जुमे का दिन था और मैं भी मूड में था, इसलिए सोचा कि चलो, कुछ देर मिर्जा के साथ गपें लड़ाएं. हो सकता है कि लंच से पहले एक टी पार्टी भी हो जाए.

मैं ने जल्दी से नहाधो कर शेरवानी पहनी, गुलाब का बढि़या इत्र लगाया, पीतल जड़ी नक्काशी वाली बेंत हाथ में ली, सुबह के 11 बजे घर से निकल कर सीधे मिर्जा के घर का रुख किया.

मैं जैसे ही मिर्जा के घर के करीब पहुंचा, तभी मुझ पर अचानक जैसे तड़ाक से बिजली सी गिर गई. दिमाग बिजली की तरह कौंधा और पलभर में हजारों बुरे खयालात दिमाग के एक कोने से दूसरे कोने तक कौंध गए.

देखा कि मिर्जा की बैठक का दरवाजा खुला था. बाहर धूपछांव में एक टूटे से खटोले पर कोई... शायद मिर्जा एक मैली सी चादर ओढ़े लेटे थे. गली के आसपास के दोचार बड़ेबूढ़े भी पास ही बैठे थे.

यह मंजर देख कर मेरी तो जैसे रूह ही निकल गई और टांगें तो जैसे वाइब्रेशन मोड पर आ गई थीं. मेरी बेंत ने मुझ गिरते हुए को सहारा दिया.

मैं ने बड़ी मुश्किल से खुद को संभालते हुए कांपती आवाज में पूछा, ‘‘यह जनाजा किस... क्या... मिर्जा...?’’

तभी वहां बैठे एक शख्स, जिन्हें गली के लड़के ‘चचा मुकुंदा’ कहते थे और जो चारपाई के सिरहाने बैठे थे, ने अपने मुंह पर उंगली रख कर इशारे से मुझे चुप रह कर बैठने का इशारा किया.

थोड़ी देर बाद वे दबी आवाज में बोले, ‘‘जनाब, आप को खबर भी है कि मिर्जा को चोट लगी है. नींद की दवा दे रखी है, ताकि दर्द का एहसास कम हो.’’

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