झारखंड में इसी साल के आखिर में विधानसभा चुनाव होने हैं. मौजूदा विधानसभा का समय 28 दिसंबर, 2019 को खत्म हो रहा है. हर दल ने चुनावी तैयारियां शुरू कर दी हैं, पर सब से खास बात यह है कि गठबंधन के तहत चुनाव लड़ने वाली पार्टियां इस बार अकेले ही चुनावी मैदान में उतरने की जुगत में लगी हुई हैं.
राजग से अलग हो कर जद (यू) अकेले चुनाव लड़ने का ऐलान कर चुका है, वहीं दूसरी ओर महागठबंधन से पल्ला झाड़ कर कांग्रेस भी अपने दम पर चुनाव में हाथ आजमाने के मूड में है. भाजपा आलाकमान ने अकेले 65 सीटें जीतने का टारगेट फिक्स कर दिया है.
बिहार में भाजपा और जद (यू) का ‘हम साथसाथ हैं’ और झारखंड में ‘हम आप के हैं कौन’ जैसा रिश्ता होगा.
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झारखंड जद (यू) के अध्यक्ष सालखन मुर्मू ने बताया कि झारखंड में भ्रष्टाचार काफी बढ़ चुका है और संविधान भी खतरे में है. वहां मौब लिंचिंग की वारदातें बहुत ज्यादा हो रही हैं, इसलिए जद (यू) झारखंड की सभी विधानसभा सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारेगा.
उन्होंने दावा किया कि पार्टी के इस फैसले से बिहार में भाजपा और जद (यू) के रिश्ते पर कोई असर नहीं होगा. वैसे, कई राज्यों में भाजपा और जद (यू) का गठबंधन नहीं है. जद (यू) ‘नीतीश लाओ, झारखंड बचाओ’ के नारे के साथ विधानसभा चुनाव में उतरेगा.
वहीं पिछले विधानसभा चुनाव में महागठबंधन के बैनर तले चुनाव लड़ने वाली कांग्रेस भी अकेले ही चुनाव लड़ने की कवायद में लगी हुई है.
झारखंड कांग्रेस के प्रवक्ता आलोक दुबे कहते हैं कि पिछले कई विधानसभा और लोकसभा चुनावों में कांग्रेस महागठबंधन में शामिल हो कर चुनाव लड़ती रही है, पर इस से उसे कोई खास फायदा नहीं हो पाया है. झारखंड मुक्ति मोरचा के वोट कांग्रेस को नहीं मिल पाते हैं. इस वजह से पार्टी आलाकमान से गुजारिश की गई है कि इस बार ‘एकला चलो रे’ की नीति के तहत चुनावी अखाड़े में उतरना पार्टी के लिए बेहतर होगा.
लोकसभा चुनाव में झारखंड समेत समूचे देश में ताकतवर बनने के बाद भाजपा ने भी इस बार अकेले ही विधानसभा चुनाव में उतरने की कवायद शुरू कर दी है. भाजपा आलाकमान इस बार अपने सहयोगी दलों के बगैर चुनाव लड़ने के नफेनुकसान का आकलन कर रहा है.
14 जुलाई, 2019 को भाजपा के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष जेपी नड्डा हालात का जायजा लेने रांची पहुंचे थे. पार्टी के सभी पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं को उन्होंने टास्क दिया है कि 65 सीटों पर चुनाव जीतने के लिए कमर कस लें. इस के अलावा 25 लाख सदस्य बनाने का टारगेट भी दिया गया है.
गौरतलब है कि 81 सीटों वाली झारखंड विधानसभा में सरकार बनाने के लिए 41 सीटों की जरूरत होती है और फिलहाल भाजपा की झोली में 43 सीटें हैं. झामुमो 19 सीटें जीत कर दूसरी सब से बड़ी पार्टी है.
बाबूलाल मरांडी के झारखंड विकास मोरचा ने पिछले विधानसभा चुनाव में 8 सीटें जीती थीं, पर उस के 6 विधायक भाजपा में शामिल हो गए थे. कांग्रेस को 7 और दूसरों को 4 सीटें मिली थीं.
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भाजपा गठबंधन को 35 फीसदी वोट मिले थे, जबकि 2009 के चुनाव में उसे 11 फीसदी ही वोट मिले थे. पिछले लोकसभा चुनाव में झारखंड में भाजपा को कुल 51 फीसदी वोट मिले थे.
मई, 2019 में हुए आम चुनाव में राज्य की 14 लोकसभा सीटों में से उसे महज 12 सीटों पर जीत मिली थी और बाकी 2 सीटें कांग्रेस की झोली में गई थीं. झामुमो, राजद, झाविमो समेत वाम दलों का खाता नहीं खुल सका था.
लोकसभा चुनाव में महागठबंधन की हार की सब से बड़ी वजह शुरू से ही घटक दलों की खींचतान रही थी. भाजपा को धूल चटाने के मकसद से कांग्रेस, झामुमो, झाविमो, राजद को मिला कर बनाया गया महागठबंधन खुद ही धराशायी हो गया था. चतरा लोकसभा सीट पर राजद और कांग्रेस दोनों ने अपनेअपने उम्मीदवार उतार कर महागठबंधन की एकजुटता के दावे को तारतार कर दिया था, वहीं हार के बाद सारे घटक दल एकदूसरे के सिर हार का ठीकरा फोड़ते रहे.
लोकसभा चुनाव के बाद राजद में इस कदर घमासान मचा कि पार्टी दो फाड़ हो गई. अभय सिंह को राजद का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया, तो पार्टी के पहले के अध्यक्ष गौतम सागर राणा पार्टी से अलग हो गए. उन्होंने राजद (लोकतांत्रिक) बना कर पार्टी के लिए नई मुसीबत खड़ी कर दी है, वहीं भाजपा भी भीतरी उठापटक से अछूती नहीं है.
मुख्यमंत्री रघुबर दास के खिलाफ पार्टी के सीनियर लीडर रवींद्र राय, रवींद्र पांडे और सरयू राय ने मोरचा खोल रखा है. ऐसी हालत में किसी भी दल के लिए अकेले चुनाव लड़ना नई चुनौती खड़ी कर सकता है.
सियासी दलों के दावों और वादों के बीच हकीकत यही है कि आदिवासियों के नाम पर साल 2000 में बने झारखंड की जनता को बेरोजगारी, विस्थापन और शोषण के सिवा अब तक कुछ नहीं मिला है. सियासी दल पिछले 19 सालों से ऊपर ही ऊपर घालमेल और तालमेल कर सरकार बनाने और गिराने का ड्रामा रच कर मलाई खाते रहे हैं.
आदिवासियों के लिए पिछले कई सालों से आवाज उठा रही दयामनि बारला कहती हैं कि जनजातियों की तरक्की के लिए आजादी के बाद से ले कर अब तक की सरकारी योजनाओं का रत्तीभर भी हिस्सा उन तक नहीं पहुंच सका है.
कोरबा समेत कई जनजातियां मिटने के कगार पर पहुंच चुकी हैं और किसी सियासी दलों को इस की फिक्र नहीं है, वहीं दूसरी ओर तकरीबन साढ़े 3 लाख आदिवासी विस्थापन का दर्द झेलने को मजबूर हैं.
आदिवासियों की तरक्की के नाम पर झारखंड राज्य बने 20 साल होने को हैं, पर अब तक न कोई कारगर औद्योगिक नीति बनी है और न ही विस्थापन और पुनर्वास नीति ही सही तरीके से आकार ले सकी है.
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भाजपा पर है रघुबर दास का दबदबा
टाटा स्टील के मजदूर और बूथ एजेंट से ले कर मुख्यमंत्री की कुरसी तक का सफर रघुबर दास के लिए आसान नहीं रहा है. साल 1980 में भाजपा के बनने के समय से ही वे पार्टी से जुड़े रहे और दलबदलू सियासत के बीच कभी भी उन्होंने दल बदलने की नहीं सोची.
रघुबर दास मूल रूप से छत्तीसगढ़ के रहने वाले हैं और उन का गांव बंधीपात्री है. उन के पिता चमन राम टाटा स्टील के लोको ट्रेन में खलासी थे.
3 मई, 1955 को जनमे रघुबर दास ने जमशेदपुर के भालूवासा होराइजन स्कूल से मैट्रिक पास की और उस के बाद जमशेदपुर के सहकारी कालेज से ही इंटर और बीएससी की पढ़ाई की. वे 3 भाई और 6 बहनें हैं. ललित दास उन के बेटे और रेणु साव बेटी हैं.
कालेज के दिनों में रघुबर दास ने छात्र संघर्ष समिति के संयोजक के तौर पर राजनीति का ककहरा सीखा. जमशेदपुर में जेपी आंदोलन की अगुआई की और बाद में जनता पार्टी से जुड़ गए. साल 1980 में भाजपा के बनने के समय ही पार्टी से जुड़े और उसी साल मुंबई में हुए भाजपा के पहले अधिवेशन में भी हिस्सा लिया. पिछले विधानसभा चुनाव में पूर्वी सिंहभूम से 5वीं बार विधायक बने रघुबर दास ने रिकौर्ड 70,000 वोटों से जीत हासिल की थी.
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