लखविंदर प्लेटफार्म से बड़ी जल्दबाजी में निकलने की फिराक में था. वह तेजतेज कदमों से सीढि़यां उतरने लगा. प्लेटफार्म की आखिरी 2 सीढ़ियों से वह कुछ जल्दी में उतर जाना चाहता था. उस की टैक्सी स्टेशन के बाहर खड़ी थी. पता नहीं, ड्राइवर रुके या न रुके, आजकल सब को जल्दी है.

बेतरतीबी में अचानक से लखविंदर 2 सीढ़ियां एकसाथ उतर गया था और गिरतेगिरते बचा था. प्लेटफार्म की आखिरी सीढ़ी पर कोई सोया हुआ था.

लखविंदर अचानक से उस पर बरस पड़ा, ‘‘तुम लोगों को सोने के लिए और कोई जगह नहीं मिलती है क्या... यह स्टेशन तुम्हारे बाप का है क्या... आखिर सीढ़ियों के पास कौन सोता है.

‘‘तुम लोग शुरू से ही जाहिल और गंवार किस्म के लोग रहे हो. तुम्हें पता नहीं है कि मेरी टैक्सी बाहर खड़ी है और मैं तुम्हारी वजह से ही अभी गिरतेगिरते बचा हूं.’’

वह नौजवान अब उठ कर बैठ गया था. मैलेकुचैले कपड़ों में वह कोई मजदूर मालूम पड़ता था. सिरहाने रखे कंबल को तह कर के वह एक ओर रखते हुए बोला, ‘‘बाबूजी, दिनभर रिकशा खींचता हूं. प्लेटफार्म के किनारे इसलिए नहीं सोता कि लोग दिनभर बैग टांग कर इस प्लेटफार्म से उस प्लेटफार्म पर भागते रहते हैं और वहां आपाधापी मची रहती है.

‘‘खैर, हम गरीबों को नींद भी कहां आ पाती है. एक ट्रेन जाती नहीं कि दूसरी आ जाती है. वैसे, कायदे से जब हम किसी से टकराते हैं या किसी को गलती से हमारा पैर लग जाता है, तो हम सामने वाले को छू कर प्रणाम करते हैं. इस को शायद मैनर्स कहा जाता है. हिंदी में शिष्टाचार, लेकिन आपाधापी में हम शिष्टाचार भूलने लगे हैं...’’

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