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शार्दूल बोला, ‘‘दोस्त हंसी छोड़ो. सचमुच बड़ी संकट की घड़ी आ गई है. मुझे भी तुरंत वापस लौटना है.’’

यह कह कर सहसा वह चुप हो गया. अपने इस मित्र के विवाह में सप्ताह भर पहले बाराती बन कर गया था. उस के चेहरे पर छाई गंभीरता की रेखाओं को देख कर चुंडावत सरदार रतनसिंह का मन आशंकित हो उठा. सचमुच कुछ अनहोनी तो नहीं हो गई है.

दूत संकोच कर रहा था कि इस समय राणा की चिट्ठी वह मित्र को दे या नहीं. चुंडावत सरदार को तुरंत युद्ध के लिए प्रस्थान करने का निर्देश ले कर वह आया था. उसे मित्र के शब्द स्मरण हो रहे थे. चुंडावत रतन सिंह के पैरों के नाखूनों में लगे महावर की लाली के निशान अभी भी वैसे के वैसे ही उभरे हुए थे.

नवविवाहिता हाड़ी रानी के हाथों की मेहंदी का रंग अभी उतरा भी न होगा. पतिपत्नी ने एकदूसरे को ठीक से देखापहचाना भी नहीं होगा. कितना दुखदायी होगा उन का बिछोह?

यह स्मरण करते ही वह सिहर उठा. पता नहीं युद्ध में क्या हो? वैसे तो राजपूत मृत्यु को खिलौना ही समझता है. अंत में जी कड़ा कर के उस ने चुंडावत सरदार रतनसिंह के हाथों में राणा राजसिंह का पत्र थमा दिया.

 

राजा का उस के लिए संदेश था. ‘वीरवर अविलंब अपनी सैन्य टुकड़ी को ले कर औरंगजेब की सेना को रोको. मुसलिम सेना उस की सहायता को आगे बढ़ रही है. इस समय मैं औरंगजेब को घेरे हुए हूं. उस की सहायता को बढ़ रही फौज को कुछ समय के लिए उलझा कर रखना है, ताकि वह शीघ्र ही आगे न बढ़ सके. तब तक मैं पूरा काम निपटा लेता हूं. तुम इस कार्य को बड़ी ही कुशलता से कर सकते हो. यद्यपि यह बड़ा खतरनाक है. जान की बाजी भी लगानी पड़ सकती है, लेकिन मुझे तुम पर भरोसा है.’

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