Writer- इंदिरा राय
सौरभ के अंतर को कैक्टस के कांटों ने बींध दिया था, तभी उस ने नींद की गोलियां खाने जैसा दुस्साहसी कदम उठाया, लेकिन ममता के पश्चात्ताप से वे कांटे फिर से फूल बन कर उन को सहलाने लगे थे.
तीसरी मंजिल पर चढ़ते हुए नए जूते के कसाव से पैर की उंगलियों में दर्द होने लगा था किंतु ममता का सुगठित सौंदर्य सौरभ को चुंबक के समान ऊपर की ओर खींच रहा था.
रास्ते में बस खराब हो गई थी, इस कारण आने में देर हो गई. सौरभ ने एक बार पुन: कलाई घड़ी देखी, रात के साढ़े 8 बज चुके हैं, मीनीचीनी सो गई होंगी. कमरे का सूना सन्नाटा हाथ उचकाउचका कर आमंत्रित कर रहा था. उंगली की टीस ने याद दिलाया कि जब वे इस भवन में मकान देखने आए थे तो नीचे वाला हिस्सा भी खाली था किंतु ममता ने कहा था कि अकेली स्त्री का बच्चों के साथ नीचे रहना सुरक्षित नहीं, इसी कारण वह तिमंजिले पर आ टंगी थी.
बंद दरवाजे के पीछे से आने वाले पुरुष ठहाके ने सौरभ को चौंका दिया. वह गलत द्वार पर तो नहीं आ खड़ा हुआ? अपने अगलबगल के परिवेश को दोबारा हृदयंगम कर के उस ने अपने को आश्वस्त किया और दरवाजे पर धक्का दिया. हलके धक्के से ही द्वार पूरा खुल गया. भीतर से चिटकनी नहीं लगी थी. ट्यूब- लाइट के धवल प्रकाश में सोफे पर बैठे अपरिचित युवक के कंधों पर झूलती मीनीचीनी और सामने बैठी ममता के प्रफुल्लित चेहरे को देख कर वह तिलमिला गया. वह तो वहां पत्नी और बच्चों की याद में बिसूरता रहता है और यहां मसखरी चल रही है.