पलंग पर चारों ओर डौलर बिखरे हुए थे. कमरे के सारे दरवाजे व खिड़कियां बंद थीं, केवल रोशनदान से छन कर आती धूप के टुकड़े यहांवहां छितराए हुए थे. डौलर के लंबेचौड़े घेरे के बीच आनंदी बैठी थीं. उन के हाथ में एक पत्र था. न जाने कितनी बार वे यह पत्र पढ़ चुकी थीं. हर बार उन्हें लगता कि जैसे पढ़ने में कोईर् चूक हो गई है, ऐसा कैसे हो सकता है. उन का बेटा ऐसे कैसे लिख सकता है. जरूर कोई मजबूरी रही होगी उस के सामने वरना उन्हें जीजान से चाहने वाला उन का बेटा ऐसी बातें उन्हें कभी लिख ही नहीं सकता. हो सकता है उस की पत्नी ने उसे इस के लिए मजबूर किया हो.

पर जो भी वजह रही हो, सुधाकर ने जिस तरह से सब बातें लिखी थीं, उस से तो लग रहा था कि बहुत सोचसमझ कर उस ने हर बात रखी है.

कितनी बार वे रो चुकी थीं. आंसू पत्र में भी घुलमिल गए थे. दुख की अगर कोई सीमा होती है तो वे उसे भी पार कर चुकी थीं.

ताउम्र संघर्षों का सामना चुनौती की तरह करने वाली आनंदी इस समय खुद को अकेला महसूस कर रही थीं. बड़ीबड़ी मुश्किलें भी उन्हें तोड़ नहीं सकी थीं, क्योंकि तब उन के पास विश्वास का संबल था पर आज मात्र शब्दों की गहरी स्याही ने उन के विश्वास को चकनाचूर कर दिया था. बहुत हारा हुआ महसूस कर रही थीं. यह उन को मिली दूसरी गहरी चोट थी और वह भी बिना किसी कुसूर के.

हां, उन का एक बहुत बड़ा कुसूर था कि उन्होंने एक खुशहाल परिवार का सपना देखा था. उन्होंने ख्वाबों के घोंसलों में नन्हेंनन्हें सपने रखे थे और मासूम सी अपनी खुशियों का झूला अपने आंगन में डाला था. उमंगों के बीज परिवारनुमा क्यारी में डाले थे और सरसों के फूलों की पीली चूनर के साथ ही प्यार की इंद्रधनुषी कोमल पत्तियां सजा दी थीं. पर धीरेधीरे उन के सपने, उन की खुशियां, उन की पत्तियां सब बिखरती चली गईं. खुशहाल परिवार की तसवीर सिर्फ उन के मन की दीवार पर ही टंग कर रह गई. अपनी मासूम सी खुशियों का झूला जो बहुत शौक से उन्होंने अपने आंगन में डाला था, उस पर कभी बैठ झूल ही नहीं पाईं वे. हिंडोला हिलता रहता और वे मनमसोस कर रह जातीं.

शादी एक समझौता है, यह बात उन की मां ने उन की शादी होने से बहुत पहले ही समझानी शुरू कर दी थी. पर वे हमेशा सोचती थीं कि समझौता करने का तो मतलब होता है कि चाहे पसंद हो या न हो, चाहे मन माने या न माने, जिंदगी को दूसरे के हिसाब से चलने दो. फिर प्यार, एहसास, एकदूसरे के लिए सम्मान और समपर्ण की भावना कैसे पनपेगी उस बंधन में.

आनंदी को यह सोच कर भी हैरानी होती कि जब शादी एक बंधन है तो उस में कोईर् खुल कर कैसे जी सकता है. एकदूसरे को अगर खुल कर जीने ही नहीं दिया जाएगा या एक साथी, जो हमेशा पति ही होता है, दूसरे पर अपने विचार, अपनी पसंदनापसंद थोपेगा तो वह खुश कैसे रह पाएगा.

मां डांटतीं कि बेकार की बातें मत सोचा कर. इतना मंथन करने से चीजें बिगड़ जाती हैं. मां को उन्होंने हमेशा खुश ही देखा. कभी लगा ही नहीं कि वे किसी तरह का समझौता कर रही हैं. पापामम्मी का रिश्ता उन्हें बहुत सहज लगता था. फिर बड़ी दीदी और उस के बाद मंझली दीदी की शादी हुई तो उन को देख कर कभी नहीं लगा कि वे दुखी हैं. आनंदी को तब यकीन हो गया था कि उन्हें भी ऐसा ही सहज जीवन जीने का मौका मिलेगा. सारे मंथन को विराम दे, वे रंजन के साथ विवाह कर उन के घर में आ गईर् थीं.

शुरुआती दिन घोंसले का निर्माण करने के लिए तिनके एकत्र करने में फुर्र से उड़ गए, खट्टेमीठे दिन, थोड़ीबहुत चुहलबाजी, दैहिक आकर्षण और उड़ती हुई रंगबिरंगी तितलियों से बुने सपनों के साथ. समय बीता तो आनंदी को एहसास होने लगा कि रंजन और वे बिलकुल अलग हैं. रंजन रिश्ते को सचमुच बंधन बनाने में यकीन रखते हैं. खुल कर सांस लेना मुश्किल हो गया उन के लिए.

दरवाजे पर खटखट हुई तो आनंदी सोच और डौलरों के घेरे से हिलीं. अंधेरा था कमरे में. दोपहर कब की शाम की बांहों में समा गई थी. लाइट जलानी ही पड़ी उन्हें.

‘‘मांजी दूध लाया हूं. आप डेयरी पर नहीं आईं तो मैं ही देने चला आया. एकदम ताजा निकाल कर लाया हूं.’’

चुपचाप दूध ले लिया उन्होंने. वरना अन्य दिनों की तरह कहतीं, ‘बहुत पानी मिलाने लगे हो आजकल.’ जब मेरा बेटा आएगा न, तब एकदम खालिस दूध लाना या तब ज्यादा दूध देना पड़ेगा तुझे. मेरे बेटे को दूध अच्छा लगता है. बड़े शौक से पीता है.

कमरे में आईं तो रोशनी आंखों को चुभने लगी. निराशा की परतें उन के चेहरे पर फैली हुई थीं. ऐसा लग रहा था कि मात्र कुछ घंटों में ही वे 2 साल बूढ़ी हो गई हैं. उदास नजरों से उन्होंने एक बार फिर डौलरों को देखा. पलकें नम हो गईं. नहीं देखना चाहतीं वे इन डौलरों को. क्या करेंगी वे इन का. जीरो वाट का बल्ब जलाया उन्होंने. लेकिन धुंधले में भी डौलर चमक रहे थे. उन के भीतर जो पीड़ा की लपटें सुलग रही थीं, उन की रोशनी से खुद को बचाना उन के लिए ज्यादा मुश्किल था.

रंजन के साथ लड़ाई होना आम बात हो गई थी. वे कुछ फैसला लेतीं, उस से पहले ही उन्हें पता चला कि उन के अंदर एक अंकुर फूट गया है. सचमुच समझौता करने लगीं वे उस के बाद. उम्मीद भी थी कि रंजन घर में बच्चा आने के बाद सुधर जाएंगे. ऐयाशियां, दूसरी औरतों से संबंध रखना और शराब पीना शायद छोड़ दें, पर वे गलत थीं.

बच्चा आने के बाद रंजन और उग्र हो गए और बोलने लगे, बहुत कहती थी न कि चली जाएगी. अकेले बच्चे को पालना आसान नहीं. हां, वे जानती थीं इस बात को, इसलिए सहती रहीं रंजन की ज्यादतियों को.

तब मां ने समझाया, तू नौकरी करती है न, चाहे तो अलग हो जा रंजन से. हम सब तेरे साथ हैं. वह नहीं मानी. जिद थी कि समझौता करती रहेंगी. सुधाकर पर रंजन का बुरा असर न पड़े, यह सोच कर दिल पर पत्थर रख कर उसे होस्टल में डाल दिया.

उन की सारी आस, उम्मीद अब सुधाकर पर ही आ कर टिक गई थी. बस, वे चाहती थीं कि सुधाकर खूब पढे़ और रंजन के साए से दूर रहे. वैसे भी रंजन के सुधाकर को ले कर न कोई सपने थे न ही वे उस के कैरियर को ले कर परेशान थे. संभाल लेगा मेरा बिजनैस, बस वे यही कहते रहते. आनंदी नहीं चाहती थीं कि सुधाकर उन का बिजनैस संभाले जो लगभग बुरी हालत में था. उन का औफिस दोस्तों का अड्डा बन चुका था.

वे कभी समझ ही नहीं पाईं रंजन को. कोई अपने परिवार से ज्यादा दोस्तों को महत्त्व कैसे दे सकता है, कोई अपनी पत्नी व बेटे से बढ़ कर शराब को महत्त्व कैसे दे सकता है, कोई परिवार संभालने की कोशिश कैसे नहीं कर सकता. पर रंजन ऐसे ही थे. जिम्मेदारी से दूर भागते थे. कमिटमैंट तो जैसे उन के लिए शब्द बना ही नहीं था.

यह तो शुक्र था कि सुधाकर मेहनती निकला. लगातार आगे बढ़ता गया. रंजन उन दोनों को छोड़ कर किसी और औरत के पास रहने लगे. सुधाकर अकसर दुखी रहने लगा. बिखरे हुए परिवार में सपने दम न तोड़ दें, यह सोच कर आनंदी ने अपनी जमापूंजी की परवा न कर उसे विदेश भेज दिया. वे चाहती थीं कि बेटा विदेश जाए, खूब पैसा और नाम कमाए ताकि उन के जीवन की काली परछाइयों से दूर हो जाए. उसे उन के जीवन की कड़वाहट को न झेलना पड़े. पतिपत्नी के रिश्तों में आई दीवारों व अलगाव के दंश उसे न चुभें.

मां से अलग होना सुधाकर के लिए आसान न था. उस ने देखा था अपनी मां को अपने लिए तिलतिल मरते हुए, उस की खुशियों की खातिर त्याग करते हुए. वह नहीं जाना चाहता था विदेश, पर आनंदी पर जैसे जिद सवार हो गई थी. सब ने समझाया था कि ऐसा मत कर. बेटा विदेश गया तो पराया हो जाएगा. तू अकेली रह जाएगी. पर वे नहीं मानीं.

वे सुधाकर को कामयाब देखना चाहती थीं. वे उसे रंजन की परछाईं से दूर रखना चाहती थीं, मां की ममता तब शायद अंधी हो गईर् थी, इसीलिए देख ही नहीं पाईं कि बेटे को यह बात कचोट गई है.

पिता का प्यार जिसे न मिला हो और जो मां के आंचल में ही सुख तलाशता हो, जिस के मन के तार मां के मन के तारों से ही जुड़े हों, उस बेटे को अपने से दूर करने पर आनंदी खुद कितनी तड़पी थीं, यह वही जानती हैं. पर सुधाकर भी आहत हुआ था.

कितना कहा था उस ने, ‘मां, तुम मेरे बिना कैसे रहोगी. मैं यहीं पढ़ सकता हूं.’ पर वे नहीं मानीं और भेज दिया उसे आस्ट्रेलिया. फिर उसे वहीं जौब भी मिल गई. वह बारबार उन्हें बुलाता रहा कि मां अब तो आ जाओ. और वे कहती रहीं कि बस 2 साल और हैं नौकरी के, रिटायर होते ही आ जाऊंगी. वे जाने से पहले सारे लोन चुकाना चाहती थीं. बेटे पर कोई बोझ डालना तो जैसे आंनदी ने सीखा ही नहीं था. फिर विश्वास भी था कि बेटा तो उन्हीं का है. एक बार सैटल हो जाए तो कह देंगी कि आ कर सब संभाल ले. बुला लेंगी उसे वापस. कामयाबी की सीढि़यां तो चढ़ने ही लगा है वह.

नहीं आ पाया सुधाकर. जौब में उलझा तो खुद की जड़ें पराए देश में जमाने की जद्दोजेहद में लग गया. फिर उस की मुलाकात रोजलीना से हुई और उस से ही शादी भी कर ली. मां को सूचना भेज दी थी. पर इस बार आने का इसरार नहीं किया था. रोजलीना का साथ पा कर उस के बीते दिनों के जख्म भर गए थे. अपने परिवार को सींचने में वह मां के त्याग को याद रखना चाह कर भी नहीं रख पाया.

रोजलीना ने साफ कह दिया था कि वह किसी तरह की दखलंदाजी बरदाश्त नहीं कर सकती. वैसे भी वह मानती थी कि इंडियन मदर अपने बेटों को ले कर बहुत पजैसिव होती हैं, इसलिए वह नहीं चाहती थी कि आनंदी वहां उन के साथ आ कर रहें.

सुधाकर मां से यह सब नहीं कह सकता था. मां की तकलीफें अभी भी उसे कभीकभी टीस दे जाती थीं. पर अब उस की एक नई दुनिया बस गई थी और वह नहीं चाहता था कि मांपापा की तरह उस के वैवाहिक जीवन में भी कटुता की काली छाया पसरे.

रोजलीना को वह किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहता था. एक सुखद वैवाहिक जीवन की राह न जाने कब से उस के भीतर पलती आईर् थी. बहुत कठिन था उस के लिए मां और पत्नी में से एक को चुनना, पर मां के पास वह वापस लौट नहीं पा रहा था और पत्नी को छोड़ना नहीं चाहता था.

वैसे भी मां का उसे अपने से दूर करने की टीस भी उसे अकसर गहरी पीड़ा से भर जाती थी. पिता के प्यार से वंचित सुधाकर मां से दूर नहीं रहना चाहता था. भले ही मां ने उसे भविष्य संवारने के लिए अपने से उसे दूर किया था, पर फिर भी किया तो, अकसर वह यही सोचता. ऐसे में रोजलीना का पलड़ा भारी होना स्वाभाविक ही था.

आनंदी को लगा जैसे उन का गला सूख रहा है, पर पानी के लिए वे उठीं नहीं. रात गहरा गईर् थी. वे समझ चुकी थीं कि सुधाकर को विदेश भेजने की उन की जिद ने उन के जीवन में भी इस रात की तरह अंधेरा भर दिया है. बेटे की खुशियां चाहना क्या सच में इतना बड़ा कुसूर हो सकता है या नियति की चाल ही ऐसी होती है. शायद अकेलापन ही उन के हिस्से में आना था. वे जान चुकी थीं कि वह जा चुका है कभी न लौटने के लिए. उन्होंने एक बार और पत्र पढ़ा.

लिखा था, ‘‘मां, आई एम सौरी. मैं आप से दूर नहीं जाना चाहता था पर मुझे जाना पड़ा और अब चाह कर भी मैं स्वदेश वापस लौटने में असमर्थ हूं. आप के त्याग को कभी भुलाया नहीं जा सकता और इस बात की ग्लानि भी रहेगी कि मैं आप के प्रति कोई फर्ज न निभा सका. शायद पापा से विरासत में मुझे यह अवगुण मिला होगा. जिम्मेदारी नहीं निभा पाया, तभी तो डौलर भेज रहा हूं और आगे भी भेजता रहूंगा. पर मेरे लौटने की उम्मीद मत रखना. अब मैं इस दुनिया में बस गया हूं, यहां से बाहर आ कर फिर भारत में बसना मुमकिन नहीं है. आप भी ऐसा ही चाहती थीं न.’’

आनंदी ने डौलरों पर हाथ फेरा. पूरी ममता जिस बेटे पर लुटा दी थी, उस ने कागज के डौलर भेज उस ममता के कर्ज से मुक्ति पा ली थी.

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