जिस मुसलिम कौम ने कई सदियों तक राज किया, साल 1857 की क्रांति की लड़ाई में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया, देश को अंगरेजों की गुलामी से आजाद कराने वाले आंदोलन में भाग लिया और फिर 1947 में देश को आजाद कराने में भागीदारी निभाई, आज उसी तबके की दशा चिंताजनक है.

वर्तमान दौर में यह तबका माली, सामाजिक,  पढ़ाईलिखाई, राजनीतिक व सांस्कृतिक रूप से पिछड़ रहा है. इस के जिंदगी जीने के ग्राफ में भी गिरावट देखी जा रही है.

मुसलिम समाज आज अनपढ़ता, गरीबी और बेरोजगारी से भी जू?ा रहा है. इस वजह से समाज अनैतिक कामों के जाल में फंसता चला जा रहा है. आखिर इस बदहाली का कुसूरवार कौन है?

समाज के रहनुमा गौर करें : रहबर ए कौम सम?ा ले ये हकीकत है बड़ी, कौम छोटी है, मगर इस की रिवायत है बड़ी.

इस समाज के रहनुमाओं की राजनीतिक नुमाइंदगी और शासनप्रशासन में भागीदारी नहीं के बराबर है और जो है, वह भी बौद्धिक रूप से भीरू है. इस तबके के लोग जिस राजनीतिक नुमाइंदगी के पीछे रहे, उस ने भी इन का शोषण ही किया. जो राजनीतिक दल धर्मनिरपेक्षता का ढोंग करते हैं, वे भी पीठ पीछे घात ही लगाते हैं.

इन सब बातों पर इस समाज को फिक्र करनी होगी. देश का वातावरण वर्तमान समय में दूषित है और हमें आपसी भाईचारे से रहना है.

मस्तान बीकानेरी का कहना है : दुनिया से जो डरते थे उन्हें खा गई दुनिया, वे छा गए दुनिया में जो डरते थे खुदा से.

मुसलिम समाज की हालत पर आखिरकार देश के तब के प्रधानमंत्री डाक्टर मनमोहन सिंह ने 58 साल बाद यह महसूस किया कि मुसलिमों के सामाजिक, माली, पढ़ाईलिखाई और राजनीतिक पिछड़ेपन के कारण व निवारण के लिए कुछ किया जाए, तो फिर उन्होंने जस्टिस राजेंद्र सच्चर की अध्यक्षता में साल 2005 में एक कमेटी बनाई थी.

इस आयोग की रिपोर्ट भी चौंकाने वाली थी और मुसलिमों के हालात अनुसूचित जातियों से भी बदतर बताए गए थे. ऐसा ही कुछ जस्टिस रंगनाथ मिश्रा आयोग ने भी बताया था. इन आयोगों ने जो सु?ाव दिए, उन्हें लागू करने में भी उदासीनता ही रही. वे सु?ाव अब ठंडे बस्ते में पड़े हैं.

किसी शायर ने कहा है : बेइल्म, बेहुनर रहेगी दुनिया में जो भी कौम, कुदरत की इकतिजा है, बन के रहेगी वो गुलाम.

मुसलिमों को इल्म व हुनर की वजह से यह दशा सुधारनी जरूरी है. इस के लिए सरकारों पर निर्भर न हो कर मुसलिमों को मौडर्न पढ़ाईलिखाई के सांचे में खुद को ढालना होगा.

कहा भी तो गया है : खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले, खुदा अपने बंदे से खुद पूछे बता तेरी रजा क्या है.

इस के लिए समाज के जिम्मेदार लोगों को आगे आ कर गांव और शहर के लैवल पर संगठन बना कर समाज के बुद्धिजीवी तबके की मदद से सुनियोजित तरीके से क्रांतिकारी बदलाव ला कर समाज को जागरूक करने की अलख जगाई जानी चाहिए.

आज का जमाना प्रतियोगिता का है. मुसलिमों के बच्चे गाइडैंस की कमी में पिछड़ जाते हैं. बहुत से तो सामाजिक और माली वजहों से स्कूल छोड़ देते हैं, बहुत कम ही आगे की पढ़ाई तक पहुंच पाते हैं. इस समस्या से नजात पाने के लिए भी मुहिम चलानी चाहिए.

मुसलिम समुदाय के बच्चों को मनोवैज्ञानिक ढंग से मार्गदर्शन की जरूरत है, जबकि आम लोगों की सोच बन चुकी है कि मुसलिमों को नौकरी तो मिलनी नहीं है, इसलिए इस मिथक को तोड़ना भी बहुत जरूरी है.

आज के तकनीकी जमाने में देश में पढ़ेलिखे लोगों का होना बहुत जरूरी है, क्योंकि हमारे पुश्तैनी धंधे भी आधुनिक तकनीक से चलाए जाने में उन का पढ़ालिखा होना जरूरी है, इसलिए मुसलिम समाज में आमूलचूल बदलाव लाने की दिशा में ऊंची तालीम और प्रोफैशनल कोर्स, कंप्यूटर की अच्छी जानकारी की अहमियत की गाइडैंस देना जरूरी है.

इस के साथ ही प्रतियोगी परीक्षाओं की जानकारी देना और बच्चों को कोचिंग दिलाना जरूरी है. आज केंद्र

व राज्य सरकार की तमाम योजनाओं और दूसरे कार्यक्रमों का फायदा लेने के लिए भी उन का मार्गदर्शन किया जाए.

मुसलिमों में बढ़ चुके पिछड़ेपन को दूर करने के लिए उन्हें सामाजिक कुरीतियों और फुजूलखर्ची से भी दूर रहने की जरूरत है. यह पैसा बच्चों की तालीम पर खर्च किया जाए.

किसी ने सही कहा है : अभी वक्त है संभालो समाज को समाज के रहनुमाओ, वक्त निकल गया हाथ से तो पछताओगे तुम रहनुमाओ.

साथ ही, मुसलिम समाज के बच्चों के लिए लाइब्रेरी, होस्टल, पढ़ाईलिखाई से जुड़े संस्थानों का संचालन किया जाए और गरीब बच्चों की पढ़ाईलिखाई का पुख्ता इंतजाम कर उन्हें मैनेजमैंट, होटल, पर्यटन, चिकित्सा, पशुपालन, खेतीबारी, तमाम छात्रवृत्तियां फैलोशिप और खेलों से जुड़ी जानकारी भी दी जानी चाहिए. इस से भविष्य में मुसलिम समाज को फायदा होगा

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