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लेखिका- किरण डी. कुमार

‘‘दीदी, मेरा तलाक हो गया,’’ नलिनी के कहे शब्द बारबार मेरे कानों में जोरजोर से गूंजने लगे. मैं अपने दोनों बच्चों के साथ कोलकाता से अहमदाबाद जाने वाली ट्रेन में बैठी थी. नागपुर आया तो स्टेशन के प्लेटफार्म पर नलिनी को खड़ा देख कर मुझे बड़ी खुशी हुई. लेकिन न मांग में सिंदूर न गले में मंगलसूत्र. उस का पहनावा देख कर मैं असमंजस में पड़ गई.

मेरे मन के भावों को पढ़ कर नलिनी ने खुद ही अपनी बात कह दी थी.

‘‘यह क्या कह रही हो, नलिनी? इतना सब सहने का अंत इतना बुरा हुआ? क्या उस पत्थर दिल आदमी का दिल नहीं पसीजा तुम्हारी कठोर तपस्या से?’’

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‘‘शायद मेरी जिंदगी में यही लिखाबदा था, दीदी, जिसे मैं 8 साल से टालती आई थी. मैं हालात से लड़ने के बदले पहले ही हार मान लेती तो शायद मुझे उतनी मानसिक यातना नहीं झेलनी पड़ती,’’ नलिनी भावुक हो कर कह उठी. उस के साथ उस की चचेरी बहन भी थी जो गौर से हमारी बातें सुन रही थी.

नलिनी के साथ मेरा परिचय लगभग 10 साल पुराना है. बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत मेरे पति आशुतोष का तबादला अचानक ही कोलकाता से अहमदाबाद हो गया था. अहमदाबाद से जब हम किराए के  फ्लैट में रहने गए तो सामने के बंगले में रहने वाले कपड़े के व्यापारी दिनकर भाई ठक्कर की तीसरी बहू थी नलिनी.

नई जगह, नया माहौल…किसी से जानपहचान न होने के कारण मैं अकसर बोर होती रहती थी. इसलिए शाम होते ही बच्चों को ले कर घर के सामने बने एक छोटे से उद्यान में चली जाती थी. दिनकर भाई की पत्नी भानुमति बेन भी अपने पोतेपोतियों को ले कर आती थीं.

पहले बच्चों की एकदूसरे से दोस्ती हुई, फिर धीरेधीरे मेरा परिचय उन के संयुक्त परिवार के सभी सदस्यों से हुआ. भानुमति बेन, उन की बड़ी बहू सरला, मझली दिशा और छोटी नलिनी. भानुमति बेन की 2 बेटियां भी थीं. छोटी सेजन 12वीं कक्षा में पढ़ रही थी.

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गुजरात में लोगों का स्वभाव इतना खुले दिल का और मिलनसार होता है कि कोई बाहरी व्यक्ति अपने को वहां के लोगों में अकेला नहीं महसूस करता. ठक्कर परिवार इस बात का अपवाद न था. मेरी भाषा बंगाली होने के कारण मुझे गुजराती तो दूर हिंदी भी टूटीफूटी ही आती थी. भानुमति बेन को गुजराती छोड़ कर कोई और भाषा नहीं आती थी. वह भी मुझ से टूटीफूटी हिंदी में बात करती थीं. धीरेधीरे हमारा एकदूसरे के घर आनाजाना शुरू हो गया था. घर में जब भी रसगुल्ले बनते तो सब से पहले ठक्कर परिवार में भेजे जाते और उन की तो बात ही क्या थी, आएदिन मेरे घर वे खमनढोकला और मालपुए ले कर आ जातीं.

ठक्कर परिवार में सब से ज्यादा नलिनी ही मिलनसार और हंसमुख स्वभाव की थी. गोरा रंग, बड़ीबड़ी आंखें, तीखे नाकनक्श, छरहरा बदन और कमर तक लटकती चोटी…कुल मिला कर नलिनी सुंदरता की परिभाषा थी. तभी तो उस का पति सुशांत उस का इतना दीवाना था. नलिनी घरेलू कामों में अपनी दोनों जेठानियों से ज्यादा दक्ष थी. सासससुर की चहेती बहू और दोनों ननदों की चहेती भाभी, किसी को भी पल भर में अपना बना लेने की अद्भुत क्षमता थी उस में.

20 जनवरी, 2001 को मैं सपरिवार अपनी छोटी बहन के विवाह में शामिल होेने कोलकाता चली गई. 26 जनवरी को मेरी छोटी बहन की अभी डोली भी नहीं उठी थी कि किसी ने आ कर बताया कि अहमदाबाद में भयंकर भूकंप आया है. सुन कर दिल दहल गया. मेरे परिवार के चारों सदस्य तो विवाह में कोलकाता आ कर सुरक्षित थे, पर टेलीविजन पर देखा कि प्रकृति ने अपना रौद्र रूप दिखा कर कहर बरपा दिया था और भीषण भूकंप के कारण पूरे गुजरात में त्राहित्राहि मची हुई थी.

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अहमदाबाद में भूकंप आने के 10 दिन बाद हम वापस आ गए तो देखा हमारे अपार्टमेंट का एक छोटा हिस्सा ढह गया था, पर ज्यादातर फ्लैट थोड़ीबहुत मरम्मत से ठीक हो सकते थे.

अपने अपार्टमेंट का जायजा लेने के बाद ठक्कर निवास के सामने पहुंचते ही बंगले की दशा देख कर मेरे रोंगटे खड़े हो गए. पुराने समय में बना विशालकाय बंगला भूकंप के झटकों से धराशायी हो चुका था. ठक्कर परिवार ने महल्ले के दूसरे घरों में शरण ली थी.

मुझे देखते ही भानुमति बेन मेरे गले लग कर फूटफूट कर रो पड़ीं. घर के मुखिया दिनकर भाई का शव बंगले के एक भारी मलबे के नीचे से मिला था. बड़ा बेटा कारोबार के सिलसिले में दिल्ली गया हुआ था. भूकंप का समाचार पा कर वह भी भागाभागा आ गया था. नलिनी का पति सुशांत गंभीर रूप से घायल हो कर सरकारी अस्पताल में भरती था. घर के बाकी सदस्य ठीकठाक थे.

सुशांत को देखने जब हम सरकारी अस्पताल पहुंचे तो वहां गंभीर रूप से घायल लोगों को देख कर कलेजा मुंह को आ गया. सुशांत आईसीयू में भरती था. बाहर बैंच पर संज्ञाशून्य नलिनी अपनी छोटी ननद के साथ बैठी हुई थी. नलिनी मुझे देखते ही आपा खो कर रोने लगी.

‘दीदी, क्या मेरी मांग का सिंदूर सलामत रहेगा? सुशांत के बचने की कोई उम्मीद नजर नहीं आती. काश, जो कुछ इन के साथ घटा है वह मेरे साथ घटा होता.’ कहते हुए नलिनी सुबक उठी. नलिनी के मातापिता और उस का भाई मायके से आए थे. दिमाग पर गहरी चोट लगने के कारण सुशांत कोमा में चला गया था. उस के दोनों हाथपैरों पर प्लास्टर चढ़ा हुआ था.

देखतेदेखते 2 महीने बीत गए, पर सुशांत की हालत में कोई सुधार नहीं आया, अलबत्ता नलिनी की काया दिन पर दिन चिंता के मारे जरूर कमजोर होती जा रही थी. उस के मांबाप और भाई भी उसे दिलासा दे कर चले गए थे.

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भानुमति बेन ने अपने वैधव्य को स्वीकार कर के हालात से समझौता कर लिया था. उन की पुरानी बड़ी हवेली की जगह अब एक साधारण सा मकान बनवाया जाने लगा. नीलिनी की दोनों जेठानियां अपनीअपनी गृहस्थी में मगन हो गईं.

एक दिन खबर मिली कि सुशांत का एक पैर घुटने से नीचे काट दिया गया, क्योंकि जख्मों का जहर पूरे शरीर में फैलने का खतरा था. मैं दौड़ीदौड़ी अस्पताल गई. आशा के विपरीत नलिनी का चेहरा शांत था. मुझे देखते ही वह बोली, ‘दीदी, पैर कट गया तो क्या हुआ, उन की जिंदगी तो बच गई न. अगर जहर पूरे शरीर में फैल जाता तो? मैं जीवन भर के लिए उन की बैसाखी बन जाऊंगी.’

मैं ने हामी भरते हुए उस के धैर्य की प्रशंसा की पर उस के ससुराल वालों को उस का धैर्य नागवार गुजरा.

उस की दोनों जेठानियां और ननदें आपस में एकदूसरे से बोल रही थीं, ‘देखो, पति का पैर कट गया तो भी कितनी सामान्य है, जैसे कुछ भी हुआ ही न हो. कितनी बेदर्द औरत है.’

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