कौर्पोरेट गुरु डबल श्री ने फरमाया है कि हिंसक नक्सली इलाकों के सरकारी स्कूल बंद कर वहां निजी स्कूल खोले जाएं क्योंकि इन इलाकों के सरकारी स्कूलों से आतंकी पैदा होते हैं. हवाई सफर करने वाले, एयरकंडीशंड कमरे में बैठ कर दुखी जनता को जीने की राह दिखाने वाले फाइवस्टार संत ने यह कह कर गरीबों की देशभक्ति पर वार किया है. यदि उन की बात पर विश्वास किया जाए तो इन इलाकों के सरकारी स्कूल हर साल आतंकी ही उगल रहे हैं और यदि डबल श्री की राय नहीं मानी गई तो देश का आधा हिस्सा आतंकियों के हाथों में जाने वाला है. डबल श्री का स्तर रामदेव और आसाराम जैसे बाबाओं से भी ऊंचा है. जहां रामदेव और आसाराम के भक्त कमजोर वर्ग और कमजोर दिमाग के हैं वहीं डबल श्री के भक्त मोटी जेब वाले हैं. दिमाग के बारे में कहा नहीं जा सकता क्योंकि अकसर ये आईआईटी या आईआईएमशुदा होते हैं, जिन्हें जमीन से ऊपर माना जाता है. इन की सनक को देश के शिक्षा जगत का बंटाधार करने को कमर कस कर तैयारी में लगी सरकारें इज्जत देती हैं. आखिरकार इन के अध्यात्म गुरु ने ही बिचौलिया बन कर कई बार उन की नाक कटने से बचाई है.
डबल श्री का सरकारी स्कूल बंद करवाने की सनक के पीछे एक कारण यह भी हो सकता है कि वे जताना चाहते हों कि सरकारी स्कूलों से सरकार को मिलता क्या है? उलट, अपनी जेब से मास्टरों को वेतन देना पड़ता है. उधर, निजी स्कूल कमाई का सब से फायदेमंद धंधा है. पाठ्यक्रम के बाहर ढेर सारी गैरजरूरी किताबें रखवाने और हर सप्ताह तीसरी कक्षा के बच्चों से प्रोजैक्ट रिपोर्ट तैयार करवाने से किताब माफिया और स्टेशनरी माफिया की रोटीरोजी चल रही है. इस बहाने शिक्षाविदों और अफसरों की भी कमाई हो जाती है.
सरकारी स्कूलों के अध्यापक महज मास्टर होते हैं, गुरु नहीं. सालभर वे या तो जानवर गिनते हैं या फिर गटरें और शौचालय. 10 साल में एक बार वे इंसान भी गिन लेते हैं. मतदाता सूची बनाने के काम में भी ये ही जोत दिए जाते हैं. बारबार होने वाले चुनावों में वे ड्यूटी भी दे आते हैं. बचाखुचा समय शिक्षा में जरा भी दिलचस्पी न लेने वालों को पढ़ाने में लगाते हैं. और पढ़ाना भी ऐसा कि सभी ढक्कन छात्रोंछात्राओं का उत्तीर्ण होना जरूरी है वरना इंक्रीमैंट को लाल झंडी. अब तो अंगरेज आकाओं की देखादेखी सरकारें भी अध्यापकों को ठेके पर रखने लगी हैं. यानी, सूखा वेतन. भविष्य निधि या ग्रैच्युटी भूल जाओ. पक्की नौकरी की कोई गारंटी नहीं. बेइज्जती न हो, इसलिए इन्हें संविदा शिक्षक कहा जाता है. यानी, सम्मानित हम्माल. ऐसे में बेचारे मास्टर से ही देश का भविष्य संवारने की उम्मीद की जाती है, जो सरासर अनुचित है.
सरकारी स्कूलों के भवनों की हालत तो ऐसी है कि पुरातत्त्व विभाग वाले इन्हें आसानी से धरोहर की श्रेणी में रख लें. पुताई की बात तो जाने ही दीजिए, कई स्कूलों में दरवाजेखिड़कियां तक नहीं हैं. रात को शराबखोरी होती है. नशीली दवाओं और शरीर का व्यापार होता है. फर्श उखड़ा होता है. लड़कियों के लिए पेशाबघर नहीं होते. नेताओं के जन्मदिन और विवाह की पार्टियां होती हैं. बरातें ठहराई जाती हैं. ऐसा नहीं कि हमारे शिक्षा शिकारी इस सब से अनजान हैं. अखबारों के पृष्ठ कई बार रंगे जा चुके हैं. लेकिन अध्यापकों को गधाहम्माली में जोते रखने वाले ये फाइवस्टार विद्वान इसे कोई मुद्दा नहीं मानते. डबल श्री ने शिक्षा के अधिकार को शायद शिक्षा की दुक?ान का अधिकार समझ लिया हो. उन जैसे लोगों को स्कूलों में पढ़ाने के लिए अच्छा वेतन मिलता है. क्यों न मिले? फीस जो जबरदस्त होती है.
घोषणा करते समय अध्यात्म गुरु भूल गए कि आतंकी इलाकों के मातापिता के पास क्या इतनी फीस देने की हैसियत है? क्या प्राणायाम से उन की गरीबी दूर हो जाएगी? क्या सुदर्शन क्रिया उन्हें अच्छा जीवन देगी? क्या ओउम उच्चारने से उन की सेहत ठीक हो जाएगी? डबल श्री का कहना है कि सदैव मुसकराते रहना चाहिए. फिर ये गिनती कर बताते हैं कि बचपन में हम इतनी बार मुसकराते हैं, जवानी में उस से कम और बुढ़ापे में उस से भी कम. लगता है उन्होंने मुसकराहट गिनने में पीएचडी की है.
यदि कोई इन का कहना मान कर किसी की मैयत में मुसकराता रहे तो उस के साथ क्या होगा, यह डबल श्री के अलावा सभी को मालूम है. अध्यात्म की दुकानें लगाने वालों से पूछा जाना चाहिए कि ये फाइवस्टार स्कूल खोलने के अलावा कितना सामाजिक काम करते हैं. उस में भी बच्चे भिश्तियों की तरह पीने का पानी अपने घर से ले जाते हैं. सिर्फ गरमी के दिनों में रेलवेस्टेशनों पर प्याऊ चालू कर देने से ही समाजसेवा नहीं होती. भजन में तालियां पीटने से किसी की हालत नहीं सुधरती. उस के लिए कर्म करना होता है. जो भारत में भाग्य के सामने ओछा माना जाता है. देश को पुराने काल में बांधे रखने वालों को देख कर ही स्टीव जौब घबरा कर स्वदेश चला गया था. उस ने सूचना क्षेत्र में जो क्रांति की, क्या वह धार्मिक कर्मकांड के कीचड़ में रह कर हो पाती? उस का भाग जाना दुनिया के लिए फायदेमंद रहा. यहां रहता तो वह क्या कर पाता, सिवा भभूत रमा कर, बाबा बन कर उपदेश पिलाने के.
आज महंगी शिक्षा ही बेहतर शिक्षा का पैमाना मानी जाती है. यदि ऐसा है तो इन फाइवस्टार स्कूलों में पढ़ने वाले अब तक तो भारत की तसवीर बदल चुके होते. इन का हर विद्यार्थी आईटी के ख्वाब देखता है. हर साल कितने ही आईआईटियंस निकलते रहते हैं. डिगरी मिली नहीं, कि वीजा के लिए भटकते रहते हैं. पासपोर्ट पर ठप्पा लगवाने के लिए बेताब हो उठते हैं. इस से तो सरकारी स्कूलों से निकले विद्यार्थी ही अच्छे जो देश के लिए कुछ करने को तैयार रहते हैं. फौज में देखिए, पुलिस में देखिए, ज्यादातर जवान सरकारी स्कूल वाले ही मिलेंगे. फाइवस्टार स्कूलों के विद्यार्थियों को देश से कोई मतलब नहीं होता. वास्तविकता का सामना करने की उन में हिम्मत नहीं होती. देश में शिक्षा के अड्डे दिनोंदिन बढ़ते जा रहे हैं और सरकारी स्कूल बंद होते जा रहे हैं. सरकार भी तो यही चाहती है कि गरीबों के बच्चे पढ़ें नहीं. यदि वे पढ़लिख कर आगे आ गए तो उन के कभी पूरे न किए जाने वाले वादों का क्या होगा?
निजी स्कूलों में विशेष अतिथि बन कर भाषण पिलाने वाले हमारे नेतामंत्री कभी सरकारी स्कूलों के बारे में चिंता नहीं करते. हां, मास्टरजी का स्थानांतर करवाने या रुकवाने में जरूर दिलचस्पी लेते हैं. छोटे शहरों में दो सौ से भी ज्यादा बड़ी निजी शिक्षण संस्थाएं… माफ कीजिए इंस्टिट्यूट हैं. उन्हें सस्ती जमीन मिल जाती है. नैपोलियन के शब्दकोष में असंभव शब्द नहीं है तो इन के पाठ्यक्रम में अनुत्तीर्ण शब्द नहीं है. सब के सब पास होते हैं. क्यों न हों जब लक्ष्मी ने सरस्वती को खरीद लिया है तो फिर किस में हिम्मत है कि रोक ले?
अब राष्ट्रीय संत की बात करें. वैसे तो हर तिलकधारी खुद को राष्ट्रीय संत कहलवाने की इच्छा रखता है. ये लोग अमीरों को बताते हैं कि जिंदगी कैसे जिएं. ज्ञान देने की बाकायदा तगड़ी फीस लेते हैं, देने वाले की जेब जो भरी हुई है. हमारे यहां विद्यादान को महादान कहा जाता है. लेकिन अब यह महाव्यापार बन गया है. बाप की अथाह कमाई वाले अमीरजादों के पास फुरसत ही फुरसत है.
मनोरंजन और जनसंपर्क बढ़ाने के लिए सत्संग से बढ़ कर और क्या विकल्प हो सकता है. सभी संत कहे जाने वाले महाव्यापारी हैं. इन का सारा कामकाज इंग्लिश में चलता है. यानी, देश से वे वैसे ही कटे हुए हैं. वे कभी गंदी बस्तियों में नहीं जाते. न ही उन के शिष्य जाते हैं. ध्यान का कैंप लगाते हैं लेकिन मलिन बस्तियों में सफाई कैंप नहीं लगाते. जगहजगह शिक्षा के अड्डे तो खोलते हैं लेकिन गरीब बच्चों की फीस का इंतजाम नहीं करते. जो कभी पैदल नहीं चलते, हमेशा एसी गाडि़यों या हवाई जहाज में उड़ते फिरते हैं, उन्हें जमीनी हकीकत कैसे मालूम हो सकती है?
जहां भी जाना हो तो दस दिन पहले ही शहर की दीवारें इन के शुभागमन के पोस्टरों से रंग दी जाती हैं. फिर ये महाराजा की तरह अपने लावलशकर के साथ पधारते हैं. हवाई अड्डे पर इन का शानदार स्वागत होता है. इन के प्रवचनों से फायदा होता किस को है? शिक्षा के नएनए अड्डे खोलने के लिए ये शहर से दूर सस्ते में जमीन लेते हैं. कुछ साल चलाया, फिर ऊंचे दाम पर बेच देते हैं. झाडि़यां और पेड़ शिक्षा के नाम पर बलिदान कर दिए जाते हैं. गांवों में शौचालय नहीं हैं. पहले बेचारी महिलाएं झाडि़यों की आड़ में निबट लेती थीं लेकिन शिक्षा माफिया उन का लाज का यह परदा भी छीन लेते हैं.
कितने संतों ने अपने अड्डे बनाने की जगह महिला शौचालय बनाने की समझ दिखाई है? इन्हें जगहजगह आश्रम बनाने की क्या जरूरत है. यह साफ जाहिर है कि ये सस्ते में जमीन खरीदना चाहते हैं ताकि वे अपना धंधा आगे बढ़ा सकें. ये धर्म के व्यापारी अपनी पत्रिका भी निकालते हैं और विज्ञापन बटोरते हैं. पत्रिका की सामग्री एकदूसरे से ली हुई होती है. नया लाएंगे कहां से? लगे हाथों दवाएं भी बनाने लगते हैं. आयुर्वेद और हर्बल के नाम पर पता नहीं क्याक्या बनातेबेचते हैं.
ये अध्यात्म गुरु अपनी मार्केटिंग के लिए महंगी मार्केटिंग एजेंसी हायर करते हैं. जिस शिविर में इन के त्याग, ईमानदारी, अपरिग्रह के डोज दिए जाते हैं, वहां इन के चित्र, प्रवचनों की सीडी, मालाएं, अंगूठियां, झोले, बटुए, किताबें, दवाएं वगैरा भी बेची जाती हैं. इन पर न तो बिक्रीकर लगाया जाता है और न ही सेवाकर. कमाई का तो हिसाब ही नहीं. निर्मल बाबा ने तो अपने बटुए का नाम तक बरकत का बटुआ रख दिया था. बटुआ खरीदने वाले की बरकत हो या न हो, पर बाबा की जेब जरूर भर जाती है. टीवी चैनलों पर खरीदे हुए भक्त प्रायोजित सवाल पूछते हैं और बाबा उन के जवाब देते हैं. सालभर में ऐसे कई हंगामे होते हैं और जनता अपनी गाढ़ी कमाई इन ठगों के हवाले कर देती है. झबरैले साईं बाबा की पोल उस की मौत के बाद खुल गई कि उसे तरहतरह के विदेशी परफ्यूम लगाने का शौक था, वह सोने के पलंग पर सोता था, उस
के शयनकक्ष से करोड़ों का बेहिसाब धन मिला. नित्यानंद के पुरुषनापुरुष होने के किस्से कई दिनों तक जबान पर चढ़े रहे. कई संत शराबकबाब और शबाब के आशिक हैं. धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक धाक जमाने के लिए संत बनने से अच्छा और सस्ता कोई दूसरा रास्ता नहीं है. सही है, जब तक मूर्ख हैं तब तक धूर्त हैं.