तभी निलेश ने उस का परिचय कराते हुए कहा, ‘‘मां, यह सुधा है, दिल्ली से आई है. कालेज में मेरे साथ पढ़ती थी.’’ उस की मां सुधा से औपचारिक बातें करने लगीं, पर सुधा की नजरें दीवार पर लगी उस तसवीर पर टिकी थीं.
निलेश ने कहा, ‘‘सुधा, यह मेरे पिताजी की तसवीर है. वह पलंग से उठ कर उस तसवीर को स्पर्श कर भावविह्वल हो गई. उस की आंखों से आंसू टपकने लगे. निलेश की मां देख कर समझ गई कि यह बहुत भावुक लड़की है.’’
उन्होंने उस का ध्यान हटाने के उद्देश्य से कहा, ‘‘बेटी, मेरे पति जिंदा होते तो तुम्हें देख कर बहुत खुश होते, पर नियति को कौन टाल सकता है. आओ, मेरे पास बैठो. लगता है तुम मेरे बेटे से बहुत प्यार करती हो. तभी तो इतनी दूर से मिलने आई हो वरना इस कुटिया में कौन आता है. मेरी बूढ़ी आंखें कभी धोखा नहीं खा सकतीं. क्या तुम मेरे बेटे को पसंद करती हो?’’
यह सुन सुधा ने सकुचाते हुए कहा, ‘‘हम और निलेश कालेज में बहुत अच्छे दोस्त थे.’’
जब निलेश की मां ने कहा, ‘‘तो क्या अब नहीं हो?’’ मुसकराते हुए उस ने बड़ी सहजता से कहा, ‘‘हां, अभी भी मैं उस की दोस्त हूं, तभी तो मिलने आई हूं.’’
निलेश की मां मुसकराने लगीं, और उस के सिर पर हाथ रख कहा, ‘‘सदा खुश रहो बेटी, मेरा बेटा बहुत अच्छा है, पर मेरी बीमारी के कारण वह कोई डिगरी न पा सका. मैं ने बहुत समझाया कि दिल्ली जा कर अपनी पढ़ाई पूरी कर ले, मेरा क्या है, आज हूं कल नहीं रहूंगी. पर उस की तो पूरी जिंदगी पड़ी है.’’