‘‘अरी ओ कजरी, सारा दिन शीशे में ही घुसी रहेगी क्या... कुछ कामधाम भी कर लिया कर कभी.’’

‘‘अम्मां, मुझ से न होता कामवाम तेरा. मैं तो राजकुमारी हूं, राजकुमारी... और राजकुमारी कोई काम नहीं करती...’’

यह रोज का काम था. मां उसे काम में हाथ बंटाने को कहती और कजरी

मना कर देती. दरअसल, कजरी का रूपरंग ही ऐसा था, जैसे कुदरत ने पूरे जहां की खूबसूरती उसी पर उड़ेल दी हो. बंजारों के कबीले में आज तक इतनी खूबसूरत न तो कोई बेटी थी और न ही बहू थी.

कजरी को लगता था कि अगर वह काम करेगी, तो उस के हाथपैर मैले हो जाएंगे. वह हमेशा यही ख्वाब देखती थी कि सफेद घोड़े पर कोई राजकुमार आएगा और उसे ले जाएगा.

आज फिर मांबेटी में वही बहस छिड़ गई, ‘‘अरी ओ कमबख्त, कुछ तो मेरी मदद कर दिया कर... घर और बाहर का सारा काम अकेली जान कैसे संभाले... तुम्हारे बापू थे तो मदद कर दिया करते थे. तू तो करमजली, सारा दिन सिंगार ही करती रहती है. अरी, कौन सा महलों में जा कर सजना है तुझे, रहना तो इसी मिट्टी में है और सोना इसी तंबू में...’’

‘‘देखना अम्मां, एक दिन मेरा राजकुमार आएगा और मुझे ले जाएगा.’’

तकरीबन 6 महीने पहले कजरी के बापू दूसरे कबीले के साथ हुई एक लड़ाई में मारे गए थे. जब से कजरी के बापू

की मौत हुई थी, तब से कबीले के सरदार का लड़का जग्गू कजरी के पीछे हाथ धो कर पड़ा था कि वह उस से शादी करे, मगर कजरी और उस की मां को वह बिलकुल भी पसंद नहीं था. काला रंग, मोटा सा, हर पल मुंह में पान डाले रखता.

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