लेखक- राजन सिंह
‘‘ऐ लड़के, जरा इधर तो सुनिए.’’
‘‘जी, कहिए.’’
‘‘यह क्या कर रहे हैं यहां आप?’’
‘‘क्या कर रहे हैं हम?’’
‘‘क्या कर रहे हैं सो आप को नहीं मालूम. ज्यादा बनने की कोशिश तो कीजिए मत… ठीक है.’’
‘‘हम क्या कर रहे हैं, जो आप इतना भड़क रही हैं.’’
‘‘इतने भी मासूम मत बनिए. आप को हम 15-20 दिन से देख रहे हैं कि हम जब भी छत पर आते हैं तो आप अपने कमरे की खिड़की से या बालकनी की रेलिंग से टुकुरटुकुर निहारते रहते हैं. आप के घर में मांबहन नहीं हैं क्या?’’
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‘‘हम कहां देखते हैं आप को? वह तो आप ही…’’
‘‘बड़े बेशर्म हैं जी आप. एक तो देखते भी हैं, ऊपर से मुंहजोरी भी करते हैं. लगता है, अपने भैया को बताना ही पड़ेगा,’’ इतना कह कर कृष्णकली मुंह बिचकाते हुए छत से नीचे चली गई.
फूल के तो गले के शब्द जीभ में ही उल झ कर रह गए. कितनी बोल्ड लड़की है… दिमाग झन्ना कर चली गई.
एक महीने तक फूल की हिम्मत नहीं हुई कि कृष्णकली छत पर आए तो वह बाहर बालकनी में निकल कर आ सके या फिर खिड़की पर ही खड़ा रह सके. कौन आफत मोल ले. कहीं भाईबाप को कह आई तो बेमतलब की बात बढ़ जाएगी और बदनामी होगी सो अलग.
हम जैसे ही गांव से लौट कर आए तो फूल सब से पहले हम को यही कथा सुनाने लगा. तकरीबन डेढ़ महीने से पेट में खुदबुदा जो रहा था बताने के लिए.
अब आप लोग सोच रहे होंगे कि हम कौन हैं? तो चलिए बता देते हैं. हम हैं खदेरन मंडल. फूल हमारा जिगरी दोस्त है. बचपन से कोई बात हमारे बीच छिपी नहीं थी, फिर यह कैसे छिप जाती. हम दोनों लंगोटिया यार जो ठहरे.
वैसे, एक बात और बता देते हैं. हम केवल बातचीत ही नहीं, बल्कि खानापीना, कपड़े वगैरह भी शेयर कर लेते हैं. यहां तक कि कच्छा और बनियान भी हम ने शेयर किए हैं.
इत्तेफाक से हम एक ही गांव में, एक ही दिन और तकरीबन एक ही समय पर जनमे भी हैं. बस, फर्क यह है कि वह यादव वंश में जनमा है और हम मंडल
के घर में, वरना हम जुड़वां ही होते. फूल तनिक पढ़ने में ठीकठाक था, इसलिए इंटरमीडिएट के बाद मास्टर बनने के लिए टीचर ट्रेनिंग स्कूल में नाम लिखवा लिया और हम जरा भुसकोल हैं पढ़ने में, इसलिए अब तक इंटर में ही लटके हुए हैं. क्या करें करम में लिखा है नेड़हा, तो हम पेड़ा कहां से खाते.
अब आप लोग सोच रहे होंगे कि हम क्या बकवास करने में लगे हैं, तो चलिए फूल के बारे में जानते हैं कि आगे क्या हुआ.
तकरीबन महीनेभर बाद फूल को नाका नंबर-5 पर फिर से कृष्णकली मिल गई. आटोरिकशे का इंतजार करते हुए. क्रेज डौल्बी से वह फिल्म देख कर लौट रही थी.
दरभंगा इंटर कालेज में वह पढ़ती है. कालेज बंक कर के सिनेमा देखने में तो मास्टरब्लास्टर. फूल कोचिंग सैंटर से पढ़ कर साइकिल टनटनाते स्पीड में नाका नंबर-5 से गुजरने ही वाला था कि कृष्णकली की नजर पड़ गई.
‘‘ऐ… लड़के, जरा रुको,’’ अचानक कृष्णकली की आवाज सुन कर फूल सकपकाते हुए रुक गया.
‘‘जी… जी, कहिए.’’
‘‘जरा भी दयाधरम है कि नहीं. एक अकेली लड़की कब से रिकेश के लिए इंतजार में यहां खड़ी है और आप हैं कि मस्ती में साइकिल टुनटुनाते हुए भागे जा रहे हैं. डर है कि नहीं है…’’
‘‘अरे… नहींनहीं. ऐसी कोई बात नहीं है. हम आप को नहीं देखे थे, इसलिए…’’
‘‘इसलिए क्या…? आप हम को बु झाइएगा?’’
‘‘यह क्या बोल रही हैं आप? हम सच्ची में नहीं देखे थे आप को.’’
‘‘तो अब देख लिए हैं न.’’
‘‘जी…’’
‘‘जी… जी क्या कर रहे हैं आप? हमारा नाम कृष्णकली कुमारी है. आप हम को कृष्णकली कह सकते हैं.’’
‘‘जी.’’
‘‘फिर से जी… वैसे, अब चलिएगा भी या यहीं खड़े रहिएगा?’’
‘‘पर… पर, आप का रिकशा?’’
‘‘गोली मारिए रिकशे को. आप हैं न साथ में, फिर सफर यों ही कट जाएगा. आप चलेंगे न मेरे साथ?’’
‘‘हांहां… बिलकुल चलेंगे जी.’’
‘‘चलिए, तो चलते हैं.’’
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दोनों ने पैदल ही कदम बढ़ा दिए. फूल को ज्यादा बातें सू झ नहीं रही थीं. वह चुपचाप ही कदम बढ़ाता रहा.
थोड़ी दूर चलने के बाद कृष्णकली ही बोली, ‘‘हम ऐसे ही चलते रहेंगे तो रात हो जाएगी और हम रास्ते में ही रह जाएंगे.’’
‘‘फिर क्या करें हम? कोई रिकशा भी नहीं दिखाई दे रहा है, जो आप को बैठा देते उस पर.’’
‘‘तो फिर साइकिल किसलिए रखे हैं आप? डबल लोडिंग में चलाना नहीं आता है क्या आप को?’’
‘‘आप… आप हमारी साइकिल पर बैठिएगा?’’
‘‘तो क्या हुआ? हम साइकिल पर बैठ कर नहीं जा सकते हैं क्या? चिंता मत कीजिए, हम महल्ला आने से पहले ही उतर जाएंगे आप की साइकिल से.’’
फूल हैंडल को मजबूती से थाम कर साइकिल पर सवार हो गया. हौले से कृष्णकली भी साइकिल के पीछे कैरियर पर अपना दुपट्टा संभालते हुए बैठ गई. लेकिन बातचीत पर ब्रेक लग गया.
महल्ले के बाहर संस्कृत विद्यालय के सामने कृष्णकली साइकिल से उतर गई और फूल घंटी बजाते हुए तेजी से अपने रूम पर आ गया.
रूम पर आते ही सब से पहले 3-4 गिलास पानी गटागट पी गया. उस का हलक सूखा हुआ था. उस के बाद सारा किस्सा हमें सुनाने लगा.
हम ने उसी टाइम कह दिया था कि बेटा सैट हो गई लड़की, पर वह मानने को राजी नहीं था. वैसे, उस के दिल में फुल झडि़यां तो जरूर छूटी थीं, लेकिन स्वीकारने की हिम्मत न थी उस में. एकदम डरपोक, भीगी बिल्ली.
पर कहानी भी यहीं नहीं अटकी. कृष्णकली जितनी मुंहफट थी, उतनी ही दिमाग की तेज भी थी. दूसरी मुलाकात के बाद पता नहीं ऐसा क्या हुआ कि अकसर संस्कृत विद्यालय के पास वह फूल का इंतजार करने लग गई थी.
धीरेधीरे ही सही, पर फूल ने ‘ऐ लड़का’ से ‘फूलजी’ तक का सफर तय कर लिया था. अकसर का इंतजार अब रोजाना में तबदील होने लग गया था.
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