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मुझे अस्पताल में भरती करना पड़ा और तरुण के हाथों पर भी पट्टियां बंध चुकी थीं तो रिद्धि व सिद्धि को किस के आसरे छोड़ते. अम्माजी को बुलाना ही पड़ा. आते ही अम्माजी अस्पताल पहुंचीं.

‘देख, तेरी वजह से तरुण भी जल गया. कहते हैं न, आग किसी को नहीं छोड़ती. बचाने वाला भी जलता जरूर है.’ जाने क्यों अम्मा का आना व बड़बड़ाना मुझे अच्छा नहीं लगा. आंखें मूंद ली मैं ने. अस्पताल में तरुण नर्स के बजाय खुद मेरी देखभाल करता. मैं रोती तो छाती से चिपका लेता. वह मुझे होंठों से चुप करा देता. बिलकुल ताजा एहसास.

अस्पताल से डिस्चार्ज हो कर घर आई तो घर का कोनाकोना एकदम नया सा लगा. फूलपत्तियां सब निखर गईं जैसे. जख्म भी ठीक हो गए पर दाग छोड़ गए, दोनों के अंगों पर, जलने के निशान.

तरुण और मैं, दोनों ही तो जले थे एक ही आग में. राजीव को भी दुर्घटना की खबर दी गई थी. उन्होंने तरुण को मेरी आग बुझाने के लिए धन्यवाद के साथ अम्मा को बुला लेने के लिए शाबाशी भी दी.

तरुण को महीनों बीत चले थे भोपाल गए हुए. लेकिन वहां उस की शादी की बात पक्की की जा चुकी थी. सुनते ही मैं आंसू बहाने लगी, ‘‘मेरा क्या होगा?’’

‘परी का जादू कभी खत्म नहीं होता.’ तरुण ने पूरी तरह मुझे अपने वश में कर लिया था, मगर पिता के फैसले का विरोध करने की न उस में हिम्मत थी न कूवत. स्कौलरशिप से क्या होना जाना था, हर माह उसे घर से पैसे मांगने ही पड़ते थे.

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