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‘‘हमें सुबह का नाश्ता और रात का खाना चाहिए. दिन में हम लोग औफिस में होते हैं, तो बाहर ही खा लेते हैं,’’ सुमित ने उस का ध्यान खींचा.

मनीष भी सुमित के पास आ कर खड़ा हो गया.

‘‘कितने लोगों का खाना बनेगा?’’ औरत ने सुमित से पूछा.

‘‘कुल मिला कर 3 लोगों का, हमारा एक और दोस्त है, वह अभी घर पर नहीं है.’’

औरत ने सुमित को महीने की पगार बताई और साथ ही, यह भी कि वह एक पैसा भी कम नहीं लेगी.

दोनों दोस्तों ने सवालिया निगाहों से एकदूसरे की तरफ देखा. पगार थोड़ी ज्यादा थी, मगर और चारा भी क्या था. ‘‘हमें मंजूर है,’’ सुमित ने कहा. आखिरकार खाने की परेशानी तो हल हो जाएगी.

‘‘ठीक है, मैं कल से आ जाऊंगी,’’ कहते हुए वह जाने के लिए उठी.

‘‘आप ने नाम नहीं बताया?’’ सुमित ने उसे पीछे से आवाज दी.

‘‘मेरा नाम ज्योति है,’’ कुछ सकुचा कर उस औरत ने अपना नाम बताया और चली गई.

दूसरे दिन सुबह जल्दी ही ज्योति आ गई थी. रसोई में जो कुछ भी पड़ा था, उस से उस ने नाश्ता तैयार कर दिया.

आज कई दिनों बाद सुमित और मनीष ने गरम नाश्ता खाया तो उन्हें मजा आ गया. रोहन अभी तक सो रहा था, तो उस का नाश्ता ज्योति ने ढक कर रख दिया था.

‘‘भैयाजी, राशन की कुछ चीजें लानी पड़ेंगी. शाम का खाना कैसे बनेगा? रसोई में कुछ भी नहीं है,’’ ज्योति दुपट्टे से हाथ पोंछते हुए सुमित से बोली.

सुमित ने एक कागज पर वे सारी चीजें लिख लीं जो ज्योति ने बताई थीं. शाम को औफिस से लौटता हुआ वह ले आएगा.

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