प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बीसियों और घोषणाओं की तरह उज्ज्वला योजना के जरीए गांव में चूल्हे के कायाकल्प करने का दावा किया गया. 1 मई, 2016 से शुरू की गई इस योजना में गरीब परिवारों को एलपीजी गैस के मुफ्त कनैक्शन दिए गए.

सरकार दावा कर रही थी कि इस योजना के बाद गांवदेहात के घरों में लकड़ी के चूल्हों से छुटकारा मिल जाएगा, पर उज्ज्वला योजना में गैस के कनैक्शन जहां दिए गए वहां चूल्हे महज दिखाने के लिए ही हैं. ज्यादातर चूल्हों में जंग लग चुका है या फिर वे किसी ज्यादा पैसे वाले नातेरिश्तेदार के घर पहुंच चुके हैं.

गरीबी है अहम वजह

गांवों में ही नहीं, बल्कि शहरों की झुग्गियों में आज भी बड़ी तादाद ऐसे लोगों की है जो गरीबी में अपनी जिंदगी गुजार रहे हैं. उन को यह पता है कि धुएं से आंखें खराब होती हैं और सांस यानी दमे की बीमारी का खतरा होता है.

वाराणसी के रहने वाले इंदू शेखर सिंह कहते हैं, ‘‘गांव के रहने वाले ज्यादातर लोगों की हालत ऐसी नहीं है कि वे 500 से 1,000 रुपए का गैस सिलैंडर खरीद सकें. गांव में उन्हें लकड़ी या उपले मुफ्त में मिल जाते हैं. ऐसे में उन्हें लकड़ी और उपले ही सुलभ ईंधन लगते हैं. जिन लोगों के पास पैसा है भी, तो वे यह सोचते हैं कि अगर पैसा बचा लिया जाए तो क्या नुकसान है? यही पैसा किसी और काम में लग जाएगा. गैस के इस्तेमाल को गांव के लोग अभी भी जरूरत की नहीं, बल्कि विलासिता की चीज मानते हैं.’’

सस्ती और सुलभ हो

लखनऊ की नेहा सिंह अपना स्कूल चलाती हैं जिस में तमाम गांव के लोग अपने बच्चों को पढ़ने के लिए भेजते हैं.

वे कहती हैं, ‘‘गांव के लोगों के पास पैसा पहले की तुलना में बढ़ा जरूर है, पर उसी अनुमात में महंगाई भी बढ़ गई है. घरेलू गैस के लिए खर्च करना उन को फुजूल का काम लगता है. जरूरत इस बात की है कि घरेलू गैस को सस्ता किया जाए और वह हर जगह मिल जाए. अभी तो लोगों को दूर जा कर सिलैंडर लेना होता है.’’

उज्ज्वला योजना के सरकारी आंकड़े भी बताते हैं कि सिलैंडर को दोबारा सही से भरने का काम नहीं हो रहा है. गैस कंपनियों के आंकड़े बताते हैं कि 60 फीसदी गैस सिलैंडर दोबारा ढंग से नहीं भर पाते हैं.

आमदनी के साधन बढ़ें

दलितों व गरीबों के गांवों में अभी भी 60 से 80 फीसदी आबादी लकड़ी और चूल्हे पर ही खाना बना रही है. जिन बड़े परिवारों में घरेलू गैस का इस्तेमाल होने लगा है, वहां भी पूरा खाना घरेलू गैस पर नहीं बनता है.

ऐसे तमाम घरों में चायनाश्ता या घर की लड़कियां और नई बहुएं घरेलू गैस पर भले ही खाना या नाश्ता बना लें, पर बड़े घरों में भी पारंपरिक खाना चूल्हे पर ही बन रहा है. ऐसे में पैसे की कमी के साथसाथ जानकारी की कमी भी इस के लिए जिम्मेदार मानी जा सकती है. इस की वजह एक ओर पैसों की कमी तो दूसरी ओर मुफ्त की लकड़ी और उपले हैं. अगर गांव के लोगों को भी लकड़ी और उपले खरीदने पड़ें तो वे पारंपरिक चूल्हों को बंद कर घरेलू गैस का इस्तेमाल शुरू कर सकते हैं.

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