लेखक- एस. ए. जैदी
सरकार ने लौक डाउन और कर्फ्यू को इलाज मान लिया है जबकि इस से सिर्फ बीमारी को एक हद तक ही रोका जा सकता है. ये मान लेना चाहिए कि सरकार असल मरीज़ों की पहचान करने में नाकाम रही है. संक्रमित लोगों की पहचान करके उन को सामान्य लोगों से अलग करने के बजाय सही लोगों को भी संक्रमित लोगों के साथ बंद कर दिया गया है. अगर पहला केस मिलते ही लौक डाउन हुआ होता तब शायद कुछ अलग स्थिति की कल्पना की जा सकती थी.
सरकार न सिर्फ समय रहते स्थिति की गंभीरता को भांप पाने में नाकाम रही बल्कि आपदा को उत्सव में बदलने की गुनहगार भी है। कम से कम दो मौके़ ऐसे आए हैं जिन की वजह से कोरोना संक्रमण बुरी तरह फैला है. पहला थाली उत्सव और दूसरा प्रधानमंत्री के संबोधन के बाद लोगों में राशन समेटने के लिए मची मार.
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अब ये प्राकृतिक नहीं बल्कि मानव निर्मित आपदा है. जितनी बेशर्मी से सरकार ने जांच उपलब्ध कराने, मरीजों की पहचान और इलाज मुहैया कराने में अपनी नाकामी छिपाने के लिए लौक डाउन के बाद लोगों पर लाठियों से प्रहार किया है वो मानवीय अपराध है. पहले लोगों को मरने के लिए छोड़ दिया गया, फिर बिना तैयारी के उन का राशन, पानी और आवागमन रोकने का ऐलान किया और अब जान बचाने के लिए घर लौट रहे लोगों का बर्बर दमन मानवीय इतिहास में कहीं और नहीं मिलेगा.
जिन लोगों का नैसर्गिक न्याय में यकीन है वो यक़ीनन सरकार और उस का समर्थन कर रहे लोगों के लिए इस घड़ी में दुआ नहीं कर रहे होंगे. अगर गरीब, कमज़ोर, असहाय की हाय में वाक़ई कोई असर होता होगा तो इतनी अमानवीयता, बर्बरता और दुष्टता के बाद न सिर्फ आपदा कुप्रबंधन के लिए ज़िम्मेदार लोगों का बल्कि जाने अंजाने उन का समर्थन कर रहे मध्यम और कारोबारी वर्ग का भी बेड़ा गर्क होगा.
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