दिल्ली के अजमेरी गेट से ले कर लाहौरी गेट तक लगभग 1 किलोमीटर दूर तक फैले जीबी रोड यानी गास्ट्रिन बैस्टियन रोड की गिनती भारत के बड़े रैडलाइट एरिया में होती है. कभी मुगलों के समय यहां 5 रैडलाइट एरिया हुआ करता था लेकिन अंगरेजों ने अपने शासनकाल में इन सभी को मिला दिया और तभी से यह जीबी रोड के नाम से जाना जाने लगा. हालांकि 1965 में इस मार्ग का नाम बदल कर स्वामी श्रद्धानंद मार्ग जरूर कर दिया गया मगर आज भी यह जीबी रोड के नाम से ही मशहूर है.
मुजरों से गुलजार रातें
मुगलकाल में यहां रातें रंगीन हुआ करती थीं और नृत्य के बहाने मुजरा देखने और शारीरिक भूख शांत करने यहां सेठसाहुकार बङी संख्या में आते थे. घुंघरू की झनकार और तबले की थापों के बीच मदिरा यानी शराब का दौर भी चलता था. यहां आमतौर पर रईस लोग आते थे जिन्हें भोगविलास और नारी देह में डूबे रहना बेहद पसंद था. समय बदला तो इस बदलाव का असर यहां भी हुआ. अब यहां जिस्मानी सुख की तलाश में लोग आने लगे, फिर चाहे दिन हो या रात. अलबत्ता मुजरे का दौर आज भी यहां बदस्तूर जरूर चलता है पर 1-2 जगहों पर ही, लेकिन ज्यादातर वही ग्राहक आते हैं जिन्हें मुजरे से अधिक दिलचस्पी शारीरिक सुख लेना होता है.
लेकिन दिनरात चलने वाले इस धंधे में आजकल सन्नाटा पसरा है. विश्वव्यापी कोरोना वायरस महामारी के बाद देश में लागू लौकडाउन से यह पूरा इलाका आजकल वीरान है. जहां पहले यहां 3 हजार से अधिक सैक्स वर्कर थीं, वहीं फिलहाल 1 डेढ़ हजार ही बची हुई हैं.
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कोरोना ने थाम दी है जिस्म की खरीदारी
मार्च का महीना शुरू होते ही देश में कोरोना वायरस का प्रकोप बढ़ना शुरू हुआ तो यहां के कोठों में आने वाले ग्राहकों की संख्या नहीं के बराबर हो गई. 23 मार्च से जनता कर्फ्यू और इस के बाद समाजिक दूरी बनाए रखने के निर्देश आए तो जिस्म के खरीदारों ने यहां आना पूरी तरह बंद कर दिया.
जीबी रोड स्थित एक कोठे में काम करने वाले एक दलाल ने नाम न छापने की शर्त पर बताया,”यहां आमतौर पर पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, झारखंड, असम और नेपाल आदि जगहों की सैक्स वर्कर हैं जिन के सामने इस समय भुखमरी की समस्या आ खङी हुई है.”
यहां कोठों के नीचे दुकानें भी हैं जो फिलहाल बंद हैं. कोठों की पहली और दूसरी मंजिल पर वेश्यालय चलते हैं. यही हाल अन्य कोठों की भी है.
बिस्कुट तक खरीदने को पैसे नहीं
यहां 32 साल की एक सैक्स वर्कर रीना (बदला नाम) ने बताया,”हमारे पास बिस्कुट तक खरीदने के पैसे नहीं हैं. बस जिंदा हैं तो कुछ एनजीओ और सरकारी राशन की वजह से. ये हमें कुछ न कुछ जरूरत की चीजें देते रहते हैं.”
उस दलाल ने बताया,”लौकडाउन से ज्यादा अब लोगों को कोरोना वायरस का डर है और फिलहाल तो कई महीनों तक यहां ग्राहक आने से रहे.”
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आखिर क्या है मजबूरी
स्पीड यानी सोसाइटी फौर पार्टीसिपैट्री इंटीग्रैटेड डेवलपमैंट की वाइस प्रेसिडैंट, ललिता यहां की महिलाओं और बच्चों की उत्थान के लिए पिछले 30 सालों से काम कर रही हैं. संस्था का काम यहां रह रहीं सैक्स वर्करों और उन के बच्चों को संरक्षण देने का है.
ललिता कहती हैं,”इन सैक्स वर्करों की जिंदगी शुरू से ही खराब रही है. समाज द्वारा सताई गईं, प्रेम अथवा अवैध संबंधों में धोखा खाईं, जबरन अपहरण की गईं ही अधिकतर महिलाओं को यहां लाया जाता है तो वे फिर चाह कर भी यहां से निकल नहीं पातीं क्योंकि उन्हें पता है कि न तो परिवार और न ही समाज उन्हें फिर से स्वीकारेगा. मजबूरन वे इस दलदल में फंसती हैं तो फंसती चली जाती हैं.
“हम न सिर्फ यहां की सैक्स वर्करों, बल्कि उन के बच्चों को शिक्षा आदि के लिए प्रोत्साहित करते हैं ताकि वे अपने पैरों पर खङे हो सकें.” ललिता बताती हैं,”सैक्स वर्करों को इस धंधे में धकेलने के लिए नशे की आदत भी डलवाई जाती है ताकि वे इस बुरी लत की इस कदर शिकार हो जाएं कि जहर बांटने वाले की बात मानना मजबूरी बन जाए.”
पूरा इलाका अब बंद
दिल्ली की कुलीन कौलगर्ल्स में से ज्यादातर जहां समाजिक दूरी जैसी परिस्थितियों में निजी औडियो या वीडियो चैट लाइनों के जरीए फोन सेवाओं पर उपलब्ध रह सकती हैं, वहीं जीबी रोड की सैक्स वर्कर आमतौर पर मानव तस्करी का शिकार होती हैं और दूरदराज के इलाकों से लाई जाती हैं. पहले कम उम्र की लङकियां भी मानव तस्करी द्वारा लाई जाती थीं पर कानून की सख्ती से अब यहां एडल्ट यानी बालिग सैक्स वर्कर ही रह रही हैं. अब भी इन्हें ग्राहकों की खोज रहती है पर लौकडाउन की वजह से पूरा इलाका ही बंद है.
दुखदायी है जीवन
स्पीड के ही एक पदाधिकारी अवधेश यादव बताते हैं,”कोरोना महामारी के बाद से इन का जीवन और भी दुखदायी हो गया है. इस का असर इन के बच्चों पर भी पङा है और इस समय जबकि सारे स्कूल बंद हैं इन्हें पास के अजमेरी गेट और लाहौरी गेट स्थित सरकारी स्कूलों में रखा गया है और वहीं भोजनपानी के साथ इन की पढ़ाई की भी व्यवस्था की गई है.”
यह पूछने पर कि इन के बच्चों को स्कूलों में दाखिला कैसे मिलती है? ललिता ने बताया,”लोकतंत्र में सब को समान अवसर मिलता है. शिक्षा मौलिक अधिकार है और किसी भी स्कूल में दाखिले के लिए जरूरी नहीं कि पिता का नाम बताया जाए. ये बच्चे अपनी माता के नाम से ही दाखिला लेते हैं और पढ़ाई करते हैं. शिक्षा इन के लिए इसलिए भी जरूरी है ताकि ये पढ़लिख कर अपने पैरों पर खङे हो सकें और फिर अपनी माता को इस दलदल से निकाल सकें. कई बच्चों ने ऐसा किया भी है.”
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पढ़ना चाहती हैं यहां की बेटियां
यहां सैक्स वर्करों की कुछ बेटियां भी उन के साथ रहती हैं, जो पढ़ना चाहती हैं, आगे बढ़ना चाहती हैं. वे चाहती हैं कि आम बच्चों की तरह वे भी आगे चल कर नौकरियां करें, डाक्टर, इंजीनियर बनें. इन की मांएं नहीं चाहतीं कि जिन अंधेरी गलियों में रह कर उन्होंने कष्ट झेले हैं, शरीर को पुरूष राक्षसों से नोचवाया है, अरमानों और सपनों को कुचलवाया है, उन की बेटियां इस दलदल में पङें. इसलिए बङी संख्या में सैक्स वर्करों की बेटियां अब स्कूल जाती हैं, पढ़ती हैं. मगर लौकडाउन के बाद स्कूल जब बंद हो गए तो कुछ स्वयं सेवी संस्थाओं ने इन के रहने और पढ़ाने का जिम्मा उठाया है.
ललिता बताती हैं कि संस्थाओं से ले कर दिल्ली पुलिस भी इन की मदद करती है और जरूरी राशन का इंतजाम भी कर रही है.
ये भी हमारी तरह ही इंसान हैं
दिल्ली महिला आयोग की सदस्य प्रोमिला गुप्ता कहती हैं,”हमारी तरह इन को भी अपनी जिंदगी जीने का पूरा हक है. इन को भी यह मौलिक अधिकार है कि इन के बच्चे समाज की मुख्यधारा में शामिल हों, शिक्षा और तमाम जरूरी चीजें इन्हें मिलें.
दिल्ली महिला आयोग ने समयसमय पर इन सैक्स वर्करों की पुनर्वास की भी पहल की है. जबरन धंधे में धकेली गईं महिलाओं को इस दलदल से निकाला भी गया है. आयोग ने समयसमय पर दिल्ली पुलिस के साथ मिल कर अभियान भी चलाया है ताकि इस नारकीय जिंदगी से मुक्त हो कर ये बेहतर जिंदगी जी सकें.”
मगर फिलहाल तो अभी लौकडाउन है और ऐसा लगता भी नहीं कि यहां रहने वाली सैक्स वर्करों की जिंदगी पटरी पर आए.
प्रोमिला गुप्ता कहती हैं कि सरकारी व गैर सरकारी संस्थाओं के प्रयासों से आम जनता की तरह इन का भी ध्यान रखा जा रहा है. जरूरी चीजें व राशन पहुंचाए जा रहे हैं. हां, सैक्स वर्करों को इस गंद से निकालने की जिम्मेदारी एक चुनौती जरूर है.”
पर यह बीङा उठाए कौन? एक नारी को अपने देह पर पूरा अधिकार है. मगर कानून इस की इजाजत नहीं देता कि वह शरीर को व्यवसायिक गतिविधियों के लिए इस्तेमाल करे.
एडवोकेट बसंत सिंह कहते हैं,”भारतीय दंडविधान 1860 से वेश्यावृत्ति उन्मूलन विधेयक 1956 तक सभी कानून वेश्यालयों को संयत एवं नियंत्रित रखने तक ही प्रभावी रहे हैं. इस कानून के अनुसार सैक्स वर्कर्स कानूनी तौर पर जनता में ग्राहकों की मांग नहीं कर सकती हैं.
“आईटीपीए 1986 वेश्यावृत्ति को रोकने के लिए बनाया गया है.”
मगर यह विडंबना ही है कि सरकार इसे रोकने के लिए कानून का हवाला देती है पर देश में सैक्स वर्करों की बेहतर जिंदगी के लिए ठोस उपाय ढूंढ़ने में विफल रही है.
अब देशभर की सैक्स वर्कर्स की स्थिति नाजुक दौर में है तिस पर कोरोना वायरस की मार और फिर लौकडाउन. आम नागरिक की तरह लोकतंत्र में इन को मौलिक अधिकार मिले हैं पर उस पुरूषवादी समाज का क्या जो नारी देह को सिर्फ भोगना जानता है, नीच और तुच्छ समझता है, धर्म का भय दिखाता है? ऐसे में इन की दशा सुधरेगी इस में संदेह ही है.
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