अपने पसंदीदा ‘नटखट हिंदू विश्वविद्यालय, कठोरगंज, जिला चूमतापुर, नंगा प्रदेश’ के प्रांगण में टहलते हुए मुझे एक डायरी हाथ लगी. खोल कर देखने पर मैं समझ गया कि हो न हो यह किसी शरीर विज्ञान विषय के छात्र की है, क्योंकि उस में ‘गीले और पीले पाजामे में होली’ विषय पर निबंध की तैयारी का मसौदा था. उस ने अपने निबंध में लिखा था :

होली रंगों का त्योहार है और होली पर पाजामा आगे से गीला और पीछे से पीला होना कोई अनोखी बात नहीं है. होली है तो पाजामा तो गीला और पीला होगा ही न. अनोखी और राज वाली बात तो यह है कि आखिर पाजामा कैसे गीला और पीला हुआ?

मेरी रिसर्च में पहले पाजामे के गीले होने का ब्योरा है कि पाजामा गीला होने की 3 वजहें हो सकती हैं. पहली, किसी ने जबरदस्ती होली का गीला रंग डाल दिया हो. दूसरी, पाजामा डर के मारे गीला हुआ हो कि होली है पता नहीं कौन सी सविता टाइप भाभी आ कर पाजामा खींच ले और अंदर तक रंग दे.

वैसे, होली पर बड़ी टाइप की भाभियों की बात भी निराली छटा बिखेरती है. 45-46 की उम्र के बाद तो भाभियों के हर महीने में कुछ लाल होना मुमकिन ही नहीं होता है. झुर्री पड़ी ढीली त्वचा के आपस में चिपकने, रूखे और सूखेपन से निबटने के लिए भी उन्हें चिकनेपन के अहसास के लिए मौश्चराइजिंग क्रीम के भरोसे ही रहना पड़ता है.

सो, फिर से लाललाल होने और लाललाल करने की ख्वाहिश से उन्हें होली का इंतजार रहता ही होगा और वे पकड़ ही लेती होंगी अपने किसी न किसी घर वाले से ज्यादा प्यारे लगने वाले बाहर वाले जवां देवर को.

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