हाल के सालों में देश में कई हिस्सों से खेतों से हल और बैल लुप्त होते जा रहे हैं. बहुत तेजी के साथ कृषि यंत्रीकरण हो रहा है. गेहूं, चावल जैसी फसलों में यंत्रीकरण 65 फीसदी के स्तर तक है, जबकि कपास में बहुत कम स्तर पर.

समग्र तौर पर देखें, तो भारत में कृषि यंत्रीकरण का स्तर 47 फीसदी है, जबकि चीन में यह 59 और ब्राजील में 75 फीसदी तक. वैसे, यंत्रीकरण के लिए सरकारी योजनाएं भी चल रही हैं. यंत्रों पर सब्सिडी भी है और कस्टम हायरिंग केंद्रों के साथ फार्म मशीनरी बैंक भी.

किसी भी इलाके में स्वाभाविक तौर पर मशीनें आप को कृषि क्षेत्र में देखने को मिल जाएंगी. किसान आंदोलनों पर भी ट्रैक्टरों को शक्ति के रुप में दर्शाने का प्रयास होता है. पर जहां तक महिलाओं की बात है, वे खुद मशीन बनी पहाड़ों से ले कर मैदानों तक में नजर आती हैं.

जब भी हम भारतीय किसान की तसवीर देखते हैं, तो वह ट्रैक्टर या दूसरे साजोसामान के साथ मूंछों पर ताव दे रहे किसी पुरुष किसान का चेहरा होता है. धान रोपती महिला, ड्रोन दीदी और लखपति दीदी जैसे संबोधनों के साथ प्रतीक रूप में कुछ ग्रामीण महिलाएं नजर आ जाती हैं. लेकिन यंत्रीकरण या मशीनीकरण का फायदा महिलाओं को सब से कम हुआ है.

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आज ट्रैक्टर, टिलर व स्पेयर जैसे तमाम हथियार पुरुषों के पास हैं और अधिकतर महिलाएं हाथ से काम करते हुए खुद मशीन बनी हुई हैं. उन के लिए अनुसंधान की कमी नहीं, पर बहुत प्रयोगशाला से खेत के बीच काफी दूरियां हैं और महिला हितैषी कृषि यंत्रों का अकाल बना है. जो बने भी हैं, उन तक सामान्य महिलाओं की पहुंच नहीं है. तकनीकी और सामाजिक विकास के बावजूद उन का पिछड़ापन चिंता का विषय है.

दिक्कत यह है कि हमारे नीति निर्माताओं का ध्यान कभी भी महिला किसानों पर नहीं गया. तकनीकी और सामाजिक विकास के बावजूद वे बेहद पिछड़ी हैं. हम उन के जीवन को सुविधाजनक बनाने लायक यंत्र तक जुटा नहीं सके हैं. किसान महिलाएं लगातार हाथ से खटती हैं, जिस का असर उन की सेहत पर भी पड़ता है और कार्यकुशलता पर भी.

पहाड़ की महिला किसानों के लिए फौडर कलक्टर, चाय की पत्तियों की चुनाई का उपकरण, छाता, घास उठाने का यंत्र, पंखा करने का यंत्र और कटर आदि बने, पर उन की सीमित सुलभता है.

वैसे तो 18वीं शताब्दी में उद्योगों में यंत्रीकरण के बाद से कृषि उपकरणों और यंत्रों का बनना आरंभ हो गया. 20वीं शताब्दी में हलों में पर्याप्त सुधार हुआ और आगे रबड़ के पहिए के कारण कृषि यंत्रों और ट्रैक्टरों के भार खींचने में काफी सुविधा हुई.

भारत में हालांकि मानव और पशुचालित यंत्र अभी भी खेती को काफी मदद कर रहे हैं, पर तमाम उन्नतशील कृषि यंत्रों के निर्माण की होड़ मची है. हरित क्रांति के बाद से कृषि यंत्रीकरण में उत्तर भारत में काफी तेजी आई है, लेकिन छोटे किसानों में यंत्रीकरण धीमी गति से हो रहा है. छोटे किसानों और महिलाओं की जरूरतों वाले कृषि यंत्र बनाने में कंपनियों की खास रुचि नहीं, क्योंकि इस में सीमित मुनाफा है. लेकिन ड्रोन आदि मुनाफे की खेती बने हुए हैं, तो सारा जोर उधर ही है.

हाल के सालों में मैं ने हिमाचल प्रदेश के चौधरी श्रवण कुमार हिमाचल कृषि विश्वविद्यालय और डा. वाईएस परमार वानिकी विश्वविद्यालय का कई बार दौरा किया. चौधरी श्रवण कुमार हिमाचल कृषि विश्वविद्यालय में मुझे यह देख कर हैरानी हुई थी कि वहां होम साइंस विभाग में काफी बड़ी तादाद में पुरुष छात्र पढ़ाई कर रहे थे. होम साइंस महिलाओं का विषय माना जाता है, पर हिमाचल प्रदेश की बालिकाओं ने कृषि शिक्षा में पुरुषों का वर्चस्व तोड़ा.

देश में पहला कृषि विश्वविद्यालय 1962 में शुरू हुआ था, लेकिन छात्राओं के लिए खेती रुचि का विषय नहीं रहा. इस नाते उन की भागीदारी बमुश्किल 5 फीसदी तक होती थी. हिमाचल प्रदेश में वर्ष 1995-96 के बाद बालिकाओं ने कृषि शिक्षा की ओर कदम बढ़ाए और तब उन का नामांकन 14 फीसदी तक पहुंच गया. वर्ष 2004-05 तक 43 फीसदी और एक दशक पहले 2010 में 54 फीसदी पर आ गया, जबकि बालकों का वर्चस्व टूट गया. तब से बालिकाएं अग्रणी भूमिका में हैं.

यह तो विश्वविद्यालय की बात है. पर हिमाचल प्रदेश या देश के दूसरे पहाड़ी राज्यों से ले कर केरल तक की तसवीर देखें, तो पता चलता है कि खेतीबारी की रीढ़ महिलाएं ही हैं. कृषि शिक्षा में उन की भागीदारी कम हो या ज्यादा, पर खेतों में बहुत अधिक है. देश में एक से एक काबिल महिला किसान हैं.

खेतीबारी में महिलाएं आखिर क्या काम नहीं करती हैं. बोआई, रोपाई, सिंचाई, निराई, कटाई, ढुलाई, छंटाई, भराई, बंधाई और पशुपालन से जुड़े काम जैसे चारा डालना, चराने ले जाना, दूध निकालना, सफाई करना, गोबर बटोरना व उपले यानी कंडे बनाना, दूध का प्रसंस्करण करना सभी में ज्यादातर महिला श्रम काम आता है.

वे ट्रैक्टर भी चलाती हैं और मोटर भी. लेकिन इतना सब होने के बाद भी वे क्या खेतीबारी की मुख्यधारा में शामिल हैं? क्या सरकार उन को वास्तव में किसान मानती है?

वर्ष 2011 की जनगणना में महिला किसानों की संख्या 3 करोड़, 60 लाख और महिला कृषि मजदूरों की संख्या सवा 6 करोड़ थी, जो अब काफी बढ़ चुकी है.

लेकिन खेतीलायक जमीनों के स्वामित्व में भूजोतों के हिसाब से महिला किसानों की 13.87 फीसदी ही है. उन को तमाम योजनाओं से सीमित फायदा हो रहा है. भूमि, कृषि ऋण, जल, बीज और बाजार जैसे संसाधनों में उन के साथ भेदभाव बरकरार है. तमाम नीतिगत खामियों के नाते वे सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं उठा पाती हैं.

संसद की कृषि संबंधी स्थायी समिति ने कृषि क्षेत्र में महिलाओं को मुख्यधारा में लाने की सिफारिश करते हुए वर्ष 2018 में माना था कि कृषि उत्पादन में महिला किसानों की अनूठी भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है.

यूपीए सरकार के दौरान वर्ष 2007 में राष्ट्रीय कृषि नीति में महिला किसानों को मुख्यधारा में लाने की योजना बनाई गई थी. कई योजनाओं में 30 फीसदी महिला किसानों को लाभ देने के प्रावधान शामिल हैं. मोदी सरकार ने भी कई कदम महिला किसानों के हक में उठाए, लेकिन मशीन बनी महिलाओं का जीवन सहज नहीं हुआ.

बीज तैयार करने से ले कर कटाई के बाद की प्रक्रिया में महिलाओं की 80 फीसदी से ज्यादा भागीदारी होती है. खेती में 65 फीसदी मानवीय श्रम लगता है. लगातार एक स्थिति में शरीर रखने से मांसपेशियों पर खिंचाव होता है और शारीरिक ऊर्जा की अधिक खपत होती है. इस से महिलाएं कई बीमारियों की चपेट में आ जाती हैं.

पशुपालन क्षेत्र में 71 फीसदी महिलाएं हैं, जबकि डेयरी क्षेत्र में 1.5 करोड़ पुरुषों की तुलना में 7.5 करोड महिलाएं काम करती हैं. चारा देने, दूध निकालने का काम महिलाएं करती हैं, जबकि पशुओं का परिवहन में उपयोग करने और चराने व जोतने जैसी गतिविधि पुरुषों के हाथ होती है.

महिलाएं डेयरी सहकारिता आंदोलन की रीढ़ है. हमारी महिला किसान सामान्यतया छोटी और सीमांत किसान हैं. आधे महिला किसानों के पास आधा हेक्टेयर से भी कम जमीन है और कागजों पर महिलाओं के नाम जमीनें सीमित होने के कारण उन को न खेती के लिए सुविधाएं मिलती हैं और न ही कर्ज. भले ही उन के कंधों पर खेती टिकी है, पर कृषि नीतियां उन को किसान ही नहीं मानती.

हालांकि 15 अक्तूबर, 2017 को पहली बार ‘महिला किसान दिवस’ मनाने के साथ भारत ने दुनिया को यह संकेत दे दिया है कि वह महिला किसानों के योगदान को स्वीकार रहा है. पर जमीनी हकीकत को देखें, तो यह सब प्रतीकात्मकता से अधिक नहीं लगता है.

कृषि में महिलाओं की भागीदारी को ध्यान में रखते हुए वर्ष 1996 में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने भुवनेश्वर में सैंटल इंस्टीट्यूट फौर वूमन इन एग्रीकल्चर स्थापित किया था. यह कृषि में महिलाओं से जुड़े विभिन्न आयामों पर अध्ययन और अनुसंधान कर रहा है. तमाम तकनीकों का विकास किया है, जिस से खेती में महिलाओं की कठिनाइयां कम हो सकें.

सरकार ने देश के सभी कृषि विज्ञान केद्रों में एकएक महिला कृषि वैज्ञानिक की तैनाती का भी आदेश भी दिया है, लेकिन हकीकत यह है कि अभी भी अधिकतर केंद्रों पर गृह विज्ञान में ही काम हो रहा है, जिस में मे खुद पारंगत हैं.

खेतिहर मजदूरों में भी महिलाओं का अनुपात लगातार बढ़ रहा है, लेकिन उन की स्थिति कोई बहुत बेहतर नहीं है. खादी सैक्टर में भी ग्रामीण महिलाओं को अनाज और दालों के प्रसंस्करण, पापड़ और मसाले बनाने, अखाद्य तिलहनों का संग्रह से ले कर तमाम क्षेत्रों में प्रशिक्षण का इंतजाम किया गया. लेकिन अभी बहुतकुछ करने की दरकार है.

मनरेगा ने ग्रामीण महिला श्रमिकों की दशा को उन इलाकों में थोड़ा बेहतर बनाया है, जहां इस का जमीनी क्रियान्वयन ठीक है. लेकिन आयोजना के स्तर पर महिलाओं का योगदान अधिक नहीं है, क्योंकि वे इतनी शिक्षित औऱ जागरूक नहीं हैं. ग्रामीण भारत की अधिकांश महिलाएं अब भी रोजगार के लिए कृषि पर ही आश्रित हैं. अगर रोज़गार की गुणवत्ता की बात की जाए, तो यह अनिश्चित ही है.

बेशक, भारतीय महिलाएं सफलता के नए सोपान तय कर रही हैं. खेतीबारी में भी वे सफलता की तमाम कहानियों की नायिकाएं हैं, लेकिन ग्रामीण महिलाओं और खासतौर पर खेतिहर श्रम में लगी उन महिलाओं को भुला देते हैं, जिन का इस देश के विकास में सब से महत्वपूर्ण योगदान है.

पुरुषों ने अलाभकारी खेती को महिलाओं के भरोसे छोड़ शहरों की ओर अपने को केंद्रित कर दिया. तमाम गांव महिलाओं के कंधों पर खड़े हैं. लेकिन क्या ‘महिला दिवस’ देश की रीढ़ इन महिला किसानों और खेतिहर मजदूरों को मशीन बने रहने की विवशता पर भी कुछ चिंतन करेगा?

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