीत दिशा में दौड़ लगाये जा रही है. अब मेरी टांगों में इतनी उर्जा तो है नहीं कि मैं पीछे जाकर उन्हें समझाऊं. मैंने जो लिखना था, लिख डाला अब पालन करो या सुनकर अनसुना कर दो, तुम्हारी मर्जी.’ ‘कबीर दास ने आर्त स्वर में कहा.

‘लेकिन बाबा ! आप यह कैसे कह सकते हैं कि लोग आपकी नहीं सुन रहे  मैं तो कहूंगा जितना आप की सुनते और गुनते है, उतना किसी प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति की भी नहीं सुनते, आप तो बिना पद के सम्मानीय हैं.’

-“फिर वही बात ! भले आदमी, तुम किसी कवि  का दुख नहीं समझ सकते. तुम्हारा सरोकार दूसरा है…’

-“मगर बाबा, आप को तो सदैव प्रसन्न मुद्रा में रहना चाहिए.”

-“देखो ! सुनना और गुनना एक बात है. सम्मानीय होना और भी अलग बात है इसमें खुशी कैसी ? “कबीरदास बोलें.

ये भी पढ़ें- ऐसी जुगुनी

-“‘तो आप क्या चाहते हैं ?’ रोहरनंद ने दुःखी  होकर कहा.

‘ मेरे कथन का प्रतिपालन… एम्पलीमेंट… कबीर देखी परखि ले परखि के मुखा बुलाय, जैसी अंतर होएगी मुख निकलेगी हाय ।’ कबीर दास ने संजीदा वाणी में कहा.

‘ लेकिन आज समय बड़ी रफ्तार से भागा जा रहा है. पीछे मुड़ कर आपकी और देखने का समय किसके पास है. आपकी अंतरात्मा को बेधती  बातें सुनकर अगर एम्पलीमेंट करूं तो मैं जिंदा इसां  कहां रह जाऊंगा.’

‘ हां शायद यही विचार करके जनमानस मेरी बात सुन चुपचाप बगल से निकल जाता है… कबीरदास ने कनखियों से  देखते हुए कहा.

‘ बहुत-बहुत कठिन है,आपकी वाणी का प्रतिपालन. किताबों में, सभा सम्मेलन के लिए ही ये शोभाप्रद है.’

‘ हां इसलिए मैं दुखी हूं. देखों न ! चौराहे पर कब से खड़ा था बमुश्किल एक तुम पिंजरे में फंसे हो.”

‘बाबा ! ऐसे ही कुछेक लोग भी आपकी बात को जीवन में धारण कर लें तो आपका कहा सार्थक हो गया न !’

‘ हां मैं भी नाहक परेशान हो जाता हूं… समय के धारे में जो कहा,कहा अब आगे निकल, यही सत्य है’.

रोहरानंद आगे बढ़ा उसके मुख से अस्पष्ट शब्द नि:सृत हो रहे हैं थे –

आटा तजि भूसि गहै चलनी देखु विचार, 

कबीर सराहि छादि के गहेअसार संसार.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...