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मेवाड़ का इतिहास शौर्य और वीरता की गाथाओं से भरा पड़ा है. कभी गुलामी स्वीकार नहीं करने वाले महाराणा प्रताप की इस भूमि में प्रेम, त्याग और बलिदान की कई कहानियां हैं. उन्हीं में से प्रस्तुत है, हाड़ी रानी सलेहकंवर की अमर कहानी, जिन्होंने शादी के एक सप्ताह बाद ही मातृभूमि की रक्षा के लिए अपना सिर काट कर युद्धभूमि में पति को इस तरह भिजवाया कि...

हाड़ी रानी सलेहकंवर का जन्म बसंत पंचमी के दिन बूंदी के हाड़ा शासक संग्राम सिंह के घर हुआ था. सलेहकंवर अपने पिता संग्राम सिंह

की लाडली व समझदार पुत्री थी. हाड़ी रानी सलेहकंवर जब सयानी हुई तो सलुंबर के सरदार राव रतन सिंह चुंडावत के साथ उन का विवाह हुआ. रतन सिंह मेवाड़ के सलुंबर के सरदार थे.

मेवाड़ के महाराणा राजसिंह प्रथम (1653-1681) ने जब रतनसिंह को मुगल गवर्नर अजमेर सूबे के खिलाफ विद्रोह करने के लिए आह्वान किया, उस समय रतन सिंह का सलेहकंवर से विवाह हुए कुछ ही दिन हुए थे. उन्हें कुछ हिचकिचाहट हुई. लेकिन राजपूतों की परंपरा का ध्यान रखते हुए वे रण क्षेत्र में जाने को तैयार हुए और अपनी नवव्याहता हाड़ी रानी से कुछ ऐसी निशानी (चिह्न) मांगी, जिसे ले कर वह रण क्षेत्र में जा सकें.

रानी हाड़ी को लगा कि वह रतनसिंह के राजपूत धर्म के पालन में एक बाधा बन रही है. हाड़ी रानी सलेहकंवर ने अपना सिर काट कर एक थाली में दे दिया. थाल में रख कर, कपड़े से ढक कर जब सेवक वह सिर ले कर उपस्थित हुआ तो रतनसिंह को बड़ी ग्लानि हुई. उन्होंने हाड़ी रानी के सिर को उस के ही बालों से बांध लिया और युद्ध लड़े. जब विद्रोह समाप्त हो गया तब रतनसिंह की जीवित रहने की इच्छा समाप्त हो चुकी थी.

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