सविता मैम इसीलिए प्रिंसिपल सर को गुडि़या का परिचय देने से हिचक रही थीं.
गंगाधर शास्त्री ने बहुत देर तक कुछ सोचा, फिर सविता से बोले,
‘‘जाओ, गुडि़या को मेरे पास भेज दो…’’थोड़ी देर बाद सविता मैम खुद गुडि़या को गंगाधर सर के कमरे के बाहर छोड़ गईं.
गुडि़या धीरे से कमरे में दाखिल हुई.‘‘तुम गुडि़या हो…
’’ प्रिंसिपल गंगाधर शास्त्री ने पूछा.‘‘हां… पर आप मुझे डांटेंगे तो नहीं…’’
‘‘मैं क्यों डांटूंगा आप को…’’
‘‘सविता मैम बता रही थीं कि उन्होंने मुझे क्लास में बैठाने के पहले आप से इजाजत नहीं ली न, इसलिए…’’ गुडि़या अभी भी हिचक रही थी.
‘‘वह सब छोड़ो… तुम यहां आओ मेरे पास,’’
प्रिंसिपल सर ने अपनी कुरसी के बिलकुल पास में ही एक स्टूल रख लिया था.
गुडि़या कुछ देर हिचकी, फिर स्टूल पर आ कर बैठ गई और बोली,
‘‘सर, मुझे छूना नहीं…
नहीं तो आप को नहाना पड़ेगा…
मैं दलित हूं न…’’गंगाधर शास्त्री कुछ देर के लिए विचलित हुए.
उन्होंने अपने जनेऊ पर हाथ फेरा, फिर चोटी को छुआ और मन ही मन कुछ बुदबुदाए, फिर बोले, ‘‘इधर आओ… अभी तो मैं आप को नहीं छूने वाला.
पर, अगर आप ने मेरे सारे सवालों का सही जवाब दिया, तो फिर मैं आप को गोद में उठाऊंगा…
’’गंगाधर शास्त्री की बोली में काफी मिठास घुल गई थी. इस से गुडि़या का डर धीरेधीरे खत्म हो रहा था.
प्रिंसिपल गंगाधर शास्त्री के कोई बेटी नहीं थी. 2 बेटे थे. वे दोनों शहर के होस्टल में रह कर पढ़ाई कर रहे थे.गुडि़या की उम्र तकरीबन 8 साल के आसपास होगी.
वह फटी फ्रौक पहने हुए थी. 2 चोटियां बनी थीं, जिन्हें लाल रिबन से बांधा गया था. हाथपैर धुले और साफ लग रहे थे. चेहरे पर चमक दिख रही थी. आंखों में जरूर उदासी थी.
गंगाधर शास्त्री ने गुडि़या से पूछा, ‘‘यह तुम ने लिखा है?’’
गुडि़या ने अपना सिर हिला कर ‘हां’ बोला.‘‘बहुत अच्छा लिखा है तुम ने बेटा…’’
उन्होंने जानबूझ कर ‘बेटा’ शब्द बोला था, ‘‘पापा की बहुत याद आती है क्या?’’गुडि़या की आंखों में आंसू आ गए. वह कुछ नहीं बोली, केवल अपनी हथेलियों से आंख साफ करती रही.‘‘तुम पढ़ना क्यों चाहती हो?’’‘‘मुझे बड़ा साहब बनना है.’’
‘‘क्यों?’’गुडि़या कुछ नहीं बोली, केवल कमरे की ओर देखती रही. कुछ सोच कर प्रिंसिपल गंगाधर शास्त्री ने गुडि़या को पढ़ने की इजाजत दे दी.इस के बाद गुडि़या खुश हो कर वहां से चली गई. गंगाधर शास्त्री बहुत देर तक उस के बारे में ही सोचते रहे.गुडि़या रोज स्कूल आने लगी थी. सविता मैम उस का अच्छी तरह से खयाल रखती थीं.
एक दिन प्रिंसिपल गंगाधर शास्त्री ने गुडि़या को अपने पास बुलाया और बोले, ‘‘देखो, मैं तुम्हारे लिए क्या लाया हूं…’’
कहतेकहते उन्होंने एक पैकेट उसे थमा दिया. उस पैकेट में स्कूल की ड्रैस थी.
गुडि़या ने ड्रैस को अपने हाथों में ले तो लिया, फिर उन्हें लौटा दिया और बोली, ‘‘सर, मैं यह नहीं ले सकती…’’‘‘क्यों…’’
गंगाधर शास्त्री ने पूछा.‘
‘पापा कहा करते थे कि जो चाहिए,
वह खुद ही कमाओ…’’
‘‘पर, बच्चे जब तक छोटे होते हैं, तब तक तो वे कुछ कमा नहीं सकते…’’
‘‘नहीं सर, मैं नहीं ले सकती…’’‘‘अगर यह ड्रैस तुम्हारे पिताजी ने ला कर दी होती तब…’’
‘‘तब तो मैं ले ही लेती…’’‘‘अच्छा तो तुम मुझे भी पिता ही समझ कर रख लो…’’
‘‘तो क्या मैं आप को पिताजी बोल सकूंगी… वैसे, मुझे पापा कहना अच्छा लगता है…’’
गंगाधर शास्त्री कुछ देर तक सोचते रहे, फिर बोले, ‘‘अच्छा ठीक है…
तुम मुझे बाबूजी बोल सकती हो…’’‘‘बाबूजी क्यों?’’‘‘अरे, पहले पिताजी को बाबूजी ही बोला जाता था.
मैं भी अपने पिताजी को बाबूजी बोला करता था. यह पापा कहने से ज्यादा मीठा लगता है. समझ गई…’’‘‘ठीक है सर… बाबूजी…’’
इतना कह कर गुडि़या वह ड्रैस ले कर वहां से चली गई.गंगाधर शास्त्री के बेटे भी उन्हें बाबूजी कह कर संबोधित करते थे.
बेटे पास में नहीं थे तो उन के कान भी बाबूजी सुनने को तरसने लगे थे. अब कम से कम गुडि़या तो रोज आ कर उन्हें बाबूजी कह दिया करेगी.
सारे स्कूल में यह बात फैल गई थी कि प्रिंसिपल सर ने गुडि़या को अपनी बेटी बना लिया है. स्कूल से बात निकल कर गांव के गलियारों तक जा पहुंची थी.
सभी को हैरत इस बात की थी कि शुद्ध देशी ब्राह्मण, पूजापाठ करने वाले और जनेऊ, चुटिया रखने वाले गंगाधर शास्त्री को आखिर क्या पड़ी थी कि उन्होंने एक दलित की बेटी को अपनी बेटी बना लिया?इस बात से गंगाधर शास्त्री के परिचित उन से कन्नी काटने लगे.
बात उन के घर तक जा पहुंची. उन की पत्नी ने सारा घर सिर पर उठा लिया, ‘‘बताओ एक दलित की बेटी को गोद में उठाए फिरते हो, फिर घर आ कर सारा कुछ छू लेते हो…
पूरा घर अशुद्ध कर दिया…’’
गंगाधर शास्त्री ने शुरूशुरू में तो सफाई दी भी,
पर जब कोई उन की बात समझने को तैयार ही नहीं था, तो वे भी चुप हो गए.
स्कूल की पढ़ाई पूरी होने के बाद गुडि़या आगे की पढ़ाई के लिए बड़े शहर चली गई. वे उसे नियमित पैसे भेजते रहे.गंगाधर शास्त्री की पत्नी ने तो उन से रिश्ता निभाना जारी रखा,
पर उन के दोनों बेटों ने अपने पिता को माफ नहीं किया. बेटों ने उन से बोलना ही बंद कर दिया था.
इधर एक लंबे समय से गुडि़या ने फोन नहीं किया था. आखिरी बार उस ने फोन पर केवल इतना ही बोला था, ‘बाबूजी, मेरी नौकरी लग गई है और मैं ट्रेनिंग करने जा रही हूं…’
अब प्रिंसिपल गंगाधर शास्त्री के रिटायरमैंट का समय करीब था. वे अपने भविष्य निधि में जमा ज्यादातर रकम निकाल कर गुडि़या पर खर्च कर चुके थे.
उन्हें इस बात की चिंता थी कि जब रिटायरमैंट के बाद मिलने वाली एकमुश्त रकम की उम्मीद लगाए बैठे उन के बेटों को इस की जानकारी लगेगी, तो वे दोनों हायतोबा मचा देंगे. दरअसल, गंगाधर शास्त्री के बेटे प्लानिंग बना चुके थे कि बाबूजी के पैसों से वे अपना खुद का कारोबार शुरू करेंगे.प्रिंसिपल गंगाधर शास्त्री के रिटायरमैंट के कार्यक्रम में गांव का कोई भी शामिल नहीं हुआ. गांव वाले उन्हें भी गुडि़या की तरह अछूत मानने लगे थे. स्कूल का स्टाफ ही मौजूद था. घर से केवल उन की पत्नी आई थीं.