सुनंदा भी पढ़ने में तेज थी और वह खुद भी कुछ करना चाहती थी, कुछ बनना चाहती थी, इसलिए 12वीं क्लास पास करने के बाद उस ने एक सरकारी कालेज में दाखिला ले लिया था. उस दिन सड़क की सफाई करने के बाद अपनी मां के लिए दवाएं ले कर जब सुनंदा घर पहुंची थी, तो उस ने देखा कि उस के महल्ले के एकलौते सरकारी नल के आगे लंबी कतार लगी थी. इतनी बड़ी आबादी वाले महल्ले में केवल एक ही नल था. समय पर पानी भरना भी जरूरी था,
नहीं तो पानी ही नहीं मिलेगा. ऐसी हालत में लोग आपस में लड़ेंगे नहीं तो और क्या करेंगे. सरकारी नल के सामने लगी कतार में आधा घंटा खड़े होने के बाद सुनंदा को पानी मिला. पानी भरने और घर के दूसरे काम निबटाने के बाद सुनंदा अपनी बीमार मां को दवा खिला कर कालेज पहुंची थी. कालेज में सुनंदा की ज्यादा सहेलियां नहीं थीं, क्योंकि कोई भी एक ऐसी लड़की से दोस्ती करना पसंद नहीं करता, जिस की मां या वह लड़की खुद सड़क पर झाड़ू लगाने का काम करती हो. इस कालेज में सुनंदा की बस एक ही सहेली थी सरोज, जिस ने सुनंदा की सारी सचाई और उस के घर की हालत को जानते हुए सुनंदा से दोस्ती की थी, लेकिन उस दिन सरोज भी कालेज नहीं आई थी.
कालेज में सारे लैक्चर अटैंड करने के बाद जब सुनंदा घर के लिए निकली, तो कालेज के बाहर ही उसे अंशुल मिल गया था और उस ने पूछा था, ‘अरे, आप यहां…? क्या आप इस कालेज में पढ़ती हैं?’ सुनंदा अपने कदम बिना रोके ही बोली थी, ‘जी, मैं बीए फर्स्ट ईयर की स्टूडैंट हूं.’ ‘अरे वाह… मतलब, आप काम भी करती हैं और पढ़ाई भी,’ अंशुल ने हैरान होते हुए कहा था. जवाब में सुनंदा ने कहा था, ‘मेरी मां सड़क पर झाड़ू लगाने का काम करती हैं. किसी वजह से जब वे काम पर नहीं जा पाती हैं, तभी मैं उन के बदले काम पर जाती हूं.’ ‘ओह… मगर, आप पढ़ाई और काम दोनों साथसाथ कैसे कर लेती हैं?’ यह सुन कर एक पल के लिए सुनंदा के कदम ठहर गए थे और वह होंठों पर थोड़ा व्यंग्यात्मक मुसकान लाते हुए बोली थी, ‘गरीबी, जरूरतें और कुछ करने की चाह इनसान से कुछ भी करा सकती है.’
इतना कह कर सुनंदा तेज कदमों से आगे बढ़ गई थी और सुनंदा से ऐसा जवाब सुन कर अंशुल पलभर के लिए वहीं ठहर गया था. अंशुल और सुनंदा का कालेज भले ही एक नहीं था, लेकिन दोनों का कालेज रूट एक ही था. सुनंदा के गर्ल्स कालेज से कुछ ही दूर अंशुल का बौयज कालेज था और कालेज का समय भी एक ही था. इस वजह से वे दोनों अकसर रास्ते में टकरा जाते थे और उन के बीच बातें होने लगी थीं. धीरेधीरे सुनंदा के दिल में अंशुल के प्रति प्रेम के अंकुर फूटने लगे थे, लेकिन सुनंदा अपने और अंशुल के बीच जो जाति और हैसियत का फासला था, उसे भी जानती थी, इसलिए वह अंशुल से हमेशा एक दूरी बना कर रखती थी. इस तरह एक साल बीत गया था. एक दिन जब सरोज कालेज पहुंची, तो उस की आंखें सूजी हुई थीं. यह देख कर सुनंदा ने उस से पूछा था,
‘अरे, तुझे क्या हुआ…? तेरी आंखें ऐसी क्यों लग रही हैं?’ इस पर सुनंदा के गले लग कर सरोज फूटफूट कर रोने लगी थी. सुनंदा उसे शांत कराते हुए बोली थी, ‘बात क्या है? कुछ तो बता. या यों ही रोती रहेगी?’ इस पर सरोज सिसकारियां भरते हुए बोली थी, ‘इस हफ्ते मेरी सगाई है और अगले महीने शादी.’ यह सुन कर सुनंदा हैरानी से बोली थी, ‘और तेरी पढ़ाई का क्या होगा?’ ‘पापा कह रहे हैं कि अब जो करना है, अपनी ससुराल में जा कर ही करना,’ सरोज रोते हुए बोली थी. इधर सुनंदा अपनी पक्की सहेली सरोज की शादी और उस की पढ़ाई को ले कर परेशान थी, उधर अंशुल का दिल भी सुनंदा के लिए धड़कने लगा था, जिसे छिपा पाना अब अंशुल के लिए मुश्किल हो गया था. इसी बीच एक दिन सरोज अपनी शादी से 15 दिन पहले कालेज में अपनी शादी का कार्ड देने आई थी. वह सुनंदा से हाथ जोड़ कर माफी मांगते हुए बोली थी, ‘मैं तुझे अपनी शादी में नहीं बुला पाऊंगी,
क्योंकि पापा ने तुझे शादी में बुलाने से मना किया है.’ यह सुन कर सुनंदा को बहुत दुख हुआ कि वह अपनी एकलौती सहेली की शादी में शामिल नहीं हो पाएगी, लेकिन उसे जरा भी बुरा नहीं लगा, क्योंकि वह जातिवाद, ऊंचनीच का भेदभाव और लोगों का अपने प्रति इस तरह का बरताव बचपन से झेलती आई थी. अब तो वह इस की आदी हो चुकी थी. सरोज की शादी हो गई और सुनंदा अकेली रह गई. ऐसे समय में अंशुल बना सुनंदा का साथी और फिर यही साथी सुनंदा का हमसफर बनने का भी दम भरने लगा था. धीरेधीरे सुनंदा को भी अंशुल पर यकीन होने लगा था और वे दोनों साथ जीनेमरने की कसमें खाने लगे थे. सुनंदा पटिया पर बैठी टकटकी लगाए आसमान को देखती यही सब सोच रही थी. रहरह कर उस के मन में बस यही सवाल आ रहा था कि अंशुल सहीसलामत तो होगा न और यह खत उसे किस ने भेजा होगा? जिस ने भी भेजा है, वह खुद अब तक क्यों नहीं आया है? थर्ड ईयर का फाइनल एग्जाम देने और यूपीएससी इम्तिहान की तैयारी के लिए कोचिंग इंस्टीट्यूट में एडमिशन लेने के बाद अंशुल दिल्ली से कानपुर अपने घर चला गया था,
लेकिन उस के बाद न कभी वह कानपुर से लौटा और न ही कभी उस का कोई फोन आया. सुनंदा ने अंशुल के कुछ दोस्तों और उस के रूममेट से जानने की कोशिश की थी कि आखिर अंशुल है कहां, पर किसी के पास कोई जवाब नहीं था. सुनंदा ने कई बार उसे फोन भी किया, पर हर बार अंशुल का फोन स्विच औफ ही बताता था. सुनंदा पूरी तरह से निराश हो चुकी थी, लेकिन इस के बावजूद उसे अंशुल और अपने प्यार पर पूरा यकीन था. उसे यह भी यकीन था कि अंशुल उसे इस तरह अकेले छोड़ कर कभी नहीं जाएगा, वह जरूर लौटेगा. अचानक 6 महीने के बाद सुनंदा को यह गुमनाम खत मिला, जिसे पढ़ कर अंशुल के बारे में जानने के लिए सुनंदा यहां आ गई. सुनंदा अपने ही विचारों में गुम थी कि तभी वहां एक लंबी कार आ कर रुकी,
जिस में से तकरीबन सुनंदा के उम्र से थोड़ी सी बड़ी एक शादीशुदा औरत उतरी. माथे पर बड़ी सी लाल बिंदी, मांग में सिंदूर, गले में लंबा सा मंगलसूत्र… उस औरत को देख कर सुनंदा हैरत में पड़ गई. उस औरत ने बिलकुल वैसी ही साड़ी पहनी थी, जैसी साड़ी सुनंदा ने दिल्ली के कमला मार्केट से पसंद कर के अंशुल को दी थी… जब अंशुल ने कहा था कि ‘मुझे एक साड़ी खरीदनी है अपने किसी खास के लिए’. उस समय सुनंदा अंशुल से यह पूछ नहीं पाई थी कि उसे साड़ी किस के लिए खरीदनी है. वह औरत सुनंदा के एकदम सामने आ कर खड़ी हो गई और बोली, ‘लगता है कि तुम अंशुल और उस के प्यार को अब तक भूली नहीं हो और आज भी उसे पाने की चाह रखती हो, तभी तो खत पढ़ते ही यहां दौड़ी चली आई. ‘‘तुम्हें क्या लगता है कि तुम जैसी सड़कों पर झाड़ू लगाने वाली लड़की किसी ऊंचे खानदान की बहू बन सकती है? या फिर यह लगता है कि अंशुल पूरे परिवार से बगावत कर के अपने घर की इज्जत ताक पर रख कर तुम से शादी कर लेगा? अगर ऐसा कोई भी विचार तुम्हारे मन में है, तो अंशुल का यह खत पढ़ लो… अब वह कभी भी तुम्हारे पास लौट कर नहीं आएगा,’’ इतना कह कर उस औरत ने खत सुनंदा की ओर बढ़ा दिया. सुनंदा कंपकंपाते हाथों से वह खत खोल कर पढ़ने लगी, जिस में लिखा था: ‘मुझे माफ कर दो सुनंदा