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उदयपुर के राजमहल में राणाजी ने आपात सभा रखी थी. सभा में बैठे हर राजपूत सरदार के चेहरे पर चिंता

की लकीरें साफ नजर आ रही थीं. आंखों में गहरे भाव दिख रहे थे. सब के हावभाव देख कर ही लग रहा था कि किसी बडे़ दुश्मन के साथ युद्ध की रणनीति पर गंभीर विचारविमर्श हो रहा है.

सभा में प्रधान की ओर देखते हुए राणाजी ने गंभीर होते हुए कहा, ‘‘इन मराठों ने तो आए दिन हमला कर सिरदर्द कर रखा है.’’

‘‘सिरदर्द क्या कर रखा है अन्नदाता, इन मराठों ने तो पूरा मेवाड़ राज्य ही तबाह कर रखा है. गांवों को लूटना और उस के बाद आग लगा देने के अलावा तो ये कुछ जानते ही नहीं.’’ पास ही बैठे सरदार सोहन सिंह ने चिंता व्यक्त करते हुए कहा.

‘‘इन मराठों जैसी दुष्टता तो बादशाही हमलों के समय मुसलमान भी नहीं करते थे. पर मराठों का उत्पात तो सारी हदें ही पार कर रहा है. मुसलमान ढंग से लड़ते तो थे, लेकिन मराठे तो लूटपाट और आगजनी कर भाग खड़े होते हैं.’’ एक और राजपूत सरदार ने पहले सरदार सोहन सिंह की बात को आगे बढ़ाया.

सभा में इसी तरह की बातें सुन राणाजी और गंभीर हो गए. उन की गंभीरता उन के  चेहरे पर साफ नजर आ रही थी.

मराठों की सेना मेवाड़ पर हमला कर लूटपाट व आगजनी करते हुए आगे बढ़ रही थी. मेवाड़ की जनता उन के उत्पात से आतंकित थी.

उन्हीं मराठों से मुकाबला करने के लिए देर रात तक राणाजी मुकाबला करने के लिए रणनीति बना रहे थे और मराठों के खिलाफ युद्ध की तैयारी में जुटे थे. अपने राजपूत सरदारों को बुला कर उन्हें जिम्मेदारियां समझा रहे थे.

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