राइटर- रामचरन हर्षाना

इस मोहल्ले में मैं यानी गोविंद दूध की थैली दिया करता था, जहां एक लेखक महोदय भी रहा करते थे. उन का नाम सुमंत जैन था. वे बड़े जानेमाने लेखक थे. हालांकि मुझे इस बात का कतई पता नहीं था. वह तो उन के पड़ोस में रह रहे मेरे ही एक ग्राहक दिनकरजी ने मुझे इस बारे में बताया था.

एक दिन दूध की थैली दरवाजे पर रख कर मेरे द्वारा कुछ देर दरवाजा खटखटाने पर भी जब सुमंत जैन नहीं जागे, तब अपने घर से बाहर आए दिनकरजी ने मुझ से कहा, ‘‘कोई बात नहीं. वे अपनेआप जाग कर दूध ले लेंगे. रातभर लिखते रहे होंगे और फिर देर से सोए होंगे.’’

‘‘वे रातभर लिखते रहते हैं?’’ मैं ने अचंभे से पूछा, ‘‘आखिर वे ऐसा क्या लिखते हैं?’’

‘‘वे एक बड़े लेखक हैं…’’ दिनकरजी ने बड़े गर्व से कहा, ‘‘कई पत्रिकाओं में वे लेख, कविताएं और कहानियां लिखते रहते हैं. यही तो उन का पेशा है. वे नौकरी थोड़े ही करते हैं.’’

‘‘नौकरी नहीं करते…’’ मैं और भी हैरान हो गया. पूछने लगा, ‘‘सिर्फ लिखने से उन का गुजारा कैसे चलता है?’’

‘‘बिलकुल चलता है. आखिर वे कलम के सिपाही जो ठहरे,’’ दिनकरजी ने दोबारा गर्व से कहा.

तब से मेरे दिल में सुमंतजी के प्रति और ज्यादा आदर भावना जाग उठी थी. मुझे भी गर्व हुआ कि मैं एक जानेमाने लेखक को दूध की थैली पहुंचाता हूं.

फिर मैं उन में और ज्यादा दिलचस्पी लेने लगा. कई बार सवेरे दूध पहुंचाते हुए जब मैं देखता कि वे जाग उठे हैं, तो उन से दुआसलाम कर के बातचीत कर लिया करता था.

दिनकरजी भी कभीकभार मुझे उन पत्रिकाओं के बारे में बताते थे, जिन में सुमंतजी की रचनाएं छपती थीं. पत्रिका में उन के फोटो के साथ उन की रचना छपी देख कर मैं बहुत ज्यादा खुशी महसूस करता था.

दिनकरजी तो मुझे सुमंतजी के विचित्र किस्से भी सुनाया करते थे. सुमंतजी बड़े सरल, भोले, कुछकुछ सनकी और बेपरवाह इनसान थे. वे कई बार बाजार में खरीदारी के लिए जाते थे, लेकिन कुछ याद आते ही बिना कुछ खरीदे घर लौट जाया करते थे और फिर लिखने बैठ जाते थे.

सुना था कि उन के इसी सनकी स्वभाव के चलते उन की अपनी पत्नी से भी नहीं बनती थी और अब वे उन से अलग रह रही थीं. भोलेभाले लेखक सुमंतजी अपनी लेखन की कमाई में से कुछ हिस्सा पत्नी के लिए भेज दिया करते थे.

एक सवेरे इच्छा हुई कि आज अपने प्रिय लेखक से मिल लिया जाए. मैं ने दरवाजा खटखटाया. फिर इंतजार किया. कोई आहट नहीं हुई.

मैं ने दरवाजा जोर से खटखटाया. फिर देखा कि खिड़की भी बंद थी. मैं ने उसे खोल कर अंदर झांका. लगा कि अंदर कोई नहीं था.

तभी हमेशा की तरह दिनकरजी बाहर आए और बोले, ‘‘अरे, क्यों दरवाजा खटखटा रहे हो?’’

‘‘यों ही… सुमंतजी से मिलना था. दूध का बिल भी देना था,’’ मैं ने जवाब दिया.

‘‘अरे, क्या तुम्हें नहीं पता, वे तो चल बसे. 3-4 हफ्ते हो गए,’’ इतना कह कर दिनकरजी ने मुझे चौंका दिया.

‘‘यह कैसे हो सकता है…’’

‘‘कुछ दिन पहले वे अपनी पत्नी से मिलने के लिए जौनपुर गए थे, फिर वापस नहीं आए,’’ दिनकरजी ने खुलासा किया.

यह सुन कर मुझे धक्का सा लगा. इतने अच्छे लेखक का यों अचानक चले जाना मुझे नागवार गुजरा. मेरी आंखों के सामने उन का चेहरा घूमने लगा.

‘‘लेकिन, मैं तो पिछले कई दिनों से रोजाना दूध की थैली उन के दरवाजे पर रख जाता हूं. फिर वे सारी थैलियां जाती कहां थीं?’’ मैं ने सवाल किया.

दिनकरजी ने शक की निगाह से मेरी तरफ देखा. उन्हें लगा कि शायद मैं उन पर दूध की थैली चुराने का आरोप लगा रहा हूं. वे थोड़े खिसियाने हो गए और कुछ भी कहे बगैर अंदर चले गए.

मैं यह सोच कर हैरान था कि दिनकरजी जैसे पड़ोसी ने मुझे सुमंत जैन जैसे नामी लेखक की मौत के बारे में क्यों नहीं बताया? शहर में पड़ोसी क्या इतने मतलबी हो सकते हैं कि उन्हें अपने बगल में रह रहे इनसान की मौत के बारे में भी पता न चले? इतना ही नहीं, उन्हें सब्जी पहुंचाने वाले को भी इस की जानकारी देने की जहमत नहीं उठाई?

खैर, मुझे अपनी दूध की थैली के पैसे  गंवाने से ज्यादा अपने चहेते लेखक को गंवाने का दुख था. अपने प्रिय लेखक की अचानक हुई मौत के शोक से मैं अभी संभल नहीं पाया था कि एक दिन सवेरे मैं ने दिनकरजी का दरवाजा बंद देखा.

न जाने क्यों मुझे लगा कि दिनकरजी को जगाना चाहिए.

मैं ने उन का दरवाजा बारबार खटखटाया, लेकिन अंदर से कोई आवाज नहीं आई. फिर मैं ने और जोर से दरवाजा खटखटाया. यह सिलसिला मैं ने तब तक चालू रखा, जब तक अंदर से कोई आहट न आई.

आखिरकार दिनकरजी जाग गए थे, क्योंकि अंदर से उन की आवाज आई थी, ‘‘आता हूं भई…’’

मुझे तसल्ली हुई. फिर दिनकरजी ने अपनी आंखें मसलते हुए दरवाजा खोला, ‘‘अरे, क्या बात है गोविंद? क्यों दरवाजा खटखटा रहे हो? रोज तो दरवाजे पर ही दूध की थैली रख जाते हो, तो आज मुझे क्यों जगा रहे हो?’’

‘‘दिनकरजी, मैं ने सोचा कि आप के पड़ोसी लेखक सुमंतजी को न जगा कर मैं ने बड़ी गलती कर दी थी. मुझे उन के चले जाने की भनक तक नहीं लगी थी. कहीं ऐसा न हो कि मेरी दूध की थैली आप के दरवाजे पर कई दिनों तक पड़ी रहे और उसे कोई दूसरा इस्तेमाल कर ले,’’ मैं ने तपाक से जवाब दिया.

मैं ने गरम लोहे पर सही समय पर हथौड़ा मार दिया था. दिनकरजी को यह समझते देर न लगी कि मैं ने उन की दूध की थैली की चोरी पकड़ ली थी. उन का चेहरा शर्म से लाल हो चुका था. उन्होंने चुपचाप दूध की थैली ले कर दरवाजा बंद कर लिया.

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