6 फुट का 30 साल का नौजवान… तगड़ा बदन और बड़ीबड़ी गोल आंखें. अपने पीछे आवारा लड़कों की मंडली ले कर घूमना और कैंपस में किसी भी छात्रा पर फब्तियां कसना उस का पसंदीदा काम था. अभय सिंह पिछले कई सालों से यूनिवर्सिटी की राजनीति में पैर पसारने की कोशिश कर रहा था, क्योंकि लखनऊ यूनिवर्सिटी छात्र संघ के अध्यक्ष पद का चुनाव जीतने वाला छात्र सीधे प्रदेश की राजनीति में दखल रख सकता था
और इस से राजनीतिक कैरियर को एक दिशा मिल सकती थी और इसीलिए नाम के लिए ही सही, अपनी पढ़ाई जारी रखना ऐसे छात्रों को अच्छी तरह आता था. अभय सिंह, पंकज तिवारी और हरीश सिंह तीनों पक्के दोस्त थे और ‘प्रयाग’ होस्टल में एकसाथ रहते थे. अभय सिंह गोरखपुर शहर के एक गांव सूरजगढ़ का रहने वाला था. उस के पिता गांव में प्रधान थे. लिहाजा, उन की भी राजनीतिक इच्छाएं कम न थीं और वे चाहते थे कि उन का बेटा आगे बढ़ कर राजनीति में कैरियर बनाए. छात्र संघ चुनाव के लिए जाति के नाम पर छात्रों को बांटना अभय सिंह जैसे छात्र नेताओं का प्रमुख हथियार था. हालांकि, छात्राएं जाति के नाम पर वोट न दे कर एक बेहतर और साफसुथरी इमेज वाले छात्र नेता को वोट देना पसंद करती थीं. अभय सिंह अपनेआप को एक हिंदूवादी कट्टर नेता के रूप में पेश करता था. लाल रंग का कुरता और माथे पर एक लंबा टीका उस की पहचान थी.
कैंपस में पिछले कुछ समय से एक नई लहर सी चल पड़ी थी या यह अभय सिंह की एक नई चाल थी कि वह सवर्णों के साथसाथ दलित छात्रों को भी अपनी मंडली में शामिल करने की जुगत में लगा हुआ था. दूसरी तरफ कैंपस में छात्र नेताओं का एक और ग्रुप था, जिसे ‘डिमैलो ग्रुप’ के नाम से जाना जाता था और उन छात्रों का नेता सिल्बी डिमैलो था. अभय सिंह और सिल्बी डिमैलो में छात्रों के वोट पाने की लड़ाई थी और उन दोनों गुटों में शीत युद्ध चलता ही रहता था और दोनों मंडली के लोगों के बीच मनमुटाव की खबरें आएदिन आती रहती थीं, पर उन में कभी आमनेसामने की लड़ाई नहीं हुई थी. रात के 9 बजे का समय था. अभय सिंह और उस की मंडली के 8-10 लोग अपने होस्टल के कमरे से निकल कर कुछ दूरी पर बने मैस में खाना खाने जा रहे थे. ‘‘क्या भैया, आप सवर्णों के नेता बने फिरते हो और फिर भी आजकल दलित लड़कों को अपने साथ ले कर क्यों घूम रहे हो?’
’ अभय सिंह के तलवे चाटने वाले एक लड़के ने सवाल किया, तो अभय सिंह ने अपनी आंखें उस लड़के पर टिका दीं और जवाब में सिर्फ मुसकराते हुए कहने लगा, ‘‘यह सब राजनीतिक चालबाजी है बबुआ, तुम जरा भी नहीं समझोगे… हिंदूमुसलमान को लड़ाने के अलावा इन दलितों को भी राजनीति में इस्तेमाल किया जाता है…’’ अभय सिंह की इस बात पर उस के साथ के लड़के ताली मार कर ऐसे हंसने लगे जैसे अभय सिंह ने कोई बहुत बड़ा चुटकुला सुना दिया हो. बातोंबातों में ही अभय सिंह और उस की मंडली के चमचे खाने की मेज पर बैठ गए और खाने की प्लेटें उन के सामने लगा दी गईं. एक 15 साल का छोकरा उन लोगों की प्लेट में खाना परोसने लगा. अभय सिंह ने दाल, चावल और सब्जी एकसाथ मिला ली और तेजी से खाने लगा, जबकि पंकज तिवारी सब की नजरें बचा कर चुपके से अपनी जेब में पड़े शराब के पौवे को गिलास में उड़ेलने लगा. ‘‘क्या बात है… आज खाना बहुत लजीज बना है…’’ हरीश ने बड़ेबड़े निवाले गटकते हुए कहा. ‘‘लजीज तो बनेगा ही भैया… अब तक आप लोग महाराज के हाथ का बना खाना खाते थे, पर आज महाराज अपने गांव गया है,
इसलिए आज की रसोई उजरिया ने बनाई है,’’ पास में खड़े वार्डन ने दांत दिखाते हुए कहा. उजरिया का नाम सुन कर लड़कों के कान खड़े हो गए. होस्टल के मैस में कोई औरत आई है और उस का अभय सिंह को पता तक नहीं चला, इस बात से अभय सिंह के अहंकार को थोड़ी चोट जरूर पहुंची, पर इस से ज्यादा वह उजरिया को देख लेने की गरज से इधरउधर गरदन घुमाने लगा, पर उसे वहां कोई औरत नहीं दिखाई दी, तो उस ने वार्डन से उजरिया को सामने लाने के लिए कहा. वार्डन के आवाज लगाने पर उजरिया नाम की एक औरत अपने माथे का पसीना पोंछते हुए आई. उस की उम्र तकरीबन 45 साल और शरीर दुबलापतला पर लंबा था, गड्ढे में जाती आंखें उस के मेहनती होने का सुबूत दे रही थीं. कैंपस में लड़कियों के जिस्म को घूरने वाले अभय सिंह और उस की मंडली के लोग उजरिया को भी ऊपर से नीचे तक घूरने लगे, पर उन्हें उन की पसंद के मुताबिक मांस का उतारचढ़ाव नजर नहीं आया,