सु बह से ही रुकरुक कर बारिश हो रही थी. बच्चे नहाने का पूरा मजा लूट रहे थे. गांव के सभी तालतलैया लबालब थे.दोपहर बाद बारिश रुकी. थोड़ी ही देर बाद गांव में तूफान सा आ गया. लोग एक ही दिशा में भागे जा रहे थे. गांव के दक्षिणी छोर पर भारी भीड़ जमा हो रही थी. जोरजोर से शोर हो रहा था. ऐसा जान पड़ता था, जैसे कोई बहुत बड़ा तमाशा हो रहा हो.जब कालू मेहतर वहां पहुंचा, तो दिल दहला देने वाला नजारा था. अलादीन के चारों बेटे अपने बाप के जनाजे के पास बैठे सुबक रहे थे.

कोई भी उन की हालत से पसीज नहीं रहा था. सब मरनेमारने को तैयार खड़े नजर आ रहे थे. किसी के पास लाठी, तो किसी के पास फावड़ा था.मौलवी नूरुद्दीन गिड़गिड़ा रहा था, ‘‘आखिर हम क्या करें? हमारा कब्रिस्तान पानी से लबालब है, मुरदा दफनाने को जगह तो चाहिए न?’’‘‘अपने मुरदे को यहां से ले जाओ, वरना हम इसे आग लगा देंगे.

किस से पूछ कर खोदी है यहां कब्र?’’ पंडितजी ने तैश में आ कर कहा.‘‘रहम करो पंडितजी, हमें लाश को दफना लेने दो या कोई दूसरी जगह बता दो,’’ नूरुद्दीन फिर गिड़गिड़ाया.‘‘हम ने आप को जगह बताने का ठेका नहीं ले रखा. मुरदे को उठा कर चलते बनो,’’ पंडितजी ने गुस्से से कहा.‘‘हमारा कब्रिस्तान कब्र खोदने लायक नहीं है. फिर हम कोई रोजरोज तो मुरदे यहां दफनाएंगे नहीं.

मौत पर तो किसी का बस नहीं होता,’’ नूरुद्दीन ने समझाया.‘‘ये ऐसे ही नहीं मानेंगे, इस कब्र को मिट्टी से भर डालो,’’ पंडितजी ने अपने आदमियों से कहा.पंडितजी का इशारा पाते ही कुछ जवान लड़के हाथों में फावड़े ले कर कब्र पाटने के लिए आगे बढ़े. उन को आगे बढ़ता देख कालू मेहतर बोल उठा, ‘‘रुक जाओ. खबरदार, किसी ने कब्र पाटने की हिम्मत की तो…’’जवानों के आगे बढ़ते कदम जाम हो गए. अचानक पंडितजी ने कालू की ओर देखते हुए कहा, ‘‘अरे कालू, तू ने आने में देर कर दी.’’

‘‘हां पंडितजी, मैं ने आने में देर कर दी, वरना अब तक मुरदा कब का ही दफनवा देता,’’ कालू ने उन की ओर देखते हुए कहा.‘‘क्यों?’’ पंडितजी ने सवाल किया.‘‘क्योंकि धर्मकर्म तो सब जीतेजी के झगड़े हैं. मरे हुए आदमी का कोई धर्म नहीं होता, वह तो माटी होता है.’’‘

‘लेकिन, एक मुसलमान हिंदू मंदिर की जगह पर तो नहीं दफनाया जा सकता…’’‘‘हिंदू मंदिर है ही कहां? यह तो एक बेरी का पेड़ है.’’‘‘यह एक पेड़ ही नहीं, बल्कि इस से भी ज्यादा बहुतकुछ है.’’‘‘क्या है? बताओ तो, जरा हम भी सुनें.’’‘‘इस पेड़ की पूजा होती है. हर सुहागिन हिंदू औरत इस पेड़ पर आए महीने की शुक्ल अष्टमी को तेल चढ़ा कर अपने बच्चों के लिए आशीष मांगती है.’’

‘‘हिंदू औरत इस की पूजा करती है, तभी यह हिंदू पेड़ है?’’ कालू मेहतर ने कहा.‘‘हां.’’‘‘बहुत खूब, पंडितजी. आप जैसे लोगों ने पेड़ों को भी जातियों में बांट दिया. पेड़ का धर्म तो परोपकार होता है, वह हिंदूमुसलिम का फर्क नहीं करता. इस बेरी के बेर तो सभी खाते हैं.

इस के ‘देवता’ ने तो कभी किसी का हाथ नहीं पकड़ा?’’‘‘तू समझता क्यों नहीं कालू, आखिर इस पेड़ के साथ हमारी पूजा का सवाल जुड़ा हुआ है, इसीलिए तो इस के चारों ओर की जगह खाली रखवा रखी है, नहीं तो यहां कब के मकान बन गए होते.’’

‘‘आप जैसे लोगों के लिए देवस्थान अलग बनाना कोई बड़ी बात नहीं है. आप इस बेरी के देवता को दूसरी बेरी में बैठा दीजिए.’’‘‘नामुमकिन.’’‘‘जब आप लोगों के घरों के भूत भगा सकते हैं, उन के रूठे देवता मना सकते हैं, तब इस देवता को दूसरी जगह क्यों नहीं ले जा सकते?’’

‘‘इन दोनों बातों में रातदिन का फर्क है.’’‘‘कोई फर्क नहीं… फर्क है तो बस आप की नीयत का…’’‘‘मेरी नीयत में कोई खोट नहीं है. दूसरों के दुखों को दूर करने के लिए ही मैं उन के भूत भगाता हूं.’’‘‘बड़े हमदर्द हैं आप दूसरों के… तभी तो शायद आप ने आज गांव में यह बवंडर फैला दिया कि मुसलिम हमारे देवता की जगह पर कब्जा कर रहे हैं.’’‘‘मैं ने कोई बवंडर नहीं फैलाया.

मैं ने तो गांव वालों को हकीकत बताई है.’’‘‘हकीकत नहीं पंडितजी, आप ने घरघर जा कर यह आग लगाई है.’’‘‘यह झूठ है. अगर मैं ने गांव में यह आग लगाई है, तो मैं किसी भी गाय की कसम खाने को तैयार हूं. चल कौन सी गाय की पूंछ पकड़वाता है. अगर मैं सच्चा हूं तो भगवान मेरी रक्षा करेंगे, नहीं तो मैं आसऔलाद समेत गल जाऊंगा. मुझ पर झूठे इलजाम मत लगाओ.’’

‘‘इलजाम सोलह आने सच हैं. गाय की पूंछ पकड़ना तो आप लोगों ने पेशा बना रखा है. क्या आप मेरे घर नहीं गए? आप ने मुझे नहीं कहा कि उस बेरी के पास चलो, नहीं तो वे लोग कब्जा कर लेंगे.’’‘‘हां, यह तो कहा था.’’‘‘आप ने न सिर्फ मुझे, बल्कि यहां आए हुए सभी लोगों के घरघर जा कर यही बात कही है. तभी हम सब यहां आए हैं, नहीं तो हमें कोई खुशबू नहीं आ रही थी कि वहां चलना है.’’

‘‘हां, कहा है. आप सब हिंदू हैं और मैं आप सब का पुजारी हूं. पुजारी होने के नाते यह मेरा फर्ज था… मैं ने उसे पूरा किया… और अब आप लोग जानो…’’‘‘हम सब हिंदू हैं?’’‘‘हां, इस में कोई शक नहीं.’’‘‘नहीं पंडितजी… आप सब हिंदू हो सकते हैं, पर मैं हिंदू नहीं हूं. मैं तो एक मेहतर हूं, गयाबीता हूं और न जाने क्याक्या हूं.’’‘‘यह तू क्या कह रहा है?’’‘‘मैं वही कह रहा हूं, जो आप ने कहा था.

याद करो, उस दिन को…’’‘‘किस दिन को?’’‘‘कृष्ण जन्माष्टमी… याद आया? मैं मंदिर में जाने लगा तो आप ने मुझे धक्के मार कर, गालियां दे कर बाहर निकाल दिया था. उस दिन मैं छोटी जाति का था और आज जब आप को भीड़ इकट्ठी करनी पड़ रही है, तब आप मुझे हिंदू बना कर मुझे इज्जत बख्श रहे हैं. क्या उस दिन मैं हिंदू नहीं था?’’‘‘मुझ से गलती हो गई थी.’’‘‘गलती तो मेरी थी, जो मैं दलित हो कर भी मंदिर दर्शन करने चल दिया.’’‘‘उन बातों को भूल जाओ.

आज मैं तुम्हें सारा मंदिर घुमाघुमा कर दिखा दूंगा.’’‘‘नहीं, मैं ऐसा काम नहीं करूंगा, जिस से आप को सारा मंदिर एक बार फिर धो कर पवित्र करना पड़े.’’‘‘देखो कालू, उस दिन मैं अंधा था. अब मेरी आंखें खुल गई हैं… मुझे और जलील न करो.’’‘‘आप अब भी अंधे हैं. अगर उस मंदिर और भगवान में मेरा कोई हिस्सा न था, तो इस बेरी के देवता पर मेरा क्या हक है? यहां भी तो सवर्णों का देवता है.’’‘‘अरे, तू समझता क्यों नहीं है, अवर्णसवर्ण क्या होता है?’’

‘‘अगर अवर्णसवर्ण नहीं होते, तो यह झमेला क्यों खड़ा कर रखा है? आप धर्मकर्म के लफड़े को छोड़ कर इनसानियत का रास्ता क्यों नहीं अपना लेते? अगर धर्मकर्म और अवर्णसवर्ण नहीं होते, तो आप ने इन लोगों को क्यों बुला रखा है? क्यों ये मरनेमारने को तैयार खड़े हैं?

‘‘पंडितजी, इनसानियत के नाते मुरदा अब भी यहां दफना लेने दीजिए, नहीं तो मुरदों के ढेर लग जाएंगे, तब न किसी को गाड़ने की जगह मिलेगी और न जलाने की.’’‘‘चाहे धरती उलटपलट हो जाए, पर धर्म भ्रष्ट नहीं होने दूंगा. किसी भी कीमत पर अलादीन को यहां नहीं दफनाया जाएगा.’’‘‘पंडितजी, सीधी तरह क्यों नहीं कह देते कि आज आप दोनों जातियों में खून की नदियां बहती देखना चाहते हैं?’’‘‘मुझे झगड़े से कोई सरोकार नहीं. मैं गांव में किसी तरह शांति चाहता हूं.’’

‘‘यदि दिल से शांति चाहते हो, तो आप को और गांव वालों को मेरी यह बात माननी पड़ेगी.’’‘‘कैसी बात?’‘‘मैं हिंदू या मुसलिम होने से पहले एक इनसान हूं और इसी नाते यह सबकुछ कर रहा हूं. यह जगह गांव से कुछ दूर है. इसे मैं ‘हड़खोरी’ (जहां मरे हुए पशुओं को डाला जाता है और उन के अस्थिपंजर इकट्ठे किए जाते हैं) बना लूंगा, और मेरी मंजूरशुदा ‘हड़खोरी’ की जमीन जो गांव के बिलकुल पास आ गई है, उसे मैं मंदिर और कब्रिस्तान दोनों के लिए दे दूंगा.’’

दोनों तरफ के लोगों में खुसुरफुसुर होने लगी. पंडितजी के माथे पर सोच की रेखाएं उभर आईं. अलादीन के जनाजे के इर्दगिर्द बैठे लोगों को भी कुछ उम्मीद की किरण दिखाई देने लगी.‘‘पंडितजी, आप कुछ बोले नहीं?’’ कालू मेहतर ने पूछा.‘‘मुझे तो कुछ समझ नहीं आता.

यदि दोनों जगहों की अदलाबदली हो गई, कब्रिस्तान और पूजास्थल एक जगह हो गए, तो सतकाली (लगातार 7 अकाल) पड़ेगी. गांव उजड़ जाएगा… सत्यानाश हो जाएगा,’’ पंडितजी ने आखिरी हथियार फेंका.‘‘समझ में क्यों नहीं आता आप के? सतकाली पड़ेगी तब देखा जाएगा, पर फिलहाल तो शांति हो जाएगी. न गांव वालों को मरे पशुओं की सड़ांध आएगी और न कभी किसी को दफनाने की शिकायत होगी.’’‘‘इन के पास कब्रिस्तान की जगह न होती तब तो सोचते…’’

‘‘होने से क्या होता है? कुदरती मुसीबतों से बचने के लिए आधी से कम दे देना.’’‘‘लेकिन, यह होगा कैसे?’’‘‘हड़खोरी भी 2 बीघा जमीन पर है, और इतनी ही यह जमीन है. उस में भी एक तरफ बेरी का पेड़ है, आप चंदे से बाद में वहां चारदीवारी बनवा लेना, सारी दिक्कतें मिट जाएंगी.’’‘‘लेकिन…?’’‘‘लेकिनवेकिन कुछ नहीं, आप इस बेरी वाले देवता को उस बेरी में बैठा दीजिए.’’

‘‘और तुम…?’’‘‘मेरे इस स्थान पर हड़खोरी बनाते वक्त जो दिक्कत आएगी, उस से अपनेआप ही निबट लूंगा,’’ कालू मेहतर ने अपनी बात कही और फिर गांव वालों से पूछा, ‘‘किसी को कोई एतराज हो, तो अब भी बोल देना, भाइयो?’’‘‘हमें कोई एतराज नहीं, बस झगड़ा हमेशाहमेशा के लिए मिट जाना चाहिए,’’ एक बूढ़े ने सब की तरफ से कहा.‘‘ठीक है, मैं अभी जा कर उस हड़खोरी को साफ करवा देता हूं. आप इन को बता दीजिए कि अलादीन की कब्र किस ओर खोदें,’’ कह कर कालू मेहतर चल पड़ा.सभी की तनी हुई लाठियां झुक गईं. सब अपनेअपने घरों की ओर चल पड़े.3-4 घंटे बाद हड़खोरी साफ हो गई. उस जमीन पर पंडितजी ने गंगाजल छिड़का.

फिर उन्होंने हवन कर के हड़खोरी को पवित्र किया और मंत्र बोलते हुए पुरानी बेरी के देवता को इस नई बेरी में बैठाया. उधर जो जगह मुसलिमों को दी गई, उस में मौलवीजी ‘तिलावत’ (इसलाम के मुताबिक क्रियाकर्म) करने में लग गए.शाम तक अलादीन की लाश दफना दी गई. गांव में सब तरफ कालू मेहतर की सूझबूझ की बातें हो रही थीं.वक्त गुजरता रहा और कालू मेहतर अपना काम करता रहा. न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर, अपने काम से काम.

एक दिन जब वह मरी हुई भैंस हड़खोरी में डाल रहा था, तो अचानक उस ने आवाजें सुनीं, ‘‘अरे ओ कालू, यहां जानवर मत डालना.’’‘‘क्यों भाई, क्या बात है? इस हड़खोरी में भी पशु न डालूं, तो कहां डालूं?’’ कालू मेहतर ने सवाल किया.‘‘कहांवहां का मुझे पता नहीं, यहां तो मेरा प्लाट है.’’‘‘यहां और प्लाट?’’‘‘हां, सरपंच ने परसों ही दिया है.’’‘‘कुछ तो शर्म करते भाई, यदि प्लाट ही लेना था तो किसी अच्छी जगह लेते.’’‘‘तू तो भोला है कालू, शर्म किस बात की?

बाबा आना चाहिए, चाहे पिछली गली से आ जाए. फिर गांव में और जगह है ही कहां?’’‘‘ठीक है भाई, तेरी मरजी. मैं इसे दूसरी जगह डाल दूंगा,’’ कह कर कालू मेहतर भैंस को दूसरी जगह डालने चल दिया.भैंस को दूसरी जगह डाल कर वह अपनी गधागाड़ी पर लौट आया. घर पहुंच कर वह हाथमुंह धो ही रहा था कि शेरू की आवाज सुनाई दी, ‘‘कालू, उस भैंस को उठा, उसे तू मेरे प्लाट में डाल आया है. आइंदा वहां कोई जानवर मत डालना, नहीं तो खैर मत समझना.’’

‘‘अरे भाई, उसे तो मैं हड़खोरी में ही डाल कर आया हूं,’’ कालू मेहतर ने धीरे से कहा.‘‘किस की हड़खोरी? वहां तो मेरा प्लाट है,’’ शेरू ने धौंस जमाई.‘‘ये प्लाट कब काट दिए?’’ कालू ने पूछा.‘‘तुझे पता नहीं, सरपंचों के चुनाव नजदीक हैं?’’‘‘तो यह करामात सरपंच ने की है. ठीक है भाई, आप चलो. मैं अभी आता हूं… उठा लूंगा. फिर कभी नहीं डालूंगा,’’ कह कर कालू मेहतर ने अपना पिंड छुड़़ाया.उस के चले जाने पर कुछ देर तो कालू मेहतर हैरानपरेशान सा बैठा रहा.

फिर गांव के लोगों के पास चला गया. सभी लोग मंदिर के चबूतरे पर इकट्ठे हो गए.कालू मेहतर ने पंडितजी से कहा, ‘‘हड़खोरी पर कब्जा हो गया है, वहां लोगों ने प्लाट ले लिए हैं, मैं मरे पशुओं को कहां डालूंगा?’’पंडितजी ने कोई जवाब नहीं दिया. वे लोगों की शक्ल पहचानने में लगे थे. कुछ देर बाद कालू मेहतर ने फिर कहा, ‘‘पंडितजी, मैं जानवरों को कहां डालूंगा?’’

‘‘अरे कालू, पंडितजी क्या जवाब देंगे, इन्होंने खुद वहां प्लाट ले रखा है,’’ भीड़ में से एक आवाज आई.‘‘यदि यह सच है तो डूब मरो, पंडितजी डूब मरो. याद करो उस दिन को, जब अलादीन को 5 हाथ जमीन नहीं देने दे रहे थे और आज खुद हड़खोरी पर कब्जा कर रहे हो?’’ कालू ने गरम होते हुए कहा.‘‘अरे, बोलते क्यों नहीं पंडितजी, कहां गई आप की वह भक्ति? कहां है आप का वह धर्म, जो दूसरों को गलत काम न करने की सलाह देता है? चुल्लूभर पानी में डूब मरो… ‘धर्मात्मा’ हो कर भी 20-30 गज टुकड़े के लिए मर रहे हो. बोलो, मैं पशुओं को कहां डालूंगा?’’

कालू मेहतर ने तेज आवाज में कहा.‘‘भाई कालू, जो करेगा, वह भरेगा. तू कोई और काम देख ले,’’ भीड़ में से फिर वही आवाज आई.‘‘पंडितजी चुप क्यों हो? मेरी बातों का जवाब दो… या तो यह कब्जा छोड़ देना या अपनी मरी हुई भैंस हड़खोरी से उठा लाना और अपने घर, खेत में कहीं डाल लेना. मैं आइंदा यह काम नहीं करूंगा,’’ कह कर कालू मेहतर चला गया.

दिन छिप चुका था. अंधेरा भी हो चुका था. हवा जोरों से बह रही थी. किसी ने आ कर कालू मेहतर का दरवाजा खटखटाया.कालू मेहतर की छोटी लड़की ने दरवाजा खोला. 2 आदमी अंदर आ गए. कालू भी बरामदे में आ गया.कालू मेहतर को देखते ही पंडितजी ने कहा, ‘‘जय श्रीरामजी की.’’कालू मेहतर ने कोई जवाब नहीं दिया. वह खामोश बैठा पंडितजी के साथ आए सरपंच को सवालिया निगाहों से घूरता रहा. कुछ पल बीतने पर पंडितजी ने कहा, ‘‘यह लो कालू, संभालो.’’‘‘क्या है?’’ कालू मेहतर ने बेरुखी से पूछा.

‘‘प्लाट का पट्टा और 20,000 रुपए हैं. देखो, हड़खोरी वाले मामले को अब मत उछालना,’’ कहते हुए पंडितजी ने दोनों चीजें कालू को पकड़ाईं.‘‘मुझे इन से कोई सरोकार नहीं. आप की चीजें आप को मुबारक हों,’’ कहते हुए कालू मेहतर ने दोनों चीजें वापस करनी चाही.तभी सरपंच बोल उठा, ‘‘देखो कालू, गांव की राजनीति बड़ी घटिया होती है. उस में टांग अड़ा कर तुझे कुछ नहीं मिलेगा, उलटे तू उजड़ जाएगा.’’‘‘मुझे राजनीति से कोई मतलब नहीं. मैं तो हड़खोरी को टुकड़ों में बंटा नहीं देखना चाहता.

मुझे या तो हड़खोरी चाहिए या इस काम से नजात.’’‘‘भाड़ में जाए तारी हड़खोरी. तू ने मैला ढोने का ठेका ले रखा है क्या? इन पैसों से कोई और काम देख लेना.’’‘‘नहीं सरपंच साहब, मैं बिक नहीं सकता. अपने हक के लिए मैं कचहरी का दरवाजा खटखटाऊंगा,’’ कालू मेहतर ने इतमीनान से कहा.‘‘वहां तो तू हारेगा. पहले तो दानवीर कर्ण बन कर अपनी मंजूरशुदा हड़खोरी की जमीन गांव को दान में दे चुका है. और अब वाली हड़खोरी की जमीन पंचायत की है. इस जमीन पर पट्टे बांटने का पंचायत को पूरा हक है.

‘‘वैसे भी केस लड़ना कोई बच्चों का खेल नहीं. उस में पैसा भी पानी की तरह बहेगा, जो मेरी औकात की बात नहीं. हड़खोरी के लिए सारे पट्टे वालों से दुश्मनी मोल ले लेगा क्या? ये सब पट्टेदार गांव के पैसे वाले लोग हैं,’’ सरपंच ने धौंस जमाई.‘‘ठीक है सरपंच साहब, मैं एक गरीब आदमी हूं, लेकिन मेरा जमीर इस बात की गवाही नहीं देता. मैं चांदी के चंद टुकड़ों के बदले जमीर नहीं बेच सकता.

मैं मरे पशुओं की खाल नोचता हूं, मैला ढोता हूं, फिर भी इनसान हूं. इनसानियत मेरा धर्म है और इसी नाते मैं ने पुरानी हड़खोरी गांव को दे कर झगड़ा मिटाया था.‘‘अब अगर आप अपना धर्म बेच रहे हो तो बेचो, पर मैं अपना धर्म, ईमान नहीं बेचूंगा. ये लो अपने रुपए और ये रहा आप का पट्टा,’’ कहते हुए कालू मेहतर ने रुपए सरपंच की ओर फेंक दिए और पट्टे के टुकड़ेटुकड़े कर के हवा में उड़ा दिए.सरपंच और पंडितजी के चेहरे देखने लायक थे. शायद उन की हेकड़ी निकल चुकी थी.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...