डबडबाई आंखों से छत की ओर देखते हुए उस ने पुन: कहना शुरू किया, ‘‘आरुषी, मैं एक नपुंसक पुरुष हूं और संतान पैदा करने में अक्षम हूं...मुझे माफ कर दो आरुषी, मैं तुम्हारा अपराधी हूं. मैं जानता था कि तुम मुझ से प्यार करने लगी हो और यह बात मुझे पहले ही बता देनी चाहिए थी पर मैं डर रहा था कि तुम मुझे छोड़ कर चली जाओगी. वैसे तुम अभी भी जा सकती हो. मैं अपने दिल को समझा लूंगा.’’
यह सुन कर आरुषी की आंखें फटी की फटी रह गईं. उस के कानों में मानो पिघला सीसा डाल दिया गया हो. जीवन का आधा हिस्सा तो दुख, कलह, क्लेश में बीत गया. दामन में कष्टों के अलावा कुछ था ही नहीं. जिस का बाप चरित्रहीन हो उस की औलाद के आंचल में सिवा धूप के थपेड़ों के कुछ नहीं होता.
उम्र के जिन हसीन पलों को एक आम लड़की सहेज कर रखती है, आरुषी उन पलों को अपने जीवन से हटा देना चाहती थी, क्योंकि उन पलों ने उसे आंसू और दमघोंटू वातावरण दिया था. आज तो उस के जीवन में बहार की पहली दस्तक हुई थी. द्वार के खुलते ही अनिरुद्ध की इस बात ने उसे अंदर से पूर्ण रूप से तोड़ दिया.
‘‘आरुषी, मैं तुम्हें सोचने के लिए समय देता हूं. सुबह मैं तुम्हारे फोन का इंतजार करूंगा. अपने दिल पर हमदर्दी को बढ़ावा मत देना. हमदर्दी में बढ़ाया कदम, जीवन में पछतावे को बुलावा देता है. फैसला सोचसमझ कर करना.’’
भारी कदमों से दोनों ने रेस्टोेरेंट से बाहर की ओर कदम बढ़ाए. उसे घर छोड़ कर अनिरुद्ध अपनी मंजिल की ओर बढ़ गया.