लेखक- राजेश चौरसिया
- बदहाल बुंदेलखंड की बे-दर्द दास्तां..
- ऐसी भुखमरी से तो नासूर बन जाएगा बुंदेलखंड..
- नमक पानी में डुबोकर सूखी रोटी खाते नौनिहाल..
- सरकारी दावों की असलियत उजागर करते लाग डाउन की बेबसी भरी दास्तान..
- लॉक डाउन में भूखे बच्चे और माँ की बेबसी..
- सूखी रोटियां नमक के पानी में भिगोकर खाने को मज़बूर बच्चे..
- पिछले एक माह से नहीं लग रही मज़दूरी तो पड़े खाने-पीने के लाले..
- जानकारी लगते ही शहर के युवा समाजसेवियों ने पहुंचाया पूरे महीने भर का राशन..
【यहां 5 वर्षीय शैलेन्द्र, 3 वर्षीय अभय, 1 वर्षीय साधना, माँ संगीता, पिता तंनसु के साथ झोपड़ी बना रहते शहर छतरपुर में..】
एंकर- देश के कुछ राज्यों में नक्शलबाद पनपने का तर्क दिया जाता है कि भुख़मरी और आर्थिक अभाव में दूरियाँ बढ़ने के कारण अराजकता का जन्म होता है. मौजूदा हालात बुंदेलखंड में आर्थिक असमानता के बीच कोरोना विश्व व्यापी महामारी का है. जो आने बाले समय मे भयानक त्रासदी की चुनौती का डंका पीट रही है. हालांकि मौजूदा हालात महामारी के कारण लाग डाउन द्वितीय चरण के चलते कामकाज बंद है जिसकी बिभीषका का सबसे अधिक रोजमर्रा वाले दिहाड़ी श्रमिकों पर पड़ी है.
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छतरपुर कमजोर काया होने के बावजूद भी अपने मासूमों के पालन पोषण का बीड़ा उठाकर एक मजरा टोला से चल कर जिला मुख्यालय पहुंचे तनसु अहिरवार और उसकी पत्नी संगीता अहिरवार कोरोनावायरस महामारी के कारण लॉक डाउन में मजदूरी से भी हाथ धो बैठा. बेबसी का ऐसा मंजर कि कठोर पत्थर दिल भी पिघल जाए. पत्नी संगीता अपने कलेजे के टुकड़ों को बासी सूखी रोटी नमक के पानी में भिगोकर खिलाती दिखी तो विपन्नता का असली चेहरा भी सामने आया. यह मंजर देख कर हैरत में पड़ना लाजिमी है. लेकिन भूख की बेबसी के आगे रूखी-सूखी रोटी नौनिहालों को मुस्कुराने को विवश कर देती है
नमक के पानी में रोटियां गलाकर खाते बच्चे..
मामला शहर जिला मुख्यालय का है जहां क्षेत्रीय विधायक आलोक चतुर्वेदी के आलीशान निवास (खेल ग्राम के सामने) सामने चल रही निर्माणधीन साईट पर यह दंपति (संगीता तंनसु अहिरवार) मजदूरी कर अपना भरण पोषण किया करती थी. कोरोनो और लॉक डाउन के चलते पिछले 1 माह से मजदूरी नहीं लग रही बचा खुचा राशन पानी था वह हफ़्ते भर में खत्म हो गया अब यह आस-पड़ोस के लोगों की रहमत के सहारे उदर भरने लगे.
मौजूदा दौर में आखिर कौन कब तक किसको खिलाता है भला, रोजाना कोई किसी को मुफ्त में दुआएं तक नहीं देता फिर ऐसे बंद (लॉक डाउन) में रोजाना खाना देना तो दूर की बात है. यह निकल कर बाहर कहीं जा नहीं सकते लॉक डाउन जो है. अब मरता क्या न करता, जो लोगों से मिला हुआ बचा-खुचा था सब खत्म हो चुका था बचीं थीं तो महज़ सूखी रोटियां जिन्हें गरीब लोग (बतौर भविष्यनिधी) मुश्किल वक्त के लिये धूप में सुखाकर रख़ लेते थे. तो अब बच्चों का पेट भरने का एक यही आख़िरी तरीका बचा था जिसे माँ इन सूखी रोटियों को पानी में भिगोकर नमक डालकर खिला रही है. और तीनों मासूम भी अपनी माँ की बनाई दुनिया की सबसे लज़ीज़ डिस को खाकर प्रसन्न हैं उनके चेहरे पर भूख मिटने की चमक है पर माँ के चेहरे पर उदासी और सूनी आंखों में नमक का पानी छलक रहा है. जो मानो सैलाब बनकर सबको बहा ले जाये.
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हालांकि मानवता अभी भी जिंदा है के परिसंवाद को चरितार्थ करते हुए शहर के कुछ युवाओं ने तत्काल इस पीड़ित परिवार को ना सिर्फ राहत पहुंचाई, बल्कि खाद्य सामग्री पहनने के कपड़े इत्यादि मुहैया कराए.
इन्होंने की मदद..
मामले की जानकारी स्थानीय जनसेवक सुंदर रैकवार को लगी तो उन्होंने अपने घर से खाना बनवाया और पहुंच गये लेकर पर यह नाकाफी था इन्हें रोज़ जरूरत थी तो शहर के युवा समाजसेवी (सुऐब खान उर्फ सब्बू भाई और जवेद अख़्तर) से संपर्क किया गया (जो ऐसे लोगों की अक्सर मदद करते रहते हैं) जहां उन्होंने एक फोन कॉल पर महीने भर का राशन आटा, दाल, चावल, तेल, मसाले, नमक, शक्कर, चाय, तोष, बिस्किट, नमकीन, पेस्ट, गलूकोज, इलेक्ट्रॉल, सहित अन्य जरूरतक का एक ड़ेढ महीने का सामान अपनी गाड़ी में रखा और पहुंच गये लेकर जिसे पाकर बेबस माँ और बच्चों का चेहरा खिल उठा उनकी मुस्कान देनेवाले को दिली सुकून बिखेर रही थी.
इस बाबत स्थानीय पालिटिकल पूर्व भाजपा जिलाध्यक्ष और नगरपालिका अध्यक्ष पति पुष्पेंद्र प्रताप सिंह से बात की तो विधायक निवास के सामने भूखी महिला बच्चों की व्यथा को वीभत्स बताया. उन्होंने तत्काल हर संभव मदद करने की बात कही और अपने लोगों से उसे राशन भिजवाया साथ ही शासन प्रशासन से जरूरी मदद दिलाने का आस्वासन दिया.
मामला चाहे जी भी हो पर इतना तो तय है कि कोरोना कॉल की वानगी का इतिहास काल के पन्नों में समाहित होगा दूसरी ओर सभ्य समाज के बीच असमानता का भाव उजागर करता है. जबकि आज की युवा पीढ़ी के लिए एक सबक का आईना दिखाता है. उन्हें कथित युवाओं के लिए जो अपने माता पिता को राणा कसकर अपनी योग्यता पर इतराते हैं और मां-बाप का सम्मान नहीं करते.
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अपने लाड़ले बच्चों को यह दंपति भूखे रहकर सूखी ही सही, परंतु ममता की छांव में पानी में भिगोकर नमक रोटी खिलाते हैं और बचपन खिलखिलाता है.
मसलन यह तो मौजूदा परिदृश्य की पटकथा है लेकिन सरकारी सी स्वतंत्र से लेकर तमाम सेवादारों की सेवा को चुनौती भरा वाक्य है अलबत्ता यह भी नहीं की मौजूदा समय में शासन प्रशासन अनदेखी कर रहा है फिर भी सवाल उठना लाजमी है कि अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है.
यह कोरोना युद्ध का पड़ाव नहीं बल्कि इस लिहाज से तो विभीषिका के संकेत को नकारा नहीं जा सकता. फिर भरोसे के संकेतों पर भी गौर करना वाजिब होगा कि सामान्य स्थिति में दिहाड़ी ना मिले अथवा भूखे प्यासे इंसान कहीं इंसानी सरहदें पार ना करने लगें. इसकी चिंता भी सरकार और सरकारी अमले को करना होगी.
गौरतलब है कि बुंदेलखंड का परिदृश्य विकास के मुद्दे पर अभी भी लंबी कतार में पीछे है आर्थिक असमानता दबंगई सामंतवाद और जातीय वर्ग भेद भ्रष्टाचार का ताना-बाना यह ऐसे सवाल है जिसे हल करना ना सिर्फ जटिल है बल्कि इनका निराकरण करना अत्यावश्यक भी है.
वैश्विक महामारी में यह संकट का दौर है, दुःखद ही है कि बुंदेलखंड में योजनाओं का लाभ सीधे तौर पर उन्हें ही मिल पाता है जिनकी पहुंच सत्ता के पहरेदार हो तक हो या फिर रिश्वत की भेंट देने की दक्षता हो.
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तनसु और संगीता अहिरवार इन दोनों विधाओं में पारंगत नहीं है जिस कारण ना तो उस पंचायत में उसका गरीबी रेखा कार्ड बना और ना ही प्रधानमंत्री आवास सहित अन्य सरकारी राहत मिल सके जिससे परिवार पालने मजदूरी करने के लिए दंपति छतरपुर आ बसा.मजदूरी लगती रहती तो 2 जून की रोटी कमा खा सकता था. महामारी की परिस्थितियों से सामूहिक प्रयासों मे ही निराकृत के पायदान पर पहुंचाया जा सकता है.