शहर की सैंट्रल लाइब्रेरी से निकल कर सुनंदा सीधे शेयरिंग आटोरिकशा ले कर शहर से 30 किलोमीटर दूर हाईवे के किनारे बनी एक टपरीनुमा चाय की दुकान पर पहुंच गई, क्योंकि लाइब्रेरी के पते में उसे अपने नाम का एक ऐसा बेनाम खत मिला था, जिस में लिखा था कि अगर तुम अंशुल के बारे में जानना चाहती हो तो वहीं आ जाओ, जहां तुम हमेशा उस से मिला करती थी. उस खत को पढ़ने के बाद सुनंदा सीधे यहां आ गई, लेकिन यहां कोई नहीं था. सुनंदा को देख कर चाय वाले ने कहा,
‘‘अरे बिटिया, महीनों बाद आई हो और अंशुल बेटा नहीं आए तुम्हारे साथ?’’ यह सुन कर सुनंदा अपनी घबराहट और बेचैनी को छिपाते हुए बोली, ‘‘नहीं काका, मैं अकेली ही आई हूं.’’ ‘‘तुम्हारे लिए वही तुम्हारी पसंद की बगैर इलायची वाली अदरक की चाय बना दूं?’’ चाय वाले ने बड़े अपनेपन से पूछा. ‘‘नहीं काका, थोड़ी देर से बना देना. अभी रहने दो,’’ ऐसा कह कर सुनंदा वहीं टपरी के बाहर लकड़ी की बनी पटिया पर बैठ गई. कालेज के दिनों में सुनंदा और अंशुल अकसर यहां आते थे. सुनंदा बिना इलायची की अदरक वाली चाय पिया करती थी और अंशुल अदरक इलायची वाली. दोनों चाय पीने के बाद घंटों अपने सुनहरे भविष्य की कल्पनाओं में खो जाया करते थे. अंशुल हमेशा कहता था, ‘सुनंदा, तुम जानती हो, जब मैं यूपीएससी क्लियर कर के एसपी बनूंगा, तो मैं अपने परिवार का पहला एसपी रहूंगा…’ इस पर सुनंदा हंसते हुए कहती थी, ‘अरे त्रिपाठीजी,
आप तो अपने परिवार के पहले एसपी होंगे, लेकिन मैं तो अपनी बिरादरी की पहली ग्रेजुएट लड़की और पहली प्रथम दर्जे की सरकारी अफसर रहूंगी…’ सुनंदा जैसे ही यह कहती, अंशुल उसे छेड़ते हुए कहता था, ‘और त्रिपाठी परिवार की पहली विजातीय बहू भी…’ यह सुन कर सुनंदा का चेहरा शर्म से लाल हो जाता था. सुनंदा को आज भी अंशुल से अपनी पहली मुलाकात याद है. पहली बार किसी ने सड़क पर झाड़ू लगाती हुई लड़की से बड़ी इज्जत से कहा था, ‘जरा सुनिए, इस स्ट्रीट में भारद्वाजजी का मकान कौन सा है?’ सुनंदा ने हिचकते हुए कहा था, ‘जी, यहां से तीसरा.’ ‘थैंक यू….’ इतना कह कर अंशुल वहां से मुसकराते हुए आगे बढ़ गया था, लेकिन सुनंदा का सिर अंशुल के प्रति इज्जत से मन ही मन झुक गया था. इस तरह पहली बार सुनंदा से किसी ने बात की थी, वरना कोई उसे ‘अरे लड़की’, तो कोई ‘ऐ सुनंदा’ कह कर ही बुलाया करता था. कई तो उसे ऐसी भूखी नजरों से देखते थे,
जैसे कोई भेड़िया अपने शिकार को देखता है. वैसे, सुनंदा हर रोज सड़क की सफाई करने नहीं जाया करती थी. जब कभी उस की मां को कोई काम होता था या वे किसी वजह से काम पर नहीं जा पाती थीं, उन्हीं हालात में सुनंदा अपनी मां की जगह काम पर जाती थी. कहने को तो सुनंदा का बाप आटोरिकशा चलाता था, लेकिन आटो चलाने से ज्यादा वह शराब के नशे में चूर हो कर कहीं न कहीं पड़ा रहता था. दलित तबके के तमगे और गरीबी से जूझने के बावजूद सुनंदा की मां उसे पढ़ालिखा कर कुछ बनाना चाहती थीं. वे अपनी बेटी को यह नरक जैसी जिंदगी नहीं देना चाहती थीं.