लेखक- सुधा गुप्ता

मैं इस चेहरे के बारे में. कुछ ऐसा जो इस चेहरे से बहुत जुड़ा हुआ सा, कुछ इस के अतीत से, कुछ इस के बीते हुए कल से, कौन है आखिर वह? कार्यालय में भी मैं फुरसत में उसी चेहरे के बारे में सोचता रहा, कौन था आखिर वह?

वापसी में भी मैं भीड़ में नजर दौड़ाता रहा, शायद वह चेहरा नजर आ जाए.

ऐसा होता है न अकसर, हम बिना वजह परेशान हो उठते हैं. अचेतन में कुछ ऐसा इतना सक्रिय हो उठता है कि बीता हुआ कुछ धुंधली सी सूरत में मानस पटल पर आनेजाने लगता है. न साफ नजर आता है न पूरी तरह छिपता ही है.

‘‘क्या बात है, आज आप कुछ परेशान से नजर आ रहे हैं. कुछ सोच रहे हैं?’’ पत्नी ने आखिर पूछ ही लिया. उस ने भी पहचान लिया था मेरा भाव. हैरान हूं मैं, कैसे मेरी पत्नी झट से जान जाती है कि मैं किसी सोच में हूं. 28 साल से साथ हैं हम. हजार बार ऐसा हुआ होगा जब मैं ने चाहा होगा कि पत्नी से कुछ छिपा जाऊं मगर आज तक मेरा हर प्रयास असफल रहा.

‘‘आज मुझे एक चेहरा जानापहचाना लगा और ऐसा लगा कि उसे मैं बहुत करीब से जानता हूं और इतना भी आभास है कि जो भी उस चेहरे से जुड़ा है सुखद कदापि नहीं है. यहां तक कि मैं अपनी जानपहचान में भी दूर तक नजर दौड़ा आया हूं वह कहीं भी नजर नहीं आया.’’

‘‘होगा कोई. एक दिन अपनेआप याद आ जाएगा. आप आराम से खाना खाइए,’’ झुंझला कर उत्तर दिया पत्नी ने.

मेरी यह आदत उसे अच्छी नहीं लगती थी सो बड़बड़ाने लगी थी वह, ‘सारे जहां का दर्द मेरे दिल में है.’

‘‘तो क्या तुम्हारे दिल में नहीं है? पड़ोस में कोई गलत काम करता है तो यहां तुम्हारा खून उबलने लगता है. तब मुझे सुनासुना कर मेरा दिमाग खराब करती हो. अब जब मैं सुना रहा…’’

‘‘आप तो हवाई तीर चला रहे हो. जिस की चिंता है उसे जानते भी तो नहीं हो न. कम से कम मैं जिस की बात करती हूं उसे जानती तो हूं.’’

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‘‘मैं उसे जानता हूं, नंदा, यही तो परेशानी है कि याद नहीं आ रहा.’’

मैं बुदबुदा रहा था, ‘आखिर कौन था वह?’

दूसरे दिन, तीसरे दिन और उस के बाद कई दिन मैं उस के बारे में सोचता रहा. लोकल ट्रेन से आतेजाते निरंतर नजर भी दौड़ाता रहा, पर वह चेहरा नजर नहीं आया. धीरेधीरे मैं उसे भूल गया.

सच है न, समय से बड़ा कोई मरहम नहीं है. समय से बड़ा कोई आवरण भी नहीं. समय सब ढक लेता है. समय सब छिपा जाता है. चाहे सदा के लिए छिपा पाए तो भी कुछ समय का भुलावा तो होता ही है.

एक शाम पता चला, पड़ोस में कोई रहने आया है. पत्नी बहुत खुश थी. हमारी दोनों बेटियों के ससुराल चले जाने के बाद उसे अकेलापन बहुत खलता था न. पड़ोस में कोई बस जाएगा ऐसा सोच कर मुझे भी सुरक्षा का सा भाव प्रतीत होने लगा. कभी देरसवेर हो जाए तो मुझे चिंता होती थी. अब बगल के आंगन में होने वाली खटरपटर बड़ी सुखद लगने लगी थी. अभी जानपहचान नहीं थी फिर भी उन का एहसास ही बड़ी गहराई से हमें पुलकित करने लगा था.

‘‘चलो, उन से मिलने चला जाए या फिर उन्हें ही अपने घर पर बुला लें,’’ मैं ने पत्नी से कहा.

‘‘लगता है

वे किसी से

भी मिलना नहीं चाहते. आज

वह लड़की

सब्जी लेने बाहर निकली थी, मैं ने बात करनी चाही थी मगर वह बिना कुछ सुने ही चली गई.’’

‘‘क्यों?’’

पलक झप- काना ही भूल गया मैं. भला ऐसा क्यों? क्या इतने बूढ़े हैं हम जो एक जवान जोड़ा हम से बातें करना भी नहीं चाहता.

‘‘हम इतने बुरे लगते हैं क्या?’’

‘‘पता नहीं,’’ कह कर मुसकरा पड़ी थी नंदा.

नंदा सब्जी उठा कर रसोई में चली गई. अखबार पढ़ने में मन नहीं लगा मेरा सो उठ कर घर के बाहर निकल आया. गली में चक्कर लगाने लगा पर आतेजाते नजर पड़ोसी के बंद दरवाजे पर ही थी.

बहुत ही सुहानी हवा चल रही थी मगर उस के घर के दरवाजेखिड़कियां सब बंद थे. मैं सोचने लगा, क्या वे ठंडी हवा लेना नहीं चाहते? क्या दम नहीं घुटता उन का बंद घर में?

सुबह जब मैं कार्यालय जाने को निकला तो सहसा चौंक गया. पड़ोस के द्वार पर वही खड़ा था. वही सूरत जिसे मैं ने स्टेशन पर भीड़ में उस रोज देखा था. उसे देखते ही मैं पलक झपकाना भूल गया और दिमाग पर जोर डालने लगा, कौन है यह लड़का? कहां देखा है इसे?

मुझ से उस की नजरें मिलीं और वह झट से मुंह फेर कर निकल गया. तब मुझे ऐसा लगा, वह परिवार वास्तव में किसी से मिलना नहीं चाहता. यह लड़का कौन है? मैं कुछ जानता हूं इस के बारे में. अरे, मुझे सहसा सब याद आ गया, यह तो भाईसाहब का दामाद था, था क्या अभी भी है. इतना ध्यान आते ही काटो तो खून नहीं रहा मुझ में.

यह मेरी भतीजी का पति है जिस से उस का रिश्ता निभ नहीं पाया था और वह शादी के 4-5 महीने बाद ही वापस लौट आई थी.

भाई साहब तो यही बताते थे कि लड़के वाले दहेज के लालची थे. काफी लंबीचौड़ी कहानी बन गई थी. बाद में पुलिस काररवाई और दामाद की  जेलयात्रा, कितना दुखद था न सब.

मुझे तो यही पता था कि अभी भतीजी का तलाक नहीं हुआ है. भला बिना तलाक वह लड़का दूसरी शादी कैसे कर सकता है? मन में आया वापस घर आ कर पत्नी को सब बता दूं.

बेचैन हो उठा था मैं. यह समस्या तो मेरे ही घर की थी न, हमारी ही बेटी का जीवन अधर में लटका कर यह लालची पुरुष चैन से जी रहा था.

वापस चला आया मैं. जब नंदा को बताया तो हक्कीबक्की रह गई वह. सोचने लगी, तो क्या यह मानसी का पति है? जेठजी तो घुलघुल कर आधे रह गए हैं बेटी के दुख में और लड़का दूसरा घर बसा कर चैन से जी रहा है.

एक बार तो जी चाहा झट से साथ वाले घर पर जाएं और…मगर फिर सोचा, आखिर उस लड़की का क्या दोष है? कौन जाने उसे कुछ पता भी है या नहीं. पता नहीं यहां इस लड़के ने क्या रंग घोल रखा है. हम भी बेटियों वाले हैं, कैसे किसी की बेटी का घर ताश के पत्ते सा गिरा दें? पहले भाई साहब से ही क्यों न बात कर लें?

उसी शाम भाई साहब से फोन पर बात हुई और पता चला, मानसी का तलाक हो गया है. चलो, एक बात तो साफ हो गई. चैन की सांस ली मैं ने

परंतु वह प्रश्न तो वहीं रहा न, अगर यह लड़का लालची था तो इस लड़की के साथ तो ऐसा नहीं लगता कि बहुत अमीरी में रह रहा हो. उन का सामान तो

हमारे सामने ही छोटे से ट्रक से उतरा था. नईनई गृहस्थी जमाने को बस,

ठीकठाक सामान ही था. क्या पता इस लड़की के पिता से नकद दहेज ले

लिया हो?

पत्नी ने बताया कि लड़की भी बड़ी मासूम, सीधीसादी, प्यारी सी है. तब वह क्या था जब मानसी के साथ दुखद घटा था? सीधासादा सा सामान्य परिवार ही तो है इस लड़के का. हम जैसा सामान्य वर्ग, तो फिर उस कार की मांग का क्या हुआ? भाई साहब तो बता रहे थे कि लड़का कार की मांग कर रहा है. मानसी के बाद अब यहां मुझे तो कोई कार दिखाई नहीं दी.

उथलपुथल मच गई थी मेरे अंतर्मन में. हजारों सवाल नागफनी से मुझे डसने लगे थे. क्यों मानसी का घर उजड़ गया और यह लड़का यहां अपना घर बसा कर जी रहा है? एक जलन का सा भाव पनप रहा था मन में, हमारी बच्ची को सता कर वह सुखी क्यों है?

ऐसे ही 2-3 दिन बीत गए. हम समझ नहीं पा रहे थे कि सचाई कैसे जानें.

दरवाजे की घंटी बजी और हम पतिपत्नी हक्के- बक्के रह गए. सामने वही लड़की खड़ी थी. हमारी नन्ही पड़ोसिन जो अब मानसी के तलाकशुदा पति की पत्नी है.

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कुछ पल को तो हम समझ ही नहीं पाए कि हम क्या कहें और क्या नहीं. स्वर निकला ही नहीं. वह भी चुपचाप हमारे सामने इस तरह खड़ी थी जैसे कोई अपराध कर के आई हो और अब दया चाहती हो.

‘‘आओ…, आओ बेटी, आओ न…’’ मैं बोला.

पता नहीं क्यों स्नेह सा उमड़ आया उस के प्रति. कई बार होता है न, कोई इनसान बड़ा प्यारा लगता है, निर्दोष लगता है.

‘‘आओ बच्ची, आ जाओ न,’’ कहते हुए मैं ने पत्नी को इशारा किया कि वह उसे हाथ पकड़ कर अंदर बुला ले.

इस से पहले कि मेरी पत्नी उसे पुकारती, वह स्वयं ही अंदर चली आई.

‘‘आप…आप से मुझे कुछ बात करनी है,’’ वह डरीडरी सी बोली.

बहुत कुछ था उस के इतने से वाक्य में. बिना कहे ही वह बहुत कुछ कह गई थी. समझ गया था मैं कि वह अवश्य अपने पति के ही विषय में कुछ साफ करना चाहती होगी.

पत्नी चुपचाप उसे देखती रही. हमारे पास भला क्या शब्द होते बात शुरू करने के लिए.

‘‘आप लोग…आप लोगों की वजह से चंदन बहुत परेशान हैं. बहुत मेहनत से मैं ने उन्हें ठीक किया था. मगर जब से उन्होंने आप को देखा है वह फिर से वही हो गए हैं, पहले जैसे बीमार और परेशान.’’

‘‘लेकिन हम ने उस से क्या कहा है? बात भी नहीं हुई हमारी तो. वह मुझे पहचान गया होगा. बेटी, अब जब तुम ने बात शुरू कर ही दी है तो जाहिर है सब जानती होगी. हमारी बच्ची का क्या दोष था जरा समझाओ हमें? चंदन ने उसे दरबदर कर दिया, आखिर क्यों?’’

‘‘दरबदर सिर्फ मानसी ही तो नहीं हुई न, चंदन भी तो 4 साल से दरबदर हो रहे हैं. यह तो संयोग था न जिस ने मानसी और चंदन दोनों को दरबदर…’’

‘‘क्या कार का लालच संयोग ने किया था? हर रोज नई मांग क्या संयोग करता था?’’

‘‘यह तो कहानी है जो मानसी के मातापिता ने सब को सुनाई थी. चंदन के घर पर तो सबकुछ था. उन्हें कार का क्या करना था? आज भी वह सब छोड़छाड़ कर अपने घर से इतनी दूर यहां राजस्थान में चले आए हैं सिर्फ इसलिए कि उन्हें मात्र चैन चाहिए. यहां भी आप मिल गए. आप मानसी के चाचा हैं न, जब से आप को देखा है उन का खानापीना छूट गया है. सब याद करकर के वह फिर से पहले जैसे हो गए हैं,’’ कहती हुई रोने लगी वह लड़की, ‘‘एक टूटे हुए इनसान पर मैं ने बहुत मेहनत की थी कि वह जीवन की ओर लौट आए. मेरा जीवन अब चंदन के साथ जुड़ा है. वह आप से मिल कर सारी सचाई बताना चाहते हैं. आखिर, कोई तो समझे उन्हें. कोई तो कहे कि वह निर्दोष हैं.

‘‘कार की मांग भला वह क्या करते जो अपने जीवन से ही निराश हो चुके थे. आजकल दहेज मांगने का आरोप लगा देना तो फैशन बन गया है. पतिपत्नी में जरा अलगाव हो जाए, समाज के रखवाले झट से दहेज विरोधी नारे लगाने लगते हैं. ऐसा कुछ नहीं था जिस का इतना प्रचार किया गया था.’’

‘‘तुम्हारा मतलब…मानसी झूठ बोलती है? उस ने चंदन के साथ जानबूझ कर निभाना नहीं चाहा? इतने महीने वह तो इसी आस पर साथ रही थी न कि शायद एक दिन चंदन सुधर जाएगा,’’ नंदा ने चीख कर कहा. तब उस बच्ची का रोना जरा सा थम गया.

‘‘वह बिगड़े ही कब थे जो सुधर जाते? मैं आप से कह रही हूं न, सचाई वह नहीं है जो आप समझते हैं. दहेज का लालच वहां था ही नहीं, वहां तो कुछ और ही समस्या थी.’’

‘‘क्या समस्या थी? तुम्हीं बताओ.’’

‘‘आप चंदन से मिल लीजिए, अपनी समस्या वह स्वयं ही समझाएंगे आप को.’’

‘‘मैं क्यों जाऊं उस के पास?’’

‘‘तो क्या मैं उन्हें भेज दूं आप के पास? देखिए, आज की तारीख में आप अगर उन की बात सुन लेंगे तो उस से मानसी का तो कुछ नहीं बदलेगा लेकिन मेरा जीवन अवश्य बच जाएगा. मैं आप की बेटी जैसी हूं. आप एक बार उन के मुंह से सच जान लें तो उन का भी मन हलका हो जाएगा.’’

‘‘वह सच तुम्हीं क्यों नहीं बता देतीं?’’

‘‘मैं…मैं आप से कैसे कह दूं वह सब. मेरी और आप की गरिमा ऐसी अनुमति नहीं देती,’’ धीरे से होंठ खोले उस ने. आंखें झुका ली थीं.

नंदा कभी मुझे देखती और कभी उसे. मेरे सोच का प्रवाह एकाएक रुक गया कि आखिर ऐसा क्या है जिस से गरिमा का हनन होने वाला है? मेरी बेटी की उम्र की बच्ची है यह, इस का चेहरा परेशानी से ओतप्रोत है. आज की तारीख में जब मानसी का तलाक हो चुका है, उस का कुछ भी बननेबिगड़ने वाला नहीं है, मैं क्यों किसी पचड़े में पड़ूं? क्यों राख टटोलूं जब जानता हूं कि सब स्वाहा हो चुका है.

अपने मन को मना नहीं पा रहा था मैं. इस चंदन की वजह से मेरे भाई

का बुढ़ापा दुखदायी हो गया, जवान बेटी न विधवा हुई न सधवा रही. वक्त की मार तो कोई भी रोतेहंसते सह ले लेकिन मानसी ने तो एक मनुष्य की मार

सही थी.

‘‘कृपया आप ही बताइए मैं क्या करूं? मैं सारे संसार के आगे गुहार नहीं लगा रही, सिर्फ आप के सामने विनती कर रही हूं क्योंकि मानसी आप की भतीजी है. इत्तिफाकन जो घट गया वह आप से भी जुड़ा है.’’

‘‘तुम जाओ, मैं तुम्हारे साथ नहीं आ सकता.’’

‘‘चंदन कुछ कर बैठे तो मेरा तो घर ही उजड़ जाएगा.’’

‘‘जब हमारी ही बच्ची का घर उजड़ गया तो चंदन के घर से मुझे क्या लेनादेना?’’

‘‘चंदन समाप्त हो जाएंगे तो उन का नहीं मेरा जीवन बरबाद…’’

‘‘तुम उस की इतनी वकालत कर रही हो, कहीं मानसी की बरबादी

का कारण तुम्हीं तो नहीं हो? इस जानवर का साथ देने का भला क्या

मतलब है?’’

‘‘चंदन जानवर नहीं हैं, चाचाजी. आप सच नहीं जानते इसीलिए कुछ समझना नहीं चाहते.’’

‘‘अब सच जान कर हमारा कुछ भी बदलने वाला नहीं है.’’

‘‘वह तो मैं पहले ही विनती कर चुकी हूं न. जो बीत गया वह बदल नहीं सकता. लेकिन मेरा घर तो बच जाएगा न. बचाखुचा कुछ अगर मेरी झोली में प्रकृति ने डाल ही दिया है तो क्या इंसानियत के नाते…’’

‘‘हम आएंगे तुम्हारे घर पर,’’ नंदा बीच में ही बोल पड़ी.

मुझे ऐसी ही उम्मीद थी नंदा से. कहीं कुछ अनचाहा घट रहा हो और नंदा चुप रह जाए, भला कैसे मुमकिन था. जहां बस न चले वहां अपना दिल जलाती है और जहां पूरी तरह अपना वश हो वहां भला पीछे कैसे रह जाती.

‘‘तुम जाओ, नाम क्या है तुम्हारा?’’

‘‘संयोगिता,’’ नाम बताते हुए हर्षातिरेक में वह बच्ची पुन: रो पड़ी थी.

‘‘मैं तुम्हारे घर आऊंगी. तुम्हारे चाचा भी आएंगे. तुम जाओ, चंदन को संभालो,’’ पत्नी ने उसे यकीन दिलाया.

उसे भेज कर चुपचाप बैठ गई नंदा. मैं अनमना सा था. सच है, जब मानसी का रिश्ता हुआ भैया बहुत तारीफ करते थे. चंदन बहुत पसंद आया था उन्हें. सगाई होने के 4-5 महीने बाद ही शादी हुई थी. इस दौरान मानसी और चंदन मिलते भी थे. फोन भी करते थे. सब ठीक था, पर शादी के बाद ही ऐसा क्या हो गया? अच्छे इनसान 2-4 दिन में ही जानवर कैसे बन गए?

भाभी भी पहले तारीफ ही करती रही थीं फिर अचानक कहने लगीं कि चंदन तो शादी वाले दिन से ही उन्हें पसंद नहीं आया था. जो इतने दिन सही था वह अचानक गलत कैसे हो गया. हम भी हैरान थे.

तब मेरी दोनों बेटियां अविवाहित थीं. मानसी की दुखद अवस्था से हम पतिपत्नी परेशान हो गए थे कि कैसे हम अपनी बच्चियों की शादी करेंगे? इनसान की पहचान करना कितना मुश्किल है, कैसे अच्छा रिश्ता ढूंढ़ पाएंगे उन के लिए? ठीक चलतेचलते कब कोई क्यों गलत हो जाता है पता ही नहीं चलता.

‘मैं ने तो मानसी से शादी के हफ्ते बाद ही कह दिया था, वापस आ जा, लड़कों की कमी नहीं है. तेरी यहां नहीं निभने वाली…’ एक बार भाभी ने सारी बात सुनातेसुनाते कहा था, ‘फोन तक तो करने नहीं देते थे, ससुराल वाले. बड़ी वाली हमें घंटाघंटा फोन करती रहती है, यह तो बस 5 मिनट बाद ही कहने लगती थी, बस, मम्मी, अब रखती हूं. फोन पर ज्यादा बातें करना ससुरजी को पसंद नहीं है.’

मानसी शिला सी बैठी रहती थी. एक दिन मैं ने स्नेह से उस के सिर पर हाथ रखा तो मेरे गले से लिपट कर रो पड़ी थी, ‘पता नहीं क्यों सब बिखरता ही चला गया, चाचाजी. मैं ने निभाने की बहुत कोशिश की थी.’

‘तो फिर चूक कहां हो गई, मानसी?’

‘उन्हें मेरा कुछ भी पसंद नहीं आया. अनपढ़ गंवार बना दिया मुझे. सब से कहते थे. मैं पागल हूं. लड़की वाले तो दहेज में 10-10 लाख देते हैं, तुम्हारे घर वालों ने तो बस 2-4 लाख ही लगा कर तुम्हारा निबटारा कर दिया.’

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हैरानपरेशान था मैं तब. मैं भी तब अपनी बच्चियों के लिए रिश्तों की तलाश में था. सोचता था, मैं तो शायद इतना भी न लगा पाऊं. क्या मेरी बेटियां भी इसी तरह वापस लौट आएंगी? क्या होगा उन का?

‘देखो भैया, उन लोगों ने इस की नस काट कर इसे मार डालने की कोशिश की है. यह देखो भैया,’ भाभी ने मानसी की कलाई मेरे सामने फैला कर कहा था. यह देखसुन कर काटो तो खून नहीं रहा था मुझ में. जिस मानसी को भैयाभाभी ने इतने लाड़प्यार से पाला था उसी की हत्या का प्रयास किया गया था, और भाभी आगे बोलती गई थीं, ‘उन्होंने तो इसे शादी के महीने भर बाद ही अलग कर दिया था.

‘जब से हम ने महिला संघ में उन की शिकायत की थी तभी से वे लोग इसे अलग रखते थे. चंदन तो इस के पास भी नहीं आता था. वहीं अपनी मां के पास रहता था. राशनपानी, रुपयापैसा सब मैं ही पहुंचा कर आती थी. इस के बाद तो मुझे फोन करने के लिए पास में 10 रुपए भी नहीं होते थे.’

सारी की सारी कहानी का अंत यह हुआ कि चंदन काफी समय जेल में रहा था, उस की नौकरी छूट गई थी सो अलग. वे लोग तलाक ही नहीं देते थे. न जीते थे न जीने ही देते थे.

‘‘आप बुरा न मानें तो एक बात कहूं, मुझे तब भी दाल में कुछ काला लगता था जब मानसी वापस आ गई थी. इस चंदन को अगर मानसी की हत्या करनी होती तो वह उस की गरदन काटता न कि जरा सी नस काट कर छोड़ देता ताकि वह जिंदा रह कर सब को बताए कि सच क्या है. बेटी का मसला था न, मैं क्या कहती, मगर यह सत्य है कि लड़की वालों को सदा सहानुभूति मिलती है और लड़का इसी बात का अपराधी बन जाता है कि उस ने सात फेरे ले लिए थे, बस,’’ नंदा बोली तो बस, बोलती ही चली गई, ‘‘बड़ी वाली बेटी घंटाघंटा अपनी ससुराल से हर रोज फोन करती थी तो क्या जरूरी था कि मानसी भी हर रोेज घंटाघंटा मां से बातें करती? हमारी भी तो बेटियां हैं न, हम क्या रोज उन से बातें करते हैं?’’

‘‘फोन मात्र सुविधा के लिए होते हैं ताकि समय पर जरूरी बात की जाए, गपशप लगाएंगे तो क्या फोन का बिल नहीं आएगा? हमारी ही बहू अगर हर रोज अपनी मां से फोन पर गपशप करेगी तो क्या हजारों रुपए बिल देते हुए हम चीखेंगे नहीं? आखिर इतनी क्या बातें होती हैं जो मानसी मां से करना चाहती थी?’’

‘‘ससुराल भेज दिया है बेटी को तो उसे वहां बसने का मौका भी देना चाहिए. ससुराल में घटने वाली जराजरा सी बातें अगर मायके में बताई जाएं तो वे मिठास कम खटास ज्यादा पैदा करती हैं. मुझे तब भी लगता था कि कहीं कुछ गलत हुआ है. अब तो संयोगिता ने भी कुछ बताना चाहा है न, सच कुछ और होगा, आप देख लेना.’’

‘‘घर की बहू शादी के एक महीने बाद ही सहायता के लिए महिला संघ में पहुंच जाए तो क्या ससुराल वाले डर कर उसे अलग नहीं कर देंगे. बेटा क्या पत्नी को स्नेह दे पाएगा जब उस के सिर पर हर पल पुलिस और महिला संघ की तलवार लटकती रहेगी? कोई भी रिश्ता डर से नहीं प्यार से पनपता है. चंदन और मानसी में प्यार कब पनपा होगा जो उन की निभ पाती?’’

मैं चुपचाप सुनता रहा. यह सच है कि हमारी बेटियां अपनेअपने घर में खुश हैं. 15-20 दिन बाद वह हमें फोन कर के हमारा हालचाल पूछ लेती हैं, जराजरा सी बात न वह हमें फोन पर बताती हैं और न ही हम. अनुशासन तो जीवन में हर कदम पर होना चाहिए न. सीमित आय वाला हजारों रुपए का बिल कैसे चुका पाएगा. व्यर्थ क्लेश तो होगा ही न.

जल्दी ही हम दोनों चंदन से मिलने जा पहुंचे. दूल्हा बने कभी मानसी की बगल में बैठे देखा था उसे और अब ऐसा लग रहा था जैसे पूरे जीवन का संत्रास एकसाथ ही सह कर थकाहारा एक इनसान हमारे सामने खड़ा है.

चंदन ने हमारे पैर छू कर प्रणाम किया. मैं सोचने लगा, क्या अब भी हमारा कोई ऐसा अधिकार बचा है?

‘‘जीते रहो,’’ स्वत: निकल गया मेरे होंठों से.

कुछ पल हम आमनेसामने बैठे रहे. बात कैसे शुरू की जाए. मैं ने ही चंदन को पास बुला लिया, ‘‘यहां आ कर मेरे पास बैठो, चंदन. आओ बेटा.’’

एक पुरुष बच्चों की तरह कैसे रो पड़ता है मैं ने पहली बार देखा था. मेरे घुटनों पर सिर रख कर वह ऐसी दर्द भरी चीखों से रोया कि नंदा भी घबरा उठी. संयोगिता ने ही लपक कर उसे संभाला, ‘‘आप चाचाजी से सब कह दीजिए, चंदन. रोइए मत, आप इसी तरह रोते रहेंगे तो बात कैसे कर पाएंगे? मैं चाची को ले कर दूसरे कमरे में चली जाती हूं. आप चाचाजी से बात कीजिए. रोइए मत, चंदन.’’

तब सहसा मैं ने ही चंदन को संभाला और इशारे से नंदा को संयोगिता के साथ जाने का इशारा किया. तब एक संतोष भाव उभर आया था संयोगिता के चेहरे पर मानो मेरे इशारे से एक डूबते को तिनके का सहारा मिला हो. संयोगिता भरी आंखों से मेरा आभार जताती हुई नंदा के साथ चली गई.

हम दोनों अकेले रह गए. कुछ समय लग गया चंदन को सामान्य होने में. फिर धीरे से चंदन ने ही कहा, ‘‘मेरा जीवन इस कदर बरबाद हो जाएगा मैं ने कभी सोचा भी न था.’’

‘‘यह सब क्यों और कैसे हो गया, मुझे सचसच बताओ, चंदन. किस का कितना दोष था, समझाओ मुझे. क्या मानसी निभा नहीं पाई या…?’’

‘‘सब से बड़ा दोष तो मेरा ही था, चाचाजी. मुझे तो पता नहीं था कि मेरे शरीर में कोई कमी है. मेरा शरीर मेरा साथ नहीं दे पाएगा मैं नहीं जानता था.’’

यह सुन कर मैं हक्काबक्का रह गया. चंदन कुछ देर चुप रहा फिर बोला, ‘‘यह सचाई मुझे स्वीकार करनी चाहिए थी न. जो मेरे बस में नहीं था मुझे उसे अपनी कमी मान कर मानसी को आजाद कर देना चाहिए था. मैं अपनी कमजोरी स्वीकार ही नहीं कर पाया.

‘‘हर बीमारी का इलाज है. ठंडे दिमाग से हल निकालता तो हो सकता था सब ठीक हो जाता. मानसी को सचाई से अवगत कराता तो हो सकता था वह मेरा साथ देती, मेरा मानसम्मान संभाल कर रखती. मगर मैं तो अपनी कुंठा, अपनी हताशा मानसी पर उतारता रहा. उस ने निभाने की कोशिश की थी मगर मैं ने ही कोई रास्ता नहीं छोड़ा था.

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‘‘मानसी जराजरा सी बात अपने मायके में बताती. मैं चिढ़ कर फोन ही काट देता. मैं ने मानसी की हत्या करने की कोशिश नहीं की थी. मानसी ने खुद ही तंग आ कर अपनी नसें काट ली थीं.

‘‘यह भी सच है कि मानसी अपनी बड़ी बहन की अमीर ससुराल से हमारी तुलना करती थी कि दीदी दिन में 2-2 बार मम्मी को फोन करती हैं इसलिए वह भी करेगी. पहली बार में ही जब लंबाचौड़ा बिल आ गया तो पिताजी ने साफसाफ मना कर दिया, जिस पर मानसी ने काफी बावेला मचाया.

‘‘हमारे घर में अनुशासन था जिस में बंधना मानसी को गंवारा नहीं था. हमारी नपीतुली आमदनी पर जब मानसी ने ताना कसा तो मैं ने भी कह दिया था कि लोग तो दामाद को 10-10 लाख देते हैं, इतना ही खुला हाथ है तो अपनी मां से मांग लो.

‘‘बस, इसी बात को मुद्दा बना कर मानसी के परिवार ने महिला संघ में शिकायत कर दी कि मैं दहेज की मांग कर रहा हूं. मैं ने घबरा कर मानसी को उस के पूरे दानदहेज के साथ अलग कर दिया. मैं नहीं चाहता था कि मेरे मातापिता पर कोई आंच आए.

‘‘हालात बिगड़ते ही चले गए, चाचाजी. सब मेरे हाथ से निकलता चला गया. मेरा दोष था, मैं मानता हूं. मैं ने सब का हित सोचा, अपने मांबाप का हित सोचा, अपनी कमजोरी छिपा कर सोचा कि अपना हित कर रहा हूं लेकिन बेचारी मानसी का हित नहीं सोचा. उसे कुछ नहीं दिया. मेरे जीवन से वह रोतीबिलखती ही चली गई.

‘‘मैं अपनी भूल मानता हूं लेकिन यह सच नहीं है कि मैं ने मानसी की हत्या का प्रयास किया था. मैं ने दहेज की मांग कभी नहीं की थी, चाचाजी. मैं ने मानसी को अपनी समस्या नहीं बताई, यह सच है लेकिन यह सच नहीं है कि मैं मानसी को पागल प्रमाणित करना चाहता था.

‘‘अखबारों में मुझ पर जोजो आरोप छपे वे सच नहीं हैं. सच तो सामने आया ही नहीं. जो अन्याय मैं ने कभी किया ही नहीं उस की सजा मैं ने क्यों पाई? इतना अपमान और इतनी बदनामी होगी मैं ने नहीं सोचा था.

‘‘मानसी के साथ एक सुखी गृहस्थी का सपना था मेरा. नहीं सोचा था, 2 दिन बाद ही मेरा घर जंग का मैदान बन जाएगा. मानसी का सहज सामीप्य ही असहनीय हो जाएगा.

‘‘मैं मानसी से दूर रहने के बहाने ढूंढ़ने लगा था. अपनी नपुंसकता को मानसी से अवगत कराता तो शायद वह मुझे सहारा देती. अपने मांबाप को भी कुछ बता पाता तो हो सकता था वही मुझे कोई रास्ता दिखाते. अपने ही खोल में घुटघुट कर मैं ने अपने साथसाथ मानसी का भी जीना हराम कर दिया था. मेरी वजह

से मानसी का जीवन बरबाद हो गया. मुझे अपनी कमी का एहसास होता तो मैं कभी शादी नहीं करता. सच का सामना करता तो शायद कोई आसान रास्ता निकल आता.

‘‘मेरी हताशा हर रोज कोई नई समस्या खड़ी करती और मानसी का मुझ से झगड़ा हो जाता. असहाय मानसी करती भी तो क्या?

‘‘चाचाजी, 4 साल बीत गए उस घटना को, मेरी सांस घुटती  है वह सब याद कर के. हम ने मानसी का जीवन तबाह किया है.’’

मैं भारी मन से सबकुछ सुनता रहा. आखिर कहता भी क्या.

‘‘मैं आज भी मानसी को भुला नहीं पाया हूं, चाचाजी,’’ चंदन ने आगे कहना जारी रखा, ‘‘मैं मानसी के लिए परेशान हूं््. मैं उस से सिर्फ एक बार मिलना चाहता हूं.

‘‘आज इतना सब भोगने के बाद सच का सामना करने की हिम्मत है मुझ में. चाचाजी, आप मुझे सिर्फ एक बार मानसी से मिला दें.

‘‘संयोगिता से जब शादी की तब क्या उसे पूरी सचाई बताई थी?’’ मैं ने पूछा.

‘‘जी, संयोगिता मेरे एक दोस्त की बहन है. मेरी सचाई जान गई थी. दोस्त की पत्नी ने सब बताया था इसे. मेरा दोस्त ही मुझे डाक्टर के पास ले गया था. मैं मानता हूं, मुझ से ही गलती हुई थी. जो कदम मैं ने इतनी बड़ी सजा भोगने के बाद उठाया वह तभी उठा लेता तो इतनी बड़ी घटना न होती.’’

‘‘अब मानसी से मिल कर दबी राख क्यों कुरेदना चाहते हो? जो हो गया उसे सपना समझ कर भूलने का प्रयास करो. क्या संयोगिता का दिल भी दुखाना चाहते हो, जिस ने जीवन का सब से बड़ा जुआ खेला तुम्हारा हाथ पकड़ कर? तुम्हारा मन हलका हो जाए, मैं इसीलिए चला आया हूं, मगर अब अगर संयोगिता का मन दुखाओगे तो एक और भूल करोगे,’’ कहते हुए मेरी नजर बाहर की बंद खिड़कियों पर पड़ी. मैं ने उठ कर सारे पट खोल दिए. ताजा हवा अंदर चली आई. मैं फिर बोला, ‘‘घुटघुट कर मत जिओ, चंदन, खुल कर जिओ और अपना जीवन सरल बनाना सीखो. संयोगिता, जो तुम्हें संयोग ने दी है, अब उसी को सहेजो. जो नहीं रहा उस का दुख मत करो, समझेन.’’

शांत हो चुका था चंदन. उस का कंधा थपक कर मैं बाहर चला आया.

बाहर नंदा मेरा ही इंतजार कर रही थी.

घर आ कर मैं देर तक सामान्य नहीं हो पाया. सोचने लगा, क्या दोष था चंदन का? अपनी सामयिक नपुंसकता को सहज स्वीकार नहीं कर पाया, क्या यही दोष था इस का? हम में से कितने ऐसे पुरुष हैं जो अपनी नपुंसकता को सहज स्वीकार कर कोई स्वस्थ दृष्टिकोण अपना पाते हैं? लड़की वाले अकसर अपनी हालत यह प्रमाणित कर के ज्यादा दयनीय बना लेते हैं कि उन्हीं के साथ ज्यादा अन्याय हुआ है. मानसी भी तो सचाई अपनी मां को बता सकती थी. वह चंदन पर हत्या करने का आरोप लगा कर इतना बड़ा बखेड़ा तो खड़ा न करती. यह सच है कि चंदन से प्यार मिलता तो मानसी सब सह जाती लेकिन चंदन से मिली थी मात्र हताशा, मानसिक यातना, जिस का प्रतिकार मानसी ने भी इस तरह किया. दोनों में से किसी का भी तो भला नहीं हुआ न.

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‘‘क्या सोच रहे हैं आप?’’ नंदा ने पूछा.

‘‘बस, इतना ही कि हमारा भी कोई बेटा होता तो…’’

‘‘एकाएक बेटा क्यों सूझा आप को?’’

‘‘बेटा नहीं सूझा, एक जरूरत सूझी है. क्या बेटे की शादी से पहले उस का पूरा मेडिकल चेकअप जरूरी नहीं है? जन्मपत्री की जगह रक्त मिलाना चाहिए. तुम क्या सोचती हो. मेरा बेटा होता तो उस की पूरी जांच कराए बिना कभी शादी न कराता.

‘‘यह संकोच की बात नहीं एक जरूरत होनी चाहिए. मानसी का जीवन अधर में न लटकता अगर चंदन के मांबाप ने यह स्वस्थ दृष्टिकोण अपनाया होता.’’

चुप थी नंदा. इस का मतलब वह मेरे शब्दों से सहमत थी. संयोगिता ने इसे शायद सारा सच बताया होगा न.

ठंडी सांस ली नंदा ने. मेरी तरफ देखा. उस की आंखों में भी पीड़ा थी. बस, यही सोच कर कि जो हो गया उसे समय पर संभाल लिया जाता तो जो सब हो गया वह कभी न होता.                                                    द्य

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