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लेखक- राजन सिंह

फूल संस्कृत विद्यालय पर पहुंचता और कृष्णकली साइकिल के पिछले कैरियर से बीच के हैंडल तक का सफर तय कर के कालेज जाने लग गई थी. कुल मिला कर कह सकते हैं, थोड़ा सा प्यार हो गया था, बस थोड़ा ही बाकी था.

हम को फिर से गांव जाना पड़ गया, धान फसल की कटाई के लिए. क्या करें? किस्मत ही खराब है अपनी तो पढ़ेंगे कैसे? फगुनिया कांड के बाद हमारे नाम के मुताबिक ही हम को सब खदेड़ते ही रहते हैं. अगर कटाई में नहीं जाएंगे तो बाबूजी खर्चापानी भी बंद कर देंगे.

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एक तो देर से पढ़ाना शुरू कराया था हमारे घर वालों ने, ऊपर से बचीखुची कसर हम ने फेल हो कर पूरी कर दी. पूरे 22 साल के हो गए हैं हम, लेकिन हैं अब तक इंटरमीडिएट में ही.

अब आप लोग सोच रहे होंगे कि यह फगुनिया कहां से आ गई बीच में? पर क्या करें, न गाली देते बनता है और न ही अपना सकते हैं उस को हम. कभी हमारी जान हुआ करती थी वह. भैया की छोटकी साली. जबजब वह हम को करेजा कह कर बुलाती थी, तो लगता था जैसे कलेजा चीर कर उस को दिल में बसा लें.

बहुत प्यार करते थे हम फगुनिया को. उस को एक नजर देखते ही दिल चांद के फुनगी पर बैठ कर ख्वाब देखने लगता था. बोले तो एकदम लल्लनटौप थी हमारी फगुनिया. उस के तन का वजन तो पूछिए ही मत, 3 हाथी मरे होंगे तब जा कर हमारी फगुनिया पैदा हुई होगी, फिर भी जब वह ठुमुकठुमुक कर चलती थी तो हमारे पेट में घिरनी नाचने लगती थी और आटा चक्की के जैसे कलेजा धुकधुकाने लगता था.

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लेकिन मुंह झौंसी हमारी भाभी को फूटी आंख नहीं सुहाती थी हमारी फगुनिया. दुष्ट कहीं की.

नैहर से ले कर ससुराल तक ऐसा ढोल बजाया हमारी प्रेम कहानी का कि हम सब जगह से बुड़बक बन कर रह गए. इतने पर भी भाभी ने दम नहीं लिया, हम को हमारी फगुनिया से लड़वाने में कोई कसर नहीं छोड़ी.

जबजब हमारी फगुनिया हम से लड़ती थी तो ऐसा लगता था जैसे हमारे दिल का महुआ कच्चे में ही रस चुआने लगा हो. आंत ऐंठने लगती. हम तो न मरते थे, न जीते थे. बस, अंदर ही अंदर कुहुकते रहते थे.

पर, हम ने भी ठान लिया था कि ब्याह करेंगे तो फगुनिया से ही करेंगे, नहीं तो किसी से नहीं करेंगे. जब हम सब जगह से बदनाम हो ही गए हैं तो लिहाज किस का रखें. हम ने भी आव देखा न ताव, फगुनिया को भगा कर ब्याह कर ले जाने का प्लान बना लिया.

फूल से सलाहमशवरा लिया तो उस ने भी कहा कि वह रुपएपैसे का इंतजाम कर देगा किसी से सूदब्याज पर. हम भी जोश में थे ही, उस की सभी शर्तें मंजूर कर लीं. फगुनिया को भी हम ने मना लिया भागने के लिए.

तय दिन हम रोसड़ा बाजार में जा कर फगुनिया का इंतजार करने लगे, वहीं फूल भी रुपएपैसे का इंतजाम कर के आने वाला था. वहां से हम थानेश्वर स्थान महादेव मंदिर समस्तीपुर जा कर ब्याह करते, उस के बाद गोरखपुर निकल जाने का प्लान था हमारा.

फगुनिया अपनी सहेली तेतरी को साथ ले कर पतलापुर गांव से रोसरा के दुर्गा मंदिर में आ गई. वहां हम पहले से ही मौजूद थे. तेतरी 3 भाई के बाद एकलौती बहन. फगुनिया की हमराज. एकदम पक्की वाली बहन. हम लोग फूल का इंतजार करते रहे, पर वह गधे के सिर से सींग के जैसे गायब हुआ, सो 3 महीने बाद जा कर मिला हम को. मर्द के नाम पर कलंक.

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उस समय मन तो कर रहा था कि एक बार फूल मिल जाता तो गरदन मरोड़ कर आंत में घुसा देता.

हम फिर भी फगुनिया पर जोर देते रहे भाग चलने के लिए. पर वह तो बहुत बड़ी वाली जालिम निकली. कहने लगी, बिना रुपएपैसे के भाग कर जाइएगा कहां? आप तो बकलोल के बकलोल ही रह गए. कम से कम इतने रुपएपैसे का इंतजाम तो कर लेते कि एकाध महीना सही से गुजारा हो जाता. हम तो ऐसे निखट्टू मरद के साथ नहीं जाएंगे, चाहे कुछ हो जाए. आप के चक्कर में हम अपनी जिंदगी बरबाद नहीं करेंगे.

हम घिघियाते रहे, मनाते रहे, पर फगुनिया के कान पर जूं तक न रेंगी. आखिर में हम भी खिसिया कर वहां से चल दिए. जातेजाते हम तड़कभड़क दिखा कर कहते गए, ‘‘आज दिनभर थानेश्वर स्थान में इंतजार करेंगे. अगर तुम नहीं आए तो जिंदगीभर मुंह नहीं देखेंगे तुम्हारा,’’ साइकिल उठाई और हम स्पीड में वहां से निकल गए.

हम तो वहां से पहुंच गए थानेश्वर स्थान महादेव मंदिर, पर फगुनिया के कलेजे पर सांप लोटने लगा. वह सोचसोच कर डर से घबराने लगी. कहीं वह आत्महत्या तो नहीं कर लेगा.

फगुनिया को फैसला लेना पड़ा, तेतरी को हमारे पीछे भेजने का. कितनी बेचैन हो कर बोली थी हमारी फगुनिया, ‘‘ऐ तेतरी, जाओ खदेरन को सम झाबु झा दो. घर चला जाएगा बेचारा.’’

हम  झटपट समस्तीपुर के महादेव मंदिर तो पहुंच गए, पर फगुनिया नहीं आई. उस की जगह तेतरी हम को सम झानेबु झाने पहुंच गई. तेतरी हम को जितना सम झाती, हम और ज्यादा गुस्सा होते जाते. जोशजोश में हम गुस्से से लालपीले होते हुए मंदिर में रखे सिंदूर की थाली से मुट्ठीभर सिंदूर उठाया और तेतरी की मांग भर दी.

जब तक होश आया, तब तक तेतरी कुमारी, बाबा की दुलारी हमारी तेतरी देवी बन चुकी थी. एक तो फगुनिया का गम हम को पहले से ही था, ऊपर से तेतरी के सरपंच ने हमारा बोलबम निकलवा दिया. हमारा हाल सेमर की रुई की तरह हो गया था जो न पेड़ से ही लगा हो और न हवा के संग उड़ ही पा रहा हो. दिल से बस एक ही चीज निकल रही थी, ‘ऐ तेतरी, तुम न लात मारी, न मारी घूंसा, फिर भी करेजा को तड़तड़ा दी.’

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फगुनिया का फागुन कब बीत गया, पता ही नहीं चला. घरपरिवार, समाज की दुत्कार में. अब तो तेतरी के देह की देहरी पर जेठ अंगड़ाई लेने लगा. हम फगुनिया के गम में रेडियो पर दर्द भरे गाना सुनते हुए जंगल झाड़, खेतखलिहान में भटकते रहते. हमारा मन तो कर रहा था हैंडपंप में छलांग लगा कर डूब मरें, पर ससुरा कूदने का रास्ता ही नहीं था. अपने दर्द के वशीभूत हो कर हम उस दिन नहर किनारे वाले टूटे पुल पर बैठे रो रहे थे कि तभी वहां गांव के 3-4 संघाती पहुंच गए. हम को रोता देख कर बहुत सम झाया सब ने. पर हम को तनिक भी ढांढस न बंधा, हम और फूटफूट कर रोने लगे.

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