यह बात उन दिनों की है, जब महंगाई ज्यादा नहीं थी. महज 10 रुपए में आधा किलो दही आ जाता था. राजनगर नाम के एक महल्ले में रमानाथ नाम के एक रिटायर प्रोफैसर छोटे से मकान में अकेले रहते थे. वे बहुत ही सीधे, सरल, परंतु भुलक्कड़ स्वभाव के थे. वे हर समय किसी न किसी खयाल में खोए रहते थे.
एक दिन की बात है. रात के 8 बजे वे खाना खाने बैठे तो देखा कि दही नहीं है. फिर क्या था? वे हाथ में डब्बा और जेब में 10 रुपए का नोट ले कर बाजार की ओर चल पड़े.
डेरी की दुकानें अकसर जल्दी बंद हो जाती हैं. रमानाथजी बाजार में बहुत घूमे, पर सभी दुकानें बंद हो चुकी थीं. आखिर में उन्हें एक दुकान खुली मिल ही गई. दुकान वाला दुकान बंद कर ही रहा था कि रमानाथजी वहां पहुंच गए.
‘‘भाई साहब, आधा किलो दही दे दीजिए,’’ रमानाथजी ने दुकानदार के हाथ में डब्बा देते हुए कहा.
‘‘बाबूजी, दही आधा किलो से कुछ कम है… 8 रुपए दे दीजिए,’’ दुकानदार ने डब्बे में दही डालते हुए कहा.
‘‘ठीक है, यह लीजिए 10 रुपए का नोट.’’
‘‘बाबूजी, 2 रुपए तो छुट्टे नहीं हैं. कल सुबह आप बाजार में सब्जियां खरीदने आएंगे, तो अपने 2 रुपए ले लीजिएगा.’’
‘‘ठीक है, कोई बात नहीं. 2 रुपए कल ले जाऊंगा,’’ रमानाथजी ने दही का डब्बा पकड़ कर जाते हुए कहा.
अचानक वे रुके, पीछे मुड़ कर सोचने लगे, ‘मैं भुलक्कड़ हूं. दुकान कहां है, जरा निशान तो देख लूं…
‘हां, दुकान के सामने एक सफेद सांड़ बैठा जुगाली कर रहा है. दुकानदार 60 साल का बूढ़ा है. उस के सिर पर एक भी बाल नहीं है. चेहरे पर दाढ़ीमूंछ भी नहीं है. कुलमिला कर आलू की तरह चिकना.’
रमानाथजी घर पहुंचे, खाना खाया और सो गए. फिर वे सुबह उठे, नहाएधोए, चाय बना कर पी और अखबार देखने लगे. अचानक उन्हें 2 रुपए का खयाल आया.
गरमी के दिन थे. कंधे पर छतरी लटका कर रमानाथजी घर से निकल पड़े. वे बाजार में बहुत घूमे, पर उन्हें आलू की तरह चिकने सिर वाला कोई दुकानदार नहीं मिला. तब उन्हें याद आया कि दुकान के सामने सफेद सांड़ बैठा था.
रमानाथजी सांड़ की तलाश में बाजार में घूमने लगे. सूरज सिर पर आ गया था. धूप तेज होने लगी थी. प्यास से गला सूख रहा था. एक होटल में उन्होंने 10 रुपए का चायनाश्ता कर लिया. इस तरह 10 रुपए का चूना लग गया. मगर वह कमबख्त सांड़ कहां मर गया? रमानाथजी माथे का पसीना पोंछते हुए सोच रहे थे.
सुबह होते ही सांड़ उठ कर सब्जी मंडी में मुंह मारने चला गया था. सब्जियां खाखा कर उस का पेट भर गया और दुकानदारों के डंडे खाखा कर उस की मोटी चमड़ी में जलन होने लगी. ऊपर से धूप भी तेज हो गई थी. तब वह एक नीम के पेड़ की छाया में बैठ कर जुगाली करने लगा. वहां नाई की दुकान थी. नाई की दाढ़ीमूंछ और सिर के बाल बढ़े हुए थे.
‘‘मिल गया सांड़, मिल गया. अब मैं दही वाले दुकानदार से 2 रुपए मांग लूंगा…’’ खुशी से चहकते हुए रमानाथजी नाई की दुकान में चले गए.
नाई को एक ग्राहक की हजामत बनाते देख रमानाथजी हैरानी से बोले, ‘‘वाह बेटा, जिंदगी में पहली बार देख रहा हूं कि एक रात… केवल एक रात में आलू जैसा चिकना सिर भालू बन गया है.’’
‘‘साहब, आप साफसाफ बोलें. यह आलू और भालू की भाषा मेरी समझ में नहीं आ रही है,’’ नाई ने कहा.
‘‘ऐ मिस्टर, मेरे 2 रुपए निकालिए,’’ रमानाथजी बोले.
‘‘2 रुपए… साहब, क्या आप चंदा मांगने आए हैं?’’
‘‘जी नहीं, रात को मैं ने 8 रुपए का दही खरीदा था. मैं ने आप को 10 रुपए का नोट दिया था. रात को आप के पास छुट्टा नहीं था. सो, अब मैं 2 रुपए लेने आया हूं.’’
‘‘आलू, भालू, दही, 2 रुपए… क्या है यह सब… लगता है, मैं पागल हो जाऊंगा,’’ नाई ने अपने सिर के बाल खुजाते हुए कहा.
‘‘घोर कलयुग आ गया है… अरे, आप ने केवल 2 रुपए मारने के लिए रातोंरात अपना धंधा ही बदल दिया. दाढ़ीमूंछ और सिर के बाल बढ़ा लिए. इतना ही नहीं, 60 साल का बुढ़ापा छोड़ 40 साल का जवान बन गए.
‘‘हाय रे घोर कलयुग, नीम के नीचे बैठा सांड़ सुबूत है कि मैं सच बोल रहा हूं,’’ रमानाथजी हैरानी से बाहर देखते हुए बोले.
रमानाथजी के पैरों तले जमीन खिसक गई, क्योंकि वहां अब सांड़ नहीं था. वे झट बाहर निकल कर बोले, ‘‘अरे, अभी तो यहां सांड़ बैठा हुआ था. लगता है, मुझे भरम हो गया था. बेकार ही तुम्हें बेईमान कह दिया.’’
रमानाथजी फिर से सांड़ की तलाश में धूप में छतरी लगा कर घूमने लगे. वे भूखप्यास से बेहाल हो गए. फिर से 10 रुपए का नाश्ता किया.
अब धूप में चलना मुश्किल था. रमानाथजी ने घर जाने के लिए 10 रुपए का रिकशा किया. रिकशा उन के घर की ओर चल पड़ा. वे मन ही मन अपने को कोसने लगे, ‘केवल 2 रुपए के लिए 30 रुपए का चूना…’
अचानक रिकशे वाले को उन्होंने रुकने को कहा. एक मकान के नीचे सांड़ आराम कर रहा था. वह नेताजी का मकान था. चमचों से घिरे नेताजी गद्दी पर बैठे चुनाव की बातें कर रहे थे कि रमानाथजी वहां पहुंच गए.
‘‘कहिए मतदाता महोदय, मैं आप की क्या सेवा कर सकता हूं? महल्ले में पक्की नालियों का इंतजाम, बिजली, नल…’’ नेताजी बोले.
‘‘नेताजी, अब मैं क्या कहूं? आप तो आप हैं. जनता की गाढ़ी कमाई के लाखों डकारने वाला केवल 2 रुपए मार सकता है? नहींनहीं, वह दही वाला कोई और ही था. अब मैं नहीं कहूंगा कि एक दही बेचने वाला रातोंरात नेता बन गया. वह भी केवल 2 रुपए मारने के लिए.
‘‘जाइए, आप पर 2 रुपए छोड़ दिए. नमस्कार,’’ रमानाथजी जल्दी से निकलते हुए बोले.
नेताजी और उन के चमचे कुछ समझ नहीं पाए और वे सब रमानाथजी को देखते रह गए.
रमानाथजी सांड़ की ओर देखते हुए रिकशे में बैठ गए. वे सोच रहे थे, ‘मुझे 30 रुपए की बरबादी का गम नहीं है. मुझे तो केवल 2 रुपए नहीं मिलने का दुख ज्यादा है.
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