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जब-जब सुधीर ने उसे खाने-पीने पर, कपड़े पहनने पर, उस की पसंद पर अपमानित किया उसे यही लगा कि पंख फैलाए मौत उस के सिर पर मंडरा रही है. एक बार तो सुधीर ने क्लब जाने के लिए बच्चों और सुधि को तैयार होने के लिए कहा तो आज्ञानुसार सुधि ने बच्चे तैयार किए और स्वयं भी लालकाली चौड़ी बार्डर वाली साड़ी पहन ली लेकिन जल्दीजल्दी में वह चप्पलें बदलना भूल गई. जैसे ही वह कार में बैठने लगी सुधीर की निगाह चप्पलों पर पड़ गई. देखते ही पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया, ‘यह...यह क्या है पांव में. अरे, इतनी भी तमीज नहीं है कि क्लब जाना है तो ढंग की चप्पलें पहन लो. मुझे शर्म आती है यह सोच कर कि मैं ने तुम से शादी  की है. बिलकुल गंवार हो, कोई भी तुम्हें पढ़ीलिखी नहीं कहेगा.’   सुधीर के शब्दों से सुधि इतनी अधिक छिल गई थी जैसे छिलछिल कर खीरा हरे से सफेद हो जाता है.

उसी समय वह ड्रेसिंग रूम में गई, आंखें पोंछी, चप्पलें बदलीं फिर कार में बैठी. उस समय दिल में आया था कि वह जाने के लिए मना कर दे, लेकिन उस के संस्कारों ने, उस के कोमल, सहनशील स्वाभिमान ने उसे ऐसा नहीं करने दिया.

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आज कह रहे हैं कि सुधि, तुम अब स्मार्ट बन कर रहने लगी हो, लेकिन मैं अब टूर में बहुत व्यस्त हूं पर तुम्हें घुमानेफिराने ले जाना चाहता हूं. सुधि ने सोचा कि सुधीर को यह क्या हो गया. अजीबअजीब सी बातें करते हैं. जितने दिन भी घर में रहते हैं कभी बाहर घुमाने, कभी बाहर खाना खिलाने ले जाते हैं. पहले तो कभी ऐसा नहीं हुआ. इस परिवर्तन से सुधि का दिमाग लट्टू की तरह घूम गया. सोने से दिन, चांदी सी रातें अब उस के नसीब में कैसे हो गईं? कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं है?  वही है सुधि जिस के पांव के नीचे काली सड़क, सिर के ऊपर मंडराते काले बादल और मन में घोर अंधेरा पसरा रहता था...अब हर तरफ उजाला ही उजाला है.

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