कहानी के बाकी भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

विदाई मांगते समय पति का गला भर आया. यह हाड़ी रानी की तेज आंखों से छिपा न रह सका. यद्यपि चुंडावत सरदार ने उसे भरसक छिपाने की कोशिश की.

हताश मन व्यक्ति को विजय से दूर ले जाता है. उस वीरबाला को यह समझते देर न लगी कि पति रणभूमि में तो जा रहा है, पर मोहग्रस्त हो कर. पति विजयश्री प्राप्त करे, इस के लिए उस ने कर्तव्य की वेदी पर अपने मोह की बलि दे दी.

वह पति से बोली, ‘‘स्वामी जरा ठहरिए. मैं अभी आई.’’ वह दौड़ीदौड़ी अंदर गई. आरती का थाल सजाया. पति के मस्तक पर टीका लगाया और आरती उतारी. वह पति से बोली, ‘‘मैं धन्य हो गई, ऐसा वीर पति पा कर. हमारा आप का तो जन्मजन्मांतर का साथ है. राजपूत रमणियां इसी दिन के लिए तो पुत्र को जन्म देती हैं. आप जाएं स्वामी. मैं विजय माला लिए द्वार पर आप की प्रतीक्षा करूंगी.’’

उस ने अपने नेत्रों से उमड़ते हुए आंसुओं को पी लिया था. पति को दुर्बल नहीं करना चाहती थी. चलतेचलते पति उस से बोला, ‘‘प्रिय, मैं तुम को कोई सुख न दे सका, बस इस का ही दुख है. मुझे भूल तो नहीं जाओगी? यदि मैं न रहा तो...’’

राणा रतन सिंह का वाक्य पूरा भी न हो पाया था कि हाड़ी रानी ने उन के मुख पर हथेली रख दी, ‘‘न न स्वामी, ऐसी अशुभ बातें न बोलो. मैं वीर राजपूतानी हूं. फिर वीर की पत्नी भी हूं. अपना अंतिम धर्म अच्छी तरह जानती हूं, आप निश्चिंत हो कर प्रस्थान करें. देश के शत्रुओं के दांत खट्टे करें. यही मेरी प्रार्थना है.’’

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 महीना)
USD2
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...