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इधर एक भी ईंट भरभरी हुई, तो पूरी मीनार के ढहने का अंदेशा हो जाता है. बेटे तो नींव की ईंटें हैं, चूलें हिल जाएंगी. यह अनाड़ी तो बिना भविष्य बांचे दरदर लोगों की भलाई किए फिरता है. दिमाग ही नहीं लगाता कि जहां भलाई कर रहा है वहां फायदा है भी या नहीं. न जाति देखता, न धर्म, न विरोधी पार्टी, न विरोधी लोग. कोई भेदविचार नहीं. सत्यवादी हरिश्चंद्र सा आएदिन सत्य उगल देता है जो अपनी ही पार्टी के लिए खतरे का सिग्नल बन जाता है. सो, क्यों न इस लड़के को यहां से निकाल कर इलाहाबाद भेज दिया जाए. कम से कम इस से उस का भला हो न हो, पार्टी को नुकसान तो कम होगा. ऐसे भी इस लड़के के आसार सुख देने वाले तो लगते नहीं. काफीकुछ भलेबुरे का सोच गगन त्रिपाठी बेटे मृगांक को आईएएस की तैयारी करने के लिए इलाहाबाद छोड़ आए. जिस के पंख निकले ही थे दूसरों को मंजिल तक पहुंचाने के लिए, वह क्या दूसरों के पंख कुतरेगा खुद की भलाई के लिए?

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मृगांक इलाहाबाद में भी अपने ही तौरतरीकों में रम गया. इतिहास में पीएचडी करते हुए विश्वविद्यालय में ही प्रोफैसर हो गया. आईएएस की कोचिंग से निसंदेह उस में ज्ञान के प्रति ललक बढ़ी थी और मानव जीवन के प्रति जिज्ञासा भी. लिहाजा, सामाजिक कार्यों की उस की फेहरिस्त बड़ी लंबी थी. 29 वर्ष की अवस्था में वह 700 मुकदमे लड़ रहा था जो उपभोक्ता संरक्षण से ले कर सड़क परिवहन व्यवस्था में सुरक्षा की अनदेखी, शिक्षा के गिरते स्तरों में प्राइवेट स्कूलों की उदासीनता और सरकारी स्कूलों में लापरवाही तथा देहव्यापार में लिप्त लोगों को कानूनी दायरे में ला कर सजा दिलवाने व इस व्यापार में लगी मासूम बच्चियों के संरक्षण वगैरा के मामले थे. प्रोफैसर की नौकरी बजाते हुए अकेले ही कुछ अच्छे लोगों के सहयोग से वह इन कामों को आगे बढ़ा रहा था. हां, उस के दादाजी का कभी पुलिस विभाग में होना उसे पहचान का लाभ जरूर देता था. न जाने पहचान का लाभ लोग किसकिस वजह लेते हैं, मृगांक के लिए तो यह लाभ सिर्फ सर्वजनहिताय था.

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