Short Story : चांदनी रात में मैं छत पर लेटा हुआ था. आंखें आसमान में झिलमिलाते तारों को टटोल रही थीं और दिमाग में भूली यादें खलबली मचाए हुए थीं.

इन यादों में उन जवान लड़कियों और औरतों की यादें भी शामिल थीं, जिन के जिस्मों से मैं गहराई से जुड़ा रहा और जो अब जिंदगी में कभी देखने को भी नहीं मिल सकेंगी. उन के जिस्मों ने मेरे दिल को भी कहीं अधिक गहराई से छुआ था.

कैंप नंबर 2 की डिस्पैंसरी में मेरा तबादला हुआ था. उन दिनों, रहने के लिए मुझे जगह की बड़ी किल्लत थी. कितने ही लोग रायपुर और दुर्ग से रोजाना भिलाई आतेजाते थे. कुछ दिन तो मुझे भी दुर्ग से भिलाई आना पड़ा, उस के बाद महकमे की तरफ से हम 2 क्लर्कों को एक क्वार्टर मिल गया था. मेरा डिस्पैंसरी में क्लर्क का काम था, दवा की परची बनाना और उस में लिखी दवाओं का लेखाजोखा रखना.

मैं कई दिनों से देख रहा था कि एक लड़की जल्दी आ कर भी औरतों की कतार में पीछे लगती और अपनी परची को ज्यादातर गुम कर देती. हर बार मुझे नई परची बनानी पड़ती. झुंझला कर मैं कभी डांट भी देता, तो वह मुसकरा देती. तब अचानक मैं छोटा पड़ जाता और इस तरह गुस्सा भी मिट जाता.

तब मैं यह सब हंसीठिठोली, चुहलबाजी या छिछोरापन, कुछ भी नहीं जानता था. न मन में कोई ज्वार उठता था, न किसी तरह के खयाल ही जागते थे. तब तक औरत के जिस्म के लिए मेरे मन में कोई मोह या खिंचाव नहीं था. जिस्म या दिल के किसी तरह के स्वाद की परख या पहचान भी नहीं थी. इस तरह मुसकराने, हंसने, इठलाने और चाहने का मतलब भी मैं नहीं जानतासमझता था.

पर एक दिन दिल में यह खयाल उठा कि आखिर देखूं तो सही कि उसे कौन सी बीमारी है? परची देखी तो ताज्जुब करता रह गया. आज जुकामखांसी की दवा तो कल बुखार की, तो शाम को पेटदर्द की.

‘‘क्या देख रहे हैं बाबूजी?’’ पहली बार उस ने मुंह में धोती का पल्लू दबाते हुए मुझ से पूछा था.

उस की यह अदा मेरे दिल में बुरी तरह गड़ सी गई. अचानक मैं अजीब सी मस्ती से भर उठा. शरारती मुसकान इस तरह देखने का मेरा पहला तजरबा था.

वह थी भी बला की खूबसूरत. गोल चेहरा, बड़ी आंखें, उठे उभार और गठा हुआ जिस्म. साड़ी में भी वह बड़ी मादक लग रही थी. एकदम कमसिन कली. मन किया कि यहीं भींच दूं, पर कसमसा कर रह गया.

मैं ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘यही देख रहा हूं कि तुम्हें कौन सी बीमारी है?’’

‘‘बीमारी की कुछ न पूछो बाबूजी, कुछ न कुछ हो ही जाता है, ‘‘कह कर वह शरमा गई.

उस से ज्यादा हैरानी मुझे तब हुई, जब एक दिन उस ने किसी डाक्टर से उस परची पर दवा नहीं लिखाई और उसे वैसे ही फेंक गई, तब मैं कुछ उलझन में फंस गया.

इस के बाद वह फिर कई दिनों तक नहीं दिखी. एक दिन आई भी तो पकी उंगली ले कर. डाक्टर ने बड़े अस्पताल में चीरा लगाने को लिख दिया. ऐसे जितने भी मरीज बड़े अस्पताल भेजने होते थे, उन्हें एक एंबुलैंस ले जाती थी.

मुझे भी वहीं कुछ काम था और डाक्टर इंदु भी वहीं जा रही थीं. डाक्टर ने मुझे अपने साथ अगली सीट पर बैठने को भी कहा, मगर मैं मना कर के पीछे ही बैठा, जहां वह लड़की अकेली बैठी थी. मुझे देख कर वह हौले से मुसकराई, तो मैं भी मुसकरा दिया.

गाड़ी के धक्कों से कई बार वह मेरे ऊपर गिरतेगिरते बची. उस के बदन की छुअन से मैं अजीब सी मस्ती में डूबने लगा.

वह बोली, ‘‘तुम चल रहे हो न बाबूजी, अपने सामने ठीक से चीरा लगवा दोगे तो मुझे संतोष होगा. अकेले मुझे बहुत डर लग रहा था. तुम्हें देख कर चली आई, नहीं तो लौट जाती.’’

‘‘हांहां, तुम बेफिक्र रहो, सब ठीक होगा,’’ मैं ने उसे दिलासा दिया.

‘‘तुम रहते कहां हो बाबूजी? कभी अपना घर दिखाओ न?’’ अचानक वह बोल उठी.

‘‘जरूर दिखाऊंगा, यही कैंप नंबर 2 में ही टिन वाला क्वार्टर है,’’ मैं ने खुश होते हुए कहा.

मैं ने अपने सामने उस का चीरा लगवाया. उस ने कराह कर अपना सिर मेरी छाती से लगा दिया, तो मुझे बड़ा सुख मिला. हम दोनों साथसाथ ही वापस लौट आए.

इस के बाद तीसरे दिन जब वह दोबारा पट्टी कराने आई, तो उस के साथ उस का लोहार बाप भी था. दूर से ही दोनों ने हाथ जोड़ दिए. उस के बाप ने मेरा शुक्रिया अदा किया कि लड़की की उंगली मेरी वजह से जल्दी ठीक हो रही है.

मैं बड़ा खुश हुआ. पीछे खड़ी वह भी मुसकराती रही शर्म से, प्यार से और न जाने क्याक्या सोच कर.

इस के कुछ दिन बाद एक दोपहर को मैं ने उस से कहा, ‘‘चलो, आज तुम्हें अपना घर दिखा दूं.’’

‘‘आज नहीं, फिर कभी चलूंगी. पर हां, कैंप नंबर 2 के लिए तो तुम्हारा रास्ता हमारे क्वार्टर के सामने से हो कर जाता है न बाबूजी?’’

‘‘किधर से हो कर?’’

‘‘नाले पर से हो कर पहली लाइन में पहला ही क्वार्टर तो है सिरे पर,’’ इतना कह कर वह चली गई, क्योंकि कुछ मरीज आ गए थे.

शाम को जब मैं उधर से गुजरने लगा, तो उस ने हौले से कहा, ‘‘काका काम पर गए हैं. अम्मां देर से लौटेंगी. घर आ सकते हैं थोड़ी देर के लिए. मेरे सिवा और कोई नहीं है.’’

बिना झिझक खुला बुलावा पा कर मैं बहुत खुश हुआ, मानो उस के बुलावे का इंतजार ही कर रहा था. मैं बेखटके भीतर घुस कर सामने बिछे पलंग पर जा बैठा.

‘‘चाय पीएंगे?’’ वह बोली.

‘‘अरे नेकी और पूछपूछ… पर इस तरह मुझे डर लगता है. घर में कोई नहीं है. मैं तुम्हारा कुछ लगता नहीं और सब जानते हैं कि मैं यहीं अस्पताल में काम करता हूं.’’

‘‘मेरे बापूअम्मां बड़े ही सीधे हैं. बस, भाई जब शराब पी लेता है, तो घर में झगड़ा करता है. पर, तुम बेफिक्र रहो, कोई आ भी जाएगा, तो वह पूरी इज्जत करेगा.’’

‘‘मैं कुछ भी करूं, तब भी इज्जत करेगा? न जाने किस मस्ती की झोंक में यह कह कर मैं ने उसे अपनी बांहों में भर लिया और चूम लिया.

वह छटपटा कर एकदम अलग हट गई, ‘‘अरे, यह क्या करते हो?’’

मैं एक झटके से उस के क्वार्टर से बाहर निकल आया. चाय तो पीनी नहीं थी, लेकिन बातें की जा सकती थीं. पर अपने मन का डर ही मुझे भगा लाया.

फिर एक दोपहर उस ने खुद मेरे घर आने को कहा. उसे साथ ले कर मैं फौरन अपने क्वार्टर पर पहुंचा.

मेरे साथ के गांव से 3 मजदूर नौकरी की गरज से आ कर हफ्तों से वहीं जमे थे. हालांकि, मैं ने सुबह ही कह दिया था कि दोपहर को मेरे मेहमानों के आने के वक्त वे लोग कहीं बाहर चले जाएं. मगर वे तब तक वहीं ताश खेल रहे थे और दांत फाड़ रहे थे. बड़ा अजीब नजारा था. एक पल के लिए मुझ से न आगे बढ़ा गया, न पीछे हटा गया.

मुझे बहुत गुस्सा आया, जो जज्ब करतेकरते भी छलक ही गया, ‘‘रामू, मैं ने तुम से कल और आज सुबह भी क्या कहा था?’’

वे सब के सब हड़बड़ा कर चारपाइयों से उठ कर खड़े हो गए. ताश के पत्ते समेट कर एक तरफ फेंके और बाहर निकल गए.

तब वह भी गुमसुम भीतर घुस आई. लेकिन उसे भी यह सब अच्छा नहीं लगा. वह बोली, ‘‘मैं चली जाती हूं. मैं ने शायद ठीक नहीं किया, इस तरह यहां आ कर.’’

‘‘नहींनहीं, बैठो तुम. पता नहीं कहां से आ मरे ये बेवकूफ, जाहिल…’’ मैं गुस्से में बोला.

फिर मैं ने जबरन उसे कंधों से पकड़ कर बैठाया और भाग कर मिठाई ले आया. वह इनकार करती रही और जल्दी घर जाने की कहती रही. बड़ी मनुहार से उसे मिठाई खिलाई, पानी पिलाया, फिर दरवाजा बंद कर सांकल लगाई.

वह डर से सकपकाई. उस की नजर एक पल में मुझ से ले कर कमरे के सारे सामान पर डोल गई. मैं खाट पर उस से सट कर बैठ गया और उसे अपनी बाजुओं में भींच लिया.

मैं उसे चूमने लगा, तो वह छटपटाने लगी. मैं ने किसी जवान लड़की का नंगा जिस्म कभी देखा नहीं था. देखने की चाह में मैं पागल सा हुआ जा रहा था. मेरे हाथ उस की पिंडलियों पर फिसलने लगे, पर मैं खुद को बेहद ‘ठंडा’ महसूस कर रहा था. डर था कि कहीं कोई आ न जाए.

धीरेधीरे मैं उस की धोती को ऊपर सरकाने लगा था. पर, वह मना कर रही थी. उस की आंखों का रंग बदल रहा था, चेहरा अजीब सी गरमी से भर रहा था. वह बोली, ‘‘नहींनहीं, यह सब मत करो. यह सब शादी के बाद…’’

‘ओह, तो क्या यह मुझ से शादी करने का सपना देख रही है?’ मैं ने सोचा.

मैं अचानक कुछ समझ नहीं पा रहा था कि तभी दरवाजे पर दस्तक की आवाज सुन कर होश उड़ गए और सोचा, ‘कौन आ मरा इस वक्त?’

दरवाजे की तरफ बढ़ता हुआ मैं उस से बोला कि वह पिछले दरवाजे से बाहर निकल जाए. पर वह इस बात पर अड़ गई कि अकेली बाहर नहीं जाएगी.

मैं जब दरवाजे पर उसे ले कर पहुंचा, तो मेरे 3 साथी बाहर खड़े थे. बिना कुछ किए मौके पर रंगे हाथों पकड़े जाने की शर्मिंदगी और दुख लिए उन का सामना किया.

वे तीनों भीतर घुसे. उस लड़की ने घर तक पहुंचा देने की जिद की, तो मैं ने अपना माथा पकड़ लिया. उन्हें भीतर बैठने को कह कर उसे थोड़ी दूर तक पहुंचा कर लौटा.

आते ही कई सवाल, लानतमजामत और धमकियां भी सुननी पड़ीं, ‘‘तुम्हें इस तरह किसी लड़की को क्वार्टर में नहीं लाना चाहिए था… पड़ोस में परिवार हैं, कोई क्या सोचेगा. लोगों पर क्या असर पड़ेगा… हम शिकायत करेंगे. हमारे आदमियों को भगा दिया, रंगरलियां मनाने के लिए…’’ एक ने कहा.

अचानक मैं फट पड़ा, ‘‘वह मेरी दोस्त है. घर ले आया तो कौन सा आसमान फट पड़ा. 3 आदमी यहां कितने दिनों से रह रहे हैं. मैं ने तो कभी अपनी परेशानी की शिकायत नहीं की…’’

लेकिन मेरे साथी ने शिकायत कर ही दी. महकमे ने क्वार्टर और उस अस्पताल दोनों से ही मेरा तबादला कर दिया.

बाद में मैं उस से फिर कभी नहीं मिल सका. मगर अकसर वह मेरी यादों में तारे सी झिलमिला उठती है. जबतब अपनी उस पहली महबूबा से सुख और मजा न पाने का अफसोस दिल पर हावी हो उठता है.

उस गम को मिटाना मुमकिन नहीं था, क्योंकि उस की कसक बड़ी मीठी थी. हां, कहीं न कहीं यह संतोष जरूर था कि उसे बिगाड़ा नहीं, छला नहीं, रुलाया नहीं.

लेखक – जेएस वर्मा

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